Monday 30 June 2014

परितोष मालवीय का व्यंग्य - "लेडीज़ फर्स्ट"

कार्यक्रम भले ही मुख्य अतिथि के आगमन के इंतजार में प्रातःकालीन सत्र से अपराह्न सत्र में तब्दील जाए पर जब तक दोपहर भोज की विधिवत रूप से घोषणा नहीं हो जाती, इसे प्रातःकालीन सत्र ही समझा जाता है। ऐसा प्रायः होता है कि मुख्य अतिथि देर से ही आते हैं अन्यथा यह समझा जाएगा कि उनके पास कोई और काम नहीं है। वर्तमान समय में हिंदी कविता पर क्या संकट हैं, संकट है या नहीं, है तो कितना है, कविता पर संकट है या कवि पर संकट है, इत्यादि विषयों पर विचार मंथन बनाम माथापच्ची के लिए हमारे नगर में साहित्यकारों और कवियों का जमावड़ा हुआ। हालाँकि मैं अपने को श्रोता मानकर इस सम्मेलन में पहुँचा था पर वहां प्रस्तुत कुछ गद्यनुमा कविताओं को सुनकर लगा कि मैं भी कवि बन सकता हूँ। आखिर जिस तरह मैं अपनी पत्नी को खाने में नमक कम या ज्यादा हो जाने पर, खाना कम या ज्यादा बन जाने पर, जल्दी या देर से बनने पर जिन शब्दों एवं वाक्यों में झिड़कता रहता हूँ, उसे भी मुक्त छंद कविता कहा जा सकता है।

काव्यपाठ सत्र की समाप्ति के बाद कविता पर चर्चा और समीक्षा का दौर शुरू हुआ ही था कि एक नीली गंदी जीन्स पर बिना प्रेस किया हुआ खादी का कुर्ता यानि वामपंथी गणवेश पहने एक कवि ने बिंदी से लेकर पैर की नेलपॉलिश तक लगभग एक ही रंग में मेकअप करके पधारीं एक उदीयमान कवयित्री की कविता पर व्यंग्य मारते हुए कहा कि यदि यही कविता है तो अखबार में छपे समाचार भी मुक्तछंद की रचना कहे जा सकते हैं और गोदान तो प्रेमचंद का सबसे महत्त्वपूर्ण महाकाव्य माना जाएगा।

तिलमिला गईं कवयित्री जी ने उपहास उड़ता देख तुरंत "स्त्री विमर्श" नामक ब्रह्मास्त्र का प्रयोग किया और कहा "छद्म प्रगतिशील ही ऐसा कह सकता है। दरअसल स्त्रियों को आगे बढ़ता हुआ देखना पुरुषों को कब भाया है? तभी तो आजतक कोई भी बढ़ा साहित्यिक सम्मान स्त्री को नहीं मिला है। और यदि मिल भी जाये तो लोग कहते हैं कि यह किसी पुरुष की विशेष कृपा या अनुराग का परिणाम है।"

कार्यक्रम आयोजक ने माहौल को गर्म होते देख बीचबचाव करते हुए कहा - "यह सत्र निजी टीका - टिप्पणी के लिए नहीं है। हम कवि को स्त्री और पुरुष में नहीं बांटते। यहाँ कवियों को आमंत्रण उनकी कविता के आधार पर दिया गया है न कि महिला - पुरुष के नाम पर। अगर हम पुरस्कार देते समय यह देखने लग गए कि अमुक स्त्री है या पुरुष, अगड़ा है या पिछड़ा, सवर्ण है या दलित, सरयूपारीन है या कान्यकुब्ज तो हो चुका साहित्य सम्मेलन।"

मामला जैसे - तैसे शांत ही हुआ था कि बगल के कमरे से भोजन के तैयार हो जाने का संकेत प्राप्त हो गया। पर मुख्य अतिथि का उबाऊ भाषण अभी शुरू ही हुआ था। सभी उपस्थित प्रतिभागी चाहकर भी वहाँ से उठ नहीं पा रहे थे। एक तो वैसे ही कार्यक्रम देर से शुरू हुआ था, ऊपर से भोजन की सुगंध से बढ़ती हुई भूख। मुख्य अतिथि बड़े साहित्यकार थे अतः उनके भाषण का लंबा होना तय था। लेकिन यह भी स्थापित तथ्य है कि पकी उम्र के होने के कारण उनकी भोजन में रुचि श्रोताओं की तुलना में कम ही थी। कुछ देर तक तो उनके पांडित्य को बर्दाश्त किया गया पर जब ऐसा लगने लगा कि भोजन ठंडा हो रहा है तो कवियों में बेचैनी फैल गई। कोई अपनी कलाई पर लगी घड़ी देख कर इशारा कर रहा था तो कोई अपना थैला बंद कर रहा था। कुछ लोग उन्हें मन ही मन बूढ़ा, खूसट इत्यादि विशेषणों से नवाजने भी लग गए थे। मुख्य अतिथि को चुप होते न देख सब ने मिलकर ताली बजा दी। आखिर मेहनत रंग लाई तथा भाषण समाप्त हुआ।


जल्दी से धन्यवाद प्रस्ताव देकर सभी कवि भोजन कक्ष में प्रवेश कर गये। उदीयमान कवयित्री भी पीछे नहीं थीं। खाने के लिए प्लेट उठाते समय आयोजक महोदय ने उनकी ओर प्लेट बढ़ाते हुये कहा - "लेडीज़ फर्स्ट" । मैडम ने खींसे निपोरते हुए प्लेट थाम ली। साहित्यिक सम्मान न सही, खाने की पहली प्लेट पर तो स्त्री का हक़ स्थापित हुआ।

Sunday 22 June 2014

छोटे शहर की एक सुबह सी है यह ख़बर

वरिष्ठ कवि केदारनाथ सिंह ज्ञानपीठ सम्मान पाने वाले हिंदी के 10वें साहित्यकार हैं | इनकी कवितायेँ जटिल होते जा रहे समय में जीवन के सुकून का सूत्र देती हैं | ‘संवेदन परिवार’ की ओर से उन्हें हार्दिक बधाई देते हुए स्पर्श के पाठकों के लिए वरिष्ठ कवि अरुण कमल की यह टिपण्णी हम अमर उजाला शब्दिता से साभार उदृत कर रहे हैं :



केदारनाथ सिंह हमारे समय के सबसे बड़े कवि हैं | उन्होंने हिंदी कविता को एक नया रास्ता दिया, जिसके दोनों तरफ उम्मीद की दुनिया है | जैसा कि वह खुद अपनी कविता के हवाले से कहते हैं कि मुझे सड़क पार करना हमेशा अच्छा लगता है, क्योंकि इससे एक उम्मीद होती है कि जो दुनिया सड़क के इस ओर है, उससे कहीं बेहतर दुनिया सड़क के उस तरफ है |

दरअसल, हममें से हर कोई रोज़ कहीं न कहीं कोई सड़क पार करता ही है | पर इससे उम्मीद तो सिर्फ केदारनाथ सिंह ही लगा सकते हैं | उन्होंने बने बनाये खांचों के विपरीत बगैर किसी विरोध के लोक और शास्त्र दोनों परम्पराओं को जोड़ते हुए आमजन के लिए हिंदी कविता को सुलभ और सरल बनाया | उनकी कविताओं में जीवन अपनी पूरी ऊर्जा के साथ मौजूद है | उन्होंने कविता में मनुष्य के विश्वास को फिर से स्थापित किया | केदारनाथ सिंह की कविताओं में गाँव, कस्बे, बाग़-बगीचे और भूले-बिसरे लोग तो आते ही हैं साथ ही उनमें ठेठ गँवई किसान जीवन भी सायास मुखर हुआ है | उनकी शुरू से लेकर अभी तक की कवितायेँ कई पीढ़ियों और श्रोताओं के कंठ में बसी हुई हैं | ऐसे कवि के लिए कोई भी सम्मान कम है | हाँ, ये जरूर है कि हिंदी साहित्य के लिए केदार जी को ज्ञानपीठ सम्मान मिलना उनके महत्त्व को रेखांकित करता है | ‘गिरने लगे नीम के पत्ते...पड़ने लगी उदासी’ से लेकर ‘पानी में घिरे हुए लोग’ और ‘लहरतारा’ जैसी कवितायेँ उनकी अपने समय के सापेक्ष सक्रियता को तो उजागर करती ही हैं, साथ ही सजगता से अपने परिवेश को बयान भी करती हैं | उनके पूरे काव्य खंड की बुनावट में सूक्ष्मता के साथ मनुष्य और पदार्थ में गहराई से प्रवेश करने की क्षमता है, जो हैरानी भरा लगता है | ‘बनारस’ और ‘नदी’ जैसी कवितायेँ उनकी बेहद प्राणवान रचनाएँ हैं | ‘बनारस’ कविता में तो उन्होंने उस शहर के इतिहास, भूगोल के साथ- साथ अध्यात्म का ऐसा तानाबाना बुना है कि पूरी की पूरी कविता जी उठती है | जैसे इसकी बानगी देखिये- किसी अलक्षित सूर्य को/देता हुआ अर्घ्य/ शताब्दियों से इसी तरह/ गंगा के जल में/ अपनी एक टांग पर खड़ा है यह शहर/ अपनी दूसरी टांग से बिलकुल बेखबर |

कविता में अघोरपन है, जो शमशान का साधक ही महसूस कर सकता है | जो जीवन और मृत्यु के प्रति निर्विकार भाव रखता हो | इस तरह की कविता में समूचे कालखंड के साथ इतनी सहजता से प्रयोग तो केदार जी ही कर सकते हैं | असाधारण को साधारण और साधारण को असाधारण बनाने की अद्भुत क्षमता है उनमें | ‘अकाल में सारस’ कविता संग्रह में कुछ ऐसी ही कवितायेँ हैं, जहाँ कवि गहराई से, मगर मूल्यबोध के साथ जीवन की पड़ताल करता है | ये कवितायेँ सिर्फ सपाटबयानी नहीं हैं और न ही साहित्य का कोरस | केदार जी की तमाम कवितायेँ जिंदगी के सहजबोध से प्रभावित हैं | वे जटिल होते जा रहे समय में जीवन के सुकून का सूत्र देतीं हैं | उनकी कवितायेँ बोझिल होने से बचती हैं | वे अपनी छोटी-छोटी पंक्तियों में बड़ी-बड़ी बातें करतीं हैं | ये कवितायेँ ऐसी हैं कि परिवेश का एहसास होते ही लोगों की जुबान पर सहज ही आ जातीं हैं | काल से होड़ लेती, उनकी कई कविताओं के स्वर में पैनापन भले ही न हो, परन्तु आहिस्ता-आहिस्ता वे पाठक के दिलोदिमाग पर छा जातीं हैं | बहुत सी कवितायेँ तो ऐसी हैं कि वे बीते और रीते हुए की याद दिला जातीं हैं | जैसे कि ‘फागुन’, ‘फसल’ और ‘दाने’ कविता को पढ़ने के बाद हम गुज़रे हुए कालखंड में चले जाते हैं | ‘दाने’ कविता की एक बानगी- नहीं हम मंडी नहीं जायेंगे/ खलिहान से उठते हुए कहते हैं दाने/ जायेंगें तो फिर लौटकर नहीं आयेंगें/ जाते-जाते कहते जाते हैं दाने | केदार जी के यहाँ कविता बेहद मासूमियत से अपने को बयान करती है | ऐसी मासूमियत कि कोई भी उस पर मर मिटे | ऐसी कविता के लिए तो कालजयी दृष्टि के साथ साथ जीवनबोध भी चाहिए, जो अपने दौर में केदार जी के पास ही है | उनकी बहुत सी कविताओं में पूर्वांचल की धरती की गमक है | जिसमें आंचलिकता भरपूर है |

Sunday 15 June 2014

आलोचना : धनपत राय बनाम विभूति नारायण राय- रवि भूषण पाठक





तुलना करने के लिए कुछ लोग समान आधार तो कुछ लोग विरोधी प्रवृत्ति को रेखांकित कर अपना काम आसान करते हैं । उनके लिए प्रेमचंद बनाम प्रसाद या फिर अज्ञेय बनाम नागार्जुन तो प्रिय विषय है ही, कभी-कभी वे नागार्जुन बनाम केदारनाथ और पंत बनाम प्रसाद पर अध्‍ययन करते हुए एक-दो मसालों को घटाकर-बढ़ाकर भी अपने आलोचक का पेट भर लेते हैं, परंतु आलोचना का काम तब कठिन हो जाता है जब लेखक दो युगों का हो, उसकी प्रतिबद्धता जीवन और साहित्‍य के विभिन्‍न पक्षों के प्रति हो, उसके जीवन एवं अनुभव के पाटों में सहज समानता कम ही हों ।

यह रेखांकन तब और कठिन हो जाता है जब एक की स्‍वीकार्यता सौ साल की हो रही हो, वह कथा साहित्‍य में निर्विवाद स्‍तंभ के रूप में स्‍थापित हो, उसकी रचनात्‍मकता के आधार पर ही उसके आगे एवं पीछे का मूल्‍यांकन होता हो । दूसरा न केवल नया हो, रचनात्‍मकता की दृष्टि से वह जवान हो, जिसके लिए कसौटियों, टीपों, टिप्‍पणियों, स्‍तुतियों और गालियों का चयन होना बाकी हो, उसके द्वारा रचित साहित्‍य के समांतर ही जिन्‍दगी के दूसरे पक्ष भी महत्‍वपूर्ण हों।  ऐसे द्वीपों की तुलना के अपने खतरे हैं, क्‍योंकि उनके बीच पानी की अजीबोगरीब शक्‍लें हैं ।

इंटरनेट पत्रिका (ब्‍लॉग)
जानकीपुल में अपूर्वानन्‍द परंपरा और परंपरा के नाम पर लकीर-पूजन की चालू वृत्ति की ओर ध्‍यान दिलाते हुए कहते हैं-

 
‘’हिंदी साहित्य के लिए यह परंपरा एक बड़ी समस्या है. प्रेमचंद की परंपरा से क्या तात्पर्य है? लम्बे समय तक और एक तबके में अभी भी जैनेन्द्र और अज्ञेय को इस परंपरा से बाहर रखा जाता रहा है. यह भूल कर कि जैनेन्द्र को प्रेमचंद ने हिंदी का गोर्की कहा था और  उनके बाद की पीढ़ी में वे उनके  कुछ सबसे निकट के लेखकों में थे. लेखक के रूप में भी प्रिय‘’
प्रेमचंद और विभूति नारायण राय के नामों के अंत में लगने वाले राय की उभयनिष्‍ठता से आपका ध्‍यान हटाते हुए उनके बीच के महत्‍वपूर्ण सेतु की ओर ध्‍यान दिलाना चाहूंगा । हिंदी उपन्‍यास संसार के शीर्ष पर प्रेमचंद निरंतर विद्यमान रहे हैं, इस बीच उनकी तुलना यशपाल, रेणु, अज्ञेय आदि से होती रही है। विषय, दृष्टिकोण, शैली, भाषा आदि की दृष्टि से उनके भेदों को रेखांकित किया जाता रहा है। रेणु और अज्ञेय के बाद के भी दर्जनों महत्‍वपूर्ण उपन्‍यासकार हैं, और उनकी रचनात्‍मकता के ओज को प्रेमचंद के संदर्भ में देखा गया है और प्रेमचंद के संदर्भ में देखा जाना ही मानो हिंदी उपन्‍यासकार की स्‍वीकार्यता के लिए बहुत बड़ी कसौटी हो गई है ।

परंतु यह कसौटी किसी भी उपन्‍यासकार के लिए रचनात्‍मक बेचैनी का सब़ब बना रहा, जिसका फायदा हिंदी उपन्‍यास संसार को जीवन के वैविध्‍य को सामने लाने में मिला । विभूति नारायण राय प्रेमचंद की परंपरा को अभिधा में ग्रहण नहीं करते। उनके लिए प्रेमचंद ग्रामीण जीवन या किसानी जीवन के टीकाकार मात्र नहीं हैं। प्रेमचंद उनके लिए रचनात्‍मकता के ऐसे तरल सूर्य हैं, जिसको मनचाहा आकार दिया जा सकता है। यह आकार शिल्‍प या शैली मात्र नहीं है, बल्कि इससे भी व्‍यापक अर्थ में हरेक चीन्‍हे-अनचीन्‍हे जीवन का स्‍वीकार है। इस दृष्टि से विभूति नारायण राय के पहले उपन्‍यास घर का अवलोकन महत्‍वपूर्ण है, क्‍योंकि विभूति जी के ही अन्‍य उपन्‍यासों की तुलना में इसकी चर्चा कम हुई है। तबादला और शहर में कर्फयू जैसे उपन्‍यास अपेक्षाकृत अनछुए विषय और अपनी विहंगम त्‍वरा और तेवर के रूप में अलग ही पहचाने गए हैं, परंतु घर की अल्‍पख्‍याति आश्‍चर्यचकित करती है ।

परिवार और पारिवारिक जीवन की समस्‍याएं हिंदी उपन्‍यासों के सर्वाधिक लोकप्रिय विषय रहे हैं । इस विषय को प्रेमचंद ने अपने अनुभव और कौशल से इतना संपूर्ण किया कि प्रेमचंदोत्‍तर काल के शीर्ष उपन्‍यासकार अज्ञेय, रेणु, यशपाल के लिए अपने रचनात्‍मकता की पहचान के लिए अन्‍य विषयों की ओर जाना पड़ा । स्‍वातंत्र्योत्‍तर भारत की आधुनिकतावादी धारा में परिवार पुन: केंद्र में आता है, परंतु इस बार विघटन के प्रति बदली हुई दृष्टि मुखर है । आधुनिक उपन्‍यासों में बदलते हुए सामाजिक-आर्थिक संबंधों एवं मूल्‍यों से एक नए ढ़ंग का परिवार दिखता है । मोहन राकेश, कमलेश्‍वर आदि के उपन्‍यासों में विघटित पारिवारिक मूल्‍यों का एक सांचा स्‍पष्‍ट होने लगता है ।


घर उपन्‍यास इस सांचा को नकारते हुए भी उस मिटटी को स्‍वीकार करती है । यहां पर विभूति नारायण राय की स्थिति मध्‍यवर्ती है, वे अपने कालक्रम के विपरीत प्रेमचंद और मोहन राकेश के बीच में है। राम विलास शर्मा जिस तरह से सेवासदन के शिल्‍प के विषय में मुग्‍ध हैं और यह कहते हैं कि प्रेमचंद उसे दुबारा नहीं पा सके, उस तरह से नहीं कहते हुए भी मानना पड़ता है कि घर की शिल्‍पगत सजगता अद्भुत है । उपन्‍यास के पांच अध्‍याय हैं । इसमें से चार अध्‍याय में चार पात्र अपनी दृष्टि से अपने घर, अपने संबंध, अपनी दुनिया एवं अपने सपने को देखते हैं।  उपन्‍यास का सुगठन आ‍कर्षित करता है और एक अध्‍याय का पात्र अध्‍याय के अंत में जिस पात्र के विषय में सोचता है या अंत:क्रिया करता है, दूसरा अध्‍याय यहीं पर शुरू होता है । पहला अध्‍याय मुंशी जी पर केंद्रित है और इस अध्‍याय की समाप्ति का महत्‍वपूर्ण प्रसंग राजकुमारी (पुत्री) पर संदेह करना है और दूसरा अध्‍याय राजकुमारी पर ही केंद्रित है । इस अध्‍याय के अंत में राजकुमारी अपने भाईयों विनोद और पप्‍पू के विषय में सोचती है और तीसरा अध्‍याय विनोद पर केंद्रित है । तीसरे अध्‍याय के अंत में विनोद अपने छोटे भाई के विषय में सोचता है और चौथा अध्‍याय पप्‍पू पर ही केंद्रित है । अंतिम अध्‍याय में फिर से चारों पात्रों के त्रिकाल को खंगाला गया है |

पांचों अध्‍याय के नाम विशिष्‍ट स्थितियों के संकेतक हैं । रिटायर बाप के संबंध में पहला अध्‍याय है समीकरण पेंशन और बाजार-भाव का । अपने शादी का इंतजार कर रही युवती से संबंधित दूसरा अध्‍याय है किस्‍सा उस राजकुमारी का जिसे लेने कोई राजकुमार नहीं आया एक मामूली रोजगार का इंतजार कर रहे विनोद से संबंधित तीसरा अध्‍याय है इस साल का दिसम्‍बर गुमराह किशोर पप्‍पू से संबंधित चौथा अध्‍याय है पनियायी आंखों का भविष्‍य अंतिम अध्‍याय है जैसे उनके दिन फिरे जो एक मिथ्‍या आशा की कल्‍पना में डूबे परिवार की कुशल कामना के साथ समाप्‍त होता है ।

मुंशी जी, जो अखबार के फिल्‍मी पन्‍ने और बाजार भाव के साथ ही बीडि़यों के बंडल के साथ दिन का पहला पहर खत्‍म करते हैं ,इस पहर की सफलता है पाखाने की तलब । मुंशी जी, जो अपने एकमात्र कोट, मृत पत्‍नी और गांव के मकान को याद करने से बचते हैं । इस सोच से बचने में प्राय: आस-पास के बिखरे कूड़े और पाखाने के ढ़ेर से उनको मदद मिलती है । मुहल्‍ले के लड़कों से छिपते, बचते और अनजान बनते मुंशी जी, ताकि उन्‍हें इन बच्‍चों से बेटी के विषय में कुछ सुनना नहीं पड़े । जवान बेटी को पीटते फिर अकेले में रोते मुंशी जी । तमाम परेशानियों, अभावों के बीच त्रिवेणी के अपनत्‍व से हल्‍का होते मुंशी जी । अपने बेटी-बेटा के चर्चा के समय दूसरों की आंखों में वहशीपन और अपनापन का परख करते मुंशी जी । मित्रों के साथ चर्चा के समय शारीरिक रूप से उपस्थित होकर भी मानसिक रूप से अनुपस्थित रहने वाले मुंशी जी । पेंशन का पैसा प्राप्‍त होते ही कमीशन लेने वाले बाबूओं, चाय की प्रतीक्षा कर रहे दोस्‍तों और शंकर महाजन को याद करते हुए पैसे और खर्चे में समीकरण बना रहे मुंशी जी |

उसी मुंशी जी की बेटी है राजकुमारी किस्‍सा कोताह यह कि एक दिन राजकुमारी शरमाने लगी । शरमाने की क्रिया तो पहले भी कई बार सम्‍पादित हुई थी ,लेकिन इस बार शरमाना पहले के शरमाने से काफी भिन्‍न था । हुआ कुछ इस तरह कि खाली वक्‍त में बच्‍चों की किताबें पढ़ने वाली राजकुमारी के हाथ में केवल वयस्‍कों के लिए वाला ठप्‍पा लगाए दिलकश इलाहाबादी का उपन्‍यास लग गया । परंतु इस उपन्‍यास से पहले की सैकड़ों कथाओं की वह नायिका थी –‘एक जमाना था, जब राजकुमारी माल थी, चक्‍कू थी, राजा बनारस थी ।उन दिनों के सीटियों, फिकरों के नहीं होने का फर्क देख रही राजकुमारी, उधार लेने के लिए दुकान भेजी जा रही राजकुमारी, कहीं घूमने-फिरने के प्रस्‍ताव को आधे मन से खारिज कर रही राजकुमारी, फिर इसी खारिजा से पछता रही राजकुमारी । शरीर की मांग के आगे समर्पण करती व सबके विरूद्ध विद्रोह को सोचती राजकुमारी । पिटाई के समय दुनिया के सबसे क्रूर बाप का खिताब देती, पुन: रोते हुए बाप को मनाने के विषय में सोचती राजकुमारी । पिटाई नहीं होने की उलझन और भी मुश्किल पैदा करती थी । अब पिता की आंखों में छिपी घृणा, सन्‍देह, तिरस्‍कार को बर्दाश्‍त करना उसे असंभव लगता ।

राजकुमारी की शारीरिक अतृप्तियों, सपनों एवं शादी की चर्चाओं में उपन्‍यास की प्रौढ़ता उभर कर सामने आती है । शहरी निम्‍न-मध्‍यम वर्ग की मर्यादा प्राकृतिक मांगों के समक्ष किस तरह ध्‍वस्‍त होती है, इसे राजकुमारी के नए अनुभव के रूप में रेखांकित किया जा सकता है । खिचड़ी बनाते हुए राजकुमारी अपने मां के व्‍यंजन कौशल और गरीबी को ही याद नहीं करती बल्कि विवशता, निर्धनता और मातृत्‍व की जिस विरासत को वह सँभालती है, उसे भी मूर्त कर देती है।

राजकुमारी का भाई पप्‍पू जो राजकुमारी के साथ ही सोता है, इस उपन्‍यास ही नहीं हिंदी कथा साहित्‍य की भी उपलब्धि है । बहन की उघड़ी पीठ देखकर नजर नीचे करने वाला पप्‍पू, अपने ही बहन के विषय में गंदी-गंदी बातें सोचकर परेशान होनेवाला पप्‍पू । अपने शारीरिक परिवर्तनों और मुहल्‍ले के लाईनबाजों के बीच स्‍वीकृति का मजा ले रहा पप्‍पू । गली के अंधेरे कोने में झेंपते हुए निकलता पप्‍पू, आंगन की नाली पर झुका पप्‍पू । शंकर की दुकान को लूटने के लिए अनिल दादा के साथ स्‍कीम बना रहा पप्‍पू । अनिल दादा ही नहीं उसके दोस्‍तों के लिए भी बेमन से ही सही तैयार होता पप्‍पू । मास्‍टर के गंदा काम से इंकार करता पप्‍पू । सिनेमा हाल में अनिल दादा और मिस्‍त्री के हाथों से खुद को बचाता ,समर्पण करता पप्‍पू । अपनी पनियाली आंखों और उसके गँदले कीचड़ से शर्मिंदा पप्‍पू, जिसे इस बात की आश्‍वस्ति है कि उसे चाचा नेहरू से भेंट नहीं हुई, नहीं तो वे उसकी आंखों मे देश का भविष्‍य कैसे देख पाते |

विभिन्‍न पात्रों की मन-स्थितियों, अंत:क्रियाओं और मानसिक ऊथलपुथल से अतीत की घटनाओं के संघात से उपन्‍यास में बहुस्‍तरीय चित्र बनते हैं । ये चित्र इतिहास, भूगोल एवं समाज के मानकों पर जहां ठोस हैं, वहीं इनमें सपनों की तरलता भी समाहित है । इन चित्रों की अद्वितीयता ने उपन्‍यास को भी अद्वितीय बना दिया है । चित्रण के साथ ही विश्‍लेषण भी उपन्‍यास को पठनीय बनाने में मदद करता है- ’’इन लड़कों ने अपनी हाल ही में हस्‍त-मैथुन की सीढि़यां लांघनी शुरू की थी और गली में खड़े होकर लड़कियों को घूरने या फिकरेबाजी करने के लिए उन्‍होंने धीरे-धीरे पुराने लड़कों की जगह लेना शुरू किया था ।उनके लिए गले के विभिन्‍न घरों की छोटी बच्चियों से लेकर अधेड़ औरतें तक अचानक माल बन गई थी ।‘’

भाषिक तेवर, तल्‍खी और व्‍यंग्‍य की दृष्टि से घर की तुलना अमरकांत की कहानी दोपहर का भोजन से की जा सकती है । व्‍यवस्‍था के परदे में हुए छेद से अभावों ,आवश्‍यकताओं का मुखर चेहरा दोनों कृतियों में दिखता है । प्रेमचंद की परंपरा दोनों के सामने है ।

साही जी ने गोदान के कथ्‍य एवं संरचना में फैली निश्चिंतता एवं शांति को सामंती भारत में किसानी जीवन के उस परिवर्तनहीनता का परिणाम बताया था, जहां सबको पता है कि उनके कुछ करने से कुछ बदलने वाला नहीं है । होरी का बेटा गोबर उस शांत समुद्र में क्षणिक विक्षोभ पैदा करता है, परंतु शीघ्र ही वह स्‍वयं भी शांत हो जाता है । घर की घटना विहीनता को जिस कुशलता से लेखक ने चित्रित किया है, वह इस कृति को अपने तरह से यादगार बनाता है । इस उपन्‍यास में कहीं कुछ नहीं होने वाला का भाव बहुत ही सबल है । शंकर के द्वारा वर्मा बाबू के साथ गाली-गलौज होता है, परंतु कुछ नहीं होता । राजकुमारी को भी शंकर और उसका बेटा परेशान करता है, बाप-बेटा जानते हैं, पर कुछ नहीं होता । विनोद बार-बार नौकरी के लिए अप्‍लीकेशन देता है, परंतु कुछ नहीं होता । पप्‍पू किसी और चीज के लिए परेशान है पर होता कुछ और है । दरअसल होने वाली सारी घटनाऍं पहले ही घट चुकी हैं । मुंशी जी के पत्‍नी का निधन, मुंशी जी की रिटायरमेंट और गांव में घर बनाने की बात पहले ही घटित हो चुकी है। उपन्‍यास इन हो चुकी घटनाओं के सहारे ही आगे बढ़ती है और उपन्‍यास का कौशल मन में चलने वाली उथल-पुथल को शानदार तरीके से चित्रित करने में ही है ।

यह एक घर है, जिसमें दुख और अ‍परिवर्तन इतना सामान्‍य है कि सुख, शांति की मुद्रा पात्रों को असहज लगती है । ये घर हैं, जिसमें कोई फरमाईश नहीं करता, कोई इंतजार नहीं करता । एक-दूसरे के विरूद्ध शिकायतें न के बराबर है । लोग एक दूसरे के मूड, मुद्रा के विषय में अभ्‍यस्‍त हो चुके हैं- ’’दरवाजे की आवाज से ही पता चलता है कि वह आ गया है । रसोई में अगर बर्तन खटकते हैं तो मुंशी जी जान जाते हैं कि खाना खा रहा है । अकसर रसोई में कोई आहट नहीं होती ,मतलब वह बाहर खाना खा आया है और चुपचाप सो जाएगा ‘’

यह घर ऐसा है, जहां जून और दिसंबर का महत्‍व पात्र जानते हैं । जहां धूप से बचा जाता है और धूप खोजा जाता है । यहां धूप ठंड से सिकुड़ी अंगुलियों को फैलाती तो है ही, कभी-कभी ताजगी तो कभी आलस्‍य भी देती है । इस घर में चाय, दही, खिचड़ी की अपनी ही महिमा है । चाय जिसे मुंशी जी चाहकर भी छोड़ नहीं सकते, यही तो एक आदत थी उनकी जो विकट निर्धनता में भी बनी हुई थी । समय के साथ चाय विनोद को भी शिकार बनाता है, वह पढ़ता है, साथ ही चाय भी पीता है । वह अपने घर से बाहर सीताराम की दुकान पर भी चाय पीता है । दही इस घर के लिए ऐसा पदार्थ है जो अतिथियों के आगमन पर थाली का हिस्‍सा बनता है । खिचड़ी का सरलतापूर्वक बनाया जाना थकी और नीरस राजकुमारी के जीवन में क्षणिक् उल्‍लास पैदा करता है । उतने ठंड में मात्र दो थालियों का धोया जाना और राजकुमारी द्वारा पिता के ही जूठन में खाए जाने की आश्‍वस्ति एक अद्भुत कोलाज बनाता है । मुंशी जी और विनोद अतिथि के उठने से पहले ही उठ जाते हैं कि कहीं अतिथि कुछ मांग दे तो .....।

हिंदी पट्टी के लेखकों में प्रेमचंद वह पीठ हैं जिनको छूकर ही आगे की यात्रा प्रारंभ होती है । इस दृष्टि से घर पर भी प्रेमचंद का बहुस्‍तरीय प्रभाव है । विषयों के चयन ,विश्‍लेषण ,विचार एवं दृष्टि तथा भाषा, संवाद एवं वाक्‍य संरचना के स्‍तर पर प्रेमचंद की याद आती रहती है और उपन्‍यास आगे बढ़ता रहता है । गोदान के प्रारंभिक पृष्‍ठों में ही प्रेमचंद धनिया का परिचय इस प्रकार से देते हैं छत्‍तीसवां साल ही तो था ......... ,बिल्‍कुल ऐसी ही वाक्‍य संरचना कई जगह पर मिलती है । पहले अध्‍याय में विनोद का परिचय इस प्रकार है- ‘’विनोद राजकुमारी से छह साल छोटा था । इस साल बाईसवां पूरा करेगा । देखने में कैसा तो लगने लगा है । मुंशीजी के कलेजे में हूक उठती है । बचपन में कितना गोल-मटोल था । राजकुमारी से पहले दो लड़के हुए थे । दोनों गुजर गए‘’ इसी तरह गोदान के किसान कई बार कुछ आमदनी होने पर अपने खर्चे एवं देनदारियों से ताल-मेल बिठाते दिखते हैं ।मुंशी जी भी पेंशन मिलने पर सोचते हैं -‘’जेब में पचानबे रूपए हैं । शंकर को डेढ़ सौ से कम क्‍या देना पड़ेगा । अभी तीन ट्यूशनों से एक सौ बीस रूपए और मिलेंगे । कुल हो जाऍंगे दो सौ पन्‍द्रह । गनीमत है कि मकान मालिक को सिर्फ दस रूपए देने पड़ते हैं । कुल किराया है चालीस रूपए । बाकी तीस रूपयों के एवज में वे उसकी लड़की को एक घंटा रोज पढ़ाते हैं । शंकर का हिसाब चुकाने के बाद लगभग पैंतालिस- पचास बचेगा। दूधवाले को तीस रूपए देने के बाद बचे पन्‍द्रह और अखबार वाले को नौ रूपए देने के बाद छह रूपए बच जाऍंगे ।‘’

परंतु उपन्‍यास ज्‍यों-ज्‍यों आगे बढ़ता है प्रेमचंद का प्रभाव सूक्ष्‍म होने लगता है । अंतिम अध्‍याय की संकल्‍पना ही इस तथ्‍य का सबल प्रमाण है कि घर की रचना और प्रेमचंद युग के बीच में काफी दूरी है । उनके बाद के उपन्‍यास इस बात को बहुत ही दमदार तरीके से कहते हैं कि उनके पास विषयों की कमी नहीं है । इस आधार पर उनकी तुलना उपन्‍यासकार प्रेमचंद से नहीं कथाकार प्रेमचंद से होनी चाहिए, क्‍योंकि प्रेमचंद की कहानियों में ज्‍यादा वेराईटी है । तुलना का काम वैसे भी लुहार का ठोकाई कम सोनार का गढ़ाई ज्‍यादा है । खींच-खाच कर च्‍यूंगम वृत्ति से कहीं का चीज कहीं पर मिला देना जो चीज  है और जबर्दस्‍ती साम्‍य-वैषम्‍य बिठाकर ,उपमा-रूपक के सहारे क्षत्तिपूर्ति भी यही चीज है । हिंदी के पाठकों को याद है कि ठाकुर का कुंआ, कफन, पंच परमेश्‍वर, ईदगाह, बड़े भाई साहब और रानी सारन्‍ध्रा एक ही प्रेमचंद की रचना है । प्रेमचंद जीवन, रचना और दृष्टि में किसी तरह के कठमुल्‍लेपन के विरूद्ध थे, साथ ही लिखने के पहले और लिखने के बाद वाले पंडिताऊपन से भी वे हरदम ऊबे रहे । लेखन में इसी उदारता को विभूति नारायण राय भी धारण करते हैं, और यही हमें आश्‍वस्‍त करता है कि वे प्रेमचंद की परंपरा को लेकर आगे बढ़ते हैं ।

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रवि भूषण पाठक
प्रगतिशील वसुधा, कथाक्रम, जनसंदेश टाईम्‍स आदि में कविता । अभिनव कदम , शब्दिता, सृजनलोक आदि में आलेख । ऑनलाईन पत्रिकाओंजानकीपुल, सिताबदियारा , असुविधा, पहलीबार, अनुनाद आदि पर भी कविताएं । एक उपन्‍यास प्रकाशनाधीन । मैथिली साहित्‍य में भी सक्रियता ।
वर्तमान में चकबंदी विभाग, मऊनाथ भंजन, उत्‍तर प्रदेश में कार्यरत
संपर्क- ग्राम-करियन ,जिला-समस्‍तीपुर(बिहार), पिन- 848117
फोन- 9208490261
ईमेल-  rabib2010@gmail.com

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