आकाश में विमान अब नीचे आ रहा था, मिलिन्द ने खिड़की से नीचे झाँका, टोक्यो शहर पर उगते सूरज की सुनहरी धूप फैल रही थी। उन्हें यहाँ से
यह दृश्य, ऐसा लगा जैसे किसी कुशल चित्रकार ने कोई अनुपम कलाकृति बनाई हो।
एयरपोर्ट पर
अब विमान उतरने को ही था, कि तभी एक उदघोषणा हुई कि भारत से
आए सभी यात्रियों से अनुरोध है कि वे
मेडिकल चेकअप के लिए अधिकारियों का सहयोग करें। मिलिन्द जानते थे
कि भारत में किसी वायरस का संक्रमण फैला हुआ है, पर उन्हें यह
नहीं पता था कि हवाई अड्डे पर ही
मेडिकल चेकअप से भारतीय यात्रियों का
स्वागत होगा। चेकअप में कुछ देर लगी और जिन दो यात्रियों को
हल्का बुख़ार था, उन्हें आगे की जांच के
लिए वहीं रोक लिया गया। इतनी उजली भोर उन्होंने पहली बार देखी। तभी दीवार को साफ़ करता
एक कर्मचारी उन की नज़रों में अटक गया...उस के हाथों में दस्ताने थे, शांत और तल्लीन, दुनिया से बेखबर, अपने काम में वह एकदम खोया हुआ था ।
एयरपोर्ट से
धीमे-धीमे कदमों
से वे बाहर निकल आए। बाहर
पन्द्रह-बीस लोग, अपने-अपने परिचितों और अतिथियों का
इंतज़ार कर रहे थे। कुछ
के हाथ में प्लेकार्ड थे। मिलिन्द की नज़रें उन तख्तियों पर
अपना नाम खोज रही थीं कि तभी उन्हें सुनाई दिया– ‘मिस्टर मिलिन्द भारती।' आवाज़
की दिशा में उन्होंने पलट कर देखा, वहाँ एक जापानी सज्जन हाथ हिला रहे थे। वे
उन की तरफ बढ़ गए।
सामने पहुँचते ही उन्होंने हाथ बढ़ाया– ‘जय भीम, मिलिन्द जी।’
‘जय भीम’ थोड़े विस्मय से उन्होंने जवाब
दिया। मिलिंद ने उन का बढ़ा हुआ हाथ थाम लिया।
उन के
चेहरे पर आए अचरज को
समझते हुए वह जापानी सज्जन मुस्कुराए– "मैं हिंदी जानता हूँ और आप
की आत्मकथा और कुछ दूसरी रचनाएं भी पढ़
चुका हूँ । मेरा नाम प्रो. हिदेआकी इशिदा है
और यहाँ हिंदी भाषा और
साहित्य पढ़ाता हूँ ।"
यह सुन कर मिलिन्द का चेहरा सामान्य हो गया ।
दोनों के चेहरों पर मुस्कान थी और गर्मजोशी भी ।
"कितनी उम्र के होंगे ये? मिलिन्द सोच रहे थे, पर प्रो. इशिदा की
उम्र का अंदाजा मिलिन्द किसी भी तरह नहीं लगा पा रहे थे। लम्बे, छरहरे और काफी फुर्तीले व्यक्ति थे
वे। आँखे छोटी पर चमकती हुई, नाक पर ऐनक, दूधिया रंग, चेहरे पर
एक झुर्री तक नहीं
थी । सफेद रंग की
जैकेट में उन का रंग और ज़्यादा निखरा हुआ लग रहा था ।
"कितने
साल हुए आप को प्रोफेसर बने इशिदा सान।"
मिलिंद ने
अपना सूटकेस खींचते हुए पूछा। मिलिन्द जानते थे
कि यहाँ ‘सान’ आदरसूचक शब्द है, जैसे हिंदी में किसी के
नाम के साथ ‘जी’ लगाते हैं।
‘सान’ शब्द सुनकर प्रो. इशिदा मुस्कुरा गए। ‘इस
साल दिसम्बर में सेवानिवृत्त हो
जाऊँगा । पैंसठ का होने वाला हूँ ।”
एक बार फिर मिलिन्द को
उन्होंने आश्चर्य में डाल दिया ।
बहुत गाढ़ी नज़र से मिलिंद ने उन्हें ऊपर से नीचे तक
देखा, फिर हल्का सा उभरा अपना पेट देख कर झेंप से
गए ।
‘आप मुझ से लगभग पच्चीस साल तो छोटे होंगे ही मिलिन्द जी।’ कह कर इशिदा जी लम्बे-लम्बे डग
भरने लगे ।
हवा में हल्की ठंडक, अब भी बाकी थी, जो देह में हल्की सी
सिहरन जब-तब पैदा कर देती। धूप
खासी चमकीली और हल्की ऊष्मा लिए थी, पर हवा की ठंडक की
वजह से कोट या जैकेट की ज़रूरत खत्म नहीं हुई थी अब
भी।
जापान यानी निप्पोन अर्थात् सूर्य के उगने का
देश; इतनी अलस्सुबह भी दिपदिपा रहा था। टोक्यो महक रहा था... पूरा शहर साकुरा के फूलों के खिलने से
उस की मदहोशी में था, जैसे किसी प्रेमिका ने खुद को अपने प्रेमी की बाहों में पोर-पोर डुबो दिया हो। मार्च और अप्रैल के
इन्हीं दो महीनों में खिलता है, साकुरा का फूल, फिर साल भर का बिछोह हो जाता है
और शहर की आबोहवा जैसे तड़पती रहती है
अपने प्रेमी के इंतज़ार में ।
हालांकि आना तो उन्हें फरवरी में ही था, परन्तु आयोजकों से आग्रह कर
के उन्होंने इसे मार्च के
अंत तक खिसका दिया। तब तक
साकुरा खिल चुका होता है, यह पता था
उन्हें। हिंदी की कथाकार गीतांजलिश्री का कहानी संग्रह ‘मार्च, माँ और साकुरा’ भी पढ़ चुके थे आने से पहले ही
वे, दूसरी कुछ किताबों के
साथ।
अब वे
दोनों उस बस का इंतज़ार करने लगे, जो उन्हें एयरपोर्ट से शहर के
बीचोंबीच ले जाने वाली थी। घंटे भर की यात्रा के बाद वे
टोक्यो के मेट्रो स्टेशन पर
पहुँचे। वहाँ से
दो बार मेट्रो ट्रेन बदलने के बाद, लगभग एक
घंटे बाद वे होटल पहुँचे ।
‘मैं अकेला तो यहाँ घूम भी नहीं सकता, यहाँ सब कुछ जापानी में लिखा और बोला जाता है ।’ मिलिन्द ने
मेट्रो स्टेशन पर
लिखे निर्देशों को
देख कर भी यह सोचा था, पर तब चुप रह गए
थे, अब एयरकंडीशनर के रिमोट पर
भी जापानी भाषा में लिखे निर्देश देखे तो
वह बोले बिना रह न
सके।
प्रो. इशिदा ने
रिमोट हाथ में ले कर
एयरकंडीशनर का तापमान निश्चित किया। “यह तो
है, पर आप
निश्चिन्त रहें, आप के
लिए सब व्यवस्था की गई
है। आप पाँच दिन हमारे विशिष्ट अतिथि हैं। आप के उपन्यास का जापानी अनुवाद यहाँ बहुत पढ़ा गया है, विद्यार्थी और
अध्यापक आप से
मिलने को उत्सुक हैं। दलितों के जीवन को
जानने की उत्कंठा उन में
बहुत है। वे आप को अकेला नहीं रहने देंगे।”
बातचीत में उन्होंने बताया कि
वे भारत के महाराष्ट्र, बनारस, दिल्ली जैसे कई स्थानों पर
रह चुके हैं और थोड़ा-बहुत इस बारे में जानते हैं। मुम्बई की दलित बस्तियों में घूमे हैं वे । अनेक दलित लेखक और लेखिकाओं से मिल चुके हैं।
मिलिन्द के ये उलाहना देने पर
कि आप मुझ से
कभी नहीं मिले। वे बोले- ‘ऐसा नहीं है मित्र , मैंने दो बार आप से मिलने की कोशिश की, लेकिन पता चला कि दोनों ही
बार आप विदेश यात्रा पर
थे।” प्रो. इशिदा ने
कमर सीधी की ।
मिलिन्द सोफे पर पीठ टिकाते हुए बोले- "सिर्फ़ संयोग
की बात है ।”
"सुखद संयोग, पर ये सिर्फ महानगरों के लिए
है, छोटे शहरों और गांवों के
लिए नहीं... क्या ऐसा नहीं?"
उन्होंने कहा तो मिलिन्द को लगा कि प्रो. इशिदा काफ़ी स्पष्टवादी हैं और उन्हें दलित साहित्य की
भी अच्छी जानकारी है ।
दिल्ली, हिंदी साहित्य का अब
एक शक्ति केंद्र बन चुका है और जो
दिल्ली से बाहर हैं, वे साहित्य की शक्ति को
भी उस तरह नहीं भोग पाते, जैसे दिल्ली वाले। हालांकि साहित्य, वह भी हिंदी साहित्य, सत्ता का बहुत ही मामूली हिस्सा है, पर उस हिस्से में भी छीना-झपटी लगी रहती है, मामूली चीजों के लिए भी भयानक ईर्ष्या और प्रतिद्वंदिता पसरी हुई है ।
यह सब
सोचते-सोचते, मिलिंद कुछ देर के लिए अपने गाँव में लौट गए। बिहार के आरा जिले का एक छोटा सा गाँव राधेपुर। अगड़ी जातियों के
बाहुबलियों द्वारा किए नरसंहार और बलात्कार उन की आँखों के आगे घूमने लगे एक- एक कर। गांव की
हर चीज पर उन का कब्ज़ा, पानी तक पर, गरीब की बहू-बेटियों पर, सब पर। सिर्फ जाति में ऊंचे
होने का ऐसा वीभत्स अभिमान कि इंसान अपने ही धर्म को
मानने वाले दूसरे लोगों के
प्रति हैवान हो जाता है। इस मामले में हिन्दू धर्म के लोग भी
वाक़ई अजीब हैं… अजीबोगरीब... अपने ही धर्म के लोग अजनबी और अछूत, और जब यही लोग
धर्म बदल कर दूसरे धर्म में चले जाते हैं, तो ये ही उन की
इज्ज़त करने लगते हैं।
दरवाज़े पर
हुई दस्तक ने मिलिन्द के
ध्यान को तोड़ा ।
प्रो. इशिदा फुर्ती से उठे। “जरूर माया होंगी।’ कहते हुए उन्होंने दरवाज़ा खोल दिया । मिलिन्द ने
दरवाज़े से भीतर आते हुए एक बेहद सुंदर महिला को देखा। तिकोना चेहरा, लम्बी नाक, छोटी पर लम्बी काली कजरारी आँखें, गोरा रंग, चेहरे पर
मुस्कान ।
“प्रो. मिलिन्द भारती।” प्रो. इशिदा ने परिचय दिया । “और ये हैं डॉ. माया सुजुकी... आप की
इस यात्रा की संयोजक ।”
माया ने
नमस्कार किया तो मिलिन्द ने
भी हाथ जोड़ कर नमस्कार किया। हिंदी बोल और समझ लेती थीं माया। उन्होंने बातचीत में बताया कि कई साल पहले, दिल्ली की
सफाई कर्मचारियों के
उत्थान से जुड़ी एक स्वयंसेवी संस्था में साल भर काम कर
चुकी हैं वह।
वहाँ से लौट कर, वे इस विश्वविद्यालय में पढ़ाने लगीं ।
दस मिनट की बातचीत में उन्होंने मिलिन्द को
कार्यक्रम की रुपरेखा, घूमने की व्यवस्था और कब, कौन साथ रहेगा आदि सब समझा दिया। साथ ही, रोज के खर्च के लिए अग्रिम नगद जापानी मुद्रा भी दे दी
।
अब प्रो. इशिदा और माया सुजुकी दरवाज़े पर
उतारे अपने जूते पहन रहे थे, जो उन्होंने होटल के कमरे में घुसते वक़्त उतार दिए थे। मिलिन्द को भी प्रो.इशिदा ने यह
करने को कहा था और
बताया कि जापानी लोग जूते कमरे में नहीं ले जाते।
“माया, आप के
देश की सफाई व्यवस्था बहुत अच्छी है, पूरा टोक्यो चमचम चमकता है
।” रास्ते भर, शहर की सफाई को देख कर
मिलिन्द के दिल में आई बात
निकल ही गई ।
“यहाँ सफाई कर्मचारी नहीं होते मिलिन्द जी, हम सभी सफाई कर्मचारी हैं। हमें गंदगी से
घिन करना नहीं सिखाया जाता, उसे साफ करना सिखाया जाता है
। बचपन से हमें साफ रहना और सफाई करना सिखाया जाता है। अपने इलाक़े में, हमें जहाँ भी गंदगी दिखती है, हम वीकेंड पर स्वेच्छा से सर्विस देते हैं, किसी का इंतज़ार नहीं करते, अपना कूड़ा दूसरों के घरों के आगे भी नहीं फेंकते।” माया ने
मुस्कुरा कर तुरंत जवाब दिया– “और हाँ, आप को
भी इस का यहाँ ख्याल रखना होगा। कोई भी
कागज इधर-उधर सड़क पर न फेंकिएगा। जापानी बुरा मानेंगे।” मिलिन्द को अचानक यह
भी ध्यान आया कि उन्हें यहाँ रास्ते में कहीं भी
कोई सार्वजनिक डस्टबिन या कूड़ेदान नहीं दिखा था।
उन्हें फ़िर अपना गांव याद आ गया, जहाँ प्राथमिक विद्यालय में साफ कपड़े पहन लेने भर पर ऊंची जाति के लड़के उन का कितना मज़ाक उड़ाते थे ।
प्रोफेसर इशिदा ने चलते वक़्त कहा- "यहां इस होटल में खाना नहीं मिलेगा। बाहर सड़क के उस तरफ कई रेस्तरां हैं, वहाँ खा लीजिएगा ।”
घड़ी दस
बजा रही थी और उन्होंने सोचा कि कुछ देर सो लेना चाहिए। तभी दरवाजे की घंटी बजी। उन्होंने बढ़ कर
दरवाज़ा खोल दिया, सामने एक युवती खड़ी थी। शायद
वह कोई दक्षिण एशियाई युवती थी । मिलिंद की आंखों में प्रश्न था- "यस?"
“हाउसकीपिंग सर ।” उस युवती ने
पूछा तो मिलिन्द ने ना
में सिर हिला दिया ।
रूम साफ ही था और
उन्होंने अभी ही तो चेक-इन किया था । मिलिन्द सोने की कोशिश करने लगे तो
उन्हें अपने गांव
की यादें ताज़ा हो आईं। कब
सोचा था उन्होंने कि कभी जापान, रूस, अमेरिका, मिस्र, ऑस्ट्रेलिया, ब्राज़ील और स्पेन जैसे देशों में व्याख्यान देने के मौके भी मिलेंगे और ऐसे आलीशान होटलों की
सुख-सुविधाएं भी। उन
को अपने पास के गाँव की दोस्त शोभा याद आई जो बारहवीं कक्षा में, पूरे बिहार राज्य में, सब से ज़्यादा अंक लाई थी।
पटना में वह उन की सहपाठी थी और बाद में अच्छी दोस्त बन गई। सरकार ने उसे भी
दलित वर्ग के लिए निर्धारित छात्रवृत्ति दी ताकि वह आगे पढ़
सके। कॉलेज के फर्स्ट ईयर के बाद गर्मियों की छुट्टियाँ हुई। घर लौटने से
ठीक एक दिन पहले दोपहर में दोनों कॉलेज में बैठे थे।
"अब तो दो महीने बाद मुलाकात होगी?" शोभा ने धीमी आवाज़ में कहा।
"क्यों… मैं तुम्हारे गाँव आ जाऊंगा मिलने, एक किलोमीटर भी
तो दूर नहीं।" मिलिन्द ने गम्भीर स्वर में जवाब दिया।
"वहाँ मत आना… गाँव अच्छा नहीं। बेवजह मारपीट पर
उतर आते हैं लोग।" शोभा का स्वर उदास था- "मेरा गाँव जाने का बिल्कुल मन
नहीं। शहर में इज़्ज़त है। वहाँ हर वक़्त अपमान। जटिल और
कुटिल लोगों से भरी है
वो दुनिया।"
"नहीं शोभा, ये दुनिया जटिल नहीं, बहुत सरल है...एकदम सरल। ये
स्वार्थ है न
बस इसी से ही दुनिया चलती है। स्वार्थ चीजों के भी
होते हैं और भावनाओं के
भी। अगर तुन्हें दूसरों से
कुछ नहीं चाहिए तो कुटिल भी तुम्हारा क्या बिगाड़ लेगा।" मिलिन्द ने उसे समझाया- "वहाँ किसी से वास्ता मत
रखना।"
शोभा ये सुन कर हँस पड़ी-
"अरे
मेरे भोले बाबा, वो गाँव है, पटना शहर नहीं है, आप तो एकदम पटनिया हो गए
हो।" मिलिन्द खिसिया कर
बेंच के हत्थे पर हाथ फेरते हुए बोले-
"मैं
इतने दिन तुम्हें देखे बिना कैसे रहूँगा बताओ तो?"
"ओहो अभी से सद्गृहस्थ हो
गए तुम तो… झूठे कहीं के।"
उस
का चेहरा आह्लाद से दीप्त हो उठा। वह
और सुंदर दिखने लगी। प्रेम सुन्दर बना देता है, काया को, मन को, दुनिया को।
"सद्गृहस्थ होना तो
आत्महत्या करने जैसा है।" मिलिन्द ने भी
छेड़ते हुए जवाब दिया।
यह सुन कर
शोभा ने अपने कानों पर
हाथ रख लिए- "नहीं, नहीं...कम से कम
आप को ऐसा नहीं कहना चाहिए।"
मिलिन्द ने पल
भर को सोचा- "ठीक, तब शायद बिना नमक के खाने जैसा होना है, सद्गृहस्थ होना । जहाँ आत्म के लिए स्पेस नहीं बचता।"
"और गृहस्थ होना?" शोभा ने मिलिन्द की आँखों में झाँका।
"शायद किसी कम मसाले वाले भोजन की तरह।"
मिलिन्द ने कंधे उचका कर कहा।
शोभा मुस्कुराते हुए बोली- "तब गृहस्थ बनो ...
और
वही मुझे भी होने देना… यही हमारे लिए ठीक है।"
दो महीने बाद, शोभा गाँव से लौटी तो
वो वही शोभा नहीं थी। वह बहुत बदल गई। वह बहुत खामोश और सब
से कटी-कटी रहने लगी। मिलिन्द ने
कई बार उस से बात करने की कोशिश भी की, पर उस
ने बात नहीं की। "हमारी जातियाँ अलग है मिलिन्द, हमारे रास्ते बाद में भी अलग रहेंगे। मत आया करो मिलने।" शोभा ने
आख़िरी बात यही कही थी
मिलिन्द से। मिलिन्द की आँखें, उसे याद कर नम हो
गई। वे कभी भूल नहीं पाए शोभा को
और न ही फिर किसी और से जुड़ पाए। फिर जाने कब वे सो गए, जब वे उठे तो दोपहर का
एक बज रहा था।
वे तैयार हुए और बाहर निकल आए। नीचे सड़क के उस
तरफ जापानी रेस्तरां थे, परन्तु उन
सब में बीफ और पोर्क भरा था ।
मिलिन्द सिर्फ चिकन खाते थे। कुछ देर और वे
रेस्तरां ढूंढते रहे और आख़िर पूछते-पूछते एक भारतीय रेस्तरां मिल ही
गया। इस रेस्तरां का नाम ही था – इंडियन रेस्टोरेंट। हालांकि इसे चलाने वाले लोग नेपाल से थे। वे हिंदी जानते थे और
उन्होंने मिलिन्द को
दाल, चावल, चिकन और
नान दिया। नान कुछ मीठा था, पर खाना कुल-मिला कर
स्वादिष्ट था या शायद भूख ही कुछ ज्यादा तेज थी ।
अगले दिन सुबह वे तैयार हो रहे थे, शहर घूमने के
लिए। उन्हें इंतज़ार था हिरोको अराकावा का ।
दरवाज़े पर घंटी बजी तो
उन्होंने तुरंत बढ़कर दरवाज़ा खोल दिया यह सोचकर कि
हिरोको होंगी पर वहाँ वही कल वाली दक्षिण एशियाई युवती खड़ी मुस्कुरा रही थी।
‘रूम क्लीनिंग सर ।’’ उस युवती ने कहा ।
मिलिन्द एक तरफ हो गए
और वह आत्मविश्वास से भीतर आ गई ।
आते ही वह काम में जुट गई ।
उस ने बेडशीट बदली, वेक्यूम क्लीनर से
फर्श साफ़ किया और टॉयलेट साफ़ करने घुस गई । इस
बीच मिलिन्द तैयार होते रहे । पंद्रह मिनट से भी कम समय में
उस युवती ने पूरा कमरा साफ़ कर दिया। उस ने हाथों में दस्ताने पहन रखे थे ।
"आप इंडियन हैं ना सर !" उस
युवती ने चलते हुए पूछ लिया ।
“हां।" मिलिन्द ने अपनेपन से उसे जवाब दिया।
‘ग्रेट...मैं उत्तराखंड से हूँ ।” इस बार युवती हिन्दी में बोली और उसने चहक कर हाथ बढ़ाया।
‘क्या नाम है आप का ?”
“श्वेता । यहाँ पढ़ती हूँ और पार्टटाइम यह काम कर
लेती हूँ अपना खर्च निकालने के लिए, यहाँ सभी करते हैं ।” उस ने चहकते हुए बताया।
दरवाज़े पर
फिर घंटी बजी । दरवाज़ा खोला तो एक
जापानी युवती खड़ी थी, जिस की
उम्र लगभग सत्ताईस-अट्ठाईस साल की रही होगी ।
“मैं हिरोको अराकावा” उस ने मिलिन्द को हल्का सिर झुका कर अपना परिचय दिया ।
श्वेता बाहर जा खड़ी हुई । जाते हुए उस ने हिरोको से जापानी में कुछ बातचीत की
।
"वह
क्या कह रही थी ।” मिलिन्द ने हिरोको से पूछा ।
हिरोको ने
बताया कि श्वेता उस की
पुरानी दोस्त है । वे दोनों कभी साथ-साथ दिल्ली के एक विश्वविद्यालय में
पढ़े थे । श्वेता यहाँ की एक यूनिवर्सिटी से पी-एच.डी कर
रही है । हिरोको अच्छी हिंदी जानती थी । उसने हिंदी में एम.ए किया था, सन 2012 में ।
हिरोको के
साथ उस दिन मिलिन्द टोक्यो शहर के छोटे-छोटे बाज़ारों में घूमते रहे । “छोटी और
स्थानीय मार्केट में घूमना मैं पसंद करता हूँ। इन
से हम उस शहर की
आत्मा को छू पाते हैं। बड़े बाज़ार दुनिया में सब जगह एक जैसे हैं।” हिरोको उन के
उपन्यास के चरित्रों पर बात करती रही। शाम को हल्की बूंदाबांदी होने लगी तो
वे दोनों एक रेस्तरां में घुस गए, जहाँ उन्होंने डिनर किया, साथ में साके भी पी । साके का नशा अच्छा- खासा उन पर हो चुका था। हिरोको उन के साथ, हिंदी साहित्य और उन की रचना-प्रक्रिया पर बातें करते हुए, होटल के गेट तक साथ आई और फिर लौट गई।
अगली सुबह लगभग दस बजे दरवाज़े की घंटी बजी । सामने श्वेता खड़ी थी
। वह भीतर आई और
सफाई में लग गई। आज
मिलिन्द का दिन खाली था
। कोई उन्हें बाहर ले
जाने वाला नहीं था, हिरोको अचानक बीमार पड़ गई।
"आज
कहीं बाहर नहीं जा रहे सर।" श्वेता ने वैक्यूम क्लीनर स्टार्ट करने से पहले पूछा। उन्होंने हिरोको के बारे में बताया तो वह ‘ओह बुरा हुआ!’ कह कर काम में लग गई।
"आप प्रोफेसर है सर और
लेखक भी।" वैक्यूम क्लीनर बंद कर के
वह बोली- "मुझे लेखकों की जिन्दगी में बहुत दिलचस्पी है। कैसे होते होंगे ये लोग अपने निजी क्षणों में, अपनी जिन्दगी में । क्या ये
भी हमारे जैसे ही होते होंगे या कुछ अलग। कैसा होता होगा इन का
थॉट प्रोसेस ?"
अब वह
बेड की चादर बदलने लगी- "आप
अपनी पत्नी को साथ नहीं लाए।"
यह सुन कर मिलिन्द हाथ खड़े कर के
बोले- "नहीं, सोचता हूँ कि जापान की
ही किसी लड़की से शादी कर लूं। अब
वाकई सब शादी के बारे में पूछने लगे हैं।" यह सुन कर श्वेता की
आंखों में अचानक अनजाने ही
चमक आ गई। चलते वक्त दरवाज़े पर, एक पल को श्वेता रुकी और उस ने बताया कि वह एक
बजे तक काम से फ्री हो जाएगी और
अगर वे चाहें तो शहर साथ-साथ घूमा जा सकता है
। मिलिन्द को यह सहयोग देख कर बहुत खुशी हुई और उन्होंने तुरंत हामी भर दी ।
ठीक एक
बजे आ गई श्वेता। उस
के हाथों में था साकुरा का एक गुच्छा, छोटी सी
टहनी समेत। “फॉर ए
ग्रेट इंडियन राइटर ।” उस ने
बहुत ही नाटकीय अंदाज़ में मिलिन्द के हाथों में वह टहनी पकड़ा दी और
उन से बढ़ कर गले लग गई। काफी मस्तमौला क़िस्म की लड़की लगी वह मिलिन्द को । वे
पहले से ही तैयार बैठे थे, चलने के
लिए। दोनों बाहर निकल गए
। पास ही के मेट्रो स्टेशन से उन्होंने मेट्रो ली और
टोक्यो टॉवर पहुँच गए ।
दोनों बाजारों और फिर अलग-अलग मुहल्लों की गलियों में घूमते रहे। खाते, पीते, बातें करते, कब वक़्त गुज़र गया, पता ही नहीं चला। तीन घंटे बाद ही रात घिर आई।
“मैं पोर्क और बीफ नहीं खाता ।” रेस्तरां में रात के खाने का आर्डर करने से पहले ही
मिलिन्द ने श्वेता को बता दिया ।
वह यह
सुन कर मुस्कुराई– ‘खाना चाहिए सर, मैं तो खाती हूँ ।
ताकत मिलती है ।’’ उस ने
आंख मारते हुए कहा । “मैं तो खा
सकती हूँ न ?’’
मिलिन्द ने बहुत ही अस्वाभाविक ढंग से हाथ नचाते हुए कहा- “आप के खाने पर मुझे भला क्यों एतराज होना चाहिए ?” वे उस के
इस तरह आंख मारने और
ताकत के आशय को समझ कर वाकई कुछ असहज से हो गए
। "खाने-पीने में सब की अपनी-अपनी पसंद होती है।"
“ऑक्टोपस की
डिश खाना पसंद करेंगे आप ?’’ श्वेता ने
पूछा तो मिलिन्द फिर से
थोड़ा अचकचा गए। अब ये नई मुसीबत, पर श्वेता की कही पिछली बात याद आ गई- “कोशिश करता हूं ।’’ लेकिन, ज़ोर नहीं था कहने में।
“आप बहुत सुंदर है मिलिन्द सर ।” श्वेता ने
खाना खाते हुए, कुछ देर बाद, आँखों में आँख
डाल कर
कहा ।
“शुक्रिया।” हालांकि मिलिन्द थोड़ा झेंप गए, पर जवाब में उन्होंने भी कहा- "खूबसूरत तो आप भी हैं ।"
श्वेता लगातार बोले जा
रही थी । मिलिन्द ने इसे इस तरह लिया कि उसे विदेश में कोई अपने देश का मिल गया है, इसलिए वह
ख़ूब बातें कर लेना चाहती है। उसकी बातों से मिलिन्द का
भी अच्छा वक्त गुज़रता रहा। श्वेता की तेज नज़र ने
उन की झेंप को पकड़ लिया था- “क्या उम्र है प्रोफेसर साहब की ?” उस का
लहज़ा बदला।
“सैंतीस ।” बदले हुए सुर पहचान लिए मिलिन्द ने।
“नज़र न
लगे पर आप सैंतीस के
नहीं लगते जी ...ज्यादा से
ज्यादा तीस के ।” श्वेता की
आँखों में आई शरारत को
मिलिन्द भाँप गए ।
“शुक्रिया श्वेता, ये सब कुदरत का खेल है
।” वे सिर नीचा कर के खाना
खाते रहे ।
“शराब तो पीते
हैं न ।”
“हाँ कभी-कभी ।”
“चलिए तो
फिर आज हम साके पिएंगे, यहाँ की मशहूर वाइन... पिएंगे न ?” उस की
आवाज़ में सिर्फ अनुरोध नहीं था, एक आग्रह था, अजीब सा निमन्त्रण । मिलिन्द ने हाँ कर दी। "कल
हिरोको के साथ भी पी
थी।"
उस ने
साके मंगा ली । अब
वे पी रहे थे ।
श्वेता ने जल्दी ही तीन गिलास खाली कर
दिए । साके वाक़ई बेहतरीन वाइन थी
।
जब रेस्तरां से निकले तो
अच्छा सुरूर हो चुका था
। वे होटल के कमरे में लौट आए
। वह बहुत देर इधर-उधर की बातें करती रही ।
रात के ग्यारह बजने को
आए ।
मिलिन्द ने
उसे वक़्त का अहसास कराने की गरज से
कहा- “आप का
घर कितनी दूर है श्वेता ।”
“वहाँ कोई नहीं है सर
। सिर्फ अकेलापन है ।
यहाँ अकेलापन बहुत है सर
।” कहते हुए उस ने दोनों पाँव फैला कर
सामने टेबल पर रख दिए। "चार साल से मैं यहाँ एकदम अकेली हूँ। यहाँ रहे बिना, इस तनहाई को
आप कभी महसूस नहीं कर
सकते।" वह कहीं अनंत में खो गई। "क्या
आप के पास थोड़ी और
वाइन होगी।" वह
उन की आंखों में झांक रही थी, आत्मीयता से।
अब मिलिन्द के लिए कोई परदा नहीं रहा जैसे झील के पारदर्शी पानी में पड़े गोल पत्थर
दिखाई देते हैं, वैसे ही
सब साफ था । पर
मिलिन्द की हिम्मत नहीं हुई ।
मिलिन्द ने
कंधे उचकाते हुए कहा- ‘नहीं, वाइन तो
नहीं है, पर हां, व्हिस्की जरूर है
जो मैं भारत से लाया हूँ।’
‘अरे वाह, ग्रेट...मज़ा आ गया, प्लीज़ निकालिए ना
उसे।’ वह उतावली सी हो गई।
मिलिन्द ने
अपने सूटकेस से वह बोतल निकाली। श्वेता ने
तुरंत ही दो पैग बना डाले और चीयर्स बोलते हुए उसे एक ही सांस में गटक गई। अब उस ने
अपने लिए दूसरा लार्ज पैग भर लिया।
मिलिन्द ने
इस बीच एक बार फिर अपनी घड़ी देखी, साढ़े ग्यारह बजने
को आए। ‘क्या तुम्हें इस वक्त मेट्रो ट्रेन मिल जाएगी।’ वे अब भी
ऊहापोह में थे कि आगे क्या होने वाला है। कुछ भी
तय नहीं हो रहा था, उन के दिमाग में। विचारों के
नए-नए नक्शे बनते और धुँधला जाते।
"वहां जा
कर अब क्या करूंगी, कौन है
वहां जो मेरा इंतजार कर
रहा होगा, सूनी दीवारें।" उस
की उन्मुक्त हँसी कमरे में चमकीले मोतियों सी
बिखर गई जिस में मिलिन्द ने शहद से तर-बतर, कई चांद चमकते हुए देखे। "सब के पास दोस्त हैं...श्वेता एक तुम ही हो, एकदम अकेली यहाँ पर, चार साल से अकेली ।"
वह खुद से बोलती रही कुछ-कुछ। कुछ
देर वह भारत को याद करती रही। दिल्ली और उत्तराखंड को
। उस ने बताया कि
गांव में उन की काफी जमीन है, जिस पर
खेती होती है। फिर उस
ने विश्वविद्यालय के मस्ती भरे दिनों को
याद किया ।
“क्या आप
बूढ़े हो गए हैं सर !” कहते हुए श्वेता ने अचानक अपने दोनों हाथ मिलिन्द के कन्धों पर
रख दिए ।
मिलिन्द को
लगा कि जैसे उन के
पूरे शरीर में गर्मी की
लहर दौड़ गई हो ।
उन्होंने खुद को संभाला, हालांकि उन्हें इस साहचर्य की
वाकई ज़रूरत थी, पर उन्होंने अपने मन को संभाला। समय का ये
छोटा सा अंतराल बहुत मुश्किल वक़्त था मिलिन्द के लिए।
मिलिन्द ने
खुद को भरसक संभालते हुए स्पष्ट शब्दों में कहा- हाँ शायद, इसीलिए मुझे अब नींद भी
आ रही है।"
हालाँकि इन
शब्दों में आत्मा नहीं थी, इसलिए उन दोनों के बीच वे
निस्पंद पड़े रहे। श्वेता की
बड़ी-बड़ी आँखे और पुष्ट देह उन्हें बहुत तेजी से अपनी तरफ खींच रही थी
और वे बहुत तेजी से
उस में बहे भी जा
रहे थे, पर वे इस से बचना चाहते थे । वे इस नशे में भी, ये नहीं भूल पा रहे थे कि वे विदेश में हैं, जहाँ उन्हें बहुत इज़्ज़त के साथ बुलाया गया है।
“नींद...। ” कह कर
श्वेता जोर से हँसी । “आप भी
न सर...स्वर्ग सोने के
लिए होता है!” उन की हिचक को तोड़ते हुए वह आगे बढ़ी और उस ने मिलिन्द के होंठो को
कसकर चूम लिया और सामने वाली कुर्सी पर जा
बैठी- “बुढ़ापे में हम
दोनों बैठ कर इन्हीं यादों को याद कर
मुस्कुराया करेंगे।’’
मिलिन्द के
मन में विचारों का बवंडर सा घूम रहा था
। उन के माथे पर पसीना चमचमा आया। ये सिर्फ मुझ से कुछ पैसा चाहती है
या मैं इसे वाकई अच्छा लग गया हूँ ? क्या ये
सिर्फ़ इस की
प्राकृतिक जरूरत है
जो बहुत वक्त से इसे मथ रही है ? पर कहीं किसी को पता चल
गया तो...नहीं नहीं यहाँ हमें
कोई नहीं जानता, और अब जैसे किसी भंवर में जा गिरे थे मिलिन्द ।
उसे बांहों में कस कर निचोड़ देना चाहते थे
वह, पर आश्चर्य कि उन से
अपनी जगह से हिला तक
नहीं जा रहा था। उन्होंने मोबाइल में आए वाट्सअप के
संदेश पढना शुरू कर दिया, जिन्हें वे पहले भी पढ़ चुके थे, पर आँखे
मोबाइल पर और दिमाग श्वेता के आस-पास तैरता रहा । एक
तूफ़ान चल रहा था उन
के भीतर। ‘किसी को कुछ नहीं पता चलेगा कभी ।’ मिलिन्द बार-बार खुद को
तैयार करने लगे अब । “खुद राज़ी है वह तो, रुकना चाहती है
रात भर। समझो मिलिन्द किसी की जरूरत पूरी करना बिल्कुल गलत नहीं है, यह तो
नेक काम है, नेक काम, नेकी का काम है यह।”
पल के जाने कौन से हिस्से में, वे मंत्रबिद्ध से उठे और श्वेता को
बाहों में भर लिया। श्वेता भी उन से ऐसी लिपटी कि दोनों
मिल कर जैसे एक हो
गए। वह उन्हें बेतहाशा चूमने लगी। आवेश में उस ने
उन के होंठो को इतना कस कर काटा कि खून चमचमा आया पर उस ने होंठो को फिर भी छोड़ा नहीं।
श्वेता को
बाहों में ले कर उन्होंने उसे हौले से
बेड पर लिटा लिया और
कुछ मिनट बाद ही श्वेता भयानक रूप से आक्रामक हो गई।
"ओह्ह एकदम राक्षस।" वह मदहोशी में बुदबुदाई और मिलिन्द को कस कर भींच लिया।
ठीक इसी समय उत्तेजना और आवेश के इसी क्षण में मिलिन्द ने मजाकिया लहजे में, धीमे से, उस के कान में कहा- "दलित जो हूँ...।" इतना कह कर
उन्होंने श्वेता के होंठों को कस कर अपने दाँतों से दबा लिया, बहुत देर तक।
यह वाक्य श्वेता की चेतना में किसी जहरीले बाण की तरह जा धंसा। अचानक उस के हाथों की पकड़ ढ़ीली हो गई। उस की सारी उत्तेजना जैसे एक
ही पल में ठंडी सी हो
गई...एक
निर्जीव देह में बदल गई वह। उधर मिलिन्द किसी समुद्री तूफ़ान की तरह बहके हुए थे और श्वेता की निष्क्रियता बहुत देर तक, इस प्रचंड वेग के सामने ठहर नहीं सकी और किसी छोटी नौका की तरह उलट-पलट गई। ऐसा नहीं कि उस के मन में प्रतिरोध नहीं उठा, उठा था, कई बार उठा, पर मिलिन्द को दूर हटाने को उस का मन साथ नहीं हुआ, उफ़्फ़...किसी दुर्दमनीय सम्मोहन में थी जैसे वह । वे जैसा-जैसा कहते गए, श्वेता किसी मंत्रबिद्ध युवती सी सब करती चली गई। मिलिन्द इस क़दर गहराई में डूबे थे कि उन का ध्यान, इन सब मामूली लहरों पर बिल्कुल ही नहीं गया।
जाने कब मिलिन्द की आँख लगी और जाने कब श्वेता वापस गई, मिलिन्द को याद नहीं, उन की नींद जब खुली, तब आठ
बज रहे थे। वे ग्यारह बजे तक श्वेता का इंतज़ार करते रहे, पर वह
काम करने नही आई।
वे होटल से निकल कर
विश्वविद्यालय पहुँच गए, जो दस मिनट का पैदल भर का
रास्ता था ।
विश्वविद्यालय में ही आज के लंच की
व्यवस्था थी । अनेक लोगों से माया ने
उन्हें मिलाया, पर वे किसी का नाम ठीक से याद न
रख सके। यह सब उन
के लिए नए नाम थे और दूसरा वे अभी तक श्वेता के शहद के
छत्ते में अटके हुए थे। “और आप
हैं प्रो. स्नेह त्रिपाठी...आप यहां तीस साल से अंग्रेजी पढ़ा रही हैं।”
परिचय के
बाद सभी खाना लेने लगे, प्रो. स्नेह त्रिपाठी, मिलिन्द को हर
खाने के बारे में बताती जातीं और वे
हर अगली डिश के नाम के बाद पुरानी डिश का नाम भूलते जाते ।
अपनी-अपनी प्लेटों में खाना ले
कर वे दोनों साथ-साथ बैठ गए। भारत और
जापान के खाने के बारे में बातें होते होते दलित साहित्य पर आ गयीं। प्रो. स्नेह ने बताया कि उन्होंने मराठी से कुछ दलित कविताओं का
अंग्रेजी में अनुवाद किया है और अगर मिलिन्द उन्हें सुनें तो उन्हें और उन के पति
मिस्टर कुलकर्णी को
बहुत अच्छा लगेगा। कुलकर्णी गोत्र सुन कर मिलिन्द समझ गए कि उन के पति मराठी हैं। प्रो. स्नेह ने बहुत आत्मीयता से मिलिन्द को रात के खाने पर आमंत्रित किया, परन्तु पहले से अपनी कोई व्यस्तता बता कर
उन्होंने मना कर दिया। “तब परसों आइए।” इस पर भी मिलिन्द ने
माफी मांगते हुए अपनी असमर्थता जताई और कहा कि उन का
पूरा कार्यक्रम पहले से तय है।
लंच के
बाद कार्यक्रम शुरू हुआ । उनकी आत्मकथा, उपन्यास और कुछ कहानियों पर
विद्यार्थियों और अध्यापकों ने अनेक सवाल पूछे । लगभग हर किसी ने
पूछा- "क्या
वहाँ अब भी छुआछूत और जातिगत हिंसा है।" श्रोताओं में वाक़ई बहुत उत्साह और
उत्सुकता थी । कुछ लोगों ने उन के
उपन्यास पर ऑटोग्राफ लिए और
साथ में फोटो भी खिंचवाई। पर मिलिन्द के
मन में सिर्फ़ श्वेता घूम रही थी, चकरघिन्नी की तरह। श्वेता की चुलबुली बातें और उस
की गंध उन्हें बेचैन कर
रही थी, रह रह कर, कल रात की यादें उन्हें गुदगुदा देती। उस का
चुम्बन अब भी उन का
पीछा कर रहा था ।
उन का ध्यान अपने होंठों पर गया, वह मुस्कुरा गए। वह सोचते और विचारों को
झटक देते पर वे भूखे प्यारे मेमनों की तरह पीछे पड़े थे, जो किसी तरह पीछा छोड़ने को तैयार नहीं थे।
“अब सेहत कैसी है हिरोको ?” मिलिन्द ने सामने खड़ी हिरोको से पूछा तो
उस ने मुस्कुरा कर जवाब दिया– "अब
अच्छी है।"
रात का
खाना उन्होंने एक
जापानी लेखक यूताका फूजी और
हिरोको के साथ एक जापानी रेस्तरां में खाया । युताका की
दिलचस्पी जाति-व्यवस्था के
वर्तमान स्वरूप को
जानने में थी। शुशी के
अलावा दूसरे खाने भी उन्होंने खाए और एक गिलास साके भी
पी । आज उन्हें खाने और साके का
स्वाद वाक़ई अच्छा लगा ।
खाने के बाद हिरोको उन्हें होटल के
दरवाज़े तक छोड़ कर लौट गई ।
अगले दिन सुबह से ही
उन्हें श्वेता का
इंतज़ार था क्योंकि कल भी
उन के जाने के बाद कमरा साफ़ किया गया था ।
उन के फैले हुए कपड़े, बेड पर तह
किए हुए रखे मिले। दस
बज गये पर कोई न
आया । उनका मन न
कुछ पढ़ने में लग रहा था, न लिखने में । अजीब पागलपन सा था। सात-आठ सिगरेट पी चुके थे
अब तक वे । देखते-देखते साढ़े ग्यारह बजने को आए
। यूनिवर्सिटी से कई
बार फ़ोन आ चुका था, माया और
हिरोको का । एक बार प्रो. इशिदा ने भी किया ।
मिलिन्द ये जानते हुए भी
कि ये अशोभनीय व्यवहार है, वे ऐसा कर
रहे थे, वे विवश थे- “बस अभी निकल रहा हूँ ।” कह कर मिलिन्द सभी को टालते रहे । उन्हें श्वेता से मिलने की बेताबी थी। कई बार वे गलियारे में देख आए।
दूसरी पंक्ति के कमरों तक
घूम आए। उन्होंने घड़ी देखी, पौने बारह बज गए ।
अब हार कर वे उठे और कमरे से
बाहर निकल गए । गलियारे से वे फिर लौटे और उन्होंने कुछ कपड़े बेड पर फेंक दिए ।
रात दस
बजे वे लौटे तो कमरे में सब कुछ व्यवस्थित था ।
कपड़े तह किए हुए पलंग पर, टॉयलेट में टॉयलेट पेपर, टॉवल, शेविंग किट सब कुछ रखा था। बस नहीं थी तो श्वेता नहीं थी । वह कहाँ गई ? मिलिन्द तड़प गए।
यह पाँचवा दिन था और
अगले दिन सुबह उन्हें ग्यारह बजे होटल छोड़ देना था ।
कल जाने से पहले वे
एक बार श्वेता से मिल लेना चाहते थे
वे । पर किस से
पूछते ? होटल के
डेस्क पर पूछना बेशक अभद्रता होती ।
ग्यारह बजे तक वे इंतज़ार करते रहे पर
कोई नहीं आया । आखिर उन्हें होटल से
जाना पड़ा । आज माया, प्रो. इशिदा और दो एक अन्य विद्यार्थी साथ थे
।
“हिरोको नहीं आई ?’ मिलिन्द ने माया से पूछा ।
“नहीं... अभी आने वाली है। कल
वही आप को एयरपोर्ट वाली बस तक छोड़ने भी जाएगी ।”
वे आज
दिनभर घूमते रहे । कुछ देर बाद हिरोको भी आ गई। संसोजी बुद्ध मन्दिर, नाकामिसे शॉपिंग स्ट्रीट, अमेया योकोचो मार्किट । एक
काफी हाउस में सब ने
कॉफी पी । इशिदा, माया और
विद्यार्थी कॉफी पीने के बाद अपने-अपने घर चले गए । शाम घिर आई थी। अब
हिरोको और मिलिन्द ही थे
और उन दोनों ने एक
पब में बीयर पीने का
मन बनाया ।
कुछ खाने-पीने के बाद मेट्रो से लौट रहे थे वे
दोनों । मेट्रो लगभग खाली थी । ट्रेन की उदघोषणा से
पता चला कि शिनगावा मेट्रो स्टेशन आने वाला है । शिनगावा के बाद तमाची स्टेशन पर उतरना था उन्हें ।
स्टेशन बहुत रोशन और साफ-सुथरे थे, कहीं कोई बदबू तक नहीं ।
“भारत में वायरस के फैलने की वजह से
कई मौते हो गईं ।” हिरोको ने धीमी आवाज़ में कहा ।
मिलिन्द ने ‘हम्म’ में जवाब दिया । मिलिन्द को याद आया कि नरीता एअरपोर्ट पर उतरने के
बाद सभी यात्रियों का मेडिकल चेकअप हुआ था
। डाक्टरों ने संक्रमण के
लक्षण देख कर ही रोका होगा उन दो
लोगों को ।
हिरोको की
आवाज़ में उदासी थी- "ये दुखद है, वाक़ई दुखद...इंसान का
इस तरह मरना, मनुष्य की
ज़िंदगी बेशकीमती है ।”
तमाची स्टेशन पर वे दोनों उतरे। हिरोको स्टेशन से बाहर तक
उन्हें छोड़ने आई। यहाँ इस वक़्त ट्रैफिक बहुत कम था। लोग दफ्तरों से अपने घर जा चुके थे। मिलिन्द पशोपेश में थे कि
श्वेता के बारे में वे
हिरोको से कुछ पूछें
या नहीं । उन्होंने घड़ी देखी। संकोच उन्हें घेरे खड़ा था।
“श्वेता कहाँ गई ?” वे खुद को रोकने में असफल रहे ।
“कहीं नहीं, वो तो यहीं है।” हिरोको ने निर्लिप्त भाव से
जवाब दिया और दूसरी ओर देखने लगी, जिस तरफ से अभी
किसी मेट्रो ट्रेन के रुकने की आवाज़ आई थी।
“वह मुझ से उस
एक दिन के अलावा कभी मिली नहीं, जब आप बीमार थीं, उसी ने उस दिन मुझे घुमाया-फिराया, काफी वक्त दिया ।” हिचक थी, पर मिलिन्द मजबूर थे।
"जी, मुझे ये याद है।"
हिरोको के
चेहरे पर उदासी छा गयी । वह फिर से उसी
दिशा में देखने लगी। "क्या मैं चलूँ?"
मिलिन्द अधीर
से हो गए। उन्होंने बेचैनी में उंगलियाँ चटकाई। हिरोको, श्वेता के बारे में बात करने में कुछ भी दिलचस्पी नहीं दिखा रही थी और
ये रवैया उन्हें अधिक उलझन में डाल रहा था।
मिलिन्द से अंततः नहीं रुका गया और उन्होंने बेलिहाज़ हो कर कह ही दिया-
"मैं
उसे धन्यवाद देना चाहता हूँ... क्या आप उन से मेरी बात करा सकेंगी। श्वेता को मैंने फ़ोन किया था
पर…। "
हिरोको ने
उन की आँखों में आँख डाल कर कहा- “क्या आप वह
सुन सकेंगे, जो उस
ने कहा । यह काफी दुखद है ।
बताने से पहले ही मैं इस के लिए क्षमा चाहती हूँ।” मिलिन्द ने
मुश्किल से हाँ में सिर हिलाया ।
“श्वेता आप से बात नही करेगी
अब, उस ने काफ़ी नफरत से कहा कि
मैं उस व्यक्ति के बारे में कुछ जानती नहीं थी... आखिर उसके सामने, उस का टॉयलेट, उस का कमरा कैसे साफ़
कर सकती हूँ, वह अछूत है, हमारे घरों में काम करने वाले, हमारे नौकर हैं ये लोग।” हिरोको की आवाज़ में दुख था। उस ने बताया कि श्वेता एक हफ़्ते की छुट्टी पर है, उसी दिन से, सिर्फ इसी वजह से।
‘ओह...।’ मिलिन्द को
लगा जैसे उन्हें किसी ने
मलकुण्ड में फेंक दिया हो। जाति की वजह से उन्हें कई
बार अपमानित होना पड़ा था, पर यह जो
श्वेता ने किया, उस ने भीतर तक उन्हें झकझोर दिया। वह रात उन
की आंखों के सामने घूम गई। उन्होंने अपने चेहरे पर हाथ फेरा, जिसे श्वेता ने
सुन्दर कहा था। अपने होंठों पर उन्होंने जीभ फेरी, जिसे श्वेता ने उन्माद में काट लिया था। अपमान से
उन का रोम-रोम जलने लगा। " ओह्ह मैंने उस
दिन खुद को दलित बोला इसलिए ये सब
हुआ और अगर मैं खुद को ब्राह्मण या
राजपूत बोलता तो।" उन के मन में उथल-पुथल सी मच
गई। लेकिन कुछ पल
बाद उन्होंने खुद
को संभाल लिया- “शुक्रिया हिरोको, वाकई दुख की बात...पर वे नहीं जानते कि वे
क्या कर रहे हैं, उन पर
दया की जानी चाहिए ।
वे नहीं जानते कि बदलाव के इन पहियों को अब उन
का कोई भगवान भी नहीं मोड़ सकता। उन्हें अब इस सब को स्वीकार करना ही होगा । श्वेता स्त्री है, सब से ज़्यादा शोषित, हर जगह, हर जाति, धर्म और देश में, फिर भी... ।”
हिरोको की
मासूम आँखों मे नमी सी
आ गई- “आप ठीक कहते हैं मिलिन्द सान । अफसोस
कि वह ऐसा सोचती है!”
मिलिन्द दूसरी तरफ अनंत में नज़रें गड़ाए हुए, कहीं खो गए
थे। हिरोको उन की मन
की हालत समझ रही थी, इसलिए वह कुछ देर रुकी रही।
"मुझे क्षमा करिएगा, कल आती हूँ मैं।" कह कर हिरोको लौट गई।
वे सोच रहे थे कि
हैरानी की बात है कि भारत
से इतनी दूर भी इस
वायरस का संक्रमण फैला हुआ है । वे
कल फिर उसी संक्रमित क्षेत्र में लौट रहे थे, जहाँ वायरस का विषैलापन हर
तरफ पसरा पड़ा था, मुंह खोले।
साकुरा की
महक फैली हुई थी यहाँ हर तरफ। वह
महक जो उन्हें पिछले पाँच दिनों से जीवन-ऊर्जा से भरे हुए थी, अब उन के
पोर-पोर से
जैसे छीजती-सी महसूस हुई ।
उन की आँखों के सामने साकुरा का गुच्छा था, छोटी सी टहनी समेत और कानों में गूंज रहा था- "फ़ॉर ए ग्रेट इंडियन राइटर।"
एक लंबी साँस ली
मिलिन्द ने और सोचा "हम सम्मानित भारतीय नागरिक हैं… वी द पीपल ऑफ इंडिया… ?" फिर हल्के से वे मुस्कुरा गए । वे धीमे कदमों से होटल की तरफ चल
पड़े। उन के मन में विचारों का झंझावात मचा था। "श्वेता ही
क्या अलग कर रही है? ज़्याफ्तार तो ऐसा ही करते हैं। क्या दलित स्त्री की हालत भी
ऐसी ही नहीं है दलित समाज में? क्या वे
भी वहाँ आदमियों की गुलामों की तरह ही
नहीं जीती हैं?" उन का गुस्सा कुछ कम हुआ, अपमान का बोध हल्का हुआ और
विवेक प्रबल हो उठा।
तभी सामने से इंडियन रेस्तरां चलाने वाला वह
नेपाली नवयुवक आता दिखाई दिया। उस
के सिर पर आज नेपाली टोपी थी।
“अरे वाह, कैसे हो दाज्यू?” उस ने आते ही मिलिन्द से
पूछा । "कहाँ
खोए हो! "
“ठीक हूँ, कल जा रहा हूँ वापस।”
“इतनी जल्दी दाज्यू।” कह कर
वह साथ-साथ चलने लगा । "चलिए रेस्तरां में चलिए कुछ देर । आप
को अपनी बनाई शराब पिलाता हूँ आज ।
हम बना लेते हैं अपने लिए।” उस ने मुस्कुरा कर आँख मारी।
मिलिन्द उस
के साथ चल पड़े ।
रेस्तरां में उस ने उन्हें अदरक से बनाई एक
विशेष शराब पिलाई । वाक़ई उम्दा शराब थी
वह । ये चोरी से खुद अपने लिए बनाते थे।
कुछ खिलाया भी साथ मे
पर जब मिलिन्द चलते वक़्त पैसे देने लगे तो वह हाथ जोड़ कर खड़ा हो गया- "ये नहीं लूँगा, ये छोटे भाई की तरफ से था।" उन के
प्रेम में डूबे मिलिन्द होटल लौट आए । “अगर अपने बारे में न बताओ तो सब जगह कितना प्रेम है, कितना आदर ।” मिलिन्द अपनी इस
भारतीय नियति
पर हँस पड़े।
होटल के
कमरे में पहुंच कर उन्होंने कपड़े बदले और
लेट गए। कुछ देर ही
बीती थी कि उन के
मोबाइल पर संदेश चमका। नाम देख कर वे
उछल से गए और सांस रोक कर संदेश पढ़ गए, मन नहीं भरा उन का
तो फिर पढ़ा, बार-बार पढ़ा, कई बार पढ़ा, श्वेता का संदेश था।
"प्रिय मिलिंद, मैं बेहद शर्मिन्दा हूँ। हो सके तो मुझे माफ़ कर देना। हम
मजबूर हैं, हमारा सब-कॉन्शियस माइंड भी
शायद ट्रेंड कर दिया गया है। इस में, हम उतने दोषी नहीं हैं, जितनी हमारी फैमिली या सोसाइटी के लोग दोषी हैं, वो ट्रैनिंग और
वैल्यू-सिस्टम दोषी है, जो हमें सोचने का ये
ढंग देता है।
इन तीन दिनों में, मैंने आप
की आत्मकथा पढ़ी और पहली बार उस दुख और अपमान को
जाना और महसूस किया, शायद पहली बार इस तरफ़ ध्यान गया कि
आप के लोगों को कैसे मजबूर किया जाता है, कैसे गुलाम बनाए रखा जाता है और वो
लोग कैसे ताकतवर बने रहते हैं। आप ने
ठीक ही लिखा है कि
औरतें हर जगह गुलामों की
भी गुलाम होती हैं ।
जाति की ये व्यवस्था, इस्पात से
भी मजबूत और हवा सी
अदृश्य है। मरने के बाद भी ये अपनी क़ैद से आज़ादी नही देती। हमें क्या, देवताओं तक को जाति की
इस महामारी ने संक्रमित कर
रखा है। मैंने सोचा कि
क्या हम सवर्ण औरतों की
भी हालत, इस दमघोंटू पैट्रिआर्क सिस्टम में कमोबेश आप के
लोगों जैसी ही नहीं है? क्या हम भी
उस ढाँचे में मामूली से
ग़ुलाम या कीड़े-मकोड़े ही
नहीं हैं ? बस थोड़े अलग वाले गुलाम। आप ने ठीक लिखा है कि
कोई भी औरत, अगले जन्म में, अगर कोई पुनर्जन्म होता है
तो फिर से औरत नहीं बनना चाहेगी… आखिर क्यों चाहेगी ? हर वक़्त की गुलामी, हर वक़्त अपमानित होने को
आशंकित और अभिशप्त।
पर प्रिय मिलिन्द, संक्रमण सिर्फ बुरा ही नहीं होता, अच्छा भी होता है । आप
के लिखे से जो संक्रमण हुआ, भला हुआ। असली संक्रमण तो
अब हुआ है।
आप की
फ्लाइट कल दोपहर दो बजे की है। हिरोको ने अभी कुछ देर पहले मुझे बताया कि वह
आप को छोड़ने एयरपोर्ट जाने वाली बस तक
जाएगी। नौ बजे वह आप
के पास आएगी।
क्या मैं आप से मिलने सुबह सात बजे आ सकती हूँ?
आप के
जवाब के इंतजार में।
श्वेता
बहुत देर सोच-विचार करने के बाद उन्होंने संदेश के जवाब में लिखा- "ओके।"
-
अजय नावरिया
एसोसिएट प्रोफेसर, हिन्दी विभाग
जामिया मिल्लिया इस्लामिया विश्वविद्यालय
नई दिल्ली- 110025
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