Thursday 11 July 2019

कविता में वर्चस्ववाद के ख़िलाफ / चंद्रेश्वर


एक वरिष्ठ कवि का मानना है कि 'कविता कभी-कभार संभव होती है | वह स्वयं लिख जाती है | वह लिखी नहीं जाती है | यानी कविता लिखना और कवि होना एक तरह से ईश्वरीय विधान है | जबकि मेरा मानना है कि 'दुनिया रोज़ बदलती' रहती है | इस रोज़ बदलती दुनिया में समय के साथ-साथ जीवन और समाज की स्थितियाँ उनकी सच्चाइयाँ भी बदलती रहती हैं | इन सारी चीज़ों और उनके बदलावों पर अगर आपकी पैनी नज़र है तो आप उसके प्रति तटस्थ या चुप नहीं रह सकते हैं | कविता अगर समय की दबंगियत का प्रतिकार है, अगर वह कमज़ोर की ज़ुबान है तो कोई कवि कविता के संभव होने की प्रतीक्षा में भला कबतक चुप्पी साधकर बैठा रह सकता है! ये तो वो ही बात हो गयी कि किसी बड़े ज़ुल्मी या आततायी के अंत के लिए लोगबाग स्वयं संगठित होकर प्रतिकार या प्रतिरोध के बदले किसी अवतार की प्रतीक्षा करें |

इस तरह मेरे विचार से कविता में शाश्वत मूल्यों जैसी कोई बात नहीं होती है | यह बात प्रगतिशील-जनवादी लेखकों द्वारा बार -बार दुहरायी जाती रही है कि कविता अपनी समसामयिकता या तात्कालिकता में ही महत्वपूर्ण और कालजयी होती है | वह  शब्दों के ज़रिए समय के पदचाप को चिन्हित,रेखांकित या दर्ज़ करने का काम करती है | वह 'समय सहचर' या 'कालयात्री' की तरह है| वह अपने समय में होकर भी अपने अतीत और भविष्य से पूरी तरह संपृक्त होती है | 

दूसरी बात कि अपना कुनबा बढ़ता देखकर हर किसी को प्रसन्नता होती होगी | कुछ ऐसे वरिष्ठ कवि जो अपनी उम्र और लेखन की वरिष्ठता के नाते लगभग शीर्ष पर पहुँचने की स्थिति में होते हैं, वे उसी अनुपात में नयी पीढ़ी से चिढ़ने या उनकी टाँग खिंचाई में क्यों लग जाते हैं ? उनकी अनुदारता क्यों बढ़ती जाती है ?  वे अपने इर्द-गिर्द मीडियाकर चापलूसों या प्रशंसकों की ही उपस्थिति क्यों चाहते हैं ? यह शीर्ष पर पहुँचने वालों की नियति होती है या कोई अभिशाप है यह ?

क्या ऐसे शीर्ष रचनाकारों के बारे में भी नहीं कहा जा सकता है कि वे वर्चस्ववादी या सामंती संस्कारों के व्यक्ति हैं ?  क्या यह एक क़िस्म की अहमन्यता ही नहीं है ? यह ऐसे ही हुआ कि आप अपनी फ़सल खेत से खलिहान तक,खलिहान से घर तक लाने में क़ामयाब होने के बाद किसी दूसरे किसान को सफल होते हुए नहीं देखना चाहते !

क्या ऐसा नहीं है कि हर नए बदलते समय में कविता अपने लिए नया रास्ता अन्वेषित कर लेती है! कविता अपना 'फॉर्मेट' बना लेती है | कथ्य-रूप की पुरानी बहस में अगर कलावादियों की बात न करें तो लगभग यह स्थापना सर्वविदित है कि कविता में कथ्य अपना शिल्प तलाश लेता है |  आदमी जब सफ़र पर निकलता है तो राह ख़ुद -ब-ख़ुद दिखती जाती है या राह बनती जाती है | पहले से राह जानी-पहचानी हो और मंज़िल दिखती हो, कोई ज़रूरी नहीं है | पहले से किसी बने -बनाए ढाँचे में कविता लिखना एक तरह का शास्त्रीयतावाद है | अगर ऐसा ही होता तो  कविता आदिकाल से अपने रूप या शिल्प-संरचना को लेकर स्थिर या जड़ होती | मगर दुनिया में किसी भाषा में ऐसा नहीं होता है | अगर ऐसा होता तो आज भी हमारी हिन्दी में दोहा -चौपाई या कवित्त ही की शैली या संरचना में कविगण लिख रहे होते | हिन्दी में आधुनिक काल के भीतर ही देखा जाय तो भारतेन्दु युग से आज तक कविता ने शिल्प-संरचना को लेकर एक लंबी यात्रा की है | उसमें कई तरह के बदलाव दिखते हैं | शास्त्रीयतावादी इस बदलाव के प्रति हमेशा अपनी नाक-भौंहें सिकोड़ते रहते हैं | अगर महावीर प्रसाद द्विवेदी युग में ही निराला जैसी शख़्शियत कविता में नयी प्रयोगशीलता के साथ सामने नहीं आती तो हिन्दी कविता बंद दरवाज़े के भीतर दम तोड़ रही होती या तोड़ चुकी होती | पर समय-समय पर निराला जैसी शख़्शियतें अपनी-अपनी भाषाओं में कविता के लिए नए रास्ते तलाशती रहती हैं |

पुराने शिल्प को लेकर कविता में  यह प्रवृत्ति मध्यकालीन रीतिवादी कवियों में ज़्यादा दिखाई देती है | समकालीन कविता में भी ऐसी कोशिश एक तरह का रीतिवाद है| इस तरह की रीतियों या रूढ़ियों से आज की कविता को बचाए जाने की ज़रूरत है | हमारे बीच आज भी ऐसे कई कवि हैं जिनकी कविताओं में 'क्रॉफ्टिंग' पूर्व नियोजित होती है | यह भी एक क़िस्म का कलावाद ही है | इसी तरह आज कविता में छंद का अभ्यासपूर्ण प्रयास भी कविता में कथ्य की अबाध प्रस्तुति के लिए एक तरह की बाधा है |कोई वरिष्ठ कवि  यह क्यों चाहता है कि नयी पीढ़ी उनको ही फॉलो करे ! 

मेरे वरिष्ठ कवि  यह भी कहते हैं कि कविताएँ जो याद हो जाएँ,वे ही श्रेष्ठ होती हैं | मेरे लिहाज़ से आज के समय में  श्रेष्ठ कविताओं की यह कोई कसौटी नहीं है | आज छपाई की तकनीक ने हमें यह सुविधा दी है कि हम किसी कवि के काव्य- संग्रह को प्रकाशक से खरीदकर घर ला सकते हैं और उसे इच्छा हुयी तो बार -बार पढ़ सकते हैं | हम दुनिया भर के कई कवियों को पढ़ते रहते हैं, पर ज़रूरी नहीं कि उन सबको याद भी रखें | यह एक क़िस्म का ग़लत हठ है | हाँ,यह संभव है कि अपने प्रिय कवियों की कुछ कविताएँ हम कंठस्थ कर लें ,सहज -स्वाभाविक रूप से | पर इस स्मृति को लेकर हम कविता के लिए कोई मानक नहीं तय कर सकते हैं | मेरे वरिष्ठ कवि का यह कहना कि हम सच्चे काव्य प्रेमी हैं और कई कवियों की कविताओं को मौखिक सुना सकते हैं, इससे न तो कविता महत्वपूर्ण हो जाती है, न ही कविता को रचने वाला कवि | ऐसा कहना एक तरह के दंभ को ही सामने लाता है|  यह एक तरह की जुमलेबाजी है | यह मदारी की भाषा है| यह भी ज़रूरी नहीं कि कोई कविता को कंठस्थ कर उसे बेहतर समझता भी हो | इस तरह की बातों से सामान्य लोगों को भले भ्रमित किया जाए, कोई समझदार आदमी तो इस झाँसे में नहीं आ सकता है | ऐसे तो फ़िल्मी गीत ज़ल्द याद हो जाते हैं | वे संगीतात्मक भी होते हैं| मगर इससे वे स्तरीय काव्य में नहीं बदल जाते हैं | दूसरी तरफ कुछ फ़िल्मी गीत अपनी कथ्य -संवेदना की जीवंतता या मज़बूती के चलते महत्वपूर्ण या श्रेष्ठ कविता में बदल जाते हैं | मेरा यह भी मानना है कि कोई ज़रूरी नहीं कि  संगीत कविता को स्तरीय या महत्वपूर्ण बनाये | मेरी दृष्टि से कविता को प्रभावशाली बनाता है उसका कथ्य | यह बात दुहराते रहने या स्मरण रखने के लिए है | अगर कवि की बात में ही दम नहीं तो कविता प्रस्तुति के आधार पर प्रभावशाली नहीं हो सकती है| हाँ,कला-शिल्प और संरचना  के महत्व को अस्वीकार नहीं किया जा सकता है | इससे भाषा का मुद्दा भी जुड़ा हुआ है | पर कला पर ज़रूरत से ज़्यादा ज़ोर कवि को अंततः कलावाद की तरफ़ ले जाता है | हिन्दी कवि रघुवीर सहाय यूँ ही नहीं कहते कि 'जहाँ कला ज़्यादा होगी, वहाँ कविता कम होगी|'अर्थात् सच्ची कविता की जान तो उसके कथ्य में होती है |  कविता में कथ्य -शिल्प का बेहतरीन परिपाक उसे बेशक श्रेष्ठता की ओर ले जाता है | इससे भला कौन इंकार करेगा !

अगर आप अपनी कविताओं को बढ़िया तरीके से, नाटकीय अंदाज़ में सुना सकते हैं तो यह कविता को प्रस्तुत करने की कला हो सकती है | इससे भी यह ज़रूरी नहीं कि वह एक श्रेष्ठ कविता है | अगर आवाज़ का ही जादू सर्वोपरि होता तो फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ की ग़ज़लें /नज़्में आज उनके मरणोपरांत महत्वपूर्ण नहीं होतीं | सच्ची कविता के लिए सिर्फ़ उक्ति वैचित्र्य का होना भी मायने नहीं रखता है | मेरा अब भी यक़ीन है कि सच्ची और प्रभावशाली कविता अभिधा की सादगी में ही महत्वपूर्ण होती है |  आज अगर मंचों पर अपने समय में गले और आवाज़ को लेकर बेकल उत्साही  'पॉपुलर' थे तो उनकी छपी शायरी बेजान क्यों लगती है ? इसी तरह दूसरी ओर रफीक सादानी और अदम गोण्डवी जैसे शायर जो लोक जीवन से गहरे जुड़े थे, उनकी कविताई में लोकचेतना से जुड़े प्रभावशाली कथ्य और उसके सादगीपूर्ण कहन का जादू लंबे समय तक आगे भी बना रहेगा | इनकी कविताई लोक की पीड़ा, उसके संघर्ष को लोक की ही कलात्मक ज़ुबान में सामने रख देती है | कुछ कवि शताब्दियाँ लाँघ जाते हैं अपनी कविताई के दम पर | कुछ कवि  अपनी मृत्यु के तत्काल बाद विस्मृत होने लगते हैं | अगर  निराला या मुक्तिबोध ,नागार्जुन या धूमिल या गोरख पांडेय या  वीरेन डंगवाल या अदम गोण्डवी की कविताएँ  महत्वपूर्ण बनी हुयी हैं तो अपने कथ्य और उसमें समाहित जन की या लोक की पीड़ा अथवा अाशा-आकांक्षाओं  को लेकर ही |

कवि के लिए लोक का अनुभव विशेष मायने रखता है | अगर कवि बड़े शहर में जनजीवन की हलचलों से दूर एकाकी और सुविधाभोगी जीवन जीने का अभ्यासी है तो वह अपनी कविता में उक्ति वैचित्र्य या जुमलेबाजी  के ज़रिए ऐसी कविताएँ रचेगा जो या तो दार्शनिकता का पुट लिए होंगी या कोरी वैचारिक या स्पंदनहीन | कविता में लोकजीवन या जनजीवन से अलग-थलग कवि 'क्राफ्ट्स' पर चाहे जितनी मेहनत करे और साल में किसी एक कविता की रचना करे, पर कविता में वस्तु महत्वपूर्ण नहीं है तो वह असरदार नहीं हो सकती है| लोगबाग क्यों कहते हैं कि 'घी का लड्डू टेढ़ो भला' ! अगर लड्डू  देशी शुद्ध घी का है तो ढेढ़ा होने पर भी स्वाद में बेहतरीन होगा | अगर वह घटिया डालडा या तेल का होगा तो स्वाद में कमतर हो जायेगा |  यहाँ पर घी के टेढ़े लड्डू के लिए भी लोक की स्वीकृति दिखाई देती है | यह बात कविता के कथ्य-शिल्प पर भी लागू होती है | कथ्य दमदार हो तो कविता स्वीकार की जा सकती है, पर ख़ाली शिल्प के दम पर उसका लोक के आगे टिकना कठिन है |  वैसे भी घी के लड्डू का एकदम सुंदर और गोल होना बहुत मुश्किल होता है | ऐसे ही दमदार कथ्य वाली कविता शिल्प में तोड़-फोड़ करते हुए सामने आती है | इसका मतलब यह नहीं है कि कवि को अपनी कविता में शिल्प -संरचना या कलापक्ष के प्रति लापरवाह होना चाहिए | ऐसे मेरा मानना है कि कविता में कथ्य-शिल्प दोनों का उम्दा होना एक आदर्श और समुन्नत स्थिति है |

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Tuesday 2 July 2019

समीक्षा – ‘सुशील से सिद्धार्थ तक‘ / डॉ हरीश कुमार सिंह



तुलसी की काया और कबीर की आत्मा वाले सुशील सिद्धार्थ “


     आलोचक और साहित्यकार श्री राहुल देव के संपादन में पुस्तक सुशील से सिद्धार्थ तकहाल ही में वनिका प्रकाशन, नई दिल्ली से आयी है | यह पुस्तक प्रख्यात व्यंग्यकार स्व. सुशील सिद्धार्थ पर केन्द्रित है जिसमें जाने माने साहित्यकारों, व्यंग्यकारों के संस्मरण हैं | व्यंग्यकार, साहित्यकार, गजलकार, संपादक सुशील सिद्धार्थ साठ वर्ष की आयु में ही अचानक से सबको अलविदा कह गए और उनका जाना व्यंग्य के लिए गंभीर क्षति माना गया क्योंकि सुशील जी व्यंग्य के क्षेत्र में कुछ अनुपम और बड़ा कार्य कर रहे थे और व्यंग्य को लेकर कई योजनाएँ उनके जेहन में थीं | साहित्यकार आते हैं ,जाते हैं मगर सुशील जी से जुड़े व्यंग्यकारों के लिए 17 मार्च 2018 का दिन किसी वज्रपात से कम नहीं था | इसीलिए उनसे जुड़े लेखकों ने आदरणीय ज्ञान चतुर्वेदी जी के मार्गदर्शन में और युवा आलोचक, संपादक राहुल देव और व्यंग्यकारप्रकाशक डा नीरज सुधांशु की अगुआई में यह तय किया कि सुशील जी पर कोई संस्मरणात्मक पुस्तक आना चाहिए | सुशील जी पर इतने कम समय में इस पुस्तक का प्रकाशन ,सुशील जी की अपने व्यंग्यकारों ,लेखकों के बीच उनकी ग्राह्यता और लोकप्रियता का भी प्रमाण है |
संस्मरणात्मक पुस्तक सुशील से सिद्धार्थ तक में संपादक राहुल देव के अलावा उनतीस लेखकों ने अपने संस्मरण साझा किये हैं और उनके व्यक्तित्व ,कृतित्व पर भी अपनी अपनी बात कही है | इन लेखकों में पद्मश्री ज्ञान चतुर्वेदी , वरिष्ठ साहित्यकार सुश्री मैत्रेयी पुष्पा , व्यंग्यकार निर्मल गुप्त , रमेश सैनी , डा रामबहादुर मिश्र , ओम निश्चल, कमलेश पाण्डेय , अतुल चतुर्वेदी , डा पिलकेंद्र अरोरा , अशोक मिश्र आदि ने बड़ी ही आत्मीयता से सुशील जी पर लिखा है |
साहित्यकार सुश्री मैत्रेयी पुष्पा ने सुशील जी से अपने साक्षात्कार के दौरान हुए प्रारंभिक परिचय से लेकर सुशील जी की साहित्य के प्रति समर्पण पर खूब लिखा है | वे लिखती हैं कि कोई नहीं दिखता कि अब जिसको फोन करूँ जिससे पूछूँ ! तुम तो ऐसे बिना कहे चले गये कि आज तक तुम्हारे न होने का यकीन नहीं होता | जब तुम लखनऊ से दिल्ली आये थे ,लोग तुम्हें कितना ही चलते पुर्जा मानते रहे हों ,मेरे लिए तुम वही सुशील थे जिसने मेरा इंटरव्यू लिया था और आत्मीयता उंडेल दी थी | वे लिखतीं हैं एक बार हमने व्यंग्य विधा पर गोष्ठी रखी ,बड़े बड़े नामी व्यंग्यकारों के बीच सुशील अव्वल रहे |’ सुशील जी , पुष्पा जी के लिए बेहद आत्मीय रहे इसीलिए पुष्पा जी ने सुशील जी के दिल्ली में संघर्ष के दिनों को याद किया तो कुछ प्रकाशन संस्थानों द्वारा सुशील जी की संपादक के रूप में कद्र नहीं कर पाने पर अफ़सोस भी व्यक्त किया | अपने शीर्षक धूमकेतु की तरह व्यंग्याकाश में उभरे थे वह में ही  ज्ञान चतुर्वेदी जी, सुशील जी की व्यंग्य यात्रा के बारे में सार व्यक्त कर डालते हैं | ज्ञान जी की पंक्तियाँ सुशील जब अपना सर्वश्रेष्ठ देने के दौर में आ रहे थे तभी यूँ असामयिक चले गए | वह बेहद प्रतिभाशाली थे ऐसा कहना मेरा अतिकथन नहीं है | ‘ एक वक्तव्य में ज्ञान जी ने कहा था कि सुशील जी पांच वर्षों में जो कर गए कई व्यंग्यकार पचास वर्षों में भी नहीं कर पाए | असल में सुशील जी व्यंग्य लेखन में बाद में आये और आते ही पाठकों ,आलोचकों का ध्यान अपनी और खींचा | लेखक रामबहादुर मिश्र जी ने सुशील जी और अपने बीच हुए पत्राचार को इस पुस्तक में रखा है जो सुशील जी के अवधि साहित्य के लिए कुछ कर गुजरने की असीम ईच्छा को व्यक्त करता है | इसी पत्राचार से पता चलता है कि सुशील जी ने प्रिंटिंग प्रेस भी चलाई और अर्थाभाव में सडक पर भी आ गए थे |
सम्पादक श्री अशोक मिश्र ने सुशील जी से जुडी यादें साझा करते हुए लिखा है कि उनका बेलौस ,फक्कड़ अंदाज ,चेहरे पर हल्की मुस्कान और साहित्य की शानदार समझ लोगों का मन मोह लेती थी | उनके पास खिलखिल करती भाषा , सधा वाक्य विन्यास , विशेषण , उपमाएं , भाषा का ऐसा खिलंदडापन था कि पुस्तक समीक्षा तो वे पलक झपकते लिख डालते थे | आज के दौर में हर व्यक्ति अर्थ के पीछे भागता है तो वे शब्द की दुनिया जीते थे | लेखक ओम निश्चल लिखते हैं कि कभी उनसे बात कीजिये तो वे इतनी दुनिया जहान की बातें आपके सामने रख देते कि लगता वे हिन्दी ही नहीं दुनिया जहान की तमाम बातों के विश्वकोष हैं | मुझे याद है कि जिस विधा में भी हाथ डालते वह विधा उनकी अपनी हो जाती | ख्यात रंगकर्मी विजय पंडित लिखते हैं कि सुशील जी साहित्य में तप कर निकले थे | हिन्दी साहित्य के एक बड़े लिख्खाड और अजातशत्रु को मेरा नमन | साहित्यकार विवेक मिश्र ,सुशील जी के करीबी थे वे लिखते हैं कि उस आदमी में रहते थे , दस- बीस आदमी | ‘अपने लेखन से उन्होंने अपने बैरी भी खूब बनाये थे पर आज याद करने वाली बात यह है कि उनके लेखन से इर्ष्या रखने वाले व्यंग्यकार भी दबी जुबान में उनके व्यंग्य की धार का लोहा मानते थे | उनकी आलोचना में रचना मुखर होती थी ,रचनाकार नहीं | परसाई की नगरी जबलपुर से व्यंग्यकार रमेश सैनी अक्सर सुशील जी से बात करते रहते थे और विश्व पुस्तक मेले में उनसे मुलाकात के समय रमेश जी को सुशील जी ने बताया था कि प्रकाशन संस्थान में नौकरी करना अपने तन और मन को बंधक बना कर रखना है , यह बन्धुआगिरी से कम नहीं है |
संजीदा व्यंग्यकार निर्मल गुप्त , सुशील जी की गुडबुक्स में थे ऐसा मुझे सुशील जी से बातचीत में लगता था  और निर्मल जी भी सुशील जी से अंतर्मन से जुड़े थे | वह लिखते हैं कि सुशील लेखन के अखाड़े के स्ट्रीट स्मार्ट खलीफा थे | वह असलियत की धरती पर पाँव जमाकर अपनी लेखनी के हुनर से पढने वालों को अपना कायल बनाते | सुशील जी को याद करते हुए निर्मल जी ने एक कविता में सुशील जी का खाका खींचा है | ‘लफ्जपत्रिका के सम्पादक रहे व्यंग्यकार कमलेश पाण्डेय ने भी सुशील जी पर अंतरंगता से लिखा है कि अच्छी योजनायें बनाना ,पहल के लिए हमेशा तत्पर रहना और बेहद श्रमशील होना जैसे गुण उन्हें सहज अगुआ बना देते थे | इन दो वर्षों में मैंने जितना काम करते देखा ,उन्हें व्यंग्य का सुपरमेन कहने को जी चाहता था | लेख के अंत में कमलेश जी लिखते हैं कि महानगर में गमे - रोजगार का जिन्न उनकी  रचनात्मकता ,यारबाशी ,जीवन्त्तता , और विस्फोटक प्रतिभा का कुछ नहीं बिगाड़ पाया तो चिढ़कर उनसे जिंदगी ही छीन ली | वरिष्ठ व्यंग्यकार ब्रजेश कानूनगो ने लिखा है कि सुशील जी ने व्यंग्य लेखक समिति वलेस व्हाट्सएप समूह बनाकर व्यंग्य लिखने वाले अनेक नए पुराने रचनाकारों को इकठ्ठा करके व्यंग्य विधा के लिए समझ बढाने और आलोचना में उसके व्यवस्थित सौंदर्यशास्त्र के विकास की सुशील जी की गहरी आकांक्षा थी | ख्यात व्यंग्यकार डा अतुल चतुर्वेदी ने सुशील जी को शिद्दत से याद करते हुए लिखा है कि उनके व्यंग्य लेखन के कद और समझ का मुझे पूरा अंदाज हो चुका था और उनके लेखन की शैली से खासा प्रभावित भी था | मुझे लगता था कि व्यंग्य की दुनिया में एक गंभीर और महत्वपूर्ण व्यक्तित्व आ चुका है | वे लिखते हैं कि पंच मारने वाला व्यंग्य का यह सरपंच यूँ ही हमारे बीच से अचानक रुखसत हो जायेगा |
लेखक अनुराग आग्नेय सुशील जी को बड़ा भाई मानते थे वे लिखते हैं कि वे अपनी वाली पर उतर आते थे तो बड़े से बड़े फन्ने खां को कुछ नहीं समझते थे | साहित्य के अपने फरेबी लोगों को खूब जानते थे सुशील जी मगर ऐसे विष पुरुषों की मनोवृति को भलीभांति जानते हुए भी वे अनुराग से कहते थे मैं सब कुछ जानता हूँ अनुराग ! लेकिन इतनी हुशियारी क्या ,जालिम कुछ तो धोखा खा ले | अनुराग की नजरों में सुशील जी की काया तुलसी की और आत्मा कबीर की थी | अनुराग के इन्हीं शब्दों को इस लेख का शीर्षक दिया है क्योंकि सुशील जी रामचरित मानस के मर्मज्ञ थे और उनके व्यंग्य कबीर के दोहों की तरह पाखंड पर सदाबहार प्रहार करते हैं | सुशील जी के लखनवी दोस्त कवि सम्मेलनों के मंच के सिद्धहस्त कवि मुकुल महान का कहना है कि उनका मौन बोलता था और उनका बोलना लोगों के मौन को शब्द देता था | मुकुल वलेस के संस्थापक सदस्यों में रहे और वलेस के उदय की कहानी आपने चित्रित की है | बाद के समय में वलेस  के कई संस्थापक सदस्यों और सुशील जी के बीच मतभेद हुए और वलेस से आवाजाही भी रही मगर मुकुल और अन्य सदस्यों ने सुशील जी से अगाध प्रेम बनाये रखा जो यह बताता है कि इनमें कभी मनभेद नहीं रहे | वलेस के एक और संस्थापकों में से एक प्रख्यात कविवर पंकज प्रसून और सुशील जी की जुगलबंदी जगजाहिर रही | पंकज और सुशील जी में एक अलग ही साहित्यिक प्रेम था जो उनकी बातचीत से झलकता था और उनकी यह व्यंग्य भरी चर्चा भी व्यंग्य बन जाती थी | पंकज ने ऐसे कई संवाद वलेस पर डाले और सबने मजे लेकर पढ़े क्योंकि इनमें शैली आनंदित करती थी | पंकज लिखते हैं कि सुशील जी बतरस के मास्टर थे | ठेठ देशज मुराही , गूढ़ आध्यात्मिक दर्शन , निरे अक्खडपन का काकटेल थे | पंकज लिखते हैं कि जहाँ तक मैं समझता हूँ साहित्य जगत की विसंगतियों पर उनसे ज्यादा और किसी ने कलम नहीं चलाई होगी | एक सुशील सिद्धार्थ के अंदर कई सुशील सिद्धार्थ समाये हुए थे | मेज को ठोक कर पूरे सुर में हमको तुमसे हो गया है प्यार क्या करें गाते सुशील , रोज नए पंगे लेने वाले सुशील , दूसरों को पूरी किताब लिख कर दे देने वाले सुशील , मुझ अकिंचन को इतना प्यार करने वाले सुशील  | तमाम योग्यताओं के बावजूद भी सुशील जी को लखनऊ के विश्विद्यालय में प्राध्यापक की नौकरी मिलते मिलते रह गयी , रह गयी तो क्यों रह गयी यह सवाल मेरे मन में हमेशा रहा मगर इस रहस्य का पर्दा पंकज ने अपने एंगल से इस लेख में उठाया है | ख्यात व्यंग्यकार अर्चना चतुर्वेदी उन्हें स्मरण करते हुए लिखतीं हैं कि उनका साहित्यिक ज्ञान सच में बहुत से बड़े नामों से कहीं ऊपर था | उनकी दृष्टि बहुत पैनी थी | अर्चना जी का मानना है कि सुशील जी का असमय जाना व्यंग्य की बहुत बड़ी क्षति है | अगर वे कुछ साल और रह पाते तो शायद व्यंग्य का बहुत भला हो जाता |
वरिष्ठ व्यंग्यकार ओम वर्मा ने सुशील जी के संस्मरणों के साथ उनके व्यंग्य संकलनों की भी विस्तृत चर्चा की है | ओम जी लिखते हैं कि व्यंग्य में वे जितने जेनुइन थे उतने ही समालोचना  और अवधि कविताओं में भी | ओम जी अंत में लिखते है कि सुशील सिद्धार्थ अपने रचनाकर्म और व्यवहार में तो सुशील थे ही , व्यंग्य की दुनिया में अपने प्रश्नों की खोज में निकले सिद्धार्थ थे जिन्हें बोधिवृक्ष की तलाश थी | लखनऊ की व्यंग्यकार सुश्री वीना सिंह लिखतीं हैं कि इस संसार में आना और जाना तय करना तो किसी के भी बस में नहीं ,पर किसी का अचानक या असामयिक चले जाना अखरता बहुत है | कोयले को हीरे की तरह तराश देने की उनमें अद्भुत क्षमता थी | उनके लिए सच्ची श्रद्धांजली यही है कि हम सब उनके अधूरे कार्यों को पूरा करने का संकल्प लें | व्यंग्यकार डा अनीता यादव लिखतीं हैं कि वे लाजवाब वक्ता थे , जो सब श्रोताओं पर अपनी छाप छोड़ जाते थे न केवल अभिव्यक्ति की शैली के तौर पर बल्कि विषय के गहन ज्ञान को लेकर भी | हम तुम्हें यूँ भुला न पायेंगे ....गीत की पंक्ति अनायास ही याद हो उठती हैं | व्यंग्यकार इन्द्रजीत कौर लिखतीं हैं कि उन्होंने  व्यंग्य रचना और विमर्श को नए आयाम दिए | नित नयी योजनायें उनके रचनाशील दिमाग में उपजती रहतीं थी | वरिष्ठ व्यंग्यकार प्रभाशंकर उपाध्याय का अंदाजे बयां जुदा है सुशील जी पर | वे लिखते हैं कि भला उस खुसूसी शख्सियत को कौन और कैसे विस्मृत कर सकेगा | ......आज और कल करते करते दिन निकल गए और एक दिन सुशील जी ही निकल लिए | व्यंग्यकार मीना अरोरा सुशील जी को छोटे कद का बड़ा साहित्यकार मानतीं हैं | मीना जी के शब्दों में याद कर आपको, आँखें तो नम होंगीपर , होंठ मुस्कुराएंगे सुशील सर , आप बहुत याद आएंगे | वनिका पब्लिकेशन की निदेशक और व्यंग्यकार डा नीरज सुधांशु कहतीं हैं कि सुशील जी कार्यनिष्ठा व् समयबद्धता के पक्षधर थे | उनके जाने से जो साहित्य की जो क्षति  हुई है वह अपूरणीय है | व्यंग्यलेखन , आलोचना ,संपादन, पध्यलेखन ,सोशल मीडिया पर भी सक्रियता व अन्य अनेक जिम्मेदारियों को एक साथ निर्वाह करने की कूवत किसी में नहीं होती | उज्जैन के वरिष्ठ व्यंग्यकार डा पिलकेंद्र अरोरा लिखते हैं कि ऐसा लगा जैसे मध्यान्ह में हुआ एक सूर्यास्त | अपने समय ,सरोकार और समाज के प्रति उनकी चिंतायें गहरी और व्यापक थीं | व्यंग्य के सिद्धार्थ बुद्ध बनने के मार्ग पर थे | अरोरा जी ने सुशील जी के उज्जैन आगमन की  स्मृतियाँ भी साझा की हैं | भोपाल के सक्रिय व्यंग्यकार विजी श्रीवास्तव ने लिखा कि तुम जैसे गए ,ऐसे भी तो जाता नहीं कोई | विजी जी लिखते हैं कि सुशील जी विलक्षण थे क्योंकि वे सतत रूप से प्रस्फुटित रहने वाले बुद्धिजीवी थे | खेमेबाजे से हटकर उन्होंने व्यंग्यकारों का एक परिवार बनाने की कोशिश की जिसमें वे काफी हद तक सफल रहे | ज्ञान चतुर्वेदी सम्मान से सम्मानित व्यंग्यकार शान्तिलाल जैन लिखते हैं कि मुफलिसी के बावजूद  भी साहित्य सृजन और विशेष तौर पर व्यंग्य की बेहतरी के लिए संघर्ष कर रहे थे | उनके जाने के बाद भी वलेस चल तो रहा है मगर वैसा ही जैसा राजकपूर के जाने के बाद आरके स्टूडियो चलता रहा | उपन्यासकार महेंद्र भीष्म , डा हरीशकुमार सिंह और कवयित्री अंजू शर्मा ने भी सुशील जी की स्मृतियों को बखूबी साझा किया है |
संपादक राहुल देव ने अपनी सम्पादकीय भूमिका में सुशील जी के व्यक्तित्व और कृतित्व के बारे में लिखा है कि उनके अंदर रचनात्मक सादगी , व्यंग्य की प्रखर रचनात्मक प्रतिभा व निरपेक्ष आलोचनात्मक क्षमता थी | वे जैसे अंदर से थे वैसे ही बाहर से भी आपसे मिलते थे | उन्हें समकालीन साहित्य के साथ साथ अवधि के लोकसाहित्य की भी गहरी समझ थी | अपने मूल स्वभाव में वे बड़े ही विनोदप्रिय थे | राहुल लिखते हैं कि सुशील जी ने अपनी व्यंग्य रचनाओं से व्यंग्य में अपना एक अलग मुहावरा विकसित किया था | वे अपनी रचनाओं के माध्यम से व्यंग्य विधा को एक नया शिल्प और सौन्दर्य प्रदान कर उसे संकट के दौर से निकालकर एक विशिष्ट पहचान दिलाने में सफल सिद्ध हुए | हिन्दी व्यंग्य के आकाश में सुशील जी हमेशा ध्रुव तारे की तरह चमकते रहेंगे |
पुस्तक सुशील से सिद्धार्थ तक में सभी लेखकों ने सुशील जी से रूबरू होकर जीवंत लिखा है | सुशील जी लेखकों से ऐसे जुड़े थे कि सुशील जी के असामयिक निधन की खबर पर सहसा किसी को यकीन नहीं हुआ | यह भी सही है कि सुशील जी से जुड़े कुछ लेखक / व्यंग्यकार शून्य में चले गए और कई कई रात सोये नहीं कि सुशील जी ऐसे कैसे चले गए | अपनी तमाम कमजोरियों के बावजूद भी वे सबके ख़ास और प्रिय रहे | मुझे उपन्यास लिखने के लिए प्रेरित किया और बीस पृष्ठ मैंने लिख भी डाले मगर उनके जाने के बाद एक साल गुजर गया , एक शब्द भी नहीं बढ़ा उस उपन्यास में  | पुस्तक के सभी लेखकों का मत है कि ज्ञान जी के बाद , व्यंग्य में सुशील जी ही ऐसे थे जो , वर्तमान व्यंग्य की पताका को आगे ले जा सकते थे | यह भी सही है कि वे स्वयं भी जानते थे कि उनके पास समय कम है और कम से कम समय में बहुत कुछ करना चाहते थे | आजीविका के संघर्ष में तपकर सुशील जी साहित्य की कई विधाओं के कुंदन हो गए थे | हिंदी की संस्मरण विधा में बहुत कम लेखन हो रहा है जबकि यह एक लोकप्रिय विधा रही है | संस्मरण के जरिये हम अपने प्रिय रचनाकार के व्यक्तित्व और कृतित्व के लगभग सभी छुए अन छुए पहलुओं को जान सकते हैं | जिनसे हमें उस रचनाकर को सम्पूर्णता से समझने का अवसर मिलता है | ऐसी किताबें कम ही प्रकाशित होती हैं | सुशील जी को चाहने वालों के लिए यह किताब किसी उपहार से कम नहीं है

      - डा हरीशकुमार सिंह
                 9425481195
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गाँधी होने का अर्थ

गांधी जयंती पर विशेष आज जब सांप्रदायिकता अनेक रूपों में अपना वीभत्स प्रदर्शन कर रही है , आतंकवाद पूरी दुनिया में निरर्थक हत्याएं कर रहा है...