3 कवितायेँ : मनोहर बिल्लौरे
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सिक्के...
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सिक्के...
टकसालें उन्हें नहीं घड़तीं अब
चलन से हो चुके हैं बाहर वे
पडे़ रहते हैं कौनों-अंतरों में
म्लान अकेले-दुकेले उदास
उपेक्षित बेगाने असहाय...
छुटपन में हमने उन्हें खूब बरपा
पड़ते ही उन पर नज़र तब
बढ़ जाती थी आँखों की रोशनी
कुछ और होने लगती थी
हथेलियों में खुजली गुदगुदी
हाथ लगते ही कुदकने लगते थे
खुशी से हमारे पैर
टनका-खनकाकर खरापन
पहचानने-परखने का समय था वह
पुरानों को ठेलते नये-नये आ रहे थे
तब बाज़ार में वे एक के बाद एक
हुई थी तभी उनके वजन के
घटने और घटते चले जाने उनमें
हल्की धातुओं के शामिल होने
होते चले जाने की शुरूआत
समय था यह वह जब बिजली से
गाँवों-कस्बों की गलियों-घरों मैदानों
के
जगमगाने का सिलसिला हुआ था शुरू
अंधेरे थे गरीबों के घर पर खुश थे
वे कि
चलो गलियाँ तो हो जाती हैं गुलजार
फैल जाता है उजियारा सरे-शाम बस्ती
में
रेडियो सीलोन विविध-भारती
बिनाका गीतमाला नाटकों और
दुनिया-जहान की खबरों को
सुना जा सकता था तब घरों
दूकानों चौराहों में... साइकिलों
पर दौड़ते करते हुए काम
खेतों-खलिहानों तक में
समय के बदलते जाने के साथ-साथ
बदलता गया उनका आकार-प्रकार
रंग-रूप छटाएं बदलीं उनकी धातुएं
वजन होता गया धीरे... धीरे कम...
इनमें मौजूद धातुओं की कीमतें
जब-तक रहती हैं बाजारभाव से कम
ये चलते हैं बे-सिर-पैर हाथों-हाथ
तानकर छाती खोलकर बाहें बेखटके
होता है इनका उपयोग खूब-खूब
लगाकर सिर से किया जाता है इनका
आदर स्वागत सत्कार-सम्मान और
रखा जाता है इन्हें गिरहों में बांधकर
एहतियात के साथ सोच-समझकर
किफायत के साथ किया जाता है
इनका उपयोग प्रयोग... सही जगह
और जब भी होने लग जाती हैं
इनमें मौजूद धातुओं की कीमतें
बाज़ार-भाव से ऊपर छाने लगते हैं
इन पर संकटों के बादल होने लगते हैं
ये घरों सड़कों और बाजारों से गायब
आहिस्ता...आहिस्ता....
और तब दलालों के जरिये
पहुँचकर धमन-भट्टियों में
पिघलने-गलने जाने लगते हैं वे
ढलकर बन जाने कोई और वस्तु
छोड़ते नहीं आपका दामन किसी और
रूपाकार में आजाते हैं वे आपके पास
कुछ खास घरों लोगों संस्थानों के
पास
ही बचे रह पाते हैं वे आरक्षित सुरक्षित
इतिहास के पन्नों और संग्रहालयों
ही में बस
बचा रह पाता है उनका वजूद राह तकता
किसी गुणी की टकटकी लगाये प्रतीक्षारत
कि कोई आये देखे उन्हें दे उन पर
ध्यान
पहचाने उनका समय मूल्य और माने उनका
हक हैसियत और करे गुजरा समय याद
एकबार फिर पूरी संवेदनशीलता के
साथ
मरकर भी इतिहास के पन्नों में
शिल्पों पर जीवित बने रह पाते हैं
बाइज्ज़त उसी तरह... जिस तरह के
वे थे और रहे अपने समय में स्फूर्त
ताजा-दम उठाये सिर ससम्मान
टकसालें उन्हें नहीं घड़तीं अब
चलन से हो चुके हैं बाहर वे...
नदी है वह
पहाड़ों से निकलकर
बहती समुद्र की ओर
नदी है वह
पठारों अंचलों से आती
सहायक नदियो को समेट
समाहित करती चलती
अपने आंचल में
टकराती-ऊँचाइयों से
गिरती गहराइयों में
किनारों की मिट्टी से
मिलती गले
उछलती कूदती इतराती
नाचती हवा से करती बातें
नदी है वह...
जीवन-जल है उसके पास
हरा-भरा रंग-बिरंगा जीवन
है जिसके भीतर बाहर भी
ठंडा रखती वह धरती का
कलेजा
रोड़ों कंकड़ों रेत मिट्टी को
बहाती अपने संग-साथ पत्थरों
से लड़ती भिड़ती चट्टानों से
समतलों में रहती बहती शांत
एकांत में भरती गूँज
चांद-तारों के प्रकाश से
रातों में भी प्रदीप्त
नदी है वह...
आकाश के टुकड़े करते ताक-झांक
देखते उसमें अपना चेहरा
झिलमिलाते
हैं तारे लहरों के साथ नाचता है चांद
सूरज दमकता उसमें आईने की तरह
सोती नहीं रहती जागती दिन-रात
व्यस्त लगातार अविकल गतिमान
नदी है वह...
उसी के किनारे बसीं पलीं-बढ़ीं
सभ्यताएं पहले पहल डुबकी लगा
धोकर पाप कमाता है
लोक उससे पुण्य
रिश्तों को जोड़ती बनाती सम्बंध
तोड़ती धर्म और भाषा के बंधन
ढहाती कौमों जातों-पाँतों की दीवारें
नहीं मानती वर्ग-भेद जानती नहीं
रंगभेद पी जाती ईष्र्या-द्वेष
धोती कटुता मिटाती क्लेष
नदी है वह...
बाहर से भीतर तक
माँज-माँज करती पवित्र
जन-गण-मन
अंध-विश्वास नहीं विश्वास
बंधता है बंधती हैं मुट्टिठयाँ
उसके तटों पर बिखरती
निराशायें बंधती हैं आशाएं
ऊपर से नीचे की ओर
रहती बहती लय में सतत्...
किनारों पर देती ताल
लेती सबकी खबर
देती सबको खबर
करती खबरदार
नदी है वह...
खुर्दबीन से
सुना भर नहीं देखा भी है
उन्हें खुद अपनी खुर्दबीन से
दूरबीन नहीं अपने पास
जब भी लगा टिकाउ हैं वे संवारा
सहेजा बरपा और रखा सिर पर
दी अपने दिल में जगह
और जंग लग रही थी जिनमें पड़े-पड़े
धोया साफ किया उन्हें रेगमाल से
रगड़-रगड़ चमकाया घिसा बार-बार
और तब की उनकी प्रतिष्ठा सही और
सटीक जगह पूरे अनुष्ठान के साथ
और फूलकर हो रहे थे जो कुप्पा
चर्बी से लद गया था जिनका शरीर
चलने-फिरने में थोड़ी दूर थककर
चूर हो हांफने लगते थे जो लगे
उकताऊ चलताऊ और भड़काउ
फेंका उन्हें उपेक्षा से कौने पर
लगे
कचरे के ढेर में... तब बढ़ा
आगे...
मुड़ा उस ओर जिस ओर थीं
संभावनाएं खड़ीं प्रतीक्षारत कि
कोई टटोले उन्हें सहेजे और
गुजारे उनके साथ लंबा समय
सुना भर नहीं देखा भी है
उन्हें खुद अपनी खुर्दबीन से
दूरबीन नहीं अपने पास
परख कर खुद्दार-कसौटी पर
देखा यह भी कि निकल रहे हैं
वे किस मुँह से और जाना कि
उस खोपड़ी के अंदर बैठा है कौन
जीव ! किस मक़सद से कर रहा
वहबड़-बड़ाने की जद्दो-जहद
जानने की की पूरी कोशिश
तौला अंतरंगता के तराजू पर देखा
चश्मा संभालकर कि कौन है जो
बनाये रखेगा अपना संतुलन देर
और दूर तक किस का व्यक्तित्व है
ऊर्जस्वित क्षमतावान देगा साथ जो
लंबी मैराथन-रेस में और निकल
जायेगी किसकी कितनी जल्दी हवा
पिन चुभते ही बीच रस्ते में दे
जायेगा
दगा एन उस वक़्त जबकि उसकी
ज़रूरत होगी सबसे जादा
इसीलिए सुना देखा-परखा
और गुना बार-बार
सुना भर नहीं देखा भी है
उन्हें खुद अपनी खुर्दबीन से
दूरबीन नहीं अपने पास
मनोहर बिल्लौरे
1225, जयप्रकाश नगर, अधारताल
जबलपुर 482004 (म.प्र.)
मोबा.- 089821 75385
इमेल: manoharbillorey@gmail.com
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