Monday 25 July 2011

आत्मविश्वास और दृढ़ता के साथ बढ़े आगे



  • स्वामी विवेकानंद ने कई स्थानों का भ्रमण किया था। उन्होंने अपने यात्रा- वृत्तान्त में एक घटना का वर्णन किया है। प्रस्तुत है, उसके कुछ अंश :
    एक बार मैं हिमालय के अंचल में यात्रा कर रहा था। सामने लम्बी सड़क का विस्तार। उस निर्जन स्थान पर हम गरीब साधुओं को ले जाने वाला कोई नहीं था, इसलिए हमें पूरा मार्ग पैदल चल कर ही पार करना था। लेकिन हमारे साथ एक वृद्ध व्यक्ति भी यात्रा कर रहे थे। रास्ते में उतार-चढ़ाव देख कर वृद्ध साधु ने कहा कि इसे कैसे पार करें? मैं अब आगे चलने में बिल्कुल असमर्थ हूं!
    मैंने उनसे कहा कि आपके पांवों के नीचे जो सड़क है, उसे आप पार कर ही चुके हैं। अब आपको सामने जो सड़क दिखाई दे रही है, वह भी शीघ्र आपके पांवों के नीचे आ जाएगी, यदि आप हताश न हों और हिम्मत से काम लें! यहां विवेकानंद का संदेश बड़ा स्पष्ट है। यदि हमारे पास साधन या सहायक न हो, रास्ता उतार-चढ़ाव वाला हो और शरीर वृद्धावस्था को प्राप्त हो गया हो, तब भी हिमालय पर विजय प्राप्त की जा सकती है।
    उत्साह का संचार
    हम अपने जीवन की संघर्षमय यात्रा का अधिकांश हिस्सा सहज भाव से काट देते है। यह सच है कि किसी भी क्षण हमारे सामने हिमालय पर चढ़ने के समान दुर्गम समस्या खड़ी हो सकती है। संभव है कि समस्या से मुकाबला करते-करते हमारा शरीर कमजोर पड़ जाए और उस समय हमारी कोई सहायता भी न करे! ऐसी स्थिति में मन में हीन भावना उत्पन्न होना अवश्यंभावी है। और तो और, हमारा उत्साह भी भंग हो जाता है और हार को स्वीकार करने के लिए हम तैयार हो जाते हैं! यदि किसी व्यक्ति के समक्ष ऐसी स्थिति उत्पन्न हो, तो स्वामी जी के यात्रा वृत्तान्त के मर्म को अवश्य याद करना चाहिए। हमें कभी निरुत्साहित नहीं होकर स्वयं में उत्साह का संचार अवश्य करना चाहिए, क्योंकि कोई भी समस्या ऐसी नहीं होती है, जिसका हल मौजूद न हो। यहां सवाल कदम को पीछे हटाने का नहीं, बल्कि आगे बढ़ाने का है।
    असंभव नहीं है कोई कार्य
    स्वामी विवेकानंद के कथन को हम कुछ उदाहरणों से अच्छी तरह समझ सकते है। वर्षो पूर्व हिमालय को अजेय माना जाता था। लेकिन एडमंड हिलेरी ने एक साहसिक भरा कदम उठाया और हिमालय पर विजय प्राप्त कर ली। उनके साहस का ही परिणाम है कि कई व्यक्तियों ने हिमालय की चोटी पर पहुंच कर सफलता का परचम लहराया है।
    वास्तव में, दुनिया में जो भी कीर्तिमान बनते है, वे पहले असंभव ही माने जाते हैं। लेकिन हमें यह भी हमेशा याद रखना चाहिए कि कीर्तिमान टूटने के लिए ही बनते हैं। हम सभी निरंतर खेल के मैदान पर रिकार्ड टूटने के बारे में सुनते रहते हैं। इसलिए यह भी कहा जा सकता है कि इस दुनिया में असफलता नाम की कोई चीज ही नहीं है। जरूरत है, तो केवल दृढ़ता और आत्मविश्वास के साथ कदम आगे उठाने की।
    हीनता का त्याग
    स्वामी विवेकानन्द कहते है कि हमें हीन भावनाओं को अवश्य त्याग देना चाहिए। क्योंकि हमारी मुख्य समस्या हीन भावना ही है। यदि हम मन ही मन स्मरण करते हैं कि यह कार्य हमसे नहीं हो पाएगा, तो असफलता तय है। सच तो यह है कि निराशा ही हमें अवसाद की स्थिति में ले जाती है। हीनता-निराशा पाप है, क्योंकि मनुष्य जन्म मूल्यवान है। इतालवी उपन्यासकार सेजरे पावसे कहते हैं कि सभी पापों का जन्म हीनता की भावना से उत्पन्न होता है। इसी भाव की वजह से हम अपनी असफलता का कारण किसी अन्य व्यक्ति के सिर मढ़ देते हैं। डर लगता है कि यदि हम साहसपूर्वक कदम उठा लेंगे, तो असफल हो जाएंगे और फिर दूसरे व्यक्ति भी हम पर हंसेंगे। लोग क्या कहेंगे, यह एक अजीब डर है। लेकिन इस बात का हमेशा ध्यान रखना चाहिए कि असफल होने पर भी हम कुछ ज्ञान अवश्य प्राप्त करते हैं। क्योंकि यह भी एक सच है कि जो दौड़ेगा, वही तो गिरेगा! इसी तरह यदि हम एक-एक कदम आगे बढ़ाएंगे, तभी मंजिल मिलेगी। यदि हम केवल विचार करते हुए सड़क पर खड़े रहेंगे, तो मंजिल तक पहुंचने की कल्पना ही नहीं की जा सकती है। दरअसल, भाग्य भी उन्हीं व्यक्तियों का साथ देता है, जो कर्म करते हैं। इसलिए एक कदम आगे उठाने का साहस कीजिए, रास्ता स्वयं बनता चला जाएगा। इस संबंध में वेद व्यास कहते हैं कि चिंता रहित होकर आगे बढ़ते रहना चाहिए, तभी हमें समृद्धि और ऐश्वर्य मिल पाएगा।
    स्वामी जी कहते है कि हिमालय के उतार-चढ़ाव भरे रास्ते के समान हमारा जीवन भी संघर्षो से भरा हुआ है। इसलिए हमें धैर्यपूर्वक अपनी मंजिल की ओर कदम बढ़ाते रहना चाहिए। कवि श्याम नारायण पांडेय ने भी कहा है :
    यह तुंग हिमालय किसका है?
    उत्तुंग हिमालय किसका है?
    हिमगिरि की चट्टानें गरजीं,
    जिसमें पौरुष है उसका है।
    इसलिए हमें जीवन के संघर्ष-पथ पर निरंतर बढ़ते रहना चाहिए, तभी सफलता भी हासिल होगी।

Friday 15 July 2011

भारत का विश्व पर ऋण (SWAMI VIVEKANAND)

सम्पूर्ण विश्व पर हमारी मातृभूमि का महान्‌ ऋण है । एक-एक देश को लें तो भी इस पृथ्वी पर दूसरी कोई जाति नहीं है, जिसका विश्व पर इतना ऋण है । जितना कि इस सहिष्णु एवं सौम्य हिन्दू का ! ‘‘निरीह हिन्दू'' कभी-कभी ये शब्द तिरस्कारस्वरुप प्रयुक्त होते है, किन्तु कभी किसी तिरस्कार-युक्त शब्द प्रयोग में भी कुछ सत्यांश रहना सम्भव हो तो वह इसी शब्द प्रयोग में है । यह ‘‘निरीह हिन्दू '' सदैव ही जगत्पिता की प्रिय संतान है ।

प्राचीन एवं अर्वाचीन कालों में शक्तिशाली एवं महान्‌ जातियों से महान्‌ विचारों का प्रादुर्भाव हुआ है । समय-समय पर आश्चर्यजनक विचार एक जाति से दूसरी के पास पहुंची हैं । राष्ट्रीय जीवन के उमड़ते हुए ज्वरों से अतीत में और वर्तमान काल में महासत्य और शक्ति के बीजों को दूर-दूर तक बिखेरा है । किन्तु मित्रो ! मेरे शब्द पर ध्यान दो । सदैव यह विचार-संक्रमण रणभेरी के घोष के साथ युद्धरत सेनाओं के माध्यम से ही हुआ है । प्रत्येक विचार को पहले रक्त की बाढ़ में डुबना पड़ा । प्रत्येक विचार को लाखों मानवो की रक्त-धारा में तैरना पड़ा । शक्ति के प्रत्येक शब्द के पीछे असंख्य लोगों का हाहाकार, अनाथों की चीत्कार एवं विधवाओं का अजस्र का अश्रुपात सदैव विद्यमान रहा । मुख्यतः इसी मार्ग से अन्य जातियों के विचार संसार में पहुंचे । जब ग्रीस का अस्तिव नहीं था । रोम भविष्य के अन्धकार के गर्भ में छिपा हुआ था, जब आधुनिक योरोपवासियों के पुरखे जंगल में रहते थे और अपने शरीरों को नीले रंगों में रंगा करते थे, उस समय भी भारत में कर्मचेतना का साम्राज्य था । उससे भी पूर्व, जिसका इतिहास के पास कोई लेखा नहीं जिस सुन्दर अतीत के गहन अन्धकार में झांकने का साहस परम्परागत किम्बदन्ती भी नहीं कर पाती, उस सुदूर अतीत से अब तक, भरतवर्ष से न जाने कितनी विचार-तरंगें निकली हैं किन्तु उनका प्रत्येक शब्द अपने आगे शांति और पीछे आशीर्वाद लेकर गया है । संसार की सभी जातियों में केवल हम ही हैं जिन्होंने कभी दूसरों पर सैनिक-विजय प्राप्ति का पथ नहीं अपनाया और इसी कारण हम आशीर्वाद के पात्र हैं ।

एक समय था-जब ग्रीक सेनाओं के सैनिक संचलन के पदाघात के धरती कांपा करती थी । किन्तु पृथ्वी तल पर उसका अस्तित्व मिट गया । अब सुनाने के लिए उसकी एक गाथा भी शेष नहीं । ग्रीकों का वह गौरव सूर्य-सर्वदा के लिए अस्त हो गया । एक समय था जब संसार की प्रत्येक उपभोग्य वस्तु पर रोम का श्येनांकित ध्वज उड़ा करता था । सर्वत्र रोम की प्रभुता का दबदबा था और वह मानवता के सर पर सवार थी पृथ्वी रोम का नाम लेते ही कांप जाती थी परन्तु आज सभी रोम का कैपिटोलिन पर्वत खण्डहारों का ढेर बना हुआ है, जहां सीजर राज्य करते थे वहीं आज मकड़ियां जाला बुनती हैं । इनके अतिरिक्त कई अन्य गौरवशाली जातियां आयीं और चली गयी, कुछ समय उन्होंने बड़ी चमक-दमक के साथ गर्व से छाती फुलाकर अपना प्रभुत्व फैलाया, अपने कलुषित जातीय जीवन से दूसरों को आक्रान्त किया; पर शीर्घ ही पानी के बुलबुलों के समान मिट गयीं । मानव जीवन पर ये जातियां केवल इतनी ही छाप डाल सकीं ।
किन्तु हम आज भी जीवित हैं और यदि आज भी हमारे पुराण-ऋषि-मुनि वापस लौट आये तो उन्हें आश्चर्य न होगा; उन्हें ऐसा नहीं लगेगा कि वे किसी नये देश में गए । वे देखेंगे कि सहस्रों वर्षो के अनुभव एवं चिन्तन से निष्पन्न वही प्राचीन विधान आज भी यहां विद्यवान है; अनन्त शताब्दियों के अनुभव एवं युगों की अभिज्ञता का परिपाक -वह सनातन आचार-विचार आज भी वर्तमान है, और इतना ही नहीं, जैसे-जैसे समय बीतता जाता है, एक के बाद दूसरे दुर्भाग्य के थपेड़े उन पर आघातों करते जाते हैं । पर उन सब आघातों का एक ही परिणम हुआ है कि वह आचार दृढ़तर और स्थायी होते जाते हैं। किन्तु इन सब विधानों एंव आचारों का केन्द्र कहां है । किस हृदय में रक्त संचलित होकर उन्हे पुष्ट बना रहा है । हमारे राष्ट्रीय जीवन का मूल स्रोत है । इन प्रश्नों के उत्तर में सम्पूर्ण संसार के पर्यटन एवं अनुभव के पश्चात मैं विश्वास पूर्वक कह सकता हूं कि उनका केन्द्र हमारा धर्म है । यह वह भारत वर्ष है जो अनेक शताब्दियों तक शत शत विदेशी आक्रमणों के आक्रमणों के आघातों को झेल चुका है । यह ही वह देश है जो संसार की किसी भी चट्टान से अधिक दृढ़ता से अपने अक्षय पौरुष एवं अमर जीवन शक्ति के साथ खड़ा हुआ है । इसकी जीवन शक्ति भी आत्मा के समान ही अनादि, अनन्त एवं अमर है और हमें ऐसे देश की संतान होने का गौरव प्राप्त है ।

कृष्‍ण गोपाल सिन्‍हा का व्यंग्य - रैली महात्म्य

अपने पौराणिक और पुराणपंथी मित्र वेद प्रकाश जी की संगत में जितना जान सका हूं उससे कुछ बातें समझ में आने लगी है कि बार-बार, कई बार,, हर बार जब भी इन्‍द्र देवता का सिंहासन डोलने लगता तो वे ब्रम्‍हा, विष्‍णु, महेश के यहां गुहार लगाते थे। आज समझ में यह भी आने लगा है सिंहासन या तो इन्‍द्र देवता का ही हिलने लगता था या अब किसी प्रांत के मुख्‍यमंत्री का भी हिलने लगता है। सिंहासन को लोकतंत्र में कुर्सी कहा जाता है और इन्‍द्र की तरह अपने कुर्सी की चिंता कोई भी हो उसे होता है तो यह सर्वथा उचित और स्‍वाभाविक है।
वेद प्रकाश जी ने एक बार मुझे यह भी समझाने की कोशिश की दानवगण से त्रस्‍त और भयभीत होकर देवतागण एक डेलीगेशन के रूप में विष्‍णु जी की शरण में गुहार लगाने गये थे। प्रतिनिधि मण्‍डल और मेमोरेण्‍डम (गुहार) की आज की प्रथा का देवयुग से क्‍या सम्‍बंध है, मैं फिर भी नहीं समझ पाया।
मैं आंशिक रूप से नासमझ होते हुए भी यह आसानी से समझ सका हूं कि आज के लोकतंत्र में भूख-हड़ताल, विरोध-प्रदर्शन, दशरथ के राज्‍य में कैकेयी के कोपभवन में शरण लेने का लोकतंत्रीय संस्‍करण माना जा सकता है। इन सबके अलावा बहुत प्रयास करने पर भी वेद प्रकाश जी रैली के पैाराणिक संदर्भों की व्‍याख्‍या आज तक नहीं कर सके हैं जिसका खेद वेद प्रकाश जी की तरह मुझे भी है।
भला हो जनार्दन जी का जिन्‍होंने रैली परम्‍परा और महात्‍म्‍य पर मेरा विशेष ज्ञानवर्धन करने का वीणा उठाया। जी हां, जनार्दन जी काफी दिनों से इस बात को लेकर चिंतित और उदास रहने लगे थे कि रैली की परम्‍परा में पिछले कुछ समय से ब्रेक या व्‍यवधान उत्‍पन्‍न हो गया था। उनकी उदासी और मायूसी पिछले कुछ दिनों से काफूर होने लगी है जब अब फिर गाहे-बगाहे रैलियां होने लगी है।
कल जनार्दन जी प्रसन्‍न चित्‍त लग रहे थे। मिलने पर प्रसन्‍नता व्‍यक्‍त करते हुए पिछले दिनों को याद करने लगे। कहने लगे-वो भी क्‍या दिन थे जब मूल्‍यवृद्धि को लेकर लोग रैलियां किया करते थे। कितना अच्‍छा लगता था जब गरीबी हटाओ' के मुद्‌दे पर गाहे-बगाहे रैली हुआ करती थी। क्‍या करे जब मूल्‍य वृद्धि और गरीबों जैसे मसले सनातन और टिकाऊ रहने लगे तो रैलियों ने भी इन मसलों पर से मुंह मोड़ लिया।
जनार्दन जी के चेहरे पर फिर से मायूसी टपकने लगी। रैलियों के अगले दौर की तरफ उन्‍होंने रूख किया। उन्‍होंने याद किया जब व्‍यक्‍ति हटाओ' और व्‍यक्‍ति बचाओ' जैसे मुद्‌दों को लेकर रैलियों में लोग शिरकत करते थे। रैलियों का एक दिलचस्‍प शमां भी था जब कुर्सी मिलने को हो तो रैली, हिल जाये, हाथ से निकल जाये तो रैली, हिलानी हो तो रैली, ताकत दिखानी हो तो रैली, जीतने के लिए रैली, हटाने के लिए रैली बस रैली ही रैली। जनता के सहारे, जनधन के बूते, बस अपने लिये जनता जनार्दन के लिए कुछ भी नहीं।
जनार्दन जी थोड़ा और आगे बढ़ते दिखने लगे। दरअसल उन्‍होंने कुछ को नजदीक से देखा था, कुछ में खुद भी शामिल हुए थे, कुछ को देखकर दहले भी थे, यादें उनकी जहन में आज भी हू-ब-हू अक्‍स है।
जनार्दन जी गंभीर मुद्रा में बताने लगे- देश में न मुद्‌दों की कमी है, न चीजों की कमी है, न तो सूत की जरूरत, न कपास की दरकार, जुलाहे तो मिल ही जाते है। उन्‍हें लगा कि मुद्‌दों और चीजों को लेकर मुझे कुछ उलझन सी महसूस होने लगी है। गोया उन्‍होंने बताना शुरू किया कि रैलियों के कितने नये-नये माडल और संस्‍करण आने लगे। एक से बढ़कर एक थू-थू रैली, धिक्‍कार रैली, लाठी रैली, तमाचा रैली वगैरह-वगैरह।
मुझे लगा कि एक अहम मुद्‌दे को वे या तो भूल रहे थे या बचने की कोशिश कर रहे थे। मैंने पूछा भ्रष्‍टाचार के खिलाफ भी तो रैलियां हो रही है।
जनार्दन जी तपाक से बोले-घोटाले और भ्रष्‍टाचार के विरोध की जगह समर्थन में रैली की बात हो तो शायद सभी एकजुट हो जाय। सब जानते हैं कि आज इनका विरोध करेंगे तो कल इसका सहारा लेना अशोभनीय लगेगा। आज जिन्‍हें हम दागी कहते हैं मौका मिलने पर वे ही हमें भी तो दागी कहने के अधिकार का लोकतंत्रीय दायित्व निभायेंगे।
मैने आखिर बचते-बचाते भी जनार्दन जी को टोंक कर ही दम लिया। मैने उन्‍हें याद दिलाया कि दिल दहलाने वाली रैलियां भी तो एक-आध बार आपने देखी होंगी।
जनार्दन जी गंभीर और द्रवित हो गये। बोले- बस', ट्रैक्‍टर-ट्राली और ट्रेन की मुफ्‌त यात्रा करने और राजधानी देखने का सपना पाले उन अभागों को कहां पता था कि रैली की अफरातफरी में यह राजधानी की और जीवन की अंतिम यात्रा होगी। तमाशा दिखाने वाले जब लुत्‍फअंदोज होते हैं तो तमाशे में शिरकत करने वाले तमाशबीन खुद तमाशा बन जाते हैं। यकीन मानिये, मैने तभी से ही किसी भी प्रकार की रैली में हिस्‍सेदारी लेने की इच्‍छा को सदा-सदा के लिए अलविदा कह दिया था।'
जनार्दन जी के रैली स्‍टेटमेंट से मैं भी सकते में आ गया। सकते से उबरने की कोशिश की और कामयाब भी रहा। संदर्भ और माहौल बदलने की गरज से मैंने पूछ ही लिया कि क्‍या हमारे देश को अब रैलियों की जरूरत नहीं रही।
लम्‍बी सांस लेते हुए जनार्दन जी कहने लगे- अब तक की रैलियों से तो कुछ भी नहीं हुआ, हुआ भी तो किसी खास तबके के लिए किसी खास मकसद के लिए। पर आज जरूरत है कुछ ऐसी रैलियों की जो आम तबके और आम मकसद के लिये हो।'
जनार्दन जी का यह दार्शनिक बयान मेरे सिर के ऊपर से निकल रहा था और जनार्दन जी को मेरी इस काबिलियत पर पूरा भरोसा था। इसीलिए वे फरमाने लगे- रैली हो तो झूठ और फरेब के खिलाफ, दो-मुंहे और दोगले बयानों और चेहरों के खिलाफ, व्‍यभिचार और भ्रष्‍टाचार के खिलाफ, हैवानियत और बदनीयती के खिलाफ। इन विरोध जताने वाली रैलियों के अलावा यदि समर्थन जताने वाली रैलियां करनी हो तो वे हों सच और ईमानदारी के समर्थन में, सच्‍चाई और इंसाफ के समर्थन में, इंसानियत और नेकनीयती के समर्थन में, जो कुछ भी अच्‍छा है उसके समर्थन में।'
मैंने उनकी बातों से साहस और गर्व का अनुभव किया। सीना फूलने लगा, आँखों में चमक लौटने लगी। शिराओं में, धमनियों में नया जोश भरने लगा तभी उन्‍होंने एक शर्त रख दी।
भैया इन रैलियों के लिए शर्त बस एक होनी चाहिए कि रैली विरोध में हो या समर्थन में सभी को सभी में शिरकत करनी होगी। बिना किसी भेदभाव के चाहे वह जात का हो, समुदाय का हो, संप्रदाय का हो, क्षेत्र का हो, प्रांत का हो, अमीर का हो, गरीब का हो, भ्रष्‍टाचार का हो, बेईमानी का हो। इस शर्त को आप मान ले, देश मान ले तो हम आप चले इनमे से कुछ रैलियां तो कर ही ली जाय, बाकी, बाकी लोगों पर छोड़ दिया जाये।
मैं हतप्रभ था, आत्‍ममुग्‍ध था, सपने देखने लगा, नये समाज का, नये भारत का।
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Thursday 7 July 2011

अक्खङ,फक्कङ,घुमक्कङ जनकवि

यह वर्ष हिन्दी के 'नागार्जुन' और मैथिली के 'यात्री', मूल नाम वैद्यनाथ मिश्र का जन्म शताब्दी वर्ष है। ज्येष्ठ पूर्णिमा 1911 को बिहार के दरभंगा जिलांतर्गत तरौनी गाँव मेँ जन्मे नागार्जुन बहुभाषाविद्‌ थे-हिन्दी,मैथिली के अलावा उन्होँने संस्कृत और बांग्ला मेँ भी मौलिक लेखन किया। एक साधारण परंपरावादी ब्राह्मण परिवार मेँ जन्मे नागार्जुन की प्रारंभिक पढ़ाई गांव के संस्कृत पाठशाला मेँ हुई। संस्कृत की 'मध्यमा' परीक्षा पास कर वे काशी चले गये। जीवन यापन और अध्ययन के लिए की गयी यात्राओँ के कारण उन्होँने 'यात्री' उपनाम धरा। काशी मेँ 'शास्त्री' करने के बाद कलकत्ता गये और तब वहाँ से लंका। वहाँ बौद्ध धर्म मेँ दीक्षित हो 'नागार्जुन' नाम ग्रहण किया(1937)। फिर महापंडित राहुल सांकृत्यायन संग तिब्बत यात्रा पर निकले पर स्वास्थ्य की वजह से लौट आए और सोनपुर (बिहार) मेँ किसान नेता स्वामी सहजानंद के सान्निध्य मेँ आए। अमबारी सत्याग्रह ने उन्हेँ जेल पहुँचाया दूसरी जेल यात्रा दो वर्ष बाद 1941 मेँ। पर राजनीति रास नहीँ आई ,सो साहित्य की ओर मुड़े। फिर तो पीछे मुड़कर नहीँ देखा। घर-बार कभी भी उनके     लिए बाधा नहीँ बना और घुमक्कड़ी संग लेखन चलता रहा। कविता और उपन्यास लेखन की मुख्य विधा रही पर कहानी,कथेतर गद्य,यात्रा वृत्तांत और समय-समाज तथा समकालीनोँ पर भी लिखा। बलचनमा, रतिनाथ की चाची(उपन्यास), हजार- हजार बाहोँ वाली, खिचड़ी विप्लव देखा हमने(कविता-संग्रह)आदि उनकी मुख्य रचनाएं हैँ। अपने आदर्श निराला को केन्द्र मेँ रखकर एक व्यक्ति:एक युग लिखा। सभी विधाओँ मेँ कुल मिलाकर 45 पुस्तकोँ का प्रणयन किया। हिन्दी का जनकवि और मैथिली का महाकवि यह नागार्जुन उर्फ यात्री जीवन भर घुमक्कड़ बना रहा और फक्कड़ बना रहा, लेकिन जिसका मन फकीरी मेँ रम गया हो उसे भला सुख और आराम से लेना-देना क्या! अनेक प्रतिष्ठित पुरस्कारोँ-सम्मानोँ से सम्मानित इस रचनाकार का 5 नवंबर, 1998 को देहान्त हो गया।

गाँधी होने का अर्थ

गांधी जयंती पर विशेष आज जब सांप्रदायिकता अनेक रूपों में अपना वीभत्स प्रदर्शन कर रही है , आतंकवाद पूरी दुनिया में निरर्थक हत्याएं कर रहा है...