यह तो सामान्य-सी समझ की बात है कि अच्छे और
सुन्दर दृश्य हमें आकर्षित करते हैं लेकिन यदि उस अच्छाई और सुन्दरता को नष्ट करने
वाली बुरी ताक़तों की अनदेखी करते हुये हम निरपेक्ष बने रहें तो यह हमारी मनुष्यता
पर प्रश्नचिह्न लगाने के लिये पर्याप्त है जबकि हम मनुष्यता के नाम पर स्वयं को
अन्य प्राणियों से श्रेष्ठ और बुध्दिमान मानते हैं तो एक बुध्दिजीवी मनुष्य होने
के नाते बुरी ताक़तों का प्रतिरोध करने की जिम्मेदारी हमें अनिवार्य रूप से निभानी
चाहिये लेकिन भय,स्वार्थ और लोभ लिप्सा में सने हुये हम पता
नहीं कैसे भूल जाते हैं कि आदिकवि वाल्मीकि ने उस प्रेम-मग्न क्रौंच मिथुन का वध
करने वाले आखेटक को शापित करते हुये ही रामायण की शुरूआत की थी कि "अरे
निष्ठुर वधिक तुमने इस प्रेमरत युगल को अपने तीर का शिकार बना कर हत्या करने का
जघन्य पाप किया है, तुझे समाज में कदापि प्रतिष्ठा प्राप्त
नहीं होगी" तो क्रूर हत्यारों को कोसने योग्य राजनीति कवि के लिये अत्यावश्यक
हो जाती है और ऐसे समय में तो लगभग अनिवार्य ही हो जाती है जब सत्ता के शीर्ष पर विराजमान
आखेटक सौमनस्यता पूर्वक रहते समाज में अपनी कुटिलतापूर्ण चालाकियों द्वारा विभाजन
फैलाने में लगे हों और देश-समाज को मृत्यु के मुख में डाल देने पर आमादा हों तो
कविता को आज की भाषा में चीख कर जन-सामान्य की तरफ़ से बोलना चाहिये कि "अरे
कुटिल-क्रूर सत्ताधारियों तुम्हें भविष्य के लोक-जगत में तनिक भी प्रतिष्ठा
प्राप्त नहीं होगी क्योंकि तुमने समूचे देश-समाज के पारस्परिक सौहार्द्र को
विषाक्त बना कर विभाजित करने का कालिमायुक्त पापकर्म किया है |"
कविता के बारे में बात करते हुये हमें
यह तनिक भी नहीं भूलना चाहिये कि अपने व्यापक प्रयोजन के रूप में कविता शोषित जन
की पक्षधर होनी चाहिये तथा शोषण पर आधारित सत्ता-व्यवस्था का प्रतिरोध करने का
साहस उसमें सदैव बना रहना चाहिये लेकिन यदि कविगण फूल- तितली,चाँद-तारे और प्रेम-मुहब्बत की बातों में ही उलझे रहेंगे तो निश्चित तौर
पर ऐसी कविता जन-सामान्य की कविता तो नहीं मानी जा सकती और यदि ऐसी कविता को
आलोचकीय मान्यता भी मिलने लगे तो हमें समझना चाहिये कि कहीं न कहीं हमारे समय की
कविता जनता से कटती जा रही है और वह मूलत: जन-अपेक्षाओं को विस्मृति के गर्त में
डाल कर अपने मूल प्रयोजन से भटकने लगी है और किसी न
किसी रूप में ऐसी कविता उस जन-विरोधी शोषण पर आधारित सत्ता-व्यवस्था के साथ मिल कर
लाभान्वित होती-सी भी प्रतीत होती है जबकि शोषित जन की आवाज़ बन कर प्रतिरोध की
राजनीति करना हरेक समय की कविता का प्राथमिक उत्तरदायित्व होना चाहिये और केवल
भौतिक सौन्दर्य और मोहक प्रेम तक ही सीमित न रह कर कविता को स्पष्ट रूप से सत्ता
के शाश्वत विपक्ष की भूमिका का निर्वहन करना चाहिये क्योंकि अपने राजनैतिक स्वरूप
में कविता का मूल स्वभाव ही सत्ता के विषमतापूर्ण और अन्यायी चरित्र का प्रतिरोध
करना होता है अन्यथा वह अपने समय की कसौटी पर तनिक भी खरी नहीं उतर सकती है |
कविता की रचना-प्रक्रिया में जो कवि
अपने समय से निरपेक्ष बने रह कर लिखने की कोशिश करता है उसकी संवेदनशीलता असंदिग्ध
नहीं मानी जा सकती क्योंकि अपने समय और समाज की सच्चाई का प्रतिबिम्बन कवि को पूरे
यथार्थ रूप में स्पष्टता के साथ उजागर करना चाहिये और विशेषकर ऐसे समय में जबकि
शासकों द्वारा जानबूझ कर श्रमजीवी वर्ग के साथ विषमता और अन्याय का व्यवहार किया
जा रहा हो तो कवि द्वारा अपने बुध्दिजीवी होने का कर्त्तव्य यथेष्ठ रूप में
निर्वहन करने के लिये श्रम के महत्त्व को स्थापित करने के प्रयत्न में शोषक वर्ग
के षड़यंत्रों की पहचान करते हुये अपनी रचनात्मकता में शामिल करना बहुत जरूरी हो
जाता है अन्यथा वह अपने कर्म के प्रति विश्वासघात के रूप में जाना जायेगा और अपने
कर्म के प्रति यह विश्वासघात किसी भी कवि के लिये कलंक के समान है यदि वह
शोषित-वंचित वर्ग के साथ न्याय प्राप्ति के संघर्ष में शामिल नहीं होता और शोषक
सत्ता के विरुद्ध अपनी कविताओं के माध्यम से शोषित वर्ग को जाग्रत करने की स्पष्ट
राजनीति नहीं करता और अपने समय और समाज का यथार्थ रूप जन सामान्य के समक्ष प्रकट
नहीं करता तो ऐसी तटस्थता क़तई श्रेयस्कर नहीं है |
मेरे लिये यह समझ सकना बहुत कठिन है कि
कोई भी कवि अपनी कविताओं में उम्र भर केवल घर-परिवार,नदी-समुद्र,फूल-तितली या प्रेम-मुहब्बत ही लिख कर कैसे स्वयं के कवि-कर्म को सार्थक
कह सकता है जबकि उसके चारों तरफ़ विषमता और अन्याय का विषाक्त वातावरण बना हुआ हो
और सक्रिय श्रमरत सामान्य जन निष्क्रिय,सुविधाजीवीऔर आलसी
किन्तु व्यापारिक बुध्दियुक्त छल-छद्म में पारंगत अथवा शारीरिक ताक़त में बलिष्ठ
या कि राजनैतिक रूप से सत्ता प्राप्त लोगों द्वारा पग-पग पर प्रतिक्षण सताये जा
रहे हों और सम्पत्ति के साधनों पर अपना कब्ज़ा जमाये हुये वास्तविक हक़दारों को
अपने हक़ से बेदख़ल करते जा रहे हों तथा उन विवेकशील लोगों की लगातार उपेक्षा करते
जा रहे हों जिनके पास सच कहने का थोड़ा-सा साहस सुरक्षित है तो ऐसे संक्रमण-काल
में जिस कवि की कविता तनिक भी ऐसे ख़तरनाक हालात के प्रतिरोध में आने की बज़ाय
अभिजातीय सौन्दर्य प्रतिमानों में स्वयं के सुविधाजीवी सुख के लिये ही प्रयत्नशील
बनी रहें ऐसी कविताओं को चाहे कितना भी मान-पुरस्कार मिलते रहें लेकिन यदि वे
जन-पक्षधरता के अपने मूलभूत दायित्व और कर्तव्य से बचते हुये लिखी जाती हैं तो
उनकी रचनात्मकता सदैव संदिग्ध बनी रहती है |
राजनैतिक रूप से सजग बने रहते हुये कवि द्वारा
अपनी कविता में यदि अँधास्था,रूढ़िवाद,नस्लवाद,सत्ता के केन्द्रीयकरण और साम्प्रदायिकता आदि मनुष्यता विरोधी शक्तियों का
खुल कर विरोध नहीं किया जाये तो वास्तव में वह अपने कवि-कर्म के साथ न्याय नहीं कर
रहा होता है क्योंकि ये मनुष्यता विरोधी शक्तियाँ मूल रूप से जन सामान्य और श्रमिक
वर्ग की प्रछन्न शोषक होती हैं तथा सत्ता और श्रेष्ठि वर्ग के साथ मिल कर पुरस्कार
और सम्मान की कुटिल योजनाओं द्वारा कवि को भी अपने पक्ष में बनाने का छल रचती रहती
हैं और प्राय: कवि गण भी पुरस्कार-सम्मान की लालसा और सत्ता एवं श्रेष्ठि वर्ग से
सामीप्य बनाने की लिप्सा में प्रकारान्तर से मूलभूत वर्ग-संघर्ष का मार्ग छोड़ कर
वर्ण-संघर्ष, देवतावाद, जातिगत आस्था और
नस्लवाद के नाम पर उभरते छद्म राष्ट्रवाद की कवितायें रचते हुये स्वयं को धन्य
समझते हैं और दरबारी कवि बन जाते हैं जबकि प्राय:
उन्हें संभवतया पता ही नहीं रहता कि अध्यात्म के नाम पर वे धर्मांधता को, राष्ट्रवाद के नाम पर नस्लवाद को, कई बार परम्परा के नाम पर रूढ़िवाद को और देवतावाद के नाम पर अँधास्था को
ही शक्तिशाली बनाते रहते हैं और कविता रचना के रूप में मनुष्यता के विरोधी बनते
हुये यह भूलते जाते हैं कि कविता के द्वारा मनुष्यता को जड़ बंधनों से मुक्त करना
उनका प्राथमिक दायित्व है जिसके सुमार्ग से वे भटकते जा रहे हैं |
आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 26-08-2021को चर्चा – 4,168 में दिया गया है।
ReplyDeleteआपकी उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ाएगी।
धन्यवाद सहित
दिलबागसिंह विर्क
शुक्रिया।
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