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Friday, 30 December 2022

व्यंग्य परिक्रमा 2022


हिंदी साहित्य में इस साल जितनी गोष्ठियां
, साहित्योत्सव, प्रदर्शिनियाँ, मेलों का आयोजन हुआ उतना शायद पिछले कई सालों में नही हुआ | लगभग हर छोटे-बड़े शहर में वर्ष भर ऐसे कार्यक्रमों का आयोजन होता रहा | कविता, कहानी, उपन्यास के साथ साथ व्यंग्य विधा भी पीछे नही रही और नए-पुराने लेखकों के ढेरों व्यंग्य संग्रह इस साल धूमधाम से प्रकाशित हुए | हर बार की तरह इस बार भी मेरे द्वारा सालाना लेखा-जोखा प्रस्तुत करने का उद्देश्य भी पाठक को पूरे परिदृश्य से एक जगह मिलवाने जैसा प्रयास कह सकते हैं |


श्री Kailash Mandlekar समकालीन हिंदी व्यंग्य का जाना-पहचाना नाम है। शिवना प्रकाशन सीहोर से उनका सातवाँ व्यंग्य संग्रह 'धापू पनाला' शीर्षक से प्रकाशित हुआ है। व्यंग्य लेखन में कैलाश जी अपनी तरह के अलहदा व्यंग्यकार हैं। विगत 30 वर्षों से सृजनरत उन्होंने अपने व्यंग्य लेखन का एक अलग मौलिक मुहावरा अर्जित किया है। मण्डलेकर जी पठनीय और सरल-सहज भाषा शैली में व्यक्त होने वाले मध्यमवर्गीय ग्रामीण और कस्बाई जीवन के प्रवक्ता हैं। कैलाश मण्डलेकर अपने लेखन के जरिये मानो व्यंग्य विधा को प्यार करते हैं, उसे दुलारते हैं, सहलाते हैं और पूरी सामर्थ्य के साथ अभिव्यक्ति का सशक्त माध्यम बनाकर पाठक के सम्मुख पेश होते हैं। वे परिदृश्य की चांव-चांव से इतर साहित्य को जीने वाले लोगों में से हैं। एकसाथ बेख़बर और बाख़बर। उनके व्यक्तित्व और कृतित्व से गुजरकर आप पाएंगे कि सच्चे अर्थों में वह व्यंग्य की 'अजातशत्रु परंपरा' के अनुयायी हैं। 

'धन्य है आम आदमी' वरिष्ठ व्यंग्यकार Farooq Afridy Jaipur का दूसरा व्यंग्य संग्रह है जिसमें आपके 41 व्यंग्य शामिल किए गए हैं। इसे कलमकार मंच जयपुर द्वारा प्रकाशित किया गया है। पत्रकारिता के क्षेत्र से जुड़े होने के कारण फारुख जी समसामयिक विषयों पर अपनी कलम चलाते रहे हैं। यह कलम व्यंग्य का आश्रय पाकर और पैनी हो उठती है। परिवेशगत विसंगतियों की पहचान करना आपको बखूबी आता है। कई बार वह बहुत छोटे से विषय को उठाकर उसके इतने सृजनात्मक कोण दिखाते हैं कि पाठक वाह किए बगैर नहीं रह पाता।

कुछ लेखक लंबे समय से रच रहे हैं परंतु वह अपने किताब प्रकाशन के प्रति उदासीन रहे हैं। Ram Swaroop Dixit ऐसे ही व्यंग्यकारों में से एक हैं। उनका पहला व्यंग्य संग्रह 'कढ़ाही में जाने को आतुर जलेबियाँ' India Netbooks नोएडा ने प्रकाशित किया है। इससे पहले दीक्षित जी लगभग सभी प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होते रहे हैं। कई साझा संकलनों में वे नज़र आये हैं परंतु स्वतंत्र रूप में यह उनका पहला व्यंग्य संग्रह है। व्यंग्यधरा मध्यप्रदेश से ताल्लुक रखने वाले रामस्वरूप दीक्षित व्यंग्य की गहरी समझ रखने वाले रचनाकारों में से हैं। व्यंग्य किन उद्देश्यों को लेकर संचालित होता है, उसके सरोकार, उसकी भाषा, उसके तेवर इन्हें लेकर वे हमेशा सजग दिखते हैं। इस संग्रह के ज्यादातर व्यंग्य सामाजिक और साहित्यिक विसंगतियों को लेकर लिखे गए हैं। व्यक्ति, साहित्य और समाज उनके व्यंग्य चिंतन के केंद्र में हैं।


 अविलोम प्रकाशन मेरठ से व्यंग्यकार Nirmal Gupta का व्यंग्य संग्रह बतकही का लोकतंत्रइस साल के एकदम आखिर में छपकर आया | साहित्य जगत में निर्मल गुप्त की पहचान एक कवि के रूप में अधिक है। यह कवि जब व्यंग्य की दुनिया में प्रवेश करता है तो उसका अलग ही रूप सामने आता है। दोनों ही विधाओं में उनकी समान गति है। भाव-भाषा-शिल्प हर दृष्टि से वे एक सक्षम रचनाकार सिद्ध होते हैं। आपके इस नए व्यंग्य संग्रह 'बतकही का लोकतंत्र' में पाठक को बतकही संग एक अलग व्यंग्य रस का आस्वाद मिलता है। इन व्यंग्य रचनाओं की प्रस्तुति केवल विसंगतियों को सामने लाने का कोई इरादा भर नहीं है, बल्कि सभ्यता के प्रश्नों के आलोक में समाज, राजनीति, व्यक्ति और आधुनिकता के प्रति एक मोह रहित सतर्क आलोचनात्मक दृष्टि है। निर्मल गुप्त की व्यंग्यात्मक रचनाशीलता की कई ऐसी खूबियां हैं जो उन्हें उनके समकालीनों के बरक्स अलग खड़ा करती है। वे कई बार भाषिक सौंदर्य से विकृति की बहुरंगी आकृति बनाते मिलते हैं तो कहीं विषय से खेलते हुए अचानक आईना दिखा जाते हैं। उनके पास साहित्यिक अभिव्यक्ति को बरतने का वह सलीका है जो दिनोंदिन दुर्लभ होता जा रहा है। यह तमीज़ उन्हें बैठे-बिठाए नही मिल गयी बल्कि इसे उन्होंने लम्बे समय के अपने अध्ययन और अनुभवों से अर्जित किया है। इनकी रचनाधर्मिता से गुजरते हुए आप पाएंगे कि वे परंपरा और आधुनिकता का सुंदर समन्वय प्रस्तुत करते हैं। जितनी चिंता उन्हें रचने की सार्थकता की है उतनी ही चिंता उनमे वैचारिक अनुशासन की भी है। वे जितने कोमल अपनी कविताओं में हैं उतने ही निर्मम अपने व्यंग्यों में। सिक्के के यह दो पहलू निर्मल जी के कृतित्व को समग्रता प्रदान करते हैं। इस संग्रह की रचनाओं में लेखक बतकही की व्यंग्य मुद्रा में पाठक को कठोर यथार्थ के उस सत्य के दर्शन कराता मिलता है जिन प्रवृत्तियों से वह दिन-प्रतिदिन बावस्ता होता है लेकिन फिर भी न जाने क्यों चेतना के स्तर पर उसके स्याह पक्ष से अनभिज्ञ सा रह जाता है। इन्हें पढ़ते हुए उसका दिलोदिमाग गुंजायमान हो उठता है। दर्द की ऐसी मीठी दवा व्यंग्य के अलावा कौन सी विधा हो सकती थी भला। इस प्रकार निर्मल गुप्त समकालीन हिंदी व्यंग्य के वृत्त का अनिवार्य हिस्सा बन जाते हैं जिनके जिक्र के बगैर कोई भी व्यंग्य चर्चा अधूरी कही जाएगी।

भारतीय ज्ञानपीठ से सद्यः प्रकाशित व्यंग्य संग्रह 'भीड़ और भेड़ियेहिंदी के प्रवासी व्यंग्यकार Dharm Jain का चौथा संग्रह है। एक सौ छत्तीस पृष्ठोंवाले चौथे संग्रह की पहली विशेषता तो यही है कि यहां व्यंग्य की विविध छटाएं हैं। इस संग्रह में वे विषयगत विविधता के साथ नई सामाजिक राजनीतिक चेतना तथा नया सौंदर्यबोध लेकर सामने आए हैं। जो सामने हैं, जो आसपास का जीवन है है, उनका विषय है। आस-पास घटित होती बातों को लेकर उनकी व्यंगात्मक प्रतिक्रिया कई बार बहसतलब हो उठती है। अमूमन प्रवासी लेखक भाषायी तौर पर उतने सशक्त नही दिखते। सुविधासम्पन्न जीवनशैली अक्सर उनकी भाषा को कृत्रिम बना देती है। धर्मपाल जैन की रचनाशीलता मेरी इस धारणा को खंडित करती है। उनकी भाषा मे वैसा बनावटीपन नज़र नही आता। वे अत्यंत सहजता और आत्मीयता से पाठक के निकट जाते हैं। परसाई के प्रति उनका प्रेम हद दर्जे तक है। जिसका प्रभाव उनके व्यंग्य लेखन पर स्पष्ट देखा जा सकता है। उनका लेखक जब देखता है कि आज समूची की समूची हिंदी पट्टी जातियों में बंट गई है और देश के कई हिस्सों में धर्म और सांप्रदायिकता के आधार पर समाज को बांटने की कोशिश हो रही। वह व्यंग्य के माध्यम से व्यवस्थागत खामियों में सुधार की अपेक्षा करता है। धर्मपाल के व्यंग्यकार की नजर उन कोनों अंतरों में भी जाती है जिसकी प्रायः अनदेखी कर दी जाती है। हाशिए के समाज के उत्थान की भावना उनके व्यंग्य को उद्देश्यपूर्ण बनाती है। आज के व्यंग्यकार के जीवन मूल्य कबीर जैसे नही हैं। अपने हित साधन में वह कदम कदम पर अपनी कलम से समझौता करता है। आज का लेखक सत्ता की शोषक प्रवृत्तियों के विरुद्ध मौन अपना लेता है। इसलिए व्यंग्य की मारक क्षमता प्रभावित हुई है। आजकल वैसे भी सुरक्षित व्यंग्य लिखने का प्रचलन बढ़ गया है। धर्मपाल जैन इस खतरे को साहस के साथ उठाते हैं। वे बेफिक्र होकर लगभग सारे परिदृश्य की व्यंग्य परिक्रमा कर डालते हैं। कोई भी गोरखधंधा उनकी तीसरी आंख की जद में आने से से बच नही पाया है।


Kamlesh Pandey कम लेकिन गुणवत्तापूर्ण लेखन का उदाहरण प्रस्तुत करते हैं। Shivna Prakashan सीहोर से प्रकाशित 'डीजे पे मोर नाचा' कमलेश पांडेय का पाँचवां व्यंग्य संग्रह है। यह संग्रह इक्यावन व्यंग्य रचनाओं से सजा हुआ है। इन व्यंग्यों में आज के जीवन की मार्मिक स्थितियों की चित्रोपम उपस्थिति है। जीवन के व्यापक संदर्भ तथा समकालीन घटनाओं से यह व्यंग्य सीधा सामना करती दिखते हैं। अनेक जगह वैश्विक घटनाक्रम पर भी व्यंग्यकार की सहज दृष्टि है। पूरे संकलन की रचनाओं में उनकी अपनी यह पहचान लक्ष्य की जा सकती है। कहीं कहीं वे एक नया सौंदर्यशास्त्र रचती लगती है। उनकी भाषा प्रचलित और चलताऊ भाषा से बिल्कुल भिन्न है। बहुधा वह  हिंग्लिश की छाती पर वह जिस तरह से व्यंग्य का अंगद  पाँव रखते हैं, उसकी छटा देखते ही बनती है। कमलेश पच्चीकारी के नहीं रवानगी के लेखक हैं। वह संश्लिष्ट यथार्थ और गहन विचारबोध के अनूठे व्यंग्यशिल्पी हैं। प्याज की फांकों की तरह इनके व्यंग्य परत दर परत खुलते चलते हैं। वे पाठक को अचानक हंसाते हुए रुला जाते हैं। कमलेश विसंगतियों के पोस्टमार्टम करते वक्त परिवेशगत खूबियों को बड़ी कुशलता से व्यक्त करते है। देश की आर्थिक नीतियों के वे रचनात्मक आलोचक हैं। ऐसी गतिविधियों में समाए लूपहोल्स के चित्र यहाँ अति सामान्य हैं। वह बाज़ार और विज्ञापनी दुनिया के अतिवाद की चुनौतियों से निपटने की तैयारी में ग्राहक को लगातार जगाने की कोशिश करते दिखाई देते हैं | आर्थिक मामलों जैसे बेहद महत्वपूर्ण लेकिन व्यंग्य की नज़र से नीरस संभावनाओं वाले विषयों पर पूरे अधिकार के साथ लिखने वाले लेखकों में आलोक पुराणिक के बाद उनका नाम ही जेहन में आता है। वे एक कुशल गोताखोर की तरह विषय की तह तक जाते हैं, केवल ऊपर ऊपर तैरते नही रह जाते। एक संवेदनशील मानवीय समाज की सतत तलाश उनके व्यंग्य लेखन की मूल भावना है।

अपने समकालीनों में पहली पंक्ति के व्यंग्यकार Arvind Tiwari व्यंग्य के छोटे-बड़े दोनों प्रारूपों में कलमप्रवीण हैं। आधुनिक जीवन की विसंगतियों और परिवेशगत यथार्थ का जितना सजीव चित्रण उनके व्यंग्य संसार में है वह अन्यत्र दुर्लभ है। लगभग तीन दशकों की अपनी व्यंग्य यात्रा में उन्होंने व्यंग्य का निजी मुहावरा रचा है, अपनी कृतियों के जरिये व्यंग्य का नया सौन्दर्यशास्त्र विकसित किया है और वस्तु के अनुरूप व्यंग्य भाषा को ढाला है। गहरे अर्थों में वे हमारे समय के एक समर्थ और सभ्यतालोचना के व्यंग्यशिल्पी हैं। इंक पब्लिकेशन प्रयागराज से प्रकाशित 'एक दिन का थानेदारआपका नया और दसवां व्यंग्य संग्रह है। आपके इस संग्रह में राजनीतिक, सामाजिक विडंबनाओं पर धारदार व्यंग्य तो हैं ही लेकिन साहित्यिक विसंगतियों की छानबीन अधिक है। अरविंद तिवारी अपनी लम्बी और छोटी सभी व्यंग्य रचनाओं में इस नयी दुनिया का भूगोल पूरी तैयारी और बौद्धिक प्रखरता से रचते हैं। साहित्य के माध्यम से व्यंग्यकार पाठकों को शायद जगाकर कहना चाह रहा है कि कितना गलत हो रहा है तुम्हारे आसपास और तुम लम्बी तानकर सोये पड़े हो। इससे पहले कि देर हो जाय, जग जाओ। अरविंद तिवारी के व्यंग्यों में आपको लाउडनेस नहीं मिलती। इनमें आक्रोश की कठोर अन्वितियाँ नहीं हैं। एक सफल उपन्यासकार होने के चलते वे अक्सर व्यंग्य के कथाशिल्प में अनायास प्रवेश कर जाते हैं। जिसकी सरल-सहज व्यंग्यधारा मैं आप बहते चले जाते हैं। अरविंद बार-बार अपनी मौलिक व्यंग्य प्रतिभा से साहित्य जगत का ध्यान खींचते हैं। यह संग्रह भी कुछ ऐसा ही है। इस किताब को पढ़ना अपने विसंगतिपूर्ण समकाल से सीधे साक्षात होना है।


Kitabganj Prakashan से प्रकाशित 'ऐसा भी क्या सेल्फियाना' व्यंग्यकार प्रभात गोस्वामी का तीसरा व्यंग्य संग्रह है। Prabhat Goswami एक बहुमुखी प्रतिभासंपन्न व्यक्तित्व हैं। व्यंग्य में उनकी आमद थोड़ी देर से जरूर हुई पर अब वे निरंतर इस क्षेत्र में सक्रिय हैं। प्रभात गोस्वामी की व्यंग्य रचनाओं को पढ़ते हुए साफ पता चलता है कि बदलते हुए समय पर उनकी नजर हर वक्त बनी रही है। अपने समय से नजर फेरकर लिखना उन्हें बिल्कुल भी पसंद नहीं। उनके लेखन में नए विषय नए कोण से व्यंग्य क्षेत्र में दाखिल हो रहे हैं। व्यंग्य के पक्ष में आपमें मुहावरों और लोकोक्तियों का भी बड़ा बेहतरीन प्रयोग देखने को मिलता है। इनमें क्रिकेटीय अनुभवों के रंग तो है ही साथ ही कहीं-कहीं सरोकारी छींटे भी आप पर पड़ते चलते हैं। अपनी सरल-सहज भाषा-शैली और कथ्यात्मक स्पष्टता से लेखक प्रभावित करता है। वे अपनी तरह से उम्मीद की रोशनी में दुश्वारियों के अंधेरे टटोलने का उपक्रम करते दिखते हैं। आपको क्रिकेट कमेंट्री का एक लंबा अनुभव रहा है जिसका प्रभाव आपके लेखन पर भी देखने को मिलता है। व्यंग्य की कमेंट्री शैली के प्रयोग में आप सिद्धहस्त हैं। प्रभात गोस्वामी विसंगतियों पर हथौड़े की तरह आघात नहीं करते बल्कि प्यार से पुचकारते हुए चांटा मारते हैं।

हिंदी व्यंग्य साहित्य के पाठक व्यंग्य कथा, व्यंग्य उपन्यास और व्यंग्य निबंध परंपरागत रूप में पढ़ते रहे हैं लेकिन व्यंग्य के साथ रिपोर्ताज का दुर्लभ संयोग कभी कभार ही पढ़त में आता है। व्यंग्य रिपोर्टिंग की पहली किताब होने का दावा करती 'पाँचवां स्तम्भ' Jayjeet Jyoti Aklecha का पहला व्यंग्य संग्रह है। जयजीत प्रोफेशन से पत्रकार हैं और पैशन से व्यंग्यकार। पत्रकार और व्यंग्यकार का डेडली कॉन्बिनेशन वैसे भी बड़ा खतरनाक माना जाता है, ऐसे में किसी भी खबर के यथार्थ को कोई रिपोर्टर रचनात्मक रूप से कैसे ट्रीट करता है यह देखना पाठक के लिए एक दिलचस्प अनुभव बन जाता है। उनकी इस पुस्तक के व्यंग्य-रिपोर्ताज मिलकर एक अलग व विश्वसनीय आस्वाद की सृष्टि करते हैं। मैनड्रैक पब्लिकेशन भोपाल से युवा पत्रकार-व्यंग्यकार जयजीत ज्योति अकलेचा का पहला व्यंग्य संग्रह पाँचवा स्तम्भअपने अनूठे कहन के कारण याद किया जायेगा |

कहा जाता है कि विज्ञान की पृष्ठभूमि वाले लेखक कला वर्ग के साहित्यिकों के बनिस्पत अच्छे साहित्यकार होते हैं | व्यंग्यभूमि मध्य प्रदेश की उभरती हुई व्यंग्य लेखिका Anita Shrivastva का अनामिका प्रकाशन से प्रकाशित हुआ पहला व्यंग्य संग्रह बचते बचते प्रेमालापपढ़ते हुए यह बात पूरी तरह से सच होती दिखाई देती है | वैसे तो परिमाणात्मक रूप से व्यंग्य साहित्य में स्त्री लेखिकाओं की आमद बढ़ी है लेकिन आमतौर पर कई सीमाओं में बंद होने के कारण उनका लेखन गुणात्मक रूप में उस तरह से विकसित नहीं हो पाता जैसा कि साहित्यगत कसौटियों की अपेक्षा होती हैं | आमतौर पर वह विचार के तौर पर कमजोर होते हैं या उनमें विषयगत विविधताएँ नहीं होती हैं | उनमें रचनात्मक इकहरापन पाया जाता है या उनमे सामाजिक सन्दर्भों की बहुआयामिकता नही दिखती | वह राजनीति से बचती हैं और हल्के-फुल्के व्यंग्य लिखकर ही संतुष्ट हो जाया करती हैं | लेकिन अनीता अपनी व्यंग्य प्रतिभा से इस क्लीशे को तोड़ती दिखाई देती है वह स्त्री सुलभ सीमाओं को तोड़कर मानो नदी की तरह उमड़ती हुई आगे बढ़ती जाती है | अगर संग्रह से लेखिका का नाम हटा दिया जाए तो आप बता नहीं पाएंगे कि यह किसी महिला व्यंग्यकार का संग्रह होगा | उनके इस संग्रह की अधिकांश रचनाएं गजब की समझ, साहस और आत्मविश्वास के साथ लिखी गई मालूम पड़ती हैं | अनीता सीधी-सरल भाषा शैली से पाठक के मर्मस्थल पर प्रहार करती है | जहाँ अधिकांश व्यंग्य रचनाओं में रम्यता और पठनीयता है वहीं कुछ रचनाओं में एक किस्म का कच्चापन भी है | स्वाभाविकता व निजता का गुण इनकी रचनाओं की अपनी खासियत है | अनीता श्री अपने इस व्यंग्य संग्रह के जरिए समकालीन व्यंग्य पटल पर संभावनाशील व्यंग्य लेखिका के रूप में सशक्त उपस्थिति दर्ज करती हैं | अन्य महिला व्यंग्यकारों में जहाँ एक ओर वरिष्ठ व्यंग्यकार Suryabala Lal का अमन प्रकाशन कानपुर से प्रकाशित व्यंग्य संग्रह पति-पत्नी और हिंदी साहित्य’, वरिष्ठ व्यंग्यकार Snehlata Pathak का इंडिया नेटबुक्स से प्रकाशित व्यंग्य संग्रह लोकतंत्र का स्वादआए तो वहीँ युवा व्यंग्य लेखिका Samiksha Telang का भावना प्रकाशन से व्यंग्य संग्रह व्यंग्य का एपिसेंटर’, प्रीति अज्ञात जैन का प्रखर गूँज पब्लिकेशन से प्रकाशित व्यंग्य संग्रह देश मेरा रंगरेजउल्लेखनीय रहा |


सदाबहार व्यंग्यकार लालित्य ललित के दो व्यंग्य संग्रह इस साल शाया हुए पहला अद्विक पब्लिकेशन से पाण्डेय जी के किस्से और उनकी दुनियादूसरा ज्ञानमुद्रा पब्लिकेशन से पाण्डेय जी टनाटन’, अद्विक प्रकाशन से वरिष्ठ व्यंग्यकार Jawahar Choudhary का व्यंग्य संग्रह गाँधी जी की लाठी में कोंपलेंभी इसी वर्ष आया | Bodhi Prakashan जयपुर से युवा व्यंग्यकार Mohan Lal Mourya का पहला व्यंग्य संग्रह चार लोग क्या कहेंगें’, भारतीय ज्ञानपीठ से सक्रिय व्यंग्यकार रामस्वरूप दीक्षित का व्यंग्य संग्रह टांग खींचने की कला’, Bhavna Prakashan नयी दिल्ली से सुभाष चंदर का व्यंग्य संग्रह माफ़ कीजिये श्रीमान’, ज्ञानगीता प्रकाशन से वरिष्ठ व्यंग्यकार गिरीश पंकज का व्यंग्य संग्रह मिस्टर पल्टूराम’, किताबगंज प्रकाशन सवाई माधोपुर से रामकिशोर उपाध्याय का व्यंग्य संग्रह मूर्खता के महर्षि’, नोशन प्रेस से व्यंग्यकार Kundan Singh Parihar का पांचवां व्यंग्य संग्रह महाकवि उन्मत्त की शिष्याभी प्रकाशित हुआ | Sanjeev Jaiswal Sanjay बाल साहित्य और व्यंग्य साहित्य दोनों में समान अधिकार रखते हैं | इस विधा में उनकी दो पुस्तकें इस साल प्रकाशित हुईं पहला इंडिया नेटबुक्स से प्रकाशित व्यंग्य संग्रह लंका का लोकतंत्रदूसरा ज्ञान विज्ञान एडुकेयर से प्रकाशित व्यंग्य कहानियों का संग्रह यत्र तत्र सर्वत्रअपने मौलिक-यथार्थमूलक कथ्य और बेबाकबयानी के चलते साहित्य जगत में चर्चित रहा | व्यंग्य उपन्यास की बात करें तो उनमे गंगा राम राजी का नमन प्रकाशन नई दिल्ली से प्रकाशित उपन्यास गुरु घंटालका नाम लिया जा सकता है | बाकी कोई बड़ी कृति मेरी नज़र में नही आयी |

 

इस वर्ष प्रकाशित हुए कुछ और उल्लेखनीय संग्रहों की बात करें तो उनमे RV Jangid का इंडिया नेटबुक्स से प्रकाशित व्यंग्य संग्रह हिटोपदेश’, अपेक्षाकृत कम व्यंग्य लिखने वाले ख्यात कथाकार Pankaj Subeer ने शिवना प्रकाशन से प्रकाशित अपने व्यंग्य संग्रह बुद्धिजीवी सम्मलेनके जरिये इस विधा में अपनी धमकदार उपस्थिति दर्ज की है | वरिष्ठ लेखक बीएल आच्छा का व्यंग्य संग्रह मेघदूत का टीए बिल’, बिम्ब-प्रतिबिम्ब प्रकाशन से डॉ ब्रह्मजीत गौतम का व्यंग्य संग्रह एक और विक्रमादित्य’, शब्दशिल्पी प्रकाशन सतना से युवा लेखक अनिल श्रीवास्तव अयान का पहला व्यंग्य संग्रह लम्पटों के शहर में’, बिहार से ताल्लुक रखने वाले Birendra Narayan Jha के तीन व्यंग्य संग्रह निंदक दूरे राखिये’, ‘दे दे राम दिला दे राम’, ‘आये दिन फूलके’, इंक पब्लिकेशन से टीकाराम साहू आज़ाद का व्यंग्य संग्रह परिपक्व लोकतंत्र है जी’, भावना प्रकाशन से प्रकाशित युवा लेखक ऋषभ जैन का व्यंग्य संग्रह व्यंग्य के वायरस’, उत्कर्ष प्रकाशन मेरठ से Sanjay Joshi का व्यंग्य संग्रह 'सजग का माइक्रोस्कोप' तथा आपस प्रकाशन द्वारा संतोष दीक्षित के चयनित व्यंग्यशीर्षक से प्रकाशित हुईं |

 

ऑनलाइन ई-बुक फॉर्म में भी अब किताबें और पत्र-पत्रिकायें आ रही हैं | हिंदी साहित्य के पाठकों के लिए नाट्नल डॉट कॉम ऐसा ही एक लोकप्रिय प्लेटफ़ॉर्म है | चर्चित व्यंग्यकार Anoop Mani Tripathi का तीसरा व्यंग्य संग्रह सोचना मना हैशीर्षक से इसी फॉर्म में प्रकाशित होकर आया | राजनीतिक-सामयिक विषयों पर अनूप सतर्क दृष्टि रखते हैं | ऐसे विषयों पर लिखने में उनकी कोई सानी नही है | अपनी ज़बरदस्त रचनात्मक प्रतिभा और वैचारिक समझ के कारण वह अलग से पहचाने जाने वाले एक अत्यंत सक्षम व्यंग्यकार दीखते हैं | व्यंग्य संकलन की बात करें तो उनमे प्रो. Rajesh Kumar और डॉ लालित्य ललित द्वारा सम्पादित व्यंग्य संकलन आंकड़ा 63 कानाम लिया जा सकता है जिसे निखिल पब्लिकेशन ने प्रकाशित किया | 

व्यंग्य केन्द्रित आलोचनात्मक किताबों की बात करें तो उनमे इंडिया नेटबुक्स नॉएडा द्वारा प्रकाशित एवं राहुल देव द्वारा संयोजित व सम्पादित आधुनिक व्यंग्य का यथार्थको साक्षात्कार सह व्यंग्य विमर्श की पुस्तक कहा जा सकता है | इस पुस्तक में चुनिन्दा समकालीन व्यंग्यकारों के विचारों के जरिये व्यंग्य आलोचना के कई जाले साफ होते हैं | विष्णु नागर के व्यंग्य का राजनीतिक आयाम पर केन्द्रित युवा शोधार्थी Mayank Manni Saroj की किताब बिम्ब-प्रतिबिम्ब प्रकाशन फगवाड़ा पंजाब से प्रकाशित हुई |


व्यंग्य कविताओं के नाम पर अलग से पहचाने जाने वाली किताबों में अशोक प्रियदर्शी की नोशन प्रेस से आई किताब हाशिये परतथा संगिनी प्रकाशन कानपुर से प्रकाशित अरुणेश मिश्र की किताब चूँकि आप गिद्ध हैंप्रमुख रहीं | पत्र-पत्रिकाओं में प्रेम जी की 'व्यंग्ययात्रा' के अलावा बात करें तो गुजरात से निकलने वाली त्रैमासिक पत्रिका विश्वगाथाका व्यंग्य विशेषांक धर्मपाल महेंद्र जैन के अतिथि संपादन में निकला | बिहार से प्रकाशित सत्य की मशालमासिकी का हास्य-व्यंग्य विशेषांक युवा व्यंग्यकार विनोद विक्की के अतिथि संपादन में आया | भोपाल से प्रकाशित मासिक पत्रिका अक्षराका ज्ञान चतुर्वेदी के अवदान पर केन्द्रित अंक आया | दैनिक समाचारपत्रों में छपने वाले व्यंग्य के कॉलमों की गुणवत्ता में इस साल थोड़ा सुधार दिखा। व्यंग्य विवेक, साहित्यिक समझ, साहस और भाषायी धार के स्तर पर उसे अभी और काम करना होगा। बावजूद इसके लोग व्यंग्य की तरफ आ रहे हैं। व्यंग्य विधा ने नए पाठक अर्जित किये हैं | व्यंग्यदृष्टि से कुल मिलाकर यह वर्ष काफी भरापूरा रहा

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rahuldev.bly@gmail.com

Thursday, 18 August 2022

व्यंग्य पर पुनर्विचार - प्रो. सेवाराम त्रिपाठी

इधर तीन-चार वर्षों से व्यंग्य की दुनिया में मेरी सक्रियता बढ़ी है। इसी बीच मेरा एक व्यंग्य-संग्रह भी प्रकाशित हुआहां,हम राजनीति नहीं कर रहे! कुछ अलग तरह से जुड़ाव भी हुए। संबद्धता बढ़ी तो क्रिएटिविटी भी। कुछ विशेष प्रकार से पढ़ना भी हुआ। व्यंग्य के सैनेरियों में जो घट रहा है उसने मेरी चिंताएँ बढ़ा दीं; जैसेराजनीतिक, साहित्यिक, सांस्कृतिक, धार्मिक सिनेरियो ने मुझे भीतर तक मथ डाला। सोचता हूँ कि हम कहाँ जा रहे हैं, उसी तरह व्यंग्य कहाँ जा रहा है? उसकी असलियत और औकात क्या है? उसकी ज़मीन कहाँ है? व्यंग्यकार विवशता से नहीं लिखता। उसके भीतर कुछ टूटता है, कुछ चटकता है और उसे बेचैन करता है तो व्यंग्यकार लिखता है। यह उसका ज़मीर है और चुनाव भी। इसमें उसके गहरे कंसर्न होते हैं। कोई उसे व्यंग्य लिखने के लिए आदेशित नहीं करता कि हर हालत में तुम्हें लिखना ही है। यह उसकी अपनी वास्तविकता और दुनिया है। वह सतही चिंताओं में होकर नहीं लिख सकता। वह कोई मोहपाश वाला व्यक्ति नहीं है।

 

व्यंग्य भजन-पूजन-अर्चन भी नहीं है। वह लेखक की आत्मा की असली आवाज़ है, मैं यह भी सोचता हूँ कि व्यंग्य की दुनिया में इतनी खलबली और गहमा-गहमी क्यों है? जिसे देखो वही व्यंग्य में हाथ आजमा रहा है। व्यंग्य लिखने के लिए भिड़ा हुआ है। व्यंग्य के लिए पसर पसर जा रहा है।यह व्यंग्य के प्रति प्यार है या प्रसिद्धि का मोहकमा है या कोई जबर्दस्त फ़ैशन सा शमां। जाहिर है कि व्यंग्य एक तो वह छोटे में ही बहुत कुछ कह देने की सामर्थ्य रखता है; लेकिन इसी में चुनौती भी है कि आप जो भी कह रहे हैं, इसे ठीक ठिकाने से कहिए। उसी छोटे में बिना विचलित हुए ही कहिए। भाषा-शैली और शिल्प की गड़बड़ी धीरे-धीरे अभ्यास से ठीक हो जाएगी; लेकिन ज़मीर का क्या होगा? ज़मीर का कोई इलाज नहीं हो सकता। ज़मीर ज़िंदा है तो जान भी है और जहान भी है। जनसंबद्धता और सरोकारों का क्या होगा? कंटेंट का क्या होगा?

 

व्यंग्य फुलझड़ियाँ छोड़ने के लिए नहीं लिखा जाता और न होता। इसे मोटे तौर पर कबीर से लेकर हरिशंकर परसाई तक और उसके बाद के समय में भी देखा जाना चाहिए। इधर तथाकथित व्यंग्य और हास्य के कई प्रकार के एपिसोड बढ़े हैं। हास्य के नए- नए कटऑउट लगे हैं।व्यंग्य -व्यंग्य है और हास्य- हास्य है। दोनों की तासीर अलग है और जिम्मेदारियाँ भी। व्यंग्य किसी को हल्का नहीं करता सिवाय लिखने वाले के। व्यंग्य लिखकर। लिखने वाला भीतर की उमड़न घुमड़न से मुक्त हो जाता है।दूसरों की वह चरसी खींच लेता है; बखिया उधेड़ देता है। कुछ व्यंग्यों को छोड़ दें तो प्रायः वैसा हो नहीं पाता। अच्छे लोग इस बात की चिंता करते हैं; बाकी तो रामधुन गा रहे हैं। व्यंग्य-व्यंग्य चिल्ला रहे हैं। चिंता यह भी है कि जो लोग पहुँच-मार्ग पा जाते हैं उनके लिए क्या विधि और क्या विधान और क्या उसका निषेध। व्यंग्य में जो स्थान किसी तरह बना लेते हैं या अपने पट्ठे पाल लेते हैं या हामी बना लेते हैं।उनकी पौ बारह होती हैं या जय-जयकार होती रहती है। लेकिन कब तक यह होता रहेगा? खोखले बाँस को तो तब तक ही बजना है जब तक उसमें हवा भरी है।

 

व्यंग्य और मोक्ष क्या जुगुल बंदी है? व्यंग्य-लेखन मोक्ष प्राप्त करने की दुनिया किसी तरह नहीं है। वह जीवन का अभूतपूर्व बंधन है। व्यंग्य क्रीड़ा, लफ्फाजी और कौतुक की दुनिया भी नहीं है। वह खेल तमाशा भी नहीं है। व्यंग्य से जल्दी छुटकारा नहीं मिलता। व्यंग्य को साधना पड़ता है और वह साधते-साधते ही आता है। यानी साधक सिद्ध सुजान।उसके लिए जीवन से भिड़ना पड़ता है; जीवन से जद्दोजहद करना पड़ता है। धुँधले होकर व्यंग्य का रास्ता नहीं अपनाया जा सकता। व्यंग्य मुँह ताकना नहीं है; बल्कि विसंगतियों, अंतर्विरोधों, विकृतियों को लगातार धुनना और अच्छी वास्तविकताओं का सतत निर्माण करना है।

 

व्यंग्य मंद बुद्धि का क्षेत्र नहीं है। उसके लिए तेजस्विता की ज़रूरत होती है व्यंग्य की दुनिया में जितनी भूमिका हर प्रकार के क्षेत्रों और जीवन मूल्यों, अनुशासनों की होगी उसकी व्याप्ति उतनी ही ज्यादा और महत्त्वपूर्ण होगी।व्यंग्य धर्मशास्त्र की कलाबाजियों से नहीं चलता। वह ज्ञानवान और जानदार चीज़ है। व्यंग्य को अपना सक्षम मार्ग तलाशना पड़ता है। व्यंग्य राजमार्ग नहीं है और न राजमार्ग बनाने का जरिया। व्यंग्य पगडंडियों, कंटकाकीर्ण स्थानों काँदो-कीचड़ और अन्य स्थानों से अपनी संघर्ष-यात्रा प्रारंभ करने से नहीं कतराता है। वाह आग, पानी, हवा सब तक पहुंच जाता है।आख़िर क्यों?

 

दु:खद पक्ष है कि व्यंग्य अभी भी उच्च वर्गों, मध्यवर्ग, संपन्न वर्गों के चंगुल में फँसा हुआ है। वह अभी भी गाँव, जवार और कस्बे तक जाने में शरमा रहा है। वहाँ की समस्याओं से बचना चाहता है। उसने अपनी दिशा नगरों, महानगरों, संस्थानों और बड़े-बड़े इलाकों तक बनाई है; लेकिन वहाँ तक नहीं पहुँचा जहाँ पथरीली, जंगली और पहाड़ी जगह है; जहाँ दिन में जाने से डर लगता है। भला वह रात के अँधेरे में क्या जाएगा और वहाँ की समस्याओं से कैसे निपटेगा? कुछ अंदरूनी स्थितियाँ हैं। उसे तय करना है कि यहाँ जाना है। ऐसा नहीं है कि वहाँ विकृतियाँ नहीं है, विरोधाभास नहीं हैं और अंधविश्वास नहीं हैं। भ्रष्टाचार यहाँ भी पहुँचा है। राजनीतिक धार्मिक सामाजिक नीचताएँ वहाँ पर्याप्त मात्रा में पहुंची हैं। गरीबी और अशिक्षा तो पहले से थी; अब धर्म और संप्रदाय लगातार हमारी समाज-संरचना को तोड़ रहे हैं। अहिंसा और सौहार्द के लिए वहाँ जगह कम पड़ रही है; फिर भी कहना यह है कि व्यंग्य को डरना नहीं आता। व्यंग्य बेचारा नहीं है और डरकर तो वह जी हो नहीं सकता। एक और सच और है कि बिना कठोरता के, बिना निर्मम हुए सच्चा व्यंग्य संभव नहीं है; क्योंकि उसके भीतर करुणा की अजश्र धारा है।

 

प्रश्न नए आने कहाँ पाते हैं? हम शाश्वतता की चपेट में तीन लोक, चौदह भुवनों में ज्‍़यादा विचरण कर रहे हैं। शाश्वतता-शाश्वतता का विशाल राग संपूर्ण कैनवास में बिखर गया है। व्यंग्य का परिक्षेत्र भी विशाल कैनवास में है; इधर साहित्य में ही नहीं, बल्कि व्यंग्य के इलाकों में भी समय-संदर्भों, परिवेश में बिखरी सच्चाइयों को अनदेखा करने का रोग लग गया है। व्यंग्य को सचमुच का व्यंग्य नहीं, भयानक रीति-रिवाज़नुमा चीज़ मान लिया गया है। स्त्री-विमर्श, दलित-विमर्श, आदिवासी-विमर्श के स्फुल्लिंग के रूप में कुछ क्षुद्र स्वार्थप्रधान क्रूरतम लोग अपना चेहरा चमका रहे हैं। जैसे सबके अपने-अपने दु:ख हैं वैसे ही सबके अपने-अपने व्‍यंग्‍य हैं। सबकी अपनी अपनी वास्तविकताएं ओर धाराएं हैं।कभी-कभी व्यंग्य, व्यंग्य की ज़मीन से उतरकर व्यंग्यनुमा जैसे हो जाते हैं; आदमी नहीं, आदमीनुमा हो जाया करते हैं; जैसे दुष्यंत ने लिखा था— “इस तरह टूटे हुए चेहरे नहीं हैं/जिस तरह टूटे हुए ये आइने हैं/.. जिस तरह चाहे बजाओ इस सभा में/हम नहीं हैं आदमी, हम झुनझुने हैं/

 

अपनी-अपनी लाइफ है जी। अपना-अपना मुहकमा है जी। अपना-अपना गणित है जी। सचमुच आनंद आ जाता है अपने-अपने तीर चलाने में। व्यंग्य ने वामन की तरह साढ़े तीन पैरों के रकबे में सब कुछ नाप लिया था। व्यंग्य भी सब कुछ नापने को कायदे से तैयार है। इस दौर में हमने बाईपासमार्गों से गुज़रना ज्यादा उपयुक्त माना और चयन किया; क्योंकि उसमें समय कम लगता है। बाहर-बाहर निकल जाने और चाहें तो गर्राते हुए यानी आराम से घूमने-फिरने की सुविधा है; अब तो बाईपासमार्गों की लीला का अचरज भरा संसार भी है। व्यंग्य-लेखन एकदम कूड़ा तो नहीं माना जा सकता, जैसा कुछ सूरमा टाइप के महारथी हांक लगाते हैं। जैसा कुछ तिकड़मिए अपना गघरा(गगरा) धर देते हैं और समझ नहीं आता कि इसका लॉजिक क्या है। कूड़ा-करकट में भी हम आखिर कुछ न कुछ छाँट-छूँट लेते हैं। हाँ, एक बहुत बड़ी जाजिम बिछी है; जिसमें हम अपना सब अगड़म-बगड़म धरते जा रहे हैं। धरना शायद हमारा शौक या फितरत है। चूँकि सभी विधाओं में कूड़ा-करकट है; इसलिए व्यंग्य में भी ऐसा स्पेस या एजेंसी सेंटर बना दिया जाए और क्या यहाँ भी कूड़ा-करकट निस्तारण ठीक-ठिकाने से होता रहे और उसे वाजिब मान लिया जाए और लिखने वाले हृष्ट-पुष्ट तरीके से लिखते रहें; ताकि कोई जोख़िम न आए। लोग कह रहे हैं कि हरिशंकर परसाई के समय में भी कुछ व्यंग्य ऐसे भी लिखे जाते थे। मात्रा कम होती थी इसकी, अब तो ठेके-पर-ठेके और रेले-पर-रेले चल रहे हैं; बल्कि एक अजीब बयार भी बह रही है। सुविधा के क्षेत्र बढ़ गए हैं और लोग मनमाने ढंग से सुविधा गाँज रहे हैं और खुशी-खुशी में ये काम सम्पन्न हो रहे हैं। जो भी औना-पौना है, लिख मारो। लिखते रहो जो जी में आए। पत्रिका में प्रकाशित हो गया तो ठीक; अन्यथा फेसबुक कहाँ भागा जाता है? कहीं-न-कहीं महत्ता हासिल करने का जुगाड़ ख़ोज ही लिया जाएगा। इन्फर्मेशन टेक्नोलॉजी की बड़ी जायकेदार दुनिया है। वहाँ कई तरह के स्वप्न सजे हैं।

 

व्यंग्य तो परसाई के पूर्व भी लिखे जा रहे थे। परसाई के समय को मानक मानें तो अनेक लोग लिख रहे थे। किसी की चर्चा कम हुई, किसी की ज्यादा। क्या इसे भाग्य का मामला मान लिया जाए? इतिहास का विधाता ही इसका उत्तर दे सकता है। जैसे आज़ादी के बाद के 60-65 वर्षों के समय में किए जाने बारे कामों के बारे में धड़ल्ले से कह दिया जाता है कि सब बेकार था; सब परम घटिया था या यह भी कि कुच्छौ नहीं हुआ। रागदरबारी में श्रीलाल शुक्‍ल ने ज़िंदगी के बहुत बड़े सर्वेक्षण और परीक्षण के बाद लिखा है— “उन्‍होंने जो कुछ भी देखा, वह खराब निकला; जिस चीज़ को भी छुआ, उसी में गड़बड़ी आ गई। इस तरह उन चार आदमियों ने चार मिनट में लगभग चालीस दोष निकाले और फिर एक पेड़ के नीचे खड़े होकर इस बात पर बहस शुरू कर दी कि दुश्‍मन के साथ कैसा सलूक किया जाए।

 

इस ज़माने की बात कीजिए तो आपको साठ-सत्तर के दशक में पटक दिया जाता है। कहा जाता है कि हमारी गलतियों पर निशानदेही मत करो। पहले तो सब बेकार और रद्दी काम हुए हैं। हमीं ने तो अच्छे काम शुरू किए हैं। वे खरीदने में लगे थे; हम सब कुछ बेच रहे हैं। आखिर बेंचने में क्‍या दिक्‍़कत है और जो नहीं बेंच पाए, उसे बेंचने पर उतारू हैं। आपको क्यों आपत्ति है? हम भले हैं या बुरे हैं आपको आपत्ति क्या है? हम आपत्ति से एकदम बाहर हैं। चरित्र, मनुष्यता, आज़ादी, जनतंत्र तो बिक गए। अब तो रेलवे, बी.एस.एन.एल., बैंक और न जाने क्या-क्या बेचना बाकी है। इसकी लंबी प्रक्रिया चल रही है। जनतंत्र में नहीं बिक सकेगा तो तानाशाही के रूप में तो बिक ही सकता है। किसी में दम है तो रोक ले। पहले छोटी चीज़ें बेचने का चस्का था अब बड़े-बड़े कामों में हाथ मार रहे हैं।

 

व्यंग्य को हम क्या बनाने पर तुले हैं। हम सामाजिक सरोकारों, राजनीतिक सरोकारों से भाग रहे हैं। यथार्थ हमारे पीछे लट्ठ लेकर पड़ा है और हम धमा-चौकड़ी पर हिलग-हिलग जाते हैं। मंगलेश डबराल की कविता का एक अंश पढ़ें— “कुछ शब्द चीखते हैं/कुछ कपड़े उतारकर/घुस जाते हैं इतिहास में/कुछ हो जाते हैं खामोश।माना कि व्यंग्य को विधा मान लिया गया है या एक खास स्पिरिटअथवा एक जेनुइन मनोविज्ञान। जब देश का माहौल बन रहा है कि कोई प्रश्नांकन करे तो उसे पाकिस्तान, खालिस्तान, आतंकवादी और देशद्रोही के इलाकों में पटक-पटककर मारेंगे। ऊपर से देशद्रोही के संसार में ठोंक देंगे। इसी तरह के खाते में कइयक चले गए और कइयक छले गए। छल-कपट-प्रपंच का पूरा शास्त्र चल रहा है। व्यंग्य भी श्रेष्ठता सिद्ध करने में भिड़ा है। परसाई जी के न रहने पर व्यंग्य का प्रमोशन हो गया है। वह शूद्र से ब्राह्मण या राजा की कोटि में आ गया है। मुझे लगता है कि व्यंग्य में तो टूल्‍स या टूलों में कमी नहीं है। हाँ, हमारे विज़न और मिशन में डाका पड़ गया है तो कोई क्या करे? इसलिए व्यंग्य चपेट में आ गया है। हम हर बार राष्ट्रीय मुहावरों में गिर पड़ते हैं। जैसे भू-स्खलन होता है, कुछ उसी तरह व्यंग्य का भी स्खलन होगा तो कौन-सा महाभारत अशुद्ध हो जाएगा। व्यंग्य लोगों के मनोविज्ञान में कई तरह से जंप लगाता है। व्यंग्य के बारे में कहा-सुनी और लिखा-पढ़ी एक लंबे अरसे से हो रही है। अब तो नागरिकता में उसे फँसा दिया गया है। जिनका नाम व्यंग्य के गजेटियर में नहीं है; वे शायद ठीक-ठिकाने से बोलने-बताने के यानी बतरस के अधिकारी भी नहीं है। व्यंग्य में जो अरसे से हाथ-पैर मार रहें हैं उनका हक़ बनता है कि उन्हें महत्त्व मिले; उन्हें पुरस्कार-उरुसकार भी मिलना चाहिए। व्यंग्य की स्वीकार्यता और नागरिकता से पहले ही वे बर्खास्त हो चुके हैं। जो बर्दाश्‍त हो गया उसकी क्‍या बात है; उसकी औकात ही क्या? व्यंग्य के इलाके में शायद वैदग्ध्य, विडंबना, विसंगति, कटाक्ष, अंतर्विरोध, भर्त्सना, आक्षेप और न जाने क्या-क्या आता है। हाँ, नहीं आती तो जनपक्षधरता, जनसरोकर और न जनसंबद्धता। ये एकदम वाहियात चीज़ें हैं। कुछ कहनवीर कहते हैं कि इन्हें व्यंग्य की दुनिया से विदा कर देना चाहिए।

 

व्यंग्य की पद्धति एक प्रकार की नहीं होती और न हो सकती; न होनी चाहिए। कभी वह अकड़ता है; कभी विनम्र होता है। कभी-कभी उसकी भंगिमा में जीवन की तमाम ग़लत सीवनों को उधेड़ने का भी माद्दा होता है; लेकिन उसकी वास्तविकता समय-समाज को सुधारने की होती है और उसकी धारा में करुणा की महती भूमिका होती है। व्यंग्य का बंधान लोग अपने-अपने हिसाब से करते हैं। बंधान में इसे नई तरह से तलाशना पड़ता है। अस्सी कहानियाँ पुस्‍तक में इशारा है कि दरिद्रता का नृत्य देखते-देखते, कभी मेरे नेत्रों के सम्मुख सड़कों में पड़े अधमरे, अंधे, लंगड़े-लूले और भूखे-भिखारियों के चित्र फिरने लगते। मैं तड़पने लगता। मेरा दम घुटने लगता। मैंने मन में फिर कहा दरिद्रों के लिए क़ानून क्यों नहीं बनाया जाता कि उनको फाँसी दे दी जाए, बस उनके कष्टों का एक साथ ही अंत हो जाए।” (तीन सौ दो, पृष्ठ-145)

 

इन सभी बातों पर संवाद और विचार-विमर्श होना चाहिए; कोई मनमानी टिप्पणी नहीं। किसी तरह की धक्‍कामुक्‍की भी नहीं। कायदे से तर्क-वितर्क कीजिए। संवाद कीजिए। यहाँ तो लोग चरित्र का चीर-हरण करने में जुट जाते हैं। द्रौपदी के चीर-हरण की तरह सब कुछ स्वाहा करने में जंपिंग करने लगते हैं। हम सभ्यता-संस्कृति का उत्खनन कर रहे हैं। कुछ-न-कुछ तो निकल ही आएगा। न निकलेगा तो निकाल लिया जाएगा। सब बाएँ हाथ का खेल है। किसी की इज्‍़जत नीलाम नहीं की जा सकती। व्‍यंग्‍य की प्रकृति, सीमा और उसकी कार्यवाही के संदर्भ में भी इसे जानने-पहचानने का प्रयत्‍न होना चाहिए। व्‍यंग्‍य कोई लोक-लुभावन चीज़ नहीं है और न कोई पैतरेबाज़ी। वह सामाजिक सच्‍चाइयों का आईना भी है और समाज को दुरूस्‍त करने की प्रक्रिया भी। अनुरोध किया जा सकता है कि व्‍यंग्‍य को सही-सही नागरिकता मिलनी चाहिए और उसकी स्‍परिट को भी मद्देनज़र रखना चाहिए। यहाँ मनमानी हाँक नहीं चलेगी और न किसी तरह की गाँजा-गाँजी। व्यंग्य के नाम पर कुछ भी गाँजने को लेकर लोग चौकन्ने हैं। जनतंत्र की तरह व्यंग्य तंत्र में क्या इसी तरह चलना चाहिए।

 

प्रश्न है कि क्या व्‍यंग्‍य सत्ता की मार्केटिंग का जुड़वा भाई बनकर ही जिएगा। लोगों में कहने का साहस नहीं है कि हमारा यही सच है। व्यंग्य से उत्तरदायित्वबोध का गायब होना, कई तरह के प्रश्न खड़ा करता है। रचनाओं में सब बड़े आराम से धकाया जा रहा है। क्या दोनों ने न सुधरने की प्रतिज्ञा कर ली? सहमति के घोषणा पत्र जारी हो रहे हैं। जब सत्ता नहीं सुधर सकती तो क्या व्यंग्य को सुधरना ही चाहिए? अब तो लगता है कि व्यंग्य को सत्ता के साथ रहने में मजा आता है। वहाँ संभावनाओं के बड़े-बड़े मचान हैं। कहते हैं कि भक्त भगवान के चाहने पर बड़ा भी हो जाता है; जैसे आजकल चिरकुटिए कोई भी बड़ा पद झटक लेते हैं। वे कुलपति हों या राज्यपाल या किसी अकादमी या संस्थानों में या पीठों में बड़े आराम से पदायमान हो जाते हैं। इससे इन पदों को भी शर्म आने लगती है कि आखिर हमारा निर्माण ही क्‍यों किया गया था? क्या इसी तरह के दिन देखने को बदे थे? क्‍या हमारे भाग्‍य में यही गुदा था? अब हम चिरकुट-लीला के युग में हैं और खालिस मन के तंत्र में और मज़े से मन की बातें फटकार रहे हैं और राहत का पेटेंट बनाकर टहल रहे हैं। देश-कल्याण के खाते में कुछ भी औना-पौना हो सकता है। हम किस ढैया के चक्कर में आ गए? किस साढ़े-साती में और न जाने किस ढाई-सवा-पाँच यानी पौने आठ की दुनिया में हिलग गए हैं? व्यंग्य अब वो व्यंग्य नहीं है। जिसकी बहुत बड़ी प्रतिष्ठा होती थी।

 

हमारा समूचा वातावरण या देशकाल गंधायमान न होकर गमकायमान हो रहा है। हम तरह-तरह के जीवी होने की कोटि में आ गए। हम वास्तव में साँसजीवी लोग हैं। ख़तरा यह पैदा हो गया है कि जिस तरह प्लेटफार्म टिकट दस रुपए से तीस रुपए हो गया है; उसे इतनी क़ीमत पर भी शर्म नहीं आती। रसोई गैस ने एक हज़ार से ऊपर का आँकड़ा पार कर लिया। पेट्रोल-डीजल न जाने कहाँ जाकर मुकाम हासिल कर पाएँगे? वैसे सौ से बाहर चले गए; लेकिन अभी भी शर्म प्रूफ होकर कीमतें बढ़ाकर जीना चाहते हैं। सीएनजी ने भी अच्छी-खासी छलाँग लगा रखी है। इस हालत में कहने को आख़िर बचा ही क्या है? अपने दल से एबाउट टर्न होकर विधायक-सांसद करोड़ों रुपए के आँकड़े पार कर चुके हैं। कहीं ठहरने का नाम नहीं ले रहे; तब क्‍या कहा जाए? जब सरकारी खाते में ऐसा हो रहा है तो प्रायवेट थिंकिंग और मार्केटिंग में न जाने क्‍याक्‍या होगा? यदि प्लेटफार्म टिकट की यह क़ीमत रखी गई है तो तय है कि जीने के लिए साँस लेना अनिवार्य है। यदि उसमें टैक्स लगा तब तो जिसके पास पैसा है वही जी पाएगा; क्‍योंकि बिना साँस के जीना मुश्किल है।

 

यह जीवी होने का भी युग है। जैसे पहले स्वतंत्रता आंदोलनजीवी हुआ करते थे; फ़िर जनतंत्रजीवी हुआ करते थे और अब स्वच्छता अभियानजीवी, सत्ताजीवी, मीडियाजीवी और कारपोरेट घरानाजीवी के नए-नए चश्में ईजाद हो गए हैं। पहन सको तो पहनो और चाहो तो परजीवी या परमजीवी हो जाओ बुद्धिजीवी की तरह। अब जीवी-ही-जीवी दिख रहे हैं। नज़ारा यह है कि कुछ विद्याजीवी, कुछ नौकरीजीवी कुछ संसारजीवी और कुछ वोटजीवी; उसी तरह व्यंग्यजीवी भी होने लगे। क्या फ़र्क पड़ता है? जीवी होने में जो मज़ा है वह और कहाँ। शब्‍दों की महिमा इसी तरह बढ़ती है। शब्‍द फेंक दिए जाते हैं। कभी वे चलने लगते हैं; कभी दौड़ने और कभी-कभी वे धमकाने भी लगते हैं। जब शब्‍द उछाले जाते हैं तो कुछ शब्‍दों के मरणासन्‍न होने का खतरा बढ़ जाता है; जैसे आज के दौर में नैतिकता और मूल्य मरणासन्न भी हो गए और अपना टोपा औंधाए कुमारी लड़की की नाजायज कोख छिपाए सन्न हैं। सारा मामला झन्न-फन्न है?

 

पूरे देश में असमंजस है; उसी तरह व्यंग्य में भी। व्‍यंग्‍य आसमान से तो उतरता नहीं। उसे भी इसी धरती में जीना है; इसमें आख़िर हर्ज़ क्या है? व्यंग्य के बारे में लल्लन अच्छे-खासे चिंतित हैं। उनका मानना है कि जिनमें असमंजस का भुतहा संसार है वो व्यंग्य क्या? साहित्य संस्कृति के इलाके में न आएँ और न वे छोटी-छोटी चिफलियाँ लगाएँ। वे पता नहीं होने देना चाहते हैं कि वे किसके साथ हैं। वे अपने लिए कोई दूसरा क्षेत्र चुन लें। व्यंग्य में क्यों अधमरे हो रहे हैं। व्यंग्य ठहरा जिम्मेदारी का काम। उसमें भड़ैती नहीं चला करती। वे चाहें तो हल्के-फुल्के ढंग से हँसने-हँसाने का भी काम कर सकते हैं। हास्य वगैरह वगैरह लिखें। सत्ता की चौपड़ बिछी है; उसी में अपना मन रमा लें। ग़लत चीज़ों के लिए प्रतिरोध और जनता के प्रति जिनमें न तो जिम्मेदारी है और न उसके परिवर्तन का ध्येय है वे यहाँ क्यों वाहवाही में उछल-कूद कर रहे हैं और व्यंग्य को प्रशंसा में ढालने पर जुटे हैं। यह दौर मनुष्यता के वध करने का, मूल्यों की होली खेलने का समय है। यह दौर तानाशाहियत का और क्रूरता का समय है। कभी हिरोशिमा हत्याकांड एक बार हुआ था; अब लगातार है। हजारीप्रसाद द्विवेदी का एक निबन्ध है- नाखून क्यों बढ़ते हैं?’ “मुझे ऐसा लगता है कि मनुष्य अब नाखूनों को नहीं चाहता। उसके भीतर बर्बर युग का कोई अवशेष रह जाए, यह उसे असह्य है। लेकिन यह भी कैसे कहूँ, नाख़ून काटने से क्या होता है? मनुष्य की बर्बरता घटी कहाँ है; वह तो बढ़ती जा रही है। मनुष्य के इतिहास में हिरोशिमा का हत्याकांड बार-बार थोड़े ही हुआ। यह तो उसका नवीनतम रूप है।

 

समझा जाना चाहिए कि व्यंग्य का काम करुणा भर नहीं है। विसंगतियों, विद्रूपताओं, विडंबनाओं, अंतर्विरोधों को उजागर करना भी है। व्यंग्य पहले शूद्र हुआ करता था अब वह राजा हो गया है और कुर्सीधारी भी। वह लपू झन्ना की तरह दौड़र हा है। इसलिए व्यंग्य हर तरह का अधिकारी भी हो गया है। जिस दिन व्यंग्य शास्त्र बन जाता है; मुगालते में झूलने लगता है; उस दिन वह प्रतिरोध से अलग होकर, लोक से अलग होकर, जय-जयकार की कोटि में आ जाता है। दरअसल व्यंग्य, विज़न एवं सच्चाई का भी मामला है। अब तो वह खद्योत सम जहँ त करहि प्रकाश हो गया है। कभी-कभी वह झलक दिखला जा के खाते में शामिल हो जाता है। धीरे-धीरे वह सुविधाजीवी और सत्ताभोगी और अपर श्रेणी में पदार्पण कर चुका है। अब तो नागरिकता घायल है और उधर किसान घायल हो रहे हैं। उसके वध की तकनीकें विकसित की जा रही है।

 

व्यंग्य नाउम्‍मीद की उम्‍मीद नहीं है। उसका रंग क्रमशः बदरंग हुआ है। सचमुच व्यंग्य किस इलाके में आ गया है; जहाँ कीर्तन-भजन की लीलाएँ जारी हैं। एक समय में व्यवस्था उससे काँपती थी या भयभीत होती थी; अब वह स्वयं व्यवस्था हो गया है या ढल चुका है। उसके बड़े-बड़े खाते हैं। किसी ने कहा है कि उसका काम हाथ बाँधने की मुद्रा में आ गया है। इस दौर में वह खरे सिक्के के रूप में टनटना नहीं सकता; इसलिए उसे खोटा होने में ही आनंद है। वह पुरस्कार और पदवियाँ पीटेगा और सत्तानसीन लोग व्यंग्य को नीचे पटककर हास्य के इलाके में ठेल देंगे। जब से असली नकली हो गए और नकली असली बन गए तब से शत्रु-मित्र में फ़र्क नहीं बचा। डाकू पहले बीहड़ों में रहते थे; अब शहरों में, बड़े-बड़े इलाकों में पाए जाते हैं। वे अब तो कहीं भी मिल सकते हैं। अपराधियों, गुंडों, तस्करों, हत्यारों का गिरोह आश्चर्य जनक तरीके से वैधानिकता पा चुका है। वह आगे मठों में, संसद में और सांस्कृतिक फिज़ाओं के सूरमाओं में मिलने लगा है। जब से संसद के बारे में धूमिल ने कहा है कि— “संसद/देश की धड़कन को/प्रतिबिंबित करने वाला दर्पण है/जनता से/जनता के विचारों का/नैतिक समर्पण है/लेकिन क्‍या सच है/अपने यहाँ संसद तेली की वह घानी है/जिसमे आधा तेल और आधा पानी है।

 

व्यंग्य को बेचारी मिमियाती बकरी बना दिया गया है; जिसे कारपोरेट और अन्य आखेटक चाहे जहाँ हलाल कर सकते हैं। कुछ के लिए व्यंग्य घर की मुर्गी है; जिसकी क़ीमत दाल बराबर बनाई जा रही है। कोई आश्चर्य नहीं करना चाहिए जब पेट्रोल डीजल के इंजेक्शन लगेंगे और उसी से लोगों के ज्ञान चक्षु खुला करेंगे और उनकी आत्मा टकसाली हो जाएगी। व्यंग्य का कारोबार होगा और वह नए ज़माने में वर्ग-शत्रुओं के साथ हमजोली होकर मुक्तिबोध का डोमा जी उस्ताद हो जाएगा। हे व्यंग्य, तुम्हारी जय हो। कुछ हस्तियाँ व्‍यंग्‍य को चाटुकार बनाये जाने का खेल खेल रही है। परसाई जी ने सच ही कहा है कि मेरी आत्‍मा तू ही बता/क्‍या गाली खाकर मैं ईमानदार बना रहूँ।” (पगडंडियों का जमाना)

 

हे महान क्रांतिकारी व्यंग्य! तुमने अपना क्या हाल बना रखा है? तुम वास्तविकता, भंडाफोड़, विसंगति के इलाके से बाहर निकल आए। इस समय अपनी तमाम आदतें बदल रहे हो। तुम समय के सुलगते-धुँधुआते सवालों के बरअक्स शासकीय भूमि में प्रवेश कर रहे हो। सत्ता के गलियारों में गलबहियाँ डाले घूमने लगे; अपना साम्राज्य जमाने लगे और अपनी छटा बिखेरने में जुट गए। अब किसान आंदोलन में लंगोटी वाले किसान नहीं हैं और न हाथ बाँधकर गिड़गिड़ाने वाले ही। इसलिए सत्ता उन्हें किसान क्यों माने? किसानों को मरभुक्‍खा होना चाहिए। सत्ता वह जो बड़े-बड़े हवाई विमान खरीदे; दिन-रात विदेशों में उड़ती रहे और अक्सर देश के नागरिकों की छाती पर लैंड करती रहे। इस युग में नैतिकता और मनुष्यता के निकलते अस्थि-पिंजर से मुटमुटाकर चमकति, चमकत:, चमकन्ति हो जाए।

 

संवाद से व्यवस्था की सेहत और गुमान दोनों को धक्का लगता है और ठेस भी पहुँचती है। इसलिए संवाद से हमने त्यागपत्र दे दिया। धीरे-धीरे जनतंत्र की हत्या करना परम पुण्य का काम माना जाना लगा है। आत्‍मनिर्भरता का हाल यह है कि जो आत्‍मनिर्भर नहीं होगा या किसी के भरोसे पर रहेगा चाहे वह व्‍यवस्‍था हो या कोई और तो उसका जीना संभव नहीं हो पाएगा; लेकिन बुद्धन है कि मानता ही नहीं। वह कहता है कि अब परजीवी होने पर सुख है, ऐसा बड़े-बड़े लोग कह रहे हैं। हमारे पास न जाने कितने सारे शब्‍द यात्रा कर रहे हैं। मसलन किसानजीवी, बलात्‍कारजीवी, असहमतिजीवी नाम के अनेक पद निर्मित हुए हैं। वामजीवी, मध्‍यजीवी की तरह दक्षिणजीवी का भी उत्तरोत्तर विकास हुआ है। अब तो दक्षिणजीवी सबकी छाती पर मूँग दल रहे हैं।

 

हमें मानना चाहिए कि व्‍यंग्‍य लगातर एक तलाश है; जैसे हमारे जीवन में हर तरह की तलाश जारी रहती है। जिस तरह ज़िंदगी सहज नहीं होती उसी तरह व्‍यंग्‍य की धार एक जैसे नहीं होती। कभी उसमें विडंबना होती है, कभी विदग्‍धता, कभी उपहास। इसलिए शायद व्यंग्य को व्यंग्य की दुनिया से बाहर आकर चारण बन जाना ही श्रेयस्करलगा होगा। जब नागरिकता ऑन लाइन हो, प्रेम ऑन लाइन हो तो व्यवस्था और सत्ता को ऑनलाइन होकर सबको ठोंकना होता है। उसकी नज़रें ऐसे ही इनायत नहीं हो सकती; इसलिए व्यंग्य व्यंग्य न रहा। जनतंत्र जनतंत्र न रहा, आज़ादी आज़ादी नहीं रही। हम व्यंग्य की असामयिक मौत पर कुढ़ सकते हैं; अंदर से हिल सकते हैं। जिन्होंने तथाकथित व्यंग्यका साम्राज्य खड़ा कर लिया है उनसे कुछ कह नहीं सकते। व्यंग्य ने अपनी धार को योग में, बाबा-आश्रमों में, कारपोरेट-घरानों तथा सत्ता-व्यवस्था के पास गिरवी रख दिया है; ताकि व्यंग्य किसी-न-किसी तरह सुरक्षित बचा रहे जान है तो जहान है की स्टाइल में।

 

इस दौर में शायद हरिशंकर परसाई होते तो हींग-हल्दी बेंच रहे होते; श्रीलाल शुक्ल अंगद का पाँव न रखकर सचमुच राग दरबारी गा रहे होते; शरद जोशी यथासंभव न होकर परासंभव हो गए होते। नाम बहुत हैं; हम लोग उनकी तासीर जानते हैं। पुराने व्यंग्यकारों की आत्माएँ अपने-अपने हुनर के साथ चारणजीवी हो गए होते और सत्ता की सहमति में साढ़े पाँच किलो का मूँड़ मटका रहे होते। कभी-कभी मुझे लगता है कि क्या व्यंग्य बूढ़ा हो गया है। बूढ़ा न भी हुआ हो तो बुढ़भस हो ही गया है। उसकी हालत भी शिक्षा जैसी हो गई है कि जो भी आता है उसे चार लात लगाता है। प्रयोग-पर-प्रयोग ठोंके जा रहे हैं। प्रतापनारायण मिश्र का एक अंश पढ़ें— “घर की मेहरिया कहा नहीं मानती, चले हैं दुनिया भर को उपदेश देने, घर में एक गाय नहीं बाँधी जाती, गोरक्षा की सभा स्थापित करेंगे, तन पर एक सूत देशी कपड़े का नहीं है, बने हैं देश हितैषी, साढ़े तीन हाथ का शरीर है, उसकी उन्नति नहीं करते, देशोन्नति पर मरे जाते हैं।


 

(लेखक रीवा मध्य प्रदेश के जाने माने साहित्यकार और आलोचक हैं, निवास- रजनीगंधा-06, शिल्पी उपवन, अनंतपुर ,रीवा (म.प्र)-486002)

 

गाँधी होने का अर्थ

गांधी जयंती पर विशेष आज जब सांप्रदायिकता अनेक रूपों में अपना वीभत्स प्रदर्शन कर रही है , आतंकवाद पूरी दुनिया में निरर्थक हत्याएं कर रहा है...