Wednesday 18 August 2021

कोरोना काल में जीवन जीने की कामना: लॉकडाउन डेज़

            मानव सभ्यता की प्रगति के प्रश्नों के प्रकृति कैसे और क्या उत्तर देती है, यह सामान्य तौर पर कोई नहीं जान सकता। महत्त्वाकांक्षाओं की असीम उड़ानों को जब यथार्थ का धरातल मिलता है, तब महसूस होता है कि कोई अदृश्य शक्ति है, जो हमें चला रही है। प्रकृति की सचेतन शक्ति सदैव मानव व मानवता के परम कल्याण के लिए ही होती है। परंतु कभी-कभी ऐसा भी होता है कि मानव अपने विकास के स्वर्णिम सोपानों पर चढ़ता जाता है और अपने इस जीवन क्रम में वह अपने पीछे छूटे हुए समय को भूलता जाता है। तब यही अदृश्य शक्ति आकर हमें अपने अस्तित्व का अनुभव करवाती है। इच्छा, ज्ञान और क्रिया से चलने वाला विश्व के विकास का स्वर्णचक्र तब अपनी स्वाभाविक गति को त्याग देता है। एक अघोषित-सा अल्पविराम अपने अस्तित्व का अहसास करवाने जैसे चला आता है। यह अल्पविराम अनेक रूपों में सभ्यता को अपना साक्षात्कार करवाता है। आधि-व्याधि, जरा-मृत्यु, प्रवृत्ति-निवृत्ति जैसे अनेक कारक मानव के विकास पथ के विस्तार को अवरोधित-बाधित करते हैं। ये मनुष्य को मजबूर भी करते हैं, उसकी असीम उड़ान पर विराम लगाने के लिए। धरती पर जीवन के अंकुरण के साथ ही ऐसे अनगिनत बाधा-बंधन हमें देखने को मिले हैं। उनके सामने हमें नतमस्तक भी होना पड़ा है। कविवर जयशंकर प्रसाद कामायनी में लिखते हैं, 'उस एकांत नियति शासन में, चले विवश धीरे-धीरे।' अनेक विवशताओं-व्यथाओं-विकलताओं के समक्ष मानव का विश्वास- विचारशक्ति और विश्वेवर के प्रति आस्था ही है, जो इन सभी झंझावातों में भी उसके आत्मबल का दीप अवमंदित होने नहीं देती। मानव भले ही कुछ दिनों के लिए अपनी गतिज ऊर्जा का रूपांतरण स्थैतिक ऊर्जा में कर ले, परंतु यह अवस्था उसे नवविहान के मंगलमय आवाहन के लिए एक प्रकार सेरिचार्जकर देती है। कोविड-19 महामारी, जिससे वर्तमान में पूरा विश्व ही जूझ रहा है, विश्व के विकास के स्वर्णचक्र को निश्चयतः बाधित किए हुए है।  कोविड-19 ने जीवन की सहजता को मानो सजगता में परिवर्तित कर दिया है। चर्चित लेखिका कामना सिंह का हाल में ही प्रकाशित उपन्यासलाॅकडाउन डेज़इसी परिदृश्य को लेकर सामने आता है। भागती-दौड़ती जिंदगी पर जब अचानक अवरोध लग जाते हैं, तब कैसी स्थितियाँ उत्पन्न होती है, प्रस्तुत उपन्यास का मुख्य प्रतिपाद्य है। उपन्यास का नायक कुणाल एक छोटे से घर में क्वारंटीन में रहकर अपने अनुभवों को एक डायरी में लिपिबद्ध करता है। जीवन जीने की ज़िद्द उसे एक अन्तप्रेरणा प्रदान करती है। कुल इक्कीस दिनों तक क्वारंटीन रहने के दौरान एक प्रकार का आत्मसाक्षात्कार कुणाल को होता है। परिवार से दूर, देश-दुनिया से दूर एक योग्य कम्प्यूटर इंजीनियर कैसे वर्चुअल स्क्रीन बनती जा रही दुनिया से बाहर आकर वास्तविक जीवन का साक्षात्कार करता है और अपने दृष्टिकोण में परिवर्तन भी पाता है, प्रस्तुत उपन्यास में दर्शाया गया है।

 

            अट्ठाईस वर्षीय कुणाल कुमार एक साफ्टवेअर कम्पनी में इंजीनियर है। अपनी कम्पनी की बिजनेस ट्रिप से वह आस्ट्रेलिया से वापिस आ रहा है। दिनांक है चौबीस मार्च। कोरोना वायरस ने अपने पैर दुनिया में मजबूती से जमा लिए हैं। भारत में भी उसकी पदचाप सुनाई दे रही है। सरकारें अपनी ओर से यथासम्भव सब प्रकार के प्रयास कर रही हैं। वायरस का प्रसार जनसामान्य में न हो सके, इसके लिए एकमात्र उपाय ही दिखाई देता है - फिलहाललाकडाउन। भारत वापिस आने पर कुणाल की भी थर्मल स्क्रीनिंग नई दिल्ली एअरपोर्ट पर की जाती है। कुणाल के कोराना से पीड़ित होने की सम्भावना दिखाई देती है। एअरपोर्ट के जांच अधिकारी कुणाल को पंद्रह दिन क्वारंटीन होने का परामर्श देते हैं। अपने कार्यालय होते हुए कुणाल अपने मित्र मिलिंद के गेस्ट हाउस में जाता है। यह गेस्ट हाउस शहर की आपाधापी से दूर खेतों में स्थित है। यहीं से आरम्भ होता है, कुणाल के आत्मालाप, आत्मचिंतन और आत्मविश्लेषण का एक नवीन अध्याय। यहाँ से अगले इक्कीस दिनों तक कुणाल अपने अस्तित्व को देखने-समझने- पाने का प्रयास करता दिखाई देता है। संयोगवश कुणाल के मोबाइल फोन की बैटरी जा चुकी है। चार्जर भी ढूंढे नहीं मिल पा रहा। देश-दुनिया से जुड़ने का एकमात्र माध्यम अब केवल टेलीविजन ही है। समाज से दूर, ज्वरग्रस्त, शारीरिक-मानसिक रूप से थका हुआ कुणाल यहाँ अनगिनत विचारों के संसार में भटकता दिखता है। टी.वी. पर प्रतिदिन समाचार चैनल अपने ही बताए हुए भयावह आंकड़ों को झुठलाने में लगे हैं। रोज ही नये केस भारत सहित पूरी दुनिया में बढ़ रहे हैं। शारीरिक-मानसिक रूप से टूटा-बिखरा कुणाल अपने बीते दिनों को याद करता है। भौतिक सुखों की चाह में मनुष्य अपने जीवन में मिलने वाली छोटी-छोटी खुशियों की ओर देखना अक्सर भूल जाता है। कुणाल के पास अब यह अवसर आया है, जिसमें उसे अपने जीवन को अनेक दृष्टिकोणों से देखना है। अपने बचपन की सुनहरी यादों से गुजरते हुए उसे अपने माता- पिता, दो बहनों से भरे परिवार की यादें कचोटती हैं। आत्मीयजनों से किये गये उपेक्षापूर्ण और दम्भपूर्ण व्यवहार भी कुणाल को आज सालते हैं। कुणाल के पिता की इच्छा थी कि वह अपनी पुश्तैनी खेती-बाड़ी पर ध्यान दे। परंतु युवामन की उड़ान उसे दुनिया- जहान की चमक-दमक की ओर आकर्षित करती है। भौतिकतावाद की आंधी में स्नेह-सौहार्द की बातें बेईमानी हैं। उलझनें और भटकाव कुणाल की जीवन शैली का हिस्सा बन चुकी हैं, परंतु आज अकेले एक कमरे में बैठे हुए उसे जीवन का यथार्थ दिखलाई पड़ता है। टी.वी. पर अनेक प्रकार के समाचार कोरोना महामारी पर ही केंद्रित दिखाए जा रहे हैं। भयावह आंकड़े-मरीजों के, मौतों के, भटकते हुए प्रवासी मजदूरों के, ये सब कुणाल को भीतर तक झकझोर कर रख देते हैं। कामना सिंह ने कुणाल की शारीरिक- मानसिक व्यथा का इक्कीस दिनों के अंतराल में मार्मिक चित्रण किया है। इसलाॅकडाउन डेजमें कुणाल अपने जीवन के हर इक भोगे हुए पल को महसूस करता है। प्रत्येक घटना उसे अपने जीवन के लिए एक अभिशाप की तरह दिखाई देती है। निष्काम समर्पण, प्रेम, सद्भावना के अवयवों से बुना गया यह जीवन जब किसी की बेतुकी महत्वाकांक्षाओं और अहम् के काँटों में उलझ जाता है, तब जीवन में न चाहते हुए भीलाकडाउन डेज़आ ही जाते हैं। दिन-प्रतिदिन बढ़ती महामारी अप्रैल आते-आते और भी विकराल रूप धारण कर लेती है। बीती घटनाओं की छाया ज्वर के ताप से जूझते कुणाल के तन को थोड़ी शीतलता देती है।

 

            प्रेम की मधुरतम भावना से कुणाल का दूर-दूर तक कोई सम्बंध नहीं है। बचपन से ही पड़ोस में रहने वाली ईशानी कुणाल पर अपना यथासम्भव अधिकार रखना चाहती है, परन्तु धन-वैभव की आकांक्षाएँ प्रेमरस की पहचान से दूर हैं। आस्ट्रेलिया से भारत आते समय कुणाल को ईशानी की शादी का एस.एम.एस. प्राप्त होता है। इस बात को लेकर कुणाल के मन में एक पीड़ा भी है। इस पीड़ा का भोक्ता कुणाल उपन्यास के अंत तक बना रहता है। ईशानी के परिवार का साथ कुणाल के परिवार से आरम्भ से ही है। एकांत क्षणों में चलचित्र की भांति ये सब बातें कुणाल के सामने आती हैं। लेखिका ने एक प्रेम कहानी भी समानांतर रूप से उपन्यास में संयोजित की है। कैरियर की दौड़ में ईशानी की भावनायें कुणाल को महसूस नहीं हो पातीं। सीधे-सादे सामान्य परिवार से सम्बन्धित ईशानी के हृदय में कुणाल के प्रतिआस का दीपप्रज्वलित है, जिसकी रोशनी कुणाल को अपनेलाॅकडाउन डेज़में ही दिखाई देती है। इक्कीस दिनों के क्वारंटीन काल में जीवन की अनेकानेक घटनाएँ कुणाल को बहुत कुछ सोचने-समझने के लिए समय देती हैं। कुणाल की मनोवृत्ति धीरे-धीरे परिवर्तित होती जाती है। मिलिंद की मित्रता कुणाल के जीवन का सबसे महत्वपूर्ण आयाम है, जो उसके जीवन में व्यापक परिवर्तन लाती है। कुणाल जहाँ कल्पनालोक में जीता है, मिलिंद यथार्थ को समझता है। कुणाल अपने कैरियर के सामने अपने परिवार, रिश्तों-नातों को कोई स्थान नहीं देता, जबकि मिलिंद की सोच अलग है। अपने पिता की बात रखने के लिए ही वह नौकरी करता है।लाकडाउन डेज़कुणाल को रिश्ते-नातों की अहमियत भी समझाते हैं। अपने परिवार से दूर रहकर आज उसे साथ और सहकार की महत्ता समझ में आती है।

 

       टी.वी. पर प्रतिदिन बढ़ते आँकड़े कुणाल को आतंकित करते हैं। दुनिया की हक़ीकत अब उसके सामने है। नैतिक मूल्य, प्रेम, समर्पण, त्याग - इन सबका जीवन में क्या स्थान है, आज उसे भली-भांति पता लगता है। मोबाइल, लैपटाप की वर्चुअल स्क्रीन में व्यस्त नयी पीढ़ी वैसे भी इन सबका अर्थ जानती ही कहाँ है। क्वारंटीन में रहकर कुणाल को कहीं आने-जाने पर पाबंदी है। बाहर की यात्राओं पर विराम लगाकर ही अंदर की यात्रा का आरम्भ किया जा सकता है। इन इक्कीस दिनों में यह कुणाल की अंदर की यात्रा है। इस यात्रा में साथी हैं उसका मन, उसकी यादें, उसकी अंतरात्मा की आवाज और एक आशा का दीप, जो सुधियों का दीप बनकरशुभम् करोतु कल्याणम्का मंगलभाव स्थापित करता है। इनलाॅकडाउन डेज़में कुणाल वह सब पा जाता है, जो शायद पूरी दुनिया में जीवन भर भटकने पर भी उसे नहीं मिल पाता। और कमाल है, उसे अपना मोबाइल चार्जर भी बैग की बाहरी जेब में मिल जाता है। आश्चर्यमिश्रित हर्ष से वह वस्तुस्थिति को समझता है और अपने मित्र मिलिंद को फोन पर अपनी स्थिति की पूरी सूचना देता है। मिलिंद कुणाल के माता-पिता और ईशानी को लेकर फार्म हाउस पर पहुँचता है। तब तक कुणाल का स्वास्थ्य सैम्पल भी स्वास्थ्य विभाग द्वारा लिया जा चुका होता है। सभी को एक साथ पाकर कुणाल को जीवन का मर्म पता लगता है। वास्तव में कोई गैजेट या धन-दौलत इंसान को सच्ची खुशी नहीं दे सकते। यह तो समाज है, सामाजिक सम्बंध हैं, सामाजिक सम्वेदनाएँ हैं, जो व्यक्ति के चेहरे पर खुशी लाते हैं। कुणाल की ईशानी सामने है और आज कुणाल को पता लगता है कि ईशानी की शादी का संदेश झूठा था। आंसुओं से भीगी हँसी ने सारे ताप-संताप-प्रलाप मिटा दिए। प्रेम कहानी भी अपने सुखांत को पाती है।

          भूमंडलीकरण के इस दौर में आज बाजारवाद सब चीजों पर हावी है। सामान तो छोड़िये, होंठों की हँसी और दिल की खुशी भी जैसे सिक्कों के दरबार में दासी बन खड़ी हुई है। एक-दूसरे से आगे बढ़ने की होड़ और दौड़ ने सबको मशीन-मानव बनाकर रख दिया है। आस के कितने रूप होते हैं, जिंदगी की सही अर्थ क्या है, सब कुछ पाने के चक्कर में हम कहाँ खो गये हैं, टुकड़ों से बनी ज़िन्दगी में हमने क्या खोया- क्या पाया; जैसे अनगिनत प्रश्नों की श्रृंखला हमारे सामने खड़ी है, लेकिन न जाने क्यों हम इन सब मूलभूत प्रश्नों से क्वारंटीन-सा होना चाहते हैं। कोरोना ने जो सोशल डिस्टेसिंग सिखलाई है, ध्यान से देखा जाए तो वह सोशल डिस्टेंसिंग तो कब से किसी दूसरे रूप में हमारे जीवन का अनचाहा हिस्सा बन चुकी है। लेखिका ने साॅफ्टवेअर इंजीनियर कुणाल के बहाने आपसी रिश्तों को सोशल डिस्टेंसिंग की प्रक्रिया पर न्यौछावर कर देने वाले महत्वाकांक्षी व्यक्तियों को प्रस्तुत उपन्यास में सामने लाने का प्रयास किया है। वह इस प्रयास में पूर्णतया सफल भी रही है।

 

            महाकवि जयशंकर प्रसाद के शब्दों में 'यही संकल्पात्मक अनुभूति है, जो सहसा चारुत्व का अनुभव कराती है।'सार्वभौमिक मूल्य कभी भी बदलते नहीं है। बाधाएँ और अवरोध जीवन में आते-जाते रहते हैं। संकल्पित चेतना को संजोने वाले व्यक्तित्व में इन बाधाओं आदि को पारकर जाने की पूरी-पूरी क्षमता होती है। बस, कभी-कभी प्रतिगमन करना आवश्यक हो जाता है। प्रतिगमन बाहरी दुनिया की भीड़-भाड़ से, प्रतिगमन विचारों के कोलाहल से, प्रतिगमन अपने अहम् से और प्रतिगमन अपनेस्वसे भी। जीवन केलाॅकडाउन डेज़हमें बहुत सीमा तक बांधने के प्रयास करते हैं, अवरोधन की स्थिति लाते हैं। यही हमारी जिजीविषा है कि हम एक योद्धा की तरह इन परिस्थितियों से लड़ते हैं और इनसे पार भी पा जाते हैं। उल्लेखनीय बात यह भी है कि 'लॉकडाउन डेज़' उपन्यास कोविड-19 महामारी के संदर्भ में लिखा गया प्रथम उपन्यास है। अपनी मार्मिकता और मनोवैज्ञानिक प्रभाव के चलते उपन्यास निश्चयतः पठनीय है। कामना सिंह ने पूरे उपन्यास को तेईस खंडों में विभाजित किया है। प्रत्येक अध्याय का शीर्षक भी बहुत ही आकर्षक रखा गया है, जिसमें कविता का आभास होता है। उपन्यास डायरी शैली में लिखा गया है, जिसमें पूरे इक्कीस दिनों का लेखा-जोखा कुणाल ने आपबीती के रूप में अभिव्यक्त किया है। अनेक स्थानों पर कोविड-19 महामारी से सम्बंधित वैज्ञानिक तथ्यों और घटनाओं को भी रखा गया है, जो कथानक की विश्वसनीयता बढ़ाने के साथ-साथ ज्ञानवर्द्धक भी हैं। वस्तुतःलाॅकडाउन डेज़यांत्रिकता से मानवीयता की ओर लौटने की कथा है, जिसे मैत्री- प्रेम- ममत्व-   आस्था- विश्वास जैसे तत्व पठनीय बनाते हैं और डाॅ. कुंवर बेचैन के शब्दों में यह विश्वास भी दिलाते हैं कि -

               जिस विरह से हूँ पराजित

               तुम मिलो तो जीत जाऊँ

               मैं मिलन के गीत गाऊँ |

 

 

-       डॉ. नितिन सेठी

सी-231, शाहदाना कालोनी, बरेली (243005)

मो.: 9027422306

 

 

 

 

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