व्यंग्य के गजानन गणेश : डा. ज्ञान चतुर्वेदी
जब मुझे यह दिव्य ज्ञान प्राप्त हुआ कि ‘समावर्तन’ का एकाग्र इस बार व्यंग्यकार डा ज्ञान चतुर्वेदी के अवदान पर केन्द्रित है तो मुझे दो कारणों से आत्मिक शांति प्राप्त हुई। एक तो साहित्यिक पत्रिकाओं में व्यंग्य की निरंतर हो रही प्राण प्रतिष्ठा के कारण और दूसरी डा. ज्ञान चतुर्वेदी जैसे सक्षम और समर्थ रचनाकार पर एकाग्र के समर्पण के कारण जिन्हे अब सम्मान के साथ हिदी व्यंग्य के ब्रह्मा विष्णु महेश -हरिशंकर परसाई, शरद जोशी और रवीन्द्रनाथ त्यागी की त्रयी के बाद ‘चौथे स्तम्भ’ का विशिष्ट दर्जा प्राप्त हो गया है।
वर्तमान में थोकबंद किंतु सार्थक व्यंग्य लेखन में जितने रचनाकार संलग्न है, उसकी प्रावीण्य सूची में डा. ज्ञान का प्रथम स्थान है। वे शायद देानो हाथों से व्यंग्य लिख रहें है। कहा जाता है कि महाभारत का लेखन गजानन गणेश ने दोनो हाथो से किया । व्यंग्य के गजानन डा. ज्ञान भी देश में चल रही कलियुगी महाभारत पर अपनी संजय दृष्टि से दोनों हाथों से कलम रूपी तलवार चला रहें है और धृतराष्टों को चुनौती दे रहें है। व्यंग्य उनका कर्म ही नहीं धर्म भी है। व्यवसाय से चिकित्सक हैं पर तीन दशकों से समाज व्यवस्था के संक्रामक और घातक रोगों के निदान और उपचार का भी ‘प्रयास’ कर रहें हैं। प्रयास इस कारण क्योंकि जैसे डाक्टर इलाज करता है पर रोगी को ठीक भगवान करता है वैसे व्यंग्यकार समाज की एक्सरे रिपोर्ट अपने प्रिस्क्रिप्षन सहित लिखता है अब ठीक होना या करना कलियुगी भगवानों - समाज धर्म और राजनीति के ठेकेदारों के हाथों में रहता है।
डा. ज्ञान से प्रत्यक्ष मुलाकात का सौभाग्य 27 वर्ष पूर्व टेपा सम्मलेन में प्राप्त हुआ था ।जब उन्हे राज्य स्तरीय व्यंग्य रचना स्पर्धा का प्रथम पुरस्कार प्रदान किया गया । यह पृथक विषय है कि मंच पर गद्य रचना पाठ करने की रिस्क लेने पर वे उतने ही शानदार ढंग से हूट हुए जितने बाद में व्यंग्यकार रवीन्द्रनाथ त्यागी हुए। उसके बाद दूरभाष पर ही चर्चा का सौभाग्य मिलता रहा । समकालीन व्यंग्य के षीर्ष को स्पर्ष करने के बाद भी उनकी सरलता, सहजता और सौम्यता मंत्रमुग्ध कर देने वाली है। षायद उनके व्यक्तित्व की सरलता ही उनकी सफल सार्थक व्यंग्य यात्रा का कारण है वरना प्रायःव्यंग्यकारों का व्यक्तित्व उनके कृतित्व की तरह जटिल, और रहस्यवादी ही बन जाता है।
एक खास बात जो उनकी व्यंग्य रचनाओं में उल्लेखनीय है कि उनकी रचनाओं में दोहराव नही है न कथ्य का और तथ्य का । ‘नवनीत’ के एक होली अंक में उन्होने स्वयं व्यंग्य लेखन की एक आचारसंहिता में लिखा था कि व्यंग्य मात्र लिखने के लिये ही नही लिखना चाहिये । तब ही लिखना चाहिये जब आप कुछ विशिष्ट और नया लिख रहे हो। शायद यही कारण है समसामयिक विषयों पर पत्र पत्रिकाओं में लिखे जाने वाले क्षणभंगुर व्यंग्य लेखन से उन्होने प्रायः परहेज किया है। क्योंकि तत्कालीन विषयों पर तो भारत में एक साथ हजार हाथों से व्यंग्य लिखे जाते हैं और सैकडो पत्र- पत्रिकाओं में प्रकाषित होकर भीड में लुप्त हो जाते है। उनकी हर रचना में एक ताजगी रहती है जो सुधी पाठकों को भी तरोताजा कर देती है। रचना में विचारों के प्रवाह का वेग इतना तीव्र और तीक्ष्ण होता है कि पाठक बरबस ही बहता ही चला जाता है मानों वह एक वैचारिक समुद्र में आ गया हो। उनके ईमानदार लेखन मे एक बैलोसपन और साफगोई है। एक समीक्षा में उन्होने एक राष्टीय स्तर की पत्रिका के संपादक के व्यंग्य उपन्यास को ही खारिज कर दिया जबकि लेखको के लिये संपादक पूज्यपाद स्वामी होते हैं और वे उनके पीछे शाल, श्री और श्रीफल लेकर चरणवंदना करने के लिये दौडते रहते है। संकलनो के लिये भूमिका लिखने किसी कार्यक्रम की अध्यक्षता या आतिथ्य स्वीकार करने से उन्हे एलर्जी है। शायद, इस कारण कि जिन विसंगतियों पर वे अपनी सषक्त रचनाओं से प्रहार करते हैं उन विसंगतियों से वे डिस्टेंस बना कर ही रखते है । व्यंग्य के ऐसे सूरमा भोपाली को प्रणाम!
- डा. पिलकेन्द्र अरोरा
0989344170
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*यह लेख 'समावर्तन', वक्रोक्ति से साभार |
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