अनिल कुमार पाण्डेय
कविता का लिखना, दिखाई दे रही घटनाओं का,
प्रतीत हो रही बातों का, ठीक-ठीक उसी रूप में रख देना भर नहीं है | ऐसा करने से
कविता के समाप्त होने का जितना खतरा होता है उससे कहीं अधिक कवि की कविताई संशय के
घेरे में आ जाती है | जब तक पढ़ी जा रही कविता के माध्यम से पाठक कुछ सोचने और अधिक
से अधिक कल्पना करने के लिए बाध्य न हो तब तक किसी भी लेखनी को कविता मानने से
इनकार किया जा सकता है | एक कविता पाठक को कई अर्थ देती है | कभी मुक्तिबोध ने कहा
था “मुझे कदम कदम पर चौराहे मिलते हैं” इस चौराहे को समझने और उस पर खड़े होने के
आनंद को कोई भी सहृदय पाठक बड़ी गहराई से महसूस करता है | इस समय उसके हृदय में बहुत
कुछ उठता-मचलता है | बहुत कुछ उठने-मचलने की प्रक्रिया जहाँ से शुरू होने लगे समझ
लो कविता आपके अन्दर समाहित हो रही और आप कविता के अन्दर |
आज
समकालीन हिंदी कविता जगत में दो तरह के कवि वर्तमान हैं| एक वे, जो सीधे घटनाओं को
देखकर कविता की रचना कर रहे हैं और दूसरे वे जो घटनाओं को स्वयं घटित होता महसूस
कर कविता की रचना कर रहे हैं | पहले प्रकार के कवियों में सपाटबयानी का खतरा बढ़
जाता है | यहाँ कविता का कहन महत्त्वपूर्ण न होकर घटनाओं को प्रभावी तरीके से
प्रस्तुत करना अधिक जरूरी माना जाता है | यह भी कि जहाँ वैचारिकता हावी होगी वहां
कला जरूर मौन दिखाई देगी | ऐसे कवियों के लिए शब्दों से सीधा टकराव अपेक्षित है,
‘प्रतीक और बिम्ब’ सरीखे शब्द बेईमानी हैं| जबकि दूसरे प्रकार के कवि घटनाओं के
संसर्ग से उपजे समस्याओं को ठीक उसी रूप में नहीं रख देते जैसा कि उनके सामने घटित
हुआ है| वे पहले तो स्वयं घटना बन कर जीते हैं| उसके प्रभाव को अपने अन्दर महसूसते
हैं| फिर उस घटना के प्रतीकात्मक अर्थ-सृष्टि के नियामक-तत्त्वों का चयन करते हैं|
ऐसे कवियों का दृष्टिकोण विकसित होता जाता है और मात्र सामाजिक संबंधों में घटित
होने वाली घटनाएँ प्रभावी न होकर सम्पूर्ण सांस्कृतिक परिवेश इनकी चिंतन के
केन्द्र में दिखाई देता है|
कविता की सपाटबयानी में वैचारिकता को
ढोने की मजबूरी अधिक होती है| अब यह मजबूरी अपने खेमे के लोगों की वाहवाही प्राप्त
करने की भी हो सकती है और त्वरित प्रतिष्ठित होकर छा जाने की भी| यहाँ एक गजब का
भीड़तन्त्र काम करता है| अगुवाई करने वाला झंडा उठाने के लिए तत्पर हो उठता है और
शेष उसके सुर में सुर मिलाने के लिए उत्प्लावित दिखाई देते हैं| यहाँ कवि का काम
कविता का सृजन करना नहीं वैचारिकता से मेल खाते श्लोगन (नारे) को तैयार करना होता
है| उस श्लोगन की सार्थकता इसी में है कि उसका पाठ करने वाला जोर-जोर से चिल्लाकर
उसकी सार्थकता को स्पष्ट करे| संभव है इसके लिए किसी पुराने प्रतिष्ठित कवि के
प्रति उन्हें गालियाँ भी निकालनी पड़े, भीड़ निकालती भी है| कवि और मंत्रमुग्ध होकर
और सुन्दर नारे की सर्जना में स्वयं को व्यस्त कर लेता है| समकालीन हिंदी कविता
जगत को अब तक कुल चार कविता-संग्रह दे चुकी सरला माहेश्वरी की इस कविता की कुछ पंक्तियों
को देखिये, जहाँ नारेवादी वैचारिक विरोध के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं मिलने वाला
है-
आवश्यक सूचना
!
अब पूरा देश
राजभक्त होगा !
राजभक्त विमान
के सभी यात्रियों के लिए
आवश्यक सूचना
!
दिल्ली से
नागपुर जाने वाले सभी यात्रीगण !
कृपया ध्यान
से सुनें !
विमान के लिए
सुरक्षा जांच हो चुकी है
सभी यात्रियों
से निवेदन है कि/
विमान में
केवल हमारे द्वारा निर्देशित
खाद्य सामग्री
पाठ्य सामग्री
ध्यान सामग्री
ही/ ले जाने
की अनुमति है !
यात्रियों को
उनकी सुविधा के लिए हम फिर से याद दिलाना चाहते हैं/ कि/
विमान में
सिर्फ निर्धारित राज-पोशाक में ही
यात्रा की
अनुमति है |”[1]
सवाल ये है कि आखिर ऐसी सूचनाओं को
कविता का शक्ल देकर हम पाठकों के अन्दर कौन-सा काव्य संस्कार पैदा करना चाहते हैं?
उनकी संवेदनाओं को किस प्रकार की रचनात्मकता का बोध कराना चाहते हैं? यह समझने का
भी प्रयत्न किया जाना चाहिए कि नारे वही लगा सकता है जो भीड़ का हिस्सा हो| एक कमाल
की स्थिति यहाँ और देखी जाती है, वह ये कि कवि अब तक सृजन-कार्य को छोड़कर
भीड़-तन्त्र के संगठन में निमग्न हो उठता है| सरला माहेश्वरी की कविताओं में इस
स्थिति की वर्तमानता को बखूबी देखा जा सकता है जब वे भीड़ तंत्र को इकठ्ठा करने के
लिए ‘रोहित वेमुला’ ‘कन्हैया कुमार’, ‘कलबुर्गी’ आदि की राजनीतिक आवाज को कविता का
शक्ल दे रही होती हैं| यहाँ पाठक हैरान हो जाता है और कविता की खोज में आया हुआ
स्वयं उनके साथ नारे लगाने के लिए अभिशप्त हो उठता है, पक्ष या विपक्ष में| कई जगह
तो ऐसा दिखाई देता है जैसे सरला स्वयं नारा लगाने लगती हैं और वह मानती भी हैं
“इच्छा होती है/ जोर-जोर से चीखें.../ मुर्दाबाद ! मुर्दाबाद|”[2]
अब कवयित्री का मुर्दाबाद का नारा लगाने के लिए जी करना कहीं न कहीं कविता के पक्ष
में तो नहीं है? इसका निर्णय आज का गंभीर और सजग पाठक भी नहीं कर पा रहा है| इनके
पक्ष में आलोचक सुनील कुमार का यह वक्तव्य हतप्रभ करता है “जिन पाठकों ने इनकी
कविताओं को ठीक से पढ़ा है, उनको मालूम होगा कि सरला की कविताएँ पाठकों से सीधे
संवाद करती हैं, कला की सीमाओं के पार भी जाकर संवाद करती हैं और मन के अन्दर एक
उत्प्रेरणा को जन्म देती हैं|”[3]
अब यह किस प्रकार की उत्प्रेरण होती है इनके पाठक अच्छी तरह से जानते हैं|
युवा
कवि अरविन्द भारती का एक संग्रह बोधि प्रकाशन, जयपुर से प्रकाशित होकर आया है|
नारेबाजी और वैचारिक दृष्टि से उनकी कविताओं को भी यहाँ पर परखा और देखा जा सकता
है| कहीं गहरे में उन्हें यह आभास है कि यदि वे अपने कवि-स्वभाव में नारेबाजी नहीं
करेंगे, उन्हें आने वाले दिनों में दलित कवि का खिताब नहीं मिल सकेगा|
अम्बेडकरवादी उन्हें जीने नहीं देंगे और इस तरह वे अपनी बस्ती में ही “परदेशी”
होकर गुमनाम हो जायेंगे| हालांकि ऐसा करना भी गलत नहीं था लेकिन इस स्थिति में ये
सपाटबयानी के जो शिकार होते हैं और अंततः कविता-प्रेमी को जो देने में सफल हो पाते
हैं, यहाँ देखा जा सकता है-“हमारी जाति के/ लोगों से/ करते हो/ घृणा/ कहते हो/
उन्हें/ नीच/ अछूत/ गंदी नाली का/ कीड़ा/ जिनके/ छूने मात्र से/ हो जाते हो/ तुम
अपवित्र/ छिड़कने लगते हो/ गौमूत्र/ और/ मेरे जिस्म को/ छूकर/ जो हवा/ तुम्हारे
नथुनों से/ टकराती है/ तुम्हें/ मदहोश करती है|/ हाड़ मांश से बना/ जिस्म/ ताजमहल
सा प्रतीत होता है/ मेरे यौवन/ स्वर्ग सुंदरी/ मेनका सामान/ इंद्र बन/ चाहते हो
जिसे भोगना/ चल हट/ कुकुर कहीं के/ धूर्तता की सारी हदें/ पार कर दी है/ तू ने/
भागता है/ या दूं/ लात खींच के|”[4]
पहली बात तो इस कविता की सारी लकीरों को हटाकर देखा जाए तो कवित्व जैसा कुछ भी
कहीं भी नहीं दिखाई देता| दूसरे, इनकी अन्य कविताओं को भी पढ़ते हुए ऐसा आभास होता
है कि कवि ‘‘लात खींच के’’ किसी कुकर्मी को देने के बजाय अपने पाठकों को ही दे रहा
है| यह स्थिति अन्यानेक कवियों के यहाँ देखी जा सकती है| धर्म और महापुरुषों की
मान्यताओं का प्रचार करना अलग बात है लेकिन कविता की शक्ल में इन्हें प्रचार का
माध्यम बनाना स्वयं के व्यक्तित्व का तर्पण तो है ही कविता की भी असमय हत्या है|
यदि
यह कहा जाए कि समकालीन हिंदी कविता में आज बहुत से कवि भीड़ को जुटाने में व्यस्त
हैं तो अत्युक्ति न होगी| नवांकुर कवि तो हैं ही चोटी के कवियों को भी इस तंत्र
में बूड़ते-उतराते देखा जा सकता है| इस दृष्टि से उदय प्रकाश की रचनाओं पर दृष्टि
देना आवश्यक हो जाता है| समकालीन हिंदी कविता में खूब पढ़े और सराहे गये इस कवि की
अधिकांश कविताएँ महज एक नारा सी प्रतीत होती हैं| वैचारिकता के केंद्र में बहुत
कुछ समेटने के मोह में कविता न रहकर गद्य की परिधि में सिमटती हुई दिखाई देती हैं|
उदय प्रकाश को कविता से अधिक चिंता अपनी वैचारिकता की है, जो इस कविता में देखी जा
सकती है और इसी बहाने उसके प्राप्य पर विचार किया जा सकता है-
उस दिन
पांडेजी/ बुलबुल हो गये थे |
कलफ़ लगाकर
कुर्ता टांगा
कोसे का असली,
शुद्ध कीड़ोंवाला चांपे का,
धोती नयी
सफ़ेद, झक बगुला जैसी |
और ठुनकती चल
पड़ी/ छोटी सी काया उनकी |
छोटी-सी काया
पांडेजी की
छोटी-छोटी
इच्छाएँ
छोटे-छोटे
क्रोध
और छोटा-सा
दिमाग |
गोष्ठी में
दिया भाषण, कहा-
‘नागार्जुन
हिंदी का जनकवि है’
फिर हँसे कि
‘मैंने देखो
कितनी
गोपनीय
चीज को खोल
दिया यों |
यह तीखी मेधा
और
वैज्ञानिक
आलोचना का कमाल है |’
एक स-गोत्र
शिष्य ने कहा-
‘भाषण लाजवाब
था, अत्यंत धीर-गम्भीर
तथ्यपरक और
विश्लेष्णात्मक
हिंदी आलोचना
के खच्चर
अस्तबल में
आप ही हैं एक
मात्र
काबुली बछेड़े
|’
तो गोल हुए
पांडेजी/ मंदिर के ढोल जैसे |
ठुनुक-ठुनुक
हँसे
फिर बुलबुल हो
गये
फूलकर मगन !”[5]
इस कविता को पढने के बाद यह समझना शेष
रह जाता है कि आम पाठक को पांडेजी के भाषण और आलोचना की गति-दुरगति से क्या लेना
देना है? यह काम तो उदय प्रकाश अपनी एक पुस्तक “ईश्वर की आँख” में पहले ही कर चुके
थे| प्रश्न यह भी है कि यदि वे ऐसा न करते तो फिर उन्हें यह बड़प्पन कहाँ से हाशिल
होता कि हिंदी जगत के कटु सत्य को बेनकाब किया है? इन कवियों की कविताओं को देखने
और पढ़ने के बाद यह तो सुनिश्चित हो ही जाता है कि भीड़ के केंद्र में कला की कम शोर
की गुन्जाईस अधिक होती है| शोर के लिए फेसबुक जैसे माध्यम की अनिवार्यता को खारिज नहीं
किया जा सकता| इसलिए भी क्योंकि यहाँ पर समर्थन हर हाल में करना ही है| विरोध और
संवाद के लिए कहीं कोई स्थान नहीं है| शोशल साइटों के बादशाह बन चुके बहुत से
कवियों को आत्मप्रसंशा की बीमारी लग चुकी है| ये एक दिन में एक साथ कई-कई कविताएँ
रचते दिखाई दे जाते हैं| इनके रचनात्मक धरातल की पड़ताल करने पर ऐसा कुछ भी नहीं
प्राप्त होता जिसे देर-समय तक कविता की शक्ल में याद किया जाता रहे| नारे और
वैचारिकता के समर्थक कवियों द्वारा काव्य में अनुभव और अनुभूति की संकल्पना को भी
ख़ारिज करने का षड्यंत्र आज है, स्वीकारना तो पड़ेगा ही|
वैचारिकता के खूँटे में बंधकर कविता का सृजन
करना बचीखुची मानवीय संभावनाओं को तिलांजलि देना है| ऐसी रचनाओं में ‘लोक’ कहीं
गहरे में प्रभावित होता है| ऐसा इसलिए है क्योंकि विचार मानव मस्तिष्क की उपज हैं|
हित-अहित के प्रश्न इसके केंद्र में होते हैं| जो विचार आज हमारे मन-मस्तिष्क में
वर्तमान हैं कल भी वैसे बने रहें यह नहीं कहा जा सकता| संभव है जिससे हमें आज घृणा
है कल के दिन उससे प्रेम हो जाए? जो आज हमें बुरा लग रहा है कल वह एकदम से हमारा
सबसे बड़ा हितैषी हो जाए? यह भी कि, जो विचार हमारे लिए महत्त्वपूर्ण हो सकते हैं
वह दूसरे के लिए भी वैसे हों, यह दावा नहीं किया जा सकता| कवि और कविता के लिए
महत्त्वपूर्ण है अनुभव, जो हम अपने समाजिक व्यवहार से अर्जित करते हैं| यह बदलते
नहीं, परिवर्तित नहीं होते, हृदय में स्थाई स्थान बनाकर रखते हैं| अनुभव में ढेर
सारे विचार होते हैं “कवि अपने अनुभव-पुंज से उन्हीं की अभिव्यक्ति करना चाहता है
जो सामाजिक अनुभवों से जुड़ते हों, जो अपने माध्यम से समाज की चित्त को आंदोलित
करते हों| इन्हें ही सार्थक अनुभव कहते हैं, ये ही अनुभव काव्य में अनुभूति बन
जाते हैं|”[6]
इसलिए काव्य-निर्माण में विचार आवश्यक न होकर अनुभव बहुत जरूरी हो जाता है| आज के
कवि अनुभव के दायरे में रहकर अपनी काव्यात्मक क्षमता का दिग्दर्शन करा रहे हैं, इस
बात से भी इनकार नहीं किया जा सकता|
विश्वनाथ प्रसाद तिवारी, केदारनाथ
सिंह, श्री प्रकाश शुक्ल, सुशील कुमार, मनोज कुमार झा, विनोद कुमार शुक्ल, माधव
कौशिक, जितेन्द्र श्रीवास्तव, कुमार विजय गुप्त, राजकिशोर राजन सरीखे कवि के पास
निश्चित ही अपने समय की भाषा, अपना परिवेश और अपना इतिहास-अनुभव है| ये जब कविताएँ
लिखते हैं, पाठक के पास बहुत कुछ अर्जित करने और अपने रूचि का देश-समाज निर्मित
करने का अवकाश होता है| विश्वनाथ प्रसाद तिवारी के यहाँ ‘खूँटा’, ‘कहार’, ‘गाय’,
‘हाथी’, ‘हिरन’, ‘केंचुल’, ‘आग’, जैसे विषय हैं जो लोक में रचे-बसे हैं| वे इनसे
ही अर्थबोध ग्रहण करते हुए अपनी संवेदना को आकर देते हैं और सामाजिक जीवन में उनकी
व्याप्ति दिखाकर पाठक-मन का विस्तार करते हैं| यह विस्तार इस तरह से अपना स्वरूप
निर्धारित करता है कि लगता ही नहीं कब हम हाथी पर बात करते-करते आज के सबसे आवश्यक
मुद्दे आदिवासी विमर्श पर विचार करने लगते हैं—यथा,-
सारी समस्या
दाँतों की थी/ वे उनके दाँत निकाल लेना चाहते थे
वह अपने झुण्ड
में चला आ रहा था
मस्ती में
झूमता/ सूंड लपलपाता
साथियों को
चूमता/ पुचकारता
धांय धांय
धांय/ शिकारियों की सधी हुई गोलियाँ
उसके उन्नत
ललाट में धँस गयीं/ वह पागल की तरह दौड़ा
मुड़ा/ पीछे
हटा/ लड़खड़ाया
और जंगल को
कँपाने वाली एक मर्मभेदी चिंघाड़ के साथ
गिर पड़ा/
अकेला
(झुण्ड भाग
चुका था
गो वह समर्थ
था अपने मुखिया का बदला लेने में)
और अब वे आए
घांसों में छिपे शिकारी
उनके चेहरों
पर विजय का उन्माद था
उन्होंने उसके
दांत निकाल लिए
(जो सर्वोत्तम
था उसके पास
जिसके लिए वह
मारा गया)
बाकी शरीर
उन्होंने सौंप दिए
नंगे-भूखे
आदिवासियों को
जो सिर्फ पेट
के लिए उनके साथ थे
अपने ही जंगल
के विरुद्ध|”[7]
हाथी से आदिवासी और आदिवासी से
जंगल-समाप्ति के षड्यंत्र तक पहुँचने में
कवि का संघर्ष तो दर्शनीय है ही पाठक की जिजीविषा भी कम महत्त्वपूर्ण नहीं है|
गहरे अर्थों में यहाँ पाठक-मन में एक विशेष प्रकार का उलझाव दिखाई देता है| यह
उलझाव कविता को ठीक-ठीक अर्थ-व्याप्ति तक पहुँचने से रोकता है| पाठक जब जोर देकर
पढ़ने की कोशिश करता है तो कविता के साथ सैर भी कर रहा होता है और उसे अपना बनाने
के लिए संघर्ष भी| यह संघर्ष ही उसका आनंद है और आनंद प्राप्त करने के लिए उसका
प्रयास ही कविता की सफलता है| कविता को सफल बनाने के लिए कवि का ईमानदार होना
आवश्यक है| वह विषय-स्थिति को स्पष्ट करने के लिए अपनी निजी अनुभूतियों का स्तेमाल
करना अच्छी तरह से जानता हो| भाड़े की संवेदना और अनुभव के सहारे कविता रचने की
प्रवृत्ति एक पल के लिए कवि को संतुष्टि दे सकती है लेकिन पाठक-संवेदना में उसके लिए
कोई जगह नहीं होगी| विश्वनाथ प्रसाद तिवारी की मानें तो यह सच है कि “शब्द और अर्थ
नहीं है कविता/ सबसे सुन्दर सपना है”-
बेहतर कविता
लिखेगा वही
जो बेहतर कवि
होगा
जिस समय वह
लिख रहा होगा
सबसे अच्छी
कविता
जरूर होगा उस
समय वह
सबसे अच्छा
आदमी
जिस दुनिया
में लिखी जायेंगी
बेहतर कविताएँ
वही होगा
बेहतर दुनिया
शब्द और अर्थ
नहीं है कविता
सबसे सुन्दर
सपना है
सबसे अच्छा
आदमी का |”[8]
किसी परिवेश का निर्माण कई स्तरों से
गुजरते हुए होता है| इसलिए यह अपने विशिष्ट रूपों में स्थाई न होकर परिवर्तनशील
होता है| मनुष्य का व्यवहार भी परिवेश के अनुसार बदलता रहता है| बदलाव की
प्रक्रियाओं से जूझना और उसके बदलते रूप को स्मृति में सुरक्षित रखना कोई आसान बात
नहीं है| यहाँ यह सोचना भी अनिवार्य होता है कि मस्तिष्क की चिंतन-प्रक्रिया कभी
भी स्थाई नहीं रहती| वह अपने परिवेश जनित सम्पूर्ण परिदृश्य तक गतिमान रहती है| परिणामतः
एक ही समय में कई प्रकार की घटनाओं से उसका मस्तिष्क दो-चार होता रहता है| यहाँ
रचनात्मक सौंदर्य के लिए कवि के पास स्थायित्व का अवकाश कम मिल पाता है| भ्रमण की
स्थिति इस तरीके से उसके मन में वर्तमान होती है, यह निश्चित कर पाना कठिन हो जाता
है कि किस घटना का अधिक प्रभाव वह अपने अन्दर आत्मसात करे और किसका कम| संभव है कि
किसी के लिए जो घटना एकदम से अस्तित्व का मुद्दा हो, दूसरे के लिए वह कोई घटना ही
न हो| यह जरूरी नहीं कि हर घटनाएँ मानव-मस्तिष्क में अपना स्थाई प्रभाव छोड़ने में
सफलता प्राप्त कर सकें| फिर, घटनाओं की भी अपनी नियति और अपना परिवेश होता है| कवि
इस प्रक्रिया से अछूता नहीं होता| वह नियति को तो दरकिनार करके आगे बढ़ जाता है
लेकिन परिवेश की आवश्यकता और जरूरत को विस्मृत और बिसारकर आगे बढ़ना उसके लिए कठिन
होता है|
इस दृष्टि से श्रीप्रकाश शुक्ल का
कवि-विवेक हमारे लिए गहरे चिंतन की जमीन उपलब्ध कराता है| वर्तमान के साथ
अतीत-परिवेश की विसंगतियों और खूबियों का जायजा लेते हुए मानवीय संवेदना की जो परख
करते हैं, वह प्रभावित भी करता है और आकर्षित भी| दरअसल उनके आकर्षण का मुख्य
केंद्र भारतीय संस्कृति की वह परंपरा है जो ठेठ लोक से आकार लेकर, लोक-मानस में
प्रवेश करते हुए अपना स्वरूप निर्धारित करती है| इनके यहाँ ‘इलाहबाद’, ‘गाजीपुर’, ‘आँधी
में काशी’, में निवास करने वाले ‘संतुलन’ बिठाते ‘गंवई गंध’ में रचे-बसे ‘अपनी तरह
के लोग’ हैं जो ‘अचार’, ‘चोपी’, ‘बाटी’ आदि की स्मृति और स्वाद को हृदय में समेटे
हुए ‘एक सुबह की उदासी’ को ‘ओरहन’ के माध्यम से कहते-सुनते हैं| सांस्कृतिक
पृष्ठभूमि की बंजार जमीन पर भी हास-परिहास के समय का वर्तमान होने की परिकल्पना
करते हैं| उत्तर आधुनिक परिवेश में वर्तमान कवियों की तरह होटलों और महानगरों से
उपजे बनावटी सौंदर्य की नहीं, ‘पेड़ और पिता’ ‘माँ’, ‘मित्रता’ से संस्कार ग्रहण
करते हैं ताकि आने वाली पीढ़ी दादी, दादा और गाँव के परिवेश को विस्मृत न कर सके|
परिवेश से कविता गढ़ने और गढ़े हुए कविता से एक नई दुनिया को देखने की यह कला “माँ”
कविता में देखी जा सकती है-
दो पन्नों के
बीच सटी
या कि सटे
पन्नों के बीच अटी
अकसर मेरी
दुनिया में माँ प्रकट होती है
और इनको
चीन्हने की इच्छा से
बचपन की किसी
सुनहरी गुफा में घुसता हूँ
और एक पूरा का
पूरा जंगल पकड़ लाता हूँ
जो भाषा के
उबटन में पड़कर
कविता की परात
में जहर रहा होता है
माघ के मौसम
में
पश्चिमी
झकोरों के बीच
जब दाँतों से
कड़िया के कूटने की आवाज आती है
वह पुवाल की
तरह उठती है
और बोरसी की
तरह छोप लेती है
अपनी दुनिया
की हर मिटटी में
वह बालो की
तरह पकी
तथा खलिहान की
तरह खाली होती है
और किसी हमीरा
जादूगरनी के आतंक से जूझती
सिरहाने की
कजरवट में
थोड़ा थोड़ा रोज
घिसती है
माँ जब घिस
जाती है
मंदिर की
घंटियों से घाटियों की आवाज आती है
और विन्ध्य के
पठारों से उठता धुंआ
गंगा की सतह
पर
थार की तरह
फ़ैल जाता है
ठीक ऐसे समय
में जब हिमाचल पर गिरती है बर्फ
माँ गल रही
होती है
मेरे घर की एक
मोमबत्ती जल रही होती है
और मैं बड़ा हो
रहा होता हूँ|”[9]
जब हम
श्रीप्रकाश शुक्ल की कविता में पारिवेशिक संरचना की पड़ताल कर रहे होते हैं उस समय
कहीं न कहीं पूरा देश और फिर उस देश की भौगोलिक संरचना व्याख्यायित हो रही होती
है| इस एक कविता में सम्पूर्ण लोक है और लोक में मनुष्य के होने की संभावना| यहीं
संस्कृति अपने सात्विक रूप में परिलक्षित होती है तो समाज संस्कारित हो रहा होता
है ठीक उसी शक्ल में जैसे कवि “बड़ा हो रहा होता” है| इनके यहाँ के पात्र हमारे
समकालीन समय के पात्र हैं जो शोषित हैं, दमित हैं, लांछित हैं बावजूद इसके एक
जिजीविषा है उनके अन्दर और वे संघर्ष कर रहे हैं| इनके कविता के पाठक समकालीन
हिंदी के कविता के सजग पाठक हैं जो निराश नहीं होते, हताश नहीं होते, खाली नहीं
लौटते मोह ओरमा कर| भरे-पूरे संवेदना में होते हैं और कविता से बहुत कुछ प्राप्त
कर रहे होते हैं| निश्चित ही इन्हें काव्यात्मकता की समझ है और काव्यात्मकता को
इनकी|
कुमार विजय गुप्त
समकालीन हिंदी कविता में हालांकि किसी संग्रह के साथ वर्तमान नहीं हैं लेकिन मुख्य
धारा की प्रमुख पत्रिकाओं में इनकी कविताएँ बराबर पढ़ी जाती रही हैं| सामयिक परिवेश
की गहरी पकड़ है इन्हें| घटनाओं को निष्पक्ष नजरिये देखने की इनकी अपनी समझ है जिसे
वे किसी झंडे के नीचे न होकर स्वतंत्र रूप से परखते हैं| कवि होने की सच्ची भूमिका
का एहसास इनके कवि-कर्म में देखा जा सकता है| इनकी कविताओं से गुजरते हुए यह आभास
सहज होता है कि जब सामयिक सामाजिक परिस्थितियाँ जीवन में इतनी अधिक प्रभावी हो
जाएं कि समय का एक पल भी किसी भयानक यथार्थ सा कड़वा अनुभव दे रहा हो, कविताएँ वहीँ से अपना
आकार लेना शुरू करती हैं| कवि की आवश्यकता समय और समाज को यही से अधिक
महसूस होने लगती है| इस बात में कोई दो राय नहीं है कि समकालीन समय अपने तमाम
विसंगतियों के साथ इस तरह मानवीय संवेदना पर अपना एकाधिकार जमाए बैठा है कि मनुष्य
हतप्रभ सा अनिर्णय की दशा में होकर मात्र उसे सहन करनी की स्थिति तक ही सीमित है|वह लाख प्रयत्न करने
के बावजूद कुछ विशेष नहीं कर पा रहा है | जीवन-यथार्थ को देखने और फिर उसे झेलने के मध्य
यदि कुछ चल रहा है तो मात्र “चौराहे पर इंतज़ार”, जहाँ कवि ही नहीं
कवि के “साथ खड़ा है सारा-का-सारा देश”| कुमार विजय गुप्त की
कविताएँ निश्चित ही देश की उस आबादी का प्रतिनिधित्व करती हैं जो अभी तक यही नहीं
निर्धारित कर सकी कि आखिर उसका कोना कौन सा है?
मध्यकालीन परिवेश
से लेकर आज तक की स्थिति में आम आदमी मानव द्वारा निर्मित और लगभग सुझाए गए चौराहे
के चार “दिशाओं” में स्वयं को फिट बैठने में संलग्न है| प्रकृति से हटकर बात
करें तो मानव-रूप में निर्मित ईश्वर ने भी उसको यह दिलाशा दिया हुआ है “ये सारे रास्ते मेरी
तरफ आयेंगे/ मेरी खिदमत में मेरे समक्ष नतमस्तक” बावजूद इसके वह छला
जाता रहा है| यही से व्यक्ति का मोहभंग होता है और यहीं से वह समाज विरोधी करार
दिया जाने लगता है | ध्यान से देखने का प्रयत्न करें तो इसी प्रक्रिया से कबीर छला गया
था और ढेर बाद में “अँधेरे में” धकेल दिए गए थे मुक्तिबोध| कवि का यह स्वीकार
करना कि-
“मैं देख रहा हूँ कि इस चौराहे का चारों कोना
मेरी ही ओर मुखातिब हैं प्रश्नचिह्न की तरह
एक हंस रहा है दूसरा शांत क्लांत
तीसरा रो रहा है जबकि चौथा काफी गुस्से में है
उन्हें भी तुम्हारा ही इंतज़ार है|” छले जाने की स्थिति से
दो-चार होना है| वास्तविकता यदि समझने का प्रयत्न किया जाए तो छले जाने की
प्रक्रिया में सत्य का आभास होता है “जबकि अब यह साफ़ नजर आ रहा है” न तो ईश्वर कहीं है और
न ही ऐसा कोई मार्ग जिसके सहारे वह उस तक पहुँच सके| यदि कुछ है तो मात्र “दो विरोधी विकल्प” जिसमें से उसे एक पर
चलना है|
कुमार विजय
गुप्त की कविताई की एक सबसे बड़ी खासियत यह है कि वे लोक-संवेदना के यथार्थ को अपने
कवि-हृदय में जीते हैं| जीने का यह सलीका “मैं तर्जनी हूँ” कविता में खूब सुन्दर
तरीके से निखारा है उन्होंने| पूरा का पूरा मुहावरा और युगबोध इस कविता में
स्पष्ट होकर नजर आता है| तर्जनी का यह उद्घोस कि “मेरे इशारे पर नाचती
है दुनिया/ कि मैं नीचे झुकी/ तो तुम्हें जमीन सूंघ जाती है/ सामने की ओर तनी/ तो
तुम्हारी अंतरात्मा बिंध जाती है” लोक-संस्कृति में विरोध और प्रतिरोध के तरीके
से वर्तमान परिदृश्य के यथार्थ को अपने लोकानुभव के माध्यम से व्यंजित करने का
सुन्दर प्रयास है| “कलम की खोली” के माध्यम से ढोल के अन्दर पोल वाली स्थिति
चरितार्थ हो उठती है तो यह कुमार के कविताई की अपनी विशिष्टता और अपनी शक्ति है जो
आज समकालीन काव्य जगत में कम ही देखने को मिल रही है|
वर्तमान हिंदी
कविता का दायरा विशाल है| कवियों की संख्या भी कुछ कम नहीं है| होना भी नहीं
चाहिए| जितने कवि होंगे समाज उतना ही उन्नतिशील होगा लेकिन जहाँ तक हो सके
नारेबाजी से बचाव की कोशिश की जानी चाहिए| क्षणिक मुद्दों पर लिखने के लिए अन्य
विधाओं की तरफ रुख किया जा सकता है बजाय कि कविता के स्वरूप से छेड़खानी करने के| इधर
कई दिनों से और सही कहें तो कई महीनों से एक ही तरह की कविताएँ लोगों के
मन-मस्तिष्क में विचरण कर रही हैं| वह हैं राजनीतिक मुद्दों पर कविताएँ| जनता को जागरूक करना बहुत जरूरी है
लेकिन कविता को पूर्ण रूप से चुनाव प्रचार में प्रयोग किये जाने वाले पम्फलेट का
रूप दे देना, कहाँ की समझदारी है? कई एक कवियों के संग्रहों और पुस्तकों को देखने
के बाद लगता है जैसे मोदी और योगी को कोसने के अलावा इनके पास अब कोई मुद्दा ही
नहीं बचा है? उनको कोशकर पाठक के हृदय को छिछला करने से अच्छा है कुछ जरूरी
मुद्दों पर बात करना| ‘लोक’ अब भी व्यथित है| प्रकृति अपने अस्तित्व के लिए तड़प
रही है| आतताई सम्पूर्ण परिवेश को खा जाने के लिए उत्प्लावित हैं| सम्पूर्ण संसार
परमाणु के मुहाने पर खड़ा होकर विनष्ट हो जाना चाहता है और हम हैं कि योगी और मोदी
से ही फुरसत नहीं पा रहे हैं|
ईर्ष्या के
निचले स्तर से ऊपर उठने की जरूरत है| गाय, गोबर की राजनीति से हटकर जन-जीवन को
सुन्दर बनाने की नीति पर काम करने की जरूरत है| कन्हैया के भाषण और उमर खालिद की
आजादी से परहेज करते हुए खेतों और सडकों पर खटने वाले किसानों और मजदूरों के लिए
कहने-सुनने की जरूरत है| यदि ऐसा कुछ कवियों से कहा भी जाता है तो संभव है वे
नाराज हो जाएं और जनविरोधी करार देकर ‘भक्त’ विशेष की मंडली का अनुचर घोषित कर
दें| जो कहें लेकिन अंततः कवि को कवि की तरह पेश आने और कविता को कविता की तरह
रहने देने की जरूरत है| यदि इस जरूरत पर अमल करते हुए कविता लिखने की प्रतिबद्धता
दिखा सकते हैं तब तो हिंदी का विशाल पाठक समुदाय आपका स्वागत करेगा अन्यथा अभी तो
प्रकाशक ही कविता को प्रकाशित करने से मना कर रहे हैं, बाद पाठक भी उपेक्षित करना
शुरू कर देंगे |
-अनिल कुमार पाण्डेय
शोध छात्र
पंजाब विश्वविद्यालय, चंडीगढ़
[6] मिश्र, डॉ० रामदरश,
आधुनिक हिन्दी कविता : सर्जनात्मक सन्दर्भ, दिल्ली : इन्द्रप्रस्थ प्रकाशन, 1986, 42
[7] सम०- भारती,
अरविन्द, विश्वनाथ प्रसाद तिवारी : प्रतिनिधि कविताएँ, नई दिल्ली : राजकमल
प्रकाशन, पृष्ठ-51-52
[8] सम०- भारती,
अरविन्द, विश्वनाथ प्रसाद तिवारी : प्रतिनिधि कविताएँ, नई दिल्ली : राजकमल
प्रकाशन, पृष्ठ-66-67
बहुत ही पारदर्शी और गहन विश्लेषण है सोदाहरण और तार्किक .छंद से बाहर की इन कविताओं के साथ समकालीन छान्दसिक कविता को भी परख जाना जरुरी है.आज हिंदी की इस गद्य कविता ने वास्तविक कविता को मानो बिरादरी बाहर कर समकालीनता के ठीये पर कब्ज़ा कर रखा है.काम से काम शोध छात्रों को समूचे परिदृश्य पर दृष्टि रख छंदमुक्त और गीत-नवगीत,ग़ज़ल,दोहे,जनगीत आदि कविता रूपों को समग्रता से कसौटी पर परखना चाहिए.
ReplyDeleteअच्छा आलेख है
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