कोरोना ने प्रो. लालबहादुर वर्मा को भी निगल लिया। दूरदर्शन पर समाचार देखा तो सन्न रह गया। प्रो. वर्मा से उन्नीस सौ चौहत्तर में शशि प्रकाश के माध्यम से मुलाकात हुई थी। उस समय वह गोरखपुर विश्वविद्यालय का छात्र था और प्रो. वर्मा इसी विश्वविद्यालय में इतिहास विभाग में प्राध्यापक थे। चूंकि में भी गोरखपुर विश्वविद्यालय का ही रहा, इसलिए गोरखपुर के प्रति लगाव जितना तय था, उतना ही आज भी महसूस होता है।
प्रो. वर्मा से मुलाकात एक शिक्षा गोष्ठी के निमित्त हुई थी।
उन दिनों में सीवान जिले के माध्यमिक शिक्षक संगठन का सचिव हुआ करता था। संघ के
जिला अधिवेशनों के अवसर पर शिक्षा गोष्ठी आयोजित करने की परम्परा थी। साथ ही
शिक्षा के प्रति गहरी अभिरुचि के कारण में गोष्ठियों के आयोजन और उनके माध्यम से
संवाद का पक्षपाती था। मुझे गोष्ठों के लिए किसी सुयोग्य व्यक्ति की तलाश थी। शशि
प्रकाश कुछ दिनों पूर्व छुट्टियों में घर आया था। जब भी घर आता मुझसे मिलने जरूर
आता। चूंकि दोनों भाई रवि प्रकाश और शशि प्रकाश श्रीकृष्ण उच्च विद्यालय कैलगढ़, सीवान जहां मैं 1965 की
जुलाई से 1960 के अक्टूबर तक अध्यापक रहा,
मेरे अत्यंत प्रिय और विश्वासी छात्र
था। उनकी कुशाग्रता और मेघा को देखकर ही मैंने उनके पिताजी को सलाह दिया था कि
गोरखपुर में ही मैट्रिक के बाद उनका नामांकन कराइये में उस समय बिहार को शिक्षा
व्यवस्था से संतुष्ट नहीं था। शशि प्रकाश ने चर्चा के दौरान गोष्ठी के
लिए प्रो. वर्मा को उपयुक्त बताया था। कहा था कि एक दिन गोरखपुर आय हम उनसे
मिलवायेंगे। वे शिक्षा में काफी दिलचस्पी रखते हैं। मैं शशि प्रकाश के यहां पहुंचा
और उस दिन प्रो. वर्मा का ही अतिथि रहा। यह को उनके और शशि प्रकाश के साथ मेरो
लम्बी और सौहार्दपूर्ण बातचीत हुई। उनके इगोरहित व्यवहार और आत्मीयता से में बड़ा
प्रभावित हुआ। शिक्षा और सामाजिक जन जागरण के विभिन्न मुद्दों पर भी चर्चा हुई।
उनके प्रगतिशील विचार और क्रियाशीलों की जानकारी से भी मुझे उनके प्रति काफी
आकर्षण हुआ। वहीं शिक्षा गोष्ठी का विषय भी तय हुआ और मैंने उनका कार्यक्रम भी
निर्धारित कर दिया।
28 और 29 सितम्बर 1974 को
सहीता चेंगरा उच्च विद्यालय महराजगंज में जिले का दूसरा सम्मेलन आयोजित था। 28 सितम्बर 1974 को
शिक्षा और सामाजिक दायित्व विषय पर गोष्ठी का कार्यक्रम मा गोरखपुर से प्रो. वर्मा
के साथ उसी विश्वविद्यालयको हिन्दी विभाग के प्रो. रामदेव शुक्ल और शशि प्रकाश भी
आये थे। 28 सितम्बर को पूर्वाहन 11
बजे डॉ. रामदेव शुक्ल की अध्यक्षता में
गोष्ठी आरंभ हुई तो कुल चालीस पचास अध्यापक पहुंचे थे। धीरे-धीरे और आने लगे और एक
घंटे के अंदर सौ डेढ़ सौ अध्यापक इकट्ठा हो गये प्रारंभ में शशि प्रकाश ने एक आधार
आलेख का वाचन किया। फिर आचार आलेख के माध्यम से शशि प्रकाश वैज्ञानिक दृष्टिकोण से
लैस शिक्षकों की परिकल्पना के विचार को सामने रखते हुए उनके सामाजिक दायित्वों को
सामने रखा आलेख में शिक्षकों से उम्मीद को गई थी कि सामाजिक, सांस्कृतिक चेतना के
विचार की लड़ाई में वे हिस्सेदारी करेंगे। पश्चात चन्द्रवदन उच्च विद्यालय उसरी
धनीती के प्रधानाध्याक पं. जगन्नाथ तिवारी,
पब्लिक उच्च विद्यालय सहुली के
प्रधानाध्यापक पं. चन्द्रवी पाण्डेय,
उच्च विद्यालय यहां के प्रधानाध्याक
वीरेन्द्र कुमार आदि कई शिक्षकों ने अपने विचार व्यक्त किये। अंत में मुख्य वक्ता
के रूप में प्रो. लाल बहादुर वर्मा ने जब अपनी बातें रखनी शुरू की तो सामाजिक
रूढ़िया, परम्पराओं और आडम्बरों पर प्रहार करते हुए वैज्ञानिक इष्टिकोण
के निर्माण में बाधक गीता और रामचरित मानस की भी चर्चा की। डॉ. वर्मा के प्रगतिशील
और वैज्ञानिक तथ्यों पर आधारित भाषण से आता काफी संतुष्ट दिख रहे थे कि अचानक पं.
चन्द्रदीप पाण्डेय जो जिले के सम्मानित प्रधानाध्यापक में हिन्दी, संस्कृत, अंग्रेजी के विद्वान
और निर्भीक व्यक्ति में बोलने को उठ खड़े हुए और अपनी गंभीर आवाज में पूछा कि आप
गीता और रामचरित मानस को सामाजिक विकास की धारा में सहयोगी नहीं मानते? क्या एक हिन्दू के
नाते पीता और रामायण पर आपका विश्वास नहीं है?
गोष्ठी में सन्नाटा पसर गया। कुछ लोगों को लगा कि पं.
चन्द्रदीप पाण्डेय वर्मा और बाहर से आये प्रतिनिधियों का अपमान कर रहे हैं। लेकिन
इससे परे डॉ. वर्मा ने अविचल भाव से कहा कि गीता और रामायण में मेरा विश्वास वैसा
नहीं है जैसा आपका है। सामाजिक विकास की प्रक्रिया और वैज्ञानिक चेतना के प्रसार
में इन ग्रंथों को कोई उपयोगिता नहीं है। आप धर्म को नहीं मानते? च चन्द्रदीप पाण्डेय
का अगला प्रश्न था नहीं। इस बार डॉ. वर्मा का स्वर और गंभीर था। क्या आप नास्तिक
है?' पौडत जी ने अगला सवाल दागा।
डॉ. धर्मा ने कहा कि हां, में धर्म को अफीम मानता हूँ। अध्यक्ष महोद में इस गोष्ठी का बहिष्कार करता हूँ। और पं चन्द्रदीप पाण्डेय कक्ष से बाहर चले गये। डॉ. वर्मा इत्मीनान से अपनी बातें करते रहे। उनके चेहरे पर अपमान, विवाद की कोई चिन्ना नहीं थे। अंत में प्रो. रामदेव शुक्ला जी ने भी तार्किक तरीके से अपनी बातें रखीं और देहाती क्षेत्र में जिला संघ द्वारा आयोजित पहली शिक्षा गोष्ठी सफलतापूर्वक सम्पन्न हुई।
विदा होते समय डॉ. वर्मा ने कहा कि इतिहासबोध के बिना गति नहीं आती।
पाण्डेय जी ने काफी अच्छा प्रश्न रखा था। हमें लगा कि वर्मा जी और शुक्ल जी कहीं
बुरा न माने हों लेकिन वे काफी खुश थे। इस गोष्ठों को एक रपट देहाती क्षेत्र में
एक शिक्षा गोष्ठी, नाम से गोरखपुर से निकलने बाती पत्रिका 'भोगमा' में छपी।
डॉ. वर्मा और डॉ. शुक्ल सिर्फ विश्वविद्यालय के अध्यापक ही
नहीं थे बरन एक सोशल ऍक्टिविस्ट भी थे। उनके साथ विश्वविद्यालय के लड़के लड़कियों
का एक अच्छा सा ग्रुप भी था। वे सामाजिक परिवर्तन को लड़ाई के लिए गीत, नाट्य, नुक्कड़ नाटक आदि के
माध्यम से लगातार काम करते रहते थे। उनकी टीमें जिले के देहाती क्षेत्रों तक जाती
थीं। इसके अला एक साहित्यिक पत्रिका 'माँगना' और एक इतिहास विषय की पत्रिका इतिहास बोध' भी निकालते वे इतिहास
बोध में इतिहास की नये सिरे व्याख्या होती थी। इतिहास को समझने का एक नया
दृष्टिकोण होता। गोष्ठी के बाद में भी उनसे जुड़ गया और यदा-कदा गोरखपुर जाने लगा।
भगिमा और इतिहास बोध की प्रतियां डाक से मुझे आने लगी। उन्हें बेचकर
मनीआर्डर से रुपये उन्हें भेज देता। क्योंकि पत्रिकाएं बेचकर ही उनकी छपाई का खर्च
निकाला जाता सीवान, पटना, सुपौल आदि बिहार में कई स्थानों पर मैंने पत्रिकाओं के ग्राहक
बनाये। प्राच्य प्रभा के तत्कालीन सम्पादक विद्यानंद सिंह भी उनके ग्राहक बने। इस
प्रकार वर्मा जी के प्रगतिशील विचारों और व्यावहारिक कार्यकलाप ने मुझे उनसे गहरे
रूप से जोड़ दिया। बिहार के जेपी आंदोलन पर उन्होंने मुझसे 'भागमा' के लिए एक रिपोर्ट भी
लिखवाई मेरी कई कहानियां भी भगिमा में प्रकाशित हुई। जब तक में लगढ़ रहा बर्मा जी
से जुड़ा रहा। सीवान में विद्याभवन शिक्षक प्रशिक्षण महाविद्यालय में बीएड का प्राध्यापक
होने के बाद कुछ कमी आयी। जो धीरे-धीरे मेरी व्यस्तता के कारण बढ़ती गई। हालांकि
शशि प्रकाश का आना-जाना लगा रहा।
आगे चलकर वर्मा जी गोरखपुर से मणिपुर विश्वविद्यालय में चले गये। वहां से उनकी गतिविधियों को जानकारी मिलनी बंद हो गई। बहुत दिनों के बाद पुस्तक मेले में उनका एक उपन्यास देखने को मिला। 2000 में होरक जयंती में उनका कार्यक्रम बनाना चाहते थे लेकिन सम्पर्क नहीं हो सका। बाद में मणिपुर से इलाहाबाद विश्वविद्यालय आ गये। फिर भी सम्पर्क नहीं हुआ। दो तीन साल पहले जब भोरे में डॉ. रामदेव शुक्ल से एक गोष्ठी में मुलाकात हुई तो पता चला कि डॉ. वर्मा सेवा निवृति के बाद देहरादून में रहते हैं। शुक्ला जी से ही फोन लेकर बातें की तो पहचान गये। खूब बातें हुई। मेरे आग्रह पर एक व्याख्यान के लिए पटना आने का वादा भी किये। लेकिन 2020 की कोरोना लहर और मेरे विधान परिषद चुनाव में उनके कार्यक्रम को व्यावहारिक रूप नहीं लेने दिया। 2021 को इस लहर ने तो हमसे उन्हें छीन ही लिया। लेकिन उनसे हुई, उन मुलाकाठों में उनको सहजता उनका इगोरहित आम आदमी जैसा व्यवहार और मनुष्य द्वारा मनुष्य के शोषण के विरुद्ध उनके कार्यकलाप आज भी मुझे प्रेरित करते रहते हैं। उनके द्वारा इतिहास की व्याख्या उनके प्रति आकर्षित करती है। सचमुच एक जन इतिहासकार और एक सच्चे शिक्षक थे। उन्हें मेरी भावभीनी श्रद्धांजलि।
- केदारनाथ पाण्डेय
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