Thursday 19 December 2019

लेखा-जोखा 2019 / साहित्य में व्यंग्य


व्यंग्य यथार्थ में शामिल विसंगतियों की सुरुचिपूर्ण आलोचना है | एक लोकप्रिय विधा होने के कारण कम प्रतिभा वाले लेखक भी इसकी ओर आकर्षित होते हैं | हिंदी में व्यंग्य लेखन जितना सरल लोगों ने बना रखा है उतना आसान है नही | अन्य विधाओं के बनिस्पत व्यंग्य लिखना अपेक्षाकृत कठिन विधा मानी जाती है लेकिन जिस रफ़्तार से आज व्यंग्य के नाम पर व्यंग्य लिखा जा रहा है उनमे बहुत कम ही रचनाकार पाठकों के दिल में जगह बना पाते हैं | जाहिर है पूर्ववर्ती व्यंग्य लेखन की अपेक्षा वर्तमान व्यंग्य में वह गुणवत्ता मौजूद नही है | इसके और भी तमाम कारण हो सकते हैं जिनका विश्लेषण यहाँ अभीष्ट नही है वह फिर कभी | इधर पत्र-पत्रिकाओं में व्यंग्य की स्वीकार्यता बढ़ी है और सोशल मीडिया पर भी उसका स्पेस बढ़ा है | वर्षांत में व्यंग्य साहित्य की जो भी प्रमुख किताबें प्रकाशित हुईं उनका लेखा-जोखा पाठकों के सुलभ सन्दर्भ हेतु इस आलेख में प्रस्तुत किया जा रहा है | 


वर्ष 2019 व्यंग्य साहित्य की दृष्टि से काफी भरापूरा कहा जा सकता है | इसी साल राजकमल प्रकाशन ने हरिशंकर परसाई की चर्चित किताब ‘निठल्ले की डायरी’ और शरद जोशी की अनुपलब्ध पुस्तक ‘वोट ले दरिया में डाल’ के नए संस्करण छापे | किताबघर प्रकाशन से स्मृतिशेष व्यंग्यकार सुशील सिद्धार्थ के अंतिम व्यंग्य संग्रह ‘आखेट’ प्रकाशित हुआ | जिसमे उनके द्वारा समय- समय पर लिखित व्यंग्य रचनाओं को शामिल किया गया है | संग्रह की रचनाओं में एक अलग ही भाषाई तासीर और शैलीगत ताजगी है | व्यंग्य के स्त्री स्वरों में जहाँ वरिष्ठ लेखिका स्नेहलता पाठक का व्यंग्य संग्रह ‘सच बोले कौवा काटे’ प्रकाशित हुआ वहीँ दूसरी ओर रुझान पब्लिकेशन से आया उभरती व्यंग्य लेखिका इन्द्रजीत कौर का नया संग्रह ‘पंचरतंत्र की कथाएं’ चर्चा में रहा | व्यंग्य की एकदम युवा लेखिकाओं में ही अंशु प्रधान, समीक्षा तैलंग और अनीता यादव के पहले संग्रह क्रमशः ‘हुक्काम को क्या काम’ (बोधि प्रकाशन), ‘जीभ अनशन पर है’ (भावना प्रकाशन) और ‘बस इतना सा ख्वाब है’ (दिल्ली पुस्तक सदन) से प्रकाशित हुए |


वरिष्ठ व्यंग्यकारों के नए व्यंग्य संग्रहों की बात करें तो उनमे जवाहर चौधरी का 'बाज़ार में नंगे', अरविन्द तिवारी का व्यंग्य संग्रह ‘डोनाल्ड ट्रम्प की नाक’, सुरेश कान्त का व्यंग्य संग्रह ‘मुल्ला तीन प्याजा’, बुलाकी शर्मा के दो संग्रह ‘प्रतिनिधि व्यंग्य’‘टिकाऊ सीढ़ियाँ उठाऊ सीढ़ियाँ’, गिरीश पंकज के दो व्यंग्य संग्रह ‘आन्दोलन की खुजली’ और ‘पूंजीवादी सेल्फी’, कैलाश मंडलेकर का व्यंग्य संग्रह ‘बाबाओं के देश में’, श्रवण कुमार उर्मिलिया का व्यंग्य संग्रह ‘चुगलखोरी का अमृत चापलूसी का चूर्ण’ और पूरन सरमा के व्यंग्य संग्रह ‘श्री घोड़ीवाला का चुनाव अभियान’, राजेन्द्र वर्मा का व्यंग्य संग्रह ‘लक्ष्मी से अनबन’ और हरिशंकर राठी का ‘युधिष्ठिर का कुत्ता’ मुख्य रहे | व्यंग्य उपन्यास की दृष्टि से यह वर्ष उल्लेखनीय नही रहा | कुमार सुरेश का लोकोदय प्रकाशन से आया व्यंग्य उपन्यास ‘तंत्रकथा’ एक अच्छा उपन्यास बन सकता था लेकिन वह अपनी कथावस्तु की सपाटबयानी और चरित्रों के इकहरेपन का शिकार होकर फ्लॉप रहा |


नई पीढ़ी के व्यंग्यकारों में संतोष त्रिवेदी का व्यंग्य संग्रह ‘नकटों के शहर में’, अशोक व्यास का ‘विचारों का टैंकर’, प्रभाशंकर उपाध्याय का ‘प्रतिनिधि व्यंग्य’, संतराम पाण्डेय का ‘अगले जनम मोहे व्यंग्यकार ही कीजो’, विजी श्रीवास्तव का ‘इत्ती सी बात’, अनूपमणि त्रिपाठी का ‘अस मानुष की जात’, सुदर्शन सोनी का ‘अगले जनम मोहे कुत्ता ही कीजो’, सुधीर कुमार चौधरी का ‘विषपायी होता आदमी’, अलंकार रस्तोगी के दो व्यंग्य संग्रह ‘दो टूक’‘डंके की चोट पर’, संजीव निगम का ‘अंगुलिमाल का अहिंसा का नया फंडा’, अमित शर्मा का ‘लानत की होम डिलीवरी’, अजय अनुरागी का ‘एक गधे की उदासी’ और पंकज प्रसून की व्यंग्य कहानियों का संग्रह ‘द लम्पटगंज’ प्रमुख रहे |


युवा लेखक भुवनेश्वर उपाध्याय के सम्पादन में ‘व्यंग्य व्यंग्यकार और जो जरुरी है’ संकलन वनिका पब्लिकेशन से इसी वर्ष आया | उनका खुद का भी एक व्यंग्य संग्रह ‘बस फुंकारते रहिये’ शीर्षक से छपा | विवेक रंजन श्रीवास्तव के सम्पादन में ‘मिलीभगत’ नाम से समकालीन व्यंग्यकारों के व्यंग्यों का एक संकलन भी निकला | व्यंग्य की एकदम प्रारंभिक पीढ़ी को लेकर उनके चुनिन्दा व्यंग्यों का संग्रह राजेन्द्र शर्मा के सम्पादन में ‘हिंदी हास्य-व्यंग्य’ शीर्षक से आया | 300 से 700 शब्दों के मध्य छपने वाले दैनिक पत्रों के व्यंग्य कॉलम्स और स्तंभों में वह धार नज़र नही आयी | छिटपुट को छोड़ दें तो उनमे औसत व्यंग्यों का बोलबाला रहा | पत्रिकाओं में भी ‘व्यंग्य यात्रा’ को छोड़कर बाकियों का ट्रैक अलग ही दिशा में भटकता दिखा | उनमे एक सजग सम्पादन और गंभीर व्यंग्य दृष्टि का अभाव दिखा | नए वर्ष में उम्मीद की जानी चाहिए की लेखक अपनी किताबों को लाते हुए जल्दबाजी न दिखाएँ व उनमे रचनाओं का चयन करते हुए गुणवत्ता पर विशेष ध्यान दें | व्यंग्यकार अपनी आलोचना को सकारात्मक भाव से ग्रहण करें तभी व्यंग्य विधा साहित्य में अपना सही मुकाम हासिल कर सकेगी |



Saturday 24 August 2019

जीवन से संधि की कविता



संदर्भ : जाबिर हुसेन की किताब आईना किस काम का
शहंशाह आलम

यह अभिसंधि का समय है।
यह अभिसंधि यानी यह कुचक्र, षड्यंत्र, धोखा, मिलीभगत किससे? यह प्रश्न अनुसंधान चाहता है। यह अनुसंधान एक कवि ही कर सकता है। कवि का काम यही तो है, पहले अपने आसपास के समय की छानबीन करना, तब कविता लिखना। बहुत सारे कवि ऐसा नहीं करते होंगे।उन्हें लगता होगा कि कविता लिखने के लिए किसी जाँच-पड़ताल की आवश्यकता क्या है? इसकी आवश्यकता है। आप जिस और जैसे समय को जी रहे हैं, उसकी जाँच नहीं करेंगे, तो अपने समय की कविता लिखेंगे कैसे? यह शास्त्र-सम्मत कार्य नहीं है। यह कार्य अथवा यह व्यवस्था एक कवि की है। आपकी कविता की लंबी आयु के लिए यह ज़रूरी है कि आपके भीतर एक अनुसंधानकर्ता भी होना चाहिए। तभी आप अभिसंधि से भरे इस समय का सही-सही इंवेस्टिगेशन कर पाएँगे।
जाबिर हुसेन की उनके पचहत्तरवें वर्ष में प्रवेश के ख़ास मौक़े पर एकदम ख़ास तरीक़े से छपकर आई कविता की किताब ‘आईना किस काम का’ की कविताओं को पढ़ते हुए मुझे हमेशा यही लगता है कि पहले वे अपने समय का अनुसंधान करते हैं, फिर कविता लिखते हैं। अनुसंधान की इस अनिवार्यता को, इस आवाजाही को, इस अवलोकन को मानने से ही तो कविता की जीवंत धारा सदियों से बहती चली आ रही है। और कविता में यथार्थ का आलोक फैलता रहा है। और यथार्थ है, तभी आप झूठे इतिहास से मुक्ति चाहते हैं। इन कारणों से भी जाबिर हुसेन की कविता इतिहास से मुक्ति की कविता है,‘हल्की दस्तक ने / मेरा ध्यान / उपन्यास से हटा दिया / दरवाज़ा खोलते ही / अँधेरे का हमला हुआ / चेहरा एकदम से अजनबी था / मेरे पूछे बग़ैर / आने वाले ने कहा / मैं इब्न बतूता हूँ / कई सदी बाद / दोबारा इंडिया आया हूँ / जामा मस्जिद में / किसी ने आपका / पता बताया / इतनी रात गए / आपको ज़हमत देने के लिए / माफ़ी चाहता हूँ / दरअसल अगले दो-तीन दिन यहाँ रहकर / मुझे गुजरात जाना है / सोचा आपसे मिलता चलूँ / तब तक मेरी पत्नी जग गई थी / इब्न बतूता के लिए क़हवा ले आई थी / क़हवा पीते-पीते इब्न बतूता ने कहा / बहुत बदल गया है इंडिया / पहचान में ही नहीं आता / समंदर दरिया नदियाँ सब बदल गए हैं / लोगों की पोशाक भाषा भी पहले जैसी / नहीं रह गई / मैं तो ये तब्दीली देख हैरान हूँ / मैंने शब बख़ैर कहते हुए / उन्हें मेहमानों के / सोने का कमरा दिखाया (‘उस रात आए थे इब्न बतूता’, पृष्ठ : 19-20)।’
इब्न बतूता अपने समय के महान यात्री थे और महान लेखक भी और महान खोजक भी। अरब देश से थे। अपनी यात्रा के दौरान भारत आए थे। उन्होंने अपनी यात्रा के वृत्तांत को लिखते हुए कई मुल्कों के अछूते रहस्यों को खंगाला और खोला था।
जाबिर हुसेन ने ‘आईना किस काम का’अपने इस नए कविता-संग्रह में इब्न बतूता को केंद्र में रखकर कई कविताएँ लिखी हैं –‘वो जो इब्न बतूता ने नहीं लिखा’, ‘उस रात आए थे इब्न बतूता’, ‘इब्न बतूता ने अपनी आँखों से देखा और शर्मसार हुए’, ‘एक और मंज़र जो इब्न बतूता ने देखा’, ‘अभिवादन’, ‘जम्हूरी निज़ाम में’, ‘राजा ने कहा’, ‘सूरज का निकलना’, ‘नज़र रक्खो’, ‘नमक की बोरियाँ’, ‘आख़िरी ख़ाहिश’, ‘कुछ भूख से मरे’, ‘काँटों से संवाद’, ‘वंशगत’, ‘अमावस’, ‘विसंगति’ इन कविताओं को पढ़ने के बाद यह स्पष्ट हो जाता है कि ये कविताएँ इतिहास के कम यथार्थ के परिदृश्य ज़्यादा खोलती हैं। कारण यह है कि इब्न बतूता इतिहास हो गए हैं, मगर जाबिर हुसेन यथार्थ हैं। जाबिर हुसेन की कविता का यह दर्शन यही वजह है कि जो दर्शन मार्क्स या लेलिन का रहा है। जो दर्शन फ़ैज़ या नाज़िम हिकमत का रहा है। जो दर्शन ब्रेख़्त, लोर्काया नेरूदा का रहा है। जो दर्शन धूमिल या मुक्तिबोध का रहा है। जो दर्शन शमशेर या केदारनाथ अग्रवाल का रहा है। जो दर्शन केदारनाथ सिंह या राजेश जोशी का रहा है। जो दर्शन चंद्रकांत देवताले या लीलाधर जगूड़ी का रहा है। जो दर्शन राजेश जोशी या वीरेन डंगवाल का रहा है। जो दर्शन आलोकधन्वा या अरुण कमल का रहा है। या जो दर्शन गुलज़ार और जावेद अख़्तर का रहा है। कविता का वही विश्वरूप वाला दर्शन जाबिर हुसेन की कविता का भी है। यह दर्शन है, तभी कविता सार्थक है। जीवन से संधि वाला यह दर्शन आपको आदमी के जीवन के निकट जो ले जाता है। कविता आदमी के निकट है, तभी आप सिर्फ़ भारत के नहीं, विश्व के कवि कहलाते हैं।
     जाबिर हुसेन की कविता विश्व कविता कोश में शुमार की जाने वाली कविता है। इनकी कविता ‘आख़िरी ख़ाहिश’(पृष्ठ : 31) में अलबेरूनी आते हैं, तो ‘उस रात ऐसा कुछ हुआ था’(पृष्ठ : 53)शीर्षक कविता में हुसेन इब्ने सैफ़ आते हैं।‘सदियों बाद’(पृष्ठ : 60) शीर्षक कविता में सुकरात आते हैं, अरस्तू आते हैं, अफ़लातून आते हैं, ब्रेख़्त, नाज़िम हिकमत, फ़ैज़, मार्क्स, लेलिन, गोर्की आते हैं। ‘समंदर’(पृष्ठ : 69) शीर्षक कविता में मक़बूल फ़िदा हुसेनआते हैं, तो माधुरी दीक्षित भी आती हैं, ‘घोड़े की तेज़ /हनहनाहट के साथ / मक़बूल फ़िदा हुसेन / का ताँगा / समंदर के मुहाने पर आकर / ठिठक गया / पानी की लहरों पर उसे / माधुरी दीक्षित के / पैरों के निशान / दिखाई दिए / हुसेन की मुट्ठियाँ / रेत से भर गईं।’
कविता में जब जीवन की बात की जाती है, तो एक प्रश्न यह खड़ा क्या जा सकता है कि जीवन मनुष्यों के अलावा दूसरों में भी है, फिर कविता में किसके जीवन की बात की जाती रही है? स्वीकारता हूँ। जीवन मनुष्यों के अलावा पशु-पक्षियों में भी है। मैं तो यह भी मानता हूँ कि पेड़ में भी, पानी में भी, पहाड़ में भी और हवा में भी जीवन है।एक कवि होने के नाते अथवा एक गद्यकार होने के नाते मुझसे कहिए तो साहित्य में सबके जीवन की रक्षा की बात की जाती है। इस बहुजन वाली बात में कोई हत्यारा, कोई बलात्कारी, कोई ज़ालिम बादशाह शामिल नहीं है। ये लोग जनसमूह को घृणा की दृष्टि से देखते हैं। मेरे विचार से, जाबिर हुसेन की कविता भी उस व्यापक बहुसंख्यक लोगों के समर्थन की कविता है, जिन लोगों को आज मुट्ठी भर लोग ख़ूब सता रहे हैं। वर्तमान पर दृष्टि डालिए तो वही मुट्ठी भर लोग, जो सत्ता में हैं, जो प्रशासन में हैं, जो व्यापार में हैं, सबको परेशान कर रहे हैं। यह नया गठजोड़ है। आप देखिए न, सत्ता आपको किस तरह कुचलती है। प्रशासन आपको किस तरह अपराधी घोषित करता है। व्यापारी आपको किस तरह लूटता है।कोई कवि इस गठबंधन का विरोध करता है, तो किस तरह उस कवि को परिधि से बाहर कर दिया जाता है, ‘जब रास्ते में / छूट गए / क़ाफ़िले मेरे / किसने मचाई / लूट, बताएँ / आप क्या (‘किसने मचाई लूट’, पृष्ठ : 197)।’
जाबिर हुसेन की कविता में सबकुछ क्रमबद्ध है –मूल्य, समाज, व्यक्ति, अवधारणा, बोध,पथ और पाथेय। इन सबमें जाबिर हुसेन की मनुष्यता शामिल है। मनुष्यता से भरी जाबिर हुसेन की कविता आपके एकांत तक को आदमी के बोलने की आवाज़ से भर देती है ताकि आप ख़ुद को अपने जीवन के संघर्ष में अकेला अथवा अलग न समझ लें। अकेले होंगे, तो शिकार कर लिए जाएँगे, ‘बरामदे में वो कबसे / उदास बैठा है / अमीरे शहर ने उसको / तलब किया है आज (‘अमीरे शहर का बुलावा’, पृष्ठ : 247)।’और यह भी कि जिस राजनीतिक परिवेश में हम सब जी रहे हैं, वह इतना धुँधला है, इतना गँदला है, इतना दुर्गंध से भरा है कि आदमी केजीवन के लिए घातक है।आज की तथाकथित राजनीति बस मार-काटजो चाहती है, बस भेद-भाव जो चाहती है, बस युद्ध और नरसंहार जो चाहती है, ‘आश्चर्य नहीं / सरकार है तो / मुमकिन है / कुछ भी / मुमकिन है (‘मुमकिन है’, पृष्ठ : 300)।’
कविता को कई लोग अकसर कोई ऐसी-वैसी शै समझकर इससे दूर जाने की कोशिश करते हैं। जाबिर हुसेन की कविता के साथ ऐसा करना नामुमकिनहै। इनकी कविता आपको अपने जीवन से बाँधकर रखती है। इन कविताओं का जीवन आपके जीवन से बँधा जो है।जाबिर हुसेन की कविता की संधि यही है, ‘ये क़ाफ़िले / जो मेरे शहर से / गुज़रते हैं / तुम्हारे नाम की / तस्बीह कैसे / पढ़ते हैं (‘तस्बीह’, पृष्ठ : 242)।’जाबिर हुसेन का आह्वान यह भी है, ‘किसी दिन / ख़ाब में आओ / मेरी बस्ती का ये / वीरान खंडहर / देखकर जाओ / कि दीवारों पे इसकी / मौत के जाले / पड़े हैं / इसके दरवाज़े पे / अँधी शक्ल के / ताले पड़े हैं / यहाँ इंसाफ़ की / गर्दन पड़ी है / यहाँ गुमनाम कुछ / लाशें गड़ी हैं / मेरी बस्ती के / इस वीरान खंडहर को / न जाने क्यों / कोई आईना कहता है / कोई क़ानून कहता है (‘आईना’, पृष्ठ : 212)।’
‘आईना किस काम का’ में लगभग तीन सौ कविताएँ जाबिर हुसेन ने शामिल की हैं। सभी ताज़ा कविताएँ हैं। पुस्तक को पढ़ते हुए इन कविताओं से आप अपना अनुबंध तोड़ नहीं सकते।इसलिए कि जाबिर हुसेन की कविता के साथ कविता के पाठकों का वर्षों पुरानानाता है। और यह नाता ऐसा है कि जिसमें आम आदमी के लिए अपनापा भरा हुआ है। कविता का यह सिवान आपको तभी इधर-उधर जाने नहीं देता, बाँधे रखता है, कविता की भूमि से।‘आईना किस काम का’ की कविता का तर्ज़े-बयाँ समकालीन हिंदी कविता को एक अलग, अनूठा, दुर्लभ आस्वाद देता है। शमशेरके पास भाषा का यह जादू था। या भाषा के जादू का ऐसा असर गुलज़ार की नज़्मों में आप पाएँगे। नेरूदा को भी यह जादूगरी आती थी,लेकिन भाषा का यह जादू-डालना जाबिर हुसेन का अपना है।
     जाबिर हुसेन की ये कविताएँ एहतिजाज की कविताएँ हैं। बग़ावत और राजद्रोह की कविताएँ हैं। यहएहतिजाज किससे, सीधे राजा से। राजा की राजाज्ञा ऐसी है कि एहतिजाज ज़रूरी है। एहतिजाज यानी प्रतिकार करने का ऐसा तरीक़ा न नेरूदा के पास मिलता है, न शमशेर के पास और न गुलज़ार के पास। और समकालीन कविता के कुछेक कवियों को छोड़ दीजिए, तो राजा के विरुद्ध खड़े होने का यह सलीका या जिसको हुनरमंदी हम कहते हैं या जिसको शऊर हम कहते हैं, सिर्फ़ और सिर्फ़ जाबिर हुसेन के पास है। आप इनकी इब्न बतूता-सीरिज़ की कविताएँ देख लीजिए या फिर आप ‘आईना किस काम का’के चारों खंडों की अधिकतर कविताओं के असल मर्म तक पहुँचकर देख लीजिए, यहाँ कही गई बातें सिद्ध हो जाएँगीं। कवि का ख़्याल यही है कि जीवन है, तभी आदमी की संधि कविता के साथ है। अब जब आदमी ही नहीं रहेगा, तो कविता किसके लिए रची जाएगी, सो ये कविताएँ आदमी को बचाए रखने की कविताएँ हैं। तभी येकविताएँआदमी को  एहतिजाज करना सीखाती हैं, ‘दश्त की / जानिब कोई / क्योंकर / चले शहर अपना / दश्त से कुछ / कम है क्या (‘शहर अपना’, पृष्ठ : 103)।’
आईना किस काम का (कविता-संग्रह) / कवि : जाबिर हुसेन / प्रकाशक : दोआबा प्रकाशन, 347 एम आई जी, लोहियानगर, पटना –800 020 / मूल्य : ₹499 / मोबाइल संपर्क : 09431602575

शहंशाह आलम
प्रकाशन विभाग
बिहार विधान परिषद्
पटना – 800015 (बिहार)
मोबाइल : 09835417537

Thursday 11 July 2019

कविता में वर्चस्ववाद के ख़िलाफ / चंद्रेश्वर


एक वरिष्ठ कवि का मानना है कि 'कविता कभी-कभार संभव होती है | वह स्वयं लिख जाती है | वह लिखी नहीं जाती है | यानी कविता लिखना और कवि होना एक तरह से ईश्वरीय विधान है | जबकि मेरा मानना है कि 'दुनिया रोज़ बदलती' रहती है | इस रोज़ बदलती दुनिया में समय के साथ-साथ जीवन और समाज की स्थितियाँ उनकी सच्चाइयाँ भी बदलती रहती हैं | इन सारी चीज़ों और उनके बदलावों पर अगर आपकी पैनी नज़र है तो आप उसके प्रति तटस्थ या चुप नहीं रह सकते हैं | कविता अगर समय की दबंगियत का प्रतिकार है, अगर वह कमज़ोर की ज़ुबान है तो कोई कवि कविता के संभव होने की प्रतीक्षा में भला कबतक चुप्पी साधकर बैठा रह सकता है! ये तो वो ही बात हो गयी कि किसी बड़े ज़ुल्मी या आततायी के अंत के लिए लोगबाग स्वयं संगठित होकर प्रतिकार या प्रतिरोध के बदले किसी अवतार की प्रतीक्षा करें |

इस तरह मेरे विचार से कविता में शाश्वत मूल्यों जैसी कोई बात नहीं होती है | यह बात प्रगतिशील-जनवादी लेखकों द्वारा बार -बार दुहरायी जाती रही है कि कविता अपनी समसामयिकता या तात्कालिकता में ही महत्वपूर्ण और कालजयी होती है | वह  शब्दों के ज़रिए समय के पदचाप को चिन्हित,रेखांकित या दर्ज़ करने का काम करती है | वह 'समय सहचर' या 'कालयात्री' की तरह है| वह अपने समय में होकर भी अपने अतीत और भविष्य से पूरी तरह संपृक्त होती है | 

दूसरी बात कि अपना कुनबा बढ़ता देखकर हर किसी को प्रसन्नता होती होगी | कुछ ऐसे वरिष्ठ कवि जो अपनी उम्र और लेखन की वरिष्ठता के नाते लगभग शीर्ष पर पहुँचने की स्थिति में होते हैं, वे उसी अनुपात में नयी पीढ़ी से चिढ़ने या उनकी टाँग खिंचाई में क्यों लग जाते हैं ? उनकी अनुदारता क्यों बढ़ती जाती है ?  वे अपने इर्द-गिर्द मीडियाकर चापलूसों या प्रशंसकों की ही उपस्थिति क्यों चाहते हैं ? यह शीर्ष पर पहुँचने वालों की नियति होती है या कोई अभिशाप है यह ?

क्या ऐसे शीर्ष रचनाकारों के बारे में भी नहीं कहा जा सकता है कि वे वर्चस्ववादी या सामंती संस्कारों के व्यक्ति हैं ?  क्या यह एक क़िस्म की अहमन्यता ही नहीं है ? यह ऐसे ही हुआ कि आप अपनी फ़सल खेत से खलिहान तक,खलिहान से घर तक लाने में क़ामयाब होने के बाद किसी दूसरे किसान को सफल होते हुए नहीं देखना चाहते !

क्या ऐसा नहीं है कि हर नए बदलते समय में कविता अपने लिए नया रास्ता अन्वेषित कर लेती है! कविता अपना 'फॉर्मेट' बना लेती है | कथ्य-रूप की पुरानी बहस में अगर कलावादियों की बात न करें तो लगभग यह स्थापना सर्वविदित है कि कविता में कथ्य अपना शिल्प तलाश लेता है |  आदमी जब सफ़र पर निकलता है तो राह ख़ुद -ब-ख़ुद दिखती जाती है या राह बनती जाती है | पहले से राह जानी-पहचानी हो और मंज़िल दिखती हो, कोई ज़रूरी नहीं है | पहले से किसी बने -बनाए ढाँचे में कविता लिखना एक तरह का शास्त्रीयतावाद है | अगर ऐसा ही होता तो  कविता आदिकाल से अपने रूप या शिल्प-संरचना को लेकर स्थिर या जड़ होती | मगर दुनिया में किसी भाषा में ऐसा नहीं होता है | अगर ऐसा होता तो आज भी हमारी हिन्दी में दोहा -चौपाई या कवित्त ही की शैली या संरचना में कविगण लिख रहे होते | हिन्दी में आधुनिक काल के भीतर ही देखा जाय तो भारतेन्दु युग से आज तक कविता ने शिल्प-संरचना को लेकर एक लंबी यात्रा की है | उसमें कई तरह के बदलाव दिखते हैं | शास्त्रीयतावादी इस बदलाव के प्रति हमेशा अपनी नाक-भौंहें सिकोड़ते रहते हैं | अगर महावीर प्रसाद द्विवेदी युग में ही निराला जैसी शख़्शियत कविता में नयी प्रयोगशीलता के साथ सामने नहीं आती तो हिन्दी कविता बंद दरवाज़े के भीतर दम तोड़ रही होती या तोड़ चुकी होती | पर समय-समय पर निराला जैसी शख़्शियतें अपनी-अपनी भाषाओं में कविता के लिए नए रास्ते तलाशती रहती हैं |

पुराने शिल्प को लेकर कविता में  यह प्रवृत्ति मध्यकालीन रीतिवादी कवियों में ज़्यादा दिखाई देती है | समकालीन कविता में भी ऐसी कोशिश एक तरह का रीतिवाद है| इस तरह की रीतियों या रूढ़ियों से आज की कविता को बचाए जाने की ज़रूरत है | हमारे बीच आज भी ऐसे कई कवि हैं जिनकी कविताओं में 'क्रॉफ्टिंग' पूर्व नियोजित होती है | यह भी एक क़िस्म का कलावाद ही है | इसी तरह आज कविता में छंद का अभ्यासपूर्ण प्रयास भी कविता में कथ्य की अबाध प्रस्तुति के लिए एक तरह की बाधा है |कोई वरिष्ठ कवि  यह क्यों चाहता है कि नयी पीढ़ी उनको ही फॉलो करे ! 

मेरे वरिष्ठ कवि  यह भी कहते हैं कि कविताएँ जो याद हो जाएँ,वे ही श्रेष्ठ होती हैं | मेरे लिहाज़ से आज के समय में  श्रेष्ठ कविताओं की यह कोई कसौटी नहीं है | आज छपाई की तकनीक ने हमें यह सुविधा दी है कि हम किसी कवि के काव्य- संग्रह को प्रकाशक से खरीदकर घर ला सकते हैं और उसे इच्छा हुयी तो बार -बार पढ़ सकते हैं | हम दुनिया भर के कई कवियों को पढ़ते रहते हैं, पर ज़रूरी नहीं कि उन सबको याद भी रखें | यह एक क़िस्म का ग़लत हठ है | हाँ,यह संभव है कि अपने प्रिय कवियों की कुछ कविताएँ हम कंठस्थ कर लें ,सहज -स्वाभाविक रूप से | पर इस स्मृति को लेकर हम कविता के लिए कोई मानक नहीं तय कर सकते हैं | मेरे वरिष्ठ कवि का यह कहना कि हम सच्चे काव्य प्रेमी हैं और कई कवियों की कविताओं को मौखिक सुना सकते हैं, इससे न तो कविता महत्वपूर्ण हो जाती है, न ही कविता को रचने वाला कवि | ऐसा कहना एक तरह के दंभ को ही सामने लाता है|  यह एक तरह की जुमलेबाजी है | यह मदारी की भाषा है| यह भी ज़रूरी नहीं कि कोई कविता को कंठस्थ कर उसे बेहतर समझता भी हो | इस तरह की बातों से सामान्य लोगों को भले भ्रमित किया जाए, कोई समझदार आदमी तो इस झाँसे में नहीं आ सकता है | ऐसे तो फ़िल्मी गीत ज़ल्द याद हो जाते हैं | वे संगीतात्मक भी होते हैं| मगर इससे वे स्तरीय काव्य में नहीं बदल जाते हैं | दूसरी तरफ कुछ फ़िल्मी गीत अपनी कथ्य -संवेदना की जीवंतता या मज़बूती के चलते महत्वपूर्ण या श्रेष्ठ कविता में बदल जाते हैं | मेरा यह भी मानना है कि कोई ज़रूरी नहीं कि  संगीत कविता को स्तरीय या महत्वपूर्ण बनाये | मेरी दृष्टि से कविता को प्रभावशाली बनाता है उसका कथ्य | यह बात दुहराते रहने या स्मरण रखने के लिए है | अगर कवि की बात में ही दम नहीं तो कविता प्रस्तुति के आधार पर प्रभावशाली नहीं हो सकती है| हाँ,कला-शिल्प और संरचना  के महत्व को अस्वीकार नहीं किया जा सकता है | इससे भाषा का मुद्दा भी जुड़ा हुआ है | पर कला पर ज़रूरत से ज़्यादा ज़ोर कवि को अंततः कलावाद की तरफ़ ले जाता है | हिन्दी कवि रघुवीर सहाय यूँ ही नहीं कहते कि 'जहाँ कला ज़्यादा होगी, वहाँ कविता कम होगी|'अर्थात् सच्ची कविता की जान तो उसके कथ्य में होती है |  कविता में कथ्य -शिल्प का बेहतरीन परिपाक उसे बेशक श्रेष्ठता की ओर ले जाता है | इससे भला कौन इंकार करेगा !

अगर आप अपनी कविताओं को बढ़िया तरीके से, नाटकीय अंदाज़ में सुना सकते हैं तो यह कविता को प्रस्तुत करने की कला हो सकती है | इससे भी यह ज़रूरी नहीं कि वह एक श्रेष्ठ कविता है | अगर आवाज़ का ही जादू सर्वोपरि होता तो फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ की ग़ज़लें /नज़्में आज उनके मरणोपरांत महत्वपूर्ण नहीं होतीं | सच्ची कविता के लिए सिर्फ़ उक्ति वैचित्र्य का होना भी मायने नहीं रखता है | मेरा अब भी यक़ीन है कि सच्ची और प्रभावशाली कविता अभिधा की सादगी में ही महत्वपूर्ण होती है |  आज अगर मंचों पर अपने समय में गले और आवाज़ को लेकर बेकल उत्साही  'पॉपुलर' थे तो उनकी छपी शायरी बेजान क्यों लगती है ? इसी तरह दूसरी ओर रफीक सादानी और अदम गोण्डवी जैसे शायर जो लोक जीवन से गहरे जुड़े थे, उनकी कविताई में लोकचेतना से जुड़े प्रभावशाली कथ्य और उसके सादगीपूर्ण कहन का जादू लंबे समय तक आगे भी बना रहेगा | इनकी कविताई लोक की पीड़ा, उसके संघर्ष को लोक की ही कलात्मक ज़ुबान में सामने रख देती है | कुछ कवि शताब्दियाँ लाँघ जाते हैं अपनी कविताई के दम पर | कुछ कवि  अपनी मृत्यु के तत्काल बाद विस्मृत होने लगते हैं | अगर  निराला या मुक्तिबोध ,नागार्जुन या धूमिल या गोरख पांडेय या  वीरेन डंगवाल या अदम गोण्डवी की कविताएँ  महत्वपूर्ण बनी हुयी हैं तो अपने कथ्य और उसमें समाहित जन की या लोक की पीड़ा अथवा अाशा-आकांक्षाओं  को लेकर ही |

कवि के लिए लोक का अनुभव विशेष मायने रखता है | अगर कवि बड़े शहर में जनजीवन की हलचलों से दूर एकाकी और सुविधाभोगी जीवन जीने का अभ्यासी है तो वह अपनी कविता में उक्ति वैचित्र्य या जुमलेबाजी  के ज़रिए ऐसी कविताएँ रचेगा जो या तो दार्शनिकता का पुट लिए होंगी या कोरी वैचारिक या स्पंदनहीन | कविता में लोकजीवन या जनजीवन से अलग-थलग कवि 'क्राफ्ट्स' पर चाहे जितनी मेहनत करे और साल में किसी एक कविता की रचना करे, पर कविता में वस्तु महत्वपूर्ण नहीं है तो वह असरदार नहीं हो सकती है| लोगबाग क्यों कहते हैं कि 'घी का लड्डू टेढ़ो भला' ! अगर लड्डू  देशी शुद्ध घी का है तो ढेढ़ा होने पर भी स्वाद में बेहतरीन होगा | अगर वह घटिया डालडा या तेल का होगा तो स्वाद में कमतर हो जायेगा |  यहाँ पर घी के टेढ़े लड्डू के लिए भी लोक की स्वीकृति दिखाई देती है | यह बात कविता के कथ्य-शिल्प पर भी लागू होती है | कथ्य दमदार हो तो कविता स्वीकार की जा सकती है, पर ख़ाली शिल्प के दम पर उसका लोक के आगे टिकना कठिन है |  वैसे भी घी के लड्डू का एकदम सुंदर और गोल होना बहुत मुश्किल होता है | ऐसे ही दमदार कथ्य वाली कविता शिल्प में तोड़-फोड़ करते हुए सामने आती है | इसका मतलब यह नहीं है कि कवि को अपनी कविता में शिल्प -संरचना या कलापक्ष के प्रति लापरवाह होना चाहिए | ऐसे मेरा मानना है कि कविता में कथ्य-शिल्प दोनों का उम्दा होना एक आदर्श और समुन्नत स्थिति है |

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Tuesday 2 July 2019

समीक्षा – ‘सुशील से सिद्धार्थ तक‘ / डॉ हरीश कुमार सिंह



तुलसी की काया और कबीर की आत्मा वाले सुशील सिद्धार्थ “


     आलोचक और साहित्यकार श्री राहुल देव के संपादन में पुस्तक सुशील से सिद्धार्थ तकहाल ही में वनिका प्रकाशन, नई दिल्ली से आयी है | यह पुस्तक प्रख्यात व्यंग्यकार स्व. सुशील सिद्धार्थ पर केन्द्रित है जिसमें जाने माने साहित्यकारों, व्यंग्यकारों के संस्मरण हैं | व्यंग्यकार, साहित्यकार, गजलकार, संपादक सुशील सिद्धार्थ साठ वर्ष की आयु में ही अचानक से सबको अलविदा कह गए और उनका जाना व्यंग्य के लिए गंभीर क्षति माना गया क्योंकि सुशील जी व्यंग्य के क्षेत्र में कुछ अनुपम और बड़ा कार्य कर रहे थे और व्यंग्य को लेकर कई योजनाएँ उनके जेहन में थीं | साहित्यकार आते हैं ,जाते हैं मगर सुशील जी से जुड़े व्यंग्यकारों के लिए 17 मार्च 2018 का दिन किसी वज्रपात से कम नहीं था | इसीलिए उनसे जुड़े लेखकों ने आदरणीय ज्ञान चतुर्वेदी जी के मार्गदर्शन में और युवा आलोचक, संपादक राहुल देव और व्यंग्यकारप्रकाशक डा नीरज सुधांशु की अगुआई में यह तय किया कि सुशील जी पर कोई संस्मरणात्मक पुस्तक आना चाहिए | सुशील जी पर इतने कम समय में इस पुस्तक का प्रकाशन ,सुशील जी की अपने व्यंग्यकारों ,लेखकों के बीच उनकी ग्राह्यता और लोकप्रियता का भी प्रमाण है |
संस्मरणात्मक पुस्तक सुशील से सिद्धार्थ तक में संपादक राहुल देव के अलावा उनतीस लेखकों ने अपने संस्मरण साझा किये हैं और उनके व्यक्तित्व ,कृतित्व पर भी अपनी अपनी बात कही है | इन लेखकों में पद्मश्री ज्ञान चतुर्वेदी , वरिष्ठ साहित्यकार सुश्री मैत्रेयी पुष्पा , व्यंग्यकार निर्मल गुप्त , रमेश सैनी , डा रामबहादुर मिश्र , ओम निश्चल, कमलेश पाण्डेय , अतुल चतुर्वेदी , डा पिलकेंद्र अरोरा , अशोक मिश्र आदि ने बड़ी ही आत्मीयता से सुशील जी पर लिखा है |
साहित्यकार सुश्री मैत्रेयी पुष्पा ने सुशील जी से अपने साक्षात्कार के दौरान हुए प्रारंभिक परिचय से लेकर सुशील जी की साहित्य के प्रति समर्पण पर खूब लिखा है | वे लिखती हैं कि कोई नहीं दिखता कि अब जिसको फोन करूँ जिससे पूछूँ ! तुम तो ऐसे बिना कहे चले गये कि आज तक तुम्हारे न होने का यकीन नहीं होता | जब तुम लखनऊ से दिल्ली आये थे ,लोग तुम्हें कितना ही चलते पुर्जा मानते रहे हों ,मेरे लिए तुम वही सुशील थे जिसने मेरा इंटरव्यू लिया था और आत्मीयता उंडेल दी थी | वे लिखतीं हैं एक बार हमने व्यंग्य विधा पर गोष्ठी रखी ,बड़े बड़े नामी व्यंग्यकारों के बीच सुशील अव्वल रहे |’ सुशील जी , पुष्पा जी के लिए बेहद आत्मीय रहे इसीलिए पुष्पा जी ने सुशील जी के दिल्ली में संघर्ष के दिनों को याद किया तो कुछ प्रकाशन संस्थानों द्वारा सुशील जी की संपादक के रूप में कद्र नहीं कर पाने पर अफ़सोस भी व्यक्त किया | अपने शीर्षक धूमकेतु की तरह व्यंग्याकाश में उभरे थे वह में ही  ज्ञान चतुर्वेदी जी, सुशील जी की व्यंग्य यात्रा के बारे में सार व्यक्त कर डालते हैं | ज्ञान जी की पंक्तियाँ सुशील जब अपना सर्वश्रेष्ठ देने के दौर में आ रहे थे तभी यूँ असामयिक चले गए | वह बेहद प्रतिभाशाली थे ऐसा कहना मेरा अतिकथन नहीं है | ‘ एक वक्तव्य में ज्ञान जी ने कहा था कि सुशील जी पांच वर्षों में जो कर गए कई व्यंग्यकार पचास वर्षों में भी नहीं कर पाए | असल में सुशील जी व्यंग्य लेखन में बाद में आये और आते ही पाठकों ,आलोचकों का ध्यान अपनी और खींचा | लेखक रामबहादुर मिश्र जी ने सुशील जी और अपने बीच हुए पत्राचार को इस पुस्तक में रखा है जो सुशील जी के अवधि साहित्य के लिए कुछ कर गुजरने की असीम ईच्छा को व्यक्त करता है | इसी पत्राचार से पता चलता है कि सुशील जी ने प्रिंटिंग प्रेस भी चलाई और अर्थाभाव में सडक पर भी आ गए थे |
सम्पादक श्री अशोक मिश्र ने सुशील जी से जुडी यादें साझा करते हुए लिखा है कि उनका बेलौस ,फक्कड़ अंदाज ,चेहरे पर हल्की मुस्कान और साहित्य की शानदार समझ लोगों का मन मोह लेती थी | उनके पास खिलखिल करती भाषा , सधा वाक्य विन्यास , विशेषण , उपमाएं , भाषा का ऐसा खिलंदडापन था कि पुस्तक समीक्षा तो वे पलक झपकते लिख डालते थे | आज के दौर में हर व्यक्ति अर्थ के पीछे भागता है तो वे शब्द की दुनिया जीते थे | लेखक ओम निश्चल लिखते हैं कि कभी उनसे बात कीजिये तो वे इतनी दुनिया जहान की बातें आपके सामने रख देते कि लगता वे हिन्दी ही नहीं दुनिया जहान की तमाम बातों के विश्वकोष हैं | मुझे याद है कि जिस विधा में भी हाथ डालते वह विधा उनकी अपनी हो जाती | ख्यात रंगकर्मी विजय पंडित लिखते हैं कि सुशील जी साहित्य में तप कर निकले थे | हिन्दी साहित्य के एक बड़े लिख्खाड और अजातशत्रु को मेरा नमन | साहित्यकार विवेक मिश्र ,सुशील जी के करीबी थे वे लिखते हैं कि उस आदमी में रहते थे , दस- बीस आदमी | ‘अपने लेखन से उन्होंने अपने बैरी भी खूब बनाये थे पर आज याद करने वाली बात यह है कि उनके लेखन से इर्ष्या रखने वाले व्यंग्यकार भी दबी जुबान में उनके व्यंग्य की धार का लोहा मानते थे | उनकी आलोचना में रचना मुखर होती थी ,रचनाकार नहीं | परसाई की नगरी जबलपुर से व्यंग्यकार रमेश सैनी अक्सर सुशील जी से बात करते रहते थे और विश्व पुस्तक मेले में उनसे मुलाकात के समय रमेश जी को सुशील जी ने बताया था कि प्रकाशन संस्थान में नौकरी करना अपने तन और मन को बंधक बना कर रखना है , यह बन्धुआगिरी से कम नहीं है |
संजीदा व्यंग्यकार निर्मल गुप्त , सुशील जी की गुडबुक्स में थे ऐसा मुझे सुशील जी से बातचीत में लगता था  और निर्मल जी भी सुशील जी से अंतर्मन से जुड़े थे | वह लिखते हैं कि सुशील लेखन के अखाड़े के स्ट्रीट स्मार्ट खलीफा थे | वह असलियत की धरती पर पाँव जमाकर अपनी लेखनी के हुनर से पढने वालों को अपना कायल बनाते | सुशील जी को याद करते हुए निर्मल जी ने एक कविता में सुशील जी का खाका खींचा है | ‘लफ्जपत्रिका के सम्पादक रहे व्यंग्यकार कमलेश पाण्डेय ने भी सुशील जी पर अंतरंगता से लिखा है कि अच्छी योजनायें बनाना ,पहल के लिए हमेशा तत्पर रहना और बेहद श्रमशील होना जैसे गुण उन्हें सहज अगुआ बना देते थे | इन दो वर्षों में मैंने जितना काम करते देखा ,उन्हें व्यंग्य का सुपरमेन कहने को जी चाहता था | लेख के अंत में कमलेश जी लिखते हैं कि महानगर में गमे - रोजगार का जिन्न उनकी  रचनात्मकता ,यारबाशी ,जीवन्त्तता , और विस्फोटक प्रतिभा का कुछ नहीं बिगाड़ पाया तो चिढ़कर उनसे जिंदगी ही छीन ली | वरिष्ठ व्यंग्यकार ब्रजेश कानूनगो ने लिखा है कि सुशील जी ने व्यंग्य लेखक समिति वलेस व्हाट्सएप समूह बनाकर व्यंग्य लिखने वाले अनेक नए पुराने रचनाकारों को इकठ्ठा करके व्यंग्य विधा के लिए समझ बढाने और आलोचना में उसके व्यवस्थित सौंदर्यशास्त्र के विकास की सुशील जी की गहरी आकांक्षा थी | ख्यात व्यंग्यकार डा अतुल चतुर्वेदी ने सुशील जी को शिद्दत से याद करते हुए लिखा है कि उनके व्यंग्य लेखन के कद और समझ का मुझे पूरा अंदाज हो चुका था और उनके लेखन की शैली से खासा प्रभावित भी था | मुझे लगता था कि व्यंग्य की दुनिया में एक गंभीर और महत्वपूर्ण व्यक्तित्व आ चुका है | वे लिखते हैं कि पंच मारने वाला व्यंग्य का यह सरपंच यूँ ही हमारे बीच से अचानक रुखसत हो जायेगा |
लेखक अनुराग आग्नेय सुशील जी को बड़ा भाई मानते थे वे लिखते हैं कि वे अपनी वाली पर उतर आते थे तो बड़े से बड़े फन्ने खां को कुछ नहीं समझते थे | साहित्य के अपने फरेबी लोगों को खूब जानते थे सुशील जी मगर ऐसे विष पुरुषों की मनोवृति को भलीभांति जानते हुए भी वे अनुराग से कहते थे मैं सब कुछ जानता हूँ अनुराग ! लेकिन इतनी हुशियारी क्या ,जालिम कुछ तो धोखा खा ले | अनुराग की नजरों में सुशील जी की काया तुलसी की और आत्मा कबीर की थी | अनुराग के इन्हीं शब्दों को इस लेख का शीर्षक दिया है क्योंकि सुशील जी रामचरित मानस के मर्मज्ञ थे और उनके व्यंग्य कबीर के दोहों की तरह पाखंड पर सदाबहार प्रहार करते हैं | सुशील जी के लखनवी दोस्त कवि सम्मेलनों के मंच के सिद्धहस्त कवि मुकुल महान का कहना है कि उनका मौन बोलता था और उनका बोलना लोगों के मौन को शब्द देता था | मुकुल वलेस के संस्थापक सदस्यों में रहे और वलेस के उदय की कहानी आपने चित्रित की है | बाद के समय में वलेस  के कई संस्थापक सदस्यों और सुशील जी के बीच मतभेद हुए और वलेस से आवाजाही भी रही मगर मुकुल और अन्य सदस्यों ने सुशील जी से अगाध प्रेम बनाये रखा जो यह बताता है कि इनमें कभी मनभेद नहीं रहे | वलेस के एक और संस्थापकों में से एक प्रख्यात कविवर पंकज प्रसून और सुशील जी की जुगलबंदी जगजाहिर रही | पंकज और सुशील जी में एक अलग ही साहित्यिक प्रेम था जो उनकी बातचीत से झलकता था और उनकी यह व्यंग्य भरी चर्चा भी व्यंग्य बन जाती थी | पंकज ने ऐसे कई संवाद वलेस पर डाले और सबने मजे लेकर पढ़े क्योंकि इनमें शैली आनंदित करती थी | पंकज लिखते हैं कि सुशील जी बतरस के मास्टर थे | ठेठ देशज मुराही , गूढ़ आध्यात्मिक दर्शन , निरे अक्खडपन का काकटेल थे | पंकज लिखते हैं कि जहाँ तक मैं समझता हूँ साहित्य जगत की विसंगतियों पर उनसे ज्यादा और किसी ने कलम नहीं चलाई होगी | एक सुशील सिद्धार्थ के अंदर कई सुशील सिद्धार्थ समाये हुए थे | मेज को ठोक कर पूरे सुर में हमको तुमसे हो गया है प्यार क्या करें गाते सुशील , रोज नए पंगे लेने वाले सुशील , दूसरों को पूरी किताब लिख कर दे देने वाले सुशील , मुझ अकिंचन को इतना प्यार करने वाले सुशील  | तमाम योग्यताओं के बावजूद भी सुशील जी को लखनऊ के विश्विद्यालय में प्राध्यापक की नौकरी मिलते मिलते रह गयी , रह गयी तो क्यों रह गयी यह सवाल मेरे मन में हमेशा रहा मगर इस रहस्य का पर्दा पंकज ने अपने एंगल से इस लेख में उठाया है | ख्यात व्यंग्यकार अर्चना चतुर्वेदी उन्हें स्मरण करते हुए लिखतीं हैं कि उनका साहित्यिक ज्ञान सच में बहुत से बड़े नामों से कहीं ऊपर था | उनकी दृष्टि बहुत पैनी थी | अर्चना जी का मानना है कि सुशील जी का असमय जाना व्यंग्य की बहुत बड़ी क्षति है | अगर वे कुछ साल और रह पाते तो शायद व्यंग्य का बहुत भला हो जाता |
वरिष्ठ व्यंग्यकार ओम वर्मा ने सुशील जी के संस्मरणों के साथ उनके व्यंग्य संकलनों की भी विस्तृत चर्चा की है | ओम जी लिखते हैं कि व्यंग्य में वे जितने जेनुइन थे उतने ही समालोचना  और अवधि कविताओं में भी | ओम जी अंत में लिखते है कि सुशील सिद्धार्थ अपने रचनाकर्म और व्यवहार में तो सुशील थे ही , व्यंग्य की दुनिया में अपने प्रश्नों की खोज में निकले सिद्धार्थ थे जिन्हें बोधिवृक्ष की तलाश थी | लखनऊ की व्यंग्यकार सुश्री वीना सिंह लिखतीं हैं कि इस संसार में आना और जाना तय करना तो किसी के भी बस में नहीं ,पर किसी का अचानक या असामयिक चले जाना अखरता बहुत है | कोयले को हीरे की तरह तराश देने की उनमें अद्भुत क्षमता थी | उनके लिए सच्ची श्रद्धांजली यही है कि हम सब उनके अधूरे कार्यों को पूरा करने का संकल्प लें | व्यंग्यकार डा अनीता यादव लिखतीं हैं कि वे लाजवाब वक्ता थे , जो सब श्रोताओं पर अपनी छाप छोड़ जाते थे न केवल अभिव्यक्ति की शैली के तौर पर बल्कि विषय के गहन ज्ञान को लेकर भी | हम तुम्हें यूँ भुला न पायेंगे ....गीत की पंक्ति अनायास ही याद हो उठती हैं | व्यंग्यकार इन्द्रजीत कौर लिखतीं हैं कि उन्होंने  व्यंग्य रचना और विमर्श को नए आयाम दिए | नित नयी योजनायें उनके रचनाशील दिमाग में उपजती रहतीं थी | वरिष्ठ व्यंग्यकार प्रभाशंकर उपाध्याय का अंदाजे बयां जुदा है सुशील जी पर | वे लिखते हैं कि भला उस खुसूसी शख्सियत को कौन और कैसे विस्मृत कर सकेगा | ......आज और कल करते करते दिन निकल गए और एक दिन सुशील जी ही निकल लिए | व्यंग्यकार मीना अरोरा सुशील जी को छोटे कद का बड़ा साहित्यकार मानतीं हैं | मीना जी के शब्दों में याद कर आपको, आँखें तो नम होंगीपर , होंठ मुस्कुराएंगे सुशील सर , आप बहुत याद आएंगे | वनिका पब्लिकेशन की निदेशक और व्यंग्यकार डा नीरज सुधांशु कहतीं हैं कि सुशील जी कार्यनिष्ठा व् समयबद्धता के पक्षधर थे | उनके जाने से जो साहित्य की जो क्षति  हुई है वह अपूरणीय है | व्यंग्यलेखन , आलोचना ,संपादन, पध्यलेखन ,सोशल मीडिया पर भी सक्रियता व अन्य अनेक जिम्मेदारियों को एक साथ निर्वाह करने की कूवत किसी में नहीं होती | उज्जैन के वरिष्ठ व्यंग्यकार डा पिलकेंद्र अरोरा लिखते हैं कि ऐसा लगा जैसे मध्यान्ह में हुआ एक सूर्यास्त | अपने समय ,सरोकार और समाज के प्रति उनकी चिंतायें गहरी और व्यापक थीं | व्यंग्य के सिद्धार्थ बुद्ध बनने के मार्ग पर थे | अरोरा जी ने सुशील जी के उज्जैन आगमन की  स्मृतियाँ भी साझा की हैं | भोपाल के सक्रिय व्यंग्यकार विजी श्रीवास्तव ने लिखा कि तुम जैसे गए ,ऐसे भी तो जाता नहीं कोई | विजी जी लिखते हैं कि सुशील जी विलक्षण थे क्योंकि वे सतत रूप से प्रस्फुटित रहने वाले बुद्धिजीवी थे | खेमेबाजे से हटकर उन्होंने व्यंग्यकारों का एक परिवार बनाने की कोशिश की जिसमें वे काफी हद तक सफल रहे | ज्ञान चतुर्वेदी सम्मान से सम्मानित व्यंग्यकार शान्तिलाल जैन लिखते हैं कि मुफलिसी के बावजूद  भी साहित्य सृजन और विशेष तौर पर व्यंग्य की बेहतरी के लिए संघर्ष कर रहे थे | उनके जाने के बाद भी वलेस चल तो रहा है मगर वैसा ही जैसा राजकपूर के जाने के बाद आरके स्टूडियो चलता रहा | उपन्यासकार महेंद्र भीष्म , डा हरीशकुमार सिंह और कवयित्री अंजू शर्मा ने भी सुशील जी की स्मृतियों को बखूबी साझा किया है |
संपादक राहुल देव ने अपनी सम्पादकीय भूमिका में सुशील जी के व्यक्तित्व और कृतित्व के बारे में लिखा है कि उनके अंदर रचनात्मक सादगी , व्यंग्य की प्रखर रचनात्मक प्रतिभा व निरपेक्ष आलोचनात्मक क्षमता थी | वे जैसे अंदर से थे वैसे ही बाहर से भी आपसे मिलते थे | उन्हें समकालीन साहित्य के साथ साथ अवधि के लोकसाहित्य की भी गहरी समझ थी | अपने मूल स्वभाव में वे बड़े ही विनोदप्रिय थे | राहुल लिखते हैं कि सुशील जी ने अपनी व्यंग्य रचनाओं से व्यंग्य में अपना एक अलग मुहावरा विकसित किया था | वे अपनी रचनाओं के माध्यम से व्यंग्य विधा को एक नया शिल्प और सौन्दर्य प्रदान कर उसे संकट के दौर से निकालकर एक विशिष्ट पहचान दिलाने में सफल सिद्ध हुए | हिन्दी व्यंग्य के आकाश में सुशील जी हमेशा ध्रुव तारे की तरह चमकते रहेंगे |
पुस्तक सुशील से सिद्धार्थ तक में सभी लेखकों ने सुशील जी से रूबरू होकर जीवंत लिखा है | सुशील जी लेखकों से ऐसे जुड़े थे कि सुशील जी के असामयिक निधन की खबर पर सहसा किसी को यकीन नहीं हुआ | यह भी सही है कि सुशील जी से जुड़े कुछ लेखक / व्यंग्यकार शून्य में चले गए और कई कई रात सोये नहीं कि सुशील जी ऐसे कैसे चले गए | अपनी तमाम कमजोरियों के बावजूद भी वे सबके ख़ास और प्रिय रहे | मुझे उपन्यास लिखने के लिए प्रेरित किया और बीस पृष्ठ मैंने लिख भी डाले मगर उनके जाने के बाद एक साल गुजर गया , एक शब्द भी नहीं बढ़ा उस उपन्यास में  | पुस्तक के सभी लेखकों का मत है कि ज्ञान जी के बाद , व्यंग्य में सुशील जी ही ऐसे थे जो , वर्तमान व्यंग्य की पताका को आगे ले जा सकते थे | यह भी सही है कि वे स्वयं भी जानते थे कि उनके पास समय कम है और कम से कम समय में बहुत कुछ करना चाहते थे | आजीविका के संघर्ष में तपकर सुशील जी साहित्य की कई विधाओं के कुंदन हो गए थे | हिंदी की संस्मरण विधा में बहुत कम लेखन हो रहा है जबकि यह एक लोकप्रिय विधा रही है | संस्मरण के जरिये हम अपने प्रिय रचनाकार के व्यक्तित्व और कृतित्व के लगभग सभी छुए अन छुए पहलुओं को जान सकते हैं | जिनसे हमें उस रचनाकर को सम्पूर्णता से समझने का अवसर मिलता है | ऐसी किताबें कम ही प्रकाशित होती हैं | सुशील जी को चाहने वालों के लिए यह किताब किसी उपहार से कम नहीं है

      - डा हरीशकुमार सिंह
                 9425481195
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Friday 14 June 2019

रघुवीर सहाय की कविताओं में राजनीति और आम आदमी की चिंता - अरविन्द यादव


रघुवीर सहाय की रचनाओं में बीसवीं शताब्दी का भारतीय समाज और राजनीति अपने पूरे विरोधाभाषों के साथ मौजूद है । बीसवीं सदी ऐसी सदी है जिसमें मानवहित में तमाम सफलताएँ मिलीं, साथ ही साथ मानव जनित विपदाओं से भी दो-चार होना पड़ा । इस शताब्दी ने दो-दो विश्व युद्ध देखे और उससे उत्पन्न मानव विनाश लीला भी। इस शताब्दी में जो सबसे महत्वपूर्ण घटना घटी वह साम्राज्यवाद का पतन था । साम्राज्यवाद के पतन के साथ ही साथ नव-उपनिवेशवाद का भी उदय हुआ । विज्ञान ने जो प्रगति की उसका लाभ वर्ग विशेष तक ही सीमित था। आम जनता अपने बहुत सारे अधिकारों से वंचित थी । साम्राज्यवाद के पतन के साथ ही तमाम देशों में लोकतंत्र की स्थापना हुई । लोकतंत्र की स्थापना से समाज के आखिरी आदमी को भी उम्मीद बंधी। उसे लगा कि मनुष्य होने के नाते उसे सभी अधिकार दिए जायेंगे । आजाद देशों के संविधान ने उन्हें यह अधिकार भी दिया लेकिन वे अधिकार महज किताबी बनकर रह गए। रघुवीर सहाय समाज के उस आखिरी आदमी की चिंता अपनी कविता में दर्ज करते हैं जो आदमी होने के नाते आदमी के बराबर सम्मान पाना चाहता है -
“दर्द दर्द मैंने कहा क्या अब नहीं होगा
हर दिन मनुष्य से एक दर्जा नीचे रहने का दर्द”[1]
मनुष्य अपने मानवीय अधिकारों से वंचित रहकर जीवन गुजारने के लिए विवश है । इसी विवशता को रघुवीर सहाय आवाज देते हैं और यह आवाज वे ईमानदारी से उठाते हैं । भारतीय स्वाधीनता की लड़ाई जिन मूल्यों को लेकर लड़ी गई थी वह स्वातंत्र्योत्तर भारत में तिरोहित हो गई । आजाद भारत में समता और समृद्धि , शोषण और वर्गभेद की समाप्ति ,लोकतंत्रीय प्रतिष्ठानों का विकेंद्रीकरण, स्त्री और दलित जैसे हाशिये के समाज को मुख्य धारा में शामिल करने जैसी तमाम बातें नेपथ्य में डाल दी गईं । लोकतंत्र सत्ता प्राप्ति का साधन मात्र बनकर रह गया । सत्ता प्राप्ति के खेल को समझना हो तो सातवें दशक की राजनीति पर ध्यान देने की जरुरत है।
                   अपने जीवन के अंतिम कुछ वर्षों को छोड़कर जवाहरलाल नेहरु देश को एक करिश्माई नेतृत्व प्रदान करते रहे। उनकी मृत्यु के पश्चातलाल बहादुर शास्त्री भी अल्प समय तक प्रधानमंत्री रहकर काल कवलित हो गए। अब भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के भीतर की फूट बाहर आने लगी। फरवरी 1967 में भारत में चौथा आम चुनाव हुआ । पार्टी के भीतर जो असंतोष पल रहा था, वह अब बगावत का रूप ले चुका था । पार्टी से असंतुष्ट नेता पार्टी छोड़कर अन्य  दूसरी पार्टियों में शामिल होने लगे। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस पांच राज्यों में चुनाव हार गई और दल-बदल के कारण तीन अन्य राज्यों में उसकी सरकार गिर गई। इससे पूर्व व्यापक पैमाने पर दलबदल नहीं हुआ था । अभी तक यह होता था कि टिकट न मिलने पर या मंत्री न बनाये जाने पर असंतुष्ट नेता पार्टी के भीतर ही अपना गुट बना लेते थे और दबाव के माध्यम से अपनी बात मनवाने की कोशिश करते थे । लेकिन 1967 के आम चुनाव की स्थिति इसके विपरीत थी ।
यह गुटबाजी सभी पार्टियों की समस्या थी। फर्क इतना था कि किसी पार्टी में कम थी तो किसी पार्टी में ज्यादा। कुछ राज्यों में एक से ज्यादा कांग्रेस पार्टियाँ थीं। कुछ जगहों पर एक ही पार्टी की  तीन-तीन शाखाएं काम कर रही थीं। सोशलिस्ट पार्टी के दो धड़े हो गए थे और उसके बड़े हिस्से संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी में जमकर गुटीय संघर्ष हो रहा था । जनसंघ उग्रवादी और उदारवादी गुटों में बंटा हुआ था।1967 के बाद सभी गैर-कांग्रेसी पार्टियों ने मिलाकर गठबंधन बनाया । इन सबका नतीजा यह हुआ कि पहले कांग्रेस की सरकारें अपदस्थ हुईं , फिर गैर कांग्रेसी फ्रंट का गठबंधन टिकने में सफल नहीं हो पाया और उनकी सरकारें भी एक एक करके गिरने लगीं। अब तक विपक्षी पार्टियों को अहसास हो गया था कि अल्पमत पाने वाली तमाम पार्टियों को जोड़कर कांग्रेस से बड़ा बहुमत बनाये बगैर कांगेस को पराजित कर पाना मुश्किल है। संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी के संस्थापक और करिश्माई समाजवादी नेता राममनोहर लोहिया मानते थे कि कांग्रेस को सत्ता से दूर करने के लिए गैर कांग्रेसी पार्टियों को एक साथ आना पड़ेगा। सभी गैर-कांग्रेसी पार्टियों को एक साथ लाकर कांग्रेस को सत्ता से दूर करने की लोहिया की रणनीति सफल हो गई। लोहिया का उद्देश्य कांग्रेस को सत्ता से दूर करना मात्र नहीं था,बल्कि वे अपनी समाजवादी विचारधारा के तहत सामाजिक और भाषिक संरचना में बदलाव भी चाहते थे। लेकिन वे ऐसा करने में कामयाब नहीं हो पाए क्योंकि जो पार्टियाँ उनके साथ आईं  थीं उनका मकसद कांग्रेस को सत्ता से दूर करके स्वयं सत्ता पर काबिज होना था। अपनी इस अफलता को लोहिया ने अपनी मृत्यु से कुछ दिन पूर्व स्वीकार किया था ।
दल-बदल और राजनैतिक अवसरवाद ने भारतीय लोकतंत्र के सपने को धूमिल कर दिया। लोगों की उम्मीदें टूटने का यह चरम समय था। नेताओं की प्रतिबद्धता न राष्ट्र के लिए रह गई थी और न ही समाज के लिए। पार्टी और विचारधारा उनके लिए सत्ता प्राप्ति के साधन मात्र रह गये थे। दल-बदल की इस बढ़ती प्रवृत्ति को देखकर रघुवीर सहाय ने लिखा है –
“गाकर सुनाता है
जनवादी वादों की घोषणा
महामंत्री
जनता के लिए नहीं
वह विरोधियों को प्रमाण दे रहा है
कि मैं दलबदल के लिए योग्य व्यक्ति हूँ”[2]
दल-बदल की जो परम्परा उस दौर में चली वह आज तक कायम है, वह भी अपने वीभत्स रूप में। लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव से पूर्व और बाद में सांसदों और विधायकों की जो खरीद-फरोख्त होती है,वह इसी दलबदल का विस्तृत  रूप है। जैसे ही सत्तारूढ़ पार्टी के नेताओं को लगता है कि अगले चुनाव में उनकी पार्टी सत्ता में नहीं आयेगी, वे दल बदल कर उस पार्टी में जाने की जुगत भिड़ा लेते है जो संभावित सरकार बना सकती है। ऐसी स्थिति में आम मतदाता अपने को ठगा हुआ महसूस करता है। वह कर भी क्या सकता है ? वह उससे कम भ्रष्ट नेता पर अगले चुनाव में विश्वास करता है और वोट देता है। लेकिन मतदाता के साथ फिर वही होता है। मतदाता का विश्वास टूटने के साथ ही उसके उम्मीदों का संसार भी टूट जाता है, वह चारों तरफ से  लुटा हुआ महसूस करता है। मतदाता के इसी ख़त्म होते संसार को रघुवीर सहाय आवाज देते हैं -
“ कितना अकेला हूँ मैं इस समाज में
जहाँ सदा मरता है एक और मतदाता”[3]
लेकिन आम मतदाता की चिंता किसी को नहीं थी । ज्यादातर नेता सत्ता का सुख प्राप्त करने के लिए दलबदल में मस्त थे । इसी मस्ती को लक्ष्य करते हुए किसी अवधी कवि ने व्यंगात्मक लहजे में लिखा है –
तब्बो लूटत खात रहेन अब्बो लूटत खाईत है
पहले अंग्रेजी हैट लगावत रहेन, अब गाँधी टोप लगायित है ।
असल बात यह है कि आजादी के पूर्व जो शोषक की भूमिका में थे वे आजादी के बाद कांग्रेस में शामिल हो गए और जब अलग-अलग राज्यों में कांग्रेस की सत्ता जाती दिखी तो उन नेताओं ने गैर-कांग्रेसी पार्टियों में जाना ज्यादा मुनासिब समझा। उस समय समाज और राजनीति में जो भी घटित हो रहा था रघुवीर सहाय उससे करीब से जुड़े थे । रघुवीर सहाय कविता में विचार को खून की तरह दौड़ते रहने के पक्ष में थे, लेकिन किसी भी विचारधारा या पार्टी के प्रति न उनका झुकाव था और न ही कोई मोह । समाज और राजनीति में उस समय जो भी घटित हो रहा था रघुवीर सहाय ने उन घटनाओं को अपनी कविता में जगह दी । ‘दूसरा सप्तक’ में उन्होंने अपने वक्तव्य में कहा है कि “कोशिश तो यही रही है कि सामाजिक यथार्थ के प्रति जागरूक रहा जाये और वैज्ञानिक तरीके से समाज को समझा जाये। वास्तविकताओं की ओर ऐसा ही दृष्टिकोण होना चाहिए और यही जीवन को स्वस्थ बनाये रख सकता था,शमशेर बहादुर का कहना मुझे बराबर याद रहेगा कि जिंदगी में तीन चीजों की बहुत जरुरत है: ऑक्सीजन,मार्क्सवाद और अपनी शक्ल जो हम जनता में देखते हैं ।”[4]
     यहाँ उनके इस वक्तव्य से ऐसा आभास होता है कि उनका झुकाव मार्क्सवाद की तरफ है । कुछ विद्वानों ने ऐसा संकेत भी दिया है । दूसरा सप्तक के ही वक्तव्य में आगे कहते हैं कि -“ मार्क्सवाद को कविता पर गिलाफ की तरह नहीं चढ़ाया  जा सकता ।” [5] आक्सीजन,मार्क्सवाद और अपनी शक्ल जो हम जनता में देखते हैं , इन तीनों में से तीसरी बात रघुवीर के यहाँ ज्यादा महत्वपूर्ण है –
“यही मेरे लोग हैं
यही मेरा देश है
इसी में रहता हूँ
इन्हीं से कहता हूँ
अपने आप और बेकार
लोग लोग लोग चारो तरफ हैं मार तमाम लोग
खुश और असहाय
उनके  बीच में सहता हूँ , उनका दुःख”[6]
     कविता में एक पंक्ति आई है ‘खुश और असहाय ।’ यह एक साथ असंभव है । लेकिन राजनीति ने ऐसी परिस्थितियाँ  पैदा कर दी थीं कि जनता कुछ भी कर सकने की स्थिति में नहीं थी । उसे  सारे अधिकारों से वंचित करके महज वोट देने के अधिकार तक सीमित कर दिया गया था ।
          आजादी के बाद से ही भारतीय लोकतंत्र और राजनीति गुलामी का स्वातंत्र्योत्तर स्वरुप गढ़ने में लगी रही । भारतीय राजनीति जनपक्षधरता की बजाय जनता की अज्ञानता,निरक्षरता और जातीय, धार्मिक व राष्ट्रीय भावनाएँ  भड़काकर उनसे  समर्थन और वोट बटोरने के जुगाड़ में लगी रही। अधिनायकवादी राजनीति ने अपना भव्य रूप दिखाकर जनता में भय पैदा कर दिया, जबकि होना यह चाहिए था कि वह जनता में आशा और विश्वास का संचार करती। भय के साथ ही साथ जनता के मानस में तामझाम वाले नेताओं और राजनीतिक व्यवस्था के प्रति अतार्किक आदर भी पैदा हुआ। रैलियों , जुलूसों और बड़े-बड़े प्रदर्शनों के सहारे चल रही राजनीतिक व्यवस्था का रघुवीर सहाय ने ‘अधिनायक’ कविता में सटीक वर्णन किया है -
“कौन कौन है वह जन- गन - मन
अधिनायक वह महाबली
डरा हुआ मन बेमन जिसका
बाजा रोज बजाता है”[7]
  अधिनायकवादी व्यवस्था से डरी हुई जनता किस तरह मानव विरोधी स्थितियों का गुणगान करने के के लिए मजबूर है, यह ‘अधिनायक’ कविता में रोचक ढंग से प्रस्तुत किया गया है। ऐसी अधिनायकवादी राजनीतिक व्यवस्था में मनुष्य मनुष्य न रहकर अधिनायकवादी हस्तियों का गुणगान करने वाला उपकरण बन गया। यह व्यवस्था भयवश जनता को उसके अधिकारों से वंचित रखती है। इस राजनीतिक व्यवस्था पर अभय कुमार ठाकुर का विचार  है कि  “भारतीय लोकतान्त्रिक  व्यवस्था की सबसे बड़ी खामी यह है कि इसने एक अनुत्तरदायी समाज की रचना की है। जनता को शासन पद्धति का भागीदार न बनाकर उसे मूकदर्शक बना कर छोड़ दिया है ।”[8] जनता को वोट देने के अधिकार तक सीमित कर दिया गया।  राजनीतिक व्यवस्था और नौकरशाही पर अत्यधिक भरोसा करने के कारण जनता अपना आत्मविश्वास खो चुकी है । वह तमाम परेशानियों के बावजूद खुश रहने की कोशिश कर रही है । उसका विश्वास इस सीमा तक टूट चुका है कि उसे विश्वास ही नहीं हो पा रहा है कि सरकार में उसकी भी भागीदारी है और वह कुछ कर सकती है।
जीवन को ईमानदारी के साथ अभिव्यक्ति देने के लिए रघुवीर सहाय जीवन के यथार्थ से अपने कवि के रिश्ते की पहचान कभी नहीं खोते हैं -
“यही मेरे लोग हैं
यही मेरा देश है
इसी में रहता हूँ
x     x     x
लोग लोग लोग चारों तरफ हैं मार तमाम लोग
खुश और असहाय”[9]
रघुवीर सहाय जिन लोगों से स्वयं को घिरा हुआ पाते हैं , वे खुश और असहाय हैं । एक ही साथ खुश होना और असहाय होना विडंबना है। असहाय होने बावजूद लोग खुश इसलिए हैं क्योंकि उनमें यह चेतना ही नहीं है कि इन परिस्थितियों को बदला जा सकता है। अगर बदलने की चेतना भी थी तो साहस नहीं था। यह स्थिति रघुवीर सहाय में खीझ पैदा करती है –
“भाषा ही मेरी एक मुश्किल नहीं रही
एक मुश्किल है मेरी जनता”[10]
यहाँ रघुवीर सहाय का नफरत नकारात्मक नहीं है बल्कि वह उनकी “खास-खास नफ़रत है ।”[11]



[1]सहाय,रघुवीर. आत्महत्या के विरुद्ध, पृष्ठ-30 
[2]वही, पृष्ठ-91
[3]वही,पृष्ठ-79 
[4]अज्ञेय(सं), दूसरा सप्तक, वक्तव्य-रघुवीर सहाय,पृष्ठ-138
[5]वही,पृष्ठ 138
[6]सहाय,रघुवीर,आत्महत्या के विरुद्ध, पृष्ठ-19 
[7]वही,पृष्ठ-58
[8]ठाकुर,अभय कुमार,रघुवीर सहाय और प्रतिरोध की संस्कृति,पृष्ठ-44
[9]सहाय,रघुवीर, आत्महत्या के विरुद्ध,पृष्ठ-19
[10]वही, पृष्ठ-81
[11]वही,पृष्ठ-44

ईमेल- arvind.yadav488@gmail.com

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