Saturday 7 November 2020

सरोज सिंह के कविता संग्रह पर कुसुमलता पाण्डेय की समीक्षा

शब्दों की क्यारी में/अनायास ही छींट दे/कोई उदास मन/भावनाओं के बीज/तो बिखर जाती हैं/कविता की नर्म महक।ऐसा मेरा मानना है और कदाचित कवियत्री सरोज सिंह भी मेरी इन पंक्तियों से पूर्णतया इत्तेफाक रखती है क्योंकि उनके नवीनतम कविता संग्रह "तुम तो आकाश हो" मे इन पंक्तियों की परछाई स्पष्ट परिलक्षित हुई हैं। युवा कवियित्री के इस संग्रह की कविताएं घोषणा करती हो मानों कि मेरा जन्म अन्तर्द्वन्द्व की कोख से हुआ है। बदलाव की गंध लिए संग्रह इस तथ्य का स्वमेव प्रमाण बन पडा हैं कि कवि अमूर्त कल्पनाओं की विथियों मे उपजे मनोसुख का शिकार नहीं है।यह परिस्थितियों से संघर्ष या यथार्थ के सरोकारों की टकराहट से व्युत्पन्न हुई हैं और ये जीवन मे फैले पडे अथाह धूसर सन्नाटे की ओर झांकने का मौका दे जाती हैं। कविताओं में नए बिम्ब गढने मे कवियित्री ने काबिलेतारीफ श्रम किया है। "मैं बांट जोहू सूर्य का" कविता से दृष्टव्य हैं-: निराशा के मसान मे/चिंता चिताओं सी जल रही/जिजीविषा हाथ मल रही/अंधियारा जो छंटता नही/मैं बाट जोहू सूर्य का/आशा के नव विहान मे।"

            संग्रह की एक लम्बी कविता "गृहस्थी की कांवर मे" कवियित्री की चाह समय की जायज मांग है। हमनें अब तक पुरूष के पुरुषत्व से स्त्रीत्व मिलते देखा है। कविता का गणित देखे-: तुम अपने भीतर के छिपे स्त्रीत्व क़ो/मेरे भीतर के छिपे पुरूषत्व से मिला दो/क्योंकि,, शिवालय मे बैठे उस अद्धनारीश्वर को/यह जलाभिषेक, तभी पूर्ण एवं सफल होगा। "प्रतिध्वनित स्वर" कविता में लिखा गया है "मैं अब भी अबोध सी/खडी हूँ उसी शिला पर/कि कभी तो/प्रतिध्वनित स्वर/मेरे मौन को/मुखरित करने/पुनः आवेगे।"चिरप्रतीक्षा को बिषय वस्तु बनाकर आधुनिक खांचे मे नाप के अनुरूप फिट बैठते मनोरम बिम्ब का प्रयोग हुआ है। "इक ख्वाब संजोया हैं मैंने" मे कवियित्री अपने प्रणय साथी को सुख और बेहतर देने को संकल्पित हैं:- "हालात से मिले दो सिक्कों से दो ही रुत मुझे मोल मिले/इक पतझड़ मै रख लूगी,दूजा बसंत वो तुम चुन लेना। "इसी भाव को दोहराती"कह देते मुझसे एक बार"कविता संग्रह मे संकलित हैं।सम्बन्धों को सहेज लेने की परवाह दृष्टव्य और प्रशंसनीय है।"सम्बन्धों को सहेज लेने की परवाह दृष्टव्य और प्रशंसनीय हैं।"सम्बन्धों के मंथन मे/सदा अमृत ही चाहा तुम्हारे लिए/किंतु अमृत पान कहाँ सरल है गरल के बिना/कह देते मुझसे एक बार, मै उपलब्ध थी आचमन के लिए।

            "इंतजार"कविता में शब्दों की तूलिका के स्पर्श ने दिलकश चित्रात्मकता उडेली है।"अक्सर इंतज़ार की दहलीज पर/अपनों के लौट आने का/होने लगता है एतबार/जैसे कि जाती हुई नदी/आती हूँ कहकर/पर्वत, घाटियों से होती हुई/फिर लौट आती हैं सावन मे।प्रकृति के यथार्थ परक बिम्ब कविताई सलीके से कविता "बूदें"मे देखने को मिला है।:-किन्तु हमारा मौन/मेरे सम्मुख रच देता है/इस नेह को निहारता सूरज/समेट लेता है/अपनी तीक्ष्ण किरणें।प्रकृति से सम्बद्ध कोमल बिम्बों की प्रचुरता से रसासिक्त कविता"तसब्बुर तेरा"मुग्ध कर जाती हैं:-मगर जेहन के /किसी तंग सी गर्त से/रूह की सतह पर/टप..टप..टप/रिसता रहता हैं/अब भी/तसव्वुर तेरह।"हे शव्द शिल्पी"कविता में देखे तो कवियित्री की चिंता जायज कही जाएगी कि कही संवेदनशील कवि मन नायिका के भाव के प्रति अगम्भीरता वश न्याय नहीं कर सके।सच ही तो हैं प्रेम मन का वह कोमल भाव है जिसकी अभिव्यक्ति भी उतनी ही संवेदनशील  ता मांगती है।

             "तलाश" व "रामस्पर्श"मे जीवन जितना दिखाई दे रहा है उससे कहीं ज्यादा अव्यक्त है।स्त्री जीवन से सम्वद्ध बारीक व सुकोमल तन्तुओं की नब्ज कोकविता"मेरी मुक्ति का दिवस"सधे शव्दों मे छू जाती हैं।:-इस जीवनधारा मे/एक क्षण ऐसा आएगा/जब,तुम्हें मेरा स्मरण होगा/तब तुम, मेरे संजोए/किसी एक स्वप्न को/याद कर लेना!"प्रिय"एक लम्बी कविता है जो स्त्री जीवन की तल्ख और भयावह विडंबना उजागर करती हैं।:-"उन रंगों ने उसे, लड़की से/ज्यामिति बना दिया/जिसे केवल/जांचा,नापा,परखा जा सकता है/उसे अब लडकी बनने नहीं देता/उस भयावह घटना को/वो वक्त की खिडक़ी से/परे ढकेल देना चाहती है/पर समाज और हालात।ब्लात्कार औरत के जीवन की वह पीड़ा है जिसे सिर्फ उसे इसलिए भोगना पड़ता हैं कि वह औरत है।जिसके बाद प्रतिकूलता से लड़ने का साहस चुकता जाता हैं औरबंदरंग,उदास, निराश जीवन उसे पल-पल मुंह चिढाता हो जैसे।न्याय व्यवस्था की मंथर गति को कविता की बुनावट मे अपने बिषय की गम्भीरता से चिंतित करती कविता है।

             मां अब घरों में चौखट नहीं होती/इसलिए अब वे मजे से लांघ जाती हैं एवरेस्ट भी।"चौखट कविता में कवियित्री मां की चिंता(बेटी को ठोकर लगने की)चौखट न होने का हवाला देते हुए निराधार ठहरा देती हैं।"अल्कॉहलिक"कविता शराब की गिरफ्त में जकड़न का हाल सुनाती हैं।"मन के फागुन से लाइव 1":-खांटी गंवई फागुन कवियित्री के मन में जीवित प्रकृति चित्रों के माध्यम से कविता में जीवन्त कर दिया।वहीं"मन के फागुन से लाइव-2":-इससे अछूता हैं।यह बसंत और फागुन को गांवों तक सीमित रख छोड़ती है क्योंकि शहर की आबोहवा ऊंची इमारतों के कारण फगुनाहट की मदिर छुअन से अस्पर्शित रह जाती है और हम औपचारिक फागुन के होकर रह जाते है।कविता में कवियित्री की संवेदना फागुन के साथ हो ली।-:वो उठकर/हमारी जानिब भी आती हैं/देने संदेशा फाग का/मगर शहर की/ऊंची मीनारों से टकराकर/मायूस लौट जाती हैं।"ऐ ताज,तुझे कुछ इस नजर से देखा है मैंने":-मे कवियित्री ने ताज को वाकई अलहदा और काविलेतारीफ निगाहों से देखा।"अब जो देखा तो/उसकी मरमरी दीवारों को सहलाकर/उनके रुखसारो मे उभरी/खराशो का एहसास किया है मैंने।"कविता में वर्णित रुखसार दरअसल उन महबूबाओं के हैं, जिनके प्रेमियों(संगसाज)के हाथ ताज को बनाने में खुरदुरे हो गए।अपने खुरदुरे हाथों से प्रेमिका के गालों को छुआ तो वो खुरदुरे हो गए।ताज के रूप मे अपनी प्रियतमा को अनमोल भेंट देने की चाह ने कितनों की प्रिया के गालों मे खुरदुराहट भर दी।

            सरहद(बाडमेर)मे कवियित्री ने सुनहरी जमीं की लाली की वजह टटोली हैं चूंकि कवियित्री के अनुभव में निजी कारणों से सैन्य जीवन सम्मलित हैं अत:कुछ एक कविताएं देश की बात करती हैं।इसमें "सरहद की बाड़"।"करवां चौथ"व "केयर टेकर"को प्रमुखताके साथ सम्मलित किया गया है।"इज्ज़त का पैमाना'संग्रह में स्त्री जीवन की घिनौनी और तल्ख सच्चाई को बयां करती हैं।वही" दूब हूं मैं"में दूब जैसी छोटी चीज को बिम्ब के रूप में रखते हुए औरत की उपेक्षा की कहानी कहती हैं।"समानांतर फैलना भाता है सभी को"/किन्तु ऊपर उठना नहीं सुहाता किसी को।"फलसफा जिन्दगी का"जीवन से स्वतंत्रता व स्पेस मांगती है।"जिन्दगी वो गुल है जो गुलदस्ते मे नहीं खिलता मन बावरा वो पंक्षी हैं जो पिंजरे में नहीं मिलता।"कुचलों या कुचले जाओगे"-:मैं बेशुमार इन्सानी भीड़ के मध्य निष्ठुर प्रतियोगिता का निर्मम व दारूण दृश्य अभिव्यक्त हुआ हैं।"जरा देखो तो/किसको कुचल रहे हो/नजरें ज्यों ही झुकाई/तो देखा,हम जिस्मों पर चल रहे है/सर-ए-राह को मकतूल कर रहे है।आलिम इन्सानों के बनाए इस फलसफे पर तीक्ष्ण व्यंग्य हुआ है।"भीड़ तो चीटियों की भी होती हैं/पर वो कतार बांध चलती है/कुचलो या कुचले जाओगे/ये फलसफा आलिम इन्सानों ने बनाए है।

              जो किसान अपने खेतों में पसीना बहाते रहे अलाभकारी हो चुकी खेती अतिक्रमण की भेंट चढ़ गई तो अपने ही खेतों में मजदूर बन गए खेतिहर के पक्ष में खड़ी कविता"उनके माथे का अरक कहती है।"उनके हाथों में/ बीज और खाद नहीं/रेता बजरी के तसले होते है/नहीं कुछ बदला तो ये कि/अब भी उनके माथे का अरक/ढलता हैं टकसालों मे।" "चीख कविता में कवियित्री की दिलीख्वाहिश है कि वह गरीब उपेक्षित, लाचार, दबे कुचले, शोषित लोगों की पीड़ा नज्म से बनी मिट्टी की गुल्लक मे भरकर बस्ती के चौबारे पर फोड़े ताकि "यकीनन इन बेसुध जिस्मों में/कुछ हरकत तो होगी/कुछ हरारत तो होगी।"हादसे की रिपोर्ट"प्रकृति के कोमल बिम्ब मे गुंथी कविता इन्सान के सुख-दुख में आत्मकेन्द्रिता व स्वार्थ प्रियता को रेखांकित करती हैं।अपनों से दूर हटकर जैसे उसके सारे सरोकार दम तोड़ चुके है।"मैं झट सहमकर/खिडक़ी को परदे से ढक देती हूँ/और जेहन से यही आवाज आती हैं/"थैंक गॉड"उनमे मैं नहीं।मेरा अपना कोई नहीं था।"बिवाइयां"व महाभारत को अच्छी कविता की फेहरिस्त में शामिल करेंगे।"केयर टेकर"में उस घिनौने यथार्थ को चिन्हित किया गया है कि जिन हाथों में देश की बागडोर हैं वो स्थिति की प्रतिकूलता का फायदा, किस प्रकार से खुद की जडों को मजबूत करने के लिए कर रहे हैं।उन्हें देश की खोखली हो रही जड़ों से कोई सरोकार नहीं है।अलवत्ता केयर टेकर इस मौके को भुनाना बाखूबी आता है।

           इन्सान ने प्रकृति को अपने रवैये से खुद के ही प्रतिकूल खड़ा कर लिया है।कुल मिलाकर कहेगें हम मूर्ख कालीदास बन गए है,जो जिस डाल पर खड़ा है उसी को काट रहा है।"आदम की आमद से पहले"कविता कहती हैं।"जमीं धूप मांगती है/तो वो,बारिश देता है/आंसमां सब्जा मांगता है/तो जमीं सहरा दिखाती है।"खिलौने"में कवि मन बुजुर्ग के उस मासूम बचपन की ओंर अनायास ही बढ़ चला है जहां पर उसे वर्तमान दौर के खिलौने से बढती हिंसात्मक वृत्ति की वनास्पति ज्यादा मासूमियत और निश्छलता देखने को मिली।"मांजी के सहेजे खिलौनों को/वक्त, अपनी दुकान पर/मरम्मत कर/रंग रोगन कर/वर्क लगाकर/चाहे जितना दिलकश बनाकर पेश करें/आज इलेक्ट्रॉनिक्स के बाजार में/उसकी कोई कीमत नहीं लगती।"कविता में मांजी के माध्यम से वृद्दों की उपेक्षा के अर्थ की नई पर्त भी खुलती है।"औरत देह और जोर-जबरदस्ती"कविता में शहरीकरण के बढ़ते प्रभाववश छोटे घरों में दादी नानी की कहानियों से वंचित रहकर, वह संस्कार और सम्बन्धों से अनभिज्ञ रहे।परन्तु एक प्रकार के जबरिया अंतरंग पलों को देखते हुए समय से पहले बडें हुए बच्चे"स्त्री उपभोग की वस्तु है"जैसी कुत्सित धारणा बना बैठते हैं कविता नपे तुले शब्दों में कहती है:-"उनका बचपना जवान नहीं हो पाता।पर बचपन में वो जवान हो जाते है/अब वो कुछ बातें/गलत तरीके से बहुत सही समझते है/औरत देह और जोर-जबरदस्ती।" "पतंग हूँ मैं"उस स्त्री को केन्द्र में रखकर बुनी कविता हैं जिसके जीवन मे सतही खुशी तो शुमार है पर आन्तरिक तहों मे अवसाद के सैकड़ों रेशे व्याप्त है।इस कविता में स्त्री अंतर्यात्रा पर निकल पड़ी हो मानो।पांव नंगे चप्पल हैं सिर पर मे उम्र भर जिस औरत ने नंगे पांव बोझ ढोते काट दी हो।कमाऊ बेटे की लाई चप्पल भी उन पांवों मे बोझ बन जाती हैं।जिसे वह बेटे का दिल रखने के लिए पांवो मे डाल तो लेती है।किन्तु:-रोज घर से निकलती हैं चप्पल पहनकर/कुछ दूर चलकर चप्पलों को धर लेती है सिर पर।

          कवियित्री की संवेदना मे इन्सान के साथ साथ बेजुबान पशु को भी उसी शिद्दत से स्थान मिला है।"विसुखी गइयां"में गायों की दुर्दशा का मार्मिक चित्र देखने को मिला है।जिस देश मे गायों को मां का दर्जा मिला है, वर्तमान में उन्हें किस रुप मे उपयोग किया जाता हैं।कवियित्री कहती हैं:-वर्तमान उसे/देह व्यापार के लिए?कत्लगाह का रास्ता दिखाता है।" "हे सीते"कविता में कवियित्री जायज प्रश्न उठाती हैं:-"फिर दोनो की संप्रभुता में/इतना अंतर क्यों हुआ?प्रभु ने स्पर्श किया/तो "अहिल्या त्राण"हुआ।फिर तुम छू गई तो/क्यों अग्नि स्नान हुआ।"सम्बन्धों का विश्लेषण"ईमानदार आत्मस्वीकृति से पगी सम्बन्धों पर केन्द्रित अच्छी कविता है।कविता प्रश्न करती हैं कि अपने अपने विशेषण से चिपके रहकर उपयुक्त संज्ञा की तलाश कैसे हो सकेगी।"रिपोर्टर"कविता कहती हैं कि जिस तत्परता के साथ परिस्थितियों की भयावहता को नजरअंदाज करते हुए अपने कर्तव्य का पालन करता है।:-"उसने रिपोर्टर होने का फर्ज निभाया/बाकियों को/आदमी होने का फर्ज निभाना था।"

         " बड़ा आदमी", "मन के आंगन में", "सूरज", "तर्जुबा नीम का"संग्रह में संकलित इन कविताओं में जेहन में बर्षों तक ठहरने का आकर्षण और क्षमता दोनो हैं।एक और लम्बी कविता"न्याय की देवी"न्याय व्यवस्था में व्याप्त घनघोर भष्टाचार व मंथर गति का बड़े ही सशक्त अंदाज में प्रभावकारी चित्र खींचती है।"करवाचौथ"कर्तव्य को सर्वोपरि ठहराती हैं।जो देश के प्रति उसकी रक्षा मे खड़ा फौजी है। "रिश्ते व प्रेम" में एकरसता भरे माहौल से निकलकर रिश्ते घुटन से मुक्ति पा सकेंगे और तभी घुट-घुटकर जीते प्रेम में रवानगी आनी हैं। "एक चाक के माटी हम सब" चाक की माटी के बहाने कवियित्री ने लड़की की नियति को कविता में स्थान दिया है।:- एक चाक की माटी हम सब /कुछ गढी कुछ टूट गई।" "वही मेरा गांव"कविता के माध्यम से कवियित्री पाठक के मानस तक अपने प्रिय गांव को पहुचाने मे कामयाब रही है।

           कुल मिलाकर देखे तो "तुम तो आकाश हो" संग्रह में संकलित कविताओं से गुजरना सचमुच एक सुखद अनुभव की तरह है। जो विभिन्न भावभूमि को केंद्र में रखकर लिखी गई हैं परन्तु इनमें प्रतिबिंबित हुआ मूलस्वर एक ही है। बड़े वितान को उठाती कविताएं कुछ सपने जो राख होने से बचे रह गए, अपनी धूप छांही से हमें निराशाबोध से बचा लेती है। सहज अंदाज में गहरे व सधे हुए तथ्य इन कविताओं में दर्ज हुए हैं । इसलिए यदि कहे कि साहित्य की इमारत के भीतर नये सूरज की रोशनी बनकर इस संग्रह का आगाज़ हुआ है तो शायद यह अतिशयोक्ति न होगी।

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कविता संग्रह- तुम तो आकाश हो

कवयित्री - सरोज सिंह

प्रकाशक - हिन्द युग्म, नई दिल्ली

प्रकाशन वर्ष - 2015

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