Saturday 29 October 2022

विकास की अवधारणा में गाँव कहाँ हैं ?

अमरकांत और श्रीलाल शुक्ल विशुद्ध में ग्रामीण पृष्ठभूमियों में प्रचुर लेखन करने वाले कथाकार नहीं हैं। यद्यपि अमरकांत ग्रामीण इलाके से ही शहर में आए; जिस तरह हिंदी में अनेक रचनाकार आए हैं। प्रेमचंद, शिवपूजन सहाय, जगदीश चंद्र, फणीश्वर नाथ रेणु, राही मासूम रजा, मार्कंडेय, शिवमूर्ति और हरनोट आदि कथाकारों की तरह अमरकांत ग्रामीण लेखन के रचनाकार नहीं हैं, उन्हें हम प्रेमचंद की कहानी की परंपरा को अग्रसर करने वाले कहानीकार अवश्य मान सकते हैं।

 

1950 अथवा आज़ादी के बाद इलाहाबाद, बनारस, लखनऊ, आगरा, बलिया आदि उ.प्र. के शहर इस तरह के शहर थे कि उन्हें बड़ा गाँव, या मझोला शहर कहा जा सकता था। दो दशक पहले तक तो दिल्ली को भी बड़ा गाँव कहते थे, पढ़े-लिखे लोग। आज किन्हीं भी मध्यवर्गीय शहरों की तुलना में वे बेहद मंद, कछुआ चाल, कम जनसंख्या वाले, उद्योग विहीन, छोटे कार्यालयों वाले, उनींदे, वनस्पतियों से घिरे, पैदल और सायकिल प्रमुख शहर थे। शहरों के ऊपर ग्रामीण अक्स था, शहरों में बोलियों का पर्याप्त प्रचलन था । अमरकांत की यही राह थी, यही जगह थी। अमरकांत में जो अद्वितीय विनोद था वह ग्रामीण समाज और मनुष्य से आया था। उनकी कहानियों के विषयों में गाँव, कस्बे और शहर की मिली-जुली अवस्था है। सब एक-दूसरे को 'ओव्हर लैप' करते हुए। अपनी कहानियों, केवल कहानियों के बल पर वे हिंदी के थोड़े बहुत चेखव थे।

 

श्रीलाल शुक्ल नौकरशाह थे। निपुण, बुद्धिमान, शीनकाफ़, दुरुस्त, उच्च सामाजिक, प्रतिष्ठावान तो थे ही उनकी सामाजिक बुनावट भी ऐसी ही थी। अमरकांत शुरुआती दिनों से कम्युनिस्ट थे, 'कम्युनिस्ट' कहानी लिखी थी, छोटी-मोटी नौकरियाँ करते रहे, जीवन कठोर था पर उनमें गिला-शिकवा नहीं रहा। यह उनकी विचारधारा का आचरण था, जीवन भर यह बना रहा। श्रीलाल शुक्ल हिंदी में उस गुट के प्रिय रहे जो वामपंथ विरोधी रहा या जिसका अस्तित्व ही वामपंथ की खिलाफत से बना। वे 'परिमल' में अमूर्त रूप से सक्रिय रहे। उनका दोस्ताना वहीं था। उन्हें समाजवादियों का लाभ मिला। ब्राह्मण होने का भी । बहुत दिनों तक उनके नाम के साथ पंडित शब्द भी लोग लगाते रहे। पर श्रीलाल शुक्ल अपने दमखम, शराफत, हाज़िरजवाबी के बाद भी और 'राग दरबारी' जैसी चर्चित कृति के बाद भी 'बड़े' लेखक नहीं हैं। 'बड़े' शब्द पर मेरा दबाव है कि इसे सही अर्थ में समझा जाए। 'परिमल' के साथी होने के बावजूद 'परिमल' के दिग्गजों ने उन्हें 'बड़ा' लेखक नहीं माना । 'परिमल' के नियंता 'व्यंग्य' को उपहास से देखते थे और इसे ऊँचा दर्जा नहीं देते थे। इस पर कॉफी हाउस की अनेक बहसों का मैं युवा श्रोता भी इलाहाबाद में रहा हूँ।

 

श्रीलाल शुक्ल की 'राग दरबारी' में प्रहसन, मखौल, किस्सा और हास्य का झरना फूटता है। वे मज़ामत के उस्ताद हैं पर उनका सारा किया-कराया क्षणभंगुर है। अगर सूक्ष्मता से श्रीलाल शुक्ल जी की मीमांसा की जाए तो उनमें अर्बन लेखक की आधुनिक प्रवृत्तियाँ नहीं हैं। वे ओवरडेटेड लेखक हैं, परसाई जैसे श्रेष्ठ और देश के बड़े लेखक के साथ भी उन्हें खड़ा किया गया। खड़ा करने वाले का उद्देश्य केवल उन्हें खड़ा करना था, प्रगतिशील विचारधारा के परसाई को कम करने के लिए। श्रीलाल शुक्ल सदा जगमगाती दुनिया में रहे, जबकि अमरकांत के चारों तरफ एक गोबर से बनी कच्ची कोठरी का अँधेरा था। ढिबरियाँ जल रही हैं चारों तरफ और अमरकांत लिख रहे हैं। अमरकांत बड़े लेखक इसलिए भी हैं कि उन्हें कभी गिला-शिकवा नहीं रहा। उन्होंने जिस लेखकीय जीवन को और उत्तर भारतीय समाज को स्वीकार किया उससे उन्हें गहरा प्यार था। उनकी चाल साफ-सुथरी थी। वे खुश दिल रहे और एक बड़े रचनाकार की स्थिरता और तटस्थता उनमें है। अपने समकालीनों की वे गहरी इज्जत करते हैं और गुलगुले से अमरकांत में विचारों का पत्थर बिल्कुल ग्रेनाइट का है। उन्हें दूर किनार में, अपने चुने हुए एकांत में रहना पसंद था इसलिए बड़े-बड़े पराभवों और राजनैतिक शेयर बाज़ार के गिरने उठने बदलने के बावजूद वे अविचलित रहे। मुझे उनके चेहरे की आकृति ब्रेख्त के काफी करीब लगती है। इसलिए निष्कर्ष रूप में यह सही है कि श्रीलाल शुक्ल के आतिशबाज लेखन और अमरकांत के अँधेरों को एक जगह रख कर पुरस्कृत करना अपमानजनक भी है, और एक हद तक कारिस्तानी भी किशन पटनायक की टिप्पणी सही है, सटीक है। मेरी समझ यह है कि श्रीलाल जी की गाँव के जीवन से क्या शहरवासियों से भी यारी नहीं है।

 

अमरकांत और श्रीलाल शुक्ल के पुरस्कार प्रसंग को और विस्तार से जानना हो तो ज्ञानपीठ की यात्रा की तरफ ध्यान देना होगा। ज्ञानपीठ की स्थापना में शोध, मीमांसा, क्लासिकी चेतना का प्रकाशन और आयोजन उसकी गतिविधि का प्रमुख हिस्सा था। 'ज्ञानोदय' में मांस मदिरा, लहसुन प्याज का उल्लेख कहानी, कविता में आने पर उसे संपादित कर दिया जाता था। यह धर्मवीर भारती और रमेश बक्षी जैसे संपादकों के जमाने में बचा हुआ था। फिर 2010 तक आते-आते स्त्रियों पर कुत्सित टिप्पणी भी छपने लगी। आप देखिए कि कैसे ज्ञानपीठ की यात्रा समसामयिक बाज़ार की तरफ रेंग रही है। आधुनिकता और लोकप्रियता और प्रिंट आर्डर की ललक, बाज़ार की तरफ उन्मुख होना, उसका तर्क देने लगना ज्ञानपीठ की महत्त्वाकांक्षा का हिस्सा हो गया है। इसीलिए ज्ञानपीठ में देश के सबसे महँगे सेल्समैन और अभिनेता अमिताभ बच्चन का प्रवेश विचारणीय है। यह न तो अकारण है और नही बुद्धपना।

 

ज्ञानपीठ भी हिचकते-हिचकते विश्व के ताकतवर पुरस्कारों की राह में उठ रहा है। विश्व राजनीति में उसकी कोई जगह नहीं है, न विश्व बाज़ार में लेकिन उसकी ललक यही है। यह भी मुमकिन है कि सही खिलवाड़ का कूट खेल न कर सकने के कारण वह अधकचरे चपेटे में आ जाए, यह सब भविष्य के खेल हैं। अभी मेरी समझ यह है कि ज्ञानपीठ के निर्णयों में सहजता भोलापन और चातुर्य दोनों मिले-जुले हैं। कई बार उसके निर्णय भारतीय भाषाओं की ताकतवर प्रगतिशील परंपरा की पूरी-पूरी मुखालफत नहीं करते पर उसके चाल-चलन एक लोकप्रिय खुराफात ज़रूर है। जैसे शहरयार को पुरस्कृत में करना।

 

शहरयार उर्दू के 'बड़े' शायर नहीं हैं पर उनको पुरस्कृत करके एक प्रगतिशील मुखड़ा ज्ञानपीठ का बनता है। अंतर्विरोधी चीजें इसके पहले श्री हुई हैं- जब निर्मल वर्मा और गुरदयाल सिंह को ज्ञानपीठ दिया गया। यहाँ पर भी एक कम्युनिस्ट रचनाकार और एक कम्युनिस्ट विरोधी रचनाकार की कूटनीति स्पष्ट है। एक बात ध्यान दें कि ऐसा नामवर सिंह जैसे जूरी सदस्य के खेल से संभव हुआ। नामवर सिंह ज्ञानपीठ के लिए एक मुफीद वजीर हैं। जैसा मैं पहले एक बार अपने एक व्याख्यान में भी बाँदा में कह चुका हूँ कि असली खेल जूरी की नियुक्ति है। इसकी नियुक्ति के पहले ही सालों-साल यह क्रियाकलाप चलता रहता है। यही विभाजन फिर दोहराया गया-अमरकांत और श्रीलाल शुक्ल के साथ। ज्ञानपीठ गुरदयाल सिंह और अमरकांत को स्वतंत्र ज्ञानपीठ देने की बेवकूफी कभी नहीं कर सकता। यह केवल बड़े लेखकों को विभाजित और कमतर करने की तकनीक हैं।

 

साम्राज्यवादी दुनिया के बड़े और शातिर तरह से संचालित पुरस्कारों का ज्ञानपीठ का थिंक टैंक अभ्यास कर रहा है। उसके अगले कदम भारतीय समाज और राजनीति की करवटों के आधार पर होंगे। सीधा हस्तक्षेप न भी हो पर जूरी का संगठन, बहुत दूर तक सोच-विचार की कारीगरी है। यह भी हास्यास्पद है कि पिछले कुछ सालों से हिंदी के ताकतवर पुरस्कार हिंदी में सर्वश्री राजेंद्र यादव, अशोक वाजपेयी, कुँवर नारायण, केदारनाथ सिंह, कृष्ण बलदेव वैद के हिस्से में गये हैं। इन्हें बार-बार पुरस्कार मिले। ये सब जूरी की कारस्तानियाँ हैं।

 

बाज़ार का साम्राज्य, चाहे संचार, मनोरंजन, प्रसाधन का हो या शिक्षा और गाड़ियों का, गाँव की तरफ मुड़ रहा है। कंपनियाँ उधर ही जा रही हैं। यहाँ लूट की बड़ी संभावनाएँ-तपे रास्ते हैं, नया विवेकहीन उपभोक्ता है, कमाऊ मंडियाँ हैं। संभवतः सांस्कृतिक अवचेतन में अमरकांत भी इसीलिए जूरी को खटखटा रहे हों। बाज़ार का, नये साम्राज्य का गाँवों में प्रवेश उनको खत्म कर देने के लिए है, उन्हें लूट कर बदल देने का है। गाँव बचेंगे नहीं, वे उलट जाएँगे। यह कैसे मुमकिन हैं भारत देश में कि शहर तो बदल जाएँ उनका कायाकल्प हो जाए, नगरीकरण तेज बना रहे और गाँव जस के तस बने रहें। बीसों साल तक अमरकांत की सुध नहीं ली गयी और आज जब पुरस्कृत

किया गया (कोन-अंतरे में जाकर) तो मैं इसे इसी पृष्ठभूमि में देख रहा हूँ। इसी तरह 'कौन बनेगा करोड़पति' में घुस घुस कर गाँव के लोगों को लाया जा रहा है और उन्हें दस-पचास लाख दिये जा रहे हैं। यह अचानक वंचित गाँवों से लोगों को लाकर, उनके कठिन जीवन दृश्यों की क्लिपिंग दिखा कर, उनको मार्मिक दिखा कर यही किया जा रहा है, जो ज्ञानपीठ ने किया है। सब तरफ गाँव के उद्धार का यह खेल शुरू हो गया है।

 

हमारे देश के दोनों प्रमुख राजनैतिक दलों के विकराल अर्थशास्त्री भी अंततः गाँवों की ज़रूरत, उसकी जगह, उसकी अनिवार्यता के ऊपर गहरा प्रश्न चिह्न लगा चुके हैं। विकास की अवधारणा में गाँव कहाँ हैं? यह देखना एक दिलचस्प बात है।

 

उत्तर भारत में पारंपरिक गाँव के निशान तो तेजी से मिटे हैं। आने वाले समय में गाँव के बिंब और बदलने वाले हैं। इस देश में ऐसे इलाके भी हैं जहाँ बड़े किसान को ज़मीन का मुआवजा 5 से 15 तक भी मिला है। यह रकम रंग लाएगी। यह गिनती के लोगों का प्राप्य है पर इसका विनाश बड़ी ग्रामीण जनसंख्या पर होगा। अपराध, भुखमरी, भेद और रक्तपात का तीखा अनुभव देखने को मिलेगा। गाँव में बड़ी रकम फेंकी जा रही है जो अंततः बाज़ार का नियंत्रण उन्हीं इलाकों में बढ़ाएगी।

 -  ज्ञानरंजन

Saturday 15 October 2022

भाव और भाषा के उत्कृष्ट स्तर पर ले जाती एक रचना

सूर्यकुमार त्रिपाठी निराला के चरित्र की सबसे बड़ी विशेषता यह थी कि जीवन भर मुक्त हंसी से विपन्न, शोषित और पीड़ित मानवता के लिए वे अपना सर्वस्व लुटाते रहे और स्वयं अकिचन बने रहे, किंतु उनकी स्वयं की पीड़ा वैसी थी जिसमें साधारण मानव रोने बिलखने और कराहने लगे, पर उन्होंने पीड़ा से जूझते हुए उपफ तक नहीं किया। उनकी पीड़ा वस्तुतः संगीत का रूप धारण कर चुकी थी और इसी का परिणाम है- राम की शक्ति पूजा | बांग्ला के कृतिवास रामायण पर आधारित 1936 में 'भारत' नामक दैनिक पत्र में प्रकाशित 312 पंक्तियों की यह विराट कविता भाव और भाषा के उत्कृष्ट स्तर पर पहुंचती है। एक नजर डाल रही है निहारिका गौड़...

'राम की शक्ति पूजा'

कालजयी रचना की यह विशेषता होती है कि समय के प्रवाह में उसमें नए अर्थ भरते चले जाएं। सूर्यकुमार त्रिपाठी निराला के चरित्र की सबसे बड़ी विशेषता यह थी कि जीवन भर मुक्त हंसी से विपत्र, शोषित और पीड़ित मानवता के लिए वे अपना सर्वस्व लुटाते रहे और स्वयं अकिंचन बने रहे... किंतु उनकी स्वयं की पीड़ा वैसी थी जिसमें साधारण मानव रोने, बिलखने और कराहने लगे, पर उन्होंने पीड़ा से जूझते हुए उफ्फ तक नहीं किया। उनकी पीड़ा वस्तुतः संगीत का रूप धारण कर चुकी थी और इसी का परिणाम है राम की शक्ति पूजा।

बांग्ला के कृतिवास रामायण पर आधारित 1936 में 'भारत' नामक दैनिक पत्र में प्रकाशित 312 पक्तियों की यह विराट कविता भाव और भाषा के उत्कृष्ट स्तर पर पहुंचती है। स्मृति संचारी के माध्यम से गहरी प्रबन्धात्मक योजना के साथ मौलिक छंद में रची गई इस तत्सम प्रधान कविता में घटना के तीन पड़ाव है जिसमें कल लड़े गए युद्ध का पूरा वर्णन आगे की व्यूह रचना एवं आठ दिनों तक निरंतर चलने वाली शक्ति पूजा और उसको अंतिम परिणीति का अनुपम दृश्य है।

पहले अनुच्छेद की अट्ठारह पंक्तियों में राम-रावण युद्ध का वर्णन है। दूसरे अनुच्छेद की बारह पंक्तियों में राम और रावण दोनों पक्ष की सेनाओं के लौटने की सूचना है। तीसरे अनुच्छेद में शिविर में बैठकर सेनापति एवं अन्य सभी योद्धा मिलकर अगले दिन के रण की योजना बनाने की तैयारी में हैं। चौथे अनुच्छेद में राम के सैन्य शिविर के परिवेश का वर्णन करते हुए राम के मन में चलने वाले उथल- पुथल के साथ पूर्वदीप्ति शैली के माध्यम से जानकी वाटिका में राम सीता मिलन की स्मृति और फिर आज के युद्ध मिली असफलता तथा उससे उत्पन्न आशंका व्याकुलता का वर्णन है। पांचवें अनुच्छेद में राम के आसुंओं को देखकर शक्ति के प्रति हनुमान के क्रोध को उजागर किया है |

छठे अनुच्छेद में विभीषण संवाद है। स्थिति की विडंबना यह है कि राम का पक्ष कमज़ोर होते ही विभीषण व्याकुल हो उठते हैं, क्योंकि उनका राज्याभिषेक पहले ही किया जा चुका है। अगले अनुच्छेद में राम और विभीषण के चरित्र में अंतर की व्याख्या है, साथ ही राम की विवशता और उनकी आँखों से पुनः गिरते आसुंओं का अलग-अलग योद्धाओं पर उसकी अलग- अलग प्रतिक्रिया का पता चलता है। आठवें अनुच्छेद में जामवन्त श्रीराम को शक्ति आराधना का परामर्श देते हुए आश्वस्त करते हैं कि उनकी अनुपस्थिति में भी सुनियोजित ढंग से युद्ध चलता रहेगा। नौवें अनुच्छेद में शक्ति की मौलिक कल्पना और पूजन की तैयारी का वर्णन है। दसवां अनुच्छेद दो खंडों में विभक्त है, जिसमें प्रथम खंड में शक्ति पूजा और परीक्षा की व्याख्या है, वहीं दूसरे खंड में महाशक्ति के प्रकट होकर राम में शक्ति के लीन होने का दृश्य है।

निराला जी ने रामकथा का वह हिस्सा चुना, जहां संघर्ष एवं अंतर्द्वद्व सर्वाधिक हैं, दुःख कैसा रघुवर ? मुखर है। कविता का पहला ही वाक्यांश- 'रवि हुआ अस्त' अर्थात संध्या हो गई है, यूँ तो युद्ध कई दिनों आरंभ है, परंतु आज यह क्या हुआ कि राम के सारे शर निष्प्रभ सिद्ध हो रहे हैं। रावण की विध्वंसक अजेयता के आगे राम निरूपाय से हो रहे हैं और असली संघर्ष की शुरुआत यहीं से होती है। कविता की प्रारंभिक पंक्तियों अपनी संक्षितता की दृष्टि से कविता की आदर्श पूर्वपीठिका सिद्ध हुई है।

बोले रघुमणि 'मित्रवर, विजय होगी न समर, अन्याय जिधर, हैं उधर शक्ति।' कहते कुछ कर न सके और ये दुखांत जीवन....। छल छल हो गये नयन, कुछ बूंद पुनः ढलके दूगजल अपनी अंतरंग सभा में वे सुग्रीव से कह रहे हैं, ये कहां का न्याय है कि महाशक्ति रावण के पक्ष में चली गई। संकट के समय प्रियजन याद आते है और राम की स्मृति जानकी वाटिका में पहुंच जाती है, जहां पहले-पहल उन्हें सीता के दर्शन हुए थे। इस मिलन प्रक्रिया का एहसास कर उनमें दैवीय शक्ति का संचार होता है। परन्तु फिर महाशक्ति की गोद में बैठे हुए रावण को अट्टहास करता देख राम भावाकुल हो जाते हैं। ये सब देखकर और सारा संवाद सुनने के बाद जामवन्त कहते हैं, दुःख कैसा रघुवर ?

हे पुरुषसिंह, तुम भी यह शक्ति करो पुरुषोत्तम नवीन।' धारण, आराधन का दृढ़ आराधना से दो उत्तर... ।' महाशक्ति को रावण ने प्रसन्न कर लिया, जो कि अधर्म के पक्ष में है। आप तो धर्म के पक्ष में हैं, आप दोगुनी शक्ति से साधना कर महाशक्ति को अपने पक्ष में कीजिये | इसी सापेक्षता के सिद्धान्त को अपनाकर राम नवरात्र के समय आठ दिन का पूरा विधान बनाकर हनुमान को 108 नील कमल लाने का आदेश दिया। 'चाहिए हमें एक सौ आठ कपि, इन्दीवर' सूर्योदय के साथ शक्ति पूजा आरम्भ होती है।

आठ दिन की पूरी साधना यौगिक साधना है, जिसमें कुंडली उत्थापन की पूरी प्रक्रिया चलती है समाधिस्थ होकर एक जाप पूरा होते ही श्रीराम महाशक्ति के चरणों में एक इंदीवर अर्पित कर देते हैं। इसी तरह क्रमवार 107 नील पद्म महाशक्ति के चरणों में अर्पित किए जा चुके हैं। दुर्गाष्टमी की अर्धरात्रि का समय है। महाशक्ति ये सारी लीला देख रही हैं। ये साधना त्याग की भावना से परिपूर्ण है या स्वार्थवश इस हेतु महाशक्ति सूक्ष्म रूप में आकर राम के पार्श्व में रखे एक सौ आठवें कमल को लेकर अंतर्ध्यान हो जाती है। राम ध्यानस्थ अवस्था में 108वां जाप करने के बाद जैसे ही नीलपद्म उठाने के लिए हाथ बढ़ाते हैं, स्थान रिक्त पाते हैं। उनका मन व्याकुल और नयन सजल हो उठते हैं...।' अपनी प्राणप्रिया जानकी के लिए, कुछ न कर सके और ये दुखांत जीवन...|

'धिक जीवन को जो पाता ही आया विरोध, धिक् साधन जिसके लिए सदा ही किया शोध' फिर राम बुद्धि के चरम स्तर पर जाकर समाधान खोजते हैं। उनकी स्मृति बाल्यवस्था में लौटती है और उन्हें याद आता है कि माँ उन्हें राजीवनयन कहा करती थी। अर्थात मेरे पास दो कमल है। प्रतिज्ञा कर वे महाशक्ति का ध्यान करते हुए अस्त्र से अपनी दाहिनी आंख को समर्पित करने के लिए जिस क्षण हाथ उठाते हैं, उसी क्षण देवी प्रकट होती हैं और राम का हाथ थाम लेती हैं। श्रीराम के धैर्य और त्याग प्रसन्न हो महाशक्ति राम के बदन में लोन हो जाती हैं। 'होगी जय, होगी जय, हे पुरुषोत्तम नवीन |’

कह महाशक्ति राम के वंदन में हुई लीन। और इसी ज्योतिर्मय चरमोत्कर्ष पर कविता समाप्त होती है। शक्ति का स्रोत मनुष्य के भीतर है, उसे जागृत करने से ही बाहरी विश्व पर विजय प्राप्त होती है |

Tuesday 4 October 2022

किन्नरों की स्वीकार्यता की संकल्पित संस्तुति

        संसार में सामान्य स्त्री-पुरुष के अतिरिक्त कुछ ऐसे प्राणी भी हैं जो सामान्य तौर पर पूरी तरह से पुरुष होते हैं और ही पूरी तरह से स्त्री। सामान्यतया सामाजिक रूप से इन्हें हम तृतीयलिंगी के नाम से सम्बोधित करते हैं। इनके लिए किन्नर, हिजड़ा आदि शब्द भी प्रयुक्त किए जाते हैं।  समाज,धर्म-अध्यात्म, विज्ञान तृतीयलिंगी या किन्नर को अपने-अपने तरीकों से व्याख्यायित करता है। साहित्य में भी किन्नरों पर अब पर्याप्त रूप से अध्ययन-चिंतन किया जा रहा है। अनेक पुस्तकें ऐसी प्रकाशित हुई हैं जिनमें किन्नरों के ऐतिहासिक सामाजिक परिप्रेक्ष्य पर दृष्टि डाली गई है। किन्नरों से सम्बंधित मिथ एवं यथार्थ को भी सामने लाया गया है। परंतु ऐसे कार्य बहुतायत में अंग्रेज़ी तथा अन्य भाषाओं में आसानी से उपलब्ध हैं। हिंदी में अभी ऐसी पुस्तकों की कमी है। वाणी प्रकाशन, नयी दिल्ली से प्रकाशित प्रियंका नारायण की पुस्तककिन्नर: सेक्स और सामाजिक स्वीकार्यताइसी प्रकार के अनुशीलन का प्रयास है जो किन्नरों के विभिन्न मुद्दों पर प्रकाश डालती है। अपनी प्रकृति में प्रस्तुत पुस्तक अनूठी है जिसमें किन्नरों पर विभिन्न दृष्टिकोणों से अध्ययन प्रस्तुत किया गया है। पुस्तक की भूमिका में वरिष्ठ साहित्यकार तेजेन्द्र शर्मा बहुत महत्त्वपूर्ण बात कहते हैं,“भारत में किन्नरों का भी एकगोल्डन एरायानी कि स्वर्णकाल था। दरअसल किन्नरों को मुग़ल साम्राज्य में सबसे पहले अहमियत दी गई थी। किन्नरों को महिलाओं के हरम की रक्षा की ज़िम्मेदारी दी जाती थी। मुगल साम्राज्य का मानना था कि किन्नर हमारे समाज का एक अहम हिस्सा हैं और इसीलिए उन्हें इतनी बड़ी जिम्मेदारी सौंपी गई।1

पुस्तक का प्रथम अध्यायलैंगिक अवधारणाहै। किन्नरों की लैंगिक अवधारणा को स्पष्ट करने से पहले प्रियंका नारायण सामान्य पुरुष और स्त्री की लैंगिक अवधारणाओं को विस्तार से समझाती हैं। हमारे शास्त्रों में कहा गया हैयत्पिंडे तथाब्रह्मांडेअर्थात् जो हमारे शरीर (पिण्ड) में है, वही इस ब्रह्मांड में विस्तार रूप में अवस्थित है अर्थात् हमारा यह शरीर भी सम्पूर्ण ब्रह्मांड का ही सूक्ष्म रूप मेंरिप्रेजेंटेशनहै।पंचमहाभूतों के सभी गुण मनुष्य में भी उपस्थित हैं। उल्लेखनीय है कि पाश्चात्य चिन्तन परम्परा में ब्रह्मांड की उत्पत्ति का कारणबिग-बैंग सिद्धान्तको माना जाता है। लेखिका के शब्दों में,“भारतीय तत्त्वचिन्तन उस एकल स्वरूप को ब्रह्म की संज्ञा देता है और कहता है कि यह ब्रह्म जब अपनी ही माया से मोहित हुआ तो स्वयं में उत्पन्न इस विकार से प्रकृति को उत्पन्न किया जिसने गर्भ में अपने अंश के रोपन के पश्चात् विभिन्न तत्त्वों की सृष्टि की। यहाँ यह ध्यातव्य है कि प्रकृति स्त्रीरूपा होते हुए भी लैंगिक स्त्री नहीं थी। यह उसी ब्रह्म की विवर्त थी और ब्रह्म को भी लिंग की सीमा से परे रखा गया है।2 इस अध्याय में प्रजनन प्रक्रिया का विवेचन जीववैज्ञानिक आधारों पर प्रस्तुत किया गया है। मानव समाज का विकास जंगल युग, बर्बर युग और सभ्यता युग के क्रम में माना जाता है। मानव अपनी बुद्धि और योग्यता के बल पर पशुओं के रहन-सहन से अलग होता गया और अपने जीवन स्तर में अपेक्षित सुधार करता गया। भोजन और सुरक्षा की मूलभूत आवश्यकताओं को जब मानव पूरा करता गया तो उसे कला और सौन्दर्य की आवश्यकता भी अपने जीवन में महसूस हुई। समाज के विकास के साथ-साथ मानव ने पशुपालन और कृषि भी करना सीखा। उल्लेखनीय है कि ये दोनों ही कार्यएक्सटेंसिवयानी कि पर्याप्त शारीरिक श्रम की माँग करते हैं। स्त्रियों की शारीरिक संरचना की तुलना में पुरुष की शारीरिक संरचना अधिक मजबूत और सक्षम होती है। अतः शक्ति को धारण करने वाले पुरुष का वर्चस्व धीरे-धीरे अन्य बातों के साथ-साथ समाज पर भी हावी होने लगा। स्त्री-पुरुष की विलासिता संतानोत्पत्ति और शारीरिक संतुष्टि का साधन बन गईं। पुरुष और स्त्री के साथ प्रियंका यहाँ किन्नरों की स्थिति भी स्पष्ट करती हैं,“प्रजनन और अस्तित्व विस्तार के इस दृढ़ मानसिक-बौद्धिक वातावरण में स्त्रियाँ तो हथियार बनीं, किन्नर वो भी नहीं बन पाए। जो भी है इसी जीवन के लिए है आगे नाथ पीछे पगहावाली स्थिति के कारण उनके अन्दर अस्तित्व विस्तार की लिप्सा समाप्त हो गई होगी। जहाँ अपना कुछ हो, वहाँ से विरक्ति हो ही जाती है। किन्नरों ने पाया कि मैं अर्जन कर के क्या करूँगा। मेरे बाद इस संपत्ति सुख को कौन भोगेगा। किन्नरों ने अपने अस्तित्व की लघुता और जीवन की निस्सारता को अच्छी तरह समझा। शायद यही कारण हो सकता है कि उन्होंने सामाजिक ताने-बाने में उलझना मुनासिब नहीं समझा हो और अपना एक अलग संसार निर्मित कर लिया हो। शुरुआती दौर में तो यह वैकल्पिक होता होगा परन्तु आगे चलकर यह भी एक रूढ़ि बन गई होगी और ये अपनी लैंगिक असमानता के उभरने के बाद समाज छोड़कर चले जाते होंगे या इन्हें बलात् भेज दिया जाता होगा। समाज ने इसे भी एक नियम बना लिया होगा जो आज भी परम्परा के नाम से चल रहा है।3 यह एक सच ही है कि हमारे धर्मग्रंथों में किन्नरों को संतानोत्पत्ति, सामाजिक रहन-सहन और सम्पत्ति; इन सभी प्रकार के अधिकारों से वंचित ही रखा गया है। किन्नर मनुष्य द्वारा स्वेच्छा से किया गया समाज और सम्पत्ति का त्याग धीरे-धीरे रूढ़िबद्धता के रूप में सामने आया और आज भी स्थिति यह है कि स्वयं सभ्य समाज ने किन्नरों को उनकी सामाजिक स्वीकार्यता से पदच्युत कर दिया।

परिवार समाज की सबसे छोटी इकाई है। जिसमें व्यक्तियों के पारस्परिक सम्बंध और दायित्व निर्धारित होते हैं। ध्यान से देखा जाए तो मानव के सामाजिक जीवन का आरम्भ उसके परिवार से ही हो होता है। मानव की प्रवृत्ति होती है कि वह आत्म अनुरक्षण के साथ-साथ अपनी जाति-प्रजाति का अनुरक्षण भी करता है। यह प्रजाति अनुरक्षण ही संतानोत्पत्ति का मूल आधार है। उल्लेखनीय है कि यह प्रवृत्ति मनुष्य के साथ-साथ धरती के प्रत्येक जीवधारी में विभिन्न रूपों में पाई जाती है। सामान्य तौर पर पुरुष और स्त्री तो इस कार्य के लिए उपयुक्त होते हैं परन्तु किन्नर यह कार्य नहीं कर सकते। इसीलिए समाज में स्त्री और पुरुष का महत्त्व अनेक दृष्टियों से अक्षुण्ण, उपयोगी और फलदायी रहा परन्तु किन्नरों को यह स्थान नहीं प्राप्त हो पाया। प्रियंका लिखती हैं,“शारीरिक और मानसिक रूप से स्त्रियों पर आधिपत्य जमा पाने के कारण हिजड़ा यानी तीसरा लिंग अपने पितृव्यों की गौरवानुभूति का विषय बन पाने के कारण भी उपेक्षित-बहिष्कृत हुए होंगे। समाज में पुरस्कृत पौरुष प्रकृति के धारक नहीं होने के कारण तीसरे लिंग ने अपनी उपयोगिता खोयी और परिवार की विरासत (पैतृक सम्पत्ति) से बहिष्कृत हुए।4 जीव वैज्ञानिक मानव शरीर को आंतरिक बाह्य रूप से जीव विज्ञान के जटिल सिद्धान्तों की कसौटी पर देखते हैं। अध्याय दोकिन्नर: एक जीववैज्ञानिक अध्ययनइन्हीं आधारों पर किन्नरों का जैविक विश्लेषण प्रस्तुत करता है। उल्लेखनीय है कि प्राणीशास्त्री किसी भी जीवधारी के पुरुष या स्त्री होने का कारण सम्बंधित हार्मोन को मानते हैं। हार्मोनल असंतुलन के कारण अनेक प्रकार के लैंगिक और मानसिक विकार उत्पन्न हो जाते हैं जिससे शरीर में विभिन्न प्रकार के परिवर्तन आकर अपना स्थान ग्रहण करते हैं। प्रियंका इन विकारों को जेंडर आईडेंटिटी, जेंडर बिहेवियर और सेक्सुअल ओरियंटेशन के परिप्रेक्ष्य में विस्तार से अभिलेखित करती हैं। पारलैंगिक (ट्रांससेक्सुअल) और किन्नर पर भी यहाँ विस्तार से प्रकाश डाला गया है। प्रियंका के शब्दों में,“भिन्न लिंगों में विभक्त शरीर का अपने शरीर के अनुसार अभिव्यक्त होना दो प्रकार का होता है। एक तो यह कि शरीर की सभी बातें सामान्य होने के बावजूद केवल मनोभावों में विरोधाभास पाया जाता है और दूसरा, शरीर का लैंगिक रूप से अविकसित और विकृति के साथ विकसित होना। पहली स्थिति को हम पारलैंगिक (ट्रांससेक्सुअल) कहते हैं और दूसरी स्थिति को किन्नर।5

पुराण भारतीय संस्कृति के सनातन आख्यान हैं। पुराणों में मानव इतिहास की अनेक कथाएँ प्राप्त होती हैं।ये कथाएँ उपकथाओं और अवांतर कथाओं में भी विभाजित हैं। पुराणों में सृष्टि की उत्पत्ति का वर्णन बहुत विस्तार से प्राप्त होता है। लगभग प्रत्येक पुराण में सृष्टि की उत्पत्ति, इसका विस्तार, इसके भूखंड, कालगणना आदि का वृहद् विवेचन वृत्तांत रूप में प्राप्त होता है। उल्लेखनीय है कि ये जानकारियाँ आज विज्ञान की कसौटी पर भी खरी उतरती हैं। पुराणों में स्त्री-पुरुष के वर्णन के साथ ही किन्नरों के वर्णन भी प्राप्त होते हैं। यहाँ इन्हेंकिंपुरुषकहा गया है। पुराणों में इनसे सम्बंधित जो कथाएँ मिलती हैं, वे थोड़े से हेरफेर के साथ अन्य पुराणों में भी मिलती हैं। सुद्युम्न, इला, मोहिनी, वृहन्नला, शिखंडी जैसे अनेक चरित्र पुराणों में इस विमर्श से सम्बंधित मिलते हैं। लेखिका ने पुराणों के क्रम पर दृष्टिपात करते हुए इनमें आई हुई किन्नर विमर्श से सम्बंधित कथाओं को विश्लेषण के साथ दर्शाया है। यहाँ यह तथ्य मुख्य रूप से उल्लेखनीय है कि परम्परागत रूप से अर्धनारीश्वर की अवधारणा किन्नर समाज से ही जुड़ती रही है। प्रियंका इन सभी कथाओं के आलोक में कोशिकीय विकास के मिथकीय रूपांतरण भी रेखांकित करती हैं। पुराणों के विभिन्न चरित्रों में यह स्पष्टतया दर्शनीय है। बकौल प्रियंका, “ध्यान देने योग्य एक दूसरा तथ्य यह भी है कि अभी तक सुद्युम्न या इला का प्रसंग आता है या फिर अर्धनारीश्वर काप्रजनन को आगे बढ़ाने की प्रक्रिया हमेशा एक ही शरीर में दो लिंगों की अवधारणा के साथ ही क्यों विकसित हो रही है और वह भी बिल्कुल आरम्भिक दौर में। क्या ऐसी कोई संभावना मौजूद हो सकती थी कि द्विलिंगी ही या द्विलिंगी भी गर्भ धारण करते हों जिसके बारे में वर्तमान विज्ञान बात कर रहा है।6 विभिन्न पुराणों जैसे विष्णु पुराण, शिव पुराण, भविष्य पुराण, ब्रह्मवैवर्त पुराण, स्कन्द पुराण, लिंग पुराण, कूर्म पुराण, अग्नि पुराण, श्रीमद्भागवत पुराण आदि में इन घटनाओं के उल्लेख प्रमुखता से मिलते हैं। यह तथ्य भी उल्लेखनीय है कि हिन्दू धर्म में पुराणों की कथाओं की व्याख्या दार्शनिक, आध्यात्मिक और तात्विक दृष्टिकोण की माँग करती है। जीवन के अनेक रहस्य इन कथाओं में अंतर्गुम्फित-से हैं। पुराणों में केवल मिथकीय घटनाएँ ही नहीं हैं। इनमें भावी जीवन के अनेक ऐसे पक्ष सूत्ररूप में मिलते हैं जो आज भी वैज्ञानिकों को सोचने पर मजबूर कर देते हैं। लेखिका का कथन समीचीन है,“वास्तव में यदि हम आधुनिक चिन्तकों और मतानुसार पुराणों को नकारने की कोशिश करें और किसी एक विचारधारा के खूँटे से बंधकरथर्ड जेंडरया कुछ ऐसे अस्तित्व जो कि पृथ्वी पर उतने ही पुराने हैं जितने कि हम, विचार देने की कोशिश करेंगे तो विचारधारात्मक रूप से भले ही वह स्वीकृत, प्रशंसनीय और मान्य हो जाए लेकिन शोध के निष्पक्ष मापदण्डों पर वह खरा नहीं उतरेगा। दूसरा यह भी कि अध्ययन का एक ही पक्ष परिभाषित होगा, उसका एक बहुत बड़ा पक्ष विचारधारात्मक पूर्वाग्रह से प्रभावित हो छूट जाएगा या फिर जो निष्कर्ष हम देंगे वह भी प्रभावित, एकांगी और अधूरापन लिए होगा। यहाँ किन्नर या हिजड़ा समुदाय को पूरी तरह से समझने के लिए हमें एक बार इतिहास के साथ मिथकीय इतिहास के पन्नों को भी खंगालना ही होगा क्योंकि भारतीय ऐतिहासिक समाज