Friday 14 June 2019

रघुवीर सहाय की कविताओं में राजनीति और आम आदमी की चिंता - अरविन्द यादव


रघुवीर सहाय की रचनाओं में बीसवीं शताब्दी का भारतीय समाज और राजनीति अपने पूरे विरोधाभाषों के साथ मौजूद है । बीसवीं सदी ऐसी सदी है जिसमें मानवहित में तमाम सफलताएँ मिलीं, साथ ही साथ मानव जनित विपदाओं से भी दो-चार होना पड़ा । इस शताब्दी ने दो-दो विश्व युद्ध देखे और उससे उत्पन्न मानव विनाश लीला भी। इस शताब्दी में जो सबसे महत्वपूर्ण घटना घटी वह साम्राज्यवाद का पतन था । साम्राज्यवाद के पतन के साथ ही साथ नव-उपनिवेशवाद का भी उदय हुआ । विज्ञान ने जो प्रगति की उसका लाभ वर्ग विशेष तक ही सीमित था। आम जनता अपने बहुत सारे अधिकारों से वंचित थी । साम्राज्यवाद के पतन के साथ ही तमाम देशों में लोकतंत्र की स्थापना हुई । लोकतंत्र की स्थापना से समाज के आखिरी आदमी को भी उम्मीद बंधी। उसे लगा कि मनुष्य होने के नाते उसे सभी अधिकार दिए जायेंगे । आजाद देशों के संविधान ने उन्हें यह अधिकार भी दिया लेकिन वे अधिकार महज किताबी बनकर रह गए। रघुवीर सहाय समाज के उस आखिरी आदमी की चिंता अपनी कविता में दर्ज करते हैं जो आदमी होने के नाते आदमी के बराबर सम्मान पाना चाहता है -
“दर्द दर्द मैंने कहा क्या अब नहीं होगा
हर दिन मनुष्य से एक दर्जा नीचे रहने का दर्द”[1]
मनुष्य अपने मानवीय अधिकारों से वंचित रहकर जीवन गुजारने के लिए विवश है । इसी विवशता को रघुवीर सहाय आवाज देते हैं और यह आवाज वे ईमानदारी से उठाते हैं । भारतीय स्वाधीनता की लड़ाई जिन मूल्यों को लेकर लड़ी गई थी वह स्वातंत्र्योत्तर भारत में तिरोहित हो गई । आजाद भारत में समता और समृद्धि , शोषण और वर्गभेद की समाप्ति ,लोकतंत्रीय प्रतिष्ठानों का विकेंद्रीकरण, स्त्री और दलित जैसे हाशिये के समाज को मुख्य धारा में शामिल करने जैसी तमाम बातें नेपथ्य में डाल दी गईं । लोकतंत्र सत्ता प्राप्ति का साधन मात्र बनकर रह गया । सत्ता प्राप्ति के खेल को समझना हो तो सातवें दशक की राजनीति पर ध्यान देने की जरुरत है।
                   अपने जीवन के अंतिम कुछ वर्षों को छोड़कर जवाहरलाल नेहरु देश को एक करिश्माई नेतृत्व प्रदान करते रहे। उनकी मृत्यु के पश्चातलाल बहादुर शास्त्री भी अल्प समय तक प्रधानमंत्री रहकर काल कवलित हो गए। अब भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के भीतर की फूट बाहर आने लगी। फरवरी 1967 में भारत में चौथा आम चुनाव हुआ । पार्टी के भीतर जो असंतोष पल रहा था, वह अब बगावत का रूप ले चुका था । पार्टी से असंतुष्ट नेता पार्टी छोड़कर अन्य  दूसरी पार्टियों में शामिल होने लगे। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस पांच राज्यों में चुनाव हार गई और दल-बदल के कारण तीन अन्य राज्यों में उसकी सरकार गिर गई। इससे पूर्व व्यापक पैमाने पर दलबदल नहीं हुआ था । अभी तक यह होता था कि टिकट न मिलने पर या मंत्री न बनाये जाने पर असंतुष्ट नेता पार्टी के भीतर ही अपना गुट बना लेते थे और दबाव के माध्यम से अपनी बात मनवाने की कोशिश करते थे । लेकिन 1967 के आम चुनाव की स्थिति इसके विपरीत थी ।
यह गुटबाजी सभी पार्टियों की समस्या थी। फर्क इतना था कि किसी पार्टी में कम थी तो किसी पार्टी में ज्यादा। कुछ राज्यों में एक से ज्यादा कांग्रेस पार्टियाँ थीं। कुछ जगहों पर एक ही पार्टी की  तीन-तीन शाखाएं काम कर रही थीं। सोशलिस्ट पार्टी के दो धड़े हो गए थे और उसके बड़े हिस्से संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी में जमकर गुटीय संघर्ष हो रहा था । जनसंघ उग्रवादी और उदारवादी गुटों में बंटा हुआ था।1967 के बाद सभी गैर-कांग्रेसी पार्टियों ने मिलाकर गठबंधन बनाया । इन सबका नतीजा यह हुआ कि पहले कांग्रेस की सरकारें अपदस्थ हुईं , फिर गैर कांग्रेसी फ्रंट का गठबंधन टिकने में सफल नहीं हो पाया और उनकी सरकारें भी एक एक करके गिरने लगीं। अब तक विपक्षी पार्टियों को अहसास हो गया था कि अल्पमत पाने वाली तमाम पार्टियों को जोड़कर कांग्रेस से बड़ा बहुमत बनाये बगैर कांगेस को पराजित कर पाना मुश्किल है। संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी के संस्थापक और करिश्माई समाजवादी नेता राममनोहर लोहिया मानते थे कि कांग्रेस को सत्ता से दूर करने के लिए गैर कांग्रेसी पार्टियों को एक साथ आना पड़ेगा। सभी गैर-कांग्रेसी पार्टियों को एक साथ लाकर कांग्रेस को सत्ता से दूर करने की लोहिया की रणनीति सफल हो गई। लोहिया का उद्देश्य कांग्रेस को सत्ता से दूर करना मात्र नहीं था,बल्कि वे अपनी समाजवादी विचारधारा के तहत सामाजिक और भाषिक संरचना में बदलाव भी चाहते थे। लेकिन वे ऐसा करने में कामयाब नहीं हो पाए क्योंकि जो पार्टियाँ उनके साथ आईं  थीं उनका मकसद कांग्रेस को सत्ता से दूर करके स्वयं सत्ता पर काबिज होना था। अपनी इस अफलता को लोहिया ने अपनी मृत्यु से कुछ दिन पूर्व स्वीकार किया था ।
दल-बदल और राजनैतिक अवसरवाद ने भारतीय लोकतंत्र के सपने को धूमिल कर दिया। लोगों की उम्मीदें टूटने का यह चरम समय था। नेताओं की प्रतिबद्धता न राष्ट्र के लिए रह गई थी और न ही समाज के लिए। पार्टी और विचारधारा उनके लिए सत्ता प्राप्ति के साधन मात्र रह गये थे। दल-बदल की इस बढ़ती प्रवृत्ति को देखकर रघुवीर सहाय ने लिखा है –
“गाकर सुनाता है
जनवादी वादों की घोषणा
महामंत्री
जनता के लिए नहीं
वह विरोधियों को प्रमाण दे रहा है
कि मैं दलबदल के लिए योग्य व्यक्ति हूँ”[2]
दल-बदल की जो परम्परा उस दौर में चली वह आज तक कायम है, वह भी अपने वीभत्स रूप में। लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव से पूर्व और बाद में सांसदों और विधायकों की जो खरीद-फरोख्त होती है,वह इसी दलबदल का विस्तृत  रूप है। जैसे ही सत्तारूढ़ पार्टी के नेताओं को लगता है कि अगले चुनाव में उनकी पार्टी सत्ता में नहीं आयेगी, वे दल बदल कर उस पार्टी में जाने की जुगत भिड़ा लेते है जो संभावित सरकार बना सकती है। ऐसी स्थिति में आम मतदाता अपने को ठगा हुआ महसूस करता है। वह कर भी क्या सकता है ? वह उससे कम भ्रष्ट नेता पर अगले चुनाव में विश्वास करता है और वोट देता है। लेकिन मतदाता के साथ फिर वही होता है। मतदाता का विश्वास टूटने के साथ ही उसके उम्मीदों का संसार भी टूट जाता है, वह चारों तरफ से  लुटा हुआ महसूस करता है। मतदाता के इसी ख़त्म होते संसार को रघुवीर सहाय आवाज देते हैं -
“ कितना अकेला हूँ मैं इस समाज में
जहाँ सदा मरता है एक और मतदाता”[3]
लेकिन आम मतदाता की चिंता किसी को नहीं थी । ज्यादातर नेता सत्ता का सुख प्राप्त करने के लिए दलबदल में मस्त थे । इसी मस्ती को लक्ष्य करते हुए किसी अवधी कवि ने व्यंगात्मक लहजे में लिखा है –
तब्बो लूटत खात रहेन अब्बो लूटत खाईत है
पहले अंग्रेजी हैट लगावत रहेन, अब गाँधी टोप लगायित है ।
असल बात यह है कि आजादी के पूर्व जो शोषक की भूमिका में थे वे आजादी के बाद कांग्रेस में शामिल हो गए और जब अलग-अलग राज्यों में कांग्रेस की सत्ता जाती दिखी तो उन नेताओं ने गैर-कांग्रेसी पार्टियों में जाना ज्यादा मुनासिब समझा। उस समय समाज और राजनीति में जो भी घटित हो रहा था रघुवीर सहाय उससे करीब से जुड़े थे । रघुवीर सहाय कविता में विचार को खून की तरह दौड़ते रहने के पक्ष में थे, लेकिन किसी भी विचारधारा या पार्टी के प्रति न उनका झुकाव था और न ही कोई मोह । समाज और राजनीति में उस समय जो भी घटित हो रहा था रघुवीर सहाय ने उन घटनाओं को अपनी कविता में जगह दी । ‘दूसरा सप्तक’ में उन्होंने अपने वक्तव्य में कहा है कि “कोशिश तो यही रही है कि सामाजिक यथार्थ के प्रति जागरूक रहा जाये और वैज्ञानिक तरीके से समाज को समझा जाये। वास्तविकताओं की ओर ऐसा ही दृष्टिकोण होना चाहिए और यही जीवन को स्वस्थ बनाये रख सकता था,शमशेर बहादुर का कहना मुझे बराबर याद रहेगा कि जिंदगी में तीन चीजों की बहुत जरुरत है: ऑक्सीजन,मार्क्सवाद और अपनी शक्ल जो हम जनता में देखते हैं ।”[4]
     यहाँ उनके इस वक्तव्य से ऐसा आभास होता है कि उनका झुकाव मार्क्सवाद की तरफ है । कुछ विद्वानों ने ऐसा संकेत भी दिया है । दूसरा सप्तक के ही वक्तव्य में आगे कहते हैं कि -“ मार्क्सवाद को कविता पर गिलाफ की तरह नहीं चढ़ाया  जा सकता ।” [5] आक्सीजन,मार्क्सवाद और अपनी शक्ल जो हम जनता में देखते हैं , इन तीनों में से तीसरी बात रघुवीर के यहाँ ज्यादा महत्वपूर्ण है –
“यही मेरे लोग हैं
यही मेरा देश है
इसी में रहता हूँ
इन्हीं से कहता हूँ
अपने आप और बेकार
लोग लोग लोग चारो तरफ हैं मार तमाम लोग
खुश और असहाय
उनके  बीच में सहता हूँ , उनका दुःख”[6]
     कविता में एक पंक्ति आई है ‘खुश और असहाय ।’ यह एक साथ असंभव है । लेकिन राजनीति ने ऐसी परिस्थितियाँ  पैदा कर दी थीं कि जनता कुछ भी कर सकने की स्थिति में नहीं थी । उसे  सारे अधिकारों से वंचित करके महज वोट देने के अधिकार तक सीमित कर दिया गया था ।
          आजादी के बाद से ही भारतीय लोकतंत्र और राजनीति गुलामी का स्वातंत्र्योत्तर स्वरुप गढ़ने में लगी रही । भारतीय राजनीति जनपक्षधरता की बजाय जनता की अज्ञानता,निरक्षरता और जातीय, धार्मिक व राष्ट्रीय भावनाएँ  भड़काकर उनसे  समर्थन और वोट बटोरने के जुगाड़ में लगी रही। अधिनायकवादी राजनीति ने अपना भव्य रूप दिखाकर जनता में भय पैदा कर दिया, जबकि होना यह चाहिए था कि वह जनता में आशा और विश्वास का संचार करती। भय के साथ ही साथ जनता के मानस में तामझाम वाले नेताओं और राजनीतिक व्यवस्था के प्रति अतार्किक आदर भी पैदा हुआ। रैलियों , जुलूसों और बड़े-बड़े प्रदर्शनों के सहारे चल रही राजनीतिक व्यवस्था का रघुवीर सहाय ने ‘अधिनायक’ कविता में सटीक वर्णन किया है -
“कौन कौन है वह जन- गन - मन
अधिनायक वह महाबली
डरा हुआ मन बेमन जिसका
बाजा रोज बजाता है”[7]
  अधिनायकवादी व्यवस्था से डरी हुई जनता किस तरह मानव विरोधी स्थितियों का गुणगान करने के के लिए मजबूर है, यह ‘अधिनायक’ कविता में रोचक ढंग से प्रस्तुत किया गया है। ऐसी अधिनायकवादी राजनीतिक व्यवस्था में मनुष्य मनुष्य न रहकर अधिनायकवादी हस्तियों का गुणगान करने वाला उपकरण बन गया। यह व्यवस्था भयवश जनता को उसके अधिकारों से वंचित रखती है। इस राजनीतिक व्यवस्था पर अभय कुमार ठाकुर का विचार  है कि  “भारतीय लोकतान्त्रिक  व्यवस्था की सबसे बड़ी खामी यह है कि इसने एक अनुत्तरदायी समाज की रचना की है। जनता को शासन पद्धति का भागीदार न बनाकर उसे मूकदर्शक बना कर छोड़ दिया है ।”[8] जनता को वोट देने के अधिकार तक सीमित कर दिया गया।  राजनीतिक व्यवस्था और नौकरशाही पर अत्यधिक भरोसा करने के कारण जनता अपना आत्मविश्वास खो चुकी है । वह तमाम परेशानियों के बावजूद खुश रहने की कोशिश कर रही है । उसका विश्वास इस सीमा तक टूट चुका है कि उसे विश्वास ही नहीं हो पा रहा है कि सरकार में उसकी भी भागीदारी है और वह कुछ कर सकती है।
जीवन को ईमानदारी के साथ अभिव्यक्ति देने के लिए रघुवीर सहाय जीवन के यथार्थ से अपने कवि के रिश्ते की पहचान कभी नहीं खोते हैं -
“यही मेरे लोग हैं
यही मेरा देश है
इसी में रहता हूँ
x     x     x
लोग लोग लोग चारों तरफ हैं मार तमाम लोग
खुश और असहाय”[9]
रघुवीर सहाय जिन लोगों से स्वयं को घिरा हुआ पाते हैं , वे खुश और असहाय हैं । एक ही साथ खुश होना और असहाय होना विडंबना है। असहाय होने बावजूद लोग खुश इसलिए हैं क्योंकि उनमें यह चेतना ही नहीं है कि इन परिस्थितियों को बदला जा सकता है। अगर बदलने की चेतना भी थी तो साहस नहीं था। यह स्थिति रघुवीर सहाय में खीझ पैदा करती है –
“भाषा ही मेरी एक मुश्किल नहीं रही
एक मुश्किल है मेरी जनता”[10]
यहाँ रघुवीर सहाय का नफरत नकारात्मक नहीं है बल्कि वह उनकी “खास-खास नफ़रत है ।”[11]



[1]सहाय,रघुवीर. आत्महत्या के विरुद्ध, पृष्ठ-30 
[2]वही, पृष्ठ-91
[3]वही,पृष्ठ-79 
[4]अज्ञेय(सं), दूसरा सप्तक, वक्तव्य-रघुवीर सहाय,पृष्ठ-138
[5]वही,पृष्ठ 138
[6]सहाय,रघुवीर,आत्महत्या के विरुद्ध, पृष्ठ-19 
[7]वही,पृष्ठ-58
[8]ठाकुर,अभय कुमार,रघुवीर सहाय और प्रतिरोध की संस्कृति,पृष्ठ-44
[9]सहाय,रघुवीर, आत्महत्या के विरुद्ध,पृष्ठ-19
[10]वही, पृष्ठ-81
[11]वही,पृष्ठ-44

ईमेल- arvind.yadav488@gmail.com

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