परसाई जी के चुटीले और बेधक व्यंग्य लेखन के पीछे क्या कारण थे और एक हाई स्कूल का मास्टर किस तरह देश का प्रख्यात व्यंग्य लेखक बना यह जानने के लिये परसाईजी पर उनके समकालीन साथियों के संस्मरण बहुत अच्छा जरिया हैं। हिन्दी दैनिक देशबन्धु के प्रकाशक मायाराम सुरजन भी उनके ऐसे ही समकालीन थे। मायाराम सुरजन और परसाई जी का करीब चालीस साल का साथ रहा। अपनी पहली किताब, जिसकी कीमत ड़ेढ़ रुपये थी, परसाई जी ने मायाराम सुरजन को दो रुपये में टिका दी। अठन्नी वापस मांगने पर परसाईजी ने जबाब दिया था- ’क्या आठ आने का स्नेह नहीं हो गया!’ आठ आने के स्नेह से शुरू हुयी यह मित्र-यात्रा ताजिन्दगी चली। जब देश की तमाम पत्रिकाओं ने परसाईजी के सरकार विरोधी तीखे तेवरों के चलते उनके लेख छापना बंद कर दिया था तब परसाई की कलम को पूरी आजादी दिये कोई बैठा था तो वह था मायाराम सुरजन ’देशबंधु’। इसमें परसाई को छूट थी कि वह महात्मा गांधी से लेकर मायाराम सुरजन तक, सब पर जैसा प्रहार करना चाहें करें। परसाईजी और मायाराम सुरजनजी के मित्रता संबंधों की एक बानगी उनके आपस में लिखे खुले पत्र-व्यवहार से मिलती है। मायाराम सुरजन द्वारा यह लेख परसाईजी के 1981 में प्रकाशित हरिशंकर परसाई के व्यक्तित्व और कृतित्व पर केन्द्रित पुस्तक ‘आंखन देखी’ में संकलित है। परसाई जी के व्यक्तित्व के ताने-बाने को समझने के लिये इससे काफ़ी मदद मिलती है।
हरिशंकर परसाई से पहला परिचय हुए लगभग तीस साल हो गये। इतने
वर्षों के मित्रता-प्रसंग को सिलसिलेवार लिख पाना यों ही कठिन काम है। तिस पर वह
परसाई जैसे व्यक्ति के बारे में जिसकी अपनी निजी जिन्दगी केवल दूसरों की समस्याओं
की कहानी हो, अपनी कहने को कुछ नहीं। शायद इस लेख में मुझसे यह अपेक्षा भी
नही की जा कि मैं उनके साहित्यिक व्यक्तित्व के बारे में कुछ कहूं। और सच तो यह है
कि इस सम्बन्ध में मुझसे अधिकारी वय्क्ति बहुत हैं। मेरी अपनी कठिनाई यह है कि जिस
आदमी से कभी उसके सुख-दुख की चर्चा ही न हुई हो उसके निजी जीवन के बारे में क्या लिखूं!
जब कभी कोई बात होती भी है तो यही कि अमुक मित्र के यहां मदद करना है या कि अमुक
सेमिनार हाथ में लिया है इसे पूरा करना है।
काम-काज का यह लेन-देन इकतरफ़ा नहीं है। 1962 में
जब मैं ’नई दुनिया’ जबलपुर (अब नवीन दुनिया) से अलग हुआ तो यह निर्णय परसाई का ही
था कि मुझे जबलपुर नहीं छोड़ना चाहिये। यह भी लगभग उनका ही फ़ैसला था कि जबलपुर से
ही एक दैनिक शुरू किया जाये। अखबार शुरू करने का इरादा तो ठीक है। इसके लिये पूंजी
का क्या इंतजाम होगा। सो एक ’पब्लिक लिमिटेड कम्पनी’
बना डाली गयी। गोकि उसमें हजार दो हजार
देने वाले चार-छ: लोग भी शामिल हुये लेकिन सौ-सौ रुपये देने वालों की संख्या
सैकड़ों में है। रूपराम पान वाले और लोकमन पटेल होटल वाले जैसे अनेक सदस्य परसाई की
ही देन हैं।
1949-50 में
जब मैं ’दैनिक नवभारत’ के जबलपुर संस्करण के प्रकाशन के सिलसिले में जबलपुर आया तब
परसाई को अपने समय के सुयश प्राप्त साप्ताहिक ’प्रहरी’ के माध्यम से पढ़ता-सुनता रहा था। मैं नहीं कह सकता कि उन्होंने
लिखना कब शुरू किया,लेकिन मेरा ख्याल है कि ’प्रहरी’ में प्रकशित उनकी रचनायें प्रारंभिक ही रही होंगी। उन दिनों
जबलपुर के अधिकांश चोटी के राजनीतिज्ञ साहित्य में भी बराबरी का दखल रखते थे। चाहे
स्व. सेठ गोविन्द दास हों या पं द्वारिकाप्रसाद मिश्र, स्व. चौहान दम्पत्ति
(श्रीमती सुभद्रा कुमारी चौहान और श्री लक्ष्मणसिंह चौहान) हों या स्व. श्री भवानी
प्रसाद तिवारी, राजनीति के साथ साहित्यकारों की श्रेणी में अपना विषिष्ट स्थान
बना चुके थे। या यों कहना अधिक ठीक होगा कि वे साहित्यकार होने के साथ ही साथ
राजनीति में पूरे दमखम से थे। साहित्य और राजनीति का यह संगम स्वाधीनता संग्राम
काल में जितना महाकोशल और विशेषकर जबलपुर में मुखर था , उतना उत्तरप्रदेश के
अतिरिक्त देखने में कम ही आया है। शायद व्यक्तिगत तौर पर ऐसे उदाहरण बहुत होंगे
किन्तु एक पूरा समाज ही साहित्य और राजनीति में एकरंग हो गया हो, यह विषेषता कम
स्थानों पर ही देखी जा सकती थी। आयु के हिसाब से स्व.पं. भवानीप्रसाद तिवारी
साहित्य और राजनीति दोनों में ही तरुणों का नेतृत्व करते थे। स्वाभाविक है कि उनके
पास तरुण रचनाकारों का जमघट लगा रहता था। ’प्रहरी’ उन दिनों अपनी प्रतिष्ठा के शिखर पर था। इसलिये परसाई भी ’प्रहरी’ समाज के एक मुखर अंग
के रूप में उभरे। अपनी विशिष्ट चुटीली शैली के कारण परसाई को अपेक्षित सफ़लता मिलना
उनका स्वाभाविक हक है।
इन तीस वर्षों में परसाई और मैं इतने निकट आ गये हैं कि कभी यह
सोचने की जरूरत नहीं पड़ी कि हम पहली बार कब और कहां मिले। लेकिन जब स्मृति की
परतें कुरेदता हूं तो ख्याल यह आता है कि हम लोगों की पहली मुलाकात स्व. पं.
भवानीप्रसाद जी तिवारी के यहां ही हुई थी। वे उन दिनों माडेल हाई स्कूल जबलपुर के
शिक्षक थे। शासकीय सेवा में रहते हुये भी उनके पैने व्यंग्य किसी को बख्सते नहीं
थे। और 1952 में बालिग मतधिकार के बाद मध्यप्रदेश में जो शासन आया , उसे परसाईजी के
व्यंग्य शायद सहन नहीं हुये। एक तो वैसे ही ’प्रहरी’ विरोधी दल का पक्षधर और दूसरे शासन या अधिकारियों पर ऐसी सीधी
चोट कि जाहिर तौर पर कोई कार्रवाई मुमकिन न हो। नतीजा साफ़ था लि ऐसे कुटिल व्यक्ति
का स्थानान्तरण कर दिया जाये। सो (शायद हरदा) हो गया। मैं उन दिनों तक उनके निकट
नहीं आया था। और आ भी गया होता तो उनका ट्रांसफ़र रद्द कराना सम्भव नहीं था क्योंकि
वह बहुत ऊंचे स्थान से तय हुआ था। तब तक परसाई कुछ और साहित्यिक पत्रिकाओं में
छपना शुरु हो गये थे। अत: उन्होंने सरकारी नौकरी से त्यागपत्र देना ही उचित समझा।
लगभग उन्हीं दिनों ’प्रहरी’ का प्रकाशन स्थगित हो गया। मेरा ख्याल है कि ’प्रहरी’ में प्रकाशन से परसाई
को कोई आर्थिक लाभ नहीं होता था। तब उनका नाम भी इतना बड़ा नहीं था । देश के कुछ
साहित्यिक पत्रों जिनमें ’कल्पना’ भी शामिल है, उनकी रचनायें जरूर प्रकाशित होतीं थीं। लेकिन जीवन यापन के
लिये काफ़ी नहीं था। संयोग कुछ ऐसा कि परसाई का अपना परिवार तो बड़ा नहीं था लेकिन
जिम्मेदारियां बहुत थीं। उस पर वे एक विधवा बहिन और उसके 3-4 छोटे बच्चों को अपने
साथ रहने के लिये ले आये।
किसी अल्पसिद्धि प्राप्त लेखक को प्रकाशक मिलते ही कहां हैं, वही स्थिति परसाई की
हुई। एक तो तब उन्होंने बहुत अधिक कुछ लिखा भी नहीं था। जो लिखा भी था उसमें छोटी
रचनायें कम और छोटे-छोटे व्यंग्य अधिक थे। अत: उन्होंने अपनी रचनायें खुद प्रकाशित
करने का निश्चय किया। ’हंसते हैं रोते हैं’
उनकी पहली प्रकाशित पुस्तक है। परसाई
उसे स्वयं बेचते थे। कीमत डेढ़ रुपया। मित्र समुदाय भी सहायक हुआ। ’हंसते हैं रोते हैं’ की रचनायें छोटी-छोटी
ही हैं पर व्यंग्य बहुत पैने हैं। यो तो बहुत लेखकों ने अपनी कृतियां प्रकाशित की
हैं, पर इस प्रकाशन की बात ही कुछ अलग थी। यह एक बेरोजगार युवक
साहित्यकार के अपने पैरों खड़ा होने का प्रयत्न था।
अपनी कृति को बेचने में यदि झिझक पैदा हो जाती तो शायद परसाई
वह न होते जो आज हैं। मुझे याद आता है कि उन्होंने एक पुस्तक बीच बाजार मुझे थमा
दी। मैंने सोचा , एक सम्पादक के लिये शायद यह लेखक की भेंट होगी। किन्तु
उन्होंने मुझसे पूरे पैसे वसूल लिये। दो रुपये का नोट दिया तो उसे जेब में रखते
हुये पुस्तक के पहले पृष्ठ पर लिखा गया ”
श्री मायाराम सुरजन को दो रुपये में
सस्नेह”। जब मैंने आठ आने वापिस मांगे तो उत्तर मिला- ’क्या आठ आने का स्नेह
नहीं हो गया।’ इस उत्तर के बाद हम दोनों हंस दिये। और शायद परसाई और मेरे
निकट आने की घटनाओं का यह क्रम शुरू हुआ।
परसाई विचारों से मार्क्सिस्ट हैं, यह कहकर मैं कोई भूल
नहीं कर रहा हूं। ऐसी विषम परिस्थियों में रहकर कोई भी सोचने-समझने वाला आदमी
मार्क्सवादी हो ही जायेगा। बढ़ती हुई जिम्मेदारियां और घटते आर्थिक स्रोत। समाज की
सहानुभूति से ही तो नहीं जिया जा सकता। परसाई को समाज ने मीठे कम, कड़वे ज्यादा अनुभव
दिये। लेकिन जीवन की इस कड़वाहट का उन्होंने सदुपयोग किया। वे अपने निराश क्षणों
में समाज की सहानुभूति बटोरने में लगने की बजाय आर्थिक प्रसंग में राजनीति और
साहित्य का अध्ययन करने में जुट गये। हिन्दी में ऐसे बहुत कम रचनाकार हैं जिन्हें
विश्व की राजनीति और साहित्य का इतना सधा हुआ बोध है। सामान्यत: यह माना जाता है
कि हिन्दी का लेखक अपने आप में मस्त रहता है। लेकिन परसाई की दृष्टि अपने चारों ओर
फ़ैले समाज में उलझी रहती है।
उनकी कोटि का कोई और लेखक जब पहिले दर्जे में यात्रा करता है
तो परसाई दूसरे दर्जे में और दिन में यात्रा करना पसन्द करते हैं। ऐसी ही एक बस
यात्रा से ऊबते हुए मैंने कहा कि तुम्हारे साथ सारा दिन खराब हो गया और बस के
धक्के खाये सो अलग। उनका उत्तर था कि ”
दिन की यात्रा में मैं समाज के ज्यादा
नजदीक उसे बारीकी से देख पाता हूं। आखिर मेरी रचनाओं के प्लाट यहीं से तो मिलते हैं जब यात्रीगण अपने किसी सहयात्री से अपनी बीती
बतियाते हैं, छोटा अफ़सर अपने बड़े अफ़सर की पोल खोलता है या कोई शोषित व्यक्ति
अपने शोषक के चर्चे सुनाता है।” अपने प्लाट खोजने के लिये वे जबलपुर से भोपाल की यात्रा सीधी
रात्रि ट्रेन से करने के बजाय दिन की पैसिंजर बस से करते हैं!
परसाई की राजनीतिक विचारधारा के सिलसिले में स्व. गजानन माधव
मुक्तिबोध और श्री महेन्द्र बाजपेयी का प्रसंग आना बहुत जरूरी है। श्री महेन्द्र
बाजपेयी भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के कर्मठ कार्यकर्ता तो रहे ही हैं, अनेक नवयुवकों को
वामपंथी विचारधारा में दीक्षित करने का भी उन्हें श्रेय है। मजदूरों को संगठित
करते हुये भी वे ’इंटेलुक्चुअल’ क्लास के लोगों से मिलते-जुलते रहे हैं। जबलपुर में ऐसे अनेक पढ़े-लिखे
व्यक्ति हैं जो महेन्द्र बाजपेयी के अनवरत प्रयासों के कारण जाने-अनजाने वामपंथी
हो गये हैं, भले ही उन्होंने किसी राजनीतिक पार्टी की सदस्यता न ली हो।
सरकारी नौकरी छोड़ देने के बाद परसाई के पास काफ़ी समय था, और महेन्द्र बाजपेयी
ने उन्हें मार्क्सवादी साहित्य पढ़ने में लगा दिया। निश्चय ही उनकी मार्क्सवादी
विचारधारा के पीछे महेन्द्र बाजपेयी की छाप है।
मुक्तिबोध से परसाई प्रारम्भ से ही प्रभावित रहे। जहां तम मुझे
स्मरण है , मुक्तिबोध से उनका परिचय नागपुर में हुआ। फ़िर मुक्तिबोध चाहे
नागपुर में रहे हों या राजनादगांव में,
परसाई का सम्पर्क निरन्तर बना रहा और वे
एक-दूसरे की शंकाओं का निराकरण करते रहे। यह प्रक्रिया निजी पत्रों के माध्यम से
या ’वसुधा’ के कालमों में चलती रही। यद्यपि परसाई पर मुक्तिबोध का प्रभाव
स्पष्ट है फ़िर भी यह कहने में मुझे कोई संकोच नहीं कि मुक्तिबोध भी परसाई से उतने
ही प्रभावित रहे। यदि मैं यह कहूं कि मुक्तिबोध को अपनी कोठरी से बाहर निकालने में
परसाई का अदृश्य हाथ था , तो जरा भी अतिशयोक्ति नहीं होगी। मुक्तिबोध संकोची स्वभाव के
व्यक्ति थे। वर्षों से लिखी जा रही उनकी पाण्डुलिपियां इकट्ठी होती जा रहीं थीं।
परसाई ने ही उनके क्रमबद्ध प्रकाशन की व्यवस्था की। मुक्तिबोध और परसाई का साथ
मुक्तिबोध के असामयिक निधन से ही छूटा। उनकी बीमारी में राजनादगांव से लेकर भोपाल
और दिल्ली तक की व्यवस्था में परसाई कहीं न कहीं प्रयासरत थे। तत्कालीन
मुख्यमंत्री पं. द्वारिकाप्रसाद मिश्र या प्रधानमंत्री स्व. लालबहादुर शास्त्री तक
उनकी बीमारी का हाल पहुंचाने और इलाज का इंतजाम तो परसाई और उनके मित्रों के
माध्यम से हुआ ही लेकिन उनकी बीमारी में लगभग पूरे ही समय परसाई मुक्तिबोध के पास
रहे। इन दिनों के वैचारिक आदान-प्रदान ने एक-दूसरे की विचारधारा को और पक्का किया।
बीमारी के दौरान भी बहस का यह क्रम घंटो अबाध चलता रहता था।
साहित्य में परसाई की अपनी जगह बन गयी है। दरअसल हिन्दी
व्यंग्य को विधा देने वालों में परसाई का नाम सबसे ऊपर है। उनके पास किसी के लिये
कोई रियायत नही हैं! ऐसे भी प्रसंग आये हैं जब बड़े-बड़े अखबारों ने उनकी रचनायें
मंगवाकर इसलिये वापस कर दीं कि शायद उनके अभिजात्य वर्गीय मालिकों या पाठकों के
न्यस्त स्वार्थों के अनुकूल नहीं बैठतीं। ऐसे भी बहुत प्रसंग हैं जब उन्होंने
स्वनामधन्य साहित्यकारों पर भी गहरी चोट की है फ़िर वे चाहे जैनेन्द्रकुमार हों या
भगवतीचरण वर्मा।
यों तो परसाई ’कल्पना’ जैसी साहित्यिक पत्रिका में भी नियमित रूप से प्रकाशित होने
लगे थे, किन्तु एक कालमिस्ट के नाते उनका नाम ’सुनो भाई साधो’ के प्रकाशन के साथ ही
उभरा। यह कालम उन्होंने जबलपुर से प्रकाशित होने वाले एक मजदूर साप्ताहिक (शायद ’आवाज’) के लिये लिखना शुरू
किया था। लेकिन यह पत्र एक-दो अंक निकालने के बाद बंद हो गया। उस कालम का
पुनर्प्रकाशन ’नयी दुनिया’, इन्दौर के जबलपुर (अब नवीन दुनिया) तथा रायपुर (अब देशबन्धु)
संस्करणों में छपता था , किन्तु उसकी लोकप्रियता के कारण इन्दौर संस्करण में भी लिया
जाने लगा। ’नयी दुनिया’ इन्दौर ने जब अपने पाठकों का सर्वेक्षण किया तो 91 प्रतिशत पाठक वे थे
जिनका ’सुनो भाई साधो’
सबसे अधिक पसन्द कालम था। अब यद्यपि यह
कालम उतना नियमित नहीं रहा लेकिन पाठक उसी अनुपात में उसकी प्रतीक्षा करते हैं।
’सुनो भाई साधो’ की लोकप्रियता का
अन्दाज इससे ही लग सकता है कि अनेक पत्रों ने ’कबिरा खड़ा बाजार में’
,’कबीर उवाच’ आदि अनेक शीर्षकों से
स्तम्भ शुरु किया और असफ़ल हो गये। ’सुनो भाई साधो’
के बाद उनके पास अनेक पत्रों से व्यंग्य
स्तम्भ शुरू करने के आफ़र आये। अभी उनके जो स्तम्भ स्थायी रूप से चल रहे हैं वे
हैं- जनयुग में ’माजरा क्या है’,
करंट में ’देख कबीरा रोया’ तथा कथा-यात्रा में ’रिटायर्ड भगवान की
कथा’।
यों ऊपरी तौर पर परसाई बहुत स्वस्थ और संतुलित दिखते हैं, लेकिन भीतर ही भीतर
कोई कचोट उन्हें भेद रही है यह कम लोग ही समझ पाये हैं। दरअसल वे अपनी बात किसी से
कहते नहीं और उनके निकटस्थ मित्र भी नहीं जानते कि वे अन्दर-ही-अन्दर किस पीड़ा के
शिकार हो रहे हैं। बहिनों और उनके परिवार के लिये उन्होंने विवाह नहीं किया।
कमजोरी के ऐसे ही किसी क्षण में अपना गम गलत करने के लिये उन्होंने शराब पीना शुरू
कर दिया। पहिले वे दूसरों के खर्चे पर शराब लिया करते थे, वह भी कभी-कभार। पर
फ़िर शराब पीना नियमित हो गया। मित्रों ने किनाराकसी की तो अपने पैसों से पीना शुरू
कर दिया। जब खुद की हालत खस्ता होने लगी तो ’देसी’ पर उतर आये।
शराब पीना उन्होंने क्यों शुरू किया इसका सिर्फ़ अन्दाजा लगाया
जा सकता है। मेरा ख्याल है कि शौकिया शुरू हुई आदत एक व्यसन बन गयी। न कभी मैंने
पूछा न कभी उन्होंने बताया कि उन्हें यह लत क्यों लगी। यह भी सम्भव है कि छोटे भाई
गौरी (गौरी शंकर परसाई) का कामधाम ठीक न चलने के कारण भी उन पर आर्थिक बोझ बढ़ गया
हो और उसके शादी कर लेने के बाद वे और अधिक क्षुब्ध हो गये हों। इस व्यसन ने
उन्हें इस स्थिति पर पहुंचा दिया कि वे मित्रों तक को अनसुना करने लगे। हालत यहां
तक पहुंच गयी कि मित्रों ने मुझे रायपुर से जबलपुर पहुंचने के लिये फ़ोन पर फ़ोन
किये। उन्हें जब मालूम हुआ तो उन मित्रों पर भी बिगड़े, ” साले , क्या तुम समझते हो कि
मायाराम मेरा गार्जियन है? वह आकर क्या कर लेगा मेरा?”
लेकिन जब मैं जबलपुर पहुंचा तो परसाई
बिल्कुल प्रकृतिस्थ। मैं 2-3 दिन जबलपुर रुका ,
उनको साथ लिये रहा। लेकिन उन दिनों
उन्होंने महुये तो क्या अंगूरी को भी हाथ नहीं लगाया। बातचीत की तो सीधा उत्तर,” अरे यार कभी-कभी ले
लेता हूं तो सालों ने बात का बतंगड़ खड़ा कर दिया।”
फ़िर टालते हुये बोले, ” हां, बोलो तुम्हारा क्या
हाल है… आदि..आदि” मैंने फ़िर सीधे सवाल किये तो निरुत्तर होकर बगलें सी झांकने
लगे। जब कोई बात ही न करे तो उससे क्या उगलवाया जाये।
इसी बीच एक और हादसा हो गया। परसाई राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ
के कट्टर विरोधी हैं। लगातार उन्होंने आर.एस.एस. और जनसंघ के खिलाफ़ गुहार लगाई तो
कुछ वालंटियर्स ने घर आकर उनको पीट दिया। किसी लेखक के साथ यह घटना अपने आपमें
हिला देने वाली थी। पुलिस में यों रिपोर्ट लिखा दी गयी कि और आर.एस.एस. के स्थानीय
संचालक ने आकर खेद व्यक्त करते हुये उन्हें आश्वस्त किया कि अब यह नहीं होगा।
लेकिन घटनाक्रम से यह महसूस होता है कि इससे उन्हें बहुत आघात पहुंचा। इस घटना के
बाद वे महीनों तक हर कालम में इसका जिक्र करते रहे। पर इस घटना का सबसे बुरा असर
यह हुआ कि उनकी पीने की मात्रा बढ़ गयी। अब यह आदत दिन में भी उनका पीछा नहीं
छोड़ती। मित्रों में और अधिक बेचैनी फ़ैल गयी। उनकी रचनाओं की ताजगी खत्म होकर
पुनरावृत्तियां होने लगीं। मैंने कहा कि,
” अब तुम बासी होते जा रहे हो, रचनाओं में रिपीटीशन
हो रहा है।” तो एक वाक्य में उत्तर दिया,”
जब घटनायें रिपीट होंगी तो लेखन भी
रिपीट होगा।” हालत कुछ इस तरह हो गयी कि स्वास्थ्य गिरने लगा। मदहोशी की
हालत में हाथ-पैरों में फ़्रैक्चर होने लगे,
लिवर की शिकायत हो गयी।
उनके असंयत और एकाकी दिनों में मित्रों ने विचार किया कि यदि
परसाई को शादी के लिये राजी कर लिया जाये तो उनका जीवन क्रम बदलने की संभावना हो
सकती है। प्रश्न यह था कि पचास साल की उमर में न केवल एक समवयस्क वरन परसाई को
संभाल सकने योग्य वधू कहां मिलेगी। सोचते-समझते एक ऐसी महिला का ख्याल आया जो इस
काम को बखूबी अंजाम दे सकती थी। डा.रामशंकर मिश्र ने उससे बात की तो वह उस
प्रस्ताव से सहमत भी हो गयी। दरअसल वह परसाई की प्रसंशक ही नहीं थी वरन बरसों से
उनसे परिचित भी थी। अब समस्या थी कि परसाई कैसे तैयार हो, वह जबाबदारी मुझे
सौंपी गयी। दो-चार दिन वातावरण बनाने में लग गये। फ़िर धीरे से यह प्रसंग शुरू किया
। बात जब गंभारता पर आयी तो प्रतिक्रिया यह कि ”
यार तुम मुझको इतना बेवकूफ़ मत समझो कि
तुम्हारी चिकनी-चुपड़ी में फ़ंस जाऊंगा। यह भी तो हो सकता है कि एक अच्छी खाती-कमाती
लड़की का जीवन और दुखी हो जाये।” यह वाक्य उनकी पीड़ा का प्रतीक था या जवाबदेही से कतराने का
प्रयास, मैं अभी तक नहीं समझ नहीं सका। किस्सा कोताह यह कि बात खत्म हो
गयी।
इसे मैं परसाई की मेहरबानी कहूं या अपना दबदबा कि अगर वे किसी
का थोड़ा बहुत डर मानते थे तो केवल मेरा। लेकिन रायपुर रहकर जबलपुर में उनको
नियंत्रित करना सम्भव नहीं था। अत: मैंने जबलपुर रहने का निश्चय किया। मेरे जबलपुर
पहुंच जाने से इतना फ़र्क पड़ा कि उन्होंने दिन में पीना बन्द कर दिया और रात्रि को
जब हम लोग अलग हो जाते तो घर पहुंचकर वे अपने किसी मित्र, रिश्तेदार या कोई न
मिला तो किसी रिक्शेवाले से ही देसी मंगवा लिया करते थे। चूंकि साथ लगभग दिन भर का
ही रहता , इसलिये उनके कार्यक्रम तय करवाने में भी मेरा भी दखल होने लगा।
आने जाने की राशि नकद पारिश्रमिक बैंक ड्राफ़्ट से दिलवाया जाने लगा। अनेक जगह मैं
भी साथ हो लिया करता । थोड़ी-बहुत छूट तो देनी ही पड़ती।
मेरे अपने कार्यक्रम इतने अनिश्चित होते हैं कि कब , कहां जाना पड़े कुछ
पता नहीं। और मेरी गैरहाजिरी में परसाई अपने पुराने ढर्रे पर आ जाते। आखिर उनके
कुछ कार्यक्रम छत्तीसगढ़ में रखवाये। पारिश्रमिक के बैंक ड्राफ़्ट अलग रखे जाने लगे।
चि.ललित लगभग चौबीस घंटे ही उनके साथ रहने लगे। वे लगभग ड़ेढ महीने रायपुर रहे।
शराब की एक बूंद नहीं। स्वास्थ्य अपने आप ठीक होने लगा। पांच-सात किलो वजन बढ़ गया।
डेढ़ महीने बाद जब जबलपुर के लिये रवाना किया गया तो ललित ने कहा कि “ड्राफ़्ट जबलपुर भेज
रहे हैं, आप वहीं ले लेना”
तो जिद करके लगभग एक हजार रुपयों के
ड्राफ़्ट अपने साथ ले गये। हम आश्वस्त हो गये थे कि अब नहीं पियेंगे। पियेंगे भी अपने
हिसाब से पियेंगे। लेकिन हमने माथा ठोंक लिया जब मालूम पड़ा कि सारे ड्राफ़्ट
बिलासपुर में ही भुना लिये गये। सबकी शराब पी ली गयी। थोड़ी-बहुत रकम लेकर कटनी
होकर सीधा रास्ता छोड़कर गोंदिया की तरफ़ से जबलपुर के लिये रवाना हुये। नशे की हालत
में गोंदिया में बन्द कर दिये गये और पैसे किसी यार ने उड़ा लिये। फ़िर वैसी ही हालत
में राजनांदगांव आये। वहां से पैसे लिये। पी और वापस हुये। ड़ेढ़ महीने की रखवाली
बेकार गयी।
फ़िर वही रवैया शुरू हो गया। भोपाल के एक होटल से मुझे फ़ोन किया
कि इन्दौर से लौटा हूं। आवाज से साफ़ जाहिर हो रहा था कि पिये हुये हैं। मैं होटल
पहुंचा तो स्वाभाविक ही घर चलने का आग्रह किया। तुनुककर बोले-” तुम्हारे घर नहीं
जाऊंगा। साले बाप-बेटे मुझे हाउस अरेस्ट में रखते हो। मैं कोई तुम्हारा दबैल नहीं
हूं।”
मैंने कहा-” तुम्हें दो चांटे लगाऊंगा तो सारा नशा काफ़ूर हो जायेगा।”
उत्तर मिला-” मैं भी तुम्हें दो लात लगाऊंगा।”
बमुश्किल उन्हें घर लाया। लुक-छिपकर थोड़ी-बहुत पीते रहे पर
ठीक-ठाक रहे। फ़िर कुछ दिन बिल्कुल नहीं पी।
जबलपुर वापिस पहुंचने पर फ़िर वही बेकाबू स्थिति। भाई हनुमान
वर्मा ने समझाया कि रोज पियो, हम खुद तुम्हें ऊंची से ऊंची पिलायेंगे, लेकिन हिसाब से पियो।
पर सारी कोशिशें बेकार। बहिन और भांजों को भी उन्होने दूसरे मकान भेज दिया। कुछ
दिन भाई और बहू साथ रहे , वे भी अलग हो गये। हालत इस हद तक खराब हो गयी कि लीवर की
शिकायत बढ़ गयी। ’सिरोसिस’ होने का भय हो गया। न डाक्टरों की मनुहारों और न मित्रों की
मिन्नतों का कोई असर। हम लोगों को लगा कि साल छह महीने के ही मेहमान हैं ये । सभी
हताश हो गये।
फ़िर भी परसाई के बुलावे निरंतर आते। कभी जाते कभी नहीं। रायपुर
में फ़ासिस्ट विरोधी सम्मेलन के लिये टिकट कटाकर रेल में बिठा दिया गया तो शहडोल
में उतर गये। ग्वालियर में स्टूडेन्ट फ़ेडरेशन के अधिवेशन का निमंत्रण स्वीकार कर
लिया पर गये नहीं। सतना में प्रगतिशील लेखक संघ का अधिवेशन हुआ तो उन पर पूरी
निगरानी रखनी पड़ी। रायपुर में आयोजित कबीर उत्सव में शामिल हुये पर बीमार हो गये।
गरज यह कि परसाई एक अविश्वनीय व्यक्ति हो गये। हालत बद से बदतर होती चली गयी।
इन्हीं दिनों मारीशस में दूसरा विश्व हिन्दी सम्मेलन आयोजित
हुआ। ’मध्यप्रदेश हिन्दी साहित्य सम्मेलन’ का अध्यक्ष होने के
नाते मैंने प्रयास किया कि सम्मेलन की ओर से एक अधिकृत प्रतिनिधि मंडल भेजा जाये
जिसका नेतृत्व परसाई करें। यह ’मध्यप्रदेश हिन्दी साहित्य सम्मेलन’ के लिये तो गौरव का
विषय होता ही, सारे विश्व के हिन्दी विद्वानों के बीच उनकी अलग पहचान होती।
केन्द्रीय शासन ने सबसे पहले उनका नाम स्वीकृत किया। पर जब पासपोर्ट की तैयारी के
लिये और प्रतिनिधियों के साथ उन्हें भी मैंने भोपाल बुलाया तो मालूम हुआ कि गिर
पड़े हैं, अस्पताल में भर्ती हैं। मल्टीपल फ़्रैक्चर हुआ है। पैर काटने की
स्थिति भी आ सकती है।
जब यह खबर मुझे मिली तो जी धक रह गया। जबलपुर में उनका इलाज
सम्भव नहीं था। आर्थिक साधन ऐसे नहीं ऐसे नहीं थे कि दिल्ली या बम्बई ले जाकर इलाज
कराया जा सके। श्री श्यामाचरण शुक्ल उन दिनों मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री थे।
उन्होंने पांच हजार रुपये का प्रबन्ध कराया। कला परिषद से भी एक हजार रुपया मिला।
दिल्ली में श्रीकान्त वर्मा ने तत्कालीन स्वास्थ्य मंत्री डा.कर्णसिंह से कहकर
चिकित्सा का प्रबंध किया। लगभग 8-9 महीने सफ़दरजंग असपताल में कटे। पैर कटने से बच गया लेकिन खोट
रह गयी सो अभी तक ठीक से चल-फ़िर नहीं सकते। चार साल हो गये तब से शराब नहीं छुई।
घर से बाहर लगभग निकलना नहीं होता।
लेकिन शराबखोरी का यह जिक्र परसाईनामा नहीं है। उनकी अच्छाइयों
के साथ इस लत का उल्लेख कर देना भी मैंने उचित समझा है। यों इरादा कर लें तो बिना
किसी चौकीदारी के भी महीनों बिना पिये रह लेते हैं।
मैं पहले ही कह चुका हूं कि विचारों से परसाई मार्कसिस्ट हैं।
शोषित तबके के लोगों से उनकी आत्मीयता फ़ौरन बढ़ जाती है। वे राजनांदगांव आयेंगे तो
शरद कोठारी के रसोइये से पाचक चूरन की गोली खरीदना नहीं भूलेंगे। मेरा एक ड्राइवर
इकबाल घंटो अपनी शायरी सुना देता और वे ऐसे सुनते जैसे उसमें ही डूब गये हों। किसी
ने अपना दुखड़ा सुनाया तो उसकी मदद चाहे वह उनके बस की बात न हो, करने में सबसे आगे, भले ही फ़िर उसका बोझा
दूसरे उठायें। सरकारी तंत्र को वे प्रपंचतंत्र कहते हैं। सरकारी अमले में उनकी
कहीं कोई पैठ नहीं है। लेकिन किसी की सिफ़ारिश करने-कराने का मौका आ पड़े तो
स्वीकृति यों दे देंगे कि बस काम हो ही गया। और फ़िर चिट्ठियां दौड़ेंगी-यह काम
कराना ही है, तुम्हारे भरोसे ही मैंने हां कर दी है।
परसाई के व्यक्तित्व का विकास ही कुछ इस तरह हुआ कि वे अपने
आसपास के वातावरण से अछूते नहीं रहे। आचार्य (अब भगवान) रजनीश को देखकर उन्होंने ’टार्च बेचने वाला’ की रचना की। शेष
नारायण राय को हत्या के एक झूठे मुकदमें में फ़ंसाने वाले एक तिलकधारी पुलिस
इंस्पेक्टर ने उन्हें ’इन्स्पेक्टर मातादीन चांद पर’
लिखने को प्रेरित किया। एक आला अफ़सर की
बीबी को पुरस्कार मिलने पर उन्होंने ’खीर प्रतियोगिता’
का सृजन किया। श्रीमती विजय राजे
सिंधिया द्वारा 1967 में मध्यप्रदेश के कुछ विधायकों को अपनी तरफ़ कर लेने पर ’विधायकों की चोरी’ की रचना हुई। गणेश
विसर्जन के जुलूस में कौन सा गणेश पहले क्रम पर रहे इस विवाद ने उनसे लेख लिखवा
लिया। ऐसे कितने उदाहरण दिये जा सकते हैं जब परसाई ने समाज में जहां-तहां बिखरी
हुई घटनाओं को कथानक का रूप दे दिया है।
दरअसल परसाई का रचनाधर्मी व्यक्तित्व ’वसुधा’ के प्रकाशन से प्रकाश
में आया। श्री रामेश्वर गुरू, प्रमोद वर्मा, श्रीबाल पांडे,
हनुमान प्रसाद वर्मा, डा.रमाशंकर मिश्र, आदि कुछ मित्रों ने
सहयोग कर ’वसुधा’ का प्रकाशन प्रारम्भ किया। कहना न होगा कि ’वसुधा’ न सिर्फ़ अपने जमाने
की वरन अभी तक प्रकाशित साहित्यिक पत्रिकाओं में सर्वश्रेष्ठ नहीं तो श्रेष्ठतम
में एक जरूर थी। दुर्भाग्य की बात कि अर्थाभाव के कारण इस पत्रिका को बन्द हो जाना
पड़ा। उसे जीवित रखने के लिये परसाई और श्रीबाल पांडे लगभग घर-घर घूमे। किंतु
साहित्यिक पत्रिकाओं का जो हश्र होता है ,’वसुधा’ को उससे नहीं बचाया जा सका। ’वसुधा’ ने परसाई की पहचान न केवल अच्छे सम्पादक के रूप में कराई वरन
उन्हें अच्छे रचनाकार के रूप में भी स्थापित किया।
’वसुधा’ के प्रकाशन ने परसाई
को अखिल भारतीय श्रेणी के साहित्यिक सम्पादकों में बैठाया। इन्हीं दिनों उनके
अध्ययन में तेजी आई। इतनी पैनी नजर से विश्व के घटनाक्रम को कम साहित्यकारों ने
समझा होगा। मैंने देखा कि अखिल भारतीय स्तर के कतिपय समाचार पत्रों या पत्रिकाओं
में जमे हुये साहित्यकार विश्व राजनीति में उनके तर्कों को स्वीकार किया करते थे।
वरन मुझे तो इन चर्चाओं के दौरान यह एहसास हुआ कि साहित्यिक मंच के , खास तौर पर हिन्दी के
शीर्षस्थ लोग वर्तमान राजनीति से कितने अनभिज्ञ या अपरिचित होते हैं।
परसाई की बेलाग लेखनी ने उन्हें प्रगतिशील तबके में तो
लोकप्रिय बनाया ही, सर्वहारा वर्ग भी उनके प्रति काफ़ी श्रद्धा रखता है। इस सम्बन्ध
में एक- दो घटनाओं का जिक्र अनुचित न होगा। ’
हिन्दी साहित्य सम्मेलन, प्रयाग’ की स्थायी समिति में
मुझे भाग लेना था। परसाईजी भी इस स्थायी समिति के सदस्य थे। मैंने उन्हें भी साथ
ले लिया। सम्मेलन मुद्रणालय में कर्मचारियों एवं प्रबंधकों के बीच कुछ झगड़ा चल रहा
था। जब कर्मचारियों को मालूम हुआ कि बैठक में परसाई भी भाग ले रहे हैं तो अपना
पक्ष बताने के लिये उन्होंने परसाई को पकड़ लिया। जब स्थायी समिति में यह विषय
चर्चा के लिये आया तो प्रबंधकों ने अपना पक्ष प्रस्तुत किया। परसाई ने कर्मचारियों
का पक्ष लेते हुये ऐसी दलीलें रखीं कि उनसे व्यवस्थापकगण कतराने लगे। प्रबन्धक
बोले-” मोनो मशीने लगीं हैं,
कल पुर्जे आयात करने पड़ते हैं, इतना खर्च हो जाता है
कि बचत नहीं होती……” आदि -आदि। परसाई कब चूकने वाले थे। सुझाव दिया, ” ये मायाराम बैठे हैं, इनके यहां भी दो
मशीनें लगी हैं, आप इनसे सलाह कर लीजिये।”
व्यवस्थापकों ने बात ही बदल दी।
जबलपुर में परसाई की अलग हस्ती रही है। हालांकि पैर की कमजोरी
की वजह से उनका नगर-पर्यटन का क्रम टूट गया है,
लेकिन वह भी एक जमाना था जब वे हर
प्रगतिशील आन्दोलन के साथ चलते-फ़िरते भी दिखाई पड़ते थे। यह क्रम खत्म हो गया हो, यह तो हरगिज नहीं , अन्तर केवल इतना है
कि अब अपने सिंहासन पर पड़े-पड़े ही आन्दोलन का संचालन करते हैं। इस संदर्भ में 1962 की
एक घटना याद रखने योग्य है।
चीन ने भारत पर हमला किया तो सारे देश की ही तरह जबलपुर
विश्वविद्यालय के छात्रों में भी उफ़ान आया। उन दिनों में विश्वविद्यालय छात्रसंघ
ऐसे बली छात्रों के हाथ में था जो अपने समझ के आगे किसी की भी सलाह अनसुनी करने के
लिये प्रसिद्ध हो चुके थे। छात्रसंघ अध्यक्ष कुछ दिन पहले ही एक हत्या काण्ड से
बरी हुये थे। छात्रों ने तय किया कि एक विशाल जुलूस निकाला जाये। बात यहीं तक
सीमित रहती तो कोई बात नहीं थी। हम लोगों को पता चला कि यह भी योजना बनाई गई है कि
चीनी डाक्टर, चीनी रेस्तरां,
इन्डियन काफ़ी हाउस और कम्युनिस्ट पार्टी
दफ़्तर में आग लगा दी जाये। रैली का मार्ग भी तय हो गया। सारे शहर में सन्नाटा कि
दस-बारह हजार उत्तेजित छात्रों की रैली कैसे सम्भाली जाये।
आखिर हम कुछ लोग बैठे और निश्चय किया कि छात्रों की रैली में
नगर के कुछ संभ्रान्त नागरिकों को भी शामिल कर लिया जाये। इस योजना के अनुसार
महापौर मुलायमचन्द जैन, विधानसभाध्यक्ष स्व.कुंजीलाल दुबे, भूतपूर्व महापौर श्री
सवाईमल जैन और रामेश्वर प्रसाद गुरू आदि अनेक राजनयिकों से बात की और धीरे-धीरे
उन्हें जुलूस के रास्ते में शामिल करते गये। परसाई और मैं छात्र नेतओं के साथ लग
गये। कुछ लोगों को जुलूस के खास-खास ठिकानों पर जमा दिया। चीनी डाक्टर और चीनी
रेस्तरां के सामने से जुलूस निकला तो परसाई और मैं उन दुकानों के सामने खड़े हो
गये। कुनर-मुनर करते हुये भी छात्र नेता हम लोगों की बात मानते रहे और जुलूस का
रास्ता भी इस तरह बदल दिया गया कि काफ़ी हाउस और कम्युनिस्ट पार्टी के दफ़्तर अलग रह
गये। बाद में छात्र नेताओं की गालियां परसाई और मैंने मुस्कराकर सुन लीं लेकिन उस
दिन होने वाले अग्निकांड से शहर जरूर बच ग्च गया।
अपने निजी जीवन में परसाई शुद्ध रूप से धर्मनिरपेक्ष आदमी हैं।
न तो वे किसी धार्मिक क्रियाकलाप में विश्वास रखते हैं न जात-पांत में। वैसे वे
अपने को एंग्लो-इंडियन कहते हैं। पहले जबलपुर में कहीं साम्प्रदायिक उपद्रव हो
जाया करते थे। वे उत्पीड़ितों की रक्षा में पहली पंक्ति में खड़े मिलते।
1961 में
एक ऐसी ही भयानक घटना हो गयी। एक बहुसंख्यक वर्ग की लड़की के साथ दो अल्पसंख्यक
वर्ग के किशोरों द्वारा बलात्कार ने सांप्रदायिक दंगे का ऐसा स्वरूप लिया कि
जबलपुर में तो अनेक निर्दोष परिवार लूटे-मारे गये। करीब के ही एक गांव सरूपा में 13-14 अल्पसंख्यक
जिन्दा जला दिये गये। सागर आदि शहरों में भी उपद्रव हुये। सारे देश में चिन्ता का
वातावरण फ़ैल गया। जबलपुर के सांसदों तथा विधायकों तक के पैर उखड़ गये उस आंधी में।
प्रधानमंत्री नेहरू ने विशेष प्रतिनिधि भेजे। सांसद्द्वय श्रीमती अनीसा किदवई और
सुभद्रा जोशी महीनों जबलपुर आते-जाते रहे। उन दिनों मेरी जो दुर्गति हुई, वह तो अलग चर्चा का
विषय है लेकिन यह परसाई उन दिनों मेरे बाजू से कुछ ऊपर न खड़े होते तो जाने क्या और
बीतती। उनके निर्भीक व्यक्तित्व से उन दिनों वातावरण शान्त होने में बहुत कुछ मदद
मिली। बाद में त बहुत लोग आगे आ गये लेकिन प्रारम्भ के वातावरण की याद करते ही
रोंगटे खड़े हो जाते हैं।
जिस तरह परसाई के प्रशंसक हैं,
वैसे ही उनके निदकों (या घृणा करने
वालों) की कमी नहीं है। आर.एस.एस. का उदाहरण मैंने दिया। जनता शासन के तीन वर्षों
में उन्हें राज्य या केन्द्रीय शासन के किसी साहित्यिक कार्यक्रम में आमंत्रित
नहीं किया गया न किसी कमेटी में रखा गया। जब किसी आधिकारी या संस्था ने उनका नाम
सुझाया भी तो बहुत हिकारत से काट दिया गया।
यद्यपि परसाई किसी राजनीतिक दल के सदस्य नहीं हैं लेकिन
कम्युनिस्ट पार्टी में उनको बहुत आस्था के साथ देखा जाता है। पार्टी के
कार्डहोल्डर हिन्दी के एक प्रख्यात प्रगतिशील कथाकार सम्पादक को प्रगतिशील लेखक
संघ से या इससे संबंधित आन्दोलन से निकालने का फ़ैसला किया गया। उन्होंने परसाईजी
तक अपनी खबर पहुंचाई और परसाई ने शीर्ष नेताओं से चर्चा कर मामला रफ़ा-दफ़ा किया।
परसाईको जबलपुर से कुछ मोह सा हो गया था। सरकारी नौकरी छोड़ने
के बाद वे जबलपुर में ही रहना चाहते थे। एक-दो प्राइवेट स्कूलों में अध्यापक भी हो
गये। लेकिन वहां माध्यमिक शिक्षकों की हड़ताल करा दी। माध्यमिक शिक्षक अपने अधिकार
की लड़ाई लड़ने को भी तैयार नहीं थे। इन्होंने 60-70
शिक्षकों को लेकर जो कुहराम मचाया कि
प्राइवेट स्कूल की नौकरी से भी हाथ धोना पड़ा। कुछ दिनों या एक-दो साल बाद शाजापुर
में नवस्थापित कालेज के प्रिंसिपल नियुक्त करने का आफ़र आया तो उसे भी स्वीकार नहीं
किया। ’जनयुग’ के सम्पादक बनाने का प्रस्ताव आया , वह भी छोड़ दिया।
श्रीमती सुभद्रा कुमारी चौहान ने दिल्ली से राजनैतिक साप्ताहिक के संपादन की
जिम्मेदारी सौंपनी चाही, मना कर दिया।
बिना किसी नियमित आमदनी के परसाई आर्थिक संकट में उलझे ही रहते
हैं। कभी किसी अखबार की माली हालत ठीक नहीं हुई या किसी अखबार में लम्बी हड़ताल हो
गई तो उनकी रचनाओं का पारिश्रमिक भी समय पर नहीं आता। स्नेह सम्मेलनों या उत्सवों
में न जा सकने के कारण भी आमदनी पर आघात हुआ ही है। घर-खर्च की बात अलग, टेलीफ़ोन कटने तक की
नौबत आ जाती या मकान का किराया पट नहीं पाता। ऐसे वक्त पर स्व. भाई नर्मदा प्रसाद
खरे हम लोगों के काम आते थे। यों खरेजी परसाई के प्रकाशक भी थे, पर हिसाब किताब
कभी-जभी ही हो पाता था। जब जैसी जरूरत हुई हम उनके यहां पहुंच जाते और जरूरत से
दुगुनी -तुगुनी रकम की मांग पेश कर देते। तब जरूरी राशि तो खरे जी से ले ही आते।
अब खरे जी नहीं हैं, परसाई बाहर निकल नहीं पाते। बड़े अखबारों में परसाई का लेखन
लगभग बन्द है। तो निश्वय ही परेशानियां बढ़ गयी हैं। छोटा भाई अस्वस्थ है और
बेरोजगार भी। उसकी सहायता भी करनी होती है। लेकिन स्वाभिमान ऐसा कि किसी की मदद
नहीं लेते। किसी मुलाकाती ने उनके नाम पर अर्थ संग्रह की अपील निकाल दी तो उसका
खण्डन फ़ौरन प्रकाशित कर दिया। और किसी तरह गाड़ी चल ही रही है।
जबलपुर में वे अकेले नहीं होते। जब भी जाइये कुछ नवयुवक ’मार्गदर्शन’ के लिये वहां जरूर
बैठे मिल जायेंगे। वे जयपुर और शिमला से भी आ सकते हैं और झुमरी तलैया से भी। वे
केरल के भी हो सकते हैं और असम के भी। उनकी रचनायें हिन्दुस्तान की सभी भाषाओं में
अनुदित हुई हैं। दरअसल उनके लेखन ने उनको छोटे तबके का प्रतिनिधि बना दिया है।
हिन्दी में व्यंग्यकार होने का दावा बहुत लोग कर सकते हैं, लेकिन परसाई के लेखन
में लफ़्फ़ाजी नहीं है। उनकी हर रचना में एक उद्देश्य होता है और कम शब्दों में
ज्यादा सारगर्भित बात कह देने में उनका कोई मुकाबला नहीं है।
इन तीस वर्षों के ’सत्संग’ को घटनावार क्रम सें प्रस्तुत कर सकना संभव नहीं है। अब परसाई का जबलपुर से बाहर निकलना नहीं होता। जिस दिन मुझे उनके पैर टूटने की खबर मिली , उस क्षण सचमुच ही मैं दुखी था। लेकिन तब ही मैंने उस अपघात को आभार माना कि शायद परसाई अपने पुराने फ़ार्म में आ जायें। उनके वर्तमान लेखन में ताजगी है, क्या वह मेरे इस विश्वास की साक्षी नहीं है?
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मायाराम सुरजन
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