1950 अथवा आज़ादी के बाद
इलाहाबाद, बनारस, लखनऊ, आगरा, बलिया आदि उ.प्र. के शहर इस तरह के शहर थे कि उन्हें बड़ा गाँव, या मझोला शहर कहा
जा सकता था। दो दशक पहले तक तो दिल्ली को भी बड़ा गाँव कहते थे, पढ़े-लिखे लोग। आज
किन्हीं भी मध्यवर्गीय शहरों की तुलना में वे बेहद मंद, कछुआ चाल, कम जनसंख्या वाले, उद्योग विहीन, छोटे कार्यालयों
वाले, उनींदे, वनस्पतियों से घिरे, पैदल और सायकिल प्रमुख शहर थे। शहरों
के ऊपर ग्रामीण अक्स था, शहरों में बोलियों का पर्याप्त प्रचलन था । अमरकांत की यही राह थी, यही जगह थी।
अमरकांत में जो अद्वितीय विनोद था वह ग्रामीण समाज और मनुष्य से आया था। उनकी
कहानियों के विषयों में गाँव,
कस्बे और शहर की मिली-जुली अवस्था है।
सब एक-दूसरे को 'ओव्हर लैप' करते हुए। अपनी कहानियों, केवल कहानियों के बल पर वे हिंदी के
थोड़े बहुत चेखव थे।
श्रीलाल शुक्ल नौकरशाह थे। निपुण, बुद्धिमान, शीनकाफ़, दुरुस्त, उच्च सामाजिक, प्रतिष्ठावान तो थे
ही उनकी सामाजिक बुनावट भी ऐसी ही थी। अमरकांत शुरुआती दिनों से कम्युनिस्ट थे, 'कम्युनिस्ट' कहानी लिखी थी, छोटी-मोटी नौकरियाँ
करते रहे, जीवन कठोर था पर उनमें गिला-शिकवा नहीं रहा। यह उनकी विचारधारा का
आचरण था, जीवन भर यह बना रहा। श्रीलाल शुक्ल हिंदी में उस गुट के प्रिय रहे
जो वामपंथ विरोधी रहा या जिसका अस्तित्व ही वामपंथ की खिलाफत से बना। वे 'परिमल' में अमूर्त रूप से
सक्रिय रहे। उनका दोस्ताना वहीं था। उन्हें समाजवादियों का लाभ मिला। ब्राह्मण
होने का भी । बहुत दिनों तक उनके नाम के साथ पंडित शब्द भी लोग लगाते रहे। पर
श्रीलाल शुक्ल अपने दमखम, शराफत, हाज़िरजवाबी के बाद भी और 'राग दरबारी' जैसी चर्चित कृति
के बाद भी 'बड़े' लेखक नहीं हैं। 'बड़े' शब्द पर मेरा दबाव है कि इसे सही अर्थ में समझा जाए। 'परिमल' के साथी होने के
बावजूद 'परिमल' के दिग्गजों ने उन्हें 'बड़ा' लेखक नहीं माना । 'परिमल' के नियंता 'व्यंग्य' को उपहास से देखते
थे और इसे ऊँचा दर्जा नहीं देते थे। इस पर कॉफी हाउस की अनेक बहसों का मैं युवा
श्रोता भी इलाहाबाद में रहा हूँ।
श्रीलाल शुक्ल की 'राग दरबारी' में प्रहसन, मखौल, किस्सा और हास्य का
झरना फूटता है। वे मज़ामत के उस्ताद हैं पर उनका सारा किया-कराया क्षणभंगुर है।
अगर सूक्ष्मता से श्रीलाल शुक्ल जी की मीमांसा की जाए तो उनमें अर्बन लेखक की
आधुनिक प्रवृत्तियाँ नहीं हैं। वे ओवरडेटेड लेखक हैं, परसाई जैसे श्रेष्ठ
और देश के बड़े लेखक के साथ भी उन्हें खड़ा किया गया। खड़ा करने वाले का उद्देश्य
केवल उन्हें खड़ा करना था, प्रगतिशील विचारधारा के परसाई को कम करने के लिए। श्रीलाल शुक्ल
सदा जगमगाती दुनिया में रहे,
जबकि अमरकांत के चारों तरफ एक गोबर से
बनी कच्ची कोठरी का अँधेरा था। ढिबरियाँ जल रही हैं चारों तरफ और अमरकांत लिख रहे
हैं। अमरकांत बड़े लेखक इसलिए भी हैं कि उन्हें कभी गिला-शिकवा नहीं रहा। उन्होंने
जिस लेखकीय जीवन को और उत्तर भारतीय समाज को स्वीकार किया उससे उन्हें गहरा प्यार
था। उनकी चाल साफ-सुथरी थी। वे खुश दिल रहे और एक बड़े रचनाकार की स्थिरता और
तटस्थता उनमें है। अपने समकालीनों की वे गहरी इज्जत करते हैं और गुलगुले से
अमरकांत में विचारों का पत्थर बिल्कुल ग्रेनाइट का है। उन्हें दूर किनार में, अपने चुने हुए
एकांत में रहना पसंद था इसलिए बड़े-बड़े पराभवों और राजनैतिक शेयर बाज़ार के गिरने
उठने बदलने के बावजूद वे अविचलित रहे। मुझे उनके चेहरे की आकृति ब्रेख्त के काफी
करीब लगती है। इसलिए निष्कर्ष रूप में यह सही है कि श्रीलाल शुक्ल के आतिशबाज लेखन
और अमरकांत के अँधेरों को एक जगह रख कर पुरस्कृत करना अपमानजनक भी है, और एक हद तक
कारिस्तानी भी किशन पटनायक की टिप्पणी सही है, सटीक है। मेरी समझ यह है कि श्रीलाल
जी की गाँव के जीवन से क्या शहरवासियों से भी यारी नहीं है।
अमरकांत और श्रीलाल शुक्ल के पुरस्कार प्रसंग को और विस्तार से
जानना हो तो ज्ञानपीठ की यात्रा की तरफ ध्यान देना होगा। ज्ञानपीठ की स्थापना में
शोध, मीमांसा, क्लासिकी चेतना का प्रकाशन और आयोजन उसकी गतिविधि का प्रमुख हिस्सा
था। 'ज्ञानोदय' में मांस मदिरा,
लहसुन प्याज का उल्लेख कहानी, कविता में आने पर
उसे संपादित कर दिया जाता था। यह धर्मवीर भारती और रमेश बक्षी जैसे संपादकों के
जमाने में बचा हुआ था। फिर 2010
तक आते-आते स्त्रियों पर कुत्सित
टिप्पणी भी छपने लगी। आप देखिए कि कैसे ज्ञानपीठ की यात्रा समसामयिक बाज़ार की तरफ
रेंग रही है। आधुनिकता और लोकप्रियता और प्रिंट आर्डर की ललक, बाज़ार की तरफ
उन्मुख होना, उसका तर्क देने लगना ज्ञानपीठ की महत्त्वाकांक्षा का हिस्सा हो गया
है। इसीलिए ज्ञानपीठ में देश के सबसे महँगे सेल्समैन और अभिनेता अमिताभ बच्चन का
प्रवेश विचारणीय है। यह न तो अकारण है और नही बुद्धपना।
ज्ञानपीठ भी हिचकते-हिचकते विश्व के ताकतवर पुरस्कारों की राह में
उठ रहा है। विश्व राजनीति में उसकी कोई जगह नहीं है, न विश्व बाज़ार में लेकिन उसकी ललक
यही है। यह भी मुमकिन है कि सही खिलवाड़ का कूट खेल न कर सकने के कारण वह अधकचरे
चपेटे में आ जाए, यह सब भविष्य के खेल हैं। अभी मेरी समझ यह है कि ज्ञानपीठ के
निर्णयों में सहजता भोलापन और चातुर्य दोनों मिले-जुले हैं। कई बार उसके निर्णय
भारतीय भाषाओं की ताकतवर प्रगतिशील परंपरा की पूरी-पूरी मुखालफत नहीं करते पर उसके
चाल-चलन एक लोकप्रिय खुराफात ज़रूर है। जैसे शहरयार को पुरस्कृत में करना।
शहरयार उर्दू के 'बड़े' शायर नहीं हैं पर उनको पुरस्कृत करके एक प्रगतिशील मुखड़ा ज्ञानपीठ
का बनता है। अंतर्विरोधी चीजें इसके पहले श्री हुई हैं- जब निर्मल वर्मा और
गुरदयाल सिंह को ज्ञानपीठ दिया गया। यहाँ पर भी एक कम्युनिस्ट रचनाकार और एक
कम्युनिस्ट विरोधी रचनाकार की कूटनीति स्पष्ट है। एक बात ध्यान दें कि ऐसा नामवर
सिंह जैसे जूरी सदस्य के खेल से संभव हुआ। नामवर सिंह ज्ञानपीठ के लिए एक मुफीद
वजीर हैं। जैसा मैं पहले एक बार अपने एक व्याख्यान में भी बाँदा में कह चुका हूँ
कि असली खेल जूरी की नियुक्ति है। इसकी नियुक्ति के पहले ही सालों-साल यह
क्रियाकलाप चलता रहता है। यही विभाजन फिर दोहराया गया-अमरकांत और श्रीलाल शुक्ल के
साथ। ज्ञानपीठ गुरदयाल सिंह और अमरकांत को स्वतंत्र ज्ञानपीठ देने की बेवकूफी कभी
नहीं कर सकता। यह केवल बड़े लेखकों को विभाजित और कमतर करने की तकनीक हैं।
साम्राज्यवादी दुनिया के बड़े और शातिर तरह से संचालित पुरस्कारों
का ज्ञानपीठ का थिंक टैंक अभ्यास कर रहा है। उसके अगले कदम भारतीय समाज और राजनीति
की करवटों के आधार पर होंगे। सीधा हस्तक्षेप न भी हो पर जूरी का संगठन, बहुत दूर तक
सोच-विचार की कारीगरी है। यह भी हास्यास्पद है कि पिछले कुछ सालों से हिंदी के
ताकतवर पुरस्कार हिंदी में सर्वश्री राजेंद्र यादव, अशोक वाजपेयी, कुँवर नारायण, केदारनाथ सिंह, कृष्ण बलदेव वैद के
हिस्से में गये हैं। इन्हें बार-बार पुरस्कार मिले। ये सब जूरी की कारस्तानियाँ
हैं।
बाज़ार का साम्राज्य, चाहे संचार, मनोरंजन, प्रसाधन का हो या
शिक्षा और गाड़ियों का, गाँव की तरफ मुड़ रहा है। कंपनियाँ उधर ही जा रही हैं। यहाँ लूट की
बड़ी संभावनाएँ-तपे रास्ते हैं,
नया विवेकहीन उपभोक्ता है, कमाऊ मंडियाँ हैं।
संभवतः सांस्कृतिक अवचेतन में अमरकांत भी इसीलिए जूरी को खटखटा रहे हों। बाज़ार का, नये साम्राज्य का
गाँवों में प्रवेश उनको खत्म कर देने के लिए है, उन्हें लूट कर बदल देने का है। गाँव
बचेंगे नहीं, वे उलट जाएँगे। यह कैसे मुमकिन हैं भारत देश में कि शहर तो बदल
जाएँ उनका कायाकल्प हो जाए, नगरीकरण तेज बना रहे और गाँव जस के तस बने रहें। बीसों साल तक
अमरकांत की सुध नहीं ली गयी और आज जब पुरस्कृत
किया गया (कोन-अंतरे में जाकर) तो मैं इसे इसी पृष्ठभूमि में देख
रहा हूँ। इसी तरह 'कौन बनेगा करोड़पति' में घुस घुस कर गाँव के लोगों को लाया
जा रहा है और उन्हें दस-पचास लाख दिये जा रहे हैं। यह अचानक वंचित गाँवों से लोगों
को लाकर, उनके कठिन जीवन दृश्यों की क्लिपिंग दिखा कर, उनको मार्मिक दिखा कर
यही किया जा रहा है, जो ज्ञानपीठ ने किया है। सब तरफ गाँव के उद्धार का यह खेल शुरू हो
गया है।
हमारे देश के दोनों प्रमुख राजनैतिक दलों के विकराल अर्थशास्त्री
भी अंततः गाँवों की ज़रूरत, उसकी जगह, उसकी अनिवार्यता के ऊपर गहरा प्रश्न चिह्न लगा चुके हैं। विकास की
अवधारणा में गाँव कहाँ हैं? यह देखना एक दिलचस्प बात है।
उत्तर भारत में पारंपरिक गाँव के निशान तो तेजी से मिटे हैं। आने
वाले समय में गाँव के बिंब और बदलने वाले हैं। इस देश में ऐसे इलाके भी हैं जहाँ
बड़े किसान को ज़मीन का मुआवजा 5
से 15 तक भी मिला है। यह रकम रंग लाएगी। यह
गिनती के लोगों का प्राप्य है पर इसका विनाश बड़ी ग्रामीण जनसंख्या पर होगा। अपराध, भुखमरी, भेद और रक्तपात का
तीखा अनुभव देखने को मिलेगा। गाँव में बड़ी रकम फेंकी जा रही है जो अंततः बाज़ार
का नियंत्रण उन्हीं इलाकों में बढ़ाएगी।
यथार्थ का चित्रण 👌👌
ReplyDeleteसटीक
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