Tuesday 10 December 2013

‘बंजारन’ नारी मन की कसक और स्त्री विमर्श के नए आस्वाद की कवितायेँ



जिस स्त्री विमर्श को लेकर आजकल साहित्य जगत में बहुत कुछ लिखा जा रहा है और इतनी अधिक मात्रा में लिखा जा रहा है कि स्त्री खुद कंफ्यूज सी हो गयी है कि वास्तव में इस बदलते समय में उसकी दिशा क्या हो | आखिर इस तमाम लेखन की क्या निष्पत्ति है ? एक तरफ प्रगतिशीलता और खुलेपन के नाम पर लिखा जा रहा आवेगीय फूहड़ लेखन है तो दूसरी तरफ सहज रूप में गंभीरता से लिखी जाने वाली इस तरह की कुछेक किताबें | ऐसे समय में अपनी एक बिलकुल अलग तरह की कविताओं के माध्यम से कुंती मुखर्जी ने स्त्री विमर्श के उस अनछुए पहलू को हमारे सामने रखा है जिसके बारे में बहुत कम ही लिखा गया है | नारी शक्ति को समर्पित इस कृति की कविताओं का आस्वाद बिलकुल भिन्न है |
‘घायल मृगी’ शीर्षक कविता की कुछ पंक्तियाँ दृष्टव्य हैं- ‘बज रही थी मुरली की तान/..../कितने सुन्दर शब्द !/ कितने सुन्दर लय/ ठहरु ! चलूँ ! ठुमकूं !/ या नाचूं मचल ! मचल !/ जादूगर ! रुक ! धीरे !/ ज़रा ठहर ! फिर चल !....’
चिरंतन सत्य’शीर्षक कविता की कुछ पंक्तियाँ देखना चाहें- ‘..../ निशा नशीली रात आयी/ फिर सो गयी बेगानी/ सपनों का द्वार खोल/ आया कोई सजीला/ मुग्ध हुए देख नक्षत्रकण/ कानों में बजने लगे वाद्ययंत्र/ छिड़ गयी मन मोहिनी जादुई तान/ अशांत मन पुलकित-तरंगित हुआ/ नाच उठे धरती के कण-कण/ चंचल उर में प्रेमदीप जल उठा/....’
अपने सुगठित भाषा विन्यास और विचारों के साथ कुंती जी ने नारी के अंतर के तमाम पहलुओं को अपनी इन रचनाओं के माध्यम से समाज को आईना दिखाने की एक सार्थक कोशिश की है |
‘एक लड़की’ कविता देखें- ‘निर्मल कोमल मन,/ था उसका,/ कल कल करती/ नदी सी बहती/....’
‘बंजारन’ कविता संग्रह की कविताओं को पढ़ते हुए कभी भी बोझिलपन नहीं लगता जैसा की तमाम अतुकांत कविताओं को पढ़ते हुए अकसर लग जाया करता है | इसकी सभी कवितायेँ उच्च भाव बोधों को समेटे हुए हैं | कविताओं में परस्पर प्रवाह है | पाठक कविताओं को पढ़ता ही नहीं बल्कि उनसे जुड़ता चला जाता है | कविताओं के साथ दिए गए अहमद नियाज़ रज्ज़ाकी के सारगर्भित व कलात्मक रेखांकन भी साथ-साथ में बहुत कुछ कहते चलते हैं |

यह कवितायेँ सिर्फ कविताएं मानकर लिख दीं गयी हों ऐसा नहीं लगता | इन कविताओं को कवियत्री ने स्वयं अपने जीवन के विविध आयामों में जिया है, ऐसा प्रतीत होता है | ‘बंजारन’की कवितायेँ नारी मन के सच्चे व बेलाग भावों की मार्मिक भावाभिव्यक्तियाँ हैं | संग्रह की कविताओं के स्तर व परिपक्वता को देखते हुए कभी ऐसा नहीं लगता कि यह उनका पहला काव्य संग्रह है | स्त्री विमर्श पर कविताओं के माध्यम से एकदम नये सामाजिक सरोकारों की बात करती इस तरह की पहली काव्य कृति मेरी आँखों के सामने से गुजरी है | कवियत्री अपनी कविताओं में स्त्रीमन के विस्तृत फलक का अंतर्संसार रचती है- ‘पिघलता क्षण’ कविता देखें - ‘बचपन से यौवन तक/ ज़िन्दगी की भीड़ में, कितने/ रिश्ते टूटे और कितने जुड़े/ सोचती हूँ और खो जातीं हूँ !’
यह एक सर्वज्ञात तथ्य है कि एक स्त्री ही स्त्री के अंतर्मन के भावों को अच्छी तरह से समझ सकती है | कवियत्री अपनी कविताओं में आत्मसाक्षात्कार के माध्यम से पाठकों को एक स्त्री के जीवन के उस पहलू से अवगत कराने का प्रयास किया है जिसमें वह अपने दिन-प्रतिदिन के जीवन संघर्षों में जीती है, अपने घर-परिवार के लोगों का ध्यान रखती है, फिर चाहे माँ, बहन, पत्नी आदि उसका कोई भी रूप हो | भारतीय वैदिक साहित्य में नारी को देवी का स्वरुप माना गया है | वह जन्मदात्री है | उसकी अस्मिता की रक्षा करना समाज का नैतिक दायित्व बनता है और साहित्य उस दायित्व के निर्वहन में उसका सहयात्री | हालांकि इस गंभीर विषय पर इतना अधिक लेखन हुआ है कि इस सम्बन्ध में कोई एक सर्वमान्य राय बना पाना इतना आसान नहीं फिर भी कुंती मुखर्जी जैसे कुछ रचनाकार अपनी रचनाओं के माध्यम से एक आशा की किरण दिखाते हैं | कुंती मुखर्जी ने अपनी कविताओं में नारीमन के जिन सवालों उठाया है उनके जवाब हमें देने ही होंगे |
अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस के अवसर पर कवियत्री द्वारा लिखी गयी कविता ‘नारी क्यों रोती है’ उसकी अंतर्व्यथा के बारे में बहुत कुछ कह जाती है | जब वह कहती है- ‘सुन्दर छवि पा/ नयन भर आंसू, नारी क्यों रोती है ?/....’
कवियत्री का कोमल कविमन तमाम बंधनों को तोड़-ताड़कर भाव सरिता में डूब जाने को विकल है | भाव और अंतर्द्वंद्व की अतिशयता में वह ‘मुझे डोर से मत बांधो’ शीर्षक कविता में कह उठती है- ‘मैं बहना चाहती हूँ, मुक्त/ मेरे प्रियतम ! मुझे स्नेह की डोर से मत बांधो !’
कवियत्री की ‘एक सवाल’ शीर्षक कविता पुरुषवादी वर्चस्व के बीच अपने अस्तित्व की पहचान पर लगा हुआ एक ऐसा प्रश्नचिन्ह है जिनके उत्तर तलाश करने का समय आ चुका है | और मुझे लगता है कि इन प्रश्नों के उत्तर एक स्वस्थ माहौल बनाकर दिए जाने चाहिए जिससे कि आगे चलकर एक स्वस्थ व विकसित समाज के विनिर्माण की परिकल्पना साकार होगी | जहाँ सभी स्त्री-पुरुष एक समान होंगें | साहित्य को ऐसे सभ्य व सबल समाज को आधार प्रदान करने में निश्चित रूप से अपनी इस अप्रत्यक्ष भूमिका का योजनाबद्ध तरीके से निर्वहन सुनिश्चित करना होगा | इधर-उधर निरुद्देश्य भागते रहने से कुछ हासिल नहीं होने वाला | कम से कम इस दिशा में जो भी, जितना भी सार्थक लेखन हो रहा है उसे तो हम पढ़ें, देखें, समझें और गुनें |
‘एल लड़की पगली सी’ कविता की कुछ पंक्तियाँ देखें- ‘.....सूने घर में-/ एक लड़की अनजानी/ मिट गयी कोमल मन सी काया/ धरती से आकाश तक/ उठा हाहाकार,/ पर-/ निष्ठुर समाज/ चलता रहा अपने ही ढर्रे पर |’
कवियत्री की पूरी किताब में उनकी कविता ‘यह घर तुम्हारा है’ अपने भाव, बिम्ब, कथ्य व शिल्प की वजह से मेरी पसंदीदा कविता रही | यह एक ऐसी कविता है जिसे मैं बार-बार पढ़ना चाहूँगा | इसमें शादी के बाद एक स्त्री के जीवन का आख्यान प्रस्तुत किया गया है जो कि कम शब्दों में भी बहुत कुछ कह जाती है |
‘बंजर जमीन’ कविता का एक टुकड़ा देखें- ‘कहतें हैं- वक़्त हर मर्ज़ की दवा है / हाँ ! लेकिन ! ख़ामोशी कब चुप्पी साधती है ?/ ज्वालामुखी एक राह से नहीं तो/ दूसरी जगह से भड़क ही जाता है/...../ जीवन शुरू होता है संघर्षमय/ जंग रहती है जारी आजीवन/ बचा रहता है क्या, हाथ में आया तो बस/ बंज़र ज़मीन का एक टुकड़ा/ और ऊपर नीला आसमान !’     
विषय की समीचीनता को देखते हुए इस पुस्तक की समीक्षा लिखना मेरे लिए महत्त्वपूर्ण है | इस अवसर पर और इस विषय पर हाल ही में प्रकाशित प्रसिद्द लेखिका रश्मिप्रभा जी द्वारा सम्पादित एक अन्य महत्त्वपूर्ण पुस्तक ‘नारी विमर्श के अर्थ’ जिसमें इस विषय को लेकर कई अच्छे आलेख संग्रहीत किये गए हैं, का जिक्र भी जरूर करना चाहूँगा | जिसके समानांतर ही कुंती जी की पुस्तक बंजारन आयी है | दोनों में सिर्फ इतना फर्क है कि एक गद्य विधा में है दूसरी पद्य विधा में | साहित्य सुधियों के लिए उक्त दोनों किताबें स्त्रीविमर्श का एक अहम् दस्तावेज़ हैं |
चूँकि मैं यहाँ पर एक पुस्तक की समीक्षा लिख रहा हूँ अतः नारी विमर्श का विस्तृत विश्लेषण यहाँ पर प्रस्तुत करना संभव नहीं है, हाँ अगर नारी विमर्श पर आप किसी निष्कर्ष पर पहुंचना चाहते हैं तो आपको इन दोनों किताबों को अवश्य ही पढ़ना चाहिए |
कुल मिलाकर पुस्तक पठनीय, विचारणीय एवं संग्रहणीय है | साहित्य जगत में इस पर पर्याप्त चर्चा किया जाना अपेक्षित है | इस संग्रह की कविताओं को गुजरने के बाद महाकवि जयशंकर प्रसाद जी के शब्दों में मैं बस इतना ही कहना चाहूँगा- ‘नारी तुम केवल श्रद्धा हो/ विश्वास रजत पग तल में/ पीयूष स्रोत सी बहा करो/ जीवन के सुन्दर समतल में !’

पुस्तक- बंजारन (कविता संग्रह) / कुंती मुखर्जी / 112 पृष्ठ- हार्डबाउंड / मूल्य- 200 / प्रकाशक- अंजुमन प्रकाशन, इलाहाबाद |

समीक्षक- राहुल देव
संपर्क- 9/48 साहित्य सदन, कोतवाली मार्ग, महमूदाबाद (अवध), सीतापुर, उ.प्र. 261203
ईमेल- rahuldev.bly@gmail.com

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