Tuesday 31 December 2013

नूतन वर्ष मंगलमय हो !

वर्ष नया हो मंगलकारी, सुखी आपका हो जीवन
दूर वेदनाएं हों सारी, रहे प्रफुल्लित हर पल मन !
मिले सफलता कदम-कदम पर, पूरी हों अभिलाषाएं
कर्मयोग को साध्य बनाकर, अपना इच्छित फल पायें
बाहुपाश में जकड़ न पायें, असफलताओं के बंधन
दूर वेदनाएं हों सारी, रहे प्रफुल्लित हर पल मन !
स्वार्थ, लोभ, आलस्य, क्रोध, कलुषित भावों से मुक्ति मिले
जीवन के संघर्ष के लिए, अटल, असीमित शक्ति मिले !
मुक्त ईर्ष्या, द्वेष, घृणा से, हृदय आपका हो पावन
दूर वेदनाएं हों सारी, रहे प्रफुल्लित हर पल मन !
मानवता की सेवा करना, निज जीवन का लक्ष्य बनायें
अपना जीवन करें सार्थक, सारे जग में यश पायें !
मानवता पर हों न्योछावर, कर दें अपना तन,मन,धन
दूर वेदनाएं हों सारी, रहे प्रफुल्लित हर पल मन !

नूतन वर्ष की हार्दिक शुभकामनाओं सहित-
--राहुल देव-


Monday 30 December 2013

‘एक देश और मरे हुए लोग’ (कवितासंग्रह) : एक समीक्षात्मक दृष्टि



हिंदी के सुपरिचित युवा कवि विमलेश त्रिपाठी के कविता-संग्रह ‘एक देश और मरे हुए लोग’ की कविताओं की शुरुवात होती है मुक्तिबोध की इन चार गर्भित पंक्तियों के साथ- ‘अब तक क्या किया,/जीवन क्या जिया,/ज्यादा लिया और दिया बहुत-बहुत कम/ मर गया देश, अरे, जीवित रह गये तुम....!’

आज जब मैं ‘एक देश और मरे हुए लोग’ कविता-संग्रह की कविताएँ पढ़ने के लिए लेकर बैठा तो बस पढ़ता ही चला गया । विचार विचार और अनन्य भाव उमड़ते चले गए। इस संग्रह की कवितायेँ पांच खण्डों में हैं- इस तरह मैं, बिना नाम की नदियाँ, दुखसुख का संगीत, कविता नहीं तथा एक देश और मरे हुए लोग |

यह युवा कवि भी देश के उन्हीं युवाओं में से एक है जो कुछ अच्छी संभावनाओं की तलाश में अपना गाँव-घर छोड़कर शहर में आके बस गए हैं लेकिन शहर की भागमभाग, भौतिकता और आत्मीयता रहित वातावरण उसे रह-रहकर अपने गाँव की याद दिलाता है | पाठक इसकी पहली कविता के साथ ही कवि से जुड़ जाता है | संग्रह की पहली कविता ‘एक गाँव हूँ’ उसके कुछ इन्ही भावों की अभिव्यक्तियाँ हैं जब वह कहता है, ‘मेरे अन्दर एक बूढ़ा गाँव हांफता....!’

शहरीकरण और औद्योगीकरण के परिणामस्वरूप वृक्षों की अंधाधुंध कटाई हो रही है | हम अपनी सुविधा के लिए पशु-पक्षियों के प्राकृतिक आवास छीन रहे हैं अगली कविता ‘कहीं जाऊंगा नहीं’ में उसने अपनी इस पीड़ा को शब्द दिए हैं जब उसे वह चिड़िया याद आती है जो रोज आकर उसके घर की मुंडेर पर बैठती थी, अब नहीं आती |

कवि की कविता ‘यह वही शहर’ पढ़ते हुए यह साफ़ पता चलता है कि कवि भले ही शहर में बस गया हो मगर उसका मन इस शहर को कभी अपना नहीं सका या यूँ कह लें कि यह शहर इस निपट अकेले को शायद अपना नहीं सका | विमलेश कविता के माध्यम से अपने-आप को खोजते दीख पड़ते हैं जो शायद इसी शहर में कहीं गुम गया है | यहाँ तक कि उसे अपने आस-पास कविता के अलावा कोई भी ऐसा नहीं दिखता जिससे वह अपने मन की व्यथा खुलकर कह सके |

कभी-कभी कविमन सोचता है कि जब इस कठिन समय में अधिकांश लोग एक ही धार में बह रहे हैं | वह तथाकथित बड़े लोग अक्सर कला और साहित्य को जीने वाले कुछ मनुष्यों को मूर्ख व पागल बताते पाए जाते हैं | कवि को उनपर बरबस ही हंसी आती है, शायद वे नहीं जानते कि कवि होना एक बेहतर मनुष्य होना है और इसीलिए अपनी ‘स्वीकार’ शीर्षक कविता में वह हंसी-ख़ुशी मूर्खता का वरण करने को तैयार है | उसके शब्दों में- ‘आज के समय में बुद्धिमान होना/ बेईमान और बेशरम होना है |’

कैसी अजीब विडंबना है कि आज कौन कितना बड़ा आदमी है इसकी कसौटी सिर्फ और सिर्फ ‘पैसा’ बन गया है ! जीवन के नैतिकमूल्यों और मानवीय संवेदनाओं का दिनोंदिन मरते जाना, आदमी का मर जाना नहीं तो और क्या है !

.... अरे कोई मुझे उस देश से निकालो /कोई तो मुझे मरने से बचा लो।‘

‘न रोको कोई’ शीर्षक कविता पढ़ते हुए बरबस ही कबीर याद आते हैं जब उन्होंने कहा था- ‘कबीरा खड़ा बज़ार में, लिए लुकाठी हाथ, जो घर बारै आपना, चलै हमारे साथ !’

तथाकथित सभ्य समाज के भाषणों और राजनीति के हवा-हवाई वादों के पीछे कवि की दूरदर्शी आँखें एक आमजन की कुछ ऐसी ही बात करती हैं | समाज के सबसे पीछे खड़ा वह व्यक्ति जिसका पक्ष कोई सुनना नहीं चाहता | जमीनी हकीकत से बेखबर शासनसत्ता सो रही है | एक और हमारे सामने बहुत सारी समस्याएं और बेहिसाब चुनौतियाँ हैं तो दूसरी और झूठे आकड़े दिखा-दिखाकर वाहवाही लूटी जा रही है फिर कविमन क्यूँकर आक्रोशित न हो | वह अपनी कविता के माध्यम से आवाज़ देता है कलम के सिपाहियों को कि वे उसका साथ दें और अगर साथ न भी दे सकें तो कोई गम नहीं, लेकिन वह इस दिशा में उसके बढ़ते क़दमों की रफ़्तार तो न रोकें | वह अकेले ही निकल पड़ा है अपने जीवन के इस सफ़र पर, जहाँ दो पथरायी आँखें सदियों से उस एक व्यक्ति की राह तक रहीं हैं | इस अप्रतिम पथ पर चलने से पूर्व कवि अपने ईश्वर से ‘सत्य’ को कह सकने और सहने की शक्ति के सिवा और कुछ नहीं चाहता | (‘यदि दे सको’ शीर्षक कविता)
                                                                                                             
विमलेश की कविता मनुष्य की कविता है जो आदमी में आदमी की तलाश करती है | वह देश जहाँ के लोग मानसिक गुलामी में इस कदर जकड़ गए हैं कि उनमें कोई हलचल ही नहीं होती, उन्हें अपने आस-पास न तो कुछ दिखाई देता है, न सुनाई देता है | कवि ऐसे लोगों को जिंदा नहीं मानता, देश के ऐसे लोग मरे हुए ही तो हैं ! कवि भी अक्सर स्वयं को चाहकर भी इस सबसे अलग नहीं कर पाता इसीलिए अपनी साफगोई में वह स्पष्ट स्वीकारता है कि जब तक वह कवितायेँ लिखता है तब तक जिंदा रहता है उसके बाद वह भी भीड़ हो जाता है |

‘एक शब्द है साँस/ एक शब्द है देह/ शब्दों से मिलकर ही बना हूँ /जब तक लिखता हूँ रहता जिन्दा/ बाद लिख चुकने के मर जाता ।‘

विमलेश की कविता हमारे समय की कविता है | भयानक भविष्य के प्रति आगाह करती ये कवितायेँ चेतावनी हैं, वैचारिक रूप से ये पाठक को अन्दर तक झिन्झोरती हैं, आंदोलित करती हैं !

‘मेरी कविताओं को प्यास से मरने से कोई बचाओ बाबा /कोई मुझे इस समय से निकलने का उपाय बताओ बाबा ।‘

झूठ और सच के दरमियाँन झूठों की फ़ौज इस कदर बढ़ गयी है कि लोग झूठ को ही सच समझ बैठे हैं | कवि फिर भी आशान्वित है कि शायद एक न एक दिन उसके सच को सच समझा जायेगा क्योंकि झूठ कितना ही सत्य होने का ढोंग करे वह झूठ ही रहता है | (‘इस आशा में’ और ‘हर बार सच’ शीर्षक कविता)

बीते इतिहास को मूढ़ों की तरह लादे हुए चलने वाले लोगों के बारे में कवि कहता है कि उन्हें उनका इतिहास मुबारक हो अपनी ‘आदमी’ शीर्षक कविता में वह तो बस अपने को कलम का एक मामूली सिपाही बताता है जोकि एक बेहतर मनुष्य होने के लिए सतत प्रयत्नशील है |

कवि अगली कविता ‘जिंदा रहूँगा’ में कहता है कि पार्थिव रूप से उसकी मृत्यु भले ही हो जाय परन्तु उसके शब्द उसके पक्ष में हमेशा खड़े रहेंगे, वह जिंदा रहेगा अपनी कविताओं में वर्षों-वर्षों तक जब तक कि उसके शब्द विपक्ष रुपी अँधेरे को पराजित नहीं कर लेते |

न जाने कितने युग और संवत्सर बीत गए वृक्ष मनुष्यता के प्रारंभकाल से ही आदमी के साथ रहते आये हैं | पेड़ जीवित होते हैं, मूक रहते हैं | उनकी अव्यक्त भाषा को कविमन कुछ-कुछ पढ़ सकने में अपने को सक्षम पा रहा है परन्तु आदमी की भाषा, उसकी प्रकृति वह लाख प्रयत्नों के बावजूद आज तक नहीं समझ पाया | व्यक्त मनुष्यों की व्यक्त भाषा कवि को अव्यक्त से भी कठिन प्रतीत होती है, वह ‘पेड़ से कहता है |’

कवि नामक जीव सचमुच सामान्य मनुष्यों से अलग ही होता है | दुनियादारी के नियमों से अनजान, एक खास किस्म की लापरवाही ओढ़े हुए वह कभी खुद से बातें करता है तो कभी फूलों, चिड़ियाँ, पेड़ों, खिड़कियों, दरवाज़ों, पानी, मछली, धरती और तमाम अन्य चीज़ों से बतिया लेता है, ठीक उनकी भाषा में | उनके न जाने कितने सुख-दुःख, कितनी-कितनी सारी बातें कविमन की भोली पर्तें यथार्थ का आश्रय लेकर कविता के रूप में मुखर हुई हैं, फलस्वरूप उत्पादित जीवन-संगीत की भावप्रवणता में पाठक सहज रूप से डूबता चला जाता है |

अब हर कविता के बारे में अलग-अलग और कहाँ तक लिखूं...!! अगर एक-एक कविता पर विस्तार से लिखने बैठूं तो शायद एक अलग पुस्तक ही बन जाए, इसलिए अगर अत्यंत संक्षेप में व प्रचलित भाषा में कहूँ तो ये कवितायेँ भयानक ख़बर की कवितायेँ हैं एकदम सहज, सामान्य और साधारण शब्द, उच्च भावबोध, संवेदना जिनमें छिपे हैं अर्थ ही अर्थ, गंभीरता और विचार...

‘इस कठिन समय में बोलना और लिखना /सबसे दुष्कर होता जाता मेरे लिए।‘

‘देखो, गोलियां चलने लगीं हैं/ चैनलों पर लाशें दिखने लगीं हैं/ बहस करने लगा है वह लड़का/ जिसे इस देश से ज्यादा अपनी नौकरी बचाने की चिन्ता...’

इस संग्रह की कविताओं को मैं बार-बार पढ़ना चाहूँगा, और सिर्फ पढ़ना ही नहीं बल्कि गुनना भी चाहता हूँ | विमलेश की कविताओं में बहुत गहरे दायित्वबोध निहित हैं | मैं सोचता हूँ और खो जाता हूँ !

‘महज लिखनी नहीं होती हैं कविताएँ/ शब्दों की महीन लीक पर तय करनी होती है एक पूरी उम्र...’
                                                         

यह कवितायेँ पढ़े जाने के बाद भी कहीं न कहीं मस्तिष्क की पृष्ठभूमि में गूंजती रह जाती हैं | कथ्य, शिल्प और भाषाई तौर पर सारी कवितायेँ ऐसी हैं कि साधारण व सामान्य पाठक भी इन्हें आसानी से आत्मसात कर सकता है | यह कवि और उसकी कविता की सफलता है | मानो जो कुछ, जहाँ, जैसी तरंग उठी, वैसा का वैसा लिखा गया है | कवि के रचनाकर्म की जड़ें अपनी जमीन से जुड़ी हुई हैं इसलिए उसकी कविता सीधे पाठक के मन से जुड़ती है |

.... तुमने ही जना/ और तुम्हारे भीतर ही ढूँढ़ता मैं जवाब/ उन प्रश्नों के जिसे हजारों वर्ष की सभ्यता ने /लाद दिया है मेरी पीठ पर।‘

विमलेश साहित्य जगत में अपनी जानदार कविताओं के माध्यम से उम्मीद जगाते हैं | उनकी रचनाधर्मिता प्रभावी है और हमें आश्वस्त करती है | संग्रह की कविताओं से गुजरने के बाद मैं कह सकता हूँ की भई बहुत समय बाद ऐसी जबर्दस्त कविताएँ पढ़ने को मिलीं। आज ऐसे साहित्य की हमारे समाज में महती जरूरत है । आपके कुछ तिक्त जीवन अनुभव और सच्ची संवेदनाएं इन कविताओं के माध्यम से कुछ इस तरह अभिव्यक्त हुईं है कि इस देश का सामान्य व्यक्ति भी उनसे जुड़ाव महसूस करता है, मुझे लगता है कविता के लिए इतना बहुत है, अन्य सब बातें उसके आगे गौण हो जातीं हैं। यह कविताएँ सर्वहारा के सामाजिक सरोकारों की बात करती है, कुछ ऐसे बुनियादी प्रश्न जिनके उत्तर अनन्त काल से अनुत्तरित से ही है...और जिन्हें पढ़ते हुए मुक्तिबोध और धूमिल दोनों अनायास ही सामने आने लगते हैं ! शायद यह अन्त नहीं एक शुरूआत है, है न भन्ते!


संग्रह की कुछ कवितायेँ जैसे- एक स्त्री के लिए, सपने, आम आदमी की कविता, तुम्हें ईद मुबारक हो सैफूदीन, नकार, तीसरा, एक पागल आदमी की चिट्ठी, एक देश और मरे हुए लोग का जिक्र मैं विशेष रूप से करना चाहूँगा यह कवितायेँ सजग और संतुलित शब्दार्थ साधना की बहुत उत्कृष्ट रचनाएँ बन पड़ी हैं |

संग्रह के शीर्षक को सार्थक करता हुआ कुंवर रवीन्द्र का आवरण चित्र अर्थपूर्ण व कलात्मक है | इस बेहद विचारणीय, पठनीय और संग्रहणीय कविता-संग्रह को जनोपयोगी संस्करण के रूप में प्रस्तुत करने के लिए बोधि प्रकाशन को मैं हार्दिक धन्यवाद और साधुवाद देता हूँ | 152 पृष्ठ की इस पुस्तक का मूल्य भी एकदम वाजिब मात्र 99/- रूपये रखा गया है | अच्छे साहित्य के चाहने वालों को यह कविता-संग्रह अवश्य रुचेगा, ऐसा मेरा मानना है |

-राहुल देव
9/48 साहित्य सदन, कोतवाली मार्ग, महमूदाबाद (अवध)
सीतापुर, उ.प्र. 261203
ईमेल- rahuldev.bly@gmail.com

समकालीन हिंदी कहानियों में नया साल : (प्रवासी कहानियों के विशेष सन्दर्भ में)- राहुल देव


 
समकालीन कहानियों में नया साल
राहुल देव

कहानियों में देश, काल और परिस्थिति का बहुत बड़ा महत्त्व है। नया साल दस्तक दे रहा है, तो समकालीन कहानियों के व्यापक परिदृश्य में से कुछ कहानियाँ चुनकर, यह पड़ताल करना रुचिकर हो सकता है कि कहानियों में देश, काल और परिस्थिति के अनुसार नया साल हर व्यक्ति के लिए अलग कैसे हो जाता है।

यूएसए से सुषम बेदी की कहानी ‘हवन शेष उर्फ़ किरदारों के अवतार’ से शुरू करें तो यह कहानी अमेरिका में एक भारतीय परिवार में नए वर्ष के पहले दिन से शुरू होती है। इस कहानी की मुख्य पात्र लेखिका स्वयं है जिसके अन्य पात्रों का चयन उसने अपने आसपास के लोगों में से ही किया है। नववर्ष के उपलक्ष्य में हवन के बहाने जब पूरा परिवार इकट्ठा होता है तब कहानी की कथावस्तु पात्रों के कथोपकथनों के माध्यम से जीवंत होती है। वह लेखिका पर आरोप-प्रत्यारोप लगाते हैं कि उसने अपनी कहानियों में उन्हें ऐसा लिखा-वैसा लिखा। पात्रों के सजीव चरित्र-चित्रण कहानी के साथ चलते हुए कहानी को रोचक बनाते हैं। उनकी आपसी नोकझोंक को देखकर वह सोचती है कि शायद इनके दबे भीतर को ‘हवन’ में अभिव्यक्ति मिल गयी है। घर के भीतर उठा एक यह तूफ़ान चलता है और घर के बाहर एक बर्फीला तूफ़ान चलता है। दोनों ही तूफानों के सुखद खात्मे के साथ कहानी नववर्ष का स्वागत करती हुई पूरी होती है।

भारत से कथाकार संतोष गोयल की कहानी ‘कोना झरी केतली’ की नायिका आरती अपनी घिसीपिटी दिनचर्या के बोरियत भरे दिनों को बिताते-बिताते ऊब चुकी है। वह बेसब्री से नववर्ष और उसमें होने वाली छुट्टियों का इंतज़ार करती है। पिछले कई नववर्ष और छुट्टियों के नक़्शे आरती के अंतर्पटल पर सुखद स्मृतियों के रूप में अंकित होते हैं। घर की तमाम आपाधापी के बीच खुद को एडजस्ट करते हुए वह हमेशा कोशिश करती रहती है कि वह एक अच्छी गृहस्थिन के साथ अपने बच्चों के लिए एक अच्छी माँ भी साबित हो सके। उसके मन की तमाम इच्छाएं और बातें उसके अन्दर ही रहतीं थीं। उसके जीवन में एक अजीब सा सन्नाटा व्याप्त था। हमेशा की तरह इस बार भी नए साल की छुट्टियों के बहाने वह इस सन्नाटे को तोड़ना चाहती थी। उसकी बेटी सुषमा और बेटा सागर बड़े हो रहे हैं। सबकी अपनी अपनी समस्याएं रहतीं हैं, रिश्तों के तंतु ढीले पड़ रहे होते हैं। कहानी इसके बाद घूमफिरकर पुनः अपने प्रारंभिक कथ्य पर आ जाती है आखिर नया साल मेरे लिए कुछ नया क्यों नहीं लाता ?

यूएसए से कहानीकार नीलम जैन की कहानी ‘अंतिम यात्रा’ का देशकाल अमेरिका का है। यह न्यूयार्क में निक यानि निकोलस नाम के टैक्सी ड्राईवर व एक बूढ़ी स्त्री मैंरी जो कि नववर्ष की पूर्वसंध्या पर उसकी टैक्सी की सवारी बनती है, की एक रात के घटनाक्रम की कहानी है। वह निक से ‘होसपिस’ की तरफ चलने के लिए कहती है। जब डाक्टर मौत का फ़ैसला सुना चुके होते हैं तो 'होसपिस' वह जगह है जहाँ ज़िंदगी के बचे दिन बिताने जाया जाता है। मैरी निक को बताती है कि उसे कोई असाध्य रोग है और आज वह जहाँ जा रही है उसे कोई जल्दी नहीं है, पहुँचने की। वह नए साल की सुबह की इस अंतिम यात्रा को भरपूर जीना चाहती है। इस यात्रा के दौरान वह अपने अतीत के पन्नों को एक एक करके निक के सामने खोलती जाती है। निक को भी एक नया ही अनुभव होता है। वह याद करती है क्रिसमस की शाम औरजब नए साल के जश्न के बाद अपनी सहेली व स्कूल के अन्य साथियों के साथ पहली बार उसके साथी जॉन ने विवाह का प्रस्ताव उसके सामने रखा था। बातों का दौर चला तो उसने निक को बताया अपने मित्र, परिवार और अन्य लो  कैसे धीरे-धीरे उससे बिछड़ते चले गये। आज जब वह शहर की इन गलियों से गुजरती है तो याद आते हैं उसे अपनी सहेलियों के घर, उसे याद आते हैं अपने पुराने दिन, पुरानीं बातें मानो नववर्ष के पहले इस एक रात की अंतिम यात्रा में वह अपना पूरा जीवन जी लेना चाहती हो। निक और मैरी में कुछ ही समय में एक गहरी पहचान बन जाती है। वह सोचता है, यों तो वह बरसों से इन्हीं सड़कों पर टैक्सी में घूमता रहा है, पर आज पहली बार उसने स्वयं कोई अर्थपूर्ण यात्रा की है।

भारत से पावन की कहानी ‘सांता नहीं चाहिए’ इस क्रम में थोड़ी-सी अलग है। यह कहानी भारत में छोटे शहरों से महानगरों में आकर रहने वाली कामकाजी लड़कियों की समस्याओं तथा एक ग़रीब बचपन का नववर्ष कैसा होता है इस बात को भी को भी रेखांकित करती है। कहानी ख़त्म होते साल के आख़िरी कुछ बचे-खुचे दिनों के दरमियाँ शुरू होती है। क्रिसमस और नये साल के आगमन के इन दिनों में बाजारों में बहुत रौनक होती है। कनाट प्लेस के इनर सर्किल की जलती बुझती रोशनियों के बीच वह उदास बैठी थी। हालांकि जब वह यहाँ आयी थी तब वह उदास नहीं थी बहुत खुश थी। वह तो आज इस शाम को यादगार और लम्बी ठण्डी रात को खूबसूरत बनाकर बिताने वाली थी। लेकिन वहाँ तक पहुँचते-पहुँचते उसके बॉयफ्रेंड का फ़ोन आता है कि वह किसी और के साथ है। इसके साथ ही वह अपनी पिछली यादों और तमाम बातों में डूबकर खुद के व्यक्तित्व के आत्मविश्लेषण में जुट जाती है। इस दौरान वह अपने सामने एक नौ-दस साल की सांता क्लाज की कैप बेचने वाली गन्दी सी लड़की सोना के क्रियाकलापों को देखती है। इस पूरे घटनाक्रम को कहानीकार ने बड़ी खूबसूरती से शब्दों में बयां किया है। वह अपनी तुलना सोना से करती है, शायद उसके और सोना के आने वाले नववर्ष में कई समानताएँ हैं। वह सोना को अपने पास बुलाकर पूछती है- “सोना, तुम जानती हो सान्ता क्लॉज कौन है?’ उसके इस प्रश्न पर सोना जवाब देती है- “वो तो सफेद दाढ़ी वाला बुढ्ढा है। उसकी बहुत लम्बी दाढ़ी है, झक सफेद और वह घण्टी बजाता है। उसके पास लाल रंग का बहुत बड़ा थैला है जिसमें से वह टाफियाँ चाकलेट निकालकर अच्छे-अच्छे बच्चों को देता है। मैं या मेरा भाई माँगते हैं तो हमें भगा देता है या फिर दुकान के भीतर चला जाता है।“ बातचीत के दौरान सोना के चेहरे पर अजीब सी वीरानी भरी मासूमियत छा जाती है जिसका सम्बन्ध शायद उन अनेक इच्छाओं से था जो रोज जीवित होती हैं और रोज मर जाती हैं। नायिका सोचती है कि बहुत से बहुत से लोग उसके सम्पर्क में आये हैं लेकिन सब स्वार्थवश, जैसे वह खुद उन लोगों के सम्पर्क में आई- स्वार्थवश। क्या इसी तरह सांता क्लाज भी अपनी अपूर्ण इच्छाओं को पूरा करने का भ्रम है। वह सोना को इधर-उधर की बातें कहकर बहलाती है। सोना छोटी भले है मगर वह सब समझती है। जीवन संघर्ष व कटु अनुभवों ने उसे समय से पहले ही परिपक्व कर दिया है। वह कहती है- “पता नहीं, सब लोगों को इस टोपी के दाम (तीस रुपये) ज्यादा क्यों लगते हैं? हो सकता है, इसे मैं बेच रही हूँ इसलिए। अगर ये टोपी शीशे वाली बड़ी दुकानों में रखी होती तो कोई इसकी कीमत को ज्यादा नहीं कहता। वहाँ लोग इसे सौ रुपये में भी चुपचाप खरीद लेते। इसलिए मेरा बापू सच कहता है, हमारी किस्मत खोटी है कि हमें अपनी कीमत भी नहीं मिलती...।“ कहानी चलते हुए कई प्रश्न छोड़ती जाती है आखिर नया साल कहानी के इन दो पात्रों जैसे कुछ लोगों का भी तो होता है !

ठीक कुछ इसी तरह के कथ्य की कहानी भारत से श्रवण कुमार गोस्वामी की कहानी ‘बालेसर का नया साल’ भी है। .बालेसर’ एक ग़रीब रिक्शा चालक है वह उस तमाम आबादी का प्रतिनिधित्व करता है जो रोज गड्ढा खोदते हैं और रोज पानी पीते हैं, जिनके पास शिक्षा नहीं है स्वास्थ्य नहीं है। परिवार चलाने और भरपेट भोजन को पाने की चिंताएं करने में ही जिनका जीवन कट जाता है। उसे तो यह तक नहीं पता कि गणतंत्र दिवस का मतलब क्या होता है ? जब वह एक सवारी से पूछता है, “बाबू ई गनतंतर दिवस का होता है ?” फिर नए साल के ठीक एक दिन पूर्व भला वह कैसे समझ पाता कि आज बाज़ार में इतनी चहल-पहल क्यों है ? आज उसका धंधा अच्छा चल रहा है। वह यह भी सोचता है कि काश शायद रोज ही ऐसा हो। इस कहानी में बालेसर के माध्यम से इस दिन घटने वाले कई ऐसे प्रसंगों को लिया गया है जो उसके साथ सामान्य दिनों में भी घटित होते रहते हैं। खैर चाहे जो हो आज बालेसर बहुत खुश है। उसका मित्र बादल उसे बताता है कि आज नया साल है। बालेसर मासूमियत से पूछता है, 'नया साल मनाने से का होता है?'
'इ तो हमको भी टीक से मालूम नइ है। मगर हम सुने हैं कि नया साल में खूब खुशी मनाने से, खूब नाचने-गाने और मस्ती करने से साल का बाकी दिन भी खूब बढ़िया से गुजरता है।‘
वह एक दूकान के सामने से गुज़रते हुए चलते हुए टीवी में समाचारों में सुनता है कि नववर्ष पर किसी अभिनेत्री ने ‘सत्तर लाख के ठुमके’ लगाए। बालेसर सोच नहीं पाता कि सत्तर लाख रुपिया आखिर कितना होता है। समाचारों में नववर्ष पर और भी जगहों के प्रसंग आते हैं जिन्हें सुनकर बालेसर हँसता है और सोचता है। अगले दिन उसकी दिनचर्या पुनः उसी ढर्रे पर लौट आती है। कहानी अंत में इस प्रश्न के साथ ख़त्म होती है जब लेखक पूछता है क्या साल भर बालेसर जैसे लोगों की मड़ई में आज जैसा अँधेरा ही फैला रहेगा ?

भारत के ही कथाकार रवीन्द्रनाथ भारतीय की कहानी ‘नववर्ष: दो डायरियां समानांतर’ सिक्के के दो पहलुओं की तरह एक दूसरे से जुड़े हुए दो परिवारों के नए साल के उस एक पहले दिन का आत्मकथ्य है। डायरी के ये दोनों पन्ने समानांतर हैं, एक ही समय पर पुल के दो किनारों की नदी पर अपने-अपने ढंग से समानांतर प्रतिक्रियाएँ करते हुए। पहली डायरी का पहला पन्ना नवीं कक्षा में पढ़ने वाली एक लड़की ज्योत्स्ना का है जो कि उसके जीवन के प्रवाह का सहज आख्यान है, “नया साल आने वाला है, नया साल नई खुशियाँ लाता है", क्लास में जब सुना तो विश्वास नहीं हुआ। अब तक कितने न्यू इयर आए हैं, और क्या, कितनी बार मैंने खुद देखा है, सामने लोगों को नाचते हुए, उन्हीं ऊँची इमारतों में। हम लोग तो ऐसे ही इतने खुश हैं।”
“नए साल पर खुशी मनाना मेरे लिए तो नया था। इसके पहले तो कभी पापा हमें नहीं ले गए कहीं।“
“उस चमक दमक से दूर हमारी बस्ती में जिसके सामने वो ऊँची इमारतें हैं, कितनी फीकी-सी है। पर मैं तो रहती हूँ यहीं, प्रिन्स मम्मी और पापा भी। यही तो है वो जगह जहाँ से गाँव से यहाँ आए मेरे पापा के आगे बढ़ने बड़ा आदमी बनने के सपने शुरू हुए थे। चमक-दमक, कार, ये घूमना-फिरना एक दिन की खुशी है और हमारी बस्ती हमेशा साथ रहने वाली खुशी, पर हाँ ये त्योहार भी तो एक दिन की खुशी ही तो हैं। पता नहीं पूछूँगी कभी किसी से कि कौन-सी खुशी बड़ी है। मुझे तो लगता है कि खुशियाँ तो बस खुशियाँ हैं, छोटी बड़ी कैसे? पता नहीं। वो १२ बजे घर से ही देखा था अभी, कहीं पटाखे छूट रहे थे...कितनी चमक थी। जैसे कितने सारे तारे एक साथ निकल आए थे ऊपर आसमान में, गिरते हुए से, छिटक कर हर कहीं फैलते हुए से।“
डायरी का दूसरा पन्ना एक बूढ़े व्यक्ति का है जो शहर में अपनी पत्नी नीता के साथ रहता है, उसके बच्चे विदेश में सेटल हो गए हैं। नए साल पर अचानक वे सब इकट्ठा होते हैं, मिलते हैं और कहानी में खुशियों तथा प्यार के भावों का अलग संसार सामने आता है। कहानी के अंत में पता लगता है कि डायरी के दोनों पन्ने किस तरह आपस में जुड़े हुए हैं जब पता लगता है कि उस बूढ़े व्यक्ति का कार ड्राईवर प्रकाश ही ज्योत्स्ना का पिता है। इस प्रकार दोनों परिवारों की नववर्ष की खुशियाँ आपस में जुड़ी हुई होती हैं, लेकिन अलग-अलग परिभाषा रखतीं हैं।

भारत की ही कहानीकार प्रवीणा जोशी की कहानी ‘नया सवेरा’ एड्स से पीड़ित सीमा नाम के एक महिला चरित्र की कहानी है। सीमा के लिए नया साल बरसों से उसके जीवन में नहीं आया था, जब समय के थपेड़ों ने उसे चेतनाशून्य सा कर दिया था। आज पहली बार नववर्ष उसके लिए एक आशा की किरण लेकर आया है। फ्लैशबैक में वह अपने बीते दिनों को याद करती है। सीमा बगैर माँ-बाप की बच्ची थी और वह नए साल का पहला दिन ही तो था जब उसकी शादी विजय के साथ हुई थी। विजय को शराब की बुरी लत होती है और वह सीमा को वेश्यावृत्ति के भयानक दलदल में डाल देता है। उसके दुःख के कई प्रसंगों के साथ कहानी उसके वर्तमान नववर्ष के सुखांत अंत की और बढ़ती है। जब एक एनजीओ के द्वारा मंच पर यह घोषणा की जाती है कि- ‘सीमा का हम स्वागत करते हैं नववर्ष के दिन...साथ ही आज हम सब मिल कर नए साल के उपहार के रूप में एक नया कुटीर उद्योग शुरू करने के लिये आपको एक राशि प्रदान करेंगे, जिससे आप अपना जीवन यापन कर सकेंगी।‘
और इस तरह इस नए साल में सीमा अपने उजड़े जीवन में पहली बार नए साल की रंग और खुश्बू के उत्साह को महसूस करती है।

भारत की कथाकार शुभदा मिश्र की इस विषय पर लिखी गयी कहानी ‘नववर्ष शुभ हो !’ एक मनोवैज्ञानिक कहानी प्रतीत होती है, जिसमें मानवीय मन के संकेतों और पूर्वाग्रहों का अच्छा चित्रण है। कहानी की कथावस्तु बहुत छोटी सी है- नीलू और नितिन पति-पत्नी हैं नितिन के पिता- बाबू जी और उनके घर में खुले एक कंपनी के ऑफिस के मेनेजर मेजर सिंह जो कि सेना में अफसर रह चुका है, इन चार पात्रों के इर्द-गिर्द कहानी का ताना-बाना बुना गया है। नितिन के घर में फ़ोन नहीं है उसके बाबू जी अक्सर कंपनी के ऑफिस के फ़ोन का प्रयोग करते हैं। नितिन की पत्नी नीलू मेजर सिंह के प्रति पूर्वाग्रहों से ग्रसित रहती हुई उसे भला-बुरा कहती हुई अक्सर कोसती रहती है परन्तु मेजर सिंह कोई भी ऐसी प्रतिक्रिया नहीं करते जिससे कोई अप्रिय स्थिति उत्पन्न हो। धीरे-धीरे गलतफहमियों की दरारें टूटतीं हैं और नए साल के दिन फ़ोन करने के बहाने नीलू की मेजर सिंह से बात होती है। मेजर उसे शांत भाव से नववर्ष की शुभकामनाएं, डायरी व कैलेंडर देते हैं। नीलू को आश्चर्यमिश्रित लज्जा होती है। अपनी सोच से विपरीत व्यवहार को देखकर नीलू की आँखें भर आतीं हैं और उसके मुंह से इतना ही निकलता है, “नया साल शुभ हो मेजर !” उसके बाद उसका परिवार वहाँ से बहुत दूर चला जाता है परन्तु हर वर्ष नया साल आने पर नीलू के सामने मेजर का मुस्कुराता हुआ चेहरा सामने आने लगता है और उसके मुख से अनायास ही निकल पड़ता है, नववर्ष शुभ हो मेजर तथा उसे यह भी लगता है मानो मेजर भी जवाब में कह रहे हों, शुक्रिया आपका भी !

भारत से डॉ सरस्वती माथुर की कहानी ‘पूर्वसंध्या’ की मुख्य चरित्र राधादेवी भारत में रहती हैं। वह अमृतयान निकेतन नामक वृद्धाश्रम और स्वास्थ्य केंद्र भी चलाती हैं। उनके बच्चे अमेरिका में रहते हैं। राधा देवी को पढ़ने-लिखने का शौक है, वह कंप्यूटर भी चला लेती हैं। वे धीरे-धीरे ही सही पर ज़माने की बदलती चीज़ों को समय के साथ-साथ अपनाती रहीहैं। अमृतयान निकेतन के सदस्यों के साथ राधादेवी आत्मीयता महसूस करती हैं। बिलकुल तो नहीं पर यहाँ रहने वाले लोगों का जीवन कुछ न कुछ उनसे मिलता ज़रूर है। वही बच्चों का नीड़ से उड़ जाना और अपना दाना खोजने की व्यस्तता के चलते माँ बाप से लगकर न रह पाना। जीवन का यह समय सभी के पास आता है। जब माता पिता को बच्चों की आवश्यकता होती है वे अपने बच्चों के लिए जीवन का हर पल दाँव पर लगाए होते हैं। यही संसार का नियम है। स्वयं वे अपने माता पिता की कितनी देखभाल कर पाई थीं? शायद यहाँ पर काम करते हुए वे उसी कमी को पूरा करने की कोशिश करती हैं। नए साल के ठीक एक दिन पहले अचानक उनका पूरा परिवार उनके सामने उपस्थित होकर उन्हें आश्चर्यचकित कर देता है और फिर सभी एक साथ मिलकर नए साल का उत्सव मनाते हैं। लेखिका कहानी में कहती है कि, ‘बस एक यही पल तो होता है जब आदमी चाहता है कि कुछ क्षणों के लिए समय ठहर जाये।’

यू.के. से कथाकार अचला शर्मा की कहानी ‘चौथी ऋतु’ लिंडा नाम की एक अकेली व बूढ़ी अंग्रेज़ महिला की दास्तान हैवह क्रिसमस तथा नए साल के अवसर पर अपने आसपास के कुछ लोगों को दावत पर बुलाती है। जिनके साथ वह अपने जीवन की कुछ खट्टी-मीठी यादें बांटती है उसके द्वारा दी गयी पार्टी में आये लोग भी आह्लादित होकर अपना दुःख दर्द बांटते हैं। जब उन्हें पता लगता है कि उनके पड़ोस में रहने वाली रोजमैरी नामक वृद्ध महिला की दुखद मृत्यु हो गयी है तो एक पल के लिए उन सभी के भीतर भी भावी मौत का एक डर भी व्याप्त हो जाता है। फिर बारह बजने के बाद शैम्पेन की बोतल खुलती है और सब एक दूसरे से चीयर्स, बुढ़ापे के नाम बोलते हुए नए साल की खुशियाँ मनाते हैं।

नार्वे में रहने वाले लेखक डॉ सुरेशचन्द्र शुक्ल शरद आलोक की कहानी ‘आदर्श: एक ढिंढोरा’ जहाँ अपने देश के मूल परिवेश से हमारी मुलाक़ात करवाती है वहीं विदेश की आधुनिक महानगरीय संस्कृति की पड़ताल भी करती है। इससे यह भी पता चलता है कि पश्चिमी संस्कृति में क्रिसमस और नये साल का समय प्रेम और विवाह जैसे महत्वपूर्ण निर्णयलेने में प्रमुख भूमिका निभाता है। कहानी क्रिसमस के अवसर पर ओस्लो शहर के खूबसूरत सजावट वर्णन से शुरू होती है। अपनी कहानी में वे लिखते हैं कि ‘नार्विजन लोग खाते-पीते, मौज उड़ाते, युवा-जन नाचते-कूदते, बच्चों को यह पर्व बहुत प्रिय होता है। प्रवासी लोग अपने-अपने वतन से दूर न जाने किस-किस तरफ छुट्टियाँ व्यतीत करते। घर के बाहर चारों तरफ बर्फ ही बर्फ। आज टीवी वाडियो घर-घर है। कोई प्रवासी घर पर टीवी देखता वीडियो पर फिल्म देखता या देशीय मित्रों के साथ गप्पें मारता।‘ इस प्रकार शुरुवाती भूमिका के बाद कहानी अपने कथ्य पर आती है, जिसमें नए साल से सम्बंधित कोई विशेष प्रसंग तो नहीं आता लेकिन एक गंभीर समस्या- भारतीय आप्रवासियों का स्थानीय महिलाओं से केवल भाषा सीखने और नागरिकता प्राप्त करने के लिये विवाह करना और बाद में उन्हें तलाक दे देना – को गंभीरता से उठाया गया है।

पोलैंड से हरजेन्द्र चौधरी की कहानी ‘लेज़र शो’ इस विषय पर बहुत गर्भित और सार्थक कहानी बन पड़ी है। यह कहानीसमय के साथ लोगों की सोच और विकास के नए मानकों को मानवीय संवेदना के साथ जोड़ती है। जहाँ पहले लोग बाज़ीगर और उसकी लड़की का खेल देखते थे समय के साथ उनके मनोरंजन के साधन बदलते चले गए। गाँव-कस्बे फैलकर शहर बन गए, भौतिक संसाधनों ने चारों ओर अपने पैर फैला लिए। व्यस्तता इतनी बढ़ गयी है कि एक दूसरे के लिए कहीं किसी के पास समय ही नहीं। नववर्ष पर भी लोग अब बाज़ीगर का खेल नहीं लेज़र शो देखते हैं, मैकडोनाल्डस की आइसक्रीम खाते हैं, नाचते-गाते हैं। किसी को किसी और का दुःख नहीं दिखता सब अपने-अपने में मगन हैं क्या यही हमारी प्रगति है ? इस तरह की तमाम सारी मूलभूत बातों को कहानी में कहानीकार ने बड़ी खूबसूरती से समेटा है।

निष्कर्षतः कहा जा सकता है कोई भी कहानी किस समय सन्दर्भ और देशकाल में लिखी जा रही है यह कहानीकार के रचनाक्रम में उसकी समकालीनता को भी रेखांकित करता है। कहानियों की यह विविधता और विशिष्टता ही उसे एकरस होने से बचाती है और उसकी वैश्विकता और स्तरीयता को भी निर्धारित करती है। अनेकता में एकता इस सूत्रतत्व के साथ कथा लेखकों की इस एक रंग में बहुरंगी होने की विशेषता से पाठक कहानी के नए भूगोल और संस्कृति से तो परिचित होता ही है साथ ही वह यह भी महसूस करता है कि विभिन्न देशों की भूगोल-इतिहास और संस्कृति भले ही अलग-अलग हो लेकिन कथावस्तु व संवेदना के विषय कमोबेश हर जगह एक ही है। कथाकार की कहानियां स्थानीयता के इस सौन्दर्य को स्वतः ही बता देतीं हैं उसकी कहानियों की कथा, पात्र व भाषा स्वयमेव ही उसके इस जमीनी रचना-संघर्ष का बयान बन जाती है, जिनसे एक आम पाठक जुड़ना चाहता है और इस तरह कहानीकार अपने उद्देश्यपूर्ति में सफल हो पाने में सक्षम हो पाता है। हालाँकि लेखक कथा कहने के अपने उद्देश्य में कहाँ तक सफल हो पाया है यह उसकी स्वयं की लेखकीय प्रतिभा, ज्ञान, अनुभव और समय के साथ-साथ रचना के पाठकों पर भी निर्भर करता है।

Wednesday 11 December 2013

पुस्तक समीक्षा : जीवन का स्वर मंद न हो (काव्य संग्रह)


डॉ परमलाल गुप्त हिंदी साहित्य के जानेमाने हस्ताक्षर हैं जोकि अनवरत रूप से अपनी सशक्त रचनाओं एवं कृतियों के माध्यम से हिंदी साहित्य जगत में अपनी एक अलग ही पहचान बनाये हुए हैं | इसी क्रम में आपका दशम कविता संग्रह ‘जीवन का स्वर मंद न हो’ भी है |

पूरा संग्रह मुझे एक विराट कविसम्मेलन की तरह लगता है जिसमें आने वाला श्रोता विविध प्रकार के कवियों से विविध प्रकार की कविताओं की अपेक्षा करता है | इस कविता संग्रह को पढ़ना एक नए अनुभव से गुजरने जैसा है | डॉ गुप्त ने तमाम सामयिक विषयों को समेटते हुए अपने पाठकों की चली आ रही समस्याओं को भी दूर कर दिया है |

पुस्तक की ज्यादातर रचनाएँ गीत विधा में हैं | कुछ मुक्तक, कवितायेँ और अंत में बच्चों के लिए आठ बाल कवितायेँ, यानी लगभग सभी के लिए कुछ न कुछ | कवि ने सरल काव्यात्मक भाषा का इस्तेमाल बड़ी खूबसूरती के साथ किया है | उनके तर्क पाठक को वैचारिक स्तर पे प्रभावित करते हैं | कवि की एक प्रमुख विशेषता उल्लेखनीय है वह यह है कि जो उसने देखा, जो भोगा उसे बड़े अच्छे तरीके से शब्दों में गूंथकर सच्चे मन से प्रस्तुत कर दिया है | उसे यह परवाह नहीं कि कोई क्या कहेगा | उसने हमारे विकास में बाधक समस्याओं से हमें रूबरू करा दिया है जिनके समाधान हमें मिलकर खुद ही खोजने होंगे, कूपमंडूकता से काम नहीं चलने वाला |
‘राजनीति का सत्य’ चतुष्पदियों में कवि ने वर्तमान राजनीति के विकृत स्वरुप पर बहुत करारा व्यंग्य किया है | ‘एकता के प्रश्न’ पर कवि ने इतिहास के पन्नों को हमारे आगे खोलकर रख दिया है, फिर एकपक्षीय समता का क्या मतलब है? ‘विकास की विरूपता’ पर कवि का संवेदनशील मन चिंतित हो उठता है दो पंक्तियाँ उसी के शब्दों में, “एक ओर तो महाशक्ति बन/ भारत जग में उभर रहा है/ आम आदमी ठोकर खाकर / कठिन डगर से गुज़र रहा है !”

‘दल का दलदल’ कविता पढ़ते हुए इंडियाशाइनिंग का नारा बेमानी लगता है | इतनी विडम्बनाओं के होते हुए भी कवि राष्ट्र के उद्धार के प्रति आशान्वित है | इस सन्दर्भ में पृष्ठ-29 पर ‘गीत’ शीर्षक कविता बड़ी अच्छी बन पड़ी है | पृष्ठ-30 पर भी एक ‘गीत’ शीर्षक कविता है जिसे इस पुस्तक का टाइटलगीत भी कह सकते हैं | ‘देहधर्म’ शीर्षक कविता कवि के आध्यात्मिक दर्शन की भावभूमि को व्यक्त करती है, वहीं पृष्ठ-36 का गीत हमें हमें छायावाद की रूहानी वादियों में ले जाता है और पृष्ठ-37 के मुक्तक डॉ रामप्रसाद की उक्ति ‘....राष्ट्रवाद की टेक’ को सिद्ध करते हैं | ‘जीवनज्ञान’ जीवन को देखने का कवि का अपना नज़रिया है | ज्ञान इसलिए क्योंकि इसमें कवि के अनुभव शामिल हैं |

‘आज की राजनीति’ में विचारधाराएँ कहाँ हैं ? कुछ व्यंग्य टाइप कवितायेँ इस बात पर भी हैं | कवि के इस लपेटे में ‘आज की मीडिया’ भी आ गयी है |

डॉ गुप्त अपनी कविता में विविध प्रयोगों को करने में सिद्धहस्त हैं | कवि अपनी भाषा व संस्कृति को सर्वोपरि मानता है | वह अंग्रेजी का विरोधी नहीं परन्तु उसके लिए हिंदी पहले है अंग्रेजी बाद में | कवि का समस्त कृतित्व हिंदी में है | यह भी सर्वमान्य तथ्य है कि हमारी सर्वश्रेष्ठ अभिव्यक्ति हिंदी में ही हो सकती है | उसकी ‘अंग्रेजी माध्यम 1 व 2’ शीर्षक कवितायेँ भारतेंदु बाबू के इस कथन को बल देतीं हैं कि ‘विदेशी भाषा, विदेशी वस्तुओं का भरोसा मत करो, अपनी भाषा, अपनी संस्कृति में उन्नति करो !’

कवि व्यवस्था परिवर्तन के लिए जन-मन में क्रांति को आवश्यक मानता है, यह क्रांति कैसे हो सकती है इसका हल ‘क्रांति कैसे’ कविता में है | कवि की ‘इंडिया’ कविता भी इसी क्रम में है | उसे अपने राष्ट्र की दुर्दशा देखी नहीं जाती और फिर बरबस उसकी कलम में कुछ न कुछ निकल ही पड़ता है | आखिर हमारी प्रगति कहाँ रुकी हुई है ? हम विदेशी नक़ल कर-करके अपना मौलिक चिंतनधारा को खोते जा रहे हैं | कवि का सन्देश है कि अगर हम इन सब समस्याओं को दूर कर लें तो अपने देश को पुनः विश्वगुरु बनने से कोई नहीं रोक सकता |

कवि का सपना भारत देश को स्वतंत्र हिन्दूराष्ट्र के रूप में देखने की है इसलिए कुछेक कवितायेँ लोगों को अखर सकतीं हैं, हालांकि कवि की मूलभावना सांप्रदायिक सदभाव की ही है |

समीक्ष्य संग्रह की सभी कविताओं में ताजगी है, नया स्वर है | बहुत दुरूह शब्दों का प्रयोग कवि ने नहीं किया है जिससे इस कृति की उपयोगिता और अधिक बढ़ गयी है | हम अपनी जगह पर सही रहें, सही सोचें, सही करें व जीवन की गतिशीलता के साथ गतिमान रहें, संग्रह का मूलसंदेश यही है |
पुस्तक का कलेवर छोटा है | सहेजने, समझने लायक काफी कुछ है इसमें, मूल्य भी अन्य की तुलना में काफी कम | निश्चय ही अच्छे काव्य को चाहने वाले पाठकों को इसे अवश्य ही पढ़ना चाहिए |

समीक्ष्य पुस्तक : ‘जीवन का स्वर मंद न हो’ (काव्यसंग्रह)
रचनाकार- डॉ परमलाल गुप्त
प्रकाशक-पीयूष प्रकाशन, सतना (म.प्र.)
पृष्ठ-128 मूल्य-50/-
समीक्षक- राहुल देव, सीतापुर |
ईमेल- rahuldev.bly@gmail.com

Tuesday 10 December 2013

‘बंजारन’ नारी मन की कसक और स्त्री विमर्श के नए आस्वाद की कवितायेँ



जिस स्त्री विमर्श को लेकर आजकल साहित्य जगत में बहुत कुछ लिखा जा रहा है और इतनी अधिक मात्रा में लिखा जा रहा है कि स्त्री खुद कंफ्यूज सी हो गयी है कि वास्तव में इस बदलते समय में उसकी दिशा क्या हो | आखिर इस तमाम लेखन की क्या निष्पत्ति है ? एक तरफ प्रगतिशीलता और खुलेपन के नाम पर लिखा जा रहा आवेगीय फूहड़ लेखन है तो दूसरी तरफ सहज रूप में गंभीरता से लिखी जाने वाली इस तरह की कुछेक किताबें | ऐसे समय में अपनी एक बिलकुल अलग तरह की कविताओं के माध्यम से कुंती मुखर्जी ने स्त्री विमर्श के उस अनछुए पहलू को हमारे सामने रखा है जिसके बारे में बहुत कम ही लिखा गया है | नारी शक्ति को समर्पित इस कृति की कविताओं का आस्वाद बिलकुल भिन्न है |
‘घायल मृगी’ शीर्षक कविता की कुछ पंक्तियाँ दृष्टव्य हैं- ‘बज रही थी मुरली की तान/..../कितने सुन्दर शब्द !/ कितने सुन्दर लय/ ठहरु ! चलूँ ! ठुमकूं !/ या नाचूं मचल ! मचल !/ जादूगर ! रुक ! धीरे !/ ज़रा ठहर ! फिर चल !....’
चिरंतन सत्य’शीर्षक कविता की कुछ पंक्तियाँ देखना चाहें- ‘..../ निशा नशीली रात आयी/ फिर सो गयी बेगानी/ सपनों का द्वार खोल/ आया कोई सजीला/ मुग्ध हुए देख नक्षत्रकण/ कानों में बजने लगे वाद्ययंत्र/ छिड़ गयी मन मोहिनी जादुई तान/ अशांत मन पुलकित-तरंगित हुआ/ नाच उठे धरती के कण-कण/ चंचल उर में प्रेमदीप जल उठा/....’
अपने सुगठित भाषा विन्यास और विचारों के साथ कुंती जी ने नारी के अंतर के तमाम पहलुओं को अपनी इन रचनाओं के माध्यम से समाज को आईना दिखाने की एक सार्थक कोशिश की है |
‘एक लड़की’ कविता देखें- ‘निर्मल कोमल मन,/ था उसका,/ कल कल करती/ नदी सी बहती/....’
‘बंजारन’ कविता संग्रह की कविताओं को पढ़ते हुए कभी भी बोझिलपन नहीं लगता जैसा की तमाम अतुकांत कविताओं को पढ़ते हुए अकसर लग जाया करता है | इसकी सभी कवितायेँ उच्च भाव बोधों को समेटे हुए हैं | कविताओं में परस्पर प्रवाह है | पाठक कविताओं को पढ़ता ही नहीं बल्कि उनसे जुड़ता चला जाता है | कविताओं के साथ दिए गए अहमद नियाज़ रज्ज़ाकी के सारगर्भित व कलात्मक रेखांकन भी साथ-साथ में बहुत कुछ कहते चलते हैं |

यह कवितायेँ सिर्फ कविताएं मानकर लिख दीं गयी हों ऐसा नहीं लगता | इन कविताओं को कवियत्री ने स्वयं अपने जीवन के विविध आयामों में जिया है, ऐसा प्रतीत होता है | ‘बंजारन’की कवितायेँ नारी मन के सच्चे व बेलाग भावों की मार्मिक भावाभिव्यक्तियाँ हैं | संग्रह की कविताओं के स्तर व परिपक्वता को देखते हुए कभी ऐसा नहीं लगता कि यह उनका पहला काव्य संग्रह है | स्त्री विमर्श पर कविताओं के माध्यम से एकदम नये सामाजिक सरोकारों की बात करती इस तरह की पहली काव्य कृति मेरी आँखों के सामने से गुजरी है | कवियत्री अपनी कविताओं में स्त्रीमन के विस्तृत फलक का अंतर्संसार रचती है- ‘पिघलता क्षण’ कविता देखें - ‘बचपन से यौवन तक/ ज़िन्दगी की भीड़ में, कितने/ रिश्ते टूटे और कितने जुड़े/ सोचती हूँ और खो जातीं हूँ !’
यह एक सर्वज्ञात तथ्य है कि एक स्त्री ही स्त्री के अंतर्मन के भावों को अच्छी तरह से समझ सकती है | कवियत्री अपनी कविताओं में आत्मसाक्षात्कार के माध्यम से पाठकों को एक स्त्री के जीवन के उस पहलू से अवगत कराने का प्रयास किया है जिसमें वह अपने दिन-प्रतिदिन के जीवन संघर्षों में जीती है, अपने घर-परिवार के लोगों का ध्यान रखती है, फिर चाहे माँ, बहन, पत्नी आदि उसका कोई भी रूप हो | भारतीय वैदिक साहित्य में नारी को देवी का स्वरुप माना गया है | वह जन्मदात्री है | उसकी अस्मिता की रक्षा करना समाज का नैतिक दायित्व बनता है और साहित्य उस दायित्व के निर्वहन में उसका सहयात्री | हालांकि इस गंभीर विषय पर इतना अधिक लेखन हुआ है कि इस सम्बन्ध में कोई एक सर्वमान्य राय बना पाना इतना आसान नहीं फिर भी कुंती मुखर्जी जैसे कुछ रचनाकार अपनी रचनाओं के माध्यम से एक आशा की किरण दिखाते हैं | कुंती मुखर्जी ने अपनी कविताओं में नारीमन के जिन सवालों उठाया है उनके जवाब हमें देने ही होंगे |
अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस के अवसर पर कवियत्री द्वारा लिखी गयी कविता ‘नारी क्यों रोती है’ उसकी अंतर्व्यथा के बारे में बहुत कुछ कह जाती है | जब वह कहती है- ‘सुन्दर छवि पा/ नयन भर आंसू, नारी क्यों रोती है ?/....’
कवियत्री का कोमल कविमन तमाम बंधनों को तोड़-ताड़कर भाव सरिता में डूब जाने को विकल है | भाव और अंतर्द्वंद्व की अतिशयता में वह ‘मुझे डोर से मत बांधो’ शीर्षक कविता में कह उठती है- ‘मैं बहना चाहती हूँ, मुक्त/ मेरे प्रियतम ! मुझे स्नेह की डोर से मत बांधो !’
कवियत्री की ‘एक सवाल’ शीर्षक कविता पुरुषवादी वर्चस्व के बीच अपने अस्तित्व की पहचान पर लगा हुआ एक ऐसा प्रश्नचिन्ह है जिनके उत्तर तलाश करने का समय आ चुका है | और मुझे लगता है कि इन प्रश्नों के उत्तर एक स्वस्थ माहौल बनाकर दिए जाने चाहिए जिससे कि आगे चलकर एक स्वस्थ व विकसित समाज के विनिर्माण की परिकल्पना साकार होगी | जहाँ सभी स्त्री-पुरुष एक समान होंगें | साहित्य को ऐसे सभ्य व सबल समाज को आधार प्रदान करने में निश्चित रूप से अपनी इस अप्रत्यक्ष भूमिका का योजनाबद्ध तरीके से निर्वहन सुनिश्चित करना होगा | इधर-उधर निरुद्देश्य भागते रहने से कुछ हासिल नहीं होने वाला | कम से कम इस दिशा में जो भी, जितना भी सार्थक लेखन हो रहा है उसे तो हम पढ़ें, देखें, समझें और गुनें |
‘एल लड़की पगली सी’ कविता की कुछ पंक्तियाँ देखें- ‘.....सूने घर में-/ एक लड़की अनजानी/ मिट गयी कोमल मन सी काया/ धरती से आकाश तक/ उठा हाहाकार,/ पर-/ निष्ठुर समाज/ चलता रहा अपने ही ढर्रे पर |’
कवियत्री की पूरी किताब में उनकी कविता ‘यह घर तुम्हारा है’ अपने भाव, बिम्ब, कथ्य व शिल्प की वजह से मेरी पसंदीदा कविता रही | यह एक ऐसी कविता है जिसे मैं बार-बार पढ़ना चाहूँगा | इसमें शादी के बाद एक स्त्री के जीवन का आख्यान प्रस्तुत किया गया है जो कि कम शब्दों में भी बहुत कुछ कह जाती है |
‘बंजर जमीन’ कविता का एक टुकड़ा देखें- ‘कहतें हैं- वक़्त हर मर्ज़ की दवा है / हाँ ! लेकिन ! ख़ामोशी कब चुप्पी साधती है ?/ ज्वालामुखी एक राह से नहीं तो/ दूसरी जगह से भड़क ही जाता है/...../ जीवन शुरू होता है संघर्षमय/ जंग रहती है जारी आजीवन/ बचा रहता है क्या, हाथ में आया तो बस/ बंज़र ज़मीन का एक टुकड़ा/ और ऊपर नीला आसमान !’     
विषय की समीचीनता को देखते हुए इस पुस्तक की समीक्षा लिखना मेरे लिए महत्त्वपूर्ण है | इस अवसर पर और इस विषय पर हाल ही में प्रकाशित प्रसिद्द लेखिका रश्मिप्रभा जी द्वारा सम्पादित एक अन्य महत्त्वपूर्ण पुस्तक ‘नारी विमर्श के अर्थ’ जिसमें इस विषय को लेकर कई अच्छे आलेख संग्रहीत किये गए हैं, का जिक्र भी जरूर करना चाहूँगा | जिसके समानांतर ही कुंती जी की पुस्तक बंजारन आयी है | दोनों में सिर्फ इतना फर्क है कि एक गद्य विधा में है दूसरी पद्य विधा में | साहित्य सुधियों के लिए उक्त दोनों किताबें स्त्रीविमर्श का एक अहम् दस्तावेज़ हैं |
चूँकि मैं यहाँ पर एक पुस्तक की समीक्षा लिख रहा हूँ अतः नारी विमर्श का विस्तृत विश्लेषण यहाँ पर प्रस्तुत करना संभव नहीं है, हाँ अगर नारी विमर्श पर आप किसी निष्कर्ष पर पहुंचना चाहते हैं तो आपको इन दोनों किताबों को अवश्य ही पढ़ना चाहिए |
कुल मिलाकर पुस्तक पठनीय, विचारणीय एवं संग्रहणीय है | साहित्य जगत में इस पर पर्याप्त चर्चा किया जाना अपेक्षित है | इस संग्रह की कविताओं को गुजरने के बाद महाकवि जयशंकर प्रसाद जी के शब्दों में मैं बस इतना ही कहना चाहूँगा- ‘नारी तुम केवल श्रद्धा हो/ विश्वास रजत पग तल में/ पीयूष स्रोत सी बहा करो/ जीवन के सुन्दर समतल में !’

पुस्तक- बंजारन (कविता संग्रह) / कुंती मुखर्जी / 112 पृष्ठ- हार्डबाउंड / मूल्य- 200 / प्रकाशक- अंजुमन प्रकाशन, इलाहाबाद |

समीक्षक- राहुल देव
संपर्क- 9/48 साहित्य सदन, कोतवाली मार्ग, महमूदाबाद (अवध), सीतापुर, उ.प्र. 261203
ईमेल- rahuldev.bly@gmail.com

परों को खोलते हुए-1 : एक पाठकीय प्रतिक्रिया



हिंदी साहित्य जगत के पंद्रह रचनाकारों का संयुक्त काव्य संग्रह ‘परों को खोलते हुए-1’ मेरे हाथ में है | इस संकलन में हिंदी काव्यजगत के पंद्रह विविध रचनाकारों की चुनिन्दा छन्दमुक्त कविताओं की प्रस्तुति श्री सौरभ पाण्डेय जी के कुशल संपादन में हुई है |

एक पाठक की नज़र से अगर प्रारंभ से देखना शुरू करें तो सर्वप्रथम अरुण कुमार निगम की कवितायेँ हैं | आपकी कविताओं में एक परिपक्वता है, जोकि कविहृदय की मार्मिक भावाभिव्यक्तियाँ हैं | जीवन-जगत का सूक्ष्म अन्वेषण इनकी कविताओं में देखने को मिलता है |
कुछ पंक्तियाँ जो कि मुझे अच्छी लगीं आपसे बांटना चाहूँगा-
‘धुंधली आँखें/ जर्जर काया/ चप्पे-चप्पे ढूँढा मैंने......(मेरुदंड झुका जाता है शीर्षक कविता से),
सब करते थे प्रेम/ चुप-चुप दोहरी-तिहरी बातें/ एक गाँव हुआ करता था यहाँ !....(कुँए की पीड़ा शीर्षक कविता से)

इस क्रम में अगले रचनाकार अरुण श्री युवा हैं | अपनी विशिष्ट शैली में रची गयीं इनकी कवितायेँ उच्चकोटि की हैं | कविताकर्म के प्रति उनके गंभीर विचारबोध और उनकी संवेदनशीलता भविष्य के प्रति हमें आश्वस्त करती है | कुछ पंक्तियाँ जो कि मुझे अच्छी लगीं- ...
‘कैसे कहता?/ जिसके लिए लिखता था अब वो रूठ चुका है/ जिस रिश्ते पर अहंकार था- टूट चुका है/ अब तो जितना हो सकता है खुश रहता हूँ/ दिल तो दुखता है लेकिन अब चुप रहता हूँ/ अब मैं दर्द नहीं लिखता हूँ !!’ (कैसे कहता शीर्षक कविता से),
‘मृतपाय शिराओं में बहता हुआ/ संक्रमण से सफ़ेद हो चुका खून/ गर्म होकर गला देता है तुम्हारी रीढ़ !/ और तुम/ अपनी आत्मा पर पड़े फफोलों से अनजान/ रेंगते हुए मर्यादा की धरती पर/............./ तुम्हारे गर्म सांसों का अंधड़/ हिला देता है जड़ तक/ एक छायादार वृक्ष को !/ और फिर कविता लिखकर/ शाख से गिरते हुए सूखे पत्तों पर/ तुम परिभाषित करते हो प्रेम को !/ जबकि तुम्हारी भी मंशा है / कि ठूंठ हो चुका पेड़ जला दिया जाए/ तुम्हारी वासना के चूल्हे में/ जिस पर पकता रहेगा एक निर्जीव सम्बन्ध !....(प्रेम शीर्षक कविता से),
‘...तुम थोड़ी-थोड़ी मुझमे रहती हो/ पास तुम्हारे छूट गया हूँ थोड़ा मैं भी !’ (बची हुई तुम शीर्षक कविता से), ....
’तुम्हारे रुदन और मौन के बीच खड़ा कवि/ लिखना चाहता है-/ प्रेम पर एक जरूरी कविता !’ (एक ज़रूरी कविता शीर्षक कविता से),
मुझे पसंद है कवितायेँ लिखना/.........../मेरा कवि बीमार है शायद ! (मुझे क्षमा करें शीर्षक कविता से)

कुंती मुखर्जी की कवितायेँ समकालीन स्त्री रचनाकारों की परंपरागत सृजनधारा से अलग यथार्थबोध लिए हुए जीवन के बहुआयामी पक्षों को उजागर करती हुई चलतीं हैं | वास्तव में कवि और उसकी कविता का मूल उद्देश्य पाठक या श्रोता के मन में अपनी रचना के माध्यम से बिम्ब ग्रहण कराने का रहता है मात्र अर्थ ग्रहण कराने का नहीं | आपकी कुछ पंक्तियां दृष्टव्य हैं-
‘प्रकृति ! तुम ही आनंद, तुम ही चिरंतन/ जड़-चेतन पाते तुमसे व्यवहार/ तुम ही से होते अरूप/ तुम ही सब कारणों की कारण/ मोह-माया का चक्र परिवर्तन/.....’(प्रकृति शीर्षक कविता से),
‘...मन का भ्रम/ प्यास बन और भटकाएगा/ पथिक !/ शाम होने में अब देर ही कहाँ है ?/ जबकि तुम्हारी झोली खाली है/ सूरज की ओर अब मुड़ के न देखो/ कोई नहीं साथ देने वाला/ कोई नहीं, अपने भी नहीं/ बढे चलो ! पथिक ! बढ़े चलो !!’ (पथिक शीर्षक कविता से),
‘....कुछ तारे लुप्त नहीं होते हैं कभी/ टूट कर भी/ बस जाते हैं दिमाग में/ झटक कर सर अपना/ करतीं हूँ कमरे में उजाला....’(मैं अपने को ढूँढूं कहाँशीर्षक कविता से),
‘इंसान अपने दिल-दिमाग में/ कहाँ से इतनी नफरत और रोष भर लेता है ?/...../ सूना कमरा/ सूनी छत/ एक शून्य घूरने के लिए../ अगर इंसान प्रेम बांटता/ बदले में प्रेम ही पाता/ जोड़ता गर शुरू में/ अंत क्यों होता अकेला ?/ दुःख देकर किसने सुख पाया है ! (विष के बीज शीर्षक कविता से)

जैसा कि संपादक ने भी लिखा है केवल प्रसाद सत्यम एक नैसर्गिक रचनाकार हैं और एक नैसर्गिक रचनाकार कभी आत्मावलोकन करता है तो कभी समाज की विडम्बनाओं से व्यथित उसके अन्दर का कविमन कविताओं के माध्यम से अपनी प्रतिक्रिया करता है | सत्यम की कविताओं में भी यही दृष्टि दिखाई पड़ती है | कुछ पंक्तियाँ देखें-
‘मैं हूँ कौन?/ मैं हूँ मौन !...’ (मैं हूँ मौन शीर्षक कविता से),
‘....आज तीसरा दिन था/ जब उसने सत्तू की अंतिम मुट्ठी/ लोटे में घोलकर/ पांच बार पी थी/ आज बस बूँद की ताकत पर/ रोजगार की खोज के लिए तैयार हो रहा था’ (रोजगार शीर्षक एक मर्मस्पर्शी कविता से),
‘...अनवरत मानव जीवन/ कुंठित, पद दलित रहा/ इसके भविष्य निर्धारण में/ स्मृतियाँ-व्यवस्थाएं तक/ असफल रहीं’ (अलगाववादी शीर्षक कविता से),
‘दिल्ली में शराब का बेजोड़ असर/ पंद्रह अमर/ निस्शेष पचहत्तर/ तंत्र बेखबर/ प्रशासन तर-बतर...’ (शराब शीर्षक कविता से)

गीतिका वेदिका प्रतिभाशाली व सम्भावनाशील रचनाकार हैं | उनकी कविताओं में स्त्री-पुरुष के पारस्परिक अंतर्संबंधों का अन्वेषण दिखाई पड़ता है | उनकी कविताओं की मेरी कुछ प्रिय पंक्तियाँ आप भी देखें-
‘....तुम्हें देख रहीं हैं मेरी आँखें/ ताक रहीं हैं मेरी राहें/ थामना चाह रहीं हैं बाहें/ लेकिन तुम नहीं हो/ बहुत दूर-दूर तक....’ (सुनो तुम शीर्षक कविता से),
‘....हमारे मिलने की घड़ी/ अधीर हो रही है/ क्या तुम्हें नहीं लगता/ कि हमें अब मिलना चाहिए ?...’ (देर हो रही है शीर्षक कविता से),
‘तुम्हारा नाम नहीं पता/ तुम्हें पुकारूँ कैसे...’ (तुम्हें पुकारूँ कैसे शीर्षक कविता से)

सज्जन धर्मेद्र की कवितायेँ उन्मुक्त हैं, वे बेबाकी से तथ्यों की पड़ताल करते हैं | उनकी कवितायेँ अपने उद्देश्य में सर्वथा सफल हैं | कुछ उदाहरण देखिये-
‘....सिस्टम अजेय है/ सिस्टम सारे विश्व पर राज्य करता है/ क्योंकि ये पैदा हुआ था दुनिया जीतने वाली जाति के/ सबसे तेज और सबसे कमीने दिमागों में’ (सिस्टम शीर्षक कविता से),
‘....जिन्हें हम रंगीन वस्तुएं कहते हैं/ वे दरअसल दूसरे रंगों की हत्यारी होती हैं/...../ जो वस्तु जितना ज्यादा चमकीली होती है/ वो उतना ही बड़ा झूठ बोल रही होती है’ (रंगीन चमकीली चीजें शीर्षक कविता से),
‘...तंत्र के लड़ने के दो ही तरीके हैं/ या तो आग बुझा दी जाय/ या पानी नाली में बहा दिया जाय/ और दोनों ही काम/ पानी से बाहर रहकर ही किये जा सकते हैं/ मेढकों से कोई उम्मीद करना बेकार है’ (लोकतंत्र के मेढक शीर्षक कविता से),
‘....ये देवताओं और राक्षसों का देश है/ यहाँ इंसानों का जीना मना है’ (देवताओं और राक्षसों का देश शीर्षक कविता से),
‘डर हिमरेखा है/ जिसके ऊपर प्रेम के बादल भी केवल बर्फ बरसाते हैं/ हरियाली का सौन्दर्य इस रेखा के नीचे है/ दूब से बांस तक/ हरा सबके भीतर होता है / हरा होने के लिए सिर्फ हवा, बारिश और धूप चाहिए /....../ लोग कहते हैं बरसात के मौसम में पहाड़ों का सीजन/ नहीं होता/ हर बारिश में कितने ही पहाड़ आत्महत्या कर लेते हैं....’ (तुम, बारिश और पहाड़ शीर्षक कविता से)

प्रदीप कुमार सिंह कुशवाहा वरिष्ठ रचनाकार हैं इन नाते भविष्य के प्रति उनकी चिन्तादृष्टि सहज ही दृष्टिगोचर होती है | उनके अन्दर के कवि का दर्द उनकी रचनाओं के माध्यम से आमजनों का दर्द बनकर मुखर हुआ है | आपकी कविताओं की कुछ पंक्तियाँ उल्लेखनीय हैं-
‘ भोर हुई/ छायी अरुणाई/ टेसू से कपोल/ मन रहा डोल...’ (लगता है वसंत आ गया शीर्षक कविता से),
‘नहीं जानता इन्कलाब क्या है/ शायद आप जानते हों/ हिंदी उर्दू अरबी फ़ारसी अंग्रेजी, ये कौन सा लफ्ज़ है ?/ पञ्च तत्व है?/ पञ्च इन्द्रियां हैं ?/ पञ्च कर्म हैं/ या मुर्दा कौमों की संजीवनी बूटी है?’ (इन्कलाब क्या है शीर्षक कविता से),
‘पक्षियों का कलरव/ जल प्रपात, समुद्र की गोद में खेलतीं लहरें/ धुआं उगलते कारखाने/ फर्राटा भरती गाड़ियाँ/ शोर हर तरफ घुटता दम/ इसके बीच हम....’ (शांति शीर्षक कविता से),
इसके अतिरिक्त आपकी कविता ‘मैं कौन हूँ ?’ भी मुझे बहुत पसंद आयी |

डॉ. प्राची सिंह की कवितायेँ स्थूल से सूक्ष्म की ओर सतत रूप से प्रवाहमान एक दार्शनिक अंतर्यात्रा के समान हैं | भाव और विचार के कई स्तरों पर उनकी कवितायेँ बेहद प्रभावशाली बन पड़ी हैं | कुछ पंक्तियाँ दृष्टव्य हैं-
‘...अर्थ की बंदिशों से परे/ ऊर्जित भाव स्पंदन/ अपनी अनुगूंज में/ चिदानन्द संजोये-/ उसके चन्द शब्द !!’ (चन्द शब्द शीर्षक कविता से),
‘प्रकृति पुरुष सा सत्य चिरंतन/ कर अंतर विस्तृत प्रक्षेपण/ अटल काल पर/ पदचिन्हों की थाप छोड़ता/ बिम्ब युक्ति का स्वप्न सुहाना.../ बंधन ये अन-अंत पुराना सा लगता है ?/ क्यों एक अजनबी जाना पहचाना लगता है ?’ (अनसुलझे प्रश्न शीर्षक कविता से),
‘....ये अनछुआ चैतन्य ही तो है/ जो ले जा रहा है हमें/ अज्ञान के अन्धकार से दूर/ एक नयी दृष्टि के साथ/ सत्य के और करीब’ (अनछुआ चैतन्यशीर्षक कविता से),
‘....टूट जाए मेरे भीतर/ मेरे ही देह बोध की ये दीवार/ अभी इसी क्षण/ करती मुझे आज़ाद/ हर बंधन से..../काश ! (देह बोध शीर्षक कविता से),
‘....पारदर्शी निगाहों में प्रेमाश्रु लिए/ एकटक निहारती हूँ/ प्रकृति की सम्पूर्णता को/ अक्सर करती/ अनकही अनसुनी अनगिन बातें...(अनगिन बातेंशीर्षक कविता से)

ब्रजेश नीरज की सभी कवितायेँ उच्च यथार्थबोध लिए हुए हैं जोकि उनके मन के भावों का काव्य की छन्द मुक्त शैली में सटीक अंकन हैं | ब्रजेश साहित्य जगत में अपनी सक्रियता तथा रचनाकर्म की विशिष्टता से प्रभावित करते हैं | उनकी कुछ पंक्तियाँ देखें-
‘आखिरी बार कब चिल्लाये थे तुम/याद है तुम्हें?....../अपनी भूख मिटाने के लिए चिल्लाना ज़रूरी है/ चिल्लाना ज़रूरी है/ अस्तित्व बचाने के लिए’ (चिल्लाओ कि जिन्दा हो शीर्षक कविता से),
‘...खामोश रहना/ जीवन की सबसे खतरनाक क्रिया होती है/ आदमी पत्थर हो जाता है’ (पत्थर शीर्षक कविता से),
‘....गहराते अन्धकार में/ गुमसुम सा मैं/ हिसाब करता रहा/ दिन का लेखा जोखा/ हताश व निराश/ असफलताओं का घेरा/ फिर भी दिल के कोने में/ एक सूर्य दैदीप्यमान है/ अब भी/ कल को प्रकाशित करने के लिए’ (सूरज शीर्षक कविता से)

आगे चलें तो महिमा श्री की कविताओं में वर्तमान दौर की सामाजिक विद्रूपताओं के प्रति छटपटाहट दिखाई पड़ती है | उनकी कवितायेँ कई सवाल करतीं हैं जिनके जवाब हमें ही देने होंगे | इनकी कविताओं की कुछ पंक्तियाँ दृष्टव्य हैं- ‘...चलो एक दीप जला लें/ जुगनुओं को दोस्त बना लें/ अपनेपन के शोर से गुंजित कर लें/ अंतस का कोना’ (अंतस का कोना शीर्षक कविता से),
‘तुम्हारा मौन/विचलित कर देता है/ मन को/ सुनना चाहती हूँ तुम्हें/ और/ मुखर हो जातीं हैं दीवारें, कुर्सियां, दरवाज़े/ टेबल-चमचे.../सभी तो बोलने लगते हैं/ सिवाय तुम्हारे’ (तुम्हारा मौन शीर्षक कविता),
‘रोज अलस्सुबह उठ के जातीं हूँ/ शाम को आती हूँ/ दूर से देखती हूँ/ कहती हूँ/ ओह देखो तो ज़रा/ कितनी भीड़ है/ और फिर/ मैं भी भीड़ हो जाती हूँ’ (भीड़शीर्षक कविता)

वंदना तिवारी नवागत हैं, उनकी कवितायेँ परम के प्रति भावान्जलियों का अर्पण हैं | उनकी कविताओं में जीवन-जगत व स्वयं के प्रति दायित्वबोध दिखाई देता है | मेरी पसंद की कुछ पंक्तियाँ देखें-
‘....आज.../भावेश का बहाव बदल गया/ साहित्य का उद्देश्य बदल गया/ परिवेश बदल गया..’ (परिवेश बदल गया शीर्षक कविता से)

विजय निकोर भी इस संकलन के एक वरिष्ठ कवि हैं | उनकी कविताओं में पाठक एक रूमानी जुड़ाव महसूस करता है | प्रकृति, जीवन, जगत और समय के दार्शनिक सरोकारों की बात करतीं उनकी कवितायेँ भाषा, कथ्य व शिल्प की दृष्टि से उत्कृष्ट बन पड़ी हैं | कविताओं की कुछ पंक्तियाँ देखें-
‘पिछवाड़े से आकर दबे पाँव जैसे/ तुम करतीं थीं शीशे पर/ टक-टक-टक/ और फिर एक चुलबुली हंसी हवा में/ हवा को मदहोश करती/ बावरी हवा..हंसती चली जाती थी/ आज उसी खिड़की के शीशे पर/ बारिश की बूंदों की टप-टप, टप-टप...’ (बारिश की बूँदें शीर्षक कविता से),
‘....अब मैं शब्दों से नहीं/ शब्दों के प्रकरण से डरता हूँ...’ (मौन में पलने दो)

विन्धेश्वरी प्रसाद त्रिपाठी ‘विनय’ युवा हैं | उनकी कविताओं में उनकी उर्जस्वित विचारदृष्टि स्पष्ट रूप से परिलक्षित होती है | देखिये-
‘...कुत्सित आवरणों के बीच/तोड़ना चाहता हूँ/ अंतर्द्वंद्वों का इस्पाती घेरा/ जो मेरे स्व को जकड़े हुए हैं/...../ मैं तय नहीं कर पा रहा हूँ/ क्या कहूँ मैं ?..क्या करूँ मैं ?’ (खुद की तलाश शीर्षक कविता से)

शरदिंदु मुखर्जी भी वरिष्ठ हैं, अनुभवी हैं | उनकी कवितायेँ साहित्य के माध्यम से आदमी में ‘आदमी’ की तलाश करतीं हैं | व्यक्ति के सतत जीवन संघर्षों के बीच उसके सपनों की आने वाली सुबह जिसके पीछे तमाम कटु व तिक्त अनुभव छिपे हुए होते हैं इन सब परिस्थितियों से पार पाने के बाद मिलने वाला आनंद, आनंद मात्र नहीं बल्कि परमानन्द बन जाता है | अंतर्जगत की आँखें खुलने के बाद कुछ भी अज्ञात नहीं होता | अज्ञात से ज्ञात की ओर निरंतर बहने का यह सुखद प्रवाह निश्चित रूप से भावी पीढ़ी का मार्गदर्शक भी बनता है | कुछ पंक्तियों के माध्यम से आप खुद ही देखिये-
‘हकीकत की सफ़ेद दीवार पर/ तजुर्बों की भीड़ ने/ अहसास नाम की/ नन्हीं सी कील ठोक दी थी...’ (एक कील, एक तस्वीर शीर्षक कविता से)

संकलन के अंत में शालिनी रस्तोगी की कवितायेँ हैं, आपकी कवितायेँ स्वयं का मनोवैज्ञानिक आकलन हैं अब इसे ही आप आत्ममन्थन कहें चाहे खुद के जीवन की गति और ठहराव के बीच समय को असम्पृक्त होकर अपने नजरिये से देखते रहने की एक प्रक्रिया | इनकी कवितायेँ आत्मशोधन के माध्यम से इस बात को रेखांकित करती हुई चलतीं हैं जिसके अनुसार, ‘जीवन का इस जगत का सबसे बड़ा सत्य यह है कि आप अकेले हैं !’ कुछ पंक्तियाँ देखें तो-
‘तुमको पढूं तो कैसे/ कोई मतलब निकालूँ तो कैसे/ कि होश में तो तुम्हें लिखा ही नहीं/ और अब/ बार-बार बांचती तुम्हें/ जतन करतीं हूँ/ कोई मतलब निकालने का...’ (अनगढ़-सी इबारत कविता से),
‘...हृदय हर्षाया/ तन की पुलक से/ हरियाई थी दूब/ भावों का अतिरेक/ जल-कण बन/ नयन से टपका/ और ओस बन ठहर गया/ त्रण नोक पर/...’ (आत्म मुग्धा शीर्षक कविता से),
‘...बीते हुए और आने वाले/ लम्हों में खोये/ हम/ वर्तमान में कब जीते हैं ? (हम वर्तमान में कब जीते हैं शीर्षक कविता से) |

पुस्तक का आवरण आकर्षक, मुद्रण स्वच्छ व त्रुटिहीन है | इस संग्रहणीय संकलन के सभी पंद्रह कवि/कवियत्री सृजन के नवोन्मेषशाली पथ के अन्वेषी बनेंगे, ऐसा विश्वास है | अंजुमन प्रकाशन सहित संपादक और सभी शामिल रचनाकारों को मैं इस शानदार प्रस्तुति के लिए हृदयतल से बधाई और साधुवाद देता हूँ ! पाठकों को इस कड़ी की अगली प्रस्तुति का भी बेसब्री से इंतज़ार रहेगा |
 
पुस्तक - परों को खोलते हुए - 1 / संपादक - सौरभ पाण्डेय / 160 पृष्ठ / मूल्य - 170 / प्रकाशन - अंजुमन प्रकाशन  
  
समीक्षक - राहुल देव 
संपर्क सूत्र- 9/48 साहित्य-सदन, कोतवाली मार्ग,
महमूदाबाद (अवध), सीतापुर (उ.प्र.) 261203
ईमेल- rahuldev.bly@gmail.com

गाँधी होने का अर्थ

गांधी जयंती पर विशेष आज जब सांप्रदायिकता अनेक रूपों में अपना वीभत्स प्रदर्शन कर रही है , आतंकवाद पूरी दुनिया में निरर्थक हत्याएं कर रहा है...