Tuesday 7 February 2017

नागार्जुन : एक लम्बी जिरह


नागार्जुन उर्फ़ ‘बाबा’ मैथिली और हिंदी के विकट रचनाकार हैं । उन पर जिरह करने का साहस विष्णुचंद्र शर्मा जैसा विमर्शकार ही कर सकता है जो उनके लेखन और जीवन दोनों का 1957 से परस्पर गवाह रहे हैं ।
विष्णुचंद्र शर्मा की पुस्तक ‘नागार्जुन: एक लम्बी जिरह’ दो खण्डों में विभाजित हैं । पहले खण्ड में संस्मरण और पत्र हैं जो ठेठ देसी ज़मीन की सोंधी महक तथा जीवन की जीवन्तता को बड़े इत्मिनान से सहेज-बटोरकर हमारे सामने लाते हैं । इसमें बाबा की लेखक से निकटता महसूस की जा सकती है, जहाँ एक ख़त के माध्यम से लेखक नागार्जुन को याद करते हैं और कहते हैं- “बाबा को श्री श्री का हाथ थामे, स्पर्श ज्ञान करते कवि केदारनाथ सिंह ने भी देखा था ।”[i]
लेखक नागार्जुन के काफी निकट हैं और जब वे उनकी कोठरी जाते हैं तब बाबा उनसे सारे देश-जहान की बातें करते हैं और उनका यह मानना है कि वे बाबा के घर के सामान की तरह हैं ।
लेखक ने बाबा की हर हरकतों को देखा-परखा था । बाबा लेखक के घर आए थे और जब लेखक ने बाबा से यह प्रश्न पूछा कि- “बाबा यह मंडल क्या है ?” तब बाबा ने बड़ी धीमी-मंद हाँसी, उनके चेहरे पर खिल उठी थी, कहा- “यह मंडल और आत्मदाह तो एक लड़ाई का हिस्सा है । यह दलित और औरत की लड़ाई एक दिन में नहीं लड़ी जाएगी । तुम जैसे गैस धीमी और तेज करते हो, ठीक ऐसे ही मंडल की लड़ाई, उनके हक की सामाजिक न्याय की लड़ाई है । वह कहीं धीमी होगी, कहीं तेज ।”[ii]
इस बात से यह स्पष्ट होता हो जाता है कि उस समय दलित और स्त्रियों की हालात एक जैसी ही थी और वे अपने हक के लिए लड़ाई लड़ रहे थे । बाबा की वाणी मैथिल समाज में भी गूंजती है और इंदिरा गाँधी में देश की धुरी देखने वाले हजारीप्रसाद द्विवेदी के मन में भी । नागार्जुन ने कबीर के बाद आजाद भारतवर्ष के फटेहाल इंसानों को भीतर तक झकझोर दिया था । लेखक ने नागार्जुन द्वारा लिखित उपन्यास ‘रतिनाथ की चाची’ और ‘बलचनमा’ का जिक्र भी किया है ।
लेखक ने केवल नागार्जुन के निकट थे बल्कि शमशेर बहादुर सिंह और निराला के भी अच्छे अनुयायी थे । कवि (1957-58) से बाबा का लगाव था
नागार्जुन का ‘मनाधार’ 57 में गाँव और भारतीय कविता’ पर टिका था । लेखक 9/8 के पत्र में याद करते हैं – “‘कवि’ भी दो महीने से नहीं देखा । देहात रहना पड़ा डेढ़ महीने । लिखना-पढ़ना छूट गया था अब भी झंझटों को ठेल रहा हूँ....”[iii] 1957-58 ई. में नागार्जुन ‘अपमान’ और ‘बुद्धू’ के प्रतीक थे । यह बिडंबना-भरा था उनका जीवन । बाद में वह अपना मजाक उड़ाते समय ‘बुद्धूपन’ पर जो कार्टून बनाते थे, वह उनकी कविता का एक विशेष पक्ष है : पक्षधर और आबद्ध पक्ष ।
हिंदी में अभी तक यानी कवि-काल 1957-58 तक सुमित्रानंदन पन्त, महादेवी, अज्ञेय, बालकृष्ण राव, श्रीपत, राय, प्रभाकर माचवे, नेमीचंद जैन, रामविलास शर्मा सभ्य और शिष्ट थे । निराला, उग्र, नागार्जुन, शमशेर, त्रिलोचन हिंदी के ‘जाहिल, जपाट और उजड्ड’ कवि और कथाकार माने जाते थे । यही अपमान और बुद्धू का प्रतीक बनने पर उग्र और निराला विद्रोह करते रहे जीवन-भर इस उच्च और सभ्य वर्ग के प्रति । नागार्जुन लगातार तिलमिला उठते थे, प्रकाशकों, राजनेताओं से मिले अपमान पर ।
लेखक ने नागार्जुन के 1957 में 6 पत्रों की स्मृति कथा कही है । यह स्मृति नागार्जुन के बदलाव की भी कथा है । सामूहिक खेती और सामूहिक चेतना का वह दौर था जिसमें नागार्जुन ने अपनी रचनाकार की भूमिका तैयार की थी । पत्र लिखते समय जीवन के दूसरे पहलू से नागार्जुन खुला और अन्तरंग संवाद भी करते रहे हैं । इस दौर की विडंबना भी नागार्जुन की आँख से छिपती नहीं है ।
नागार्जुन की यात्रा एक नितांत परिचित वातावरण से अचानक हमें हमारे जैसे देश के दूसरे वातावरण से जोड़ देती है ।
नागार्जुन का यह परंपरा से संवाद भी है और उनका मनाधार भी । यहीं कालिदास, विद्यापति, रविन्द्रनाथ, केदारनाथ अग्रवाल यानी अपने लेखन के दौर से अलग-अलग ढंग से उनकी विडंबनाओं पर अंतर्मन की कहानी कहते हैं । हजारी प्रसाद द्विवेदी ने ‘बाणभट्ट’ से और ‘कालिदास’ से ‘बाणभट्ट की आत्मकथा’ और ‘मेघदूत : एक कहानी’ में इसी ज़मीन पर अंतर्मन की कहानी लिखी थी । नागार्जुन के अंतर्मन में सिर्फ निजी ऊहा-पोह का व्यक्तिवादी कथानक- अज्ञेय, जैनेन्द्र, मोहन राकेश जैसा बहुत कम मिलेगा । लेखक को बाबा पत्र लिखते हैं जिनमें वे लेखक के बारे में कहते हैं कि लेखक के जीवन में नाटकीय परिवर्तन आनेवाला है । और दूसरी यह है कि यह समानधर्मा मित्र की-भवभूति की तरह-तलाश करते हैं और चारों ओर की गिरावट, समझौता, ललित लोकायतन का नज़ारा देखकर स्वीकार भी करते हैं ‘बाहर कोई नहीं नज़र आता जिसका अनुशासन मैं मान सकूँ ।’[iv]
नागार्जुन के जीवन में निर्वासन का लम्बा सिलसिला श्रीलंका से शुरू होता है । 1943 में लिखी थी कविता निर्वासन काल में नागार्जुन ने : घोर निर्जन में परिस्थिति ने दिया है डाल, याद आता तुम्हारा सिंदूर तिलकित भाल ।”[v]
नागार्जुन सचेतन कवि हैं । “सामाजिक और राजनीतिक चेतना को लेखक की पहली शर्त मानते हुए ब्रेख्त ने मार्क्सवाद के द्वंदात्मक सिद्धांत को कविता में कायम रखा । व्यक्ति और समूह के बीच के वास्तविक तनावों को मजबूती से पकड़ते हुए उन्होंने खासकर छोटी कविताएँ ज्यादा लिखी । शब्दों की भरमार से कविता को बनाया और भाषा के सजीले कपड़ों को उतारते हुए नंगी और ठिठुरती हुई भाषा को समाज के निचले वर्गों तक पहुँचाया जहाँ यह म्यान रहित भाषा कविता को हथियार की शक्ल दे सकी ।”[vi]
इतिहास की ओर जाते हुए लेखक ने यात्री और नागार्जुन और वैद्यनाथ मिश्र, यानी एक आदमी के तीन अलग-अलग कद और रूप एक-दूसरे की जैसे तलाशी ले रहे थे । वैद्यनाथ मिश्र के मन में मैथिल-संस्कार थे जो तरौनी गाँव के मैथिल समाज का संस्कार था जो उनके स्वभाव में अन्तर्निहित था । जिस प्रकार वैद्यनाथ मिश्र के संस्कार उनके मैथिल समाज में थे वहीं दूसरी तरफ यात्री राहुल सांकृत्यायन के साथ तिब्बत की यात्रा में रहे हैं और पालि भाषा के जानकार की हैसियत से श्रीलंका में भी बौद्ध विहारों में और विद्यालयों में घूमे हैं ।
नागार्जुन समाजवादी आंदोलन में जेल काट चुके हैं । नागार्जुन गाँव के किसानों की आगुवाई कर चुके हैं । खद्दर की मोटी पोशाक, मोटा दाना-पानी और न टूटने वाला सजीव संघर्ष । यह समय राष्ट्रीय आंदोलन का था । नागार्जुन कम्युनिस्ट हो चुके थे और उनकी कविताओं में व्यंग्य तीखा हो रहा था । और फिर देश की स्वाधीनता के बाद के पचास वर्षों में नागार्जुन एक ऐसे लेखक रहे हैं जिनसे मिलने से मंत्री, नेता तथा बुद्धिजीवी  डरते थे । नागार्जुन व्यंग्य विनोद के बावजूद अपने भीतर एक करुण, मर्माहत आदमी है, जो ‘जन-जन के जीवन में साहस’ पैदा करना चाहता है ।
कला और जीवन को अलग-अलग खातों में बाँटकर जो आलोचक बंदरबाँट की सीख देते हैं, वह अक्सर रतिनाथ की चाची का लांछित जीवन, उनके प्रति घृणित कुचेष्टाएँ और उसकी अदम्य साहसिक आत्मीयता के सन्दर्भ में इस पूरे मैथिल प्रदेश की संस्कृति को पहचान नहीं पाए हैं । नागार्जुन के उपन्यास अतीव रोचक होते हैं । उनमें सांस्कृतिक तनाव का अहसास पाठक के मन में बना रहता है । उनके प्रतीक आँचलिक संस्कृति से भरे पूरे होते हैं ।
लेखक ने नागार्जुन की भाषा को भी स्पष्ट किया है । वे मानते हैं कि उनके व्यक्तित्व की तरह सीधी, चुटीली और बेलाग है उनकी भाषा । उनकी भाषा के संस्कार मैथिल समाज की किसी आतंरिक संगती की याद दिला देते हैं ।
पुस्तक के दूसरे खण्ड में बाबा की पक्षधर कविताओं को केंद्र में रखा गया हैं । वह कई अंतर्धाराओं के परस्पर घात-प्रतिघातों को झेलती हुई कभी तेजी से तो कभी मंद गति से संवेदनाओं और संस्कारों को अर्थ देती हैं । विष्णु जी ने उनके काव्य-संसार पर वैज्ञानिक सोच, इतिहास और काल-बोध तथा संरचना की दृष्टि से मौलिक चिंतन किया है । बाबा के बहाने यह जिरह ब्रेख्त, मुक्तिबोध और समकालीन कविता परिदृश्य को भी साफ करने का कार्य करती हैं ।
नागार्जुन उपन्यास और कविता में एक ही जमीन पर खड़े नज़र आते हैं । वह ज़मीन है “अपने समय के यथार्थ से साक्षात्कार की ज़मीन ।”[vii] यथार्थ से साक्षात्कार करने की नागार्जुन की कसौटी के दो आधार रहे हैं : एक वाम दलों का विभाजन और मार्क्सवाद का जनाधार । दूसरा : किसान कवि कुटुंब का कवि होता है ।
‘रेणु’ के बाद ‘महाजनी सभ्यता’ के व्यामोह से लगातार संघर्ष करते रहे श्रीलाल शुक्ल । ‘रागदरबारी’ से ‘विश्रामपुर का संत’ तक वह अपने उपन्यासों में सामंती मानसिकता से ही लड़ते रहे । नागार्जुन ने बार-बार वाम दलों के भटकाव के बीच अपनी पक्षधर भूमिका तैयार की थी । नागार्जुन ‘क्षुब्ध-मथित’ कवि और कथाकार हैं । उन्हें कोसने वाले डॉ. बच्चन सिंह (आलोचना), डॉ. विजयमोहन सिंह (हंस) जैसे आलोचक भी समझ नहीं सके ।
नागार्जुन ठेठ किसान हैं । किसान-पुत्र नागार्जुन में जितना साम्यवाद का सारतत्व है उतना ही वहाँ किसान का ‘पैथास’ भी मिलता हैं । यह पीड़ा-दर्दी-किसान ‘रेणु’ में भी लयबद्ध हैं । प्रेमचंद में वहीं किसान बेचैन दार्शनिक है । नागार्जुन अपने भीतर झाँककर जब हँसते हैं तो वहाँ जनवादी किसान के ‘लोअर डेप्थ’ का गहरा अनुभव नज़र आता है । अपने किसान-पत्र के अनुभव पर जब नागार्जुन सोचते हैं तो वह कहीं दार्शनिक लगते हैं और वहीं बेचैन क्रांतिकारी ।
नागार्जुन और मुक्तिबोध का अंतर्मन, आलोचकों की सीमा की गहराई से जाना जा सकता है । नागार्जुन अपने स्वभाव-सी खरी जनवादी कविता लिखकर वही यांत्रिक आलोचकों को रोकते हैं । “कविता की ऐसी व्याख्या करोगे तो कवि और जनवादी कविता का दम ही घुट जाएगा ।”[viii]
       विष्णुचंद्र शर्मा ने नागार्जुन की भाषा की टिप्पणी दी है । उन्होंने जब नागार्जुन से पूछा : “‘बाबा कविता की भाषा क्या होती है ?’ वे हँसे । कहा- ‘वाक्यों या शब्दों का समूह नहीं होती भाषा । जीवन का समूह ज़रूर भाषा को कह सकते हैं ।”[ix]
आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने कबीर की भाषा को ‘सधुक्कड़ी’ भाषा कहा है । डॉ. रामविलास शर्मा, कबीर की भाषा को दस्तकारों की भाषा मानते हैं । वैसे हिंदी के कम कवि है, जो कबीर की भाषा में गलती पकड़ सकते हैं । कविता की भाषा में सादगी होती है । ‘राम की शक्तिपूजा’ के निराला, ‘नए पत्ते’ में भाषा के विकास के माध्यम से जीवन के विकास के लिए ही लड़ते रहे । कवि की लड़ाई उसे अनवरत एक साँचा बनाना और उसे तोड़ना सिखाती है । दूसरी तरफ मुक्तिबोध की भाषा हिंदी को बड़ा फलक देती है । वह एक ही कविता में, पिकासो की बड़ी पेंटिंग और ब्रेख्त के नाटक पर एक साथ काम करते हैं । एक ही कविता में वह पत्रकार, कलाकार, कवि, क्रांतिकारी, दार्शनिक, वैज्ञानिक का विशाल फलक रचते हैं । कविता की एक नई भाषा फंतासी में वह आजन्म विचरण करते हुए, यथार्थ को ‘पुनर्नवा’ करते हैं । यह हिंदी को दुनिया की भाषा मुक्तिबोध ने दी ।
अज्ञेय संपन्न घुमक्कड़ थे और राहुलजी भी घूमना पसंद करते थे । अज्ञेय की कविता में, जनता के अनुभव के शब्द नहीं आते, जबकि जन आन्दोलनों में हिस्सा लेकर नागार्जुन कविता की भाषा को आंदोलन का हिस्सा बनाते हैं ।
नागार्जुन एक मार्क्सवादी लेखक हैं, वे पहले अपनी खरी समीक्षा करते हैं, फिर समाज की बाहरी भूल, गलती का कच्चा चिट्ठा खोलते हैं । नागार्जुन के कई रूप हैं । ‘राजनीतिक पत्रकारिता के स्तर पर क्रांतिकारी जोश उभारनेवाले ओजस्वी वक्ता नागार्जुन ! जातीय हिंदी कविता का नया यथार्थवादी नागार्जुन ! सर्वहारा वर्ग के अद्भुत आत्मीयता-भरे अभिभावक नागार्जुन ।
इस पुस्तक में लेखक ने नागार्जुन, मुक्तिबोध, रामविलास शर्मा जैसे लेखकों की तुलना उनके लेख द्वारा की है । नागार्जुन और मुक्तिबोध पुरानी पद्धतियों को छोड़कर और इतिहास दृष्टि में मुक्ति पाकर भिन्न तरीका अपनाते हैं । लेखक ने समसामयिक कविता का वर्ग-आधार में कई लेखकों को अपने विषय का आधार माना । ब्रिटिश दरबार के बाहर थे प्रेमचंद । प्रेमचंद के वर्ग-संघर्ष की कसौटी थी घृणा । यह सामंत वर्ग और साम्राज्यवाद से घृणा की कसौटी, हमारी आजादी की कसौटी रही थी । यानी जनता के अपने वर्ग-संघर्ष से प्रेमचंद ने जनवादी मिज़ाज का लेखन रचा था । प्रेमचंद और निराला ने हिंदी की प्रगतिशील चेतना को दरबार से बाहर निकाला था । निराला के बाद की प्रगतिशील कविता की विधा आज भी है । शमशेर में लोक-चेतना की इच्छा, मुक्तिबोध में इतिहास दर्शन का ज्ञान और नागार्जुन में क्रांतिकारी भारत की कर्मशीलता हैं ।
       आखिरी पाठ में विष्णुचंद्र ने नागार्जुन के सौन्दर्य बोध को उल्लेखित किया है । वे कहते हैं कि नागार्जुन का मन ऐसे चालू साहित्यकारों के साथ नहीं मिलता था । वह प्रकाशकों, सरकारों और सेठों के दलाल गोत्र के साहित्यकारों से बराबर दूर रहते थे । वह पटना, दिल्ली, भोपाल और लखनऊ में चौकन्नी आँखों से उच्चपदस्थ ऑफिसरों की हरकते देखते थे, और दलाल गोत्र के साहित्यकारों से उनका फर्क भी बताते चलते थे । नागार्जुन की स्मृति और सौंदर्य बोध में उनका विवेक दिखाई देता है ।
“‘टुकड़े-टुकड़े दास्तान’ सुनाती हुई नागार्जुन की कविता ही है उनकी आत्मकथा ।”[x]
नागार्जुन का कवि कर्म स्वाभिमानी कवि का कवि-कर्म है । नागार्जुन, भारतेंदु मंडल के पत्रकार कवि थे इसलिए जब सोवियत संघ, उनके जीवन काल में ही बिखर गया । नागार्जुन की निगाह मिथला, अवधी, भोजपुरी जनता पर दृढ़ता से टिकी रही । उनके सपने में सोवियत संघ का जनपक्ष का सौंदर्य था, जीवन में वह अपनी जनता के प्रति पक्षधरता के प्रतिबद्ध कवि थे । वे हजारीप्रसाद द्विवेदी के पड़ोसी कवि माने जाते हैं । दोनों ‘संस्कृति की पावनता’ के हिमायती रहे । यह तर्क पद्धति नागार्जुन ने अपने सौंदर्य बोध को समझाने में बार-बार इस्तेमाल की है । यह सौंदर्य उनके ही मूल्यों और प्रेम का अर्थ खोलते हुए सर्वहारा संस्कृति के लोक दृश्य में परिभाषित होता है । ‘संस्कृति के पावनतम’ मूल्यों को वे परंपरा में खोजते हैं और वर्तमान की विडंबना में उसे बचाते चलते हैं ।
विशेषताएँ : इस पुस्तक में विष्णुचंद्र ने नागार्जुन से अपनी निकटता उनके द्वारा लिखे पत्र का विस्तृत विवेचन करते हैं । पुस्तक के दो खण्ड हैं जिसमें पहले खण्ड में पत्र और संस्मरण हैं और दूसरे खण्ड में नागार्जुन के काव्य संसार और वैज्ञानिक दृष्टि से चिंतन किया है । इसी बहाने यह जिरह ब्रेख्त, मुक्तिबोध और समकालीन कविता परिदृश्य को भी साफ करने का कार्य करती है । बाबा नागार्जुन के काव्य के विमर्शों पर अब तक की यह पुस्तक भिन्न और मुख्य है ।                           


[i] नागार्जुन : एक लम्बी जिरह, ले. विष्णुचंद्र शर्मा, पृ. सं. 27
[ii] नागार्जुन : एक लम्बी जिरह, ले. विष्णुचंद्र शर्मा, पृ. सं. 27
[iii] नागार्जुन : एक लम्बी जिरह, ले. विष्णुचंद्र शर्मा, पृ. सं. 41
[iv] नागार्जुन : एक लम्बी जिरह, ले. विष्णुचंद्र शर्मा, पृ. सं. 51
[v] नागार्जुन : एक लम्बी जिरह, ले. विष्णुचंद्र शर्मा, पृ. सं. 61
[vi] नागार्जुन : एक लम्बी जिरह, ले. विष्णुचंद्र शर्मा, पृ. सं. 24
[vii] नागार्जुन : एक लम्बी जिरह, ले. विष्णुचंद्र शर्मा, पृ. सं. 80
[viii] नागार्जुन : एक लम्बी जिरह, ले. विष्णुचंद्र शर्मा, पृ. सं. 91
[ix] नागार्जुन : एक लम्बी जिरह, ले. विष्णुचंद्र शर्मा, पृ. सं. 102
[x] नागार्जुन : एक लम्बी जिरह, ले. विष्णुचंद्र शर्मा, पृ. सं. 178
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 राज्य लक्ष्मी -  शोधार्थी ph.d hindi
 central university of Hyderabad
q no D 32 non teaching staff quarters,HCU-500046

Saturday 4 February 2017

आधुनिक हिंदी कविता को समृद्ध करती कविताएँ

           
           इक्कीसवीं सदी के बीते डेढ़ दशक में अपनी अलग पहचान बनाने वाले युवा कवियों में सुशांत सुप्रिय का नाम प्रमुख है । इस डेढ़ दशक में आए सामाजिक बदलाव की बानगी इनकी कविताओं मे स्पष्ट दिखाई देती है । समाज के हाशिए पर खड़े आम आदमी के जीवन-संघर्षों एवं लगातार समाप्त होते जा रहे विकल्पों का जीवंत दस्तावेज़ हैं इनकी कविताएँ । सुशांत मज़दूरों, दलितों, स्त्रियों, शोषितों, वंचितों एवं आम जन की पीड़ा के पक्ष में मज़बूती से खड़े हैं । इनकी कविताएँ इंसानियत की बेहतरी के लिए संघर्ष करते रहने की ज़िद लिए हैं । समकालीन ज्वलंत प्रश्नों से सीधे संवाद करती इनकी कविताएँ सच बोलने का साहस रखती हैं । सुशांत के काव्य-संग्रह " इस रूट की सभी लाइनें व्यस्त हैं " में कुल सौ कविताएँ संकलित हैं । इन कविताओं से गुज़रते हुए यह सुखद अहसास होता है कि समझ और संवेदना की गहराई लिए इस कवि की कविताएँ न सिर्फ़ मनुष्य होने का अहसास दिलाती हैं बल्कि मनुष्यता को बचाने के लिए प्रतिबद्ध भी हैं ।
            संग्रह की दूसरी कविता "जो नहीं दिखता दिल्ली से" आज के राजनीतिक परिदृश्य को बहुत बेबाक़ी से व्यक्त करती है । लुटियन की दिल्ली में बैठे हुए जनता के रहनुमाओं को आम जन की पीड़ा नहीं दिखती । सुशांत का कवि किसानों और मज़दूरों की पीड़ा को देखकर उनके दर्द को समझता है । ग़रीबी और भूख से जूझ रहे आम जन की कराह दिल्ली तक नहीं पहुँचती । वह तो इनके अंदर ही तिल-तिल कर बुझ जाती है -- " मज़दूरों-किसानों के / भीतर भरा कोयला और / माचिस की तीली से / जीवन बुझाते उनके हाथ / नहीं दिखते हैं दिल्ली से ... / दिल्ली से दिखने के
लिए / या तो मुँह में जयजयकार होनी चाहिए / या फिर आत्मा में धार होनी
चाहिए " ।
              नयी सदी की मशीनी सभ्यता के विषैले डंक ने आम आदमी को भी नहीं बख़्शा है । जीवन के तमाम आत्मीय संबंध तार-तार हो गए हैं । रोज़ी-रोटी के जुगाड़ में दूरियाँ बढ़ती जा रही हैं । गाँवों से शहरों की तरफ़ तेज़ी से पलायन हो रहा है । इस आपा-धापी में किसी के पास इतनी फ़ुर्सत नहीं है कि अपनों को समय दे सके , उनका दुख-दर्द बाँट सके । तेज़ी से बदलते समय में बिखरते संबंधों को बयाँ करती सुशांत की बहुत सुंदर कविता है ' दिल्ली में पिता ' -- " किंतु यहाँ आकर / ऐसे मुरझाने लगे पिता / जैसे कोई बड़ा सूरजमुखी धीरे-धीरे / खोने लगता है अपनी
आभा " ।
               महानगरों की ओर तेज़ी से होते पलायन ने सामाजिक संबंधों की डोर को कमज़ोर कर दिया है । संबंधों की दीवार दरकने लगी है । रिश्तों की चारदीवारी छोटी होने लगी है , जिसका असर सामाजिक ढाँचे पर पड़ रहा है । सुशांत का कवि महानगरों की दूषित हवा में मौजूद सामाजिक बिखराव का द्रष्टा ही नहीं , भोक्ता भी है -- " कुछ दिनों बाद / जब ठीक हो गए पिता / तो पूछा उन्होंने -- / ' बेटा , पड़ोसियों से / बोलचाल नहीं है क्या तुम्हारी ? ' / मैंने उन्हें बताया कि बाबूजी / यह अपना गाँव नहीं है / महानगर है , महानगर / यहाँ सब लोग / अपने काम से काम रखते हैं , बस ! / यह सुनकर उनकी आँखें / पूरी तरह बुझ गईं " ।
                बदलते परिवेश में आज सबसे बड़ा संकट पठनीयता पर है । टेलीविज़न के रंग-बिरंगे कार्यक्रमों , रियलिटी शो और सीरियल देखने के आगे साहित्य पढ़ने की फ़ुर्सत किसको है । सुशांत सुप्रिय की चिंता हिंदी कविता की पठनीयता को ले कर
है । कविताएँ लिखी तो बहुत जा रही हैं किंतु उनके पाठक नहीं हैं । नयी सदी के हिंदी कवियों की पीड़ा को सुशांत ' इक्कीसवीं सदी में हिंदी कवि ' कविता में व्यक्त करते हैं -- " जैसे अपना सबसे प्यारा / खिलौना टूटने पर / बच्चा रोता है / ठीक वैसे ही रोते हैं / हिंदी-कवि के शब्द / अपने समय को देखकर ... /  इस रुलाई का / क्या मतलब है -- / लोग पूछते हैं / एक-दूसरे से / और बिना उत्तर की / प्रतीक्षा किए / टी.वी. पर / रियलिटी-शो / और सीरियल देखने में / व्यस्त हो जाते हैं ... / किसी को क्या पड़ी है आज / कि वह पढ़े हिंदी के कवि को ऐसे / जैसे पढ़ा जाना चाहिए / किसी भी कवि को " ।
                सुशांत की कविता ' कामगार औरतें ' महाकवि निराला की ' वह तोड़ती पत्थर ' की याद दिलाती है । क्या सुंदर बनावट है कविता की । शब्द-विधान इतना सुंदर कि पूछिए मत । ऐसा लगता है जैसे एक-एक शब्द भावों से सना हुआ है । कामगार औरतों की थकी चाल की विश्व-सुंदरियों की कैट-वाक् से तुलना करके सुशांत ने जो यथार्थ का जीवंत चित्र खींचा है वह अद्भुत है -- " कामगार औरतों के / स्तनों में / पर्याप्त दूध नहीं उतरता / मुरझाए फूल-से / मिट्टी में लोटते रहते हैं / उनके नंगे बच्चे / उनके पूनम का चाँद / झुलसी रोटी-सा होता है ... / हालाँकि टी. वी. चैनलों पर / सीधा प्रसारण होता है / केवल विश्व-सुंदरियों की / कैट-वाक् का / पर उससे भी / कहीं ज़्यादा सुंदर होती है / कामगार औरतों की थकी चाल " ।
                तेज़ी से सांप्रदायिक होती जा रही राजनीति को ' पागल ' कविता बयाँ करती है । चाहे सन् 1992 का बाबरी मस्जिद विध्वंस हो या 2002 के गुजरात दंगों का ज़ख़्म , यह सब सुशांत के कवि को गहरे स्तर तक प्रभावित करता है । इन दंगों को मानवता के नाम पर कलंक बताते हुए ' पागल ' पूछता है -- " बताओ तुम कौन हो / हिंदू हो या मुसलमान हो -- / वह सबसे पूछता है / उसका बाप / बाबरी मस्जिद के / विध्वंस के बाद / दिसम्बर , 1992 में हुए / दंगों में / मारा गया था ... / उसका बेटा / 2002 में गुजरात में हुए / दंगों में / मारा गया था ... / जिन्होंने उसके / बाप को मारा / वे हँसते हुए / उसे पागल कहते हैं / जिन्होंने उसके बेटे को / दंगाइयों से नहीं बचाया / वे हँसते हुए उसे / पागल कहते हैं " । ' कैसा समय है यह ' कविता में कवि क्षुब्ध है क्योंकि " अयोध्या से बामियान तक / ईराक़ से अफ़ग़ानिस्तान तक / बौने लोग डाल रहे हैं / लम्बी परछाइयाँ " ।
                सुशांत जनतंत्र में वी. आइ. पी. संस्कृति के खिलाफ हैं । किसी व्यक्ति के आम से ख़ास हो जाने पर सुरक्षा के नाम पर आम आदमी को जो कठिनाई उठानी पड़ती है , उस पर सवालिया निशान लगाती है ' वी. आइ. पी. मूवमेंट ' कविता -- " मुस्तैद खड़ा है / ट्रैफ़िक पुलिस विभाग / चौकस खड़े हैं / हथियारबंद सुरक्षाकर्मी / अदब से खड़ा है / समूचा तंत्र / सहमा और ठिठका हुआ है / केवल आम आदमी का जनतंत्र / यह कैसा षड्यंत्र ? " संविधान में गणतंत्र की जो परिभाषा दी गई है , उससे उलट आज समाज में कुछ ख़ास लोगों की सुरक्षा के नाम पर आम आदमी को परेशान किया जाता है । एक वी. आइ. पी. मूवमेंट के लिए घंटों सड़क बंद कर दी जाती है , आम आदमी को रोक दिया जाता है । गणतंत्र के इस स्वरूप पर सुशांत कहते हैं -- " मित्रो / आम आदमी की असुविधा के यज्ञ में / जहाँ मुट्ठी भर लोगों की सुविधा का / पढ़ा जाए मंत्र / वह कैसा गणतंत्र ? "
                संग्रह को पढ़ते हुए एक साधारण-सी कविता भी अपनी ओर ध्यान खींचती है । इक्कीसवीं सदी में एक कवि की पीड़ा बिल्कुल जायज़ लगती है जब वह एक बेटी के पिता की पीड़ा और चिंता को बयाँ करता है । घर से बाहर निकली बेटी जब तक घर वापस नहीं आ जाती , तब तक एक पिता की बेचैनी को व्यक्त करती है ' लड़की का पिता ' कविता -- " लेकिन / डर भी लगता है क्योंकि / बाथरूम के नल में से / झाँक रहा है / इलाक़े का गुंडा / बिल्डिंग की लिफ़्ट में / घात लगाए बैठा है / कोई रईसज़ादा / सामने से बाइक पर / चला आ रहा है / एसिड की बोतल लिए / कोई लफ़ंगा । "
                सुशांत सुप्रिय के प्रस्तुत कविता-संग्रह की कविताएँ भाव और भाषा की ताज़गी से युक्त हैं । अपने आस-पास के जीवन और परिवेश को नई दृष्टि से देखना तथा जीवन और जीवनेतर चीज़ों पर विचार-मंथन करके उन्हें नए रूप में प्रस्तुत करना इनकी विशेषता है । शिल्प और संवेदना -- दोनों के धरातल पर ये कविताएँ खरी उतरती हैं । संग्रह की सभी कविताएँ एक से बढ़कर एक हैं । राजनीति से लेकर धर्म तक , समाज से लेकर प्रकृति और पर्यावरण तक , प्रेम से लेकर देश-प्रेम तक ,
सभी भावभूमियों की कविताएँ इस संग्रह में हैं । पारदर्शी भाषा से युक्त ये कविताएँ आधुनिक हिंदी कविता को समृद्ध करती हैं ।

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समीक्ष्य कृति : इस रूट की सभी लाइनें व्यस्त हैं (काव्य-संग्रह)/ कवि : सुशांत सुप्रिय/ प्रकाशक : अंतिका प्रकाशन, ग़ाज़ियाबाद/  2016/ समीक्षक : राम पांडेय

गाँधी होने का अर्थ

गांधी जयंती पर विशेष आज जब सांप्रदायिकता अनेक रूपों में अपना वीभत्स प्रदर्शन कर रही है , आतंकवाद पूरी दुनिया में निरर्थक हत्याएं कर रहा है...