Sunday 25 December 2011

Uncertain life: A situational philosophy -By Rahul Dev


अनिश्चित जीवन:एक दशा दर्शन  -राहुल देव

संसार सागर मेँ
तमाम गुणोँ और
अवगुणोँ के वशीभूत
पृथ्वी की तरह
अनवरत घूमती ज़िन्दगी का
एकाएक रुक जाना...

जिन्दगी के दो ही रूप
थोड़ी छाँव और थोड़ी धूप
और मृत्यु,
मृत्यु संसार का एकमात्र सत्य
जीवन की सीमित अवधि
अन्त निश्चित हर एक जीवन का
ब्रह्म सत्यं जगत मिथ्या...

हमराहियोँ के साथ चलते-चलते
किसी अपने का अचानक
एकदम से चले जाना किसी भूकम्प से कम नहीँ होता
अखण्डनाद मौनता बन जाती है
और समा जाती है वह अनन्त की गहराइयोँ
और अतीत की परछांइयोँ मेँ
भर आता है हृदय
और आदमी की लाचारी
उसे स्मृति के सघन वन मेँ
विचरने के लिए अकेला पटक देती है
विचारोँ का धुंधला अंकन गहरा जाता है
सांसारिकता और हम
हमारा वजूद बहुत छोटा है;
दो पक्ष-
जीवन-मृत्यु
दो पाटोँ के मध्य पिसते हम
अजीब चक्र है..
हमारे आने पर होने वाले उत्सव
मनाई जाने वाली खुशियाँ
और जाने पर होने वाला दु:
रिश्ते-नाते,दोस्त-यार,परिवार
सब का छूट जाना
धन-दौलत,जमीन-कारोबार
हमारा धर्म,हमारे कर्त्तव्य
हमारे अधिकार
अपेक्षाएँ और उपेक्षाएँ
रह जाता है सब यहाँ
और चली जाती है आत्मा
उस परमसत्ता से साक्षात्कार करने को..
नाहक इस देह के सापेक्ष
पूर्ण निरपेक्ष है प्राण
हमारी सीमा से परे का ज्ञान..?
सूक्ष्मजीव की आत्मा
मानवीय आत्मा
आत्मा एक है
सिर्फ शरीर का फर्क है...
गीता कहती है-
'कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन्....!'
प्रकृति और पुरुष
कर्त्ता और कर्म
अनिश्चित जीवन तत्व का मर्म
फिर भी कालखण्ड मंच पर
कुछ अच्छी आत्माओँ का
जल्दी चले जाना
एक विश्वासघात लगता है
इन्सानी फितरत देखिए
जब यह बात जेहन मेँ
अनायास कौँध जाती है
और हमेँ एकमात्र दिलासा देती है
शायद!
ईश्वर अपने प्रियजनोँ को शीघ्र बुला लेता है
या नियति को यही मंजूर था
हम पुन: घर लौटकर
अपने कामोँ मेँ
व्यस्त हो जाते हैँ
एक छोटे कौमा के बाद
अज्ञात पूर्णविराम साथ लिए हुए
तमाम अनिश्चित जीवन
पुन: गतिशील हो जाते हैँ
संसार चक्र इस भाँति
अनवरत चला करता है!!

Monday 19 December 2011

भ्रष्टाचारं उवाच!


जी हाँ मैँ भ्रष्टाचार हूँ

मैँ आज हर जगह छाया हूँ
मैँ बहुत खुश हूँ
और होऊँ भी क्योँ न..
ये दिन मैने ऐसे ही नहीँ देखा
मुझे वो दिन आज भी याद है जब
मैने अपने सफेद होते बालोँ पर
लालच की डाई और कपड़ोँ पर ईंर्ष्या का परफ्यूम लगाया
बातोँ मेँ झूठ और व्यवहार मेँ
चापलूसी के कंकर मिलाए
फार्मूला हिट रहा..
लोग मेरे दीवाने हो गए
मैने सच्चाई के हाथ से
समय की प्लेट छीनकर
बरबादी की पार्टी मेँ
अपनी जीत का जश्न मनाया,
मेरी इस जीत मेँ तुम्हारी
नैतिक कमजोरी का बड़ा योगदान रहा
तुम एक दूसरे पर
बेईमानी का कीचड़ उछालते रहे
और मैँ कब घर कर गया
तुम्हारे अन्दर
तुम्हे पता भी न चला
मैने ही तुम्हे चालाकी और मक्कारी का पाठ पढ़ाया
सुस्त सरकार के हर विभाग
मेँ
फर्जीवाड़े संग घूसखोरी का रंगरोगन करवाया
घोटालोँ पर घोटालोँ का टानिक पीने के बाद
मैँ यानी भ्रष्टाचार
अपने पैरोँ पर खड़ा हो पाया.
इस अंधी दौड़ मेँ
कुछ अंधे हैँ
दो-चार काने हैँ
जो खुली आँख वालोँ को
लंगड़ी मार रहे हैँ
खुद जीत का मेडल पाने की लालसा मेँ
अंधोँ को गलत रास्ता दिखा रहेँ हैँ
सब सिस्टम की दुहाई है
ऊपर से नीचे तक समाई है
मेरी माँग का ग्राफ
इधर हाई है
और हो भी क्योँ न
ये गलाकाट प्रतियोगिता
आखिर मैने ही आयोजित करवाई है
मैँ बदनीयती की
रोटी संग मिलने वाला
फ्री का अचार हूँ
पावर और पैसा मेरे हथियार हैँ
मैँ अमीरोँ की लाठी
और गरीबोँ पर पड़ने वाली मार हूँ.
तुम सबको
खोखला कर दिया है मैँने
जी रहे हो तुम सब
जीने के मुगालते मेँ
सत्य के प्रकाश पर
छा जाने वाली
तुम्हारे अंदर की
काली परछाई हूँ
आज के युग मेँ मै
सदाबहार हूँ
जी हाँ,
मैँ भ्रष्टाचार हूँ...!
-राहुल देव


Friday 9 December 2011

एक क्रांति जिसे इतिहास ने गाया नहीं


भारत का इतिहास बताता हैं  की  प्रथम संग्राम की ज्वाला मेरठ की छावनी में भड़की थी किन्तु इन ऐतिहासिक तथ्यों के पीछे एक सचाई गुम है, वह यह कि आजादी की लड़ाई शुरू करने वाले मेरठ के संग्राम से भी 15 साल पहले बुन्देलखंड की धर्मनगरी चित्रकूट में एक क्रांति का सूत्रपात हुआ था।

पवित्र मंदाकिनी के किनारे गोकशी के खिलाफ एकजुट हुई जनता  ने मऊ तहसील में अदालत लगाकर पांच फिरंगी अफसरों को फांसी पर लटका दिया। इसके बाद जब-जब अंग्रेजों या फिर उनके किसी पिछलग्गू ने बुंदेलों की शान में गुस्ताखी का प्रयास किया तो उसका सिर कलम कर दिया गया। इस क्रांति के नायक थे आजादी के प्रथम संग्राम की ज्वाला  के सीधे-साधे हरबोले। संघर्ष की दास्तां को आगे बढ़ाने में  महिलाओं की ‘घाघरा पलटन’ की भी अहम हिस्सेदारी थी।आजादी के संघर्ष की पहली मशाल सुलगाने वाले बुन्देलखंड के रणबांकुरे इतिहास के पन्नों में जगह नहीं पा सके, लेकिन उनकी शूरवीरता की तस्दीक फिरंगी अफसर खुद कर गये हैं। अंग्रेज अधिकारियों द्वारा लिखे बांदा गजट में एक ऐसी कहानी दफन है, जिसे बहुत कम लोग जानते हैं।

गजेटियर के पन्ने पलटने पर मालूम हुआ कि वर्ष 1857 में मेरठ की छावनी में फिरंगियों की फौज के सिपाही मंगल पाण्डेय के विद्रोह से भी 15 साल पहले 
चित्रकूट में क्रांति की चिंगारी भड़क चुकी थी। दरअसल अतीत के उस दौर में धर्मनगरी की पवित्र मंदाकिनी नदी के किनारे अंग्रेज अफसर गायों का वध कराते थे। गौमांस को बिहार और बंगाल में भेजकर वहां से एवज में रसद और हथियार मंगाये जाते थे। आस्था की प्रतीक मंदाकिनी किनारे एक दूसरी आस्था यानी गोवंश की हत्या से स्थानीय जनता विचलित थी, लेकिन फिरंगियों के खौफ के कारण जुबान बंद थी।कुछ लोगों ने हिम्मत दिखाते हुए मराठा शासकों और मंदाकिनी पार के ‘नया गांव’ के चौबे राजाओं से फरियाद लगायी, लेकिन दोनों शासकों ने अंग्रेजों की मुखालफत करने से इंकार कर दिया। गुहार बेकार गयी, नतीजे में सीने के अंदर प्रतिशोध की ज्वाला धधकती रही। इसी दौरान गांव-गांव घूमने वाले हरबोलों ने गौकशी के खिलाफ लोगों को जागृत करते हुए एकजुट करना शुरू किया।

फिर वर्ष 1842 के जून महीने की छठी तारीख को वह हुआ, जिसकी किसी को उम्मीद नहीं थी। हजारों की संख्या में निहत्थे मजदूरों, नौजवानों और  महिलाओं ने मऊ तहसील को घेरकर फिरंगियों के सामने बगावत के नारे बुलंद किये।  तहसील में गोरों के खिलाफ आवाज बुलंद हुई तो बुंदेलों की भुजाएं फड़कने लगीं।देखते-देखते अंग्रेज अफसर बंधक थे, इसके बाद पेड़ के नीचे ‘जनता की अदालत’ लगी और बाकायदा मुकदमा चलाकर पांच अंग्रेज अफसरों को फांसी पर लटका दिया गया। जनक्रांति की यह ज्वाला मऊ में दफन होने के बजाय राजापुर बाजार पहुंची और अंग्रेज अफसर खदेड़ दिये गये। वक्त की नजाकत देखते हुए मर्का और समगरा के जमींदार भी आंदोलन में कूद पड़े। दो दिन बाद 8 जून को बबेरू बाजार सुलगा तो वहां के थानेदार और तहसीलदार को जान बचाकर भागना पड़ा। जौहरपुर, पैलानी, बीसलपुर, सेमरी से अंग्रेजों को खदेड़ने के साथ ही तिंदवारी तहसील के दफ्तर में क्रांतिकारियों ने सरकारी रिकार्डो को जलाकर तीन हजार रुपये भी लूट लिये।

आजादी की ज्वाला भड़कने पर गोरी हुकूमत ने अपने पिट्ठू शासकों को हुक्म जारी करते हुए क्रांतिकारियों को कुचलने के लिए कहा। इस फरमान पर पन्ना नरेश ने एक हजार सिपाही, एक तोप, चार हाथी और पचास बैल भेजे, छतरपुर की रानी व गौरिहार के राजा के साथ ही अजयगढ़ के राजा की फौज भी चित्रकूट के लिए कूच कर चुकी थी। दूसरी ओर बांदा छावनी में दुबके फिरंगी अफसरों ने बांदा नवाब से जान की गुहार लगाते हुए बीवी-बच्चों के साथ पहुंच गये। इधर विद्रोह को दबाने के लिए बांदा-चित्रकूट पहुंची भारतीय राजाओं की फौज के तमाम सिपाही भी आंदोलनकारियों के साथ कदमताल करने लगे। नतीजे में उत्साही क्रांतिकारियों ने 15 जून को बांदा छावनी के प्रभारी मि. काकरेल को पकड़ने के बाद गर्दन को धड़ से अलग कर दिया। इसके बाद आवाम के अंदर से अंग्रेजों का खौफ खत्म करने के लिए कटे सिर को लेकर बांदा की गलियों में घूमे।काकरेल की हत्या के दो दिन बाद राजापुर, मऊ, बांदा, दरसेंड़ा, तरौहां, बदौसा, बबेरू, पैलानी, सिमौनी, सिहुंडा के बुंदेलों ने युद्ध परिषद का गठन करते हुए बुंदेलखंड को आजाद घोषित कर दिया।  जब इस क्रांति के बारे में स्वयं अंग्रेज अफसर लिख कर गए हैं तो भारतीय इतिहासकारों ने इन तथ्यों को इतिहास के पन्नों में स्थान क्यों नहीं दिया?सच पूछा जाये तो यह एक वास्तविक जनांदोलन था क्योकि इसमें कोई नेता नहीं था बल्कि आन्दोलनकारी आम जनता ही थी इसलिए इतिहास में स्थान न पाना बुंदेलों के संघर्ष को नजर अंदाज करने के बराबर है|
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गाँधी होने का अर्थ

गांधी जयंती पर विशेष आज जब सांप्रदायिकता अनेक रूपों में अपना वीभत्स प्रदर्शन कर रही है , आतंकवाद पूरी दुनिया में निरर्थक हत्याएं कर रहा है...