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Sunday, 17 April 2016

मिथिलेश कुमार रॉय की कविताएँ

समकालीन युवा कविता पर तमाम आरोपों के बावजूद जब हमारा सामना मिथिलेश कुमार रॉय जैसे कुछ कवियों से होता है तो मन कविता के सही दिशा में चलते जाने के सुखद एहसास से भर उठता है | उनकी कविता का स्पष्ट वैचारिक तापमान और मानवीय भावनाओं का खुला आसमान कविता को विशिष्ट बनाता है | अपने आयतन में इसे आप जीवन की बहुविधि झांकी कह सकते हैं, ऐसी झांकी जहाँ उपस्थित पात्रों के पास यथार्थ की पीड़ाओं और विडम्बनाओं का वह संसार मौजूद मिलता है जो पाठक का अपना सच बनता प्रतीत होता है | इस तरह कविता अपनी शब्दसत्ता में जीवंत और अपनी अर्थवत्ता में सार्थक हो उठती है | आज ठस गद्यात्मकता, भाषाई कलाबाज़ी और विमर्शों के दबाव तले कराहती कविता के लिए उनकी सरल-सहज कवितारुपी सुकून के क्षण उनकी सृजनात्मकता की गंभीरता और सरोकारों के परिचायक हैं | इस ताज़ी ऊर्जा की रचनाशीलता में निराशा नहीं बल्कि उत्साह है, उल्लास है, आशा है और अदम्य जिजीविषा के साथ संघर्षों से जूझने का साहस भी | इस साहस की एक और बड़ी खूबी है कि आक्रोश की स्थिति में भी यह अपना विवेक गिरवी नहीं रख देता | उसे सच और झूठ में फ़र्क करना बखूबी आता है | इस छोटी सी परिचयात्मक टीप के साथ स्पर्श’ पर उनका स्वागत करते हुए हमारे पाठकों के लिए प्रस्तुत हैं इस कवि की आठ नयी कविताएँ, आगे उनकी कुछ और नयी कविताएँ आप संचेतना के अगले अंक में भी पढ़ सकेंगें -



डूबते सूर्य का दृश्य कैसा होता है

लौटता हूँ तो जाने का मन नहीं करता है
सच कहता हूँ
वहाँ रहता हूँ तब भी मन यहीं रहता है
यहाँ आता हूँ तो
ठठाकर हँसता हूँ
गाता हूँ
खेतों में फसल झूमते हैं
उसे देखता हूं
चिड़ियों का गीत सुनता हूँ

लेकिन इसी बीच
कोई पूछ लेता है कि कब तक हो
तो चेहरे का रंग उतर जाता है
रात को नींद नहीं आती
जरा सी आँख लगती है तो
ट्रेन में
कुचल कर मर जाने के सपने आने लगते हैं

वहाँ का दृश्य
यहाँ के दृश्य से जुदा है
वहाँ सूर्य को निकलते रोज देखता हूँ
डूबते सूर्य का दृश्य कैसा होता है
यह धीरे-धीरे भूल जाता हूँ

बताने से बात समझ में नहीं आएगी
वहाँ हम तीन-तीन रातों तक
मशीनों की पिट-पिट से दूर नहीं हटते
चौथी सुबह जब हटते हैं
पिट-पिट का स्वर
तब भी हमारा साथ नहीं छोड़ता

यहाँ का खाया-पीया
सब सफर में ही निकल जाता है हमारा
हम ट्रेन पर
देवता से मनौति मांग कर चढ़ते हैं
लौटते ही
थान पर शीश नवाते हैं
देवताओं को भोग लगाते हैं


आज पापड़ खाने में कैसा लगा

सवेरे चौक पर पहुँचा तो जैसे कोई
मेरा ही इंतजार कर रह था
भले आदमी थे
उसने बताया कि उनकी
वर्षों की साध पूरी हो रही है
वे एक छोटा सा घर बनाने में हाथ लगा रहे हैं

आज कुदाल बहुत कम चलाना पड़ा
फिर भी पैसा उतना ही मिला
उपर से पाँच लड्डू प्रसाद के नाम पर
दोने में डालकर
हाथ पर रख दिया मालिक ने
खाकर एक लोटा पानी पिया तो
पेट ही भर गया जैसे

आज कोई त्योहार था
रोटी बाँधती बीवी ने कहा था
कि काम मिले तो थोड़ा बेसन लेता आऊं

बीवी को पापड़ बहुत पसंद हैं
पता नहीं मुझे अच्छा क्यों नहीं लगता
खाते समय कुड़-कुड़ बोलता है
रोज काम भी कहाँ मिलता
कभी जाते ही लग जाता हूँ तो
कभी हाथ हिलाते लौट जाना पड़ता है

मैंने मांग कर खाया
आज पापड़ खाने में अच्छा लगा
जब तक घर बनेगा
उस भले आदमी ने कहा है
कि रोज सवेरे एक और आदमी को लेकर जाऊं
मैंने सोच लिया है
जब तक काम चलेगा
मैं लौटते हुए रोज पापड़ लाऊँगा
पापड़ देखकर
बीवी खिल-खिल उठती हैं

मैंने रात को उसे बताया
कि मैं धनेसर को ही साथ लेकर जाउंगा
उसकी सूखी काया देखकर
कोई उसे पूछता ही नहीं
जबकि जो भी उस पर विश्वास करता है
वह उसका दो काम ज्यादा कर देता है
मैंने कहा कि
जब तक काम चलेगा
धनेसर को भी पापड़ लेकर आने को बोलूँगा
क्या उसकी बीवी को पापड़ अच्छा नहीं लगता होगा
जरूर लगता होगा
किसकी बीवी को चटपटा खाना
अच्छा नहीं लगता है


संस्कार परसों ही हो जाता
(काली मंदिर के पुजारी बाबा की आकस्मिक मौत पर)

आज दिवाली है तो
कल ही सोचा था
कि सवेरे मुसकुराते हुए जगूंगा
कुछ अच्छे चुटकुले जमा करके रखे थे
सोचा था कि जो भी कोई मिलेगा
उसे हंसाउंगा

सड़क पर बच्चे धमाचौकड़ी मचा रहे हैं
सब ठीक रहता तो अभी पाँच मिनट के लिए
बच्चों के संग हो जाता
कुछ दूर तक
फालतू में दौड़ता
शाम को इन्हीं के साथ
एकाध फूलझड़ी छोड़कर
किलकारी भरता

इस दिन हमारे यहाँ
आँगन-आँगन जाकर
सबको प्रणाम करने का रिवाज है
कहते हैं कि आशीर्वाद लेने से
आदमी फलता-फूलता है
कुछ ऐसा ही सोचा था
कि आज सबके आँगन जाउंगा
सबके चेहरे पर खुशियाँ देखूंगा

आज मैंने
कुछ अच्छे गीत सुनने का मूड बना रखा था
माँ बड़ी बनाती हुई
जो गीत गाती हैं
आज चुपके से
उसे रिकॉर्ड कर लेने के बारे में भी सोच रखा था
लेकिन पता नहीं
कि आज बड़ी बनेगी कि नहीं
अभी जगा हूँ तो
पड़ोस से रही रूदन का स्वर टकरा रहा है कानों में
परसों मरे आदमी का शव
अब तक पड़ा है आँगन में
बेटा रात के दो बजे अधमरा होकर
पहुँचा परदेश से
कहा कि ट्रेन में लटक कर आना पड़ा
वह बुक्का फाड़कर रो रहा था
लेकिन उसके देह में पानी ही नहीं बचा था कि आँख से आंसू टपकता एक भी बूंद
बेटा होता गाँव में तो
संस्कार परसों ही हो जाता

अभी उठूंगा
तैयार होकर श्मशान की तरफ चला जाउंगा

दरमाहा

मैं वेतन बोलता हूँ
आप सैलेरी
कक्का इसे दरमाहा कहते हैं

मैं एक कमरे में रहता हूँ
आप रूम में
कक्का की रात बेड़े में गुजरती हैं

हम कर्मी हैं
या हमारे पास एक पद-नाम है
कक्का और कक्का जैसे सारे लोग
अपने मालिक के
बंदे हैं

मैं किसी स्कूल में पढ़ाता हूँ
आप एक ऑफिस में बैठते हैं
कक्का किसी कपड़े के कारखाने में ओवर-टाइम करता है

दुनिया बदलने से शब्द बदल जाते हैं
कि जीवन बदलने से
कि फेर सिर्फ शब्द-शब्द का है


ओवरटाइम

मेरी नौकरी में ओवरटाइम नहीं होता
आप की नौकरी में होता हो शायद
कक्का की नौकरी में तो जरूर-जरूर होता है
ओवरटाइम नहीं हो तो
कक्का की नौकरी नौकरी नहीं रह जाएगी
कक्का की नौकरी
एक पेट भरने का जरिया रह जाएगी
लेकिन कक्का के तो कई पेट हैं
एक पेट साथ रहता है
कई पेट दूर देहात में रहते हैं
जिसकी तसवीर आँखों के सामने डोलती रहती हैं हमेशा

रविवार पर बड़ी कोफ्त होती है कक्का को
यह क्यों आता है
आराम करने से क्या होता है
रविवार की दिहाड़ी तो जाती ही है
ओवर टाइम का पैसा भी चला जाता है
चार रविवार के बड़े मतलब होते हैं
कक्का जोड़ के बताएंगे
कि दिहाड़ी का दो सौ तीस
और पाँच घंटे ओवर टाइम के एक सौ पैंतालीस
एक रविवार इतना खा जाता है

एक बार फैक्ट्री में
काम बहुत बढ़ गया था तो
कक्का पाँच दिन बाद लौटे थे बेड़ा पर
बहुत खुश थे
कि इस बार दरमाहा अधिक मिलेगा
लेकिन बीमार पड़ गए तो
अधिक मिलने वाले पैसे से थोड़े ज्यादा
देह पर ही खर्च हो गए
इस शोक में कक्का
महीनों बीमार पड़े रहे

कक्का उस फैक्ट्री में काम ही नहीं करते
जिसमें ओवर टाइम नहीं लगता
जो पेट साथ में रहता है हमेशा
चिंता इसकी नहीं
चिंता तो उन पेटों की है
जिसकी तसवीर रह-रह के डोल उठती है आँखों के आगे
फिर ओवर टाइम नहीं लगने का मतलब
कई पेट में मरोड़ उठना भी तो होता है


मास

चालीस किलो धान बेचकर
एक किलो खस्सी का मास खरीदूं
आग लगा दूं ऐसी जीभ को

अभी कोई बिगड़ गई थी तो
घर-आँगन लांघती हुई
आवाज सड़क तक गई

हवा ने इसे सुना
और जोर-जोर से बहने लगी
अब पेड़ों के पत्ते के खड़खड़ाने लगने से
साफ-साफ कुछ भी सुन सकना
संभव नहीं रह गया था

ओह
बाहर कितनी सारी तो आवाजें हैं
ठीक से कोई
अपनी ही आवाजें सुनने को तरस जा रहा है


मिरचई

पता है कि फूलों से इत्र बनाया जाता है
कभी कोई बन-ठनकर बिलकुल सटकर गुजरता है तो
मन करता है कि
ठिठक कर खूब सारी हवा भर लूं फेफड़े में
लेकिन फूल पसंद हैं
नहीं जानता हूँ

आँगन में
जगह-जगह मिरचई के पौधे रोपे हुए हैं
इसकी हरियल तीखी गंध
मुझे मदहोश कर देती है
पोटली में रखी रोटियां
जब अपनी गरमा गरम गंध तोड़ देती हैं
भूनी मिरचई के सहारे
मैं तब भी दुलक चलता हूँ

रोटियाँ ऐंठ जाती हैं दोपहर तक
तब भी
मिरचई उन्हें एक दिव्य स्वाद में ढाल देती हैं
कुदाल उतनी ही तेजी से
जमीन को पुचकारती हैं
दोपहर बाद भी
मिरचई का स्वाद
जीभ में घुला रहता है शाम घिर जाने तक

मिरचई के पौधे में
जब फूल खिलते हैं घूंघरू की तरह
मन आस में हरा-हरा हो जाता है


मैं दूसरा सपना देखता हूँ

मुझे याद नहीं
कि मैं कभी खाने की थाली पर टूट पड़ा होऊं
मुझे इतनी भूख कभी नहीं लगती
कि खाने की बुलाहट पर दौड़ पड़ूं
या कि इंतजार करूं
भोजन के समय का

मुझे तीन वक्त का खाना
मिलना ही मिलना है
जिनके नसीब में यह नहीं है
मैं उनकी भूख के बारे में
कुछ नहीं बता सकता

हो सकता है कि ऐसे लोग
सपने भी
खाना परोसी थाली का ही देखते हो

मेरे सपने में तो परियां आती हैं
-- 

मिथिलेश कुमार राय 
24 अक्टूबर, 1982 0 को बिहार राज्य के सुपौल जिले के छातापुर प्रखण्ड के लालपुर गांव में जन्म. हिंदी साहित्य में स्नातक. सभी प्रमुख पत्र-पत्रिकाओं वेब पत्रिकाओं में कविताएं (कुछ) कहानियाँ प्रकाशित. वागर्थ साहित्य अमृत की ओर से क्रमशः पद्य गद्य लेखन के लिए पुरस्कृत. कहानी स्वरटोन पर ' इंडियन पोस्ट ग्रेजुएट' नाम से फीचर फिल्म का निर्माण. कुछेक साल पत्रकारिता करने के बाद फिलवक्त ग्रामीण क्षेत्र में अध्यापन.
संपर्क- ग्राम पोस्ट- लालपुर, वाया- सुरपत गंज, जिला- सुपौल (बिहार) पिन- 852 137
फोन-9473050546, 9546906392

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