Saturday, 13 August 2016

कविता अभी, बिल्कुल अभी...


किसी भी कालखंड की कविता अगर अपनी परम्परा से कुछ चीज़ों को साथ लेकर आगे बढ़ती है तो समय के साथ स्वयं अपने आप में अपना कुछ नया भी जोड़ती चलती है | इस प्रकार कविता अपनी कुछ प्रतिनिधि युगीन प्रवृत्तियों के आधार पर साहित्य में अपना स्थान बनाती है | इस लिहाज से देखा जाय तो वर्तमान कविता जिसे हम ‘समकालीन कविता’ कहते हैं, अपने तमाम उतार चढ़ावों के बावजूद लगातार आगे बढ़ रही है। इसके कथ्य, शिल्प और माध्यम को लेकर कई तरह की बहसें साहित्यजगत में होती आयी हैं, आगे भी होती रहेंगीं। इसकी वर्तमान दशा और दिशा को लेकर हमने कुछ प्रमुख युवा कवि-आलोचकों की राय जानी और सम्मिलित रूप में इसे एक परिचर्चा का रूप देकर हम अपने पाठकों के सम्मुख प्रस्तुत कर रहे हैं जिसे हम स्वयं, देखें, पढ़ें और हमारे समय की कविता के प्रति पूरी गंभीरता के साथ कुछ ठोस निष्कर्षों तक पहुँचने का प्रयास कर सकें। इस क्रम में प्रस्तुत है नयी सदी की कविता : दशा और दिशा विषय को लेकर इधर की कविता पर ‘स्पर्श’ के विशिष्ट आयोजन के अंतर्गत आयोजित परिचर्चा का पहला भाग:

1

मकालीन शब्द हमेशा से अस्पष्ट रहा है हम इस शब्द द्वारा कभी अपने समय की विशिष्टताओं को रेखांकित नहीं कर सकते हैं । वैसे भी कविता का कोई युग या समय की सीमा नहीं होती है भिन्न भिन्न उम्र और धाराओं के रचनाकार एक ही समय रचनात्मक रूप से सक्रिय रह सकते हैं और रहते भी हैं । इसलिए समय को कविता पहचान का मूलाधार बनाना बनाना अतार्किक व विभाजन की प्रक्रिया का अतिसरलीकरण है । तुलसी और केशवदास दोनो लगभग एक साथ रचनात्मक रूप से सक्रिय रहे | कहते हैं कि केशवदास की रामचन्द्रिका रामचरित मानस की लोकप्रियता को देखकर की गयी, केशव ने इसे एक रात में लिखा । फिर भी केशव और तुलसी में युग का अन्तर है । दर असल यह युग का अन्तर नही हैं यह धारा का अन्तर और काव्यगत रचनात्मक सरोकारों का अन्तर हैं । इसलिए समकालीन कविता की पहचान के लिए धारा और रचनाकारों की पीढी का अन्तर विशेष ध्यान देने योग्य है । आज विजेन्द्र और केदारनाथ सिंह भी लिख रहे हैं और बृजेश नीरज व भरत प्रसाद,  सन्तोष चतुर्वेदी भी लिख रहे हैं हम सब को समकाल नहीं कह सकते हैं भले ही विजेन्द्र लोकधर्मी है और भरत प्रसाद भी लोकधर्मी हैं लेकिन दोनो को एक युग मे रखना गलत है । विजेन्द्र का अपना समय सत्तर अस्सी का दशक था । तो भरत का समय वर्ष दो हजार से दो हजार दस का समय है । अस्सी के दशक और दो हजार दश के समय मे तीस वर्ष का अन्तराल है इतने बडे अन्तराल को एक साथ समेटना और उसे कविता की एक ही मौलिक चेतना संवेदना से जोडना कैसे उचित होगा ? मैं समकालीन कविता को समय के अन्दर प्रकाशित एक विशेष उम्र के रचनाकारों से लेता हूं इस प्रक्रिया में भी कम से कम दो पीढी के रचनाकार समाहित हो जाते हैं यदि आज की बात करे जिनके कविता संग्रह 2010 या इसके बाद आए और उनकी आयु पचास वर्ष के आसपास है तो सुशील कुमार, महेश पुनेठा, सन्तोष चतुर्वेदी, शम्भु यादव, बली सिंह, कुँअर रवीन्द्र, बुद्धिलाल पाल, नासिर अहमद सिकन्दर, घनश्याम त्रिपाठी, भरत प्रसाद जैसे कवि हैं जो कविता में अपनी उपस्थिति दर्ज कर चुके हैं दूसरी तरफ ऐसे कवि भी हैं जिनके कविता संग्रह भी छपे हैं नही भी छपे हैं लेकिन रचनात्मक रूप से अतिसक्रिय हैं अपनी जगह बनाने के लिए संघर्षरत हैं । ऐसे कवियों में अनिल कार्कि, प्रेमनन्दन, बृजेश नीरज, नरेन्द्र कुमार, तरुण निशान्त, ज्ञानप्रकाश, प्रद्युम्न कुमार, रश्मि भारद्वाज आदि हैं । ऐसी स्थिति में हम कविता की दशा और दिशा का मय खतरों के चिन्हीकरण कैसे कर सकते हैं जब पीढी तय नही उसने वैचारिक सरोकार तय नही तो कविता की दिशा कैसे तय होगी । यदि हम पहली कोटि के कवियों को आज का प्रतिनिधि लेखन मानें तो कविता की मौलिक चेतना वैचारिक परिपक्वता से युक्त बेचैनी और मोहभंग का स्वर ही तय होता है । इस पीढी के कवियों ने भूमंडलीकरण और अराजक पूँजी के खतरों से मुठभेड किया है और अपने समय मे व्यवस्था द्वारा ईजाद़ किए गये तमाम हिंसात्मक उपकरणों को भी चिन्हित किया है । दूसरी पीढी के कवियों मे यह मोहभंग आक्रोश का संवाहक बनता दिख रहा है आज की युवा कविता महज मोहभंग की अवस्थिति से सन्तुष्ट नही है वह बहुत जल्दी बदलाव चाहती है तमाम मुद्दों पर यथार्थवादी राय रखती है। स्थिति की जडताओं को तोडने की उद्दाम लालसा रखती है । जितनी जल्दबाजी आज की युवा पीढी मे देखी जा रहा है वैसी जल्दबाजी किसी भी युग मे नही देखी गयी यह जल्दबाजी परिवर्तन की है जडताओं के खिलाफ है इसे भाषा व कलात्मक सौन्दर्य से न जोडा जाए जहां तक कला का सवाल है वह दोनो पीढियों के लिए द्वितीयक है । कलावाद का वर्चस्व निरन्तर घटता रहा है । लेकिन आज भी कलावाद तमाम विखंडनों और अस्मिताओं के बहाने कृति की स्वतन्त्रता का नारा लगाते हुए उपस्थित है । जब हम काव्य परिपाटी की बात करते हैं तो इसमे व्याप्त तमाम अन्तर्विरोधों को छिपा लेते हैं यह गलत है । अन्तर्विरोधों को भी सामने आना चाहिए क्योंकी अन्तर्विरोधों को फालतू या गैर जरूरी समझने की भेंडचाल ने ही कविता चाल चरित्र और चेहरा बदला है ।
साठ के दशक से कविता में पूँजीवादी तत्वों का जबरदस्त प्रवेश हुआ । बडे अधिकारी, नौकरशाह, बडी बडी अकादमियों के अध्यक्ष, कुलपति, निदेशक और व्यापारी कारपोरेट जगत ने कविता मे सीधे हस्तक्षेप किया और तमाम सीकरी केन्द्रित लेखको कवियों मे खेमेबाजी गुटबाजी का फैशन चल पडा पुरस्कार और विश्वविद्यालय की मास्टरी के लालच ने इस प्रवृत्ति को बढाया इससे आलोचना और कविता दोनो का गलत प्रमाणन चल पडा जितने भी छद्म और अमौलिक लेखक कवि थे या जो जनपद और विचारधारा की ओट मे कलावाद के प्रबल हिमायती थे उन सबको इस अन्दरूनी साहित्यिक राजनीति ने मुख्यधारा कवि का बनाने की कोशिश की । चूँकि ऐसे गढो का और अकादमियों का केन्द्र दिल्ली था तो कवि होने के लिए दिल्ली की अनिवार्यता बढी सभी बडे समाचार पत्र और लगभग पत्रिकाएं भी दिल्ली से प्रकाशित होती रही देश के बडे विश्वविद्यालय भी दिल्ली मे रहे लेखक संगठनों के कार्यालय प्रकाशक भी दिल्ली मे रहे और इन सब के अन्दरूनी रिश्तों और अनैतिक गठबन्धनों ने दिल्ली से इतर लिखे गए साहित्य को नकारा और उसकी उपस्थिति पर एक भी बयान देने से बचते रहे। इसका प्रतिफल यह हुआ कविता मे मौलिकता का संकट खडा हो गया । खाए पिए अघाए तबकों की मध्यमवर्गीय अनुभूतियाँ और उनकी निजी जनविरोधी समझ कविता की मौलिक समझ बनकर स्थापित होने लगी । भाषा पेशेवर बनी और कवि एक व्यापारी बन गया । चुन चुन कर पुरस्कार बाटे गये परस्पर मुँहदेखी व्यवहार किया गया । इसका परिणाम हुआ कि बहुत सा लेखन जो श्रेष्ठ था वह चर्चा पाने रह गया और जनकवियों का भयानक संहार हुआ । मानबहादुर सिंह, हरीश भदानी, कुमारेन्द्र पारस, महेन्द्र भटनागर, श्री राम शलभ, शम्भू बादल  जैसे कवि जमात से बाहर के कवि बनकर रह गये और छद्म भाषा व संवेदना के घडियाली आँसू कविता के रूप मे स्थापित हो गये । यही हाल पत्रिकाओं का रहा बडी कारपोरेट पत्रिकाओं को छोड दीजिए वह कभी भी मौलिक व वैचारिक साहित्य को प्रकाशित नहीं कर सकती हैं। लेकिन लेखक संगठनों की पत्रिकाओं मे भी दिल्लीवाद प्रभावी है उनके लिए संगठन मे लेखक होने का मतलब दिल्लीवासी होना है । उनको लोक का स्मरण महज पत्रिकाओं के भेजने और बेंचने मे आता है । छापने के लिए अवैचारिक और जुगाडू छद्म ही उन्हे मिलते हैं । लेखक संगठनों की पत्रिकाओं पर प्रभावी भाई भतीजावाद और अभिजात्यवाद ने इन संगठनों की साहित्यिक राजनीति पर भी सवालिया निशान लगा दिया है । मैने कई पत्रिकाओं को लगातार देखा है 90% लेखक दिल्ली के रहते हैं । और 70% लेखक संगठन के बाहर के जुगाडू और अवसरवादी होते हैं। अन्दरूनी राजनीति और लोक के खिलाफ सक्रिय बुर्जुवा ताकतें पुरस्कार पत्रिकाएं कविता के लिए सबसे बडा संकट है । इस संकट को बनाए रखने मे विश्वविद्यालय के प्रोफेसरों और प्रकाशकों का बडा योगदान रहा । लेकिन अब समय बदल चुका है संचार संसाधनो के प्रचार और प्रसार ने दिल्ली की इस राजनीति को तोडा है । आज बहुत से केन्द्र विकसित हो रहे हैं बहुत सी लघु पत्रिकाएं इस जडता को तोडने के लिए लगातार काम कर रही हैं । आयोजनों के मामलों मे दिल्ली पिछड चुकी है छोटे छोटे शहरो मे भी बडे बडे आयोजन हो रहे हैं ई-कामर्स ने प्रकाशकों के वर्चस्व को भी तोडा है अब तो किसी भी छोटे प्रकाशक की किताब हो वह नेट से समूचे विश्व मे बिकती है। लखनऊ, बनारस, पटना, भोपाल, रायपुर, इलाहाबाद, बाँदा, अलीगढ, मुरादाबाद, चण्डीगढ, मुम्बई, जयपुर, बीकानेर, पिथौरागढ, शिमला, गोरखपुर, जैसे छोटे बडे आयोजन केन्द्र बन गये हैं जहां हर वर्ष दिल्ली की किसी भी अकादमी और पीठ से अधिक कार्यक्रम होते है । नयी पीढी के लेखकों और कवियों ने इस जडता और वर्चस्व को तोडने के लिए संघर्ष की भाषा सीख ली है । अब कोई भी दिल्ली के आलोचकों और पत्रिकाओं और पुरस्कारों का मुहताज नही है । यदि आगे कविता को बचाकर रखना है तो ऐसी प्रवृत्तियों का विरोध बेहद  जरूरी है । साहित्य जनधर्मी होता है लेकिन साहित्य की छद्म राजनीति में प्रभावी बुर्जुवा ताकतों ने इसमे भी शोषण और उपेक्षा की घृणास्पद अवस्थितियां उत्पन्न करने मे कोई कसर नही छोडी । लहक और जनपथ जैसी पत्रिकाएं लगातार इस प्रवृत्ति पर आक्रमण कर रही हैं और लोक के उपेक्षित साहित्यकारों को सामने ला रहीं हैं । दिल्ली से इतर पुरस्कार भी स्थापित हुए हैं इनमे से उन पुरस्कारों को छोडकर जिसकी चयन कमेटी मे दिल्ली के लोग हैं वो बढिया चल रहे हैं । क्योंकी जिस पुरस्कार कमेटी मे दिल्ली के नियन्त्रक हैं उन पुरस्करों को वो लोग दिल्ली ही भेज देते हैं यह नही देखते कि जिस कवि या लेखक को दिया जा रहा है वह उस परम्परा का है भी या नहीं ऐसे बहुत से लोकस्थापित पुरस्कार हैं जो बेहद गलत तरीके से बाँटे गये । अब युग बदला है तमाम दबे कुचले उपेक्षित तबके और परिक्षेत्रों का उभार हुआ है । आज का समय ही ऐसा है नयी नयी अस्मिताओं का उभार हो रहा है तमाम विमर्श बन रहे हैं तमाम अवधारणाएं और प्रतिरोध की नयी भंगिमाएं तैयार हो रही हैं परिवर्तन की इस आँधी को कोई रोक नही सकता क्योंकी कोई भी अब किसी मठ और गढ का मुहताज नही है । यदि इस दशक मे परिवर्तन की बयार चलती रही तो कविता सदियों से उपेक्षित हाशिए की आवाजों को लेकर मर खप रहे किसानों की भयावह स्थितियों को लेकर जरूर सामने आएगी और साहित्य पुनः अपनी मौलिक धारा को प्राप्त कर सकेगा जिसे पिछले कई दशकों से बुर्जुवा सत्तापोषित अभिजात्य लेखकों के समूह ने किडनैप कर रखा था । कविता मे इस साहित्यिक फासीवाद के टूटन का उपेक्षित दबी कुचली अस्मिताएं इतंजार कर रहीं हैं ।
-उमाशंकर सिंह परमार
युवा आलोचक

2

यी सदी की कविता के टैगलाइन के साथ यात्रा पत्रिका के दो अंक हाल ही में प्रकाश में आ चुके हैं । मैं यह महसूस करता रहा हूँ कि इधर नव-उदारवादी मुक्त बाजार व्यवस्था में समकालीन कविता पद अपर्याप्त सा प्रतीत होता है । निश्चित रूप से 1990-91 के बाद से लेकर 2015-16 के इस कालखण्ड का जो सामाजिक-आर्थिक स्वरूप बनता है वह कई अर्थों में अपने पूर्ववर्ती समय से न सिर्फ अलग मिजाज का है बल्कि अपेक्षाकृत अधिक जटिल है । वैश्वीकरण के अच्छे और बुरे प्रभावों को जीती और महसूस करती हुई जो पीढ़ी तैयार हुई और जिसने पिछले 15-20 वर्षों के भीतर अपने को कविता में स्थापित किया है उसका अनुभव जगत नया है। यह पीढ़ी  नब्बे के दशक में आई कविता पीढ़ी से अलग धरातल पर खड़ी है । इसका पर्याप्त अध्ययन और विश्लेषण अभी होना है । लेकिन जब तक ऐसा नहीं हो जाता और इस कविता पीढ़ी के लिए कोई सटीक और सर्वमान्य संज्ञा नहीं ढूँढ़ ली जाती हम नयी सदी की कविता से काम चला सकते हैं ।
किसी भी दौर की कविता की दशा और दिशा अपने आर्थिक-सामाजिक और राजनैतिक स्वरूप के बरक्स ही समझी जा सकती है । हम कह सकते हैं कि नयी सदी का यह दौर आर्थिक शोषण सहित सांप्रदायिक उभार का दौर रहा है । यह दौर अस्मिताओं के उभार का  भी रहा है जब दलित और स्त्री जैसे विमर्श केंद्र  में रहे । राजनीति में यह दौर क्षेत्रीय अस्मिताओं के उभार और दलितों के बीच से अस्तित्व में आते क्रीमी लेयर के ऊपर आने और आदिवासियों के जल-जंगल-जमीन से विस्थापन का दौर भी रहा । इन आधारभूत बातों पर गौर किए बगैर कविता पर मुकम्मल बात नहीं हो सकती ।
पहले दशा की बात कर लें । नयी सदी की कविता में भी हमेशा की तरह दो श्रेणियों की कविताएँ अस्तित्व में रहीं । एक तरफ छोटे बड़े पुरस्कारों से सजी वे कविताएँ हैं जिन्हें कतिपय प्रभावशाली साहित्यिकों का आशीर्वाद प्राप्त है । कुछ एक अपवाद को छोड़ कर इस श्रेणी में औसत कविताओं का महिमामण्डन किया जाता रहा और उन्हें विभिन्न पाठ्यक्रमों में लगाया जाता रहा है । दूसरी तरफ जीवन के ताप की वे कविताएँ हैं जो छोटी छोटी पत्रिकाओं और सोशल मिडिया के जरिए अपने पाठक वर्ग के बीच सराही और पसंद की जाती रही हैं । कहना न होगा कि उभय श्रेणी की ये कविताएँ सामान्य जन की बात करती हुई तो जरूर दिखती हैं पर सामान्य जन के बीच इन कविताओं की वैसी विश्वसनीय भूमिका नहीं बन पाई है । इसका एक कारण यह हो सकता है कि जन आन्दोलनों में इन कविताओं की कोई निर्णायक भूमिका नहीं बन पाई । यूँ तो व्यापक जन आंदोलन की जमीन उस ढंग से इस दौर में बन नहीं पाई है फिर भी प्रतिरोध के कई छोटे छोटे आंदोलन इस बीच कौंध की तरह देखे जाते रहे हैं । कविता प्रभावी रूप से मनुष्य की मुक्ति का मन्त्र बन पाने की स्थिति में नहीं है हालांकि उसकी आकांक्षा ऐसी बराबर रही आई है ।
कविता की दिशा के बारे में एक बात तय है कि वह वैचारिक रूप से वाम जनतांत्रिक प्रगतिशील मूल्यों के साथ और जन सरोकारों के पक्ष में हैं । यह लिगेसी इस दौर की कविता ने परम्परा से अर्जित की है । लेकिन इस तथ्य के बावजूद जमीनी हकीकत यह है कि राजनैतिक मोर्चे पर वाम वैचारिकी इसी दौर में अपनी जमीन खोती हुई लगातार अप्रासंगिक होती गई है । हम कह सकते हैं कि राजनैतिक मोर्चे पर हारे हुए मोर्चे की लड़ाई कविता के मोर्चे पर अब भी लड़ी जा रही है । इस बात का प्रमाण इस दौर की वे कविताएँ हैं जो स्वाभाविक रूप से मनुष्य की बेहतरी के लिए उसके साथ खड़ी हैं । एक और बात , इस दौर में वैचारिकी का छद्म भी कम नहीं है । कविता में इसे फॉर्मूले की तरह आजमाने वाले कवि अलग से पहचाने जा सकते हैं ।
प्रगतिशील जनवादी कविता के समानांतर इधर लोकधर्मी कविता को खड़ा करने की साहित्यिक कवायद भी कम दिलचस्प नहीं है । मैं इस तरह की कवायद को अप्रयोजनीय और अवांछित मानता हूँ और सिर्फ इतना कहना चाहता हूँ कि मनुष्य ही कविता के सरोकार का आधार है । उसके दुःख सुख, उसके जय पराजय, उसके संघर्ष ही कविता की चिंता के मूल विषय हैं और मनुष्य की मुक्ति ही कविता की स्वाभाविक आकांक्षा । कुल मिला कर नयी सदी की जो कविता है उसमें हर रंग और हर शेड्स की कविताएँ हैं । एक अच्छी बात यह हुई है कि इस दौर में बड़ी संख्या में कवियों की आमद हुई है । इसमें सोशल मीडिया की एक सकारात्मक भूमिका को अस्वीकार नहीं किया जा सकता । आस पास बहुत कुछ निराश करने वाला है लेकिन कविता में उम्मीद कर सकने लायक भी बहुत कुछ है ।
-नील कमल
कवि/ आलोचक

3
ई सदी की कविता : दशा और दिशा यह बहुत परम्परागत शीर्षक है पर बात शायद ऐसे ही पूछी भी जा सकती है। कई मसले हैं इसमें। नई सदी की कविता हम किसे कहें? उसे, जो नए लोगों द्वारा लिखी जा रही है या उसे, जो पिछले पन्द्रह-सोलह वर्षों में लिखी गई है? मैं दूसरे पक्ष की बात करूंगा क्योंकि कई नए लोग पुरानी कविता ही लिख रहे हैं और कई पुराने लोग बिलकुल नई कविता लिख रहे हैं। नई सदी के भारत में आदिवासियों के प्रति जो नृशंसता बरती जा रही है उसे ध्यान में रखते हुए विनोद कुमार शुक्ल एक कविता नहीं, कभी के बाद अभी नामक पूरा संग्रह ही पढ़ा जाना चाहिए। मैं नए के नाम पर सिर्फ़ बदले हुए लहज़े और भाषा को ध्यान में रखूं, मेरे लिए मुमकिन नहीं। वीरेन डंगवाल के दो संग्रह दुश्चक्र में स्रष्टा और स्याही ताल उठाएं तो पता चलता है कि नई सदी में कविता किस क़दर अपने समकाल और संकटों से मुख़ातिब है। लीलाधर जगूड़ी का संग्रह ‘ख़बर का मुंह विज्ञापन से ढंका है’ भी पढ़त रहा है।
मैं नए को नए संकटों के बरअक्स देखता हूं। वैश्वीकरण के नाम पर उलट-पुलट कर दी गई समूची दुनिया हमारे सामने है। उत्तराआधुनिक अकादमियों ने जिस बहुलतावाद, विखंडन और सामुदायिकता की वक़ालत की, उसके परिणाम नवसाम्राज्यवाद और धार्मिक कट्टरताओं के रूप में आज पहचाने जा रहे हैं। एक विचार ने दुनिया को एक कर देने की संकल्प लिया था, उसके बाद दूसरा उसे विखंडित(कृपया विखंडन को भाषा और पाठ तक ही सीमित करके न देखें) देखने का इरादा रखता है। खाड़ी युद्ध का सीधा प्रसारण हमारे लोग क्रिकेट या फुटबाल मैच की तरह देख ही चुके हैं यह समाज में रियल के बरअक्स हाइपररियल की स्थापना है। नई सदी में मनुष्यता के उत्थान की नहीं, हत्याओं के नवाचार ही ज़्यादा देखने में आ रहे हैं।
लेकिन हिंदी में कुछ नए कवि हैं जो इस जन्नत की हक़ीक़त पहचानते हैं। मैं उन्हें उम्मीद के साथ देखता हूं। वे नए संकटों के बीच फंसे अपने जीवन से जूझते हुए लिख रहे हैं। उनमें हिंदी कविता की प्रगतिशील परम्परा के लिए सम्मान के साथ-साथ वैचारिक परिपक्वता भी है। वे धर्म, समाज और समुदाय की पुरानी अधकचरी समझ से आगे कहीं एक मुक्त मनुष्य की तरह व्यवहार कर रहे हैं उनका यह व्यवहार समकालीन राजनीतिक मसलों और कविता, दोनों में दिख रहा है।
मैं नई सदी की कविता और उसकी सकारात्मक ऊर्जा के प्रति सम्मान का भाव रखता हूं। यह मेरी सक्रियता की सदी है। बकौल वीरेन डंगवाल एक कवि कर ही क्या सकता है / सही बने रहने की कोशिश के सिवा बिलकुल नए लोग यह कोशिश भरपूर कर रहे हैं।
-शिरीष कुमार मौर्य
कवि/ आलोचक

4
 यी सदी के पन्द्रह वर्षों की अवधि में रची गई हिन्दी कविता के बहुरंगी परिदृश्य को सामने रखकर आज की हिन्दी कविता की दशा और दिशा पर कुछ बातें कही जा सकती हैं। हमें दिखाई देता है कि नयी सदी में कविता का बाजार सिकुड़ रहा है। कवियों की भारी तादाद के बावजूद कविता की माँग घटी है, उसके पाठकों की संख्या घटी है, इसलिए उसका बाजार भी काफी सिकुड़ चुका है। आज कविता गद्य के इतनी पास पहुँच गई है कि उसे गद्य कविता’ (‘प्रोज पोएट्री’) का नाम दिया गया। ऐसी गद्य कविता में लय, गति और क्रम का ध्यान नहीं होता। कवि प्रायः गद्य में विचार प्रकट करता है। उसकी अभिव्यक्ति प्रायः उलझी हुई और अस्पष्ट हो जाती है।

      आज कविता में संवादधर्मिता प्रायः गायब होता जा रहा है और कविता कवि का स्वगत कथनतथा वक्तव्यबनती जा रही है। स्वगत कथन, वक्तव्य और विचाराक्रान्त होने के कारण कविता लोगों से कटती जा रही है और उसका जनसामान्य पर कोई असर नहीं दिखाई देता। अपने मध्यवर्गीय जीवन के तनाव, संघर्ष, द्वन्द्व के कारण सपाटबयानीपर उतारू कवि खूब बड़बोला हो चुका है। कवि स्थितियों को खूब चढ़ा-बढ़ाकर चित्रित करता है। मितकथनअब कवि का स्वभाव नहीं रहा। प्रतिरोध, प्रतिकार, अन्याय-विरोध और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर खास जोर देने वाला कवि खूब क्रान्तिकारी ढंग से बड़बोला हुआ है। उसकी अभिव्यक्ति और रचना में व्यक्त विचार प्रायः अस्पष्ट और दिशाहीन अभिव्यक्ति के रूप में सामने आते हैं। जटिल जीवन स्थितियों को खूब जानने-पहचानने का दम्भ में वह ज्ञान बघारने लगता है। लेकिन इस कारण आज की कविता में पोएटिक इनोसेंसका व्यापक क्षय हुआ है।

      आज की हिन्दी कविता में लोकरंगखूब चमक-दमक के रूप में सायास लाया जा रहा है। लेकिन वह लोकअनेक बार नकली, सजावटी, बनावटी और निरा छद्म के रूप में ही सामने आ रहा है। कविता में शब्दों, दृश्यों और परिवेश के नाम पर परोसा गया लोक अधिकांशतः समय की माँग तथा काव्यरीतिया मैनरिज़्मके रूप में सामने आ रहा है। लोक के वास्तविक अन्तर्विरोध, प्रतिरोध और जीवन संघर्ष तक पहुँचने के लिए लोकजीवन से जुड़ना आवश्यक है। लेकिन अधिकांश कवि मध्यवर्गीय हैं और शहरों में रहने के कारण लोकजीवन से कटे हुए हैं। आज की हिन्दी कविता आम आदमी से प्रायः कटी हुई है। अधिकांश कवि सुखी हैं और कविता में व्यक्त उनका दुःख व्यापक समाज का दुःख नहीं है। लेकिन आज की हिन्दी कविता में बड़ी संख्या में स्त्रियों, दलितों और आदिवासियों की उपस्थिति एक आशाजनक परिदृश्य उपस्थित कर रहा है। इनके कारण कविता में हाशिए का समाज प्रवेश पा रहा है और हाशिए के सवाल कविता में उठाये जा रहे हैं। जयप्रकाश कर्दम, मलखान सिंह, दिनेश कुशवाह, कात्यायनी, अनामिका, असंग घोष, अनुज लुगुन, निर्मला पुतुल, रेखा चमोली, ग्रेस कुजूर, महादेव टोप्पो, जसिंता केरकेट्टा, प्रीति मुरमु, सरिता बराईक जैसे महत्वपूर्ण काव्य प्रतिभाओं के माध्यम से स्त्री-दलित-आदिवासी जीवन की जीवंत उपस्थिति से आज की हिन्दी कविता का परिदृश्य अधिक समावेशी और जीवंत दिखाई देता है। आज के कविता विरोधी समय में मौजूद अनेक संकटों के बावजूद, कविता अब भी नये स्वप्नों और आशाओं के साथ गतिशील है।

-डा. अजीत प्रियदर्शी
युवा आलोचक

5
मय चाहे जितना बदल जाए; क्रूर और फेरबी हो जाए पर कविता के प्रति हमारा आदिम लगाव नहीं बदलता। यही कारण है कि आज भी उतनी ही बेतरतीबी से और उतनी ही प्रभूत मात्रा में, बल्कि पहले से ज्यादा कविताएँ लिखी-पढ़ी जा रही हैं। लेकिन यह समय कला और साहित्य के लिए घोर त्रासद समय है, इक्कीसवीं सदी की कविताओं के साथ सबसे बड़ा संकट कवियों-समालोचकों के विचलन और कविता-कवि के चरित्र का संकट है। इस विद्रूप समय में कविता को खराब करने का काम केवल रूपवादियों और सुविधाभोगियों ने ही नहीं किया है, बल्कि कई मार्क्सवादियों और लोकवादियों ने भी अपनी आलोचकीय मिथक और स्वार्थपरता के कारण उसकी अस्मिता-हरण करने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी-सभ्यता की संयत-नकली भाषा में। इसलिए अब कविता की दशा-दिशा मात्र उसके सौन्दर्य-शास्त्र और चिंतन से नहीं तय जा सकती ! इससे प्रबल चुक होने की सम्भावना बनती है। बदलते समय में पूँजी और उदारीकरण से ही हमारा सामना और विरोध नहीं, इनके विरोधियों के उस सियार-चाल से भी है जो मौका पाकर कभी भी अवसर भुनाने से नहीं चुकते और सामान्य कवियों को भी अपने कैरियर व यशोलाभ के लिए महान बनाकर प्रस्तुत करते हैं जिससे उनका पूरा कविता-समय ही सवालों के घेरे में आ जाता है। नयी सदी की कविता की दशा-दिशा का यह पाठ बहुत रुचिकर, किन्तु सचमुच कविता का बेहद कठिन और अत्यन्तं सचेत होकर चलने का समय है। पता नहीं आप मेरी बात से कितना इत्तेफ़ाक रखते हैं ! पर इसका सबसे टटका उदाहरण शुभमश्री की 'पोएट्री मैनेजमेंट' कविता को लब्धप्रतिष्ठित कवि (....!) के द्वारा 'भारतभूषण अग्रवाल पुरस्कार' से सम्मानित करने की घोषणा है।
      भाषा शब्दों से बनती है, इसलिए अज्ञेय जी ने कविता के गुण उनके काव्यभाषा के ही गुण बताए हैं। उसी प्रकार मानव-चरित्र सद्गुणों से बनता है। सभी जानते हैं कि श्रम करने की आदत, करुणा, प्रेम, दया, साहस, ईमानदारी, निष्ठा, विश्वास जैसे गुण चरित्र-निर्माण में सहायक होते हैं जिनका जीवन के अन्य कार्य-क्षेत्रों की तरह कला-साहित्य में भी बड़ा महत्व है पर पहली बार सुनने में शायद अटपटा -सा लगता है कि इन मानवीय गुणों से काव्य-अभिलक्षण का निर्धारण कैसे किया जा सकता है क्योंकि काव्यगत मूल्य और प्रतिमान तो यहाँ अलग से निर्धारित हैं ही। लेकिन भारतीय और बाहर की कविताओं की काव्य-विशेषताओं के मद्देनजर जब हम उनकी आलोचना में काव्येतर मूल्यों की चर्चा देखते है तो इस शंका का समाधान हो जाता है। मानवीय चारित्रिक अभिलक्षण की चर्चा जब कविता की आलोचना में की जाती है तो इनके गुणवत्त विशेषण-पद सामान्य से विशिष्ट होकर प्रस्तुत होते हैं। आप देखेंगे कि इन मानवीय गुणों में ज्यादा ज़ोर काव्यालोचना में “ईमानदारी और साहस”पर दिया गया है जिसका मूलार्थ यहाँ क्रमशः ऑनेस्टी और एडवेंचर न होकर सिन्सिएरिटी और करेज होता है। नामवर सिंह जी के इस विचार से हमें सहमत होना चाहिए कि ईमानदारी (सिन्सिएरिटी) का अभिप्राय साहित्येतिहास के विभिन्न कालों में भिन्न-भिन्न प्रकार से लिया गया है जैसे, छायावादी काल में ईमानदारी का अर्थ है आत्मानुभूति। छायावादोत्तर काल के इसे बदल कर नीयत कर दिया, प्रगतिशील साहित्य में ईमानदारी वर्ग चेतना में बदल गई जबकि जबकि प्रयोगधर्मी कविताओं के लिए प्रामाणिक अनुभूति को ही इसका पर्याय माना गया। सातवें दशक के बाद ईमानदारी का मतलब कवि के परिवेश के विसंगति-बोध और यथार्थ-बोध से हो गया। नामवर जी के ईमानदारी संबंधी उपर्युक्त कालगत वर्गीकरण से यह महसूस होता है कि जैसे-जैसे कालक्रमानुसार कविताओं की प्रवृत्तियां बदली, वैसे-वैसे कवियों की ईमानदारी के मानदंड भी बदल गए। साहस का अर्थ भी अब कविता में उस जोखिम से लिया जाता है जो रचना-प्रक्रिया के दौरान कवि अपने सृजन में उठाता है। ईमानदारी की महत्ता और जोखिम उठाने की बात समकालीन कविता में फिर से शिद्दत से महसुस की जाने लगी है। वस्तुतः ईमानदारी का अर्थ समकालीन कविता में कवि के उस सचेतनता-सावधानी से है जिसमें परिवेशगत आंतरिक यथार्थ की खोज कवि द्वारा अपने सृजन-प्रक्रिया में वस्तुपरकता से आत्मपरकता की ओर यात्रा करने में किया जाता है । इसमें उससे जो चुक होती है, वही कविता के उस अनुपात में असफल होने का कारण भी बनता है। इसलिए इन काव्येतर मूल्यों की प्रासंगिकता समकालीन कविता में आज भी बनी हुई है जिस पर गंभीर कवियों का ध्यान जरूर जाना चाहिए। जो कवि सृजन में ईमानदारी और साहस को ठीक से नहीं बरतते, उनकी कविता में वस्तुगत यथार्थ उस तरहआत्मगत नहीं हो पाता जिसकी पाठक अपेक्षा करते हैं, न ही बिना जोखिम के कवि अपने रचना-समय की जड़ता तोड़ पाता है।
      आज जो लोग लोकधर्मिता का आलाप करते हुए समकालीन बड़े कवियों और दूर-दराज के अचर्चित महत्वपूर्ण युवा कवियों की काट कर रहे, अपनी रचना में गाँव-गिराँव-जनपद के अंत:संघर्ष और जनता के नए सवेरा की वकालत कर रहे, द्वन्द्व और संघर्ष से अलगाकर सोची-समझी सुनियोजित प्रतिमानों से जनवादी रचनाधर्मिता पर प्रश्नचिन्ह लगा रहे, न्यूनाधिक वे लोकवादी भी अपने निजी जीवन में बुर्जुआ जीवन शैली को जीते हैं, कमोवेश विदेश-प्रवास भी करते हैं, बड़े शहरों में सुविधसम्पन्न होकर रहते हैं जहाँ उनके निजी जीवन में द्वन्द्व और आत्मसंघर्ष से दूर-दूर तक कोई वास्ता नही , फिर उनको कहाँ कोई नैतिक हक बनता है कि वे कविता के प्रतिमान के अंदर थोथी और सफेद बात करें। अगर साहित्य का सम्बन्ध केवल जीवन-दृष्टि के आदर्श से है, जीवन के उस आंतरिक स्वभुक्त यथार्थ से नहीं जिसे कवि ने भी जिया हो तो फिर ऐसे दमघोटू साहित्य को मैं दूर से ही प्रणाम करना चाहता हूं । इसीलिए सच्चे साहित्य में ईमानदारी और साहसजो कि काव्येतर मूल्य हैं उनकी प्रासंगिकता बनी हुई है और वह कवि के छद्म आवरण के भीतर प्रवेश करने का प्रतिमान भी है जिसे किसी न किसी तरह हर काल के साहित्य में परिभाषित किया गया और उसे जरूरी भी माना गया। यह आज की कविता के चरित्र-संकट से उबरने की सर्वप्रमुख और प्राथमिक कसौटी मानी जानी चाहिए। इसीलिए मैं यह मानने को बाध्य हूँ कि साठोत्तरी कवियों में सर्वाधिक प्रमुख कवि सुदामा पाण्डेय धूमिल हुए जो अपने ईमानदारी और साहस से भाषा के जंगल में कविता के वर्जित प्रदेशों की खोज करते हुए अपने प्राणांत तक मानवीय सरोकार के कवि बने रहे । उनकी जोड़ का फ़िर दूसरा कवि अब तक हिंदी ने नहीं जना। उनकी काव्य-शैली के ईमानदारी, साहस और नैतिकता की छाप एक पूरे समय की कविता पर है। अपनी अलग शैली बनाने वाले ऐसे कवि इतिहास में बहुत थोड़े ही हैं जिन्हें एक पूरी पीढी़ अपनी अभिव्यक्ति के लिए अनिवार्य समझती हो । शुद्ध कविता के विरोध में अपना एक खास मुहावरा विकसित कर उन्होंने हिंदी-कविता को अपने शब्द दिये । काव्यभाषा की प्रचलित अवधारणा को तोड़कर नये प्रतिमान स्थापित करने के लिए जिस अपरिमित साहस और नये काव्यविवेक की जरुरत होती है, उसका निश्चित प्रमाण धूमिल की कविताएं देती हैं। आज इक्कीसवी सदी में इससे सीख लेने की बहुत जरूरत महसूस की जा रही है क्योंकि कवियों-समालोचकों के कुत्सित चरित्र और विचलन ने आज की आलोच्य-कविता को कठघरे में खड़ा कर दिया है। बिना इस विचारणा के समकालीन कविता की सही फलसिद्धि हाथ नहीं लगेगी चाहे हम कविता में कितनी ही अच्छी-अच्छी तोतरटंत बातें यथा, डायलेक्टिक मेटरियालिज़्म’, वर्ग-संघर्ष और श्रम-सौन्दर्य, मार्क्सवादी कला-चिंतन’, लोकधर्मिता’, जनवाद आदि की वकालत क्यों न कर लें । उदाहरण के तौर पर, अगर ईमानदार सर्वे किया जाए तो आपको अकेले दिल्ली के नब्बे प्रतिशत से अधिक लेखक-कवि-संपादक दारूबाज और सुविधापरस्त मिलेंगे जो स्व-अर्थ के लिए रोज कवि बनाते और बिगाड़ते हैं।इनका खान-पान उतना गलत नहीं जितना इससे उपजे इनके प्रायोजित कर्म गलत हैं, इस कारण ये आज तक एक भी अच्छे कवि पैदा नहीं कर सके, यह बात हमें यह मजबूरन खोलनी पड़ती है। लेखक अगर अपना जीवन अपनी लेखनी से अलग जीता है तो फिर उसके लेखन को डस्टबिन में फेंक देना चाहिए चाहे उसका लेखन उसके लिए कितना ही महत्वपूर्ण क्यों न हो ! समालोचना में भी समालोचक का अपना व्यक्तित्व और चरित्र उतना ही मोल रखता है। अगर सिद्ध भाषा में कहें तो उसके लेखनी की कीमत का निर्धारण उसकी प्रतिबद्धता से होता है, यहाँ प्रतिबद्धता केवल लेखक का विचार नहीं..उसका जीवन-व्यवहार भी है। जिस दिन पाठक के मगज़ में यह बात पैठ गई कि कविता को कवि के जीवन-व्यवहार और उसके चरित्र से जोड़कर देखना और मूल्यांकन करना है, उस दिन से समकालीन कविता में कवियों की भीड़ भी खत्म होने लगेगी। आज की कविता की दशा-दिशा तय करने में यह काव्येतर मानदंड सर्वाधिक महत्वपूर्ण भूमिका अदा कर सकती है, ऐसी मेरी व्यक्तिगत समझ है। वैसे साहित्य में भी अन्य कला-क्षेत्रों और विषयों की तरह बेगैरतों की कमी नहीं, जिनके दो मुंह हैं खाने के और, बोलने के और।
-सुशील कुमार
कवि/ आलोचक

6
मुझे लगता है कि निम्न दो बिंदुओ के इर्द-गिर्द आज की कविता की दशा और दिशा तलाशी जा सकती है - पहला सवाल कि आज की कविता का प्रतिनिधि स्वर क्या है दूसरा सवाल कि आज की कविता किसे सम्बोधित  है हमारे समाज के बुद्धिजीवी समुदाय में हास्यबोध प्रकट करते के लिए ही सही एक बतकही बहुत प्रसिद्ध है कि आज कवियों की भरमार है । इसके ठीक उलट यह भी कह सकते हैं  कि आज संवेदना की सबसे अधिक दरकार है। प्रचार प्रमुखता के जमाने में क्या यह माना जाय  कि सम्वेदना से भरापूरा हमारा समाज सुखी-सम्पन्न है ? वस्तुत: ऐसा है नहीं है । इंसानी गरिमा का क्षरण हम आज के दौर में देखते हैं उतना विगतकाल में नहीं ही था । तमाम किसिम के छल-छद्म, लूट-अनाचार और मानवीय विश्वास के पतन के मलबे पर हमारी आज की पीढ़ी खडी है । हमसे पहले की पीढ़ी ने अपने सामने टूटते परिवारों, और वैचारिक आस्थाओं के किलों को ढहते देखा था लेकिन उससे पहले बिखरे हालात में ही सही, शर्म हया के रुप में ही सही पुराने रिश्तों की गन्ध और अभी हाल ही छूटा हुआ अतीत से नाउम्मीदी नहीं टूटी थी ।  इसीलिए वह अपनी पुरानी जमीन पर खड़े होकर ही सही नये बाजार वादी मूल्यों की निस्सारता प्रकट कर रहे थे । केदारनाथ सिंह क्या यूँही कह रहे थे- जहाँ लिखा है प्यार/ वहाँ लिख दो सड़क/ हमारे जमाने का नारा/ फर्क नहीं पडता।
लेकिन आज "सिगरेट होता हुआ प्रेम" शौक या फैशन की प्रक्रिया से गुजरते हुआ  चुपचाप सुलगता है ।" वहीं साथ ही आज का कवि इन्ही मानवीय मूल्यों की बेवजह तरफ़दारी   नहीं इनकी वास्तविकता साफ साफ लफ्जों में दर्ज करता है इसकी बेकदरी का या तिजारत का    रोना भी नही रोता । क्योंकि उसके निकट अतीत में कोई वैभवशाली दौर नहीं, टूटे बिखरे मूल्यों का ध्वंसावशेष रहा है । इसलिए विगत के खोने का उसके लिए कोई विशेष मायने नहीं रहता  बल्कि इनकी आज के समय में वास्तविक जमीन क्या है ? इसे अनदेखा नहीं कर पाता । इस पर वह ज्यादा भाव विगलित इसलिये भी नहीं हो पाता क्योंकि वह देखता है कि हमारे समय में मोहक मुस्कान, आत्मीयता आदि आदिम गुण बदले समय में अपनो का शिकार बनाती रणनीति का हिस्सा बन गयी है ।
सामाजिक ताने बाने में नई तकनीकी की घुसपैठ ने संवेदना के स्वाभाविक सहज स्वरुप की चूले हिला दी हैं । उसके सामने न तो पीछे जा पाने का कोई सार्थक विकल्प बचा दिखा  आगे राह नहीं सूझ नहीं रही । हमारे समय की यह असमंजस भरी कई और रुपों में हमारे  समय की कविता दर्ज करती मिलती है ।
इस समय की कविता में एक तो बच्चे, बूढ़े, विधवा, समाज में पारिवारिक तौर पर लगभग काम चलाऊ संवेदना पाते जन है । कवि अपने सामने घट रहे भयावह रिश्तों के पतन को जिस वेगमयता से गिनाता है उतनी गहरी आत्मीयता से किसी भी दिशा में न बढ़ पाना उसकी सतही ममत्व का लक्षण भी दिख जाता है । यानि आज की कविता में आत्मसंघर्ष का अपने आप को सवालों के घेरे में खड़ा करने का पहलू कम दीखता  है । कभी-कभी बूढ़े-बुजुर्ग या समाज की उपेक्षा झेलते जन के प्रति संवेदनापूर्ण वर्णन मिल जाते हैं । यहाँ उस वस्तु या व्यक्ति की स्थितियों से दो-चार होने के वाक्यात तो घटते मिलते हैं लेकिन इन स्थितियों की कारक शक्तियों या अपने आप से सवाल जबाब करती भंगिमा का अभाव मिलता है । मुझे यह भी  इस समय की सीमा दीखती है । अभी हमारी संवेदना इस सवाल की वास्तविक जमीन को स्पर्श कर पाने में अपने आपको असमर्थ पा रही है ।
हम यह भी कह सकते हैं कि इस समय की कविता में सवाल तो है लेकिन इस सूचीभेद्य घनांधकार में समस्याओं के समुंदर में गतिमान उम्मीद के मस्तूल के सहारे वह पूरे जोश से आगे बढ़ता दिखता है लेकिन दिशासूचक "दखमा" का अभाव बार-बार खलता है। यह आंतरिक अकुलाहट अभी उद्देलनकारी भूमिका में नहीं है । बल्कि मस्तिष्क की सतह को छूकर गुजर जाती है हमारी रुह को छूते छूते ठहर जाती  है ।
आज का कवि साम्राज्यवादी-पूंजीवादी लूट और वैश्विक पूंजी के वर्चस्व काल का कवि है। वह अपने परम्परागत उत्पादन तंत्र से विरत एक नये सामाजिक तंत्र में है जहाँ उसकी भूमिका महजकर्ता की नहीं, बल्कि उपभोक्ता की है । इसी समय हम कुछ ऐसे कवियो को भी देख रहे हैं जो अपने समय को कला के चश्मे से ऐसा देखते हैं मानों उन आँखो में महज काव्य सौंदर्य   दीख पड़ता है वे अपने समय की ध्वनि सुनते हैं या अखबारी कतरनों से तथ्य संग्रह करके अपने समय की "समकालीनता" प्रकट करते हैं |
उनकी नजर में लिख-लिख कर दर्ज करना और असहाय होकर आत्महत्या तक कर लेने पर इस व्यवस्था के कान पर जूँ नहीं रेंगती । लेकिन कविता में ध्वनि जिस कलात्मक ढंग  और लापरवाह लहजे में कवि प्रकट कर रहा है वह भी ध्यान देने लायक है । क्योंकि आज की काव्य संवेदना की यह भी एक ध्वनि है । जहाँ लम्बे लम्बे जटिल गद्य में अपने बौद्धिक तेवर को तो प्रकट किया गया है लेकिन यहां संवेदित होने की बजाय संवेदना का क्षरण ही उलटकर फेंक रहा है ।
जबकि आज तमाम कई युवा कवियों ने प्रतिरोध की नयी भाषा इजाद की है । जिसमें गहन प्रतिकार है तो अपनी परम्परा से आत्मसात किये गये सकारात्मक आवेग अपनी गहनता  में धीरे-धीरे अपने अभिधार्थ और व्यंगयार्थ गोपन को परत दर परत अगोपन करती मिलती है । हम देखते हैं आज का कवि अपने समय के सवालों को उठा रहा है । वहीं उसकी कविता से व्यापक मेहनतकश अवाम की वास्तविक तसवीर और उस मोर्चे  की चुनौती गायब है । अगर है भी तो मध्यवर्गीय उदारता की रोशनी में उनकी चिन्ताओ को प्रकट किया गया है । वह भी  बाह्यवर्णन के तौर पर । यह इस दौर की कविता की एक सीमा  बन जाती है ।  वहीं  प्रकृति  और जीवन के अन्तर्सम्बन्धो का 'औपचारिक' बयान भी कम ही है, 'अनौपचारिक' की क्या कहें !  अगर कहीं है भी तो उसका एक उपयोगी रूपक बनकर । स्वतंत्र स्वरुप लिए कविताओं में प्रकृति  की आवाजाही करते छवि चित्र विरल होते जा रहे हैं । यह कम सोचनीय परिघटना नहीं है कि हमारे बौद्धिक और भावानात्मक परिक्षेत्र में जहाँ देश-देशांतर तक की परिघटना जगह पाती हैं वहीं अपने आसपास की प्रकृति से संवाद कम से कमतर जगह घेर पा रही हैं। क्या यह हमारी संकुचित मनोवृति का उदाहरण नहीं है ?
अगर हम जाने माने कथाकार औ आलोचक अरुणप्रकाश के शब्दों में कहें तो ये कवि "जीवन की वास्तविकताओ से प्रयाण न कर ज्ञानात्मक निष्कर्षो से वे कविता में उतरते हैं ।" यानि आज का कवि बौद्धिक संपदा सम्पन्न है, तथ्यों की भरमार है, आत्मविश्वास की अतिशयता  इतनी है कि वह सुनता कम है बोलता ज्यादा है । एक पंक्ति में कहें तो आज की कविता अपने समय की ध्वनि आँख से देखकर ज्यादा प्रकट करता है , सुनना नही चाहता। यही इसकी सीमा और अकुलाहट का बायस बन जा रही है । अपनी प्रचारप्रियता आत्माकांक्षा उसे खण्डित व्यक्तित्व की कविता का कवि बना डालती है।
कविता अपने समय की जबाबदेही होती है। जब आप कहते हैं कि यह मेरे समय की वास्तविक जबाबदेही नहीं कर रही है तब यह भी आपको देखना होगा कि आपका अपने समय से वास्तविक आशय क्या है। क्योंकि एक समय में कई धारायें-अन्तर्धारायें एक दूसरे में गुंथी बुनी गतिमान मिलती हैं ।  मौजूदा लाभ प्रचार केन्द्रित तंत्र में जब  भावनाओं, संवेदनाओं का मुद्रा करण किया जाता है । जब एक पहचान के पीछे की तमाम एक पहचाने छुपी मिलती हैं । ऐसे  सामाजिक तंत्र की मानवीय अभिव्यक्ति भी अपने बुनियादी आत्मिक स्वरुप लेकर ही जनमेगी । आपकी पसंदगी और नापसंदगी से न तो रचनाएं जनमती हैं न ही उनकी बुनियादी जमीन  मिटने जारही है । इस तंत्र से ही लाभ लोभ से पली बढी या इससे ऊबी हुई परेशान हाल तबके से रचनाकारों की संवेदनात्मक मनोभूमि अलग होना और उन्हें अपनी ज़िन्दगी की भाषा में प्रकट करना उनकी आत्मिक जरुरत है । यहाँ  पुरानी भाषा भी टूटती और जडीभूत सौन्दर्य बोध भी टूटता है बिखरता है । हमारी काव्य संवेदना या तो अपनी जमीन को इतना कसकर पकड़  बैठा है कि इससे इतर सोचना हम गुनाह समझते हैं । या अपनी संवेदना के मूल सृोत को महज शाब्दिक अर्थों में पहचान पारहे हैं । आखिर क्या कारण है कि इस समाज की करीब चालीस करोड़ आबादी जो खेत मजदूरी करने से लेकर फैक्ट्री कारखानों में खटती है उसके ज़िन्दगी में आयी तब्दीलियों को हम कितना अपनी कविता में दर्ज कर पा रहे हैं। एक आदर्शवादी उम्मीद  की ईमानदार अभिव्यक्ति से ही अपने जन की सेवा नहीं होने जा रही बल्कि उनकी दैनंदिन जिंदगी और काम के तरीके बदलने के बाद उनके संघर्ष के नये  क्षितिज कहाँ से फूट रहे हैं । उनके बीच पुराने किसिम से लकीर की फ़कीरी करने वाले किसी स्थापित मठ के बाबा ही नहीं  शासनसत्ता के निचले सतर के सहयोगी  बन जा रहे हैं । ऐसे में उनको संगठित और उद्वेलित करने का नया तरीका क्या होगा यह महज किन्ही राजनीतिक पार्टी का काम नहीं बल्कि  समाज के सबसे संवेदनशील कहे जाने लोगों यानि साहित्यिक जमात की समझदारी और पक्षधरता की परीक्षा का काल है । यानि इन बदलावों को जितना नजदीकी से एक संवेदनशील  मनुष्य महसूस करेगा उतनी ही नजदीकी से उसके काव्यगत संवेदना और भाषा और शिल्प में परिवर्तन लक्षित किया जा सकेगा ।
यह न तो आज की समग्र काव्यधाराओं का मूल्यांकन है न ही यह कर पाना इतना सहज है। यहाँ आज की काव्य संवेदना और उनकी सीमाओं का मोटा मोटी टटोलने की कोशिश  की गयी है। अभी आज की काव्य भाषा का सवाल, शिल्प में हो रहे नये प्रयोग किस प्रकार पिछले बरसों बरस की काव्य रुचियों को उलट पुलट कर ने तक आगे आने को उत्सुक है । इनकी भी जमीन मौजूदा  सामाजिक-सांस्कृतिक जमीन से ज़्यादा उनके आत्मिक आकार का आयतन तय करने वाली नयी  आर्थिक संरचना  की  कोख  से ही जनमती है । आदि आदि तमाम एक सवाल हैं जिन पर  अन्तिम तौर पर बात करने  की बजाय उसकी प्रक्रिया पर निगाह टिकाने की जरुरत है ।
  इस सब बावजूद कविता जीवन से गहरी जुड़ी होती है और उम्मीद बंधाती है ।
-आशीष सिंह
कवि/ आलोचक


7

मारे समय में पाँच पीढ़ियाँ रचनारत हैं। इसका मतलब यह है, कि कम-अज-कम कविता में पाँच समय और पाँच तरह के बोध सक्रिय हैं। या फिर इस तरह कह लें, कि हिन्दी के वर्तमान कवि पाँच तरह के भाव-बोध का प्रतिनिधित्त्व करते हैं। केदारनाथ सिंह और कुँवर नारायण हिन्दी कविता के पुरखे हैं, जो सबसे पुरानी पीढ़ी का प्रतिनिधित्त्व करते हैं। आलोक धन्वा, लीलाधर जगूड़ी, ऋतुराज, चन्द्रकान्त देवताले दूसरी पीढ़ी के कवि हैं। जो अकविता, नक्सल कविता या विचार कविता से निकले। जिनका भाव-बोध स्वातंत्र्योत्तर भारत के सबसे गरम और सबसे लाल दिनों में निर्मित हुआ। इन कवियों की दुनिया बहुत स्पष्ट और सपाट है। वे कभी इस देश-काल से बाहर नहीं निकल पाये। या फ़िर निकले तो सर्जनात्मक नहीं रह पाये। अगली पीढ़ी जिसे समकालीन कविता या कविता का आठवाँ दशक कहते हैं, इस पिछली पीढ़ी से संघर्ष करते हुए आयी। इस पीढ़ी ने पिछले कवियों की दुनिया के सपाट बोध का विरोध करते हुए संवेदनात्मक सूक्ष्मता का परिचय दिया। कविता को एक मानवीय भूमि दिया। समकालीन कवियों ने कविता को जीवन की जमीन दी और भाषा को ज़्यादा महीन बनाया। पर ये कवि एक तरह के रूमान और फैटिस के शिकार हुए। यह इस पीढ़ी के अधिकतर कवियों के यहाँ है। उनके यहाँ आरंभिक जीवन की स्मृतियाँ हैं और उन स्मृतियों के मूल जमीन से छूट जाने का हल्का सा टीस। आप मंगलेश डबराल के यहाँ देखें, आपको पहाड़ की स्मृतियाँ मिलेंगी, उसका ठहराव, वहाँ का हल्का रूमान लिए हुए रुकापन मिलेगा। वे जब पहाड़ की स्मृतियाँ छोड़कर हमारे समय में उतरते हैं तो कविता उनका साथ तज जाती है और वे वक्तव्य देने लगते हैं। आप उनका अनंतिम संग्रह हमारे समय में शत्रुदेख सकते हैं। ठीक यही असद जैदी के साथ हुआ है। उनके पहले-दूसरे संग्रह में, जहाँ राजस्थान की ठेठ स्मृतियाँ साथ हैं, उनकी कविताओं का कोई जोड़ नहीं है। बहनें, दुर्गा टाकीज़, आयरा के लिए, क्लासिक कविताएं हैं। परन्तु तीसरा संग्रह उतना ही ख़राब है। इस संग्रह में मंगलेश डबराल वाली बीमारी उन्हें भी है। इस पीढ़ी के कवियों में विस्थापन का बोध दिखता है। पर यह विस्थापन गाँव से शहर आने का है और बहुत सामान्य है। अब विस्थापन का स्वरूप उलट गया है। हम अपने घर में बैठे हुए विस्थापित हैं। पहले विस्थापन एक सांस्कृतिक-पारिस्थितिक संदर्भ से दूसरे सांस्कृतिक-पारिस्थितिक सन्दर्भ में स्थानांतरण था। आज व्यक्ति स्थिर और अनिवार्य सन्दर्भ इतनी तेजी से बदल दिया गया है कि वह भौचक है। वह उलझ गया है विस्थापन कि पुरानी परिभाषाएँ उसे नाकाफ़ी लग रही हैं।
            एक और चीज़ पर ध्यान दिया जाना चाहिए। केदारनाथ सिंह, कुँवर नारायण और अशोक वाजपेयी इस पीढ़ी के साथ ही चर्चा में आये। समझना यह है कि 80 में जब अशोक वाजपेयी कविता के लौटने की बात कह रहे थे तो उसका मतलब क्या था? वे क्या कहना चाह रहे थे, क्या उसके पहले अकविता, नक्सल कविता के कवि कविताएं नहीं लिख रहे थे? अगर लिख रहे थे तो फिर कविता के लौटने का क्या मानी हुआ ? जब आप इस तरह सोचेंगे तो निकलेगा कि वह कविता में राजनीति, विचार, अपने समय और आवेग का विरोध था। जो अशोक वाजपेयी के रूमान, केदारनाथ सिंह के मासूम लोक और कुँवर नारायण के भाववादी दार्शनिकता के लिए व्यवधान था। आठवें दशक के कवियों ने अशोक वाजपेयी के तर्कों को अपनाया।
            इसके बाद की कविता, जिसे 9वें दशक की कविता या आजकल लॉन्ग नाइंटीज़ कहा जा रहा है, इसी का अगली कड़ी है। इस पीढ़ी ने अपने से पिछली पीढ़ी को मूल्यांकित करने और उससे आगे बढने का कोई सचेत प्रयास नहीं किया। इसके बारे में हल्ला-गुल्ला 2010 के बाद शुरू हुआ। इस हल्ले-गुल्ले में कविता के भीतर से कोई तर्क नहीं दिया गया। दिया ही नहीं जा सकता था कारण कि इन तमाम कवियों पर पिछली पीढ़ी का बहुत प्रभाव है। कुमार अंबुज और कई कवियों ने तो इसे बकायदा स्वीकार किया है। इस समय के कवि बाहर से तर्क जुटाते हैं। और अपने समय के प्रस्थान को सोवियत संघ के पतन, उदारीकरण/वैश्वीकरण  और बाबरी मस्जिद विध्वंस से जोड़ते हैं। पहला तो यह, कि इस पीढ़ी के अधिकांश कवि 1990 के पहले से लिखते आ रहे हैं। इनमें से कुछ कवियों को इससे पहले भारत भूषण सम्मान मिल चुका था और कुछ एक के संग्रह भी आ चुके थे। देवीप्रसाद मिश्र, कुमार अंबुज, संजय चतुर्वेदी, अष्टभुजा शुक्ल इन तीनों घटनाओं के पहले से लिखते आ रहे हैं। दूसरे इन घटनाओं का प्रभाव अगर इनकी कविताओं पर पड़ा भी हो तो वह 5-7 वर्ष बाद शुरू हुआ होगा न कि 1990 से। यह तर्क मिथ्या है। इस पीढ़ी के कवियों ने खुद का रास्ता खोजने का कोई प्रयास नहीं किया। यह हिन्दी कविता के 20-30 वर्ष का समय करीब-करीब ठहरा हुआ स्थिर काल है। यह कैसे हुआ, क्या समाज स्थिर था, क्या राजनीतिक परिस्थितियाँ इतनी निश्चित और ठहरी हुई थीं? जाहिर सी बात है कि ऐसा नहीं था। इस बीच साहित्य के अन्य विधाओं में कविता की अपेक्षा ज़्यादा गहमा-गहमी रही। परन्तु कविता तक़रीबन स्थिर रही। और अगर कविता की जड़ता को थोड़ा बहुत झटका लगा तो वह दलितों और स्त्रियों से। दलितों और स्त्रियों ने इस ठहराव को तोड़ा। हालाँकि अभी इसका मूल्याँकन होना बाक़ी है। पर जब होगा तो पता चलेगा कि सवर्ण मर्द कितने अनुकूलित थे।
            9वें दशक के कवियों में लोक के प्रति एक ख़ास तरह का आग्रह है। परन्तु यह लोक का छायाभास है, एक फिनिश्ड़ माल, जिससे सत्ता या बाज़ार किसी को असुविधा नहीं। यह न तो सामंतवाद का विरोध रच पाता है और न ही बजारवाद पर चोट कर पाता है। यहाँ गाँव अपने सार से रहित एक मार्केट फ्रेंडलीबिकाऊ माल है। इन्हें गाँव चाहिए, इन्हें लोक चाहिए पर उनके अंतर्विरोध और उनका क्रांतिकारी सार नहीं चाहिए। गहरे अर्थों में यह पिछली शताब्दी के अन्तिम दशकों में जगह बना रहे दलित और स्त्री अस्मिता की प्रतिक्रिया में स्थानीय सत्ता-संरचना का नया उभार है। मुझे ठीक-ठीक पता नहीं, कि इस लोक के प्रति मोह रखने वालों में कितने दलित और कितनी स्त्रियाँ हैं! अगर नहीं हैं तो इसके कारणों का पता लगाना होगा। कविताओं में जो चित्र गाँव या किसानी के आते भी हैं वे बड़े रोमांटिक क़िस्म के हैं। जैसे कोई शहरी मध्यवर्गी दूर से बैठ कर अपने गाँव को देख रह हो या फ़िर बीस-पचास वर्ष पूर्व के, स्मृतियों में बसे, गाँव को रच रहा हो। इस तरह की कविताओं में एक तरह का अनुचिंतन होता है जो बहुत कुछ प्रगीतात्मक संरचना बनाता है। इस प्रक्रिया मंर गाँव बहुत संवेदनशील, कोमल, अच्छाइयों का आगार बन कर उपस्थित होता है। इससे पता ही नहीं चलता कि पिछले बीस-पाचीस सालों में उदारीकरण एवं बाज़ारीकरण का गाँवों पर क्या प्रभाव पड़ा। कहने का अर्थ यह है कि 9वें दशक वाली पीढ़ी नें भी कोई बड़ा डिपार्चर नहीं दिया। इस पीढ़ी में अष्टभुजा शुक्ल आदि कुछ कवि हैं जिन्हें इस सामान्यीकरण से अलग रखना होगा।  
            पिछली पीढ़ी के कवि नई सदी के कवि हैं परन्तु ज़रूरी नहीं कि उनकी कविताएं भी इस सदी की कविताएं हों। इनका बोध बीसवीं सदी का, 19वीं सदी का या मध्यकालीन हो सकता है। तो अपनी पिछली शताब्दियों में जीने वाले कवियों को हम 21वीं सदी का कवि नहीं कह सकते। नई सदी की कविता का मतलब हुआ इस सदी में लिखी जा रही कविता। और सदी की नयी कविता का मायने है- इस सदी का प्रतिनिधित्व करने वाली कविता। इस समय के बोध और हमारे जीवन की कश्मकश को रचने वाली कविता। तो हमारे इस शीर्षक के अंतर्गत इन पाँच तरह के भाव-बोध और पाँच समयों पर बात नहीं होगी। इसके अंतर्गत उन कविताओं पर बात होगी जिनमें हमारा समय है, हमारा अपना जीवन है।
            गणेश पाण्डेय के सम्पादन में निकलने वाली यात्रा पत्रिका का शीर्षक है- नयी सदी की कविता। और उसमें हर तरह के कवियों का एक घमंचा तैयार किया गया है। ज़ाहिर है कि इसमें कवियों को शामिल करने का कोई प्रतिमान नहीं है, यह कवि और संपादक के संबंध की फलश्रुति है। सदी की नयी कविताशीर्षक में एक प्रतिमान है। यह शीर्षक उन्हीं कवियों को शामिल करेगा जो 2000 के बाद आए हैं, जो हमारी बात कहते हैं और जो अनजान दिशाओं की तरफ़ जाने का साहस रखते हैं।
            इस सदी में आने वाले कवियों में भी दो तरह की कविताएं लिखी जा रही हैं। पहली तो रूमानी कविताएं हैं। इन कविताओं में लोक और दुनिया के साथ संबंध और कलात्मक व्यवहार वही पुराना वाला है। वे चली आ रही संवेदना के स्वरूप और बोध को मज़बूत करते हैं। इन कविताओं की भाषा बहुत मँजी हुई, चिकनी दिखेगी परन्तु आप कविता के भीतर उसके भाव और वस्तु-सम्बन्धों में उतरेंगे तो इस मानुषेतर रूमान से वाकिफ़ हो जाएँगे। तब आप समझ सकेंगे कि इसके भीतर का समय और इंटेन्सन क्या है ! आपको गीत चतुर्वेदी, मनोज कुमार झा, यतीन्द्र मिश्र, बाबूषा कोहली को विच्छेदित करने के लिए थोड़ा सजग होना होगा। क्योंकि आप भाषा से सम्मोहित हो सकते हैं। दूसरी तरह की कविताएं वे हैं जो अपने समय से सीधे दो-चार हो रही हैं और जो अपने समय की वस्तुवत्ता को पकड़ना चाहती हैं। ये चली आ रही परम्परा को भंग करती हैं। ये कविताएं क्रम नहीं क्रम भंग हैं और आपको इसी तरह समझना होगा। ये उसे तोड़ती हैं और नये रास्ते पर बढ़ती हैं। उनमें एक नयापन है और नये समय को रच पाने की क्षमता है। इनमें नया उग्र विवेक, सामाजिकता को नये तरह से उपलब्ध करने की चाहत और भाषा में खतरनाक खुलापन है। इसमें मौलिकता-सहज विखराव भी दिख सकता है पर यही वे कविताएं हैं जो अपने समय को रच रही हैं। यही कविताएं आगे जाएँगी, यही अपनी संभावना में काम्य हैं। इन कविताओं की भाषा संभव है अशोक वाजपेयी के चुस्त-चिकने बोध को स्वीकार न हो परन्तु भाषा के स्तर पर भी ये कविताएं ज़्यादा सर्जनात्मक हैं। ज़्यादा संभावनाशील और ज़्यादा खोजी हैं। हम जिस घातक समय में सांस ले रहे हैं, उसमें अशोक वाजपेयी कविता से चाहते हैं कि वह अपने समय को भूल जाए। कविता की गतिशीलता को बनाये रखने के लिए और इसलिए कि हम अपने भाषिक कर्म के द्वारा अपने समय में हस्तक्षेप कर सकें, अशोक वाजपेयी के सौंदर्य-बोध को खंडित करना चाहिए। उसे समझना चाहिए, उसके निष्पत्तियों के प्रति सजग होना चाहिए। और जो लोग अपने गिलगिल कल्पनाप्रसूत दुनिया की कविताएं लिख रहे हैं, उन्हें अपने समय का आइना दिखाना चाहिए। और मेरी चाहत ख़ास तौर पर आलोचना से है कि वह अपने समय का यह आइना बन सके।
 - आशीष मिश्र
युवा आलोचक

12 comments:

  1. बहुत जरूरी उद्देश्य हासिल करने का पहला कदम।परन्तु तस्वीर तभी आइने की तरह साफ होगी जब सच को दरसत्य की तरह पेश करने वाले निरपेक्ष विवेक से लबरेज परम साहसी आलोचकों को चुना जाय, वरना 50 वर्षों से गोल मोल तुतलाने वाले सैकड़ोंं आलोचक आए और..... परन्तु हिंदी कविता के आकाश से संकट के बादल छंटने का नाम ही नहीं ले रहे हैं।फिर भी बहुत आशा जगाने वाली है यह नवचेतनावादी पहल।

    ReplyDelete
  2. बहुत जरूरी उद्देश्य हासिल करने का पहला कदम।परन्तु तस्वीर तभी आइने की तरह साफ होगी जब सच को दरसत्य की तरह पेश करने वाले निरपेक्ष विवेक से लबरेज परम साहसी आलोचकों को चुना जाय, वरना 50 वर्षों से गोल मोल तुतलाने वाले सैकड़ोंं आलोचक आए और..... परन्तु हिंदी कविता के आकाश से संकट के बादल छंटने का नाम ही नहीं ले रहे हैं।फिर भी बहुत आशा जगाने वाली है यह नवचेतनावादी पहल।

    ReplyDelete
  3. अपनी टिप्पणी को थोड़ा विस्तार देते हुए यह प्रसन्नता जाहिर करना कर्तव्य समझता हूँ कि इस प्रथम चरण मेंं जिन कवि-आलोचकों का चुनाव किया गया है, वे सभी आज साहित्य को नए सिरे से परिभाषित करने कोतत्पर हैं।इन सभी में कविता को गहरे औऱ व्यापक अर्थों मेंं देखने का सशक्त विवेक है।बधाई देता हूँ सभी युवा तेवरों को, उनकी साहसिक औऱ व्यापक दृष्टि के लिए।

    ReplyDelete
  4. अपनी टिप्पणी को थोड़ा विस्तार देते हुए यह प्रसन्नता जाहिर करना कर्तव्य समझता हूँ कि इस प्रथम चरण मेंं जिन कवि-आलोचकों का चुनाव किया गया है, वे सभी आज साहित्य को नए सिरे से परिभाषित करने कोतत्पर हैं।इन सभी में कविता को गहरे औऱ व्यापक अर्थों मेंं देखने का सशक्त विवेक है।बधाई देता हूँ सभी युवा तेवरों को, उनकी साहसिक औऱ व्यापक दृष्टि के लिए।

    ReplyDelete
  5. बहुत अच्छा विषय रखा है। और व्यापकता से बात कही गई है। यह अवश्य है कि सभी को पढ़कर एक तस्वीर बनाई जा सकती है, किंतु यह भी मजेदार है कि इन मतों में भी विरोधी तत्व कम नहीं है। मजा तो तब आता जब सभी विचारक अपनी बात के साथ कवियों को भी उद्धृत करते, फिर यहाँ भी कुछ खेमे देखे जा सकते...

    ReplyDelete
  6. आज की कविता को लेकर प्रस्तुत इस विमर्श में दो लेख बेहद प्रभावशाली हैं। लेकिन विस्तार से आज की कविता पर आशीष मिश्र ने जो बातें कही हैं, उनसे मैं पूरी तरह से सहमत हूँ। अजीत प्रियदर्शी ने अपनी बात विस्तार से नहीं कही, लेकिन वे भी कहीं न कहीं आशीष मिश्र का समर्थन ही कर रहे हैं। उमाशंकर सिंह परमार ने लेख के शुरू में एकदम उचित बात कही कि कविता की प्रवृत्तियों का निर्धारण करते हुए रचनाकारों की पीढ़ी के अन्तर पर ध्यान देना भी ज़रूरी है। लेकिन उसके बाद वे लफ़्फ़ाज़ी पर उतर आए और कवि गणेश पाण्डेय की तरह बस दिल्ली और पुरस्कारों का विरोध कर रहे हैं। जबकि कविता की प्रवृत्तियाँ न तो पुरस्कार तय करते हैं और न दिल्ली। आशीष मिश्र का लेख विस्तार से प्रवृत्तियों की बात कर रहा है। उन्हें साधुवाद।

    ReplyDelete
  7. आशीष मिश्र ने जिस बात की ओर ध्यान दिया है, वह बहुत महत्वपूर्ण है। मैं भी बड़ी शिद्दत से इसे महसूस करता रहा हूँ। क्या इसका कोई जवाब है हमारे आलोचकों या कवियों के पास? वह बात यह है -- हिन्दी कविता के 20-30 वर्ष का समय करीब-करीब ठहरा हुआ स्थिर काल है। यह कैसे हुआ, क्या समाज स्थिर था, क्या राजनीतिक परिस्थितियाँ इतनी निश्चित और ठहरी हुई थीं? जाहिर सी बात है कि ऐसा नहीं था। इस बीच साहित्य के अन्य विधाओं में कविता की अपेक्षा ज़्यादा गहमा-गहमी रही। परन्तु कविता तक़रीबन स्थिर रही। और अगर कविता की जड़ता को थोड़ा बहुत झटका लगा तो वह दलितों और स्त्रियों से। दलितों और स्त्रियों ने इस ठहराव को तोड़ा। हालाँकि अभी इसका मूल्याँकन होना बाक़ी है। पर जब होगा तो पता चलेगा कि सवर्ण मर्द कितने अनुकूलित थे।

    ReplyDelete
  8. आशीष की इस बात से भी पूरी तरह सहमत होना पड़ता है -- 9वें दशक के कवियों में लोक के प्रति एक ख़ास तरह का आग्रह है। परन्तु यह लोक का छायाभास है, एक फिनिश्ड़ माल, जिससे सत्ता या बाज़ार किसी को असुविधा नहीं। यह न तो सामंतवाद का विरोध रच पाता है और न ही बजारवाद पर चोट कर पाता है। यहाँ गाँव अपने सार से रहित एक ‘मार्केट फ्रेंडली’ बिकाऊ माल है। इन्हें गाँव चाहिए, इन्हें लोक चाहिए पर उनके अंतर्विरोध और उनका क्रांतिकारी सार नहीं चाहिए। गहरे अर्थों में यह पिछली शताब्दी के अन्तिम दशकों में जगह बना रहे दलित और स्त्री अस्मिता की प्रतिक्रिया में स्थानीय सत्ता-संरचना का नया उभार है। मुझे ठीक-ठीक पता नहीं, कि इस लोक के प्रति मोह रखने वालों में कितने दलित और कितनी स्त्रियाँ हैं! अगर नहीं हैं तो इसके कारणों का पता लगाना होगा। कविताओं में जो चित्र गाँव या किसानी के आते भी हैं वे बड़े रोमांटिक क़िस्म के हैं। जैसे कोई शहरी मध्यवर्गी दूर से बैठ कर अपने गाँव को देख रह हो या फ़िर बीस-पचास वर्ष पूर्व के, स्मृतियों में बसे, गाँव को रच रहा हो।

    ReplyDelete
  9. Mohan Kumar Nagar लिखते हैं -- उमा जी ये थके चुके डुकरे ये सब करके अपना बुढ़ापा बिगाड़ रहे हैं और अपने जीते जी ही खत्म हो रहे हैं ये भी तो देखिए .. मैं तो सोचता हूँ इनके विरोध में जाना ही छोड़ दूं अब क्योंकि ये जान बूझकर ऐसा कुछ करते हैं जिसके चलते इन पर बात हो .. ये परिदृश्य में रहें .. इन्हें सब पता होता है कि ये जो कर रहे हैं उससे कितना विरोध होगा? कितना बवाल .. तो क्या ? नाम तो होगा .. पर ये भूल रहे हैं कि इसके चलते क्या क्या है जो खो रहे हैं ये और क्या क्या मटियामेट भी कर रहे हैं। इन पर बात करनी बंद कर दें हमम तो ये खुद ही मर जाएंगे

    ReplyDelete
  10. मोहन जी, आप भी उसी लफ़्फ़ाज़ी पर उतर आए हैं, जो उमाशंकर और गणेश जी करते रहे हैं। यहाँ गम्भीर विमर्श हो रहा है, कृपया विमर्श को विमर्श ही रहने दें। पुरस्कारों की वजह से ठहराव नहीं आया था। कविता ही नकली हो गई थी। वह जीवन से दूर हो गई थी। अशोक वाजपेयी की ’कविता की वापसी’ और उनके द्वारा की जाने वाली सरकारी ख़रीद की वजह से कवियों का ध्यान भी किताब और कविता की बिक्री में हो गया था, यह तो एक कारण हुआ। इससे इतर दूसरे क्या कारण थे? उस दौर में वैसी कविता लिखी जाने लगी थी, जो अशोक वाजपेयी और उनके गुट को पसन्द आए। हर कवि अशोक वाजपेयी गुट से जुड़ने और भारत भवन में कविता पढ़ने के लिए उत्सुक हो उठा था। लेकिन इसके अलावा भी कारण तो रहे होंगे।

    ReplyDelete
  11. राहुल देव जी, सर्वप्रथम विमर्श के इस पहल का मैं तहेदिल से स्वागत करता हूँ। उमाशंकर सिंह परमार और अजीत प्रियदर्शी ने इस विमर्श के मार्फत बहुत जेनुइन सवाल उठाये हैं और नई सदी की कविता के विकास में हमारा ध्यान उन बाधाओं पर केंद्रित किया है जो आज के कविता की विकट चुनौती है। उमा बिलकुल सही कहते हैं कि" समकालीनता एक अस्पष्ट शब्द है।" इसे उन्होंने तर्क और तथ्य से संपुष्ट भी किया है। उनकी इस बात से सहमत होने में कोई गुरेज नहीं कि *"साठ के दशक से कविता में पूँजीवादी तत्वों का जबरदस्त प्रवेश हुआ । बडे अधिकारी, नौकरशाह, बडी बडी अकादमियों के अध्यक्ष, कुलपति, निदेशक और व्यापारी कारपोरेट जगत ने कविता मे सीधे हस्तक्षेप किया और तमाम सीकरी केन्द्रित लेखको कवियों मे खेमेबाजी गुटबाजी का फैशन चल पडा पुरस्कार और विश्वविद्यालय की मास्टरी के लालच ने इस प्रवृत्ति को बढाया इससे आलोचना और कविता दोनो का गलत प्रमाणन चल पडा जितने भी छद्म और अमौलिक लेखक कवि थे या जो जनपद और विचारधारा की ओट मे कलावाद के प्रबल हिमायती थे उन सबको इस अन्दरूनी साहित्यिक राजनीति ने मुख्यधारा कवि का बनाने की कोशिश की । ....
    यदि इस दशक मे परिवर्तन की बयार चलती रही तो कविता सदियों से उपेक्षित हाशिए की आवाजों को लेकर मर खप रहे किसानों की भयावह स्थितियों को लेकर जरूर सामने आएगी और साहित्य पुनः अपनी मौलिक धारा को प्राप्त कर सकेगा जिसे पिछले कई दशकों से बुर्जुवा सत्तापोषित अभिजात्य लेखकों के समूह ने किडनैप कर रखा था । कविता मे इस साहित्यिक फासीवाद के टूटन का उपेक्षित दबी कुचली अस्मिताएं इतंजार कर रहीं हैं ।"*
    अजित प्रियदर्शी जी ने भी नयी सदी की कविताओं को लेकर कई वाज़िब चिंताएं जाहिर की हैं जिस पर सजग पाठक और कवि का ध्यान जाना चाहिए। उनकी बात को आज हर पाठक- कवि शिद्दत से महसूस कर रहा है कि इस सदी की अधिकतर कविताएँ *प्रोज पोएट्री* बनकर रह गयी है जो स्वगत कथन या वक्तव्य तक भर बनकर जाती है। अजीत प्रियदर्शी आगे कहते हैं कि * "लोक के वास्तविक अन्तर्विरोध, प्रतिरोध और जीवन संघर्ष तक पहुँचने के लिए लोकजीवन से जुड़ना आवश्यक है। लेकिन अधिकांश कवि मध्यवर्गीय हैं और शहरों में रहने के कारण लोकजीवन से कटे हुए हैं। आज की हिन्दी कविता आम आदमी से प्रायः कटी हुई है। अधिकांश कवि सुखी हैं और कविता में व्यक्त उनका दुःख व्यापक समाज का दुःख नहीं है। लेकिन आज की हिन्दी कविता में बड़ी संख्या में स्त्रियों, दलितों और आदिवासियों की उपस्थिति एक आशाजनक परिदृश्य उपस्थित कर रहा है। इनके कारण कविता में हाशिए का समाज प्रवेश पा रहा है और हाशिए के सवाल कविता में उठाये जा रहे हैं। "*
    बाकी विद्वत्जनों की कमी नहीं । अपनी-अपनी राय है। मन है...। अपने अपने तरीके से सोचने को सभी स्वतंत्र हैं पर सोच से हक़ीक़त को तब तक बदला नहीं जा सकता जब तक कि मन को उद्वेलित कर उसके बदलाव की दिशा तय नहीं की जा सके । टिप्पणियों में मुझे गणेश पांडे सर की बातों से बहुत सहमत हूँ। वे काव्यगत रूढ़ियों और आलोचना के बूढ़े प्राचीन भुरभुरे क़िले को तोड़ने के पक्ष में हैं जिसका स्वागत होना चाहिए।

    ReplyDelete
  12. जरूरी दस्तक है ...........

    ReplyDelete

गाँधी होने का अर्थ

गांधी जयंती पर विशेष आज जब सांप्रदायिकता अनेक रूपों में अपना वीभत्स प्रदर्शन कर रही है , आतंकवाद पूरी दुनिया में निरर्थक हत्याएं कर रहा है...