Monday 27 July 2015

अपर्णा अनेकवर्णा की कहानी 'गंध'

गंध
अपर्णा अनेकवर्णा 
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सपनों की गंध नहीं होती.. या होती हो शायद, जो छूट जाती है नींद के उस पार.. साथ आती है बस तेज़ी से मिटती स्मृति. फिर कोई सपना देखा था उसने और इस बार पता नहीं कैसे बस गंध साथ थी.. और सब उड़ गया.. सिमट गया.. लौट गया अपने किसी खोह में. 
गंध इतनी गुंथी हुयी थी किसी याद से.. खुलती गयी और भीतर कुछ बनता बिगड़ता रहा. अक्सर ठीक पहचान लेती है. बस कभी-कभी कोई एक चुनौती बनकर तन जाती है जैसे कोई ऐसा पहचान वाला हो जिसे हम जानते तो हैं पर याद नहीं करना चाहते. भूले रहना चाहते हैं. इस बाघ गंध की तरह.
पहली बार, बाघ, दिखा नहीं था.. दिखने से पहले एक तीखी गंध बनकर महसूस हुआ था उसे.. छह बरस की थी वो. उसने काका की ऊँगली कसकर पकड़ ली थी. मेले के छोटे से चिड़ियाघर से आती बेचैन आवाजें उसे बुला भी रही थीं डरा भी रही थीं. और फिर दिखा था उसे.. सुनी-पढ़ी कहानियों सा होते हुए भी कितना अलग. अपनी लम्बाई जितने ही पिंजरे में बेचैन डोलता हुआ.. किसी को देखने, डराने में दिलचस्पी नहीं थी उसकी.. लगातार हांफता हुआ वो उतनी सी जगह में घूमने जैसा कुछ कर रहा था.. थोडा निराश हुयी थी याद है उसे. बस एक, आँखों में चुभने वाली तीखी गंध ने घेर लिया था उसे. उसी गंध को बालों में लिए घर लौटी थी.. बेचैन गंध..
तो क्या बाघ का सपना देखा था? नहीं.. अभी कुछ याद नहीं आता.. जैसे कोई शब्द जो जुबान पर होकर भी वही घुमड़ता रहेगा.. बाहर नहीं आएगा. नहीं सोचना है उसे.. आना होगा याद तो आ ही जायेगा.
नयी गृहस्थी है और अकेले हैं दोनों.. पर जाने क्या है जो आ बैठता है उनके बीच. उस पूर्वोत्तर प्रदेश में उसे आये हुए एक महिना ही हुआ है.. शादी हुए सवा महिना.. मन अभी तक महानगरीय गति से ही धड़कता है. यहाँ एक दिन कब पिघला और दूसरा हुआ या दूसरा ही अभी भी पहला है.. पता ही नहीं चलता. नए परिवेश, नए मौसम, नयी ज़िन्दगी में ढल ही रहे हैं दोनों.. कभी साथ.. दो खोये बच्चों की तरह.. कभी अपने अलग-अलग द्वीप में अकेले.
चलो तुम्हें सबसे मिलवाता हूँ,’ उसको खिड़की के पास खोयी सी खड़े देखकर पति के मन में मोह जागा. जाने दृश्य में खोयी थी या खुद में. अब तक उसे सामने दिखती पहाड़ियां की रेंज याद हो गयी थी. किसी दिन सात दिखतीं.. जिस दिन सारी नौ दिख जातीं वो दिन वो बस यूँ ही खुश हो जाया करती. पहले दिन बादलों को खिड़की से झांकते, कमरे में भितराते देख कितनी खुश हुयी थी. बाहें फैलाये दौड़ती रही थी.. उनकी गंध नहीं थी.. या थी शायद.. बादलों सी.. धूप और पानी सी.. पर वो भी अब सीली सी लगती है.
उसने माँ से बात की थी.. और चिढ गयी. ऐसे लगा जैसे सब उसके ब्याह से बहुत खुश हों.. क्यूँ? क्या उसके जाने की इतनी ख़ुशी थी उन्हें.. अरे, ये क्या बात हुयी भला!माँ के स्वर के तार बस ज़रा सा ही ऊपर नीचे लगे उसे. उसने याद करने की कोशिश की.. माँ की गंध. ठीक से कुछ याद नहीं आता.. लौंग सी.. कपूर सी.. या उबले चावलों के मांड सी. सुहानी सी सुकून भरी एक गंध जो माँ के धुले कपड़ों से भी आती है. बचपन में छुपन-छुपाई खेलती वो सूखने को पसारी हुयी साड़ियों के पीछे छुपती जानबूझ कर.. सांस भर लेती.. माँ की गंध.. अब नहीं आती..
क्रिसमस की छुट्टियों से सब उत्तर भारतीय परिवार लौटने लगे हैं.. वहां के भीषण ठण्ड से यहाँ की सुहानी धूप भली.. फिर सब मिलेंगे.. वही मुट्ठी भर लोग.. वही दावतें... गेट-टुगेदर.. जहाँ पुरुष एक कमरे में पेग के साथ तब तक जोर-जोर से हँसने का सफल अभिनय करते हैं जब तक वहां बैठा सबसे बड़ा अधिकारी मन भर कर नशे में ना आ जाए. पत्नियां दूसरे कमरे में सॉफ्ट ड्रिंक लिए कपडे, मैका, ससुराल, एक दूसरे के फिगर.. बच्चे.. स्मार्ट शौपिंग सेंस.. लोकल भाषा, खानपान सबकी नुक्ताचीनी करने में मस्त.. उसके पति ने कहा उससे. हँसते हुए, बेखयाली में सच बोल गया. उसका मन पार्टी में जाने से पहले ही बुझ गया. दोनों ने बात वहीं छोड़ दी.. जाना तो है.. वहां देखेंगे क्या-क्या होगा..
सब ठीक वैसा जैसा पति ने कहा था. उसने सबसे मिलते ही एक बार फिर वो अजनबी गंध महसूस की.. जिसमें कई गंध आ-जा रही थीं.. घाघ-पैनी गंध.. देह पर रेंगती गंध.. छूने को आतुर गंध. वहां से जल्द ही उसे जनाना गोल में पहुंचा गया पति. इस बार वो लगभग तैयार है. बातें शुरू हुईं तो बस चल पडीं. उस अपरिचय के बगूले में उसे ससुराल का पहला दिन याद आया. लगभग वही सांस-सांस नापता-तौलता माहौल. आओ मेरे साथ किचेन में मेरी मदद करो..गृहस्वामिनी ने उसे उबार लिया. किचेन में खाने की खुशबू ने पहचाने नाम उकेरे मन पर. एक ही शहर का एकहरापन दोनों के बीच पनप उठा. खैरियत है, यहाँ है एक कोना जहाँ वो अपनी गांठे खोल सके शायद.
पूरी शाम, जो अब तक गबरू रात हो चुकी है, उसने सुना बहुत कम.. बोला उससे भी कम. 
भाई, आपकी मिसिस तो बहुत शांत हैं. कहीं शरमा तो नहीं रहीं. यहाँ इस गॉड-फॉरसेकेनजगह में हम ही हैं जो बार बार मिलते-टकराते रहेंगे,’ अपनी हर बात को कहकहे से शुरू ख़त्म करने वाले महाशय अब साफ़-साफ़ झूम रहे हैं.. खाना निपटते बहुत देर हो गयी. वो थकने लगी. एक साथ देखे-सुने सारे चेहरे एक में मिलने लगे हैं. अचानक उसने बहुत ऊबी हुयी नज़रों से पति की ओर देखा और दोनों उठ खड़े हुए. रास्ते भर वो ऐसे अधिकारीयों की ऐसी पोस्टिंग्स के बारे में पूछती रही. दस लोगों में से बस चार का परिवार साथ है.. बाकि के अकेले. पत्नी बच्चों को लिए महानगरों में रह रही है. और, अकेले कितने, कितने मेले हैं, कितने झमेले, ये एक अलग कथा.
उनके निकलते-निकलते भी कोई बात.. कोई चुप्पी.. एक आँख.. या शायद एक पहचानी सी गंध.. उसकी पीठ पर चिपकी चली आई. हलकी ठण्ड होते हुए भी उसने पानी गुनगुना किया और देर तक नहाती रही.. गंध जाती रही थी.
धीरे धीरे नया परिवेश उसकी आदत का हिस्सा बनता जा रहा है. भाषा, लोग, पहनावा, संगीत, समाज, धर्म सब अलग अनूठा अनजाना सा. रात के अँधेरे में जाने किस कोने से आती लोकगीत की कड़ियाँ.. साथ कोई डफ बजा रहा है. गीत की भाषा अनजानी पर लय की भाषा तो आदिम है. कुछ देर मन पर बजती रही. पलट कर देखा तो पति भी जागा हुआ.
वो देखो ऊपर, बहुत ऊपर, एक इंटरनेशनल फ्लाइट की रौशनी.दोनों खुली खिड़की से तारों भरे आकाश के एक तारेको धीरे-धीरे पूरब की ओर बहते देखते रहे. सोचो तो वहां हजारों फुट ऊपर लोग होंगे.. खा-पी चुके होंगे.. हम-तुम जैसे सो रहे होंगे. ऊपर उतने ऊपर, दूर कितने, वो दुनिया जिससे हम ज्यादा करीब से जानते हैं और अभी हम यहाँ नीचे इस जगह हैं जहाँ सब कुछ अनजाना पता नहीं कब से जस का तस. ये धुन कितनी आदिमउसे झुरझुरी से आ गयी. पति ने उसे बहुत हौले से खुद से लगा लिया, ‘तुम यहाँ बहुत अकेली हो गयी हो न. देखो कब तक वापस ट्रान्सफर का जुगाड़ बने. कहो तो कुछ दिनों के लिए अम्मा के पास छोड़ आऊं?’ ‘ना, मुझे कहीं नहीं जाना,’ वो कुछ पति में और बहुत कुछ खुद में सिमट गयी. उसे फ़ोन पर अम्मा का स्वर याद हो आया.. माँ की गंध कहाँ छूट गयी.. क्यूँ? रुलाई गटक ली उसने.
उस रात, उसने सपना देखा.. वो एक अँधेरे अंधे कूएं में पड़ी है जहाँ से कुछ नहीं नज़र आता.. बस बहुत दूर ऊपर सितारे हैं.. जिन्हें उससे कोई मतलब नहीं.. अजीब किस्म के बोर हैं वो.. वो अकेलेपन की दहशत से काँप रही है.. बस उठ भी नहीं पा रही.. बाहर ऊपर कहीं एक बेचैन गंध है - बाघ-गंध.. मंडरा रही है.. और हांका के नगाड़े और शोर उस गंध को उस के और पास लिए आ रहे हैं.हांफती हुयी वो ना जागी-ना सोयी उस बोझ से लड़ती रहती है. बदन पर पड़े उस अनाम भार को उतार फेंकना चाहती है पर हिल भी नहीं पाती. पति की आवाज़ सुन रही है. समझ नहीं आता जागी है या सो रही है.
उठो उठ जाओ.. सपना है’. इतना पसीना उसे यहाँ किसी दोपहर नहीं आया और अभी भोर में देखो. पानी का गिलास नहीं पकड़ा जा रहा उससे. पति ने थाम कर अपने हाथ से पानी पिलाया, ‘क्या हुआ है? कौन सी बात है जो परेशान हो इतना? यहाँ से जल्द लौटेंगे’. उसे ग्लानि लपेट लेती है.. वो अपना चेहरा उसके कंधे में गाड़े सोचती है कुछ करुँगी अब. आई शाल नॉट सकम्ब टू एनी स्टुपिड नोशंस..
शनिवार की भोर है. पीछे की गली उसकी खिड़की से तीन मजिल नीचे है जो घूमते हुए जब तक उसके मकान के आगे पहुँचती है तो उसके मंजिल के सामने से गुज़रती है. पहाड़ों के मकान ऐसे ही होते हैं. जैसे एक के अन्दर कई सारे. नीचे झांककर लगने वाले साप्ताहिक बाज़ार का जायजा लेती है. अभी सब खाली है. किसी ने एक बल्ब तार से जोड़ और जला कर पीछे उगे कटहल के पेड़ की निचली डालियों में टांग दिया है. उसकी रौशनी में सड़क के एक्के-दुक्के आने-जाने वाले, बड़ी और टेढ़ी-मेढ़ी परछाइयां मकान की पिछले दीवार पर फेंक रहे हैं. और दूर.. घाटी के पीछे सारे बादल नदी पर रात भर के लिए आ बैठे हैं. जैसे नदी को बिछा कर सो गए हों. अचानक उस चीख ने उसका ध्यान फिर से सड़क की और खींचा. ये क्या है?!! इतना बड़ा सूअर!! और वो उसे.. उसे मार रहे हैं. एक बड़ा सा काठ का हथौड़ा लिए ठीक उसके सर पर लगातार.. ओह! भय की गंध लहू के लोहे सी है..
पति का सहायक सिंघा मणिपुरी है. हिंदी अच्छी जानता है. बांग्ला उससे भी अच्छी. मणिपुरी, मिज़ो, अंग्रेजी मिलाकर कुल पांच भाषाएँ.. उसका आत्मविश्वास उसके उम्र और वहां के मुस्तकिल कर्मचारी होने की वजह से है. पति की पोस्टिंग कुछ साल की है ये वो अच्छी तरह जानता है और हाव-भाव मं हमेशा ज़ाहिर भी कर देता है. मिमसाहेब, आप तो यहाँ परेसान हो जायेगा. आपको घर जैसा तो इधर कुछ भी नहीं. ये देस बहुत अलग है. मैंने देखा हूँ डिल्ली. यहाँ मन लगाओ.. लगेगा,’ उसने सूंघ लिया है शायद उसका उचटता मन. नहीं, वो ऐसी किसी चीज़ को पति की नौकरी के आगे नहीं आने देगी.. उसे कोशिश करना ही है.
शाम होते ही आकाश के अंधेरों को घटाते-बढाते दूर-पास घाटी-पहाड़ियों से आग की रौशनी फिर उनसे उठते धुयें की रेखायें.. ये रोज़ का सिलसिला है. झुमकरके पहाड़ साफ़ करना और खेती करना इनकी परंपरा.. पर साथ ही चर्च की घंटियाँ.. प्रार्थना के स्वर.. सब मिल कर पैराडाइस लॉस्टऔर इन्फरनोके दृश्य उगा देते उसके मन में. वो खिड़की से पलट आती है. आज ऐसे ख़याल नहीं. आज उसने मन से खाना बनाया है. कैंडल नाईट डिनर प्लान किया है. पति उन्ही अफसर-मित्रों से मिल कर लौट रहा होगा. वो उसे सरप्राइज देगी आज. आते ही उसने उसकी ख़ुशी देखी.. ख़ालिस ख़ुशी.. खुद को इम्पोर्टेंस मिलने की ख़ुशी.. प्यार की ख़ुशी और उसने उसे माथे पर चूमते हुए शुक्रियाकहा. उसके हाथों में एक बड़ा सा पैकेट पकड़ाते हुए वही शब्द दोहराया, ‘सरप्राइज.. मेरा भी’. पैकेट में किताबें.. ढेरों.. उस नहीं पढने वाले को खूब पता है उसे क्या पसंद है और उसने किसी कार्यालय की लाइब्रेरी से ये किताबें जुटाईं हैं. वो मुस्कुरा उठी.. वो मुस्कुरा उठा.. वो दोनों मुस्कुरा उठे. कमरे में ऑरेंज मोमबत्तियों की पकी सी खुशनुमा महक फ़ैलने लगी है. सब इतना बुरा भी नहीं. खासा अच्छा है इन फैक्ट. आँखें मूँद कर मुसकुरा रही है वो.. जैसे संतरे के फूलों से लदे बगीचे में एक पकी सी दोपहर की गंध जी रही हो.
इधर जितने बार भी वो उन एक सी गेट-टुगेदर में गयी उसने खुद को काफी सहज कर लिया है. अब किसी गंध के बारे में ना सोच कर उसे नियंत्रित किया जा सकता है.. वो सीख चुकी है. उसे पता है कितना कम बोलकर और ज्यादा मुस्कुरा कर काम चलाया जा सकता है. नयी सहेली भी अब पुरानी हो चली है और सहज भी. उसकी धारणाओं.. मतों को वो ध्यान से सुनती है पर परखती हमेशा खुद ही है. स्थानीय संस्कृति पर किताबें पढ़ रही है. वो घूम रही हैं मन में.
आज पार्टी में बस दो परिवार ही हैं. उसने सहेली से बाघ-मानव की किवदंती का ज़िक्र किया और धीरे-धीरे ऐसी ही बातों का सिलसिला शुरू हो गया. अक्सर चुप और अलग-थलग रहने वाले उस प्रशासनिक अधिकारी ने जो स्थानीय ही है.. आज कई कहानियाँ सुनाई. बचपन में उन्होंने ऐसे किस्से सुदूर गाँवों में घटे सुने थे.. जहाँ कोई आदमी जोग-टोना सीखता और दिन में मनुष्य और रात को बाघ बन जाता.. लोग जान नहीं पाते.. लौटता तो पास के झरने से नहा कर.. पर पत्नी को बेचैन करती उससे कभी-कभी आती तीखी बाघ-गंध. उस अधिकारी के विश्वास ने उसकी बात से ज्यादा माहौल भारी कर दिया. रात भी काफी हो गयी.. जिसे कभी बोलते नहीं सुना उसे इतना बोलते देखकर सब उसे कहने लगे, ‘भाभी, आपने कमाल कर दिया. आज आपने इसे बोलवा लिया.. क्या बात है.घर लौटते वक़्त हर अँधेरे मोड़ से उसने मुंह मोड़े रखा.
गर्भ के पहले चिन्ह उभरने लगे हैं. दोनों खुश हैं. पति नहीं चाहता वो यहाँ अकेले रहे. अब माँ बहुत याद आने लगी हैं और गंध ने फिर से सर उठा लिया है. कितने ही रूप में उसे घेर लेता है. सूखी मछली.. हरे अनाम साग, उबलते हुए पत्तागोभी.. मांस.. दाल.. अड़ोस-पड़ोस और अपनी ही रसोई से उठती हर गंध.. सबका भभका लगता है. उसके उबकाई के स्वर ने साथ के कमरे में भी खबर फैला दी है. सिंघा की पत्नी ने उससे पूछ ही लिया और खुद इतनी खुश हुयी कि उसे पहली बार एक अपनापा सा लगने लगा है.
अजीब से सपने फिर उभरने लगे हैं.. नए पुराने.. आधे-अधूरे.. सबका मतलब ढूंढता है मन.. भय, उम्मीद, चिंता, घबराहट, ख़ुशी, पति से दूरी और माँ से मिलने के दुःख-ख़ुशी के बीच जीती है. गोपाल मन्त्र रटती बस इन्ही ख्यालों में झूलती-टहलती रहती है. जल्द ही जाना है घर. ये सपने और ये गंध.. इनसे मुक्ति मिले शायद.. ॐ देवकी सुत देहि मे तनयं.. कृष्ण त्वां अहम् शरणम् गतःहर सांस के साथ आते-जाते जल्द रट लिया है उसने.
कल की फ्लाइट है और बदस्तूर उसे विदा करने के लिए आज रात ये सेंड ऑफपार्टी. ये सात महीने और ये पार्टियां.. अब सब यंत्रचलित सा भी है और एक अजीब सी फमिलिअरिटी भी है. सब हाल-मिजाज़ पूछ लेते हैं और यहाँ घर से दूर उसे ये सब अच्छा लगता है अब. वही हर बार की तरह एक कमरे में जाम और दूसरे में महिला मंडली. परिचित सब और सब अजनबी.. बातें, हंसी, खाना, इंतज़ार और.. सबकी अलग से उठती और उसकी देह टटोलती नज़र.. जैसे आँखों ही आँखों में माप लेंगे पांच माह में उसके शरीर में हुयी तब्दीली को. कौन कितना पढ़ा-लिखा और कितना सभ्य है.. ये उसकी खुली और चोर नज़र से समझ आ जाता है. वो खुद में सिमटने लगी है. दोस्त ने भांप लिया, ‘सब तुम्हारी पसंद का बनाया है आज’. ‘अरे! थैंक्स.. बस ज्यादा कुछ खाया ही नहीं जाताहर बार कोई नयी गंध चिपट जाती है उससे..
आज कोई बड़ा अफसर नहीं.. सब हमउम्र ही हैं तो धीरे-धीरे सब साथ ही आ बैठे. पुराने रीति-रिवाजों. किंवदंतियों की बातें फिर छिड़ गयीं. वो आज भी हमेशा की तरह अकेला.. किनारे बैठा अकेले पी रहा है. उसने अक्सर दबे सुरों में उसके पीने की क्षमता के चर्चे सुने हैं. किसी ने उसकी पत्नी को नहीं देखा बस सुना है कि वो कोलकाता में रहती है. अक्सर बीमार अपनी बेटी को लेकर. उसका इलाज और पढाई वहीँ हो रही है. वो बोलता बहुत कम है पर उसकी नज़र सर चढ़ कर बोलती है. उसने अक्सर उन्हें महसूस किया है अपने चहरे पर मंडराते हुए.
कोई बहुत पुरानी गंध दबी होती है शायद सब में ही.. वो मिटती नहीं कभी भी. ज़हन में कहीं दुबक जाना.. पर्दा करना सीख जाती है. शायद और शातिर हो उठती है. चमकीले छद्म आवरण से ढकी बाहर आती है सब में ही. पर वो ऐसा नहीं. बोलता ही नहीं, क्या पता इसलिए कि बोलेगा तो सब सतह पर ही तैर रहा है.. झट बाहर आ जायेगा.. जस का तस.. और वो सबकी मुश्किल का सबब बन जायेगा. 
आज फिर भी वो बोल रहा है. उसने किसी लोकगीत की धुन गुनगुनानी शुरू की है. उसे लगातार देखता हुआ.. उन बोलों के मायने नहीं जानता कोई पर कुछ बहुत गाढ़ा सा घुलने लगा है कमरे में. 
लगातार उसे देखती उस दृष्टि ने अकेले उसे ही असहज नहीं किया. सब महसूस कर रहे हैं. विश आई हैड माय गिटार टुनाइट’.. उसने रुक कर कहा और हंस पड़ा. रोती हुयी उदास हंसी. हर बात को समझना, उसे छांट कर किसी खास आले में दीमाग के डाल देना.. फिर उसे उसके हर आयाम से समझना.. जुगाली करना.. उसके रेशे-रेशे नोचना.. सब मज़े लेंगे फिर बाद में.
बहुत हुआ कप्पू.. यू हेड अ बिट टू मेनी फॉर द इवनिंग..’ ‘नो.. वन फॉर द इवनिंग.. वन फॉर द रोड.. एंड हा हा हा.. द लास्ट वन फॉर द डिच.. हा हा हा..उसने कहा. हंसी से आँखें मूँद लीं. कमरे में कुछ और आ बैठा है.. उन सबके बीच मंडरा रहा है. पहचान लिया उसने. बाघ-गंध है.. पीली चमकीली आँखों में डोलता बाघ.. बेचैन एक बंद कमरे में.. वो गंध इतने दिनों बाद आज फूट पड़ी है चारों ओर.. अचानक वो खड़ा हो गया और अपने डगमगाते क़दमों से उसकी ओर बढ़ा. और एक आपके लिए माय लेडी.. फॉर आय विश यू वर माइन.. जस्ट अ विश.. प्लीज़ एक्स्क्यूस मी,’ उसने लडखडाती जुबान में बेहद उदास और संजीदा अंदाज़ में कहा.
सब सन्न हैं. किसी को होश भी नहीं कि कुछ सेकंड बीते हैं या एक काल पिघल गया. उसकी बेचैनी उसने पढ़ी या चुप्पी.. क्या पता. इससे पहले कभी कोई बात भी नहीं की.. पर आज उसके जाने के एक दिन पहले जाने क्या कह गया. बाय.. थैंक्स फॉर द डिनर.. मैं अब जायेगा..वो कमरे से बाहर निकल गया.. पीछे छोड़ गया अपनी बेचैन बाघ गंध.. जो अब उसके बालों में रेंग रही है.. कितना कुछ अचानक हो गया..
वहां से खामोश ही घर लौटे दोनों. अपने बिस्तर पर ढह गयी. पति उसका सर सहलाता रहा और वो चुपचाप पड़ी रही. बहते आंसू भी नहीं पोछे उसने.. जैसे खुद को किसी एहसास से खाली कर देना चाहती हो. आज की शाम गूंजती रही, नाचती रही उसके सामने जब तक वो सो नहीं गयी.
हवाई अड्डे पर कोलकाता से आने वाली फ्लाइट का इंतज़ार करते समय उसने अपने पति को एअरपोर्ट मेनेजर से बातें करते देखा. दोनों उसकी ओर नहीं देख रहे पर कुछ तो हुआ है.
क्या हुआ?’ उसने पति से पूछा. कुछ नहीं.. फ्लाइट आ गयी है. चलो सिक्यूरिटी के लिएउसने हाथ थाम कर उठाया. दोनों सिक्यूरिटी के लिए बढ़ गए. जहाज़ से उतर कर आते लोगों को लेने वालों में उसने एक परिचित लड़के को रोते देखा. वो तो उस अफ़सर का चचेरा भाई था या जाने ममेरा.. एक पीसीओ सेंटर का मालिक..
क्या हुआ है?’ पति की चोर नज़र पकड़ ली उसने, ‘बताइए न’. उतरे यात्रियों में एक.. मिज़ो है शायद.. औरत और साथ में एक १५-१६ बरस की लड़की उस लड़के से रोते हुए लिपट गए.
आप कहते क्यूँ नहीं..’ ‘तुम बैठ जाओ. बताता हूँ.. उसकी कही बात सच हो गयी कल रात. इतनी पी रखी थी उसने एक्सीडेंट कर बैठा कमबख्त.. गाड़ी लिए खाई में.. ओह!वो उसे देखती रही.. उसे पति की जगह कल रात का झूमता हुआ नशे में वाचाल बन बैठा एक उदास अकेला पुरुष दिखा जो उससे प्रेम कर बैठा था शायद. लास्ट वन फॉर द डिच.. गुड नाईट माय लेडी..
सुनो!उसने पति के हाथ पकड़ लिए.. मुझे बाल धोने हैं अपने..एक गंध उसके बालों में उबलने लगी और उतरती हुयी उसे घेरने लगी.. वही पीली चिटकी हुयी बेचैन बाघ गंध.. 
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aparnaanekvarna@gmail.com

Monday 20 July 2015

डॉ. राकेश जोशी की 5 ग़ज़लें


1
तुम अँधेरों से भर गए शायद
मुझको लगता है मर गए शायद

दूर तक जो नज़र नहीं आते
छुट्टियों में हैं घर गए शायद

ये जो फसलें नहीं हैं खेतों में
लोग इनको भी चर गए शायद

कागजों पर जो घर बनाते थे
उनके पुरखे भी र गए शायद

क्यों सुबकते हैं पेड़ और जंगल
इनके पत्ते भी झर गए शायद

तुम ज़मीं पर ही चल रहे हो अब
कट तुम्हारे भी पर गए शायद

उनके काँधे पे बोझ था जो वो
मेरे काँधे पे धर गए शायद

सिर्फ कुछ पत्तियाँ मिलीं मको
फूल सारे बिर गए शायद

2
जो ख़बर अच्छी बहुत है आसमानों के लिए
वो ख़बर अच्छी नहीं है आशियानों के लिए

इस नए बाज़ार में हर चीज़ महंगी हो गई
बीज से सस्ता ज़हर है पर किसानों के लिए

भूख से चिल्लाए जो वो, खिड़कियाँ तू बंद कर
शोर ये अच्छा नहीं है तेरे कानों के लिए

हक़ की बातें करने वालों के लिए पाबंदियाँ
और सुविधाएं लिखी हैं बेज़ुबानों के लिए

अब नए युग की कहानी में नहीं होगी फसल
खेत सारे बिक गए हैं अब मकानों के लिए

पेट भरने के लिए मिलती नहीं हैं रोटियाँ
खूब ताले मिल रहे हैं कारखानों के लिए

3
मैं गीतों को भी अब ग़ज़ल लिख रहा हूँ
हरेक फूल को मैं कँवल लिख रहा हूँ

कभी आज पर ही यकीं था मुझे भी
मगर आज को अब मैं कल लिख रहा हूँ

बहुत कीमती हैं ये आँसू तुम्हारे
तभी आँसुओं को मैं जल लिख रहा हूँ

समय चल रहा है मैं तन्हा खड़ा हूँ
सदियाँ गँवाकर मैं पल लिख रहा हूँ

लिखा है बहुत ही कठिन ज़िंदगी ने
तभी आजकल मैं सरल लिख रहा हूँ

मैं बदला हूँ इतना कि अब हर जगह पर
तू भी तो थोड़ा बदल लिख रहा हूँ

4
जैसे-जैसे बच्चे पढ़ना सीख रहे हैं
हम सब मिलकर आगे बढ़ना सीख रहे हैं

पेड़ों पर चढ़ना तो पहले सीख लिया था
आज हिमालय पर वो चढ़ना सीख रहे हैं

भूख मिटाने को खेतों में जो उगते थे
गोदामों में जाकर सड़ना सीख रहे हैं

कहाँ मुहब्बत में मिलना मुमकिन होता है
इसीलिए हम रोज़ बिछड़ना सीख रहे हैं

नदी किनारे बसना सदियों तक सीखा था
गाँवों में अब लोग उजड़ना सीख रहे हैं

धूप निकल कर फिर आएगी इस धरती पर
दुनिया को हम लोग बदलना सीख रहे हैं

5
मैं सदियों से यहां हूँ, मैं सदियों तक यहीं हूँ
ये दुनिया है नई, मैं पुराना आदमी हूं

सभी अंधे हुए हैं, हैं आंखें पर सभी की
मैं सबको  देखता हूँ, मैं काना आदमी हूँ

सियासत पूछती है कि तेरा नाम क्या है
सियासत ने ये शायद, न जाना आदमी हूँ

मैं अपने गाँव से जब चला तो आदमी था
शहर में पर किसी ने, न माना आदमी हूँ

मैं क्या हूं, नाम क्या है, मेरी पहचान क्या है
क्यों मुझसे पूछते हो, कहा न, आदमी हूँ
--

         
परिचय:
नाम: डॉ. राकेश जोशी
जन्म: सितम्बर, 1970
शिक्षा: अंग्रेजी साहित्य में एम.ए.एम.फ़िल.डी.फ़िल.  
संप्रति: राजकीय महाविद्यालयडोईवालादेहरादूनउत्तराखंड में असिस्टेंट प्रोफेसर (अंग्रेजी) 
अंग्रेजी साहित्य में एम. ए., एम. फ़िल., डी. फ़िल. डॉ. राकेश जोशी मूलतः राजकीय महाविद्यालय, डोईवाला, देहरादून, उत्तराखंड में अंग्रेजी साहित्य के असिस्टेंट प्रोफेसर हैं. इससे पूर्व वे कर्मचारी भविष्य निधि संगठन, श्रम मंत्रालय, भारत सरकार में हिंदी अनुवादक के पद पर मुंबई में कार्यरत रहे. मुंबई में ही उन्होंने थोड़े समय के लिए आकाशवाणी विविध भारती में आकस्मिक उद्घोषक के तौर पर भी कार्य किया. उनकी कविताएँ अनेक राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होने के साथ-साथ आकाशवाणी से भी प्रसारित हुई हैं. उनकी एक काव्य-पुस्तिका "कुछ बातें कविताओं में", एक ग़ज़ल संग्रह पत्थरों के शहर में,था हिंदी से अंग्रेजी में अनूदित एक पुस्तक द क्राउड बेअर्स विटनेस अब तक प्रकाशित हुई है.
प्रकाशित कृतियाँ: काव्य-पुस्तिका "कुछ बातें कविताओं में", ग़ज़ल संग्रह पत्थरों के शहर में
अनूदित कृति:  हिंदी से अंग्रेजीद क्राउड बेअर्स विटनेस (The Crowd Bears Witness)
विशेष: कर्मचारी भविष्य निधि संगठन, श्रम मंत्रालय, भारत सरकार में हिंदी अनुवादक के पद पर मुंबई में कार्यरत रहे. मुंबई में ही उन्होंने थोड़े समय के लिए आकाशवाणी विविध भारती में आकस्मिक उद्घोषक के तौर पर भी कार्य किया. उनकी कविताएँ अनेक राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होने के साथ-साथ आकाशवाणी से भी प्रसारित हुई हैं. उनकी एक काव्य-पुस्तिका "कुछ बातें कविताओं में", एक ग़ज़ल संग्रह पत्थरों के शहर में,था हिंदी से अंग्रेजी में अनूदित एक पुस्तक द क्राउड बेअर्स विटनेस अब तक प्रकाशित हुई है.
छात्र जीवन के दौरान ही साहित्यिक-पत्रिका "लौ" का संपादन भी किया.
सम्पर्क:
डॉ. राकेश जोशी
असिस्टेंट प्रोफेसर (अंग्रेजी)
राजकीय महाविद्यालय, डोईवाला
देहरादून, उत्तराखंड
फ़ोन: 08938010850
ईमेल: joshirpg@gmail.com 


गाँधी होने का अर्थ

गांधी जयंती पर विशेष आज जब सांप्रदायिकता अनेक रूपों में अपना वीभत्स प्रदर्शन कर रही है , आतंकवाद पूरी दुनिया में निरर्थक हत्याएं कर रहा है...