हिन्दी में
आधुनिक युग के साहित्याकाश में जो स्थान प्रसाद-पंत-निराला का है, उपन्यास-कहानी के क्षेत्र में जो स्थान मुन्शी
प्रेमचन्द का है, वही स्थान 'चिन्तामणि'
के रचयिता आचार्य रामचन्द्र
शुक्ल का समीक्षा-समालोचना के क्षेत्र में है।
विभिन्न विषयों व मन:स्थितियों पर रचे गए उनके निबन्धों का एक-एक शब्द चिन्तामणि
की निबन्ध-माला में उस नगीने के समान जड़ा हुआ है, जिसका आलोक युग और काल की सीमाओं को पार करता हुआ पीढ़ी-दर-पीढ़ी प्रत्येक
काल के सत्य-उद्घाटन का साहित्यिक आकलन करने में अप्रतिम मार्गदर्शक कीर्ति स्तम्भ
बन गया। 'हिन्दी साहित्य का इतिहास' लिखकर
साहित्य-इतिहास के क्षेत्र में अमर हो गये | यदि शुक्ल जी को हिन्दी साहित्य में
समीक्षा-समालोचना विधा का पितामह कहा जाए तो अतिश्योक्ति न होगी। आज भी साहित्य समीक्षा
के मानदंड निर्धारण के लिए विद्वतजनों में उन्हीं को श्रद्धा से याद किया जाता है।
वे कल्पना की बजाए यथार्थ व ठोस धरातल पर सामाजिक जीवन व इसके विभिन्न सरोकारों को
मूल्यांकन का सही आधार मानते थे, उन्हें लोकरंजन एवं
रोमांटिक अधिक प्रिय नहीं था। प्रस्तुत निबंध काव्यरसिकों के लिए एक दिशानिर्देशक
की तरह से है | उन्होंने पाश्चात्य समीक्षा शास्त्र व भारतीय समीक्षा-सिद्धांतों
का गहन अध्ययन किया था, साथ ही मनोविज्ञान की परिष्कृत समझ
होने के फलस्वरूप समीक्षा के सिद्धान्तों की ऐसी तर्कसंगत व्याख्या दी कि उसे सहज
में ही साहित्य-जगत में मान्यता मिली। शुक्ल जी काव्य की चिन्तन धाराओं के प्रति
युगानुरूप सचेत थे, उनकी समीक्षात्मक दृष्टि में समग्र
चिन्तन, परिवेश के प्रति जागरूकता, मनोवैज्ञानिक
सोच का ठोस धरातल तथा उनके अपने विवेक की कसौटी उनकी समीक्षाओं को विद्व्त जगत में
सर्वमान्य एवं दृष्टव्य बना देती हैं। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के मौलिक
समीक्षात्मक चिंतन एवं मूल्य-निर्धारण मानदण्डों के प्रति हिन्दीजगत युगों-युगों
तक उनका ऋणी रहेगा।
कविता वह साधन है जिसके द्वारा शेष सृष्टि
के साथ मनुष्य के रागात्मक सम्बन्ध की रक्षा और निर्वाह होता है। राग से यहां अभिप्राय
प्रवृत्ति और निवृत्ति के मूल में रहनेवाली अंत:करणवृत्ति से है। जिस प्रकार निश्चय के लिए प्रमाण की आवश्यकता होती है उसी
प्रकार प्रवृत्ति या निवृत्ति के लिए भी कुछ विषयों का वाह्य या मानस प्रत्यक्ष अपेक्षित
होता है। यही हमारे रागों या मनोवेगों के-जिन्हें साहित्य में
भाव कहते हैं-विषय हैं। कविता उन मूल और आदिम मनोवृत्तियों का
व्यवसाय है जो सजीव सृष्टि के बीच सुखदुख की अनुभूति से विरूप परिणाम द्वारा अत्यंत
प्राचीन कल्प में प्रकट हुईं और जिनके सूत्र से शेष सृष्टि के साथ तादात्म्य का अनुभव
मनुष्य जाति आदि काल से करती चली आई है। वन, पर्वत, नदी, नाले, निर्झर, कद्दार, पटपर, चट्टान, वृक्ष, लता, झाड़, पशु, पक्षी, अनंत आकाश,
नक्षत्रा इत्यादि तो मनुष्य के आदिम सहचर हैं ही; पर खेत, ढुर्री, हल, झोंपड़ें, चौपाए आदि भी कुछ कम पुराने नहीं है। इनके
द्वारा प्राप्त रागात्मक संस्कार मानव अंत:करण में दीर्घ परम्परा
के कारण मूल रूप से बद्ध हैं अत: इनके जैसा पक्का रसपरिपाक सम्भव
है वैसा कल, कारखाने, गोदाम, स्टेशन, एंजिन, हवाई जहाज इत्यादि
द्वारा नहीं।
रागों या वेगस्वरूप मनोवृत्तियों का सृष्टि
के साथ उचित सामन्जस्य स्थापित करके कविता मानव जीवन के व्यापकत्व की अनुभूति उत्पन्न
करने का प्रयास करती है। यदि इन वृत्तियों को समेटकर मनुष्य अपने अंत:करण के मूल रागात्मक अंश को सृष्टि से किनारे
कर ले तो फिर उसके जड़ हो जाने में क्या संदेह है? यदि वह लहलहाते
हुए खेतों और जंगलों, हरी घास के बीच घूम घूमकर बहते हुए नालों,
काली चट्टानों पर चाँदी की तरह ढलते हुए झरनों, मंजरियों से लदी हुई अमराइयों, पटपर के बीच खड़े झाड़ों
को देख क्षण भर लीन न हुआ, यदि कलरव करते हुए पक्षियों के आनन्दोत्सव
में उसने योग न दिया, यदि खिले हुए फूलों को देख वह न खिला,
यदि सुन्दर रूप देख पवित्र भाव से मुग्धा न हुआ, यदि दीन-दुखी का आर्तनाद सुन न पसीजा, यदि अनाथों और अबलाओं पर अत्याचार होते देख क्रोध से न तिलमिलाया, यदि हास्य की अनूठी उक्ति पर न हँसा तो उसके जीवन में रह क्या गया?
मनुष्य के व्यापार का क्षेत्र ज्यों-ज्यों जटिल
और सघन होता गया त्यों-त्यों सृष्टि के साथ उसके रागात्मक सम्बन्ध
के विच्छेद की आशंका बढ़ती गई। ऐसी स्थिति में बड़े-बड़े कवि
ही उसे सँभालते आए हैं।
जो कुछ अब तक कहा गया उससे यह स्पष्ट
है कि सृष्टि के नाना रूपों के साथ मनुष्य की भीतरी रागात्मिका प्रकृति का समान्जस्य
ही कविता का लक्ष्य है। वह जिस प्रकार प्रेम, क्रोध, करुणा, घृणा आदि मनोवेगों
या भावों पर सान चढ़ाकर उन्हें तीक्ष्ण करती है उसी प्रकार जगत के नाना रूपों और व्यापारों
के साथ उनका उचित सम्बन्ध स्थापित करने का भी उद्योग करती है। इस बात का निश्चय हो
जाने पर वे सब मतभेद दूर हो जाते हैं जो काव्य के नाना लक्षणों और विशेषत: रस आदि के भेदप्रतिबंधो के कारण चल पड़े हैं। ध्व्निसम्प्रदायवालों का नैयायिकों
से उलझना, आलकारिकों का रसप्रतिपादकों से झगड़ना एक पतली गली
में बहुत से लोगों का धाक्कमधाक्का करने के समान है। “वाक्यं
रसात्मकं काव्यम” में कुछ लोगों को जो अव्याप्ति दिखाई पड़ा है
वह नौ भेदों के कारण। रस के नौ भेदों की लीक के भीतर सृष्टि के बहुत थोड़े से अंश के
वर्णन के लिए ऋंगार के उद्दीपन विभाव के अंतर्गत उन्हें थोड़ी सी जगह दिखाई पड़ी। हमारे
पिछले खेवे के हिन्दी कवियों ने तो उतने ही पर संतोष किया। रीति के अनुसार
'षट्ऋतु' के अन्तर्गत कुछ इनी-गिनी वस्तुओं को लेकर कभी नायिका को हर्ष से पुलकित करके और कभी विरह से विकल
करके वे चलते हुए।
बात यह है कि आरंभ में कहे हुए काव्य
के व्यापक आदर्श से जिस समय संस्कृत काव्य च्युत हो चुका था उस समय में हिन्दीकाव्य
अग्रसर हुआ, इससे उसमें सृष्टिवर्णन
का व्यापक समावेश न होने पाया। यह कमी केशव की लीक पीटनेवाले 'कविन्दो' में ही नहीं है, प्रत्युत
उनसे पहले के वास्तविक काव्य, महाकाव्य, आख्यानकाव्य रचने वाले बड़े बड़े कवियों में भी पाई जाती है। वाल्मीकि के वर्षा
और शरद् के विशद वर्णन को गो. तुलसीदास जी के वर्णनों से मिलाने
से यह बात समझ में आ जायेगी। कहाँ-
क्वचित्प्रकाशं क्वचिदप्रकाशं
नभ: प्रकीर्णाम्बु घनं विभाति।
और
व्यामिश्रितं सर्जकदंबपुष्पै
नर्वं जलं पर्वतधातुताम्रम्।
मयूरकेकाभिरनुप्रयातं
शैलापगा: शीघ्रतरं वहंति।।
और कहा-
बरसहि जलद भूमि नियराए।
यथा नवहिं बुधा विद्या पाए।।
दामिनि दमक रही घन माहीं।
खल की प्रीति यथा थिर नाहीं।।
कहाँ प्रकृति का वह सूक्ष्म निरीक्षण
कहाँ उदाहरण की ओर यह टूटना। बाबाजी की दृष्टि 'यथा नवहिं बुधा विद्या पाए' इस उपदेशात्मक वाक्य की ओर
अधिक जान पड़ती है, वस्तुवर्णन की ओर कम। भारतेंदु का गंगा और
यमुना-वर्णन अच्छा कहा जाता है पर वह भी परम्पराभुक्त और उपमाप्रधान
है।
हिन्दीवाले चाहे ऐसे वर्णनों से अपना
सन्तोष कर लें पर जिनकी ऑंखों के सामने कुमारसम्भव का हिमालयवर्णन और मेघदूत का नाना-प्रदेश-वर्णन नाच रहा
था वे स्पष्ट देख सके कि प्रकृति का वह सूक्ष्म निरीक्षण ऋंगार के उद्दीपन विभाव की
दृष्टि से नहीं है; शुद्ध वर्णन के निमित्त, दृश्य अंकित करने के निमित्त है। उन्होंने रस की नौ नालियों के भीतर ऐसे शुद्ध
वर्णनों के लिए कोई गङ्ढा न पाकर 'रसात्मक वाक्यम्' से असन्तोष प्रकट किया। पर असन्तोष नाली बनानेवालों के प्रति होना चाहिए था,
रस के सिद्धान्त के प्रति नहीं। प्राकृतिक दृश्यों के वर्णन में एक प्रकार
का रस अवश्य है चाहे उसे अनिर्वचनीय कहिए, चाहे उसका कोई नाम
रखिए, चाहे उसे किसी रस के भीतर कीजिए। कार्य में प्रवृत्ति यदि क्रोध, करुणा, दया,
प्रेम आदि मनोभाव मनुष्य के अंत:करण से निकल जाएं
तो वह कुछ भी नहीं कर सकता। कविता हमारे मनोभावों को उच्छ्वसित करके हमारे जीवन में
एक नया जीवन डाल देती है; हम सृष्टि के सौंदर्य को देख कर मोहित
होने लगते हैं; कोई अनुचित या निष्ठुर काम हमें असह्य होने लगता
है; हमें जान पड़ता है कि हमारा जीवन कई गुना अधिक होकर समस्त
संसार में व्याप्त हो गया है। इस प्रकार कविता की प्रेरणा से कार्य में प्रवृत्ति बढ़
जाती है। केवल विवेचना के बल से हम किसी कार्य में बहुत कम प्रवृत्त होते हैं। केवल
इस बात को जानकर ही हम किसी काम के करने या न करने के लिए प्राय: तैयार नहीं होते कि वह काम अच्छा है या बुरा, लाभदायक
है या हानिकारक। जब उसको या उसके परिणाम की कोई ऐसी बात हमारे सामने उपस्थित हो जाती
है जो हमें आहाला्द, क्रोध, करुणा आदि से
विचलित कर देती है तभी हम उस काम को करने या न करने के लिए प्रस्तुत होते हैं। केवल
बुद्धि हमें काम करने के लिए उत्तेोजित नहीं करती। काम करने के लिए मन ही हमको उत्साहित
करता है। अत: कार्यप्रवृत्ति के लिए मन में वेग का आना आवश्यक
है। यदि किसी जनसमुदाय के बीच कहा जाए कि अमुक देश तुम्हारा इतना रुपया प्रतिवर्ष उठा
ले जाता है; इसी से तुम्हारे यहाँ अकाल और दारिद्रय बना रहा है,
तो सम्भव है कि उस पर कुछ प्रभाव न पड़े। पर यदि दारिद्रय और अकाल का
भीषण दृश्य दिखाया जाए, पेट की ज्वाला से जले हुए प्राणियों के
अस्थिपंजर कल्पना के सम्मुख रखे जायें और भूख से तड़पते हुए बालक के पास बैठी हुई माता
का आर्त स्वर सुनाया जायेतो बहुत से लोग क्रोध और करुणा से विह्नल हो उठेंगे और इन
बातों को दूर करनेका यदि उपाय नहीं तो संकल्प अवश्य करेंगे। पहले प्रकार की बात कहना
राजनीतिज्ञका काम है और पिछले प्रकार का दृश्य दिखाना कवि का कर्तव्य है। मानवहृदय
परदोनों में से किसका अधिकार अधिक हो सकता है, यह बतलाने की आवश्यकता
नहीं।
स्वभावसंशोधन
कविता के द्वारा हम संसार के सुख, दु:ख, आनन्द और क्लेश आदि यथार्थ रूप से अनुभव करने में अभ्यस्त होते हैं जिससे हृदय
की स्तब्धाता हटती है और मनुष्यता आती है। किसी लोभी और कन्जूस दूकानदार को देखिए जिसने
लोभ के वशीभूत होकर क्रोध, दया, भक्ति,
आत्माभिमान आदि मनोविकारों को दबा दिया है और संसार के सब सुखों से मुँह
मोड़ लिया है। अथवा किसी महाक्रूर राजकर्मचारी के पास जाइये जिसका हृदय पत्थर के समान
जड़ और कठोर हो गया है, जिसे दूसरे के दु:ख और क्लेश का अनुभव स्वप्न में भी नहीं होता। ऐसा करने से आपके मन में यह
प्रश्न अवश्य उठेगा कि क्या इनकी भी कोई दवा है। ऐसे हृदयों को द्रवीभूत करके उन्हें
अपने स्वाभाविक धर्म पर लाने का सामर्थ्य काव्य ही में है। कविता ही उस दूकानदार की
प्रवृत्ति को भौतिक और आधयात्मिक सृष्टि सौंदर्य की ओर ले जायेगी; कविता ही उनका ध्यापन औरों की आवश्यकताओं की ओर आकर्षित करेगी और उनकी पूर्ति
करने की इच्छा उत्पन्न करेगी; कविता ही उसे उचित अवसर पर क्रोध,
दया, भक्ति, आत्माभिमान आदि
सिखावेगी। इसी प्रकार उस राजकर्मचारी के सामने कविता ही उसके कार्यों का प्रतिबिंब
खींचकर रखेगी और उनकी जघन्यता और भयंकरता का आभास दिखलावेगी तथा दैवी किंवा अन्य मनुष्यों
द्वारा पहुँचाई हुई पीड़ा और क्लेश के सूक्ष्म से सूक्ष्म अंश को दिखलाकर उसे दया दिखाने
का अभ्यास कराएगी।
मनोरंजन
प्राय: लोग कहा करते हैं कि काव्य का मुख्य उद्देश्य मनोरंजन है। मेरी समझ में केवल
मनोरंजन उसका साध्य नहीं है। कविता पढ़ते समय मनोरंजन अवश्य होता है, पर उसके उपरांत कुछ और भी होता है। मनोरंजन करना कविता का वह प्रधान गुण है
जिससे वह मनुष्य के चित्त को अपना प्रभाव जमाने के लिए वश में किए रहती है,
उसे इधर उधर जाने नहीं देती। यही कारण है कि नीति और धर्म-सम्बन्धी उपदेश चित्त पर वैसा असर नहीं करते जैसा कि काव्य या उपन्यास से निकली
हुई शिक्षा असर करती है। केवल यही कहकर कि 'परोपकार करो',
'सदैव सच बोलो', 'चोरी करना महापाप है'
हम यह आशा कदापि नहीं कर सकते कि कोई अपकारी मनुष्य परोपकारी हो जाएगा,
झूठा सच्चा हो जाएगा और चोर चोरी करना छोड़ देगा। क्योंकि पहले तो मनुष्य
का चित्त ऐसी सूखी शिक्षाएँ ग्रहण करने के लिए उद्यत ही नहीं होता; दूसरे मानवजीवन पर उनका कोई प्रभाव अंकित न देखकर वह उनकी कुछ परवा नहीं करता।
पर कविता अपनी मनोरंजक शक्ति के द्वारा पढ़ने या सुननेवाले का चित्त उचटने नहीं देती,
उसके हृदय के मर्म स्थानों को स्पर्श करती है और सृष्टि में उक्त कर्मों
के स्थान और सम्बन्ध की सूचना देकर मानवजीवन पर उनके प्रभाव और परिणाम विस्तृत रूप
से अंकित करके दिखलाती है। इंद्रासन खाली कराने का वचन देकर, हूर और गिलमा का लालच दिखाकर, यमराज का स्मरण दिलाकर,
दोजख की जलती हुई आग की धमकी देकर हम बहुधा किसी मनुष्य को सदाचारी और
कर्तव्यपरायण नहीं बना सकते। बात यह है कि इस तरह का लालच या धमकी ऐसी है जिससे मनुष्य
परिचित नहीं और जो इतनी दूर की है कि उसकी परवा करना मानवप्रकृति के विरुद्ध है। सदाचार
में एक अलौकिक सौंदर्य और माधुर्य होता है। अत: लोगों को सदाचार
की ओर आकर्षित करने का प्रकृत उपाय यही है कि उनको उसका सौंदर्य और माधुर्य दिखाकर
लुभाया जाय, जिससे वे बिना आगा पीछा सोचे मोहित होकर उसकी ओर
ढल पड़ें।
मन को अनुरंजित करना और उसे सुख पहुँचाना
ही यदि कविता का धर्म माना जाए तो कविता भी केवल विलास की सामग्री हुई। परन्तु क्या
हम कह सकते हैं कि वाल्मीकि का आदि काव्य, कालिदास का मेघदूत, तुलसीदास का रामचरितमानस या सूरदास
का सूरसागर विलास की सामग्री हैं? यदि इन ग्रन्थों से मनोरंजन
होगा तो चरित्रा संशोधान भी अवश्य ही होगा। मन लगने से यह सूचित होगा कि मन अब इस अवस्था
में हो गया है कि उस पर कोई प्रभाव डाला जाय। खेद के साथ कहना पड़ता है कि हिन्दी भाषा
के अनेक कवियों ने ऋंगार रस की उन्मादकारिणी उक्तियों से साहित्य को इतना भर दिया है
कि कविता भी विलास की एक सामग्री समझी जाने लगी है। पीछे से तो ग्रीष्मोपचार आदि के
नुस्खे भी कवि लोग तैयार करनेलगे।
गरमी के मौसम के लिए एक कविजी आज्ञा करते
हैं-
सीतल गुलाबजल भरि चहबच्चन में,
डारि के कमलदल न्हायबे को धाँसिए।
कालिदास अंग अंग अगर अतर संग,
केसर उसीर नीर घनसार घसिए।
जेठ में गोविंदलाल चंदन के चहलन,
भरि भरि गोकुल के महलन बसिए।
अब शिशिर के मसाले सुनिए-
गुलगुली गिलमें गलीचा हैं गुनीजनहैं,
चिक हैं चिराकैं हैं चिरागन की मालाहैं।
कहैं पदमाकर हैं गजक गजा हूं सजी,
शय्या है, सुरा है, सुराही है,
सुप्यालाहै।
शिशिर के पाला को न ब्यापत कसाला तिन्है,
जिनके अधीन एते उदित मसाला हैं।
ऐसी श्रृंगारिक कविता को कोई विलास को
सामग्री कह बैठे तो उसका क्या दोष? सारांश यह कि कविता का काम मनोरंजन ही नहीं, कुछ और भी
है।
चरित्राचित्रण द्वारा जितनी सुगमता से
शिक्षा दी जा सकती है उतनी सुगमता से किसी और उपाय द्वारा नहीं। आदि काव्य रामायण में
जब हम भगवान रामचंद्र के प्रतिज्ञा-पालन, सत्यव्रताचरण और पितृभक्ति आदि की छटा देखते हैं।
भरत के सर्वोच्च स्वार्थत्याग और सर्वांगपूर्ण सात्विक चरित्रा का अलौकिक तेज देखते
हैं, तब हमारा हृदय श्रद्धा, भक्ति और आश्चर्य
से स्तंभित हो जाता है। इसके विरुद्ध जब हम रावण की दुष्टता और उद्दंडता का चित्र देखते
हैं तब समझते हैं कि दुष्टता क्या चीज है और उसका प्रभाव और परिणाम सृष्टि में क्या
है। अब देखिए कविता द्वारा कितना उपकार होता है। उसका काम भक्ति, श्रद्धा, दया, करुणा, क्रोध और प्रेम आदि मनोवेगों को तीव्र और परिमार्जित करना तथा सृष्टि की वस्तुओं
और व्यापारों से उनका उचित और उपयुक्त सम्बन्ध स्थिर करना है।
उच्च आदर्श
कविता मनुष्य के हृदय को उन्नत करती है
और ऐसे ऐसे उत्कृष्ट और अलौकिक पदार्थों का परिचय कराती है जिनके द्वारा यह लोक देवलोक
और मनुष्य देवता हो सकता है।
कविता की आवश्यकता
कविता इतनी प्रयोजनीय वस्तु है कि संसार
की सभ्य और असभ्य सभी जातियों में पाई जाती है। चाहे इतिहास न हो, विज्ञान न हो, दर्शन
न हो, पर कविता अवश्य होगी। इसका क्या कारण है? बात यह है कि मनुष्य अपने ही व्यापारों का ऐसा घना मंडल बाँधता चला आ रहा है
जिसके भीतर फँसकर वह शेष सृष्टि के साथ अपने हृदय का सम्बन्ध कभी नहीं रख सकता। इस
बात से मनुष्य की मनुष्यता जाती रहने का डर रहता है। अतएव मानुषी प्रकृति को जाग्रत
रखने के लिए कविता मनुष्य जाति के संग लग गई है। कविता यही प्रयत्न करती है कि शेष
प्रकृति से मनुष्य की दृष्टि फिरने न पावे। जानवरों को इसकी जरूरत नहीं। हमने किसी
उपन्यास में पढ़ा है कि एक चिड़चिड़ा बनिया अपनी सुशीला और परम रूपवती पुत्रवधू को
अकारण निकालने को उद्यत हुआ। जब उसके पुत्र ने अपनी स्त्री की ओर से कुछ कहा तो वह
चिड़कर बोला-”चल चल! भोली सूरत पर मरा जाताहै।”
आह! यह कैसा अमानुषिक बर्ताव है! सांसरिक बंधानों में फँसकर मनुष्य का हृदय कभी कभी इतना कठोर और कुंठित हो
जाता है कि उसकी चेतना-उसका मानुष भाव-कम
हो जाता है। न उसे किसी का रूपमाधुर्य देखकर उस पर उपकार करने की इच्छा होती है,
न उसे किसी दीन-दुखिया की पीड़ा देखकर करुण आती
है, न उसे अपमान-सूचक बातें सुनकर क्रोध
आता है। ऐसे लोगों से यदि किसी लोम-हर्षण अत्याचार की बात कही
जाए तो, मनुष्य के स्वाभाविक धार्मानुसार, वे क्रोध या घृणा प्रकट करने के स्थान पर रूखाई के साथ यही कहेंगे-”जाने दो, हम से क्या मतलब? चला,
अपना काम देखो।” याद रखिए, यह महाभयानक मानसिक रोग है। इससे मनुष्य जीते जी मृतवत् हो जाता है। कविता
इसी मर्ज की दवा है।
सृष्टि-सौंदर्य
कविता सृष्टि सौंदर्य का अनुभव कराती
है और मनुष्य को सुन्दर वस्तुओं में अनुरक्त और कुत्सित वस्तुओं से विरक्त करती है।
कविता जिस प्रकार विकसित कमल, रमणी के मुख
आदि का सौंदर्य चित्त में अंकित करती है उसी प्रकार औदार्य, वीरता,
त्याग, दया इत्यादि का सौंदर्य भी दिखाती है। जिस
प्रकार वह रौरव नरक और गंदी गलियों की वीभत्सता दिखाती है उसी प्रकार क्रूरों की हिंसावृत्ति
और दुष्टों की ईर्ष्याी आदि की जघन्यता भी। यहीं तक नहीं, जिन
वृत्तियों का प्राय: बुरा रूप ही हम संसार में देखा करते हैं
उनका सुन्दर रूप भी वह अलग करके दिखाती है। दशवदननिधानकारी राम के क्रोध के सौंदर्य
पर कौन मोहित न होगा? जो कविता रमणी के रूपमाधुर्य से हमें आधादित
करती है वही उसके अंत:करण की सुन्दरता और कोमलता आदि की मनोहारिणी
छाया दिखाकर मुग्धा भी करती है। जिस बंकिम की लेखनी ने गढ़ के ऊपर बैठी हुई राजकुमार
तिलोत्तामा के अंग प्रत्यंग की शोभा को अंकित किया है उसी ने आयशा के अंत:करण की अपूर्व सात्विक ज्योति दिखाकर पाठकों को चमत्कृत किया है। वाह्य सौंदर्य
के अवलोकन से हमारी आत्मा को जिस प्रकार सन्तोष होता है उसी प्रकार मानसिक सौंदर्य
से भी। जिस प्रकार वन, पर्वत, नदी,
झरने, आदि से हम आधादित होतें हैं उसी प्रकार मानसिक
अंत:करण में प्रेम, स्वार्थत्याग,
दया, दाक्षियण, करुणा,
भक्ति आदि उदात्त वृत्तियों को प्रतिष्ठित देख हम आनंदित होते हैं। यदि
इन दोनों वाह्य और आभ्यंतर सौंदर्य का कहीं संयोग दिखाई पड़े तो फिर क्या कहना है!
यदि किसी अत्यंत सुंदर पुरुष या अत्यंत रूपवती स्त्री के रूपमात्र का
वर्णन करके हम छोड़ दें तो चित्र अपूर्ण होगा, यदि हम साथ ही
हृदय की दृढ़ता और सत्यप्रियता अथवा कोमलता और स्नेहशीलता आदि की भी झलक दिखाएँ तो
उस वर्णन में सजीवता आ जायगी।
बात यह है कि कविता सौंदर्य और सात्विकशीलता
या कर्तव्यपरायणता में भेद नहीं देखना चाहती। इसी से उत्कर्ष-साधाना के लिए कवियों ने प्राय: रूपसौंदर्य और अंत:करण के सौंदर्य का मेल कराया है। राम
का रूपमाधुर्य और रावण का विकराल रूप अंत:किरण के प्रतिबिंब मात्र
हैं। वाह्य प्रकृति को भी मिला लेने से वर्णन का प्रभाव कभी कभी बहुत बढ़ जाता है।
चित्रकूट ऐसे रम्य स्थान में राम और भरत ऐसे रूपवानों के रम्य अंत:करण की छटा क्या कहना है!
कविता का दुरुपयोग
जो लोग स्वार्थवश व्यर्थ की प्रशंसा और
खुशामद करके वाणी का दुरुपयोग करते हैं वे सरस्वती का गला घोंटते हैं। ऐसी तुच्छ वृत्तिवालों
को कविता न करनी चाहिए। कविता उच्चाशय, उदार और नि:स्वार्थ हृदय की उपज है। सत्कवि मनुष्यमात्र
के हृदय में सौंदर्य का प्रवाह बहानेवाला है। उसकी दृष्टि में राजा और रंक सब समानहै।
वह उन्हें मनुष्य के सिवा और कुछ नहीं समझता। जिस प्रकार महल में रहने वाले बादशाह
के वास्तविक सद्गुण की वह प्रशंसा करता है उसी प्रकार झोपड़ें में रहने वाले किसान
के सद्गुणों की भी। श्रीमानों के शुभागमन की कविता लिखना और बात बात पर उनको बधाई देना
सत्कवि का काम नहीं। हाँ, जिसने नि:स्वार्थ
होकर और कष्ट सहकर देश और समाज की सेवा की है, दूसरों का हितसाधन
कियाहै, धर्म का पालन किया है ऐसे परोपकारी महात्मा का गुणगान
करना उसका कर्तव्यहै।
कविता की भाषा
मनुष्य स्वभाव ही से प्राचीन पुरुषों
और वस्तुओं को श्रद्धा की दृष्टि से देखता है। पुराने शब्द हम लोगों को मालूम ही रहते
हैं। इसी से कविता में कुछ न कुछ पुराने शब्द आ ही जाते हैं उनका थोड़ा बहुत बना रहना
अच्छा भी है। वे आधुनिक और पुरातन कविता के बीच सम्बन्धसूत्रा का काम देते हैं। हिंदी
में “राजते हैं”, “गहतेहैं”,
“लहते हैं”, “सरसाते हैं” आदि प्रयोगों का खड़ी बोली तक की कविता में बना रहना कोई अचम्भे की बात नहीं।
अंग्रेजी कविता में भी ऐसे शब्दों का अभाव नहीं है जिनका व्यवहार बहुत पुराने जमाने
से कविता में होता आया है। Main', 'Swain' आदि शब्द ऐसे ही हैं।
अंग्रेजी कविता समझने के लिए इनसे परिचित होना पड़ता है। पर ऐसे शब्द बहुत थोड़े आने
चाहिए; वे भी ऐसे जो भद्दे और गँवारू न हों। खड़ी बोली में संयुक्त
क्रियाएँ बहुत लम्बी होती हैं जैसे-”लाभ करते हैं”, “प्रकाश करते हैं” आदि कविता में इनके स्थान पर
'लहते हैं', 'प्रकाशते हैं', कर देने से कोई हानि नहीं। पर यह बात इस तरह के सभी शब्दों के लिए ठीक नहीं
हो सकती। कविता में कही गई बात चित्र रूप में हमारे सामने आती है, संकेत रूप में नहीं। अत: उसमें गोचर रूपों का ही विधान
अधिकतर होता है। वह ऐसे ही व्यापारों को लेतीे है जो संसार में सबसे अधिक मनुष्यों
को सबसे अधिक दिखाई पड़ते हैं। उसमें प्रत्यक्ष और स्वभाविसिद्ध व्यापारसूचक शब्दों
की संख्या अधिक रहती है। 'समय बीता जाता है' कहने की अपेक्षा 'समय भागा जाता है।' कहना अधिक काव्यसंगत है। किसी काम से हाथ खींचना, किसी
का रुपया खा जाना, कोई बात पी जाना, दिन
ढलना या डूबना, मन मारना, मन छूना शोभा
बरसना आदि ऐसे ही कविसमयसिद्ध वाक्य हैं जो बोलचाल में आ गए हैं। नीचे कुछ पद्य उदाहरण
स्वरूप दिए जाते हैं-
(क) धान्य भूमि वन पंथ
पहारा।
जहँ जहँ नाथ पाँव तुम धाराÏ -तुलसीदास
(ख) मनहुँ उमगि अंग अंग
छबि छलकैA -तुलसी
(ग) चूनरि चारु चुई सी
परै चटकीली हरी अंगिया ललचावे।
(घ) बीथिन में ब्रज में
नवेलिन में बेलिन में बनन में बागन में बगराे वसंत है। -पद्माकर
(ड) रंग रंग रागन पै,
संग ही परागन पै, वृंदावन बागन पै, वसंत बरसोपरै।
बहुत से ऐसे शब्द हैं जिनसे एक ही का
नहीं, किंतु कई क्रियाओं का एक ही साथ बोध होता
है। ऐसे शब्दों को हम मिश्रसंकेत कह सकते हैं। किसी ने कहा 'वहाँ
बड़ा अत्याचार हो रहा है।' इस अत्याचार शब्द के अंतर्गत मारना,
पीटना, डाटना, डपटना,
लूटना-पाटना इत्यादि बहुत से व्यापार हो सकते हैं
अत: 'अत्याचार' शब्द के सुनने से उन सब
व्यापारों का एक मिलाजुला अस्पष्ट भाव अंत:करण में आता है,
कल्पना में किसी एक व्यापार का स्पष्ट चित्र अंकित नहीं होता। इससे यह
शब्द कविता के उतने काम का नहीं है। ऐसे शब्द वैज्ञानिक विषयों में अधिक आते हैं। उनमें
से कुछ शब्द तो एक विलक्षण ही अर्थ देते हैं और पारिभाषिक कहलाते हैं। विज्ञानवेत्ता
को किसी बात की सत्यता या असत्यता के निर्णय की जल्दी रहती है। इससे वह कई बातों को
एक मानकर अपना काम चलाता है; प्रत्येक काम को पृथक पृथक दृष्टि
से नहीं देखता। यही कारण है जो वह ऐसे शब्द अधिक व्यवहार करता है जिससे कई क्रियाओं
से घटित एक ही भाव का अर्थ निकलता है। परन्तु कविता प्राकृतिक व्यापारों को कल्पना
द्वारा प्रत्यक्ष कराती है-मानव हृदय पर अंकित करती है। अतएव
पूर्वोक्त प्रकार के शब्द अधिक लाने से कविता के प्रसाद गुण की हानि होती है और व्यक्त
किए गए भाव हृदय पर अच्छी तरह अंकित नहीं होते। बात यह है कि मानवी कल्पना इतनी प्रशस्त
नहीं कि एक ही बार में कई व्यापार उसके द्वारा हृदय पर स्पष्ट रीति से खचित हो सकें।
यदि कोई ऐसा शब्द प्रयोग में लाया गया जो कई संयुक्त व्यापारों का बोधक है तो,
सम्भव है, कल्पनाशक्ति किसी एक व्यापार को भी न
ग्रहण कर सके; अथवा तदंतर्गत कोई ऐसा व्यापार ग्रहण करे जो रागात्मिका
प्रकृति का उद्दीपक न हो। तात्पर्य यह कि परिभाषिक शब्दों का प्रयोग, तथा ऐसे शब्दों का समावेश जो किन्हीं संयुक्त व्यापारों की सूचना देते हैं,
कविता में वांछित नहीं।
किसी ने 'प्रेमफौजदारी' नाम की
ऋंगारसविशिष्ट एक छोटी सी कविता अदालती कार्रवाइयों पर घटाकर लिखी है और उसे
'एकतरफा डिगरी' आदि कानूनी शब्दों से भर दिया है।
यह उचित नहीं। कविता का उद्देश्य इसके विपरीत व्यवहार से सिद्ध होता है। जब कोई कवि
किसी दार्शनिक सिध्दांत को अधिक प्रभावोत्पादक बनाकर उसे लोगों के चित्त पर अंकित करना
चाहता है तब वह जटिल और
परिभाषिक शब्दों को निकालकर उसे अधिक
प्रत्यक्ष और मर्मस्पर्शी रूप देता है। भर्तृहरि, कबीर, गोस्वामी तुलसीदास आदि इस बात में बहुत निपुण थे।
भर्तृहरि का एक श्लोकलीजिए-
तृषा शुष्यत्यास्ये पिबति सलिलं स्वादु
सुरभि
क्षुधर्त्ता: सद्बछालीन्कवलयति शाकादिवलितान्।
प्रदीप्ते रागाग्नौ सुद्दढ़तरमाश्लिष्यति
वधूं
प्रतीकारो व्याधो: सुखमिति विपर्यस्यति जन:।।
भावार्थ-प्यासे होने पर स्वादिष्ट और सुंगधित जलपान,
भूखे होने पर शाकादि के साथ चावलों का भोजन, और
हृदय में अनुरागग्नि के प्रज्वलित होने पर प्रियतमा का आलिंगन करने वाले मनुष्य विलक्षण
मूर्ख हैं। क्योंकि प्यास आदि व्याधियों की शांति के लिए जलपान आदि प्रतिकारों ही को
वे सुख समझते हैं। वे नहीं जानते कि उनका यह उपचार बिल्कुल ही उलटा है।
देखिए, यहाँ पर कवि ने कैसे स्वाभाविक व्यापारों के चित्रण द्वारा मनुष्य की सुखदुखविषयक
बुद्धि की भ्रामकता दिखलाई है।
अंग्रेजों में भी पोप कवि इस विषय में
बहुत सिद्धहस्त था। नीचे उसका एक साधारण सिद्धान्त लिखा जाता है-
“भविष्यत् में क्या होने वाला है, इस बात की अनभिज्ञता इसलिए दी गई है जिसमें सब लोग, आने
वाले अनिष्ट की शंका से, उस अनिष्ट घटना के पूर्ववर्ती दिनों
के सुख को भी न खो बैठे।”
इस बात को पोप कवि इस तरह कहता है-
उस बलिपशु को देख आज जिसका, तु हे नर!
निज उमंग में रक्त बहाएगा वेदी पर।
होता उसको ज्ञान कहीं तेरा है जैसा।
क्रीड़ा करता कभी उछलता फिरता ऐसा?
अंतिम क्षण तक खाता पीता काल काटता।
हनने को जो हाथ उठा है उसे चाटता।
आगम का अज्ञान ईश का परम अनुग्रह।1
'अनिष्ट' शब्द बहुत व्यापक
और संदिग्धा है, अत: कवि मृत्यु ही को सबसे
अधिक अनिष्ट वस्तु समझता है। मृत्यु की आशंका से प्राणिमात्र का विचलित होना स्वाभाविक
है। कवि दिखलाता है कि पशु ही मृत्यु सिर पर नाचते रहते भी सुखी रहता है, यहाँ तक कि वह प्रहारकर्ता के हाथ को चाटता जाता है, यह एक अद्भूत और मर्मस्पर्शी दृश्य है। पूर्वोक्त सिद्धान्त को यहाँ काव्य
का रूप प्राप्त हुआ है।
एक और साधारण सा उदाहरण लीजिए। “तुमने उससे विवाह किया” यह बहुत ही साधारण वाक्य है। पर “तुमने उसका हाथ पकड़ा”
यह एक अर्थगर्भित और काव्योचित वाक्य है। 'विवाह'
शब्द के अंतर्गत बहुत से विधान है जिन परसब कोई एक दफे दृष्टि नहीं डाल
सकते। अत: उससे कोई बात स्पष्ट रूप से कल्पनामें नहीं आती। इस
कारण इन विधानों में से सबसे प्रधान और स्वाभाविक बात जो हाथ पकड़ना है उसे चुनकर कवि
अपने अर्थ को मनुष्य को हृत्पटल पर रेखांकित करताहै।
श्रुतिसुखदता
कविता की बोली और साधारण बोली में बड़ा
अंतर है। “शुष्कों वृक्ष्स्तिष्ठत्यग्रे” और “नीरसतरूरिह विलसति पुरत:” वाली
बात हमारी पंडितमंडली में बहुत दिन से चली आती है। भावसौंदर्य और नादसौंदर्य दोनों
के संयोग से कविता की सृष्टि होती है। श्रुतिकटु मानकर कुछ अक्षरों का परित्याग,
वृत्तविधान और अंत्यानुप्रास का बंधन इसी नाद-सौंदर्य
के निबाहने के लिए है। बिना इसके कविता करना, अथवा इसी को सर्वस्व
मानकर कविता करने की कोशिश करना, निष्फल है। नाद-सौंदर्य के साथ भाव-सौंदर्य भी होना चाहिए। हिंदी के
कुछ पुराने कवि इस नाद-सौंदर्य के इतना पीछे पड़ गए थे कि उनकी
अधिकांश कविता विकृत और प्राय: भावशून्य हो गई है। यह देखकर आज
कल के कुछ समालोचक इतना चिढ़ गए हैं कि ऐसी कविता को एकदम निकाल बाहर करना चाहते हैं।
किसी को अत्यानुप्रास का बंधन खलता है; कोई गणात्मक छंदों को
देखकर नाक भौं चढ़ाता है; कोई फारसी के मुखम्मस और रुबाई की ओर
झुकता है। हमारी छंदोरचना तक की कोई कोई अवहेलना करते हैं-वह
छंदोरचना जिसके माधुर्य को भूमंडल के किसी देश का छंदशास्त्रा नहीं पा सकता और जो हमारी
श्रुतिसुखदता के स्वाभाविक प्रेम
1 The Lamb thy riot dooms to bleed to-day.
Had he thy reason, would he skip and play?
Pleased to the last he crops the flowry food
And licks the hand just raised to shed his blood.
The blindness to the future kindly given.
—Essay on man.
के सर्वथा अनुकूल है। जो लोग अत्यानुप्रास
की बिल्कुल आवश्यकता नहीं समझते उनसे मुझे यही पूछना है कि अत्यानुप्रास ही पर इतना
कोप क्यों? छंद और तुक दोनों ही
नाद-सौंदर्य के उद्देश्य से रखे गए हैं। फिर क्यों एक निकाला
जाए दूसरा नहीं? यदि कहा जाए कि सिर्फ छंद ही से उस उद्देश्य
की सिद्धि हो जाती है तो यह जानने की इच्छा बनी रहती है कि क्या कविता के लिए नादसौंदर्य
की कोई सीमा नियत है। यदि किसी कविता में भावसौंदर्य के साथ नादसौंदर्य भी वर्तमान
हो तो वह अधिक ओजस्विनी और चिरस्थायिनी होगी। नादसौंदर्य कविता के स्थायित्व का वर्ध्दक
है, उसके बल से कविता गंन्थाश्रयविहीन होने पर भी किसी न किसी
अंश में लोगों की जिह्ना पर बनी रहती है। अतएव इस नादसौंदर्य को केवल बंधन ही न समझना
चाहिए। यह कविता की आत्मा नहीं तो शरीर अवश्य है।
नादसौंदर्य सम्बन्धी नियमों को गणितक्रिया
के समान काम में लाने से हमारी कविता में कहीं कहीं बड़ी विलक्षणता आ गई है। श्रुतिकटु
वर्णों का निर्देश इसलिए नहीं किया गया कि जितने अक्षर श्रवणकटु हैं वे एकदम त्याज्य
समझे जाएं और उनकी जगह पर श्रवणसुखद वर्ण ढूँढ ढूँढकर रखे जाएं। इस नियमनिर्देश का
मतलब इतना ही है कि यदि मधाुराक्षरवाले शब्द मिल सकें और बिना तोड़मरोड़ के प्रसंगानुसार
खप सकें तो उनके स्थान पर श्रुतिकर्कश अक्षरवाले शब्द न ला जाएं। संस्कृत से सम्बन्ध
रखने वाली भाषाओं में इस नादसौंदर्य का निर्वाह अधिकता से हो सकता है। अत: अंग्रेजी आदि अन्य भाषाओं की देखा-देखी, जिनमें इसके लिए कम जगह है, अपनी कविता को भी हमें इस विशेषता से वंचित कर देना बुद्धिमानी का काम नहीं।
पर, याद रहे, सिर्फ श्रुतिमधूर अक्षरों
के पीछे दीवाने रहना और कविता को अन्यान्य गुणों से भूषित न करना सबसे बड़ा दोष है।
एक और विशेषता हमारी कविता में है। वह
यह है कि कहीं कहीं व्यक्तियों के नामों के स्थान पर उनके रूप, गुण या कार्यबोधक शब्दों का व्यवहार किया
जाता है। यों देखने में पद्य के नपे हुए चरणों में खपाने के लिए शब्दों की संख्या का
बढ़ाना ही इसका प्रयोजन जान पड़ता है; पर विचार करने से इसका
इससे भी गुरुतर उद्देश्य प्रकट होता है। सच पूछिए तो यह बात कृत्रिमता बचाने के लिए
की जाती है। मनुष्यों के नाम यथार्थ में कृत्रिम संकेत हैं। जिनसे कविता की परिपोषिकता
नहीं होती। अतएव कवि मनुष्यों के नामों के स्थान पर कभी कभी उनके ऐसे रूप, गुण या व्यापार की ओर इशारा करता है जो स्वाभाविक होने के कारण सुननेवाले के
ध्यानन में अधिक आ सकते हैं और प्रसंग विशेष के अनुकूल होने से वर्णन की यथार्थता को
बढ़ाते हैं। गिरिधर, मुरारि, त्रिपुरारि,
दीनबंधु, चक्रपाणि, दशमुख
आदि शब्द ऐसे ही हैं। ऐसे शब्दों को चुनते समय प्रसंग या अवसर का ध्यापन अवश्य रखना
चाहिए। जैसे, यदि कोई मनुष्य किसी दुर्धार्ष अत्याचारी के हाथ
से छुटकारा पाना चाहता हो तो उसके लिए-”हे गोपिकारमण!”
“हे वृंदावन बिहारी!” आदि कहकर कृष्ण को पुकारने
की अपेक्षा 'हे मुरारि!' 'हे कंसनिकंदन!'
आदि सम्बोधानों से पुकारना अधिक उपयुक्त है। क्योंसकि श्रीकृष्ण के द्वारा
सुर और कंस आदि दुष्टों का मारा जाना देखकर उसे उनसे अपनी रक्षा की आशा हुई है,
न कि उनका वृंदावन में गोपियों के साथ विहार करना देखकर। इसी तरह किसी
आपत्ति से उद्धार पाने के लिए कृष्ण को 'मुरलीधर' कहकर पुकारने की अपेक्षा 'गिरिधर' कहना अधिक अर्थसंगत है।
अलंकार
कविता में भाषा को खूब जोरदार बनाना पड़ता
है-उसकी सब शक्तियों से काम लेना पड़ता है। वस्तु
या व्यापार का चित्र चटकीला करने और रसपरिपाक के लिए कभी किसी वस्तु का गुण या आकार
बहुत बढ़ाकर दिखाना पड़ता है, कभी किसी वस्तु के रूप और गुण को
वैसी ही और वस्तुओं के साहचर्य द्वारा और मनोरंजक बनाने के लिए उसके समान रूप और धर्मवाली
और और वस्तुओं को सामने लाकर रखना पड़ता है। इस तरह की भिन्न भिन्न वर्णन प्रणालियों
का नाम अलंकार है। इनका उपयोग काव्य में प्रसंगानुसार विशेष रूप से होता है। इनसे वस्तुवर्णन
में बहुत सहायता मिलती है। कहीं कहीं तो इनके बिना कविता का काम ही नहीं चल सकता। किन्तु
इससे यह न समझना चाहिए कि अलंकार ही कविता है। अलंकार बोलचाल में भी रोज आते रहते हैं।
जैसे, लोग कहते हैं “जिसने शालग्राम को
भून डाला उसे भंटा भूनते क्या लगता है?” ये काव्य नहीं कहे जा
सकते। जहाँ किसी प्रकार की रसव्यंजना होगी वहीं किसी वर्णन-प्रणाली
को अलंकारता प्राप्त हो सकती है।
कई वर्ष हुए 'अलंकार प्रकाश' नामक
पुस्तक के कर्तव्यं का एक लेख 'सरस्वती' में निकला था। उसका नाम था-'कवि और काव्य'। उसमें उन्होंने अलंकारों की प्रधानता स्थापित करते हुए और उन्हें काव्य का
सर्वस्व मानते हुए लिखा था कि “आजकल के बहुत से विद्वानों का
मत विदेशी भाषा के प्रभाव से काव्यविषय में कुछ परिवर्तित देख पड़ता है। वे महाशय सर्वलोकमान्य
साहित्यग्रन्थों में विवेचन किए हुए अलंकारयुक्त काव्य का उत्कष्ट न समझ केवल सृष्टि
के वैचित्रयवर्णन में काव्यत्व समझते हैं।” यदि ऐसा है तो इसमें
आश्चर्य ही क्या? रस और भाव ही कविता के प्राण हैं। पुराने विद्वान
रसात्मक कविता ही को कविता कहते थे। रसों अथवा मनोविकारों के यथेष्ट परिपाक ही की ओर
उनका ध्या न अधिक था। अलंकारों का वे आवश्यकतानुसार वर्णित विषय को विशेषतया हृदयंगम
कराने के लिए ही लाते थे। यह नहीं समझा जाता था कि अलंकार के बिना कविता हो ही नहीं
सकती। स्वयं काव्यप्रकाश के कर्ता मम्मटाचार्य ने बिना अलंकार के काव्य का होना माना
है और उदाहरण भी दिया है-”तददोषौ शब्दार्थौ सगुणवनलंकृती पुन:
क्वापि”। किन्तु पीछे से इन अलंकारों ही में काव्यत्व
मान लेने से कविता अभ्यासगम्य और सुगम प्रतीत होने लगी। इसी से लोग उनकी ओर अधिक झुक
पड़े। धीरे-धीरे इन अलंकारों के लिए आग्रह बढ़ने लगा,
यहाँ तक कि चंद्रालोककार ने लिख डाला-
अंगीकरोति य: काव्यं शब्दार्थवनलंकृती।
असौ न मन्यते कस्माददुष्णमनलंकृती।।
अर्थात्-जो अलंकाररहित शब्द और अर्थ को काव्य मानता
है वह अग्नि को उष्णतारहित क्यों नहीं मानता? किन्तु यथार्थ बात
कब तक छिपाई जा सकतीहै। इतने दिनों पीछे समय ने फिर पलटा खाया। विचारशील लोगों पर यह
बात प्रकट हो गई कि रसात्मक वाक्यों ही का नाम कविता है और रस ही कविता की आत्माहै।
इस विषय में पूर्वोक्त ग्रन्थकार महोदय
को एक बात कहनी थी; पर उन्होंने
नहीं कही। वे कह सकते थे कि सृष्टिवैचित्रयवर्णन भी तो स्वाभावोक्ति अलंकार है। इसका
उत्तर यह है कि स्वाभावोक्ति को अलंकार मानना उचित नही। वह अलंकार की श्रेणी में आ
ही नहीं सकती। वर्णन करने की प्रणाली का नाम अलंकार है। जिस वस्तु को हम चाहें,
उस प्रणाली के अन्तर्गत करके उसका वर्णन कर सकते हैं। किसी वस्तुविशेष
से उसका सम्बन्ध न होना चाहिए। वस्तु-निर्देश अलंकार का विषय
नहीं, वह यथार्थ में रस का विषय है। अलंकार वर्णनशैली मात्र को
ही कह सकते हैं। इस दृष्टि से कई अलंकार ऐसे हैं जिन्हें अलंकार नहीं कहना चाहिए;
जैसे, स्वाभावोक्ति, अतिशयोक्ति
से भिन्न अत्युक्ति, स्मरण, अल्प,
उदात्त। स्वभावोक्ति में वणर्य वस्तु का निर्देश है; पर वस्तुनिर्वाचन अलंकार का काम नहीं। इससे स्वाभावोक्ति को अलंकार मानना ठीक
नहीं। उसे अलंकार में गिनने वालों ने बहुत सिर खपाया है; पर उसका
निर्दोष लक्षण नहीं कह सके। काव्यप्रकाश के कारिकाकार ने उसका लक्षण लिखा है-
स्वभावोक्ति डिंभादे: स्वक्रियारूपवर्णनम्।
अर्थात् जिसमें बालकादिकों की निज की
क्रिया या रूप का वर्णन हो वह स्वभावोक्ति है। बलाकादिक कहने से किसी वस्तुविशेष का
बोध तो होता नहीं। इससे यही समझा जा सकता है कि सृष्टि की वस्तुओं के व्यापार और रूप
का वर्णन स्वभावोक्ति है। इस लक्षण में अतिव्याप्ति दोष के कारण अलंकारता नहीं आती।
अलंकारसर्वस्व के कर्ता राजानक रूय्यक ने इसका यह लक्षण लिखा है-
सूक्ष्मवस्तुस्वभावयथावद्वर्णनं स्वभावोक्ति:।
अर्थात् वस्तु के सूक्ष्य स्वभाव का ठीक
ठीक वर्णन करना स्वाभावोक्ति है। आचार्य दंडी ने अवस्था की योजना करके यह लक्षण लिखा
है-
नानावस्थं पदार्थानां रूपं साक्षाद्विवृणवती।
स्वभावोक्तिश्च जातिश्चेत्याद्या सालंकृतिर्यथा।।
बात यह है कि स्वभावोक्ति अलंकार के अंतर्गत
आ ही नहीं सकती; क्योंकि वह वर्णन करने
की प्रणाली नहीं, किन्तु वणर्यवस्तु या विषय है।
जिस प्रकार एक कुरूपा स्त्री अलंकार धारण
करने से सुन्दर नहीं हो सकती उसी प्रकार अस्वाभाविक, भद्दे और क्षुद्र भावों को अलंकारस्थापना सुन्दर और मनोहर नहीं बना सकेगी।
महाराज भोज ने भी अलंकार को 'अलमर्थमलंकर्तु' अर्थात् सुन्दर अर्थ को शोभित करने वाला ही कहा है। इस कथन से अलंकार आने के
पहले ही कविता की सुन्दरता सिद्ध है। अत: उसे अलंकारों में ढूँढना
भूल है। अलंकारों से युक्त बहुत से काव्योदाहरण दिए जा सकते हैं जिनको अलंकार के प्रेमी
भी भद्दा और नीरस कहने में संकोच न करेंगे। इसी तरह से ऐसे उदाहरण भी दिए जा सकते हैं
जिनमें एक भी अलंकार नहीं, किन्तु उसके सौंदर्य और मनोरंजकत्व
को सब स्वीकार करेंगे। जिन वाक्यों से मनुष्य के चित्त में रससंचार न हो-उसकी मानसिक स्थिति में कोई परिवर्तन न हो-वे कदापि काव्य
नहीं। अलंकार शास्त्रा की कुछ बातें ऐसी हैं जो केवल शब्द चातुरी मात्र हैं। शब्द कौशल
के कारण वे चित्त को चमत्कृत करती हैं। उनसे रस संचार नहीं होता। वे चमत्कृत चाहे भले
ही करें, पर मानवहृदय के स्रोतों से उनका विशेष सम्बन्ध नहीं।
उनका चमत्कार शिल्पकारों की कारीगरी के समान सिर्फ शिल्पप्रदर्शनी में रखने ही योग्य
होता है।
अलंकार है क्या वस्तु? विद्वानों ने काव्यों के सुन्दर सुन्दर स्थलों
को पहले चुना। फिर उनकी वर्णनशैली के सौंदर्य का कारण ढूँढा। तब वर्णनवैचित्रय के अनुसार
भिन्न भिन्न लक्षण बनाए; जैसे 'विकल्प'
अलंकार को पहले पहल राजानक रूय्यक ने ही निकाला है। अब कौन कह सकता है
कि काव्यों के जितने सुन्दर सुन्दर स्थल थे सब ढूँढ डाले गए, अथवा जो सुन्दर समझे गए-जिन्हें लक्ष्य करके लक्षण बने-उनकी सुन्दरता का कारण कही हुई वर्णनप्रणाली ही थी। अलंकारों के लक्षण बनने
तक काव्यों का बनना नहीं रूका रहा। आदि कवि महर्षि वाल्मीकि ने- ”मा निषाद प्रतिष्ठां त्वमगम: शाश्वती: समा:” का उच्चारण किसी अलंकार को ध्यामन में रखकर नहीं
किया। अलंकारलक्षणों के बनने के बहुत पहले कविता होती थी और अच्छी होती थी। अथवा यों
कहना चाहिए कि जबसे इन अलंकारों को हठात् लाने को उद्योग होने लगा तब से कविता कुछ
बिगड़ चली।
(हिंदी निबंध माला,
दूसरा भाग, ना. प्र.
सभा वाराणसी 1922 ई.)
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