Sunday 16 December 2018

स्त्रियों की चीत्कार : दर्दज़ा



आशीष
(शोधार्थी)पीएच.डी हिंदी
नागालैंड केन्द्रीय विश्वविद्यालय, कोहिमा
मो. नंबर- 9540176311
ईमेल- chunashish@gmail.com

खतना आमतौर पर पुरूषों का किया जाता है। यह मुस्लिम धर्म में 'पाकी' के नाम पर किया जाता है, जिसे वैज्ञानिकों के द्वारा भी इस आधार पर लाभदायक बताया गया है कि इसके द्वारा कई खतरनाक बीमारियों से बचा जा सकता है। वहीँ स्त्रियों के खतना या यूँ कहें सुन्नत प्रथा का बेहद क्रूर,दर्दनाक और अमानवीय चेहरा प्राचीन रिवाज के रूप में अफ्रीका महाद्वीप के मिस्र, केन्या, यूगांडा, जैसे लगभग 30 देशों में यह परम्परा आज भी मौजूद है। सबसे पहले इस प्रथा का विवरण रोमन साम्राज्य और मिस्र की प्राचीन सभ्यता में मिलता है। मिस्र के संग्रहालयों में ऐसे अवशेष रखें हैं जो इस प्रथा की पुष्टि करते हैं। उत्तरी मिस्र को अपनी उत्पत्ति का मूल स्रोत मानने वाले एक समुदाय विशेष के लोग महिला खतना को अपनी परम्परा और पहचान मानते हैं। यही वजह है कि पश्चिमी भारत और पाकिस्तान के कुछ हिस्सों में स्त्रियों का खतना करने का रिवाज आज भी जारी है। यूनीसेफ के आंकड़ों के अनुसार खतना या सुन्ना के कारण महिला जननांग को विकृत करने की यह अमानवीय प्रथा अफ्रीका और मध्यपूर्व के 29 देशों में प्रचलित है और आज विश्व में ऐसी 20 करोड़ महिलाएं हैं जिनका खतना किया गया है।

यह प्रथा विशेषकर बोहरा मुस्लिम समुदाय में है, जिसमें फीमेल जेनिटल अंग को बचपन में ही काट दिया जाता है। दरअसल वह अंग ही स्त्री की मासिक धर्म और प्रसव पीड़ा को कम करता है। इस भयावह क्रिया के अंतर्गत बच्ची के हाँथ-पैर कुछ औरतें पकड़तीं हैं और एक औरत चाकू या ब्लेड से उसकी भगनासा (क्लाइटोरल हुड) काट देती है। खून से लथपथ बच्ची महीनों तक दर्द से तड़पती रहती है। कई बार इस से बच्चियों की मौत भी हो जाती है। इस प्रथा के पीछे की वजह भी हास्यास्पद है जहाँ, अफ्रीका में युवा लड़कियों की शादी तभी होती है,अगर उन्होंने बचपन में खतना करवाया होता है, क्योंकि वहां पर लड़कियों का खतना ही उनके कुंआरे और पवित्र होने का प्रमाण माना जाता है। लड़कियों का खतना करने के पीछे एक संकीर्ण पुरुषवादी मानसिकता जिम्मेदार है ताकि वो लड़की युवा होने पर अपने प्रेमी के साथ यौन संबंध न बना सके।

सघन संवेदनात्मकता और चुनौतीपूर्ण कथाविन्यास के कारण समकालीन कथाजगत में सार्थक हस्तक्षेप करने वाली जयश्री रॉय भूमंडलीकरण के दौर के बाद वाली कथा-पीढ़ी की एक सुपरिचित कथाकार हैं। `अनकही', `तुम्हें छू लूँ जरा', `खारा पानी' और `कायान्तर' नामक चार कथा-संग्रहों तथा `औरत जो नदी है', `साथ चलते हुये', ‘दर्दज़ा’ और `इकबाल' शीर्षक उपन्यासों के बीच फैला उनका रचना-संसार स्त्री-पुरुष संबंधों में व्याप्त जटिलताओं को तो बारीकी से विश्लेषित करता ही है, समय और समाज के हाशिये पर जीने को अभिशप्त लोक-समूहों के जीवन-संघर्ष और स्वप्नों को भी एक सशक्त अभिव्यक्ति प्रदान करता है।

सुपरिचित कथाकार जयश्री रॉय के चौथे और नवीनतम उपन्यास दर्दजा के केंद्र में मुस्लिम स्त्रियों का वह शारीरिक एवं मानसिक दर्द है जिसे वे दशकों से झेलती आ रही हैं| दर्दजा उपन्यास में जयश्री रॉय नयी सौन्दर्य दृष्टि के लिए संघर्ष करती हैं। इस दृष्टि का संबंध केवल अश्वेत प्रजाति के रूप-रंग-व्यवहार से मान लेना ठीक नहीं होगा। उस जीवन की पतनोन्मुखता विश्लेषणों के बीच से श्रम से सँवरते मामूली जीवन की अनेक छवियों को रचते हुए लेखिका उस पूरे परिवेश को हमारे परिचित आत्मीय क्षेत्र में बदल देती है। खानाबदोश जीवन की विशेषताएं वैसी ही सहजता के साथ इस उपन्यास में दर्ज है। जयश्री राय ‘दर्दज़ा’ के माध्यम से अपने पाठकों के सम्मुख दर्द की उस दास्तान को जिंदा कर देती है जिसे देखकर ही शायद शेक्सपीयर याद आते हैं कि नरक खाली हो गया है और सभी शैतान इसी लोक में आ गए हैं।

सुन्नत विभिन्न देशों व समाजों में विभिन्न नामों से जाना जाता है जैसे- इथोपिया में फालाशास, ईजिप्ट में ताहारा, सूडान में ताहुर, माली में बोलोकोली (पवित्र करना), ककिया में बुनडू आदि। यह सर्वविदित है कि मुस्लिमों में खतना होता है परन्तु ‘दर्दज़ा’ पुस्तक में मुस्लिम स्त्रियों के सुन्नत की जीवंत झांकी प्रस्तुत की गयी है जो कि बहुत ही वीभत्स तरीके से किया जाता है। भले ही यह कथा हमारे देश भारत की नहीं है लेकिन इस उपन्यास में बहुत सारी कष्टकारी स्थितियां ऐसी हैं जिसे विदेशी मुस्लिम महिला के समान ही हमारे देश की तमाम महिलाओं को झेलना पड़ता है चाहे वे किसी भी धर्म की ही क्यों न हो।

अभय कुमार दुबे के अनुसार, जयश्री रॉय की कृति दर्दजाके पृष्ठों पर एक ऐसे संघर्ष की ख़ून और तकलीफ़ में डूबी हुई गाथा दर्ज है जो अफ़्रीका के 28 देशों के साथ-साथ मध्य-पूर्व के कुछ देशों और मध्य व दक्षिण अमेरिका के कुछ जातीय समुदायों की करोड़ों स्त्रियों द्वारा फ़ीमेल जेनिटल म्यूटिलेशन (एफ़जीएम या औरतों की सुन्नत) की कुप्रथा के ख़िलाफ़ किया जा रहा है। स्त्री की सुन्नत का मतलब है उसके यौनांग के बाहरी हिस्से (भगनासा समेत उसके बाहरी ओष्ठ) को काट कर सिल देना, ताकि उसकी नैसर्गिक कामेच्छा को पूरी तरह से नियंत्रित करके उसे महज़ बच्चा पैदा करने वाली मशीन में बदला जा सके[1]

इस उपन्यास के केंद्र में एक गरीब मुस्लिम परिवार है जिसमें तमाम बच्चे पैदा हुए- कुछ मरे, कुछ जीवित रहे। उसी परिवार में माहरा भी है। माहरा की बड़ी बहन का जब सुन्नत होता है और घर से बाहर एक झोपड़ी में महीना भर घाव सुखाने के लिए रखा जाता है तब माहरा अच्छे से इस प्रक्रिया को समझ नहीं पाती है। इस दौरान महीने भर घाव सुखाने हेतु अलग झोपड़ी में रखा जाता है, जिसमें से बहुत कम ही लड़की स्वस्थ घर लौट पाती है क्योंकि, सुन्नत की प्रक्रिया के बाद अधिकांश लड़कियाँ हथियार के संक्रमण या सही उपचार की कमी के कारण मर जाती हैं या दीर्घावधि तक झेलती रहती हैं। कुछ का तो मुत्रद्वार हमेशा-हमेशा के लिए ख़राब हो जाता है जिसके कारण पेशाब को रोकना असंभव हो जाता है, जिसके परिणाम स्वरूप वे हमेशा बदबू देती रहती हैं। ऐसी स्त्रियों को घर, परिवार और गाँव से बहार निकाल दिया जाता है और उसे पागल घोषित कर दिया जाता है। इसी तरह की एक स्त्री-पात्र के माध्यम से लेखिका समाज को धिक्कारती है- ...करे कोई और भरे कोई! बदबू आती है मुझसे? घिन आती है? आने दो! मेरे तो शरीर से बदबू आती है, लेकिन तुम सबके रूह से बदबू आती है, तुम सबके सब सड़ गए हो.....कीड़े पर गये हैं तुम सबमें...[2]

उपन्यास की शुरुआत अपने आसन्न सुन्नत की बात सुनकर माहरा के घर से भाग जाने की घटना से होती है| तपते रेगीस्तान के बीहड़ की भीषणताओं के बीच वह अपने बंधु-बांधवों द्वारा पकड़ ली जाती है, नतीजतन वह फिर से अपने घर लाई जाती है और उसका सुन्ना कर दिया जाता है| सुन्ना के दौरान और उसके बाद माहरा अथाह पीड़ा की अंतहीन श्रृंखलाओं से गुजरती है| लेकिन वह उन स्त्रियों में से नहीं है जो दर्द से समझौता कर के गाय-बकरियों की-सी निरीह और परवश ज़िंदगी जीने को ही अपनी नियति मान हमेशा-हमेशा के लिए खुद को व्यवस्था के हाथों सौप देती हैं| वह प्रतिरोध करना जानती है| प्रतिरोध में विफल होने के बावजूद फिर-फिर उठ खड़ा होने का हौसला रखती है| खुद के लिए देखे सपनों को अपनी बहन, बेटी और माँ सहित दुनिया की हर स्त्री की आँख में स्थानांतरित कर हमेशा के लिए उसे जिंदा रखना जानती है| स्त्री-जीवन की तमाम तकलीफ़ों से मुक्ति पाकर एक मनुष्य की तरह जीने का यह सपना माहरा ने खुली आँखों से देखा है और उसे हासिल करने के लिए प्रतिरोध से लेकर विद्रोह तक का हर जतन करती है|

धर्म चाहे जो भी हो सबमें कुछ न कुछ कुरीतियाँ हैं जिसके साथ तर्क-वितर्क करना धर्म के ठेकेदारों को कतई पसंद नहीं हैकोई धर्म तर्क-वितर्क पसंद नहीं करता। एक चीज हर जगह देखने को मिलती है कि धर्म व रीती-रिवाजों के नाम पर स्त्रियों के मन-मस्तिष्क में ऐसा गोबर भर दिया जाता है कि स्त्री ही स्त्री का शोषक बन जाती है| ‘दर्दज़ा’ उपन्यास में लेखिका कहती हैं- लोगों की आँखों में मजहब, रीती-रिवाजों का ऐसा पर्दा पड़ा है कि वे कुछ तार्किक ढंग से सोच ही नहीं पाते।[3] कुछ लड़कियों के द्वारा सुन्ना के बारे में पूछने पर साबीला की दादी कहती हैं- औरत का जिस्म ही पाप का गढ़ है। जहाँ इच्छाएं जन्मती हैं, उत्तेजना पैदा होती है उस हिस्से को शरीर से अलग कर देना ही भला। औरत खता की पुतली होती हैं, हव्वा की बेटियां......इनका भरोसा क्या फिर जिस औरत का सुन्ना न हुआ हो, उसे कौन मर्द अपनायेगा, कैसे उसे भरोसा होगा कि इस औरत ने कोई गुनाह नहीं किया!... जवाब में एक लड़की बोली..क्यों मर्दों को तो यह साबित नहीं करना पड़ता कि वह कुँवारा है या नहीं।[4] वास्तव में उपन्यास में उद्धृत ये पंक्तियाँ, मुस्लिम युवतियों के उस दर्द को बयाँ करती है, जिसे वो न जाने कितनी पीढ़ियों से भोगने को अभिशप्त हैं| धार्मिक अंधविश्वास और कर्मकांड के नाम पर जारी यह क्रूरतम अमानवीय कुप्रथा दरअसल स्वच्छता के आवरण में यौन शुचिता और शारीरिक पवित्रता की पितृसत्तात्मक साज़िशों का नतीजा है, जो स्त्री देह और उसकी यौनिकता को अपनी संपत्ति मानती है।

माहरा जहीर की संभवतः चौथी बीबी बन के जाती है। सम्भोग करने के दौरान माहरा चिल्ला उठी जैसे लगा उसके भीतर कोई खूंटा ठोक दिया हो और अब प्राण नहीं बचेंगे, क्योंकि अभी उसके गुप्तांग का उचित विकास भी नहीं हुआ था, लेकिन इधर जहीर मुस्कुरा रहा था और गर्व महसूस कर रहा था जैसे किला फतह किया हो। इसके बाद वह बाहर चला जाता है और माहरा तड़पते हुए कब सो गयी या बेहोस हो गयी पता ही नहीं चला। सुबह जब उसे जगाया गया तो देखा कि कमरे में माँ सहित कई औरतें बिस्तर पर गिरे खून को देख कर बधाईयाँ दे रही हैं। माहरा बाद में उस घर में जो अनुभव करती है -मेरे औरत होने ने मुझे खत्म कर दिया है जैसे मैं खुद को ढ़ोती हूँ और प्रतिपल जीने की कोशिश में मरती हूँ. जाने क्यों इस दुनिया के बाशिंदों ने जीवन को मृत्यु का पर्याय बनाकर रख दिया है| मौत से पहले भी मौत! एक बार नहीं, कई बार.....बार-बार![5] इस उपन्यास में दर्द जिस सघनता के साथ अभिव्यंजित हुआ है, ऐसा अन्यतम उदाहरण मिलना मुश्किल है| जयश्री रॉय ने स्त्रियों के खिलाफ होने वाले इस अत्याचार की भीषण यातना को उसी अंतरंग आत्मीयता और मारक प्रभावोत्पादकता के साथ दर्दजा में पुनर्सृजित किया है| यह उपन्यास इस अमानवीय त्रासदी के खिलाफ एक समर्थ और मानीखेज विद्रोह और प्रतिरोध की आवाज़ के रूप में अपनी उपस्थिति दर्ज कराता है|

प्रसिद्ध तेलुगू लेखक तापी धर्माराव की चर्चित पुस्तक इनपकच्चडालु, जिसका हिन्दी अनुवाद डॉक्टर सी वसन्ता ने लोहे की कमरपेटियाँ शीर्षक से किया है, में तेलुगू की एक लोकोक्ति का उल्लेख किया गया है -  मुद्र मुद्र लगाने उंदि मुगुशुरु पिल्ललनि कन्नदि यानी, मुहर ज्यों की त्यों है, और वह तीन बच्चों की माँ बन गई|
‘दर्दज़ा’ महीन संवेदनात्मक बुनावट का उपन्यास है| संवेदना का रस इसके रग-रेशे में नमक और चीनी की तरह घुला हुआ है| इस उपन्यास के कथात्मक विस्तार को मोटे तौर पर तीन भागों में बांटकर देखा जा सकता है: पहला हिस्सा माहरा के सुन्ना-प्रसंग से शुरू होकर उसकी शादी तक का है तो दूसरा हिस्सा उसके ससुराल जाने से लेकर उसकी माँ की मृत्यु तक का| तीसरा हिस्सा माहरा की बेटी मासा के दस साल की होने के बाद से लेकर उसकी मुक्ति तक यानी उपन्यास के अंत तक का है| इन तीनों पड़ावों के बीच मुख्य कथा के समानान्तर घटित होने वाली छोटी-बड़ी कई महत्वपूर्ण घटनाएँ और इस क्रम में पात्रों के आपसी सम्बन्धों का सघन संजाल है जो संरचना के स्तर पर इसे एक मजबूत औपन्यासिकता प्रदान करता है| दर्दज़ा की विशेषता इस बात में नहीं कि यह स्त्री खतना संबंधी तकलीफ़ों को बहुत संवेदनशीलता से दर्ज करता है बल्कि इसकी विशेषता इस बात में निहित है कि यह धार्मिक आडंबरों और कर्मकांड की आड़ में समूर्ण स्त्री समाज पर आरोपित पितृसत्तात्मक आचार संहिताओं का प्रतिरोध करते हुये उसे हर कदम पर चुनौती देता है |

संक्षेप में, परकाया प्रवेश की विलक्षण लेखकीय क्षमता और संवेदना की सघनतम तीव्रता के संयुक्त रसायन से निर्मित दर्दजा का प्रभाव इतना सूक्ष्म और मारक है कि वह किसी पाठक के आलोचकीय विवेक को लंबे समय तक अपने गिरफ्त में ले सकता है| उपन्यास में व्यंजित स्त्रियों की तकलीफ पाठकों के लिए इस कदर अपनी हो जाती है कि, इसे पढ़ते हुये पाठक को अपने स्थान और काल का भी भान नहीं रहता| नतीजतन अपने वजूद और लिंग से मुक्त हो वह कब खुद ही उपन्यास की मुख्य चरित्र माहरा में तब्दील होकर माशामें अपनी बेटीका चेहरा देखने लगता है, उसे भी पता नहीं चलता| पाठ के दौरान किसी पाठक को भोक्ता में तब्दील कर देना और कृति की चिंता को पाठक की निजी चिंता में बदल देना, इस उपन्यास एवं उपन्यासकार की सबसे बड़ी विशेषता है| जयश्री रॉय ने इस उपन्यास में पीड़ा से प्रतिरोध तक की संघर्ष यात्रा को कलात्मक रचनाधर्मिता के साथ पुनराविष्कृत किया है |

सन्दर्भ-सूची
1.      रॉय, जयश्री . (2016) . दर्दज़ा . नयी दिल्ली: वाणी प्रकाशन . प्रथम संस्करण . ISBN- 978-93-5229-266-0
3. बिहारी, राकेश . (फ़रवरी 26, 2017 ) . दर्दज़ा . समालोचन (ऑनलाइन पत्रिका) https://samalochan.blogspot.com/2017/02/blog-post_26.html




[1]  http://www.vaniprakashan.in/details.php?lang=H&prod_id=7847&title
[2] रॉय, जयश्री . (2016) . दर्दज़ा . नयी दिल्ली: वाणी प्रकाशन . पृष्ठ सं. 174
[3]रॉय, जयश्री . (2016) . दर्दज़ा . नयी दिल्ली: वाणी प्रकाशन . पृष्ठ सं. 77
[4] वही, पृष्ठ सं. 59
[5] रॉय, जयश्री . (2016) . दर्दज़ा . नयी दिल्ली: वाणी प्रकाशन . पृष्ठ सं. 60

Thursday 16 August 2018

समकालीन व्यंग्य की चुनौतियां / डॉ अतुल चतुर्वेदी



समकालीन व्यंग्य इन दिनों संक्रमण के दौर से गुजर रहा है । संक्रमण के दौर से इसलिए क्योंकि वहां बहुत कुछ नया बन रहा है व्यंग्य के नए सर्जक आ रहे हैं और बहुत कुछ पुराने मिथ टूट भी रहे हैं । आखिर हो भी क्यों न व्यंग्य की विरासत यदि आप व्यंग्य के सही और वर्तमान स्वीकृत रूप में माने यानि की गद्य व्यंग्य की तो आज वो सन् 60 से लगभग आधी सदी की यात्रा तय कर चुकी है और पचास सालों में नदी से काफी पानी बह जाता है । इस समय व्यंग्य की लगभग पांच पीढ़ियां एक साथ काम कर रही हैं ।समकालीन व्यंग्य के समक्ष इस समय कई चुनौतियां हैं । ये चुनौतियां उसे कई तरफ से मिल रही हैं विधा के स्वरूप को लेकर उसकी आलोचना के मानदंडों को लेकर और इन सबसे ज्यादा लोकप्रियता के चलते उसमें हो रही भारी घुसपैठ को लेकर जिसने उस विधा में भारी भगदड़ सा माहौल बना दिया है । हम जानते हैं कि व्यंग्य इस समय की सर्वाधिक लोकप्रिय विधा है और राजनीतिक , सामाजिक , धार्मिक  परिस्थितियों के चलते उसके फलने फूलने की गुंजाइश भी काफी है । उसके सामने खुला मैदान पड़ा है , कच्चे माल की कमी नहीं है । पत्र पत्रिकाओं और सोशल मीडिया के प्रचार-प्रसार के चलते प्रकाशन के अवसर भी अनगिन हैं । यश और धन भी कम नहीं है कम से कम दूसरी विधाओं के चलते तो स्थिति संतोषजनक है ही । जाहिर है ऐसी स्थिति में किसी विधा में कई संकट और चुनौतियां खड़ी होनी ही हैं । व्यंग्य भी इन्ही समस्याओं और प्रश्नों से रूबरू हो रहा है । व्यंग्य को अपनी ये बेड़ियां स्वयं तोड़नी होंगी और इन प्रश्नों के उत्तर स्वयं ढूंढने होंगे व्यंग्य यूं भी किसी अवतारवाद में विश्वास नहीं करता है । वो तो मूर्तिभंजक है , किंगमेकर नहीं । वो परंपरा ध्वसंक है , मठध्वसंकर्ता है अनुगामी नहीं । लेकिन हम देख रहे हैं कि साहित्य की दूसरी विधाओ की तरह व्यंग्य में भी मठाधीशी शुरू हो गयी है । अपने अपने प्रिय रचनाकारों को लांच किया जा रहा है । दूसरे संभावनाशील व्यंग्यकारों को या तो अनदेखा किया जा रहा है या फिर उन पर जानबूझकर प्रश्न चिह्न लगाए जा रहे हैं । व्यंग्य के क्षेत्र में ऐसे स्वनामधन्य आलोचक घुस आए हैं जिनको व्यंग्य क्या साहित्य की बेसिक समझ तक नहीं है वो पूरे जोर शोर से अपनी ढपली पीट रहे हैं और पसंद नापंसद बता रहे हैं । व्यंग्य माना कि एक विद्रोही विधा है और व्यंग्यकार समाज के आलोचक लेकिन क्या किसी भी विधा में इतना अराजक माहौल ठीक है ? क्या व्यंग्य के लेखकों को मिल बैठकर और उसके समीक्षकों को कुछ आलोचना और विधागत न्यूनतम सहमति कार्यक्रम नहीं बनाना चाहिए कि किसे हम व्यंग्य कहेंगे और किसे नहीं ? व्यंग्य के नाम पर कूड़ा करकट  कब तक परोसे जाएगा  भला ? जहां तक विधा की प्रतिष्ठा का प्रश्न है व्यंग्य को पर्याप्त प्रतिष्ठा मिल चुकी है हालांकि ये प्रक्रिया राग दरबारी को साहित्य अकादमी पुरस्कार मिलते ही शुरू हो चुकी थी लेकिन फिलहाल व्यंग्य के क्षेत्र मे  स्थापित नए पुरस्कार और ज्ञान चतुर्वेदी को पद्म श्री मिलने से व्यंग्य की प्रतिष्ठा में अभिवृद्धि ही हुयी है । व्यंग्य में हास्य और व्यंग्य वाला मुद्दा भी अब बासी हो चुका है । कुछ रचनाकार और व्यंग्य में हास्य को त्याज्य मानते हैं और उससे परहेज करते हैं लेकिन हास्य की उपस्थिति अनिवार्य तो नहीं कही जा सकती है लेकिन यदि ह्यूमर रहता है तो पाठक रचना के प्रति एकाग्र रहता है और रोचकता बरकरार रहती है । हां ये जरूर है कि वो रचना का उद्देश्य न बन जाए और व्यंग्यकार उसमें रस लेकर अपने लक्ष्य को न भूल जाए जिसपर उसे प्रहार करना है ।  कुछ रचनाकार व्यंग्य में हास्य की उपस्थिति से सहमत कम हैं । जबकि कुछ व्यंग्यकारों  का हास्य के युक्तियुक्त समावेश से परहेज नहीं है । आज का व्यंग्य सुधार की भावना से आया है और वो संहार के बघनखे भी पहने हुए हैं ऐसे में उसमें आक्रोश ही नहीं है वो करूणा और चिंतन भी उत्पन्न करता है लिहाजा वहां पर हास्य की गुंजाइश स्वभावतः ही कम हो जाती है । दूसरी विधाएं जहां मात्र संकेत करके ही रह जाती हैं व्यंग्य दिशा भी बताता है और दायित्वबोध भी । प्रेम जनमेजय साफ कहते हैं कि दिशाहीन और दायित्वहीन व्यंग्य व्यंग्य नहीं हो सकता है । इसी बात को युवा व्यंग्य लेखक  सरोकार के नाम से अभिहित करते हैं । आज के व्यंग्य में आक्रोश के स्वर के साथ साथ चिंतन की गहराई भी है । लेकिन व्यंग्यकारों को फार्मूलाबद्ध लेखन से बचना होगा । सिर्फ शब्दों के खिलवाड़ और निश्चित विषय से हटकर नए विषय भी ढूंढने होंगे । अखबारों में भारी खपत होने के कारण व्यंग्यकार राजनीतिक विषयों पर ज्यादा कलम चलाते हैं वहां वही संभावनाएं हैं । लेकिन कुछ दिनों बाद वो विषय मर जाता है क्योंकि राजनीति तो माया है और माया महाठगिनी हम जानी लेकिन व्यंग्यकार नही जान रहे हैं या शायद जान के भी अनदेखी कर रहे हैं । मैं यह नहीं कह रहा कि अखबारी लेखन बुरा है आखिर शरद जोशी , परसाई , स्वयं ज्ञान जी ने अलग व्यंग्य संकलन की भूमिका में इसकी उपादेयता और सीमा के महत्व को स्वीकारा है और इंडिया टुडे , पत्रिका आदि में लेखन किया है लेकिन वो व्यंग्य लेखन अपनी शर्तों और विषयों के चयन में सावधानी के साथ किया गया है । सही है कि हर नया व्यंग्य लेखक शुरूआती दौर  अपनी शर्तों पर व्यंग्य लेखन नही कर सकता और स्थापित होने में समय लगता है लेकिन कम से कम हम दूसरी पत्रिकाओं में पेशेवर दृष्टि को छोड़कर भी कुछ लिखें भले ही वहां उतनी प्रसिद्धि या धन नहीं मिले तो क्या । ये याद रखिए कि लोकप्रियता व्यंग्य की क्षमता भी है और सीमारेखा भी । व्यंग्य को आज  पाठ्यक्रम में स्थान मिल रहा है , व्यंग्यकारों पर शोध हो रहे हैं , एम फिल में व्यंग्य को लेकर लघु शोध प्रबंध लिखे जा रहे हैं । ये व्यंग्य की बढ़ती स्वीकार्यता का प्रमाण है । उसे लगातार सम्मान मिल रहा है । लेकिन व्यंग्यकार विशेषतः व्यंग्य कवि मंच पर अभी भी वही फूहड़ पत्नी , साली , पुलिस , राजनेता जैसे घिसे पिटे विषयों पर अटके हुए हैं । ये प्रवृत्ति घातक है । नए व्यंग्यकारों ने यद्यपि  मनुष्य की छद्म प्रवृत्तियों , आर्थिक मसलों , अन्तर्राष्ट्रीय विषयों , नयी तकनीक , फिल्म  आदि को लक्षित कर व्यंग्य लिखे हैं जो कि व्यंग्य लेखन के क्षेत्र में विषय की नीरसता और दोहराव को तोड़नें में सहायक सिद्ध हुआ है ।  नए व्यंग्यकार लगातार नयी जमीन तोड़ रहे हैं और उनसे बहुत उम्मीद है उन पर व्यंग्य को पकड़ने की दृष्टि और कहने का तरीका , वक्रोक्ति , समर्थ भाषा सब है लेकिन अभी उनके व्यंग्य संकलनों का इंतजार है । इन व्यंग्यकारों की  यात्रा का लंबा सफर अभी बाकी है और इनसे काफी उम्मीदें है बशर्ते ये व्यंग्य की चकाचौंध और मठाधीशी की अहंकारिता के शिकार न हो जाएं । लेकिन व्यंग्यकारों को  व्यंग्य को विविध रूपों में प्रस्तुत कर अपनी सामर्थ्य का लोहा मनवाना होगा । व्यंग्य एक तात्कालिक प्रतिक्रिया के स्वरूप उभरता है ऐसे में उसमें जल्दबाजी और असावधानियों को संभावना रहती है । खासकर अखबारी व्यंग्य में । अखबारी व्यंग्य त्याज्य नहीं है लेकिन विषय विविधता और शब्द सीमा तथा व्यावसायिकता और होड़ के चलते बहुत सार्थक और लंबी रचनाएं सामने नहीं आ पातीं हैं । व्यंग्यकारों को यह मोह कम करना होगा और सुदीर्घ तैयारी से ठोस रचनाएं सामने लानी पड़ेगी । हमारे आलोचकों को भी परसाई , शरद जोशी , त्यागी की त्रयी से हटकर अब उसके बाद के व्यंग्यकारों पर ध्यान देना चाहिए । उनकी परंपरा के वाहकों ने पर्याप्त सृजन किया है जिस पर हिन्दी के शीर्ष आलोचकों का ध्यान जाना चाहिए । साथी ही व्यंग्यकार अपने आलोचक स्वयं विकसित करें और निष्पक्ष चर्चा और समीक्षा करें तब ही जाकर व्यंग्य का भला होगा । सोशल मीडिया पर फेस बुक और व्हाट्स एप्प पर व्यंग्य के समूह बने हुए है लेकिन कुछ एक को छोड़कर अधिकतर पर बधाई और वाह- वाह की रस्म अदायगी चलती रहती है ।  हां व्यंग्य को लेकर विमर्श का वातावरण और पहल व्यंग्य यात्रा पत्रिका  जरूर करती रही है । अट्टहास, नई गुदगुदी जैसी पत्रिकाएं भी व्यंग्य की अलख वर्षों से  जगाए हुए हैं । इसी संदर्भ में अभी हाल में वरिष्ठ व्यंग्यकार सुरेश कांतद्वारा शुरू की गयी पत्रिका हैलो इंडिया का उल्लेख भी जरूरी है जिसने अपनी चयन सामग्री और सुंदर ले आउट से पहचान बनानी शुरु कर दी है । गोइंनका फाउडेशन की हास्यम व्यंग्यम , व्यंग्योदय , हास्य व्यंग्य वार्षिकी भी यथासंभव व्यंग्य विमर्श और रचनाओं के प्रकाशन के माध्यम से व्यंग्य को चर्चा के केन्द्र में बनाए रखने का ईमानदार प्रयास करती दिखायी देती हैं । परसाई , शरद जोशी , श्रीलाल शुक्ल पर विशेषांक और व्यंग्य को केन्द्र में लाने में व्यंग्य यात्रा का काम ऐतिहासिक रहा है ।  व्यंग्य अपार संभावनाओं की विधा है । व्यंग्य के आगे खुला आसमान है जरूरत है सामर्थ्यवान परिंदों के उड़ान भरने की । व्यंग्य को इलेकट्रानिक मीडिया का भी उपयोग करना चाहिए , नए विषयों को आत्मसात करना चाहिए और इन सबसे बढ़कर व्यंग्यकारों को स्वाध्याय और संतुलित प्रगतिशील दृष्टि रखनी चाहिए यही व्यंग्य की नयी चुनौतियां हैं जिससे उन्हें पार पाना है । व्यंग्य के क्षेत्र में सद्य प्रकाशित संग्रह नए नवेले , व्यंग्य बत्तीसी और अर्चना चतुर्वेदी द्वारा संपादित लेडीज.काम महत्वपूर्ण कदम हैं । महिला व्यंग्यकारों की रचनाओं और उनके लेखन को एक बानगी के रूप में इसमें  प्रस्तुत किया गया है । व्यंग्य समीक्षा में भी राहुल देव, भुवनेश्वर उपाध्याय, अजय अनुरागी, सुशील सिद्धार्थ, रमेश तिवारी आदि से उम्मीद है कि वे भविष्य में सार्थक और निष्पक्ष आलोचना द्वारा व्यंग्य विधा के उन्नयन के लिए उत्कृष्ट प्रयास करेंगे । एक शुभ लक्षण है कि आज व्यंग्य प्रकाशन के लिए कई प्रकाशन समूह आगे बढ़ कर पहल कर रहे हैं वनिका पब्लिकेशन, अमन प्रकाशन, भावना प्रकाशन ने विगत वर्षों में कई नए और स्थापित व्यंग्यकारों को प्रकाशित किया है । यह सब व्यंग्य की बेहतरी की दिशा में निश्चित ही शुभ संकेत है लेकिन व्यंग्यकारों को अपने दायित्वों और लेखन की गुणवत्ता की ओर भी ध्यान देना होगा । जब तक लेखन में जन सरोकार और कथ्य़ में अनूठापन नहीं आएगा तब तक पाठक नहीं जुड़ेंगे । क्योंकि अंततः देर सबेर पाठक की अदालत में ही रचना की लोकप्रियता और स्वीकार्यता से ही उसकी प्रभावशीलता का फैसला तय होता है ।
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380 , शास्त्री नगर - दादाबाड़ी - कोटा , मो. 9414178745

Sunday 1 July 2018

कटाक्ष / सुशील सिद्धार्थ के दो व्यंग्य


चौराहा,बस और तीर्थयात्री


  बस किसी तीर्थ से लौट रही थी।तीर्थ पर लोगों ने अपने अपने पाप वगैरह बहा दिए थे,इसलिए एक हल्के अहंकार के साथ तीर्थयात्री हल्की सी नींद में पुण्य का सपना देख रहे थे।विनती,प्रार्थना, विनम्रता का अभिनय करते करते वे थक भी गये थे।
अचानक बस कांपकर रुक गई तो ड्राइवर ने गर्व से चारों ओर देखा।गाड़ी ठीक से चलती रहे तो लोग ड्राइवर को भूल जाते हैं।कहा भी है '--दुख में सुमिरन सब करैं ।'दुख आ गया। बस चीं चीं कर रुक गई।मुसाफ़िर समझ गये कि हमेशा की तरह खराब हो गई है।उन्होंने उचक उचक कर ड्राइवर को देखना शुरू किया। अपने धर्म का पालन करते हुए ड्राइवर ने बताया कि बस ख़राब हो गई है।कहने लगा, सरकार और बस का कोई भरोसा नहीं।कब क्लच टूट जाए,कब ब्रेक फेल हो जाए।मगर हर ख़राब बात में कोई अच्छी बात भी होती है।इसमें अच्छी बात यह है कि हमारी बस चौराहे से कुछ ही दूर पर रुकी है। यात्रियों को कोई तकलीफ नहीं होगी।खाना, पीना, तफरीह वगैरह की यहां कोई कमी नहीं है।मशीनरी भी करुणावान होती है,यह साबित हुआ।अब आप लोग जाइए।कम्मसकम दो घंटा लग जाएगा।
लोग उतरने लगे।वे दोनों भी उतरे।वे दोनों, यानी कमल और विमल। दोनों पक्के दोस्त थे।कमल कृषि मंत्रालय में काम करता था।विमल टीचर था ।
बाकी जो लोग उतरे उनमें जो पुरुष थे वे निस्संकोच ऐसी ओट की जगहों की ओर चले जहां से वे दिख सकें।पुरुष कहीं भी कुछ भी कर सकता है।अलबत्ता स्त्रियों ने चौराहे का रुख़ किया।
बस तीर्थ से लौट रही थी इसका प्रमाण विरक्त जी को देखकर लगता था।शहर के लोगों की कोशिश रहती थी कि जहां कहीं तीर्थ यात्रा के लिए निकलें विरक्त जी को साथ ले लें।वे ऐसी यात्राओं के पोस्टर ब्वाय थे।...और विरक्त जी भी अपने सात बच्चों को घरपर छोड़कर निकल पड़ते थे।पत्नी से उन्हें कोई ख़ास लगाव न था।बल्कि उनके गुरु का कहना था कि पत्नी पुरुष की प्रयोगशाला है।छोड़ने धिक्कारने लानत भेजने के धार्मिक प्रयोग किसी भी पति को यहीं करने चाहिए। विरक्त जी को देखकर वैराग्य जाग जाता है ।जागने के बाद देर तक कुलबुलाता रहता है।जीवन को समझने का अपना अपना तरीका है।किसी समय एक शव को देखकर राजकुमार सिद्धार्थ को वैराग्य हो गया था।वे बुद्ध हो गये थे।लोग जब विरक्त जी को देखते हैं तो उनसे वैराग्य  लिपट जाता है।उनकी रही सही बुद्धि भी वनवास पर निकल लेती है।
विरक्त जी सधी चाल आते हैं ।सधे तरीके से बैठते हैं। सधी आवाज़ में बोलते हैं ।सधी सधी बातें करते हैं ।वे एक सधे मानव हैं ।उनका जीवन एक सरकस है ।अपने सरकस के वे जानवर और ट्रेनर दोनों हैं ।उनको देखकर भरोसा होने लगता है कि यदि कोई शवासन का लगातार इस्तेमाल करे तो वह शवतुल्य योग्यता प्राप्त कर सकता है।
विरक्त इस शहर के आदर्श पुरुष हैं।आदर्श की परिभाषा भी विरक्त ही बताते हैं।उनका कहना है कि आदर्श वह हो सकता है ,जिसका कोई आदर्श न हो।...विरक्त जी उतरे और उतर कर आस पास से गुजरती या आसपास सामान बेचती महिलाओं पर सत्य के प्रयोग शुरू किए।
कमल विमल ने देखा चौराहे पर भांति भांति की दुकानें थीं।वे दोनों गांव में पैदा हुए थे।मगर शहर में रहते रहते अब गांव उनके लिए अजूबा था।चारों ओर गंवई माहौल था।
वे आगे बढ़े।एक बुढ़िया खीरे बेच रही थी।कमल ने नजदीक जाकर कहा ,'अम्मा,कैसे दिए।' बुढ़िया ने जवाब दिया।रेट शहर से काफी कम था।फिर भी विमल ने गांववाला बनते हुए इसरार किया कि क्या कुछ भी कम नहीं करोगी।बुढ़िया मुस्कुराते हुए बोली कि शहर में भी तो ख़रीदते होगे।तुमको भाव नहीं मालूम।सीधे अपने खेत से लाए हैं।क्या बचता है छोटी सी खेती किसानी में।...ख़ैर दोनों ने दो दो खीरे लिए।और वे नोट दिए जो जेब में रखे रखे बस फटने ही वाले थे।
एक किनारे आकर कमल बोला,' बहुत शातिर होते हैं ये लोग।देखो,अम्मा कहकर पुकारा ।तब भी दाम कम नहीं किए।इंसानियत नहीं है इसलिए भूखों मरते हैं।' विमल ने कहा,'अब धीरे धीरे हमारी ग्रामीण संस्कृति का सत्यानाश हो रहा है।आह,वे दिन कहां गये।' दोनो आहें भरते हुए खीरा खाने लगे।
यात्रियों को अपना अपना समय बिताओ अभियान मिल गया था कि तभी सामने हो हल्ला मचा।लोग लपक लिए।सीन बने तो दर्शक भी होने चाहिए।एक फलवाले के ठेले के पास कुछ हुआ था।एक जवान तारसप्तक में ठेलेवाले को मां बहन की गालियां दे रहा था।गालियां सुर और ताल के अनुसार थीं और भारतीय लोकसंगीत की गरिमा बढ़ा रही थीं।कुछ ही देर में पता चला कि जवान का नाम लल्लन है।कहा जाता है कि उसने स्थानीय नेता की आज्ञा का पालन करते हुए बहुत से लोगों के दिमाग दुरुस्त किए हैं।कोई फुसफुसाए जा रहा था कि देखो कैसा तेज है लल्लन के चेहरे पर।आदमी बत्तमीज हो जाए तो उसकी शोभा बढ़ जाती है।बहरहाल,लल्लन ने उपस्थित भीड़ को हाज़िर नाज़िर जानकर फलवाले से कहा कि कहीं जाना नहीं,मैं लौटकर आता हूं।और तुम्हें यहीं लुढ़काता हूं।ज्योतिषी ने भी परसों कहा था कि इस चुनाव से पहले एक मर्डर कर दूंगा तो हमारे नेताजी जीत जाएंगे।मातारानी तेरी बलि मांग रही हैं।
फलवाले ने एक ओर थूक दिया।बोला,अबे हट।अबे फूट।एक लप्पड़ में मुंह पीछे चला जाएगा।जा और लौट के आ।मुझे कहीं नहीं जाना।और अपने नेता से कह देना,चार किलो सेब के दाम बकाया हैं।इससे पहले कि तुम मेरा मर्डर करो मेरे पैसे तो मुझे मिल जाएं।
यह कहकर फलवाला हंसा।कमल विमल कांप गये।सात्विक और तमाम तीर्थयात्रियों को ईश्वर की याद आ गई।लल्लन गुस्से से तमतमाया और तेजी से एक ओर निकल लिया।अब वह लौटकर सीधे हत्या ही करेगा।ऐसा उसे देखकर लग रहा था।
चारों ओर खुशी की लहर दौड़ गई।लहर दौड़ दौड़कर थक गई तो कुछ लोग फलवाले से सहानुभूति की क्रीड़ा करने लगे।
इतना सुख कमल विमल को अब तक जीवन में नहीं मिला था।इसी ख़ुशी में उन्होंने पास की दुकान पर पकौड़ियों का ऑर्डर कर दिया।सोचा चाय तब मंगाएंगे जब लल्लन लौटकर आएगा।और बाकायदा हत्या शुरू होगी।
कमल बोला,'यार,टीवी शीवी पर शायद कभी खून शून हत्या शत्या देखा हो।मगर आज तक लाइव मर्डर नहीं देखा।' विमल आह भरकर बोला,'टीवी पर भी कहाँ यार दिखाते हैं।जब एक्साइटमेंट गर्म होता है तो तस्वीरों को धुंधला कर देते हैं।यह है मीडिया का हाल।' कमल ने प्रतिरोध किया,' यार हमें टाइम ही कहां।ज़िंदगी से थ्रिल तो थल्ले थल्ले हो गया है।अब पहले से पता चल जाए तो जाके देख ही लें।देखो आज मौका मिले न मिले ।'विमल ने श्रद्धा से आंखें बंद कीं।श्रद्धा में अक्सर आंखें बंद हो जाती हैं।विमल ने हांथ जोड़े ,माथे से लगाए।सिर ऊपर करके करुणा भरे स्वर में बोला ,'शुभ शुभ बोलो यार।ईश्वर की कृपा होगी तो आज लाइव मर्डर देखने को मिल जाएगा।बाकी ऊपर वाले की मर्जी।' अब कमल भी भावुक हो गया,' हां यार,जिसने आंखें दी हैं वह लाइव मर्डर भी देगा।'
...फलवाला बेपरवाह अपनी दुकानदारी में लगा था।उसकी जगह मौक़े की थी।लोग जब फलवाले से कभी इस बात का ज़िक्र करते तो वह बेपरवाही से कहता कि जगह का भी मुकद्दर होता है।बेपरवाही उसका स्वभाव था।जैसे अभी वह सोच रहा होगा कि आने दो लौंडे को।मरना होगा तो मर लिया जाएगा।
कुछ दूर पर खड़ा सिपाही संत भाव में जा चुका था।उसे बातों में कोई रुचि न थी।वह आचरण पर भरोसा करता था।उसका मानना था कि कर्म करो और फल की इच्छा पुलिस पर छोड़ दो।लल्लन ने सिपाही को भी एकाध बार हूल दी थी।सिपाही ख़ुश था कि आज बहीखाता दुरुस्त कर लिया जाएगा।
एक तरफ एक धार्मिक युवक बता रहा था कि आपलोग हैरान परेशान न हो। सब पहले से तय होता है।जैसे यह तय था कि यहीं बस खराब होगी,यहीं चौराहा होगा,यहीं फलवाले से लल्लन का झगड़ा होगा। युवक का यह भी कहना था कि मौका न चूकना।अपने साथ मौका ए वारदात की फोटो ज़रूर ले लेना।बच्चों को यह समझाने में आसानी होगी कि सब पहले से तय होता है।...युवक ने देखा कि कुछ लोगों के चेहरों पर अविश्वास का भाव है।उसने मुस्कुरा कर कहा कि अपनी बात को प्रमाणित करने के लिए मैं एक प्राचीन कथा सुनाता हूं।छविपुराण का चौथा अध्याय है।सुनो।युवक ने शुरू की कथा।...आज फिर यमराज चकित थे।सावित्री उनके भैंसे के पीछे पीछे बदहवास लुटी पिटी भागती आ रही थी।उनका हृदय करुणानिधान हो गया।अहा! आज कलियुग में भी इतनी पतिव्रता स्त्री! भारतभूमि तू महान है।
यमराज ने भैंसे को न्यूट्रल गियर में डालकर ब्रेक लगाया।सावित्री पास आ गयी।यमराज बोले,'बेटी सावित्री,  मैं तुम्हारी..।' सावित्री ने हांफते हुए टोका ,'ऐसा है, मुझे सैवी कहकर बुलाइए।सावित्री डाउनमार्केट नाम है।' यमराज मुस्कुराए,' हे सैवी,तुम क्यों मेरा पीछा कर रही हो।क्या सत्यवान के प्राण चाहिए।मैं ख़ुश हूं।जो मांगना हो मांग लो ।बोलो।' सावित्री बोली,'अंकल यम्मू, प्राण पी रखे थे इस सत्तू ने मेरे।मेरा इसका ब्रेकअप तो वैसे भी होने वाला था।' यमराज असमंजस में पड़ गये,' तो तुम मेरे पीछे पीछे क्यों दौड़ रही हो।' सैवी ने मोबाइल आगे करते हुए कहा ,' यम्मू अंकल ,मुझे आपके क्यूट भैंसे के साथ एक सेल्फ़ी लेनी है।बस।फिर आप सत्तू के प्राण चाहे जहां ले जाइए।' भैंसा कंघी निकालकर अपने बाल ठीक करने लगा।
इस पौराणिक कथा से यह नैतिक शिक्षा मिलती है कि शरीर नश्वर है।सेल्फ़ी ही सत्य है।आज लल्लन जो हत्या करेगा वह नश्वर है।हमारे तमाम फोटो इसे शाश्वत बनाएंगे।


लोगों ने सोचा कि नाश्ता वाश्ता कर लें।भूखे पेट मर्डर का मज़ा नहीं आएगा।...सब निपट गया।अब प्रतीक्षा असह्य हो चली।लोगों का अगाध विश्वास था कि लल्लन लौटकर आएगा।कुछेक स्थानीय लोग उसके गुणों का स्मरण कर रहे थे।एक कह रहा था कि साहब,यह जो कहता है कर गुजरता है।थोड़ी देर तक गुणगान होता रहा।लल्लन का दूर दूर तक अतापता नहीं।
अब कुछ स्थानीय और कुछ तीर्थयात्री मिलकर कहने लगे। कि अरे अब कोई अपनी जबान का पक्का नहीं रहा।सब जबानकबड्डी खेलते हैं।अरे जब कहा था कि अभी आकर सिर नहीं फोड़ा...तुम्हारा खून नहीं बहाया तो मेरा नाम लल्लन नहीं।तो आकर यही सब करना था।फिर यही लोग कहेंगे कि सरकार में आने से पहले फलां पार्टी ने जो वायदे किए थे वे पूरे नहीं किए।अरे तुमसे अपना वादा तो पूरा होता नहीं।....चारों ओर अफ़सोस था।लोग हताश थे।निराश तो पहले से हो रहे थे।
...ड्राइवर चिल्ला रहा था।बस चलने वाली थी।सात्विक जी,धार्मिक युवक और बाकी लोग धर्मयात्रा का फल न मिल पाने के दुख से भर गये थे।
फलवाले के पास से एक महिला अपनी बेटी के साथ निकल रही थी।कमल विमल दोनों उसकी बेटी को देखने लगे।हालांकि उम्र में वह इन दोनों की बेटियों के बराबर ही होगी।पर बेटी किसी दूसरे की हो तो एकाध बार आंखों को सेंक लेने में नुकसान क्या है।
बस चल पड़ी तो कमल ने मुस्कुराकर विमल से कहा,' वाह।क्या छोटे छोटे सेब थे यार।' बस में किसी ने जैकारा लगाया।फिर भजन गाने लगा।वे दोनों अब साथ साथ  भजन गा रहे थे।


बूड़ा बंस कबीर का 


कबीर बाजार से कई बार वापस आ चुके थे।बाज़ार और उनका पुराना रिश्ता था।मगर आज उनके मन में अजब सा ख़ौफ़ था ।पहले इसी बाज़ार में वे लुकाठी लेकर आए थे।इसी बाज़ार में उन्होंने सबकी ख़ैर मांगी थी।यह भी कहा था कि ना काहू से दोस्ती ना काहू से बैर।एक बार तो ताव में आकर कह दिया था कि जो घर फूंकै आपना चलै हमारे साथ।तब लोगों ने समझ भी लिया था ।
लगता है वह वक्त कहीं चला गया।क्योंकि पिछले दिनों इसी बात ने उनको लगभग तबाह ही कर डाला था।कबीर ने आदत के अनुसार घर फूंकने वाली बात बाज़ार में दोहराई थी।फिर कबीर वापस घर पहुंचे।तो दो नौजवान उनकी झोपड़ी फूंकने की तैयारी कर रहे थे।उन्होंने हैरत से पूछा कि भाई यह क्या गोरखधंधा है।नौजवान बोले थे कि आपके घर को हम अपना ही घर मानते हैं।और यही मानकर इसे फूंकने आए हैं।इसके बाद आपके साथ चलेंगे,जहां चलिए।
कबीर समझ गये कि अपना घर फुंकने की नौबत आ जाए तो माया के महत्व को मान लेना चाहिए।कबीर ने उस दिन समझा बुझा कर किसी तरह अपना झोपड़ा बचाया था।
बाद में कमाल की अम्मी से दुखड़ा रोया तो उसने लठ्मलठ्ठा शुरू कर दिया।सूत कपास तो पहले से ही घर में बहुत था।उसने कहा,जितना औरतों के खिलाफ तुमने बोला है उसे देखते हुए मैं तुमको कब का छोड़ गयी होती।नारी की झाईं परत अंधा होत भुजंग,कबिरा तिन की कौन गति नित नारी के संग।बताओ,कोई बात है भला।
कबीर खीझ उठे।अरे इसका कोई ख़ास मतलब है भागवान।यह एकदम सीधा सादा मामला नहीं है।अब क्या समझाऊं तुमको।
कबीर उदास हो उठे।कैसा समय है यह ! अचानक उनको याद आया कि अब तक कमाल बाज़ार से वापस नहीं आया है।कहां रह गया।बहुत मुश्किल से तो तैयार किया कि अच्छा काम है।अपने पिता की परंपरा आगे बढ़ाओ।कुछ दोहे अपने रटवा दिये थे।ख़ुशी की बात है कि अब ख़ुद भी कुछ कह लेता है।
अब कमाल बाज़ार जाता है।बाजार में वही सब दोहराता है जो पिता कहते आए बरसों से।परसों कह रहा था कबीर से।कि जो तुमने सिखा पढ़ा के मुझे तैयार किया वह एक दिन मेरी जान लेके रहेगा।...आज भी बाज़ार गया था।अभी लौटा नहीं है।कबीर परेशान हैं।मन बहलाने के लिए दोहा पद बनाने में मशगूल होना चाहते हैं।मन भटकता है ।
जब सच्ची विपदा सामने हो तो सारा चिंतन धरा रह जाता है।कबीर से ज़्यादा कौन जानेगा कि दुनिया सेमल का फूल है।रहिना नहीं देस बिराना है।मगर कबीर यह भी जानते हैं कि ज़माना बदल गया है।अब लोग सुनते नहीं।हंसने और डसने पर उतर आते हैं।कहीं कमाल को कुछ हो न गया हो! कबीर कांप जाते हैं।यह कुंडलिनी जागरण का कंपन नहीं है।यह समाज के सोते चले जाने की बात सोचकर उपजा कंपन है।
...अचानक कुछ आहट हुई।कमाल लहूलुहान था। झोपड़ी में आ गिरा था।साथ में उसका दोस्त साहिब भी था।कबीर को भरोसा नहीं हुआ।दौड़कर बेटे को थाम लिया।क्या हुआ! फिर किसी ने कुछ कहा। किसी से मारपीट कर दी क्या! 
दर्द में भी कमाल मुस्कुराया।मैं क्या कहके और क्या खाके मारपीट करूंगा।जब मैं कहता था दुनियादारी सीख लूं तो मेरे ऊपर वचन बनाते थे कि बूड़ा बंस कबीर का उपजा पूत कमाल।मैंने तुम्हारी बातें सीखीं।उनको लोगों तक पहुंचाया।और लोग आए दिन मुझे पीट रहे हैं।तुम्हारे वचन कोई नहीं समझ रहा।।ऐसा ही रहा तो एक दिन लोग मुझे मार डालेंगे और तुम्हारा वचन सच हो जाएगा।तुम्हारा वंश डूब जाएगा।
हुआ क्या! पूछा कबीर ने।
यह हुआ,बता रहा है कमाल।तुम कहते हो ना कि अरे इन दोउन राह न पाई।दोनों ने राह पा ली है।बल्कि दोनों की राह एक हो गयी है।दोनों  मिल गये हैं।सियासत में दोनों  का एक ही मक़सद हो गया है।जो लोग नुमाइंदगी कर रहे हैं वे लोग यह कहते हुए डरते हैं।तुम नहीं डरे।मुझसे भी कहा कि मत डरो।मैं नहीं डरा।आज बाज़ार में दोनों तबके के लोगों को समझा रहा था।घर की चकिया वाला सुनाया।फिर ता चढ़ि मुल्ला बांग दे वाला सुनाया।दोनों तबकों ने बराबर कथा सुनी।फिर एक पंडित और एक मुल्ला की सदारत में दोनों ने बराबर बराबर दक्षिणा दी।साहिब ने बचा लिया।बच के भागा वरना इतनी दक्षिणा मिलती कि जीवन की झोली फट जाती।चलो यहां से भाग चलते हैं।तुमने जो सिक्के मुझे दिए हैं वे दुनिया में चलते ही नहीं।तुम्हारी बुनी चादरों में माल लपेट कर लोग भागे जा रहे हैं।
कमाल की तीमारदारी करते हुए कबीर ने साहिब से कहा कि बेटा,तो क्या अब मेरी ज़रूरत किसी को नहीं।क्या मेरे सपनों का कोई मतलब नहीं।मैंने सुना कि किसी बड़े आदमी ने सपने देखने की हिमायत की थी। कहा था कि सपने वे होते हैं जो आपको सोने नहीं देते।इसीलिए तो मैंने कहा कि सबको बदलने के लिए सपना देखना चाहिए।
साहिब ने कमाल के माथे पर हाथ रखा।चचा, आप बहुत भोले थे।वक्त बदलता है तो सब बदलता है।सपने भी।ज़िंदगी भी।सपने क्या होते हैं मुझसे सुनिए।आज की हकीकत सुनिए।
सपने वे होते हैं जिनको पूरा करने के लिए आप पूरे मुल्क को चैन से सोने नहीं देते।बस एक बार सपना आ जाए कि सबको पछाड़ कर आगे निकलना है।फिर ऐसा धोबीपछाड़ कि शराफत के कपड़े तार तार।कोई शरीफ आगे निकल भी नहीं सकता।शरीफ को शरीफा मानकर कोई भी गपक लेता है।
सबसे पहले लंगड़ी मारकर कुछ लोगों को लंगड़ा बनाना।फिर उनको  मंडल या कमंडल थमा देना।खुद अपार शब्दों के भंडार की चाभी थाम लेना ।क्योंकि बातें हैं बातों का क्या।हमारे लोग बातपसंद हैं।बातें अच्छी करने वाले लोग जेब काट ले जाते हैं।बल्कि बातों पर रीझकर अगला ख़ुद कह उठता है कि भाई ये लो कैंची और कतर लो।
चचा,जेब काटने वाला महात्मा ही मुल्क की आत्मा पहचानता है।कुछ ऐसा घट रहा है कि भयानक दलदल में धंस रहा आदमी भी किनारे पर हो रहे तमाशे का मज़ा ले रहा है।
कबीर परेशान हुए।तो क्या,हमारे जैसे लोगों के समझाने बुझाने का कोई असर नहीं हो रहा?साहिब हंसा।रोना हर समय इसी का है।कि यह किताब पढ़ो,यह सीखो,वह जानो।मगर फैसला जाति बिरादरी पर ही होता है ।तो खेल शुरू।जाति धरम,मजहब इलाका  सबको बेचना शुरू।जिसका माल नहीं बिका वो ईमानदार।बिक गया तो सब बेचने का हुनर आ गया ।सबसे बिकाऊ माल है धरम ...इन्सानियत।आदमी मर जाए... मिट जाए मगर धरम न  मिटे।मजहब रहना चाहिए ।भले ही मदरसों में घुसकर फूल जैसे मासूमों को लोथड़ों में बदल दिया जाए ।यही सिखाया है हमें मिटाने वालों ने।
कबीर की आंखें भर आईं।मजहब तो ख़िदमत के लिए है।अब कमाल हंस पड़ा।अब्बा,ख़ूब ख़िदमत हो रही है।बिक रही है।बिके कैसे! यह सवाल है।लिहाजा वह मजहबी पागलपन की डलिया में सजाई जाती है।फिर बाज़ार दरबार में पेश  की जाती है।
कबीर ने पूछा,कमाल बेटा यह मजहबी पागलपन क्या है?कमाल की आंखों में दर्द दिखा।तो सुनो वह है चुपके चुपक आग लगाने का मंतर।वह है सामने वाले को नाली के कीड़े की तरह देखने की सलाहियत ।ऐसा कुछ दानिशमंद लोगों ने बताया।...ख़िदमत की बिक्री ठीक हो जाए तो पैसा भी इज़्ज़त भी।
कबीर बुदबुदाए।धरम और मज़हब ये सब कर रहे हैं तो हमारे रहनुमा क्या कर रहे हैं! 
चचा,वे ख़्वाबों की खेती कर रहे हैं।सपनों का सोना दिखाकर अवाम को ललचा रहे हैं।वे
एक एक कर होशियारी की पेटी से निकालते हैं सपने।वायदों की बीन पर झुमाते हैं ।अवाम  का मन डोल रहा है।तन डोल रहा है।मन की बात वाली धुन बीन पर बज रही है।तन डोलने के लायक बचा है अभी।आगे का पता नहीं।बचेगा कि नहीं।कुछ लोग तन कर खड़े हैं।उनके लिए सियासत और मजहब मिलकर इंतेज़ाम कर रहे हैं।कुछ दिक्कत तो होगी।सबसे ज़्यादा ज़रूरी है शरम लिहाज का खत्म होना।आंख का पानी मरते मरते मरता है।उन लोगों का कहना है कि हमने एक ऐसी करिश्माई  दवा मंगाई है कि बच्चों के पैदा होते ही,या सियासत में दाखिल होते ही या मजहब और धरम की दुकान खोलते ही उनकी आंखों को पिला दी जाएगी।फिर कैसे सपने आएंगे,इसका तसव्वुर किया जा सकता है।आप ही बताओ।
...कबीर कहीं दूर देखने लगे।तब तो ऐसे सपने निकल के आएंगे कि आदमी रात रात भर पानी पी पी कर जागेगा। कुछ दिन बाद लोग सपने देखने से डरने लगेंगे।सियासत और मजहब के लिए यह एक आरामदेह बात होगी।फिर धीरे सपने इतना अच्छा बना देंगे कि दुख और सुख में अंतर न रह जाएगा।
कमाल और साहिब कबीर की ओर देख रहे थे।कबीर बुदबुदा रहे थे कि मेरे वंश का बूड़ना तो तय है कमाल। धीरे से कमाल हंसा,मगर मैं तो ज़िंदा हूं अभी।...कबीर रोने की तरह हंसे,मेरे बच्चो! अच्छी बातें मिट जाएं तो सबकुछ डूब जाता है।फिर मैं बचूं तुम बचो,इससे क्या मतलब।मैंने पूरी ज़िंदगी कमाल को जो सिखाया...दुनिया को लेकर जो सपने देखे वह सब ख़त्म हो गया तो कबीर का वंश तो बूड़ ही गया ना!
....अब झोपड़ी में इतनी ख़ामोशी थी कि अगर चींटी के पग में नूपुर बजता तो भी साहिब सुन लेता।यह साहिब नहीं।कोई और साहिब।यह साहिब तो कमाल से लिपट कर सिसक रहा था।और कबीर चरखे से लिपट कर रो रहे थे।

Sunday 24 June 2018

साहित्यिक पंडानामा / भूपेन्द्र दीक्षित



एक
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साहित्य  का क्षेत्र  बहुत  जटिलताएं लिए हुए है।  इसमें  तरह तरह के लोग हैं । उनकी पृष्ठभूमि, उनका वैचारिक स्तर, उनकी ग्राह्यता- सब भिन्न है। ऐसे में  सत्य कभी कभी शत्रु अधिक तैयार करता है। बहुत दिन पहले मैंने एक गीत लिखा था-
झूठ फरेब और मक्कारी पर
जब जब वार किए मैंने।
एक एक सच के पीछे
सौ दुश्मन तैयार किए मैंने।
यह गीत वर्षों बाद भी उतना ही सत्य है।
तो यह साहित्यिक  पंडानामा आरंभ करने से पूर्व  थोड़ा सा पृष्ठभूमि में चलूं। साहित्य की भूमि जितनी विविध और उर्वरा है, इसमें खरपतवार भी उतने ही अधिक हैं। गुटबाजी और प्रतिद्वन्दिता के खर दूषण छाए हुए हैं। आप कितना अच्छा  काम क्यों  न करें, उनके मुँह  में  दही  जमा  रहता है। जब आप उन्हें  साष्टांग दंडवत करें, तो उनका अहं संतुष्ट होता है। उनकी अश्लील और भद्दी कृतियों पर वाह वाह के कूडे के गंधाते ढेर उनकी पंडागिरी को मजबूत करते हैं। उस चक्रव्यूह में अगर कोई राजा को नंगा कहने वाला फंस गया, तो अभिमन्यु की तरह ये साहित्यिक पंडे उसकी साहित्यिक हत्या का षडयन्त्र आरंभ कर देते हैं।

दो
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सीतापुर अवध की शोभा है। अवधी यहाँ का मान है। अवधी कवि होने और अवध की माटी और सीतापुर की साहित्यिक विरासत का गौरवशाली इतिहास होने से आरंभ करता हूँ साहित्यिक पंडानामा को अवधी के मठाधीशों से।
जौन रहै तुलसी अस कवि की ,एक दिन लाड लडैती।
वहि भाषा की हंसी उडाइन, लिखि लिखि लोग भडैती।
इतनी समृद्ध, इतनी समर्थ और इतनी लोकप्रिय भाषा को चुटकुलेबाजी में बदल कर मंचों  पर उपहास  का पात्र  बना देने वाले कवियों  और उनको सराहना  देकर आकाश पर चढ़ा देने वाले अवधी के तथाकथित समीक्षकों  और मठाधीशों  ने अवधी का जितना नुकसान  किया है ,उसकी भरपाई  करने में   वर्षों  लगेंगे। जैसे विदेश में  भारत को भूखा नंगा, संपेरों और भिखारियों का देश बता कर लोगों  ने पुरस्कार  लूटे, ऐसे ही अवधी के समर्थ  और यशस्वी  रचनाकारों को दरकिनार कर भाषाई दिवालिए और छप्पर ,घूरा ,चिरई ,चुनगुन,कदुवा ,लौकी आदि पर लिखने वाले रचनाकारों  को बढ़ावा देकर एक समर्थ  भाषा  को अवनति की ओर धकेलने  की साजिश हुई। पुरस्कार पाने को रचनाएँ लिखी जाने लगीं। जिन पुस्तकों का कहीं अस्तित्व नहीं था, पांच सात प्रतियाँ निकलवा कर लोग पुरस्कृत होने लगे। चाटुकारिता, चरणवंदना का ऐसा दौर चला कि साहित्य कलंकित होकर रह गया।

तीन
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बहुत समय पूर्व दैनिक जागरण में  मेरी एक कविता छपी थी-
जन कवि पडे
सिसकते
फुटपाथों पर
जन भाषा के
व्यवसायी
हैं मंचों पर
अभिनंदन का
स्वांग रचाते
प्रतिबद्ध लेखनी का
उपहास उड़ाते
दुर्गन्धों की महफ़िल
रोज सजाते
देख दशा इन
साहित्यिक चिलुओं की
मन में तो बस यह आता है
आग लगा दूं
चिलुओं से भरी हुई
इस पूरी की पूरी
कथरी को।
तब से एक दशक बीत गया। गंगा में बहुत पानी बह गया। हालात जस के तस। वही घाट। वही पंडे। अवधी की वही दुर्दशा। अवधी का इस्तेमाल होता रहा। लोगों ने अपने अपने ब्रांड बना लिए। अवधी को सीढ़ी बना कर पैसा और साहित्यिक रुतबा कायम किया जाने लगा। जिनका अवधी से कोई सरोकार न था, वे अवधी के मठाधीश हो गये। प्रतिबद्ध लेखक हाशिए पर धकेल दिए गये। रीढविहीन लेखक उनकी गणेश परिक्रमा कर सम्मानित होने लगे। सरस्वती लज्जित हो इस कौरव सभा से बाहर जाने को विवश हो गयी।

चार
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अवधी का क्षेत्र बहुत विस्तृत  रहा है। तुलसी और जायसी से लेकर अद्यतन इसमें साहित्य रचा जाता रहा है। इसमें  वैविध्य स्वाभाविक है। इसके विकास में उन अल्पख्यात लोगों का बडा योगदान है, जो प्रचार और आत्म रति से दूर रह कर इसमें साहित्य रचना करते रहे और अवधी का भंडार भरते रहे। वहीं कुछ लोग ऐसे भी थे, जिनकी वंश परंपरा में कोई रचनाकार प्रसिद्ध हो गया था और उनकी आगे की पीढियां वकील का बेटा वकील, डाक्टर का बेटा डाक्टर, लोहार का बेटा लोहार की तर्ज पर उनकी पत्नी, बेटा, पोती, पोता-सब साहित्यकार हो गये। हालाँकि कुछ प्रतिभाएं अपवाद भी रही हैं, परंतु अधिकांश का लक्ष्य विरासत से कमाना खाना ही रहा। कुछ ऐसी नालायक औलादें भी हैं, जिन्होंने बाप की रचनाएँ अपने नाम से छपवा लीं और बाप लालटेन रह गया और बेटा पावरहाउस हो गया। यद्यपि कुछ संतानें ऐसी हैं, जिन्होंने अपनी विरासत को सहेजा और उस साहित्य को प्रकाशित किया। मित्र जी की बेटी इसका उदाहरण हैं । परंतु अधिकांशतः अपनी दुकान चलाने में ही लगे रहे। साहित्य का जितना नुकसान इन पीढ़ियों के साहित्यकारों ने किया, उतना किसी ने नहीं। जब अयोग्यता को प्रश्रय मिलने लगता है तो प्रतिभाएं नेपथ्य में धकेल दी जाती हैं और सत्साहित्य का बेडा गर्क हो जाता है। अवधी के प्रचुर और उत्कृष्ट साहित्य पर कुछ उच्चपदस्थ लोगों की गिद्धदृष्टि थी। बड़े बड़े विश्वविद्यालयों में बैठकर उन्होंने सर्वाधिक मलाई खाई। उन्होंने कुछ ऐसे प्रतिभावान शिष्य खोजे जो उनके लिए लेखनकार्य करने लगे।

पांच
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बात चल रही थी विश्वविद्यालयों के कुछ मूर्धन्य विद्वानों की, जिनकी दृष्टि अवधी की विशाल साहित्य संपदा पर थी। ऊंचे पदों पर बैठे इन तीर्थध्वांक्षों ने कुछ प्रतिभावान शिष्य छांटे, जो इनके लिए शोध और लेखन करने लगे। धीरे धीरे एक रैकेट तैयार हुआ, जिसने अवधी की मार्केटिंग आरंभ की और नकारे लोगों को स्थापित करने का कार्य  आरंभ किया। जिनका अवधी में कोई अवदान नहीं  था वे द्रोणाचार्यों की परंपरा बढ़ाकर एकलव्यों का अंगूठा काटने में जुट गये। बदले में  उन्हें  पद और पुरस्कार  का लालच दिया गया। कुछ ने तो अपना जीवन ही इन द्रोणाचार्यों के चक्कर में तबाह कर लिया । इनके इतर एक इलीट वर्ग था, जिसकी नजर इस अवधी संपदा पर थी। उसने धन देकर अपनी प्रशस्ति लिखवाई। कुछ उधार के लेखक सतुवा पिसान लेकर इनकी विरुदावली लिखने में जुट गये। रेवडियों की तरह पुरस्कार बंटने लगे।
इन लोगों की राह के सबसे बड़े कंटक थे श्यामसुंदर मिश्र मधुप। वे न सिर्फ अवधी पर शोध करा रहे थे, बल्कि नवीन रचनाकारों को प्रोत्साहन देकर अवधी की नई पौध तैयार कर रहे थे। उनके साहित्यिक अवदान की कोई बराबरी नहीं थी। स्वभाव से अत्यंत विनम्र मधुप जी ने अवधी का इतिहास लिखकर इसकी बहुत बड़ी कमी पूरी की। उनकी मजबूत शिष्य परंपरा में डा.ज्ञानवती ने उनके बाद अवधी का ध्वज थाम कर उसे झुकने नहीं दिया है। भले ही आज अवधी के धंधेबाज मधुप जी के अवदान को सायास भूलने का नाटक कर रहे हों, भले ही अवधी के नाम पर पत्र पत्रिकाएँ निकाल कर अपनी रोटियां सेंकने में व्यस्त होकर उन पर एक अंक भी न निकाल सके हों, जब भी आधुनिक अवधी साहित्य के नींव के पत्थरों की बात आएगी मधुप जी याद किए जाएंगे ।

छः
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साहित्य क्षेत्र  में जब कोई नया लेखक आता है, तो स्थापित लेखकों में खलबली मच जाती है। कुछ उसे चेला बनाने की जुगाड में लग जाते हैं तो कुछ उसकी आलोचना प्रारंभ कर देते हैं और कुछ उसके बारे में अफवाहें फैला कर उसकी छवि बिगाड़ने का प्रयास करने लगते हैं। अगर उसकी कोई किताब छप गयी तो कहीं  कोई अच्छी  समीक्षा न आ जाये ,इसकी जुगत भिडाने लगते हैं। साहित्यिक  समीक्षा  के क्षेत्र  में  भी जोड़-तोड़ और जुगाड का बोलबाला  है। जिसकी समीक्षा  छप जाए माने यह नहीं  कि पुस्तक  बहुत अच्छी  है। माने यह हैं  कि आपके संपादक  से ताल्लुकात अच्छे हैं । कई बार लेखक की बहुत  अच्छी  पुस्तक  पर पत्रिकाओं  में  कोई  चर्चा  ही नहीं  होती और दोयम दर्जे  की पुस्तकों  की फन्ने खां समीक्षा छप जाती है।एक बार एक अखबार  में  सीतापुर  के साहित्यकारों का साक्षात्कार  छापना प्रारंभ हुआ।कुछ लोगों  के खानदान  भर के साक्षात्कार  छप गये।कुछ बेचारे  जीवनभर साहित्य  में  ही रमे रहे,परंतु  संपादक  जी को वे दिखाई  ही नहीं  पडे।यही हाल अवधी समीक्षा  का रहा।दोयम दर्जे की कृतियां  प्रशंसा पाती रहीं  और अच्छी  रचनाएँ  कोने में  धूल फांकती रहीं ।अब कौन पढकर आंखें  फोडने की कुचेष्टा करे,जब बिन पढे लिखे नाम और नामा दोनों  बन रहा   हो।अगर आप किसी ऐसी संस्था  में  हैं  कि कुछ लाभ पहुँचा  सकते हैं , तो आपकी चरणवंदना करने के साथ साथ जो आपको भी न पता हों, उन विशिष्टताओं पर पुरस्कारों  की झडी  लग जाएगी।ऐसे में   बेचारा  सच्चा साहित्यकार-उसके लिए  तो कही  स्पेस ही नहीं । यह ऐसी अंधेरी सुरंग  है जिसमें  अवधी समीक्षा  फंसी हुई  है ।

सात
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साहित्यकार यश की कामना से लिखता है, यह सत्य है। हर लेखक की कामना होती है कि उसकी प्रशंसा हो, उसके सृजन को सराहा जाए। परन्तु कुछ ऐसे धंधेबाजों से साहित्य वर्तमान में घिरा हुआ है कि उनके कारनामो से घृणा उत्पन्न होती है। भाई लोग खुद ही अभिनंदन ग्रंथ लिखते हैं या पैसा देकर कोई किराए का टटटू हायर करते हैं जो हाथ-पैर जोडकर लेखकों से उनकी तारीफ लिखवाता है और खुद के पैसे से खरीदी माला धारण कर वे नारद मुनि की तरह स्वयं के सौंदर्य पर मुग्ध हो उठते हैं। कुछ संस्थाएं तो बाकायदा रेट फिक्स किए हैं, लोकार्पण इतने हजार, सम्मान इतने हजार, शाल वाला सम्मान, मोमेंटो वाला सम्मान, फूलमाला वाला सम्मान-सबकी दर फिक्स है। कुछ आदान-प्रदान वाला सम्मान करते हैं। तू मेरा कर मैं तेरा। कुछ अपनी ही संस्था में अपना ही सम्मान कर लेते हैं। कुछ जिनसे रेडियो टीवी प्रसारण मिल जाता है , उनके महान क्रांतिकारी योगदान पर सम्मानों की झडी लगा देते हैं। माने हरि अनंत हरि कथा अनंता।

आठ
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ज्यों -ज्यों यह श्रृंखला बढ़ती जा रही है, पाठकों की अत्यंत  सकारात्मक  प्रतिक्रियाएं  आ रही हैं और विदेश से भी लोग अपने अनुभव बता रहे हैं । मेरी श्रृंखला  आरंभ हुई थी तो मुझे भी यह उम्मीद  नहीं  थी कि यह जाल विदेश तक फैला होगा।हम तो छोटी जगह के रहने वाले हमारा सीतापुर  साहित्य  और प्राकृतिक  वैभव से समृद्ध है। यहाँ अधिक महत्वाकांक्षा नहीं दिखाई देती। किसी में  कुछ दिखा भी तो सब बैठकर  हंस लेते हैं ।मंच की संस्कृति  और साहित्य  की गुरुता  और गंभीरता  दशकों  बीत गये अलग हो गयी थी।जो गंभीर  साहित्यकार है,वह मंच से उदासीन  है और मंच का अपना नशा  है।सस्ती लोकप्रियता  और धनार्जन -इनके आगे मंच को साहित्य  नहीं  चाहिए ।इसीलिए  अब परिष्कृत  रुचि  के लोगों  ने कवि सम्मेलनों  में  जाना  बंद कर दिया और भद्दी चुटकुलेबाजी ,अभद्र  परिहास  और अमर्यादित आचरण  के कारण प्रबुद्ध  श्रोता  कवि सम्मेलनों  से छिटक गया।अब कवि सम्मेलन कम जवाबी  कव्वाली  अधिक हो गये।मंच पर सजी संवरी बालाएं कवयित्रियां कम और हीरोइन  अधिक  लगती हैं ।पूरा  माहौल मदिरा  से रंगीन  हो तो सरस्वती  का वास वहाँ  कहाँ? तो एक साहित्यिक  संस्कार जो हमारे  मंच देते थे,वह तो रहा नहीं ।दोष हम नयी पीढ़ी  को देते हैं ।बेहूदी और अश्लील  कविताओं  पर वाह वाह  की झडी  लगाने वाले साहित्य  की पंडागिरी  को ही बढ़ावा दे रहे हैं ।भोजपुरी साहित्य  की  पंगत में अवधी को भी लाकर बैठा  दिया गया  है।अवधी  जैसे समृद्ध  और  सुसंस्कृत  साहित्य  से चुनचुन कर अश्लीलता परोसी जा रही है।

नौ
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साहित्य  के विविध  पहलुओं  से गुजरते हुए मुक्तिबोध की कविता  याद आ गयी-
मुझे कदम कदम पर चौराहे
मिलते हैं  बांहे फैलाए
एक कदम रखता हूँ
कि सौ राहें फूटतीं
और मैं  सब पर से
गुजरना चाहता हूँ ।
मुक्तिबोध हों या अन्य  कोई सत्य  मार्ग का अन्वेषी-यह स्थिति  सभी के साथ होती है।मैंने  यह श्रृंखला  आरंभ की थी, तो सोचता था क्या  लिखूं? आज पाठक ही मुझे दिशा  निर्देश  कर रहे हैं  और उन सबकी व्यथा लिखनेका गुरुतर भार  मेरे कंधों  पर है।मुझे नहीं  पता मैं  कहां तक उनकी अपेक्षा  पूरी कर सकूंगा,पर यह सच है कि कोई  अदृश्य  शक्ति  मुझे गंतव्य  की ओर लिए जा रही है।
आज मैं  उन नारियों  का दर्द  लिखूंगा,जो साहित्यिक  अभिरुचि  रखती हैं ।ये साहित्य  के धंधेबाज  उनको आकाश पर पहुंचा देने का दिवा स्वप्न  दिखा कर उनका तरह तरह से लाभ उठाते हैं ।खासकर जेबी  संस्थाओं  के संचालक  ऐसी महत्वाकांक्षी  महिलाओं  से लंबी धनराशि  वसूल कर अपना खर्च  चलाते हैं ।कुछ तो ऐसी महिलाओं  को अपनी पहचान बना लेते हैं ।एक नामचीन  गीतकार  तो महिलाओं  के साथ ही चला  करते थे।यह अलग बात है कि अपने  घरों  में  यह चप्पलों और बेलनों से नवाजे जाते हैं, परंतु  नवोदित  कवयित्रियों  का गुरु  बनने की इनकी चाहत नहीं  जाती।समय समय पर फोन करके ये उनको गुरुमंत्र दिया करते हैं ।मान न मान मैं  तेरा मेहमान  की तर्ज पर ये साहित्य  के ब्लडप्रेशर और डायबिटीज हैं ।इनसे तंग आकर कुछ  घरों  पर लिख दिया  गया  है-*********से सावधान ।

दस
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सम्मेलन है सम्मेलन
गधे पंजीरी बांट रहे हैं
गदहों का सम्मेलन करते
किसी को अध्यक्ष
किसी को मुख्य  अतिथि  बनाते
शाल को  ओढने वाले से
शाल का पैसा वसूल लाते
सम्मेलन  है सम्मेलन ।
आज हम साहित्यिक  सम्मेलनों पर चर्चा  करेंगे ।ऐसे ऐसे महान आयोजक पड़े हैं  ,जो अनपढों  को भी पी-एच डी और डी लिट् की उपाधियां वर्ष  भर में  रेवडियों की तरह बांट देते हैं ।शर्त यह है कि गांठ में  पैसा  हो।एक विदुषी  मुंह बिगाड़  कर बोलीं-बताइये ।मुझे इत्ती बड़ी उपाधि मिली और नगर में  किसी ने चर्चा  भी न की।मैं सोच में  पड गया जिसे दो पंक्तियाँ  शुद्ध  लिखना नहीं  आता उसको यह भारी भरकम उपाधि  देने वाले कितने भारी विद्वान  होंगे ।कई शहरों  में  ऐसी साहित्यिक  संस्थाओं  का जाल फैला है जो पैसा लेकर उपाधियां  बांटती हैं ।कल्पना करें  जिसने अपने श्रम से  ये डिग्रियां हासिल की ,उन पर ऐसे लोग क्या प्रभाव  डालते होंगे? पैसा  लेकर थीसिस तक लिखने वाले   मौजूद  हैं ।हिन्दी  का सबसे ज्यादा  बेडा गर्क इन संस्थाओं  के संचालकों ने किया  है ।अयोग्य  ही अयोग्यता को प्रश्रय देता है।साहित्य  के मंदिर  के इन तीर्थध्वांक्षों ने इतनी गंदगी फैलाई है कि हजारों  झाडुएं उसे साफ नहीं  कर सकतीं ।

ग्यारह
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अखबारों  में  हम पढ़ा करते थे-आज फलाँ  जगह सेमिनार  है।आज वहाँ हिन्दी  सम्मेलन  हो रहा है।फलाने को फलाना पुरस्कार  मिला है।मन गदगद हो उठता ।देखो कितनी हिन्दी  सेवा हो रही है और एक हम हैं  कुछ कर ही नहीं  पाते।हम लोग साहित्य  के क्षेत्र  में  विकसित  होने लगे तो हमारे पास भी दूर दूर से निमंत्रण  आना शुरु हुए।पर एक तो छोटा बच्चा  और हमारा एकल परिवार ।हम बहुत  कम बाहर जा पाते।इस दौरान हमने देखा कि अलग अलग प्रान्तों में   लोग हिन्दी  सम्मेलन  कर रहे थे और साहित्यकारों  से अच्छी खासी रकम वसूल कर उन्हें   एक सर्टिफिकेट पकड़ा  देते -जैसे हिन्दी  गौरव,हिन्दी  भूषण।कुछ तो अपने अम्मा  अब्बा के नाम से पुरस्कार  चला रहे थे।नकद धनराशि  (जो पाने वाले से पहले ही रखा ली गयी होती)भी देने का नाटक होता।एक विश्व  हिन्दी  सम्मेलन  वाले पीछे पडे थे।हमारी  व्यस्त  जिन्दगी  सीतापुर  के हर कोने से परिचित  नहीं  होने दे रही थी विदेश कहां  जाते।पता लगा यह भी भाई लोगों  का धंधा  था।धनी आसामी  खोजकर वहाँ  भी यही खेल था।फेसबुक  पर भी ऐसे दलाल सक्रिय  हैं  ,जो खासकर पैसेवाली महिलाओं  को टारगेट बनाते हैं ।कई देशी विदेशी महिलाओं  का दर्द  सुना  तो यह जरुरी  लगा कि इस साहित्यिक  पंडागिरी से सीधे सादे साहित्यकार  को सावधान  किया  जाए।बडे धोखे हैं  इस राह में ।


बारह
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अखबारों  में हम पढ़ा करते थे-आज फलाँ  जगह सेमिनार  है। आज वहाँ हिन्दी सम्मेलन  हो रहा है। फलाने को फलाना पुरस्कार मिला है। मन गदगद हो उठता ।देखो कितनी हिन्दी  सेवा हो रही है और एक हम हैं  कुछ कर ही नहीं  पाते।हम लोग साहित्य  के क्षेत्र  में  विकसित  होने लगे तो हमारे पास भी दूर दूर से निमंत्रण  आना शुरु हुए।पर एक तो छोटा बच्चा  और हमारा एकल परिवार ।हम बहुत  कम बाहर जा पाते।इस दौरान हमने देखा कि अलग अलग प्रान्तों में   लोग हिन्दी  सम्मेलन  कर रहे थे और साहित्यकारों  से अच्छी खासी रकम वसूल कर उन्हें   एक सर्टिफिकेट पकड़ा  देते -जैसे हिन्दी  गौरव,हिन्दी  भूषण।कुछ तो अपने अम्मा  अब्बा के नाम से पुरस्कार  चला रहे थे।नकद धनराशि  (जो पाने वाले से पहले ही रखा ली गयी होती) भी देने का नाटक होता। एक विश्व हिन्दी  सम्मेलन  वाले पीछे पडे थे। हमारी  व्यस्त  जिन्दगी  सीतापुर  के हर कोने से परिचित  नहीं  होने दे रही थी विदेश कहां  जाते।पता लगा यह भी भाई लोगों  का धंधा  था।धनी आसामी  खोजकर वहाँ  भी यही खेल था।फेसबुक  पर भी ऐसे दलाल सक्रिय  हैं  ,जो खासकर पैसेवाली महिलाओं  को टारगेट बनाते हैं ।कई देशी विदेशी महिलाओं  का दर्द  सुना  तो यह जरुरी  लगा कि इस साहित्यिक  पंडागिरी से सीधे सादे साहित्यकार  को सावधान  किया  जाए।बडे धोखे हैं  इस राह में ।

तेरह
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साहित्य के लिए  सरकारी  सहायता  का प्रावधान  है।अत्यंत   सही  उद्देश्य  से यह पालिसी बनाई गयी थी कि जो साहित्यकार  आर्थिक  दृष्टि  से दुर्बल हैं, वे सहायता  पाकर अपनी कृतियों  का प्रकाशन  करवा सकें ।अत्यंत  दुर्भाग्य है कि किसी जरुरतमंद  को सहायता  आकाश कुसुम है।खाए अघाए लोगों  को यह सहायता  मिलती है।इनमें  डिग्री  कालेज और प्राइमरी  के मास्टर सर्वाधिक  लाभ उठाने में  दोनों  हाथों जुटे हैं ।पहले तो पुरस्कार  भी घूम घूम कर कुछ ही लोगों  में  बंटते रहते थे।मैंने  सूचनाधिकार के माध्यम  से आवाज उठाई।तो पता चला एक एक व्यक्ति  कई कई बार पुरस्कार  हडपने में जुटे थे।इस काकस को तोडना आसान नहीं  था।प्रतिभाओं  के हत्यारों की पहुँच  दिल्ली  तक थी।हमें  तोडने का बहुत प्रयास  हुआ।पर हम टूटे नहीं ।डाक्टर  मधुप अवधी  के इतिहास  की पांडुलिपि लिए घूमते रहे,परंतु  उस सेवा निवृत्त  अवधी के साधक को कोई  शासकीय सहायता  नहीं  मिलने दी गयी।प्रतिभाओं  के हत्यारे  यह नहीं  चाहते थे कि यह इतिहास  प्रकाश में  आए।वे जब हमारे  घर आते यही कहते मेरे बाद यह इतिहास  लुप्त  हो जाएगा ।प्रभूत श्रम से वह पुस्तक  छपी और आज मैं  गर्व से शीश उठा कर कह सकता  हूँ  कि अवधी साहित्य  में  वह मील  का पत्थर है।
ऊंचे पदों  पर बैठे  गैरजिम्मेदार लोग अपना अभिनंदन कराने और पुरस्कार  बटोरने में  लगे रहते हैं ।सच्चे  साहित्य साधकों का सम्मान  तक  करने में  इन्हें  तकलीफ  होती है।अरे थू है तुम पर।साहित्य  की कालिख हो तुम सब।

चौदह
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सबसे पहले तो आप सबको बहुत बहुत धन्यवाद,जिनकी सराहना और प्रोत्साहन से यह श्रृंखला इतनी लोकप्रिय हुई कि देश विदेश से लोगों ने अपने अनुभव बताए और उनकी पीड़ा लिखने का आग्रह किया। मैं अपने को सौभाग्यशाली समझता हूं कि आप सबका स्नेह मुझे मिला।
आज पंडानामा की इस कड़ी में मैं उन यश के लोभी पैसे वाले दो कौड़ी के लेखकों का पर्दा फाश करुंगा ,जो आर्थिक दृष्टि से कमजोर  प्रतिभा शाली लेखक की मजबूरी का फायदा उठा कर ,उससे अपने लिए लेखन करवाते हैं और अपने नाम से छपा कर नाम और नामा दोनों कमाते हैं। सीतापुर की कई प्रतिभाएं दिल्ली तक पहुंचीं, पर यह काकस उन्हें खा गया।आप सबको जानकर आश्चर्य होगा कि बहुत से कालम जो आप चाव से पढते रहे ,उनके लेखक सिर्फ नाम के थे।यह गोरखधंधा साहित्यिक गलियारों में अब भी जारी है। कलम के धंधेबाजों में बड़े बड़े नाम शामिल हैं।कुछ संपादक तो अपनी सखियों को ही प्रमोट करते रहे और प्रतिभाएं सिर धुनती रहीं।कीन्हे प्राकृत जन गुन गाना।सिरधुनि लागि गिरा पछिताना।

पन्द्रह
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कुकुरमुत्ते की तरह साहित्यिक संस्थाओं का जाल बिछा है।जो साहित्य की किसी विधा में सफल नहीं होते,वे इनके स्वयं भू अध्यक्ष बन जाते हैं।दस पृष्ठ की पत्रिका या दो पृष्ठ का अखबार छाप कर ये महान संपादक बन जाते हैं। धीरे धीरे ये सुरसा की तरह  निगलने के लिए नये साहित्यकारो को दाना डालने लगते हैं। दाना चुग कर वह इन पर विश्वास करने लगता है। उसकी एकाध कविता छप जाती है।फिर उससे धन की उगाही शुरू होती है। संपादक जी संकलन छपाने लगते है। दूसरों के पैसे से फ्री में हजारों  प्रतियां बेचकर दो-दो प्रति टिका कर साहित्यिक डकैती जारी रहती है। इनके आगे तो चंबल के डाकू फेल हैं।

सोलह
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हिन्दी  के लेखकों  में एक अहम्मन्यता या कहूँ  आत्मरति है। उन्हें  अपने से आगे कोई  दिखता नहीं ।किसी को वे आगे बढ़ते देखना नहीं  चाहते। किसी की कोई  कृति  सामने आए तो उनका मुंह सूख जाता है।प्रशंसा  के दो बोल तो दूर हैं, वे ऐसे  बन जाते हैं  कि कुछ जानते ही नहीं ।अपने समवयस्कों में  बैठकर वे नये रचनाकार  की हंसी उडाते हैं ।कृति  को पढ़कर उस पर दो वाक्य  लिखकर प्रोत्साहन  देना तो दूर वे उसे पलटकर देखना गवारा नहीं  करते।अब नयी पीढ़ी सीखेगी तो इन्हीं  मूर्खों से।तो उसे तो अपने से बड़े को आदर मान देना मूर्खता  प्रतीत  होती है।ऐसे में  जिन्हें  दो वाक्य  साबुत लिखने नहीं  आते वे महाकवि कालिदास  होना  चाहते हैं ।पहले के कवि, लेखक,समीक्षक नवयुवकों  को परिमार्जित करते थे,उनकी रचनाओं  पर अभिमत देते थे।इस तरह नयी पौध तैयार   होती  थी।अब नये समीक्षक पुरानों पर अभिमत  देते हैं  और अपने को खुदाई फौजदार समझते हैं ।संपादक  जी को समीक्षा  क्या  है इसकी तमीज नहीं  है।जैसे अखबार  में  सब्जियों  के भाव छपे रहते हैं, ऐसे वे समीक्षा  करते हैं ।यह हालत इसलिए  हुई  कि जो योग्य थे,वे अहंकार  में  डूबे  थे।उन्होंने  जो स्थान छोड़  दिया  उसमें  मूर्खों  का कब्जा  हो ही जाना था।कुछ पत्रिकाओं के कवर बदल जाते हैं ।मैटर पुराना बारबार छपता रहता है।

सत्रह
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साहित्यिक  पंडानामा  श्रृंखला की इस कड़ी  में आप सबका स्वागत  है मित्रों! अभी तक सकारात्मक  टिप्पणियाँ  आती रहीं ।आज एक बंधु  ने दूसरे पक्ष का भी प्रतिनिधित्व  किया।विचारों  के इस महाकुंभ में  विरोधी  विचारों  का भी स्वागत है।सिर्फ  पढ़कर आगे न बढें।अपना मनोगत रखें ।मैंने  कल जहाँ  पर खत्म  किया था,वहीं  से आरंभ करता हूँ -
मर्यादा  यह नहीं  कि प्रतिभा  पर पहरे बिठलाओ।
जो आगे   बढ़ता हो    निर्दयता से उसे    दबाओ।
वह दबकर रह जाए,और तुम पसरो फैलो भू पर।
ये रश्मि रथी की पंक्तियाँ  मैं  उन सब अनाम साहित्यकारों  को समर्पित  करता हूँ, जिनकी प्रतिभा  को साहित्यिक  राजनीति  और विपरीत  परिस्थितियाँ निगल गयीं ।कोई दिल्ली  जाकर खो गया ,कोई लखनऊ  के साहित्यिक  गलियारों और बूढ़ी औरतों की चरणवंदना के मायाजाल की छिपकली बन कर रह  गया।साहित्य  का इतिहास  इतनी गिरावट  का इतिहास  बनकर रह गया कि विदूषक अध्यक्षता करने लगे और गिरगिट मुख्य  वक्ता हो गये।इस सभा में  हंस कहां? कौए संचालक  हुए और लोमडियां पुरस्कृत होने  लगीं ।सरस्वती  का गुजर बसर  यहाँ  कहाँ  था बन्धु? वह पिछले द्वार  से हताश निराश हमारी  आराध्या ही तो जा रही है।अखबारों में  फोटो   छपे ।प्रायोजित अभिनंदन हुए।चाय पार्टी  हुई।जैसे राजनीतिक इफ्तार पार्टियाँ  होती हैं ।सब कुछ था बस साहित्य  नहीं  था।वह किसी छप्पर के नीचे  ,कहीं  टूटी दीवार के सहारे, दाल रोटी  की जद्दोजहद  में  रचा जा रहा था,कहीं  बस की लाइन  में  लगी बच्चों  का पेट भरने की  कवायद मे लगी कार्यशील नारी साहित्य  रच रही  थी और कहीं हल की मूंठ थामे  किसान के होंठों   पर सृष्टि  का सबसे सुंदर  गीत मचल रहा था।जब कभी सही मूल्यांकन  होगा तो ये सब  सामने आएंगे।

अठारह
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आजकल अभिनंदन समारोहों  की बाढ आई हुई है। समाचार पत्रों के लोकल पेज भरे रहते है।आज जूता विक्रेता संघ ने कवि जी को जूता शिरोमणि की उपाधि दी है। शिष्यों में हाहाकार मच गया।अप्रतिम उपलब्धि।वाह गुरूजी वाह।अब चेले अभिनंदन कर रहे हैं।स्थान गुरु जी का घर। गुरु पत्नी मरी जा रही हैं।मरे नासपीटे मुफत का चाय नाश्ता तोडने आ गये।
यह स्थिति कमोबेश रोज ही देखने को मिलती है।आज कवि होना सबसे सरल है।लंबी जुल्फें रखा लो।एक स्मार्ट फोन हो।डायरी तो पढे लिखों की शोभा थी।अब उसकी आवश्यकता नहीं।गूगल पर सर्च किया।चार छः कवियों की एक एक लाइन जोड ली। कविता तैयार।अब बाप दादों में कोई कवि शायर हो मरा ,तो इतनी मशक्कत की भी जरूरत नहीं।पान खाकर बेशर्मी से टूट पड़ो।दो कुरते पजामे हों ,एक अदद सदरी हो, किसके बाप की मजाल आपको कवि, महाकवि ,आशुकवि, दिलजला कवि,हास्य व्यंग्य कवि, फटीचर कवि(कुछ कवि भेस बना कर जाते हैं कि जनता देख कर ही हंसने लगे), पीढ़ियों का कवि,चारण कवि,भाट कवि,देवर कवि, मास्टर कवि,डाक्टर कवि, फाइनेंसर कवि, आशिक कवि,लुच्चा कवि,टुच्चा कवि,बच्चा कवि,चच्चा कवि,काग भुशुन्डी कवि आदि में से कोई न कोई न मान ले।

कवयित्री बनना और भी सरल है।बस शक्ल सूरत अच्छी हो।ब्यूटी पार्लर वाले बाकी काम संभाल लेंगे। थोड़ा गला अच्छा हो तो सोने में सुहागा। हमारे मोहल्ले के भाजी वाले कटहल महामंडलेश्वर की उपाधि देना चाहते हैं। मैंने उन्हें कहा कोई साहित्यिक नाम रख लो।बोले-गुरू जी धंधा न खोटी करो।कटहल का सीजन है।परचार जरुरी है।अब उन महानुभाव की तलाश है ,जिसे कटहलों की माला पहनाई जा सके।वैसे तो एक ढूढो हजार मिलते हैं ,पर कुछ तो क्वालीफिकेशन देखनी पड़ेगी।भाजी वाले कहते हैं कोई डिग्री वाला न बुला देना। पिछली बार उसका दीर्घ कालीन भाषण सुन कर कलुआ की अम्मा को मिर्गी का दौरा पड गया था।बडा धर्म संकट है भाइयों। मैं बेचारा समीक्षक क्या करूं?

उन्नीस
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कहते हैं  असफल कवि संपादक  हो जाता है और बहुत  सारे कवि लेखकों  का भाग्य विधाता बनने  का गौरव प्राप्त  करता है।कुछ संपादक  तो इतने महान  हैं  कि दो अक्षर एक भाषा  में  साबुत नहीं  लिख पाते।वे न हिन्दी, न अंग्रेजी,न अवधी और न भोजपुरी-किसी में  चार पंक्तियाँ  शुद्ध  नहीं  लिख पाते।मुगालता उन्हें  देवगुरु वृहस्पति होने का है।उन्होंने  जो लिखा उसकी रेड पीट दी।लेकिन  चेले तो बिचारे  मासूम हैं ।वाह गुरु  जी वाह का दुंदुभी नाद करते हुए वे आकाश  गुंजा  देते हैं ।अब जैसे गुरु  जी तैसे चेला।जस पसु तस बंधना।गुरु  जी फ्री  में  मिली किताबों  से चुनचुन कर अश्लील  और कामोत्तेजक प्रसंग  सुनाते हैं ।चेले अलौकिक  सुख की प्राप्ति  करते हुए इसे लोक भाषा  की सेवा घोषित  करते हैं ।किसी ने गलती  से कह दिया कि भइया  यू का अंडबंड लिखत  हौ? बस सिगरी बर्रै टूट पडीं।अब क्या  कहने।संपादक  जी ने भांग का गोला  चढ़ाया और नयन मूंद कर साहित्य  की रंभा,मेनका और उर्वशी को क्रांतिकारी  साहित्य  का प्रणेता  घोषित  कर दिया ।जो उनका झोला टांग कर चलते थे,वे युगांतरकारी कवि हुए,जो जूता पालिश करते थे वे समीक्षक हुए।जो पान  पुडिया की व्यवस्था  करते थे,वे अंतर्राष्ट्रीय  साहित्य कार।अब साहित्य  का तो होना  ही था बंटाधार।

बीस
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साहित्य  की दुनिया  जितनी सरल दिखाई  देती है,उतनी है नहीं ।ठीक है कि इसमें  निराला  जैसे लोग हुए,पर अधिकांश व्यावसायिक साहित्यकार  निराला और कबीर का फक्कडपन तो दूर रहा ,उनकी सोच को छू भी नहीं  नहीं  पाते।अधिकांशतः धन और महत्व की लालसा में  राजनीतिक  गलियारों के चक्कर काटते रहते हैं । काश पद्मश्री मिल जाए।साहित्य  अकादमी की धूल जीभ से चाट डाली।कोई  टुटहा  ही एवार्ड मिल जाए।साहित्य   संस्थानों  के बाबुओं चपरासियों की चप्पलें  तक उठा डालीं।महत्वपूर्ण  महिलाओं  के चक्कर  काटे।जिन्हें  देखकर उबकाई आ जाए ,उन्हें साहित्य  की मेनका,रंभा और उर्वशी करार दिया ।
कुछ साहित्यिक  धंधेबाज तो पिछली सरकारों  में  उनका झंडा, बैनर और पोस्टर  लिख लिख कर इतने ताकतवर हो  गये थे कि संस्थानों  के कार्यक्रम  तय करने लगे थे।चमडे का सिक्का  खूब चला मित्रों ।हमने एक बार एक कार्यक्रम  किया ।हमने उनको आमंत्रित  किया ।उनका  कहना  था -हम फाइव स्टार होटल में  ही रुकते हैं ।हमारे  स्टैंडर्ड  के हिसाब  से व्यवस्था  करो।अब सीतापुर  में  कोई  फाइव स्टार  होटल  तो है नहीं ।तो उनकी  साहित्यिक  सेवा  फाइव स्टार  होटल की मुखापेक्षी थी।
मुझे स्मरण  हुआ वर्षों  पहले एक साहित्यिक  रंभा  लेकर  वे हमारे  गुरु  जी के यहाँ पधारे  थे।गुरु  जी ने  महिला  समझ कर उन्हें  हमारे  यहां  टिका दिया ।साहित्यकार  महोदय ने रात भर गुरु  जी का आतिथ्य  ग्रहण किया  और इतने नाराज  हुए कि गुरु  जी  का साहित्यिक  बायकाट शुरु करा दिया ।हमारे  सीधे सादे गुरु जी हमसे यही पूछते  रहे कि  भइया हमारा अपराध  क्या है?हम क्या  कहते कि साहित्यिक  विषकन्या आपको  डस गयी।

इक्कीस
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आज हम उन महाकवियों पर अपना ध्यान  केंद्रित  करेंगे,जिन्होंने  मात्र  दो चार कविताएँ  लिखकर गुटबाजी  की सहायता  से स्वयं  अपना महाभिषेक करा लिया है।कवि सम्मेलनों  में  इनके दो चार चेले चपाटे पहले से उपस्थित  रहते हैं  और वाह वाह  के नारों से पांडाल गुंजा  देते हैं ।इनकी सभी कविताएँ  जनता को कंठस्थ हो जाती हैं  और तीसरी कविता  सुनाने की फरमाइश सुन कर ये कोई अश्लील  चुटकुला सुना कर ध्यान  दूसरी ओर मोड़  देते हैं ।कुछ शायर नुमा  कवि जनता के अल्प ज्ञान  का फायदा उठा कर पुराने शायरों  का कलाम सुनाया  करते हैं ।अगर इनके बीच बदकिस्मती से कोई  सच्चा  कवि पहुँच जाए तो ये कांव कांव करके पहले तो उसे भगाने का प्रयास करते हैं।अगर वह न भागा और जम गया,तो इनके गैंग के मुख्य व्यवस्थापक उसको अपने चंगुल में लेने का प्रयास करते हैं।इसमें भी असफल रहने पर अपनी मंडली के लडकों से (हर ऐसी मंडली कुछ ऐसे मूर्ख लडके पाले रहती है ,जिनका काव्य ज्ञान तो शून्य होता है पर शरीर और गले  से मजबूत  होते हैं, ताकि  यदि अश्लील  चुटकुले  सुन कर कहीं  मार पीट की नौबत  आ जाए तो ये मुकाबला  कर सकें  और विरोधी  अच्छे कवियों  की हूटिंग कर उन्हें  बदनाम कर  सकें)उन पर हूटिंग  करा देते हैं ।सुरा और सुंदरियों  के आभा मंडल से ये लोकप्रिय  होने  का भ्रम जाल रचते हैं ।आम आदमी  इसमें  छला  जाता  है।

बाईस
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बहुत  दुख होता है जब मैं  देखता हूँ  कि जो अच्छे कवि हैं, लेखक हैं, उनकी भरपूर उपेक्षा  होती है और धंधे बाज हर जगह काबिज  नजर आते हैं ।वीरेन्द्र  तिवारी  जैसा समर्थ गीतकार पूछा भी नहीं  जाता और बीड़ी पीकर  तुकबंदी करने वाले साहित्य  के मसीहा बना दिए जाते  हैं ।मस्जिद  के नाम पर चंदा मांगने वाले गीतकार  कहे जाएँ  और समर्थ रचनाकार  उपेक्षा  के अवसाद  में मदिरा में  डूबकर खत्म  हो जाए।क्या  साहित्य  में  भी जातिवाद  है?क्या  ब्राह्मण  साहित्यकार  जानबूझकर  कर हाशिए  पर कर दिए जाते हैं? क्या साहित्यिक  गलियारों में  भी एक कश्मीर  है?
क्या  कारण है कि रमाकान्त  पान्डे अकेले जीवन भर उपेक्षित  रहे?क्या कारण  है दिनेश दादा  का नाम तक लोग नहीं  लेते?जिन्होंने  अवधी के लिए  जीवन खपा दिया डामधुप,उन्हीं  के नक्शे  कदम पर उनकी शिष्या डाज्ञानवती  अवधी  के धंधेबाजों की आंख का कांटा हैं?
सीतापुर  की उर्वर साहित्यिक  भूमि इन साहित्यिक  नक्षत्रों से  सुशोभित  है,पर साहित्यिक  गलियारों  में  इनकी चर्चा  सिर्फ  हसद से होती है।अन्यथा  क्या  कारण है कि मधुप जी की  तुलसी  पीठ में  गोमातीरे  पर एक कार्यक्रम  तक न हो सका,वह गोमातीरे  जो डामधुप का सपना  था,जिसके प्रकाशन  में  ,जिसके लेखन में  उनकी महती प्रेरणा  थी।उसके महामंडलेश्वर  गोमातीरे  को जायसी पुरस्कार  की  सार्वजनिक  बधाई  भी  न दे सके?ऐसे संजोएगे आप अवधी की विरासत?
माया प्रकाश  अवस्थी  और वीरेन्द्र  तिवारी  को श्रद्धांजलि  देते  हुए  मैं  देश की मुर्दा संस्थाओं  से कहना चाहता हूँ  कि अपनी धरोहरों की इज्जत  करो।कब तक नकली  लोगों  से घिरे रहोगे?

तेईस
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साहित्यिक दुनिया एक अलग तरह की दुनिया है, मित्रों! कुछ कुछ ‘मुझे चांद चाहिए’ जैसी। यह चांद की चाहत हमें एक अलग दुनिया में ले जाती है- सपनों की दुनिया में । पर हकीकत तो मखमली नहीं होती। पथरीली दुनिया के कंकड इस चाहत के रेशमी तलवों को घायल कर देते हैं।

सपने और सत्य -दोनों में बहुत सूक्ष्म सी डोर है, जो इनको विभाजित करती है। कवि जब कविता की सुनहरी दुनिया से बाहर आता है, तो वह देखता है यह साहित्यिक दुनिया जलन और स्पर्धा के शिकारियों से भरी है। कोई  उसे सहारा नहीं  देता। वरिष्ठ उसे हिकारत से देखते हैं, समानधर्मा उसे जलन से देखते हैं -आ गया एक और जगह का दावेदार ।अब यहाँ  आरंभ होता  है धंधे बाजों का खेल।वे कमतर प्रतिभा वालों  का गैंग तैयार  करते हैं ।उनसे पैसा  वसूलते हैं ।उन्हें  कार्यक्रम  दिलाते हैं ।आपको  आश्चर्य  होता है कि रेडियो  और दूरदर्शन  पर वही आवाजें  और चेहरे रिपीट होते हैं ।बुरी मुद्रा  अच्छी  मुद्रा  को चलन से बाहर  कर देती है।साहित्यिक  संस्थाएँ  इसी मकडजाल में  फंसी हैं ।यही चांद के चेहरे के बदनुमा दाग हैं,  मित्रों! पर हमें तो चांद चाहिए ।

चौबीस
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साहित्यिक पंडानामा से कुछ लोग बेतरह तिलमिला रहे हैं और उनकी तिलमिलाहट कई तरह से सामने आ रही है।मित्रों! न मेरा किसी से राग है और न द्वेष ।मैं तो साहित्य की बेहतरी के लिए और साहित्यिक प्रतिभाओं के समुचित विकास और प्रोत्साहन के लिए लिखता हूँ ।कहते हैं जब व्यवस्था बिगड़ जाती है तो प्रकृति स्वयं उसकी व्यवस्था करती है।यही हाल साहित्य का है।अनादिकाल से प्रवृतियां बदलती रहीं ।वीरगाथा काल से नई कविता तक परिवर्तन होते रहे हैं ।साहित्य तो समाज का दर्पण है,दर्शन है।जब समाज बेपटरी है ,तो साहित्य कहां बच सकता है।धंधे नये,कंधे नये,बंदे नये।कुछ संस्थाध्यक्ष प्रकाशक बने बैठे हैं ।मूर्ख लोगों को फंसा कर मोटी रकम लेकर किताबें छापने का धंधा करते हैं ।नये साहित्यकारों के सबसे बडे शोषक यही हैं ।कुछ तो लोकार्पण से लेकर सम्मान और पुरस्कार तक का ठेका लेते रहे हैं ,पर योगी सरकार में हर ठेकेदारी फेल है।

पचीस
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मित्रोंसाहित्यिक पंडानामा बहुत ध्यान से पढा जा रहा है,हृदय से आभारी हूँ ।जो टिप्पणी कर रहे हैं, उनका धन्यवाद ।जो लाइक कर रहे हैं, उनका भी आभार ।जो कुछ असहमत से नजर आते हैं, उनका भी आभार ।कुछ दोनों नावों की सवारी कर रहे हैं, उनका भी आभार ।कुछ सहमत हैं पर इस डर से वाल पर नहीं आते कि साहित्यिक डान उनका हुक्कापानी न बंद कर दें,उनका भी आभार ।कुछ सामने नहीं आते ,फोन पर सहमत हैं ,उनका भी आभार ।कुछ सीना ठोंक कर सामने आते हैं और समर्थन करते हैं, उनका तो प्रशंसक हूँ ।यही तो कबीर के असली वंशज हैं ।आप पूछते हैं कुछ समाधान भी बताओ।तो यही है समाधान ।जिसदिन साहित्यकार परमुखापेक्षी न रह कर सत्य का सम्मान करेगा,सत्य का संधान करेगा,सिर्फ अपने बापदादाओं का उत्तराधिकारी न रह कर देश की साहित्यिक विरासत का उत्तराधिकारी स्वयं को समझेगा,स्व से पर की ओर बढ़ेगा,उसदिन बहुत सी समस्याओं का स्वतः निराकरण हो जाएगा ।साहित्यिक धंधेबाज स्वतः कीचड़ की तरह छंट जाएंगे और साहित्य का सहस्र पंखुडी वाला कमल खिल उठेगा ।

छब्बीस
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बन जाता सिद्धांत प्रथम -फिर पुष्टि हुआ करती है,
बुद्धि उसी ऋण को सबसे ले सदा भरा करती है।
मन जब निश्चित सा कर लेता कोई मत है अपना,
बुद्धि दैव बल से प्रमाण का सतत निरखता सपना। 
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सदा समर्थन करती उसकी तर्कशास्त्र की पीढी,
ठीक यही है सत्य यही है उन्नति सुख की सीढ़ी ।
और सत्य! वह एक शब्द तू कितना गहन हुआ है?
मेधा के क्रीड़ा -पंजर का पाला हुआ सुआ है।
कामायनी की ये पंक्तियाँ पढ़कर मैं चिंतन 
करने लगा कि नई पीढ़ी और पुरानी पीढ़ी के साहित्यकारों में इतना द्वन्द्व क्यों हैअगले ने कुछ कहा और पिछला आस्तीन समेटने लगा। यह कल का छोकरा मेरी सत्ता पर उंगली उठा रहा है।जितनी इसकी उम्र है,उतने मंगलवार और एकादशी मैं उपवास रख चुका हूँ । युद्ध की ये मुद्राएं साहित्य से दूर अखाड़े का हाहाकारी दंगल हो जाती हैं । आज अधिकतर पत्रिकाएँ पारिवारिक महोत्सव हैं। मुंह देख देखकर रचनाएँ छपती हैं । आज वे संपादक रहे नहीं जो रागद्वेष से परे हों। वे तो विरोध का स्वर भी सुनना नहीं चाहते । संवाद तो दूर की बात है। बिना वैचारिक आदान प्रदान के साहित्यिक विकास की कल्पना भी नहीं की जा सकती । यानी साहित्य की बेहतरी के लिए सहिष्णुता अनिवार्य है।

सत्ताईस
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इस श्रृंखला की सफलता इसी से जाहिर होती है कि फेसबुक पर इस नाम से लोगों ने लिखना शुरु कर दिया है।स्वागत है मित्रों! मैं यही तो चाहता हूँ कि लोग स्वस्थ चिन्तन करें, मनन करें और अनुकरण करें ।हमारे देश में एक स्वस्थ वातावरण बने और साहित्य के क्षेत्र में राग -द्वेष के परे सकारात्मक माहौल में साहित्यकार कालजयी साहित्य का सृजन करे।
आज समीक्षा का क्षेत्र लेते हैं मित्रों! आप सब बहुज्ञ हैं ।बताने की आवश्यकता नहीं कि समीक्षा का तात्पर्य है सम्यक निरीक्षण कर गुणदोष के आधार पर किसी कृति का यथार्थ मूल्यांकन ।परंतु ये जो धंधेबाज बैठे हैं, वे मिलने वाले लाभ के आधार पर उसका मूल्यांकन करते हैं ।फलतः दोयम दर्जे की रचनाएँ बहु प्रशंसित होती हैं और श्रेष्ठ कृतियां हाशिए पर चली जाती हैं ।एक महान संपादक जले भुने बैठे थे ।एक रचना की अच्छी समीक्षा एक अखबार में छपी थी।किटकिटा कर बोले-हमसे कह रहा था दो कौडी की पुस्तक है।खुद इतनी तारीफ कर रहा है।मैंने हंसकर कहा -आपके जैसे सब कहां?फिर उसी कृति पर पुरस्कार मिल गया।अब जो उसे ऐसी वैसी कृति समझ रहे थे,उसे खोजने लगे।
कुछ समीक्षकों का तो आलम यह है कि वे पन्ने गिन कर वजन कर समीक्षा करते हैं ।अगर 250ग्राम की पुस्तक है तो उत्तम हैआधा किलो है तो श्रेष्ठ है और अगर एक किलो का साहित्य लिख मारा,तो महाकवि कालिदास से छटांक भर कम नहीं ।अब आप चिल्लाते रहिए किन्तु ये वाणभट्ट की कलयुगी संतानें कुछ सुनने वाली नहीं। अगर समीक्षा किसी महिला की पुस्तक की हो रही हो तो ये कीड़े ढूँढने मे छिपकिली को मात कर देते हैं ।सिर्फ हिन्दी लिखी तो कुछ और आता जाता नहीं। अगर अंग्रेजी उर्दू और संस्कृत भी है ,तो ज्ञान का प्रदर्शन है।अगर बोल्ड लिखे तो भारतीय संस्कृति रसातल की ओर चल पडी और यदि साधारण लिखे तो बहन जी छाप है।अगर किसी लाभप्रद पोस्ट पर हो तो साहित्य की लक्ष्मी,दुर्गाऔर सरस सरस्वती वही है। कुछ तो इतने भीषण विद्वान हैं कि एको$हं द्वितीयोनास्ति। वे तो जीवनकाल में किसी पर कुछ लिखने का अवकाश ही नहीं पाते।कोई इस लायक ही नहीं। साहित्य के बंटाधारकों में इनका सराहनीय योगदान है।

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169, प्रतिभा निवास, रोटी गोदाम, सीतापुर (उ.प्र.) 261001
मो. 9450379238

गाँधी होने का अर्थ

गांधी जयंती पर विशेष आज जब सांप्रदायिकता अनेक रूपों में अपना वीभत्स प्रदर्शन कर रही है , आतंकवाद पूरी दुनिया में निरर्थक हत्याएं कर रहा है...