Wednesday, 3 August 2016

व्यंग्य में ज्ञान - 6



ज्ञ’ ज्ञान का
विजी श्रीवास्तव
                    (कई वर्षों पहले लिखा लेख उन्हें आज पढ़ा पाऊॅगा‍)


‘ज्ञ------मेरा हाथ हिन्दी वर्णमाला के इस आखिरी अक्षर पर ठिठक कर रह जाता है। लास्ट बट नाट दी लीस्ट ज्ञान की पूर्णता बिना ज्ञ के कहां। सोचता हूँ क्या अक्षर का प्रभाव व्यक्ति के कृतित्व पर पड़ता है ?

भारतीय धर्मों में हर अक्षर को एक मंत्र माना जाता है। हिन्दी वर्णमाला के अंतिम कुछ वर्णों से प्रारम्भ होने वाले नामों का प्रतिष्ठित व्यंग्यकार होना क्या एक सुखद संयोग नहीं है ? किसी भी सामान्य व्यंग्य प्रेमी से प्रमुख व्यंग्यकारों के नाम पूछकर देखिये। वह सपाटे से गिना देगा& शरद जोशी] श्रीलाल शुक्ल] हरिशंकर परसाई और रविन्द्रनाथ त्यागी। अब इन नामों के प्रथम अक्षरश्रऔर आखिरी कतार के वर्ण प्रतिनिधि हैं। ज्ञान चतुर्वेदी जी काज्ञइस श्रृंखला की अंतिम सशक्त कड़ी है।

क्षमा कीजियेगा और अपने नाम के प्रथम अक्षर का वर्णमाला में क्रम तलाशने का प्रयास बंद कर दीजियेगा। हमारा व्यंग्य वैसे भी अंध विश्वास रूढ़ियों और सिड़ी मान्यताओं का पोषक नहीं है। वरना बहुत से ज्ञान चंद अंगूठा लगाने की बजाये व्यंग्यकार बने बैठे होते।

और ज्ञान चतुर्वेदी बनने के लिये किसी मिथक की तो जरूरत बिल्कुल भी नहीं है। जरूरत यदि है तो विलक्षण दिलो दिमाग की। तमाम गंधों के बीच व्यंग्य सूंघने की तीव्र घ्राण शक्ति की। शब्दों में चमत्कार भर देने वाली जादूगरी की। संवेदनाओं को ग्रहण करउन्हें परमाणुवीय शक्ति में तब्दील कर व्यंग्यात्मक विस्फोट करने की सामथ्र्यवान समझ की। गहन अध्ययन मनन और मंथन की। भारी भरकम व्यस्तता के मध्य व्यंग्य साधना का अटूट ध्येय यह फार्मूला है ज्ञान चतुर्वेदी बनने का।

कई बार मुझे लगता है कि ज्ञान भाई को प्रकृति चौबीस घंटों से भी बड़ा दिन देती है। उनके सम्पर्क के कई लेखकों को मैंने उनकी व्यस्तता और लेखन में उनकी निरन्तरता की तुलना अपने आप से करते देखते शर्मिन्दा होते पाया है। मैंने खुद एक लंबी कहानी लिखना शुरू किया था। बात उन्हें पता लगी तो कितनी ही बार उसकी प्रगति पूछते रहे और मैं समय की ओट लेकर झेंपता रहा।

दरअसल उनके अंदर एक निर्मम समीक्षक छिपा हुआ है। इसलिये बहुत सारे लेखकों को खुशकिस्मती समझना चाहिये कि वे फिल्हाल व्यंग्य कर्म ही कर रहे हैं। अगर वे फुल फ्लैश्ड समीक्षक होते या किसी पत्रिका के सम्पादक होते तो तौबा कीजिये बहुत लोग व्यंग्य लिखना छोड़ चुके होते। भोपाल में कुछ तथा कथित व्यंग्यकार उनसे मंच पर अपनी पुस्तक का विमोचन करवाने और समीक्षा पढ़ने का नासमझ खामियाजा भोग चुके हैं। पर वे एक जहीन कद्रदान भी हैं। किसी नवोदित लेखक की अच्छी रचना पर भी उतनी ही दरियादिली से शाबासी देते हैं जितना कि किसी वरिष्ठ की घटिया रचना के लिये उसे लताड़ मारते हैं।

व्यंग्य में मानवीय मूल्यों के प्रति सजगता समाज के प्रति जवाबदेही साम्प्रदायिकता के प्रति तीव्र विरोध और विभिन्न वादों की संकीर्णता से विलगाव के विकट पक्षधर हैं वे। अपनी ही नहीं मित्रों के अलावा पहली बार सम्पर्क में आये सामान्य लेखक की रचनाओं में भी वे इन्हीं तत्वों की तलाश जरूर करते हैं। विषय की विवेचना भाषा शिल्प लक्ष्य की ओर एकाग्रता तथा निष्कर्षात्मक समापन तक वे रचना पर पैनी निगाह जमाये रखते हैं। जहां कमी दिखी नहीं कि वे साफ़ शब्दों में कह डालते हैं-यहां तक ही साध पाये हैं आप।याआपका व्यंग्य दरअसल शुरू ही वहां से होता है जहां आपने इसे खत्म किया है।याएक बहुत अच्छा विषय उठाकर आपने उसकी ऐसी-तैसी कर दी।कितनी त्वरित और गहरी समझ है व्यंग्य की उन्हें।

डॉ. ज्ञान को व्यंग्य के सौंदर्य शास्त्र पर चर्चा करते-करते ठहर जाना मैंने कुछेक बार देखा है। मुझे लगता है कि वे इस पर बहुत लंबी चर्चा करना चाहते हैं। व्यंग्य पर कहने को उनके पास बहुत कुछ है। वे हर व्यंग्यकार से यह अपेक्षा भी करते हैं कि वह व्यंग्य के मूल तत्वों का अध्ययन करे। हालाकि उनके पास इतना वक्त होता नहीं कि वे इस भारी पोटली को खोलकर दिखाते रहें और कई बार उन्हें लगता है कि गंभीर चर्चा के प्रति लोगों में रूचि उत्साह की कमी है। पर मेरी समझ में वे व्यंग्य की सैद्धान्तिक विवेचना पर कभी कभी काम अवश्य करेंगे। भले ही वह समय अभी दूर हो।

अभी तक (शायद 10-15 वर्ष पहले जब यह पंक्तियां लिखीं उनकी तीन किताबें चुकी हैं। उल्का बारिश’ किस्म के प्रकाशन में तो उनका वैसे ही विश्वास नहीं है। इसलिये कदम-कदम जमाकर शिखर रोहण की ओर वे बढ़ रहे हैं। अभी-अभी उन्हें कई ताबड़तोड़ पुरस्कार मिले हैं। अच्छा है उसमें मिले स्मृति चिन्ह उन्हें श्रेष्ठ से श्रेष्ठतर लिखने की याद दिलाते रहेंगे।


लोग कहेंगे कि व्यंग्य में अब ज्ञान चतुर्वेदी का भी अपना स्कूल है। होता है-होता है। इतनी ऊॅचाई पर पहुंचे हुए पीरों को इसी तरह के जुमलों से नवाजा जाता है। पर मेरा मत यह इस बारे में यथार्थ के कुछ ज्यादा निकट है। डॉ ज्ञान का अपना एक अस्पताल है। व्यंग्य लेखक बंधुओं ! अपनी जांच करवायेंगे
*लेखक वरिष्ठ व्यंग्यकार हैं। ज्ञान जी के शहर भोपाल में रहते हैं।

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