Monday 2 March 2015

समीक्षा : बलचनमा एवं वरुण के बेटे (उपन्यास) – नागार्जुन


बलचनमा

नागार्जुन प्रेमचंद की परंपरा के उपन्यासकार हैं । अंतर यह है कि जहाँ प्रेमचंद ने उत्तर प्रदेश के अवध-बनारस क्षेत्र के किसानों की कहानी के माध्यम से समस्त उत्तरी भारत के किसानों की भाग्यगाथा प्रस्तुत की, वहाँ नागार्जुन ने मिथिला अंचल को अपने उपन्यासों का विषय बनाया ।  
‘बलचनमा’ में मिथिला के ग्रामीण जीवन का उत्कट यथार्थ अपनी सम्पूर्ण प्रखरता में चित्रित हुआ है । यद्यपि यह एक पात्र विशेष की, उसकी आत्मकथा के रूप में प्रस्तुत कहानी है पर वह पात्र ‘बलचलमा’ सम्पूर्ण निम्नवर्ग का प्रतीत बन गया है । यह ग्रामीण  निम्नवर्ग जो न जाने कब से ज़मींदारों के शोषण और दमन का शिकार हैं, जिसके सदस्यों से, जिनमें बच्चें और स्त्रियाँ भी शामील हैं । ज़मींदार उसी प्रकार कम लेता है जैसे अपने अन्य पालतू पशुओं से । बलचनमा एक ऐसे परिवार का सदस्य है जिसमें सबके सब मजदूर  ही हैं । उसकी माँ और बहन और बचपन की अवस्था से ही वह खुद ज़मींदार की ‘खवासी’ करते हैं । इतना ही नहीं ज़मींदार उसकी जवान बहन को अपनी काम-वासना का शिकार भी बनाना चाहता और यह नियति केवल बलचनमा की नहीं है बल्कि उसके जैसे अन्य सभी किसान-मजदूरों की है ।
पात्र ‘बलचनमा’ अनेक शोषण और अन्यायों को भोगता हुआ नंगे-भूखे श्रम के बलबूते पर चरवाहे से बहिया (पुश्तैनी गुलाम) कॉग्रेसी भोलानटियर, स्वयंसेवक नौकर से खेत-मजदूर से किसान और किसान से मजदूर बनता है । उसका ऐसा रूपांतरण सीमित जीवन खंडारों को भोगने के साथ-साथ ही होता है । साथ-साथ ही वह सही और गलत संबंधों की पहचान करता है । यह पहचान ही उसकी राजनैतिक-सांस्कृतिक चेतना को जन्म देती है । यह चेतना ही गरीबी और गुलामी की समस्याओं का सामूहिक सामाजिक यथार्थ जगमगाती है ।इस तरह नई उभरती सामाजिक चेतना के सामूहिक यथार्थ की कलात्मक पहचान ही इस उपन्यास का लक्ष्य है ।
प्रेमचंद बहुधा अपने पेनोरमिक उपन्यासों में विराट पहलुओं को लेकर कथानक के माध्यम से राजनीतिक आंदोलनों और राष्ट्रिय इतिहास के इतिवृत्त तथा विशेषण पेश करते थे । महान आंदोलन की धुरी पर वे महत्वपूर्ण वर्गीय पत्रों को तथा शहर और देहात के कथासूत्रों को फैलाते थे । उनके समय राजनीति चेतना का चरित्र व्यापक साँझेवाले था तथा किसान-मजदूर का संघर्षवर्गीय नेतृत्वविहीन तथा विचारधारा से वंचित थी । अतः होरी ग्रामीण संस्कृति के विगठन की तथा सूरदास संघर्ष की दिशाहीनता की सुचना देते हैं । ‘बलचनमा’ में आकर हमें देहात का एक छोटा और सीमित पटल मिलता है, छोटे-छोटे पत्रों की सामान्य घटनाएँ मिलती हैं । फलस्वरूप इस उपन्यास में एक और देहातों  और किसानों के शोषण हैं तथा ऊपर अत्याचारों के  लम्बे दौर से फूलती हुई नई सामूहिक चेतना का सहज लक्ष्य है: किसान-आंदोलन ।
इस तरह ‘बलचनमा’ से राजनीतिक और आंचलिक तत्व का मेल होता है तथा लोकजीवन और ग्रामीण संस्कृति की निर्मिती एवं पहचान के लिए मार्क्स ही सबसे अधिक सार्थक सिद्ध होता है ।
 ‘बलचनमा’ केवल इसलिए उल्लेखनीय उपन्यास नहीं है कि उसमें कृषक-मजदूरों के अत्याचार और शोषण की सही तस्वीर है, वरन् इसलिए भी कि उसमें नागार्जुन ने ज़मींदारों से किसानों के संघर्ष की शुरुआत की कहानी लखी हैं । प्रेमचंद किसानों की गरीबी, बेकारी और जहालत की कहानी लिख गए थे, पर उनकी मुक्ति दास्तान वे नहीं कह पाए थे । अपनी आदर्शवादी मनःस्थिति के कारण प्रेमचंद गोबर के चरित्र को यथार्थवादी परिणति नहीं दे पाते, पर बलचनमा का विकास बड़े ही स्वाभाविक रूप में होता है । संजोग से उसे फूलबाबू के साथ पटना आने और रहने का अवसर मिलता है जिसके परिणामस्वरूप उसमें राजनीतिक चेतना विकसित होती है । फूलबाबू के जेल चले जाने के बाद वह पटना में ही उसके एक सदस्य मित्र के परिवार के साथ रहता है जहाँ उसके अनुभव, सोचने-समझने की शक्ति और राजनीतिक चेतना में और प्रखरता आती है । फूलबाबू के जेल से लौटने के बाद उसे उन्हीं के साथ दरभंगा के कॉंग्रेस आश्रम में रहने का अवसर मिलता है । वहाँ वह फूलबाबू तथा अन्य कॉंग्रेसी नेताओं के असली चेहरे देखता है । वह पाता है कि ये नेता उसी उच्च वर्ग से आते हैं जो अब तक निम्न वर्ग का शोषण करते आए हैं । ये लोग किसी न किसी रूप में शोषक वर्ग के के ही अंश हैं । वह देखता है कि दैवी विपत्तियों से संकटग्रस्त किसानों की राहत के – जो सरकारी अनुदान मिलता उसे कॉंग्रेसी नेता अपने संबंधियों के बीच बाँट देते हैं और गरीब किसान देखता रह जाता है ।
इस प्रकार ‘बलचनमा’ की राजनीतिक चेतना क्रमशः धीरे-धीरे विकसित होती है । नागार्जुन की चित्रानिर्मान की दिशा में वह किसान-आंदोलन का पहले सिपाही और फिर आगुआ बन जाता है । यह वह समय था जब ज़मींदारों के खिलाफ किसानों का आंदोलन जोर जोर पकड़ने लगा था और ज़मींदार अपनी अस्तित्व-रक्षा के लिए किसानों से अंतिम लड़ाई लड़ने लगे थे । बलचनमा भी इस आंदोलन में भाग लेता है और वह ज़मींदार के खिलाफ किसानों को संगठित करता है । और हम अंत में उसे ज़मींदार के एक गुंडे की लाठी का शिकार होकर गिरते देखते हैं ।
बलचनमा ने इन सभी स्थितियों को 1937 के निर्वाचन काल तक समेट कर प्रस्तुत कर दिया है  । वह हमें बतलाता है कि गांधीवादी और आश्रम के ‘—‘ राधेबाबू समाजवादी हो गए है और अब किसान सभा में कार्य करते हैं । बलचनमा ने किसानों की सभा का एक विस्तृत दृश्य प्रस्तुत किया है जिनमें एक स्वामीजी भी सम्मिलित है । (पृ.176-184) उनका मुख्य प्रयास है नई समाजवादी पार्टी और किसान सभा के संगठन को मजबूत बनाना और किसानों में प्रचार करना ।
वास्तु-विधान : इसमें बलचनमा की कथा मुख्य है और अन्य कथाएँ बलचनमा के इर्दगिर्द चक्कर काटती हैं । इसमें एक ओर ज़मींदारों के शोषण की कथा है जिसमें मोहनबाबू का उसकी माँ को पीटना, दूसरी और जनांदोलन की कथा है जिसमें एक ओर फूलबाबू है तो दूसरी और राघेबाबू ।
आत्मकथात्मक शैली में लिखे इस उपन्यास में घटनाओं के कई मोड़ हैं जिनमें बलचनमा का पटना आकर कॉंग्रेस का जनआंदोलन देखना, जनवादी प्रवृत्तियों से परिचित होना, शोषक वर्ग कस उसके परिवार पर अत्याचार और शोषण फूलबाबू से निराश होकर राधेबाबू की ओर मुड़ना और बलचनमा का जीवन में डटकर किसान आंदोलन को नया मोड़ देना और उनकी मृत्यु आदि हैं । इस उपन्यास की घटनाएँ तीव्र गति से उद्देश्य की स्थापना की ओर बढ़ती है । अनावश्यक घटनाओं का उपन्यास में स्थान नहीं है । सभी घटनाओं का लक्ष्य शोषक और शोषित वर्ग के संघर्ष को प्रकट करना है । इसमें राजनीतिक विचारधारा उपन्यास पर आरोपित की गई है । उद्देश्यपरकता के फलस्वरूप यह आरोप अधिकांश समाजवादी उपन्यासों पर लगाया जा सकता है ।
चरित्र –चित्रण : ‘गोदान’ के होरी के पश्चात् बलचनमा निश्चित रूप से एक महत्वपूर्ण उपलब्धि है । एक लोक की धारणा है : ‘होरी’ किसान था, धरती से बंधा था । परिस्थितिक्रम से संक्रमित होनेवाले समाज के कारण ‘गोबर’ शहर में जाकर मजदूर बना था तथा मजदूरों की हरताल में उसने भाग लिया था ।
बलचनमा किसान नहीं बल्कि नाम मात्र की उसकी किसानी थी । वह धरती से बंधा न था, उसके संस्कार भी अतः बंधे न थे । वह विभिन्न व्यक्तियों और संस्थाओं के संपर्क में आता है, उनकी दलीले और भाषा भी सीखता है तथा उनके दोषों और अक्षमताओं का निरिक्षण-परिक्षण करता है । होरी भारतीय किसान की दुर्वलताओं और अभावों का प्रतीक था किन्तु बलचनमा निम्नवर्गीय घोषित चेतना की जागती हुई चेतना का प्रतीक है । वह मानता है कि धरती किसान की है । वह धरती को जोतता है और बोता है । यह भ्रामक धारणा है कि बलचनमा पाठक की संवेदना सजग नहीं करता, वैयक्तिक संस्पर्शिता को नहीं जगाता । कारण वह व्यक्ति नहीं समाज का प्रवक्ता है किन्तु दीहीन शोषित इंसानों को उसने सोते से जगाया है और उन्हें वाणी दी है । इसलिए पाठक की संवेदना उसे मिली है । उसकी पीड़ा, उसकी वेदना, उसका असहाय दुःख साधारणीकृत होता है और वह केवल आरोपित नहीं है ।  अधिकांश पात्र अपने वर्ग का प्रतिनिधित्व करते हैं और सभी प्रतिनिधि परिस्थिति के प्रतिनिधि पात्र हैं । बलचनमा सर्वहारा वर्ग का प्रतिनिधि पात्र है ।
उद्देश्य : ‘बलचनमा’ में लेखक का उद्देश्य बलचनमा के माध्यम से दीनहीन सर्वहारा वर्ग के साधन संपन्न शोषक वर्ग के प्रति वर्ग संघर्ष का चित्रण कर साधनहीन वर्ग में वर्ग-संघर्ष की ज्वाला को प्रदीप्त करना । वर्ग-संघर्ष का चित्रण कर समाजवादी चेतना का निर्देश करना ही लेखक का उद्देश्य है । बलचनमा में परंपरा और समाज की सदियों में लिपटे हुए लोकजीवन के भविष्य से परिचित करने का दृढ़ संकल्प दिखाई पड़ता है ।
विशेषताएँ : ‘बलचनमा’ की भाषा में आंचलिक प्रयोगों का बाहुल्य हैं । बलचनमा के स्वागत-चिंतन या पाठक से बातचीत के रूप में ये आंचलिक प्रयोग न केवल उसके चरित्र को स्वाभाविकता प्रदान करते  हैं वरन् उस समस्त वातावरण को भी सजीव रूप में प्रस्तुत कर देते हैं जिसमें बलचनमा जी रहा है । बलचनमा निर्धन किसान-मजदूर परिवार का निरक्षर व्यक्ति है । अतः उसके मुँह से परिनिष्टित खड़ीबोली यदि हम सुनते भी हैं तो उस पर विश्वास नहीं पातें ।
नागार्जुन बलचनमा में वैसे शब्दों और जुमलों का प्रयोग करवाते हैं जो केवल मिथिलांचल के ग्रामीणों के बीच प्रयुक्त होते हैं । इस प्रकार नागार्जुन ने उपन्यास की भाषा खड़ीबोली होने पर भी तनिक भी गढ़ंत या अस्वाभाविक नहीं है । उनका समूचा व्यक्तित्व उनकी भाषा में भी सिमट आया है । उसकी निरक्षरता, उसकी सरलता, उनका सहज-सपाट व्यक्तित्व सब कुछ उनकी भाषा के माध्यम से हमारे सामने आ जाता है ।
यह एक सामाजिक उपन्यास है । ‘बलचनमा’ में भारतीय किसानों पर होने वाले अमानुषिक अत्याचारों की अभिव्यक्ति और उससे उत्पन्न वर्ग संघर्ष की अभिव्यक्ति है और समाज संघर्ष की अभिव्यक्ति होने के कारण कम्युनिष्ट पार्टी की अपेक्षा भारतीय समाजवादी दल के सिधान्तों की अभिव्यक्ति मिलती है । वर्ग-संघर्ष होने से मार्क्सवाद इस उपन्यास का आधार रहा है किन्तु समाजवादी चेतना का भारतीय रूप ही अभिव्यक्ति हुआ है।
निष्कर्ष : नागार्जुन ने अपने उपन्यास में किसान पृष्ठभूमि को आधार बनाया है । स्वतंत्रता के बाद जो किसान आंदोलन हुए है उनका लेखा-जोखा उनकी सम्पूर्णता के साथ इनके उपन्यासों में प्राप्त होता है ।इनके मार्क्सवादी दृष्टिकोण के आधार पर किसान चेतना तथा उनके संघर्ष को चित्रित कर हिंदी उपन्यास को नए आयाम प्रदान किए ।
         हमारा मत : ‘बलचनमा’ में नागार्जुन ने दलित वर्ग को हमारे समक्ष प्रस्तुत किया है । सामाजिक जीवन के सन्दर्भ में नारी को पुरुषों के बराबर का स्थान प्राप्त नहीं है । इस तरह से यह सिद्ध होता है कि उस समय भी दलित और स्त्रियों की स्थिति में कोई अंतर नहीं था । ‘बलचनमा’ उपन्यास में लेखक ने एक ही पात्र के माध्यम से राजनैतिक भ्रष्टाचार को उभारने की कोशिश की है ।
सहायक ग्रन्थ :
1.  बलचनमा : नागार्जुन-प्रकाशन 1952
2.  समन्वय पुर्बोत्तर : अंक-15,अप्रैल-जून-2012
3.  आधुनिक हिंदी उपन्यास-1 : डॉ. गोपाल राय पृ-66
4.  हिंदी के आंचलिक उपन्यासों में जीवन-सत्य पृ-95 : डॉ. इन्दु प्रकाश पाण्डेय
------

वरुण के बेटे
        ‘वरुण के बेटे’ नागार्जुन का छोटा आंचलिक उपन्यास है । नागार्जुन प्रगतिशील चेतना के कथाकार हैं । उनके उपन्यास एक विशिष्ट अर्थ में ही आंचलिक हैं । ‘वरुण के बेटे’ मधुआ अपनी रोजी-रोटी चलाने के लिए आपदाओं के मुँह में घुसते हैं, किस प्रकार संघर्षों में जूझते हैं । इस संघर्षशीलता के बावजूद जीवन के अभावों से इनका पिंड नहीं छूटता । खुरखुन माँझी की स्थिति इसका उदहारण है ।
       ‘वरुण के बेटे’ उपन्यास में संघर्ष का एक और स्थल है वह भी प्रत्यक्ष रूप से जल से ही सम्बंधित है । जल एक तरफ इन्हें बसता है तो दूसरी ओर गाँव वह जाते हैं । सारा इलाका एक भयंकर तरस में जीता है, लोग अन्न के दाने-दाने के लिए तरसते ही हैं साथ ही सर छुपाने की जगह के लिए भी परेशां हो जाते हैं । सरकारी सहायता कैंप तो मात्र उनके दुःख-दर्द पर नमक छिड़कने का कम करते हैं । नागार्जुन ने इन सन्दर्भों में उभरते आक्रोश को संयत दिशा प्रदान की है ।
       नागार्जुन ने बड़े ही अंदाज से इन मधुओं की ज़िंदगी को समीपी दृष्टि से आँका है । पानी की गहराइयों से जूझने वाले यह लोग बड़े हिम्मती होते हैं । खुरखुन सारे देहात में प्रसिद्ध था, उनका जीवन बड़ा ही संघर्षशील है।
        उपन्यास का कथानक आंचलिक उपन्यासों जैसा बिखराव नहीं रखता । कथानक गाँव के दुःख-दर्द को अभिव्यक्त करता हुआ तेजी से अपना सफर तय करता है । पात्र भी इने गिने हैं- मोहन माँझी, खुरखुन, माधुरी आदि तो मुख्य हैं । नारी चेतना की नई छवि हमें अनपढ़ माधुरी में दिखलाई पड़ती है । ससुराल से शराबी ससुर की हरकतों से दुखी हो दुसरे-तीसरे दिन ही घर लौट आती है । गोहियारी में आकर पिता का हाथ बटाती है ।
        कृति की रचनाधर्मिता का सवाल लेखकीय दृष्टि से जुड़ा हुआ होता है । कृति इ सार्थकता उस दृष्टि-विशेष के प्रसार से ही सन्निहित होती है । ‘वरुण के बेटे’ में श्रमदान की कृतिमता पर व्यंग्य किया गया है किसी के किनारे श्रमदानियों के महत्व के कारण जंगल में मंगल हो जाता है । उनको हर सुविधा प्रदान की जाती है ।
        भूदान और श्रमदान न रहकर दिखावा बनकर रह गए हैं । गाँव के लोगों में कर्तव्यनिष्ठा है तो शहरियों में बनावटीपन । इसी को उद्घाटित करता हुआ लेखक सूचित करता है- “खाते पीते परिवारों के शौकिया श्रमदानी सज्जनों की बात ही और थी, उनकी सुविधा के अनेक साधन कोसी किनारे जुट गए थे । चाय-बिस्कुट, पान-सिगरेट, शरबत....पास-पड़ोस के परिचित कॉंग्रेसी नेताओं की सिफारिश से वे पटना या दिल्ली से आये ऊँचे पदाधिकारी के साथ भीड़ में खड़े हो जाते और फोटो खिंच जाती । इन लोगों का श्रमदान क्या था बैठे-ठाले का अच्छा खासा मनोरंजन था”
        सीधे और सरल शब्दों में लेखक में आज की कृत्रिमता पर प्रचारवादिता और एक आज के नकलीपन पर गहरी चोट की है । देश के सुधार या गाँव के सुधार पर दृष्टि हमारे नेताओं की नहीं टिकती वह तो सभा जुलूसों के आयोजनों में निरर्थक भूमिका अदा करने में राष्ट्र का समय और धन बर्बाद करते हैं ।
       विशेषताएँ : ‘वरुण के बेटे’ हिंदी और मैथिल के जाने-माने कवि व उपन्यासकार नागार्जुन का एक लघु उपन्यास है । नागार्जुन ने इस उपन्यास के माध्यम से मछुआरों की जीवन-शैली, उनके रहन-सहन और उनके उन सरोकारों की ओर झाँकने का प्रयास किया है जिनसे उनकी रोजी-रोटी की बुनियाद जुड़ी हुई है ।
         ‘वरुण के बेटे’ की पूरी कथा एक छोटे मछुआरे खुरखुन और उसके परिवार के इर्द-गिर्द घुमती है । नागार्जुन ने इस उपन्यास में खुरखुन की बिटिया मधुरी का प्रेम प्रसंग भी चित्रित किया है पर यह प्रेम उपन्यास की मुख्यधारा में नहीं है । मधुरी प्रेम तो करती है पर समाज के कायदे कानून के भीतर इसलिए न तो वह अपने प्रेमी के न ही खुद के परिणय सूत्र में बंधने के पहले कोई एतराज जताती है ।
        सच तो यह है कि बाबा किरदारों में व्यक्तिगत सुख की आकांक्षा से से ज्यादा अपने समाज का कल्याण सर्वोपरि है । यही वजह है कि ससुराल से पिट-पीटाकर मधुरी जब मछुआरों के संगठन में काम करने की इच्छा जताती है वह उसके पिता न केवल उसे इसकी इज़ाजत देता है बल्कि बेटी को इस रूप में देखकर फर्क महसूस करता है ।
        बाबा नागार्जुन ने इस छोटे से उपन्यास में मछुआरें जीवन का बेहद जिवंत विवरण दिया है । कहानी शुरू होती है एक छोटे परिवार से उनके रोजमर्रा के कामकाज से और अंत तक पूरे चित्र की रुपरेखा खिंच जाता है । जीवंत पात्रों के माध्यम से लेखक ने 50-60 दशक के सरकारी नीतियों, उससे प्रभावित जन साधारण और देश की स्थिति का लेखा प्रस्तुत किया है । आजादी के बाद ग्रामीण क्षेत्रों में तेजी से विकसित राजनैतिक चेतना को नागार्जुन ग्रामीण क्षेत्रों की किसान सभाओं, ग्राम कमेटियों के माध्यम से अपने अपने उपन्यासों में अंकित करते हैं । ‘वरुण के बेटे’ उपन्यास में पिछड़े वर्ग के मोहन माँझी को राजनैतिक चेतनाशील प्रतिनिधि चरित्र के रूप में दिखाया है । प्रगतिशील है और विभिन्न किस्म के संगठनों के बीच विचारधारा के मर्म को वह आसानी से कार्यकर्त्ता के रूप को देखा जा सकता है । वह अपने थैले से किसान-सभा की रसीदें निकालकर उसके उद्देश्यों को बताता है ।
       बिम्ब और प्रतीक विधान जिनसे जीवन की ... स्थितियों को उजागर किया जाता है ‘वरुण के बेटे’ में यतिकिंचित हो दिखाई पड़ती है ।
निष्कर्ष : नागार्जुन के उपन्यास का विश्लेषण करने के उपरांत यह निष्कर्ष निकलता है कि उन्होंने मिथिलांचल के जनजीवन को बड़े निकट से देखा है तथा परखा है । किसान-मजदूरों की पीड़ा, वेदना, संत्रास, घुटन और शोषण को उन्होंने स्वयं भी भोग है ।  
सहायक ग्रन्थ : वरुण के बेटे – नागार्जुन 
------                               



प्रस्तुतकर्ता : राज्य लक्ष्मी
शोधार्थी (हैदराबाद विश्वविद्यालय), क्वार्टर न. ई-25, गैर-शिक्षण स्टाफ, हैदराबाद केन्द्रीय विश्वविद्यालय, हैदराबाद 500046, ईमेल: rsreenasingh62@gmail.com            
                                                                                                                                        

               

                                    

3 comments:

गाँधी होने का अर्थ

गांधी जयंती पर विशेष आज जब सांप्रदायिकता अनेक रूपों में अपना वीभत्स प्रदर्शन कर रही है , आतंकवाद पूरी दुनिया में निरर्थक हत्याएं कर रहा है...