Tuesday 23 June 2020

विद्रोह, पर्यावरण एवं नारी संचेतना की कविताएँ

 : डॉ रणजीत के तीन सम्पादित संकलन

-    राहुल देव

वरिष्ठ प्रगतिशील कवि एवं लेखक डॉ रणजीत ने विद्रोह, पर्यावरण एवं नारी संचेतना जैसे प्रमुख विषयों को लेकर बीसवीं सदी के नवें दशक में लगातार तीन कविता संकलन सम्पादित किये जिनके नाम क्रमशः विश्व काव्य के विद्रोही स्वर, ख़ामोशी भयानक है तथा आधी दुनिया का उद्वेग थे | प्रस्तुत आलेख में हम इन तीनों संकलनों पर एक-एक कर बात करेगें |



आपके सम्पादित संकलनों में सर्वप्रथम नाम आता है ‘ख़ामोशी भयानक है’ का जिसमें 22 कवियों की पर्यावरण चिंता की 33 प्रतिनिधि कविताएँ संकलित की गयी हैं | यह 58 पृष्ठीय कविताओं की एक पतली सी किताब है जिसका मूल्य मात्र दस रुपये है | सम्पादकीय आमुख से पता चलता है वर्ष 1990 में डॉ भारतेंदु प्रकाश ने ‘पर्यावरण संतुलन की रक्षा करते हुए बुंदेलखंड के औद्योगिक विकास की संभावनाएं’ विषय पर एक संगोष्ठी बाँदा में आयोजित की गयी थी उसकी तैयारी के क्रम में ही और उनकी प्रेरणा से ही डॉ रणजीत जोकि उस समय बाँदा के जवाहर लाल नेहरु महाविद्यालय में हिंदी विभागाध्यक्ष थे ने हिंदी की प्रतिनिधि पर्यावरण चिंता सम्बन्धी कविताओं का एक छोटा सा संकलन तैयार कर दिया, जो उन्हीं के प्रयासों से संगोष्ठी के समय वितरण के लिए प्रकाशित हुआ | इस संकलन की अधिकांश प्रतियाँ मित्रो और पर्यावरण पर कार्य करने वाली संस्थाओं को भेंट स्वरुप ही बंट गयीं | उस समय यह संकलन पाठकों में बेहद लोकप्रिय हुआ और फिर भारत ज्ञान विज्ञान जत्थे के आग्रह पर प्रकाशन के दो वर्ष बाद इसका दूसरा संस्करण विज्ञान शिक्षा केंद्र बाँदा ने प्रकाशित किया |

इस संकलन में आपको आलोचक के रूप में प्रसिद्द आचार्य रामचंद्र शुक्ल की ‘कछार की सैर’ शीर्षक दिलचस्प कविता भी पढ़ने को मिलेगी | संकलन के उल्लेखनीय कवि और उनकी कविताओं की अगर बात की जाय तो उनमे भवानी प्रसाद मिश्र की चर्चित कविता ‘सतपुड़ा के जंगल’, गोपालदास नीरज की ‘अब युद्ध नही होगा’, बाढ़ की विभीषिका को दर्शाती डॉ केदारनाथ सिंह की मार्मिक कविता ‘पानी में घिरे हुए लोग’, स्वयं सम्पादक-कवि की ‘पेड़’, ‘संसार-हत्या का षड्यंत्र’ व ‘पृथ्वी के लिए’ शीर्षक तीन कविताएँ, डॉ जितेन्द्रनाथ पाठक की कविता ‘जंगल’, चंद्रकांत देवताले की कविता ‘पेड़’, डॉ विश्वनाथ प्रसाद तिवारी की कविता ‘आरा मशीन’, अशोक बाजपेयी की कविता ‘क्या हासिल’ और गद्यकाव्य ‘विकल्प’, उदयप्रकाश की दो अच्छी कविताएँ ‘दो हाथियों की लड़ाई’ और ‘बचाओ’, कुमार रवीन्द्र का नवगीत ‘मरी झीलों के शहर में’ का नाम लिया जा सकता है | संकलन की अकेली स्त्रीस्वर ज्योत्स्ना मिलन की एक छोटी कविता ‘इस तरह होने के बारे में’ से इस संकलन के मूलभाव को समझा जा सकता है जोकि इस प्रकार है- “पहले/ पेड़ और मैं/ साथ साथ थे/ हमने सोचा ही नही कभी/ अपने,/ इस तरह होने के बारे में/ हम इसी तरह थे/ शुरू से/ हमारे इस तरह होने में/ हमारी कोई भूमिका नही थी/ मगर इससे पहले/ कभी पता नही चला/ कि हमारा यों साथ-साथ होना/ हमारे हो सकने की शर्त है |”



    आपके द्वितीय संपादित संकलन की बात करें तो यह वर्ष 1993 में नई दिल्ली के समकालीन प्रकाशन से प्रकाशित हुआ जिसका शीर्षक था ‘विश्व काव्य के विद्रोही स्वर’ जैसा कि नाम से ही ध्वनित होता है इसमें 7 प्रमुख विदेशी कवियों की अनुदित कविताएँ शामिल की गयी हैं डॉ रणजीत ने स्वयं इन कविताओं का अनुवाद व सम्पादन किया है | अपनी काव्य रचना के प्रारंभिक काल में जिन विदेशी कवियों ने आपको सबसे अधिक प्रभावित किया था या जो आपको सर्वाधिक प्रिय लगे थे उनकी कुछ कविताएँ आपने अपने आनंद के लिए हिंदी में रूपांतरित कर दी थीं | इनमें खलील जिब्रान और नाजिम हिकमत मुख्य थे | इन दोनों कवियों की भाषाई सरलता और स्वच्छता ने और उनके गहरे मानववाद ने कवि रणजीत को बहुत प्रभावित किया | खलील जिब्रान के अनुवाद तो पांडुलिपियों के रूप में पड़े रहे पर नाजिम हिकमत की कुछ कविताएँ ‘जेल से लिखे पत्र’ शीर्षक से साप्ताहिक हिंदुस्तान में प्रकाशित भी हुईं | मायकोवस्की और पाब्लो नेरुदा से यद्यपि आप काव्य रचना के स्तर पर लगभग प्रभावित नही हुए, किन्तु कवियों के रूप में वे आपको अलग-अलग ढंग से महत्वपूर्ण लगे और फिर आपने उनकी कुछ पसंदीदा कविताओं के हिंदी रूपांतरण में काफी मेहनत की | मायकोवस्की के अनुवादो में वनस्थली विद्यापीठ के आपके प्रवासकाल के मित्र रहे और वहाँ रूसी भाषा के शिक्षक नरेश कुमार ने काफी मदद की और ‘आलोचना’ में इनमे से कुछ अनुवाद आप दोनों के संयुक्त नाम से छपे | जब यह किताब प्रकाशन के शुरूआती दौर में थी तब पता चला कि इसमें प्रिय कवि नाजिम हिकमत की ‘जेल से लिखे गये पत्र’ शीर्षक से जो बारह छोटी-बड़ी कविताएँ उन्होंने पाण्डुलिपि में शामिल करने के लिए रखी थीं उनमे से एक ही कविता मिली बाकी कहीं मिस हो गयीं | डॉ रणजीत ने जब उन्हें अपनी लाइब्रेरी में ढूंढा तो नाजिम हिकमत का वह अंग्रेजी संकलन भी नदारद था जिसके आधार पर उन्होंने दो दशक पहले अनुवाद किये थे | फिर आपने अपनी फाइलों में साप्ताहिक हिंदुस्तान में प्रकाशित उनकी कुछ कविताओं की कतरन भी ढूंढने की कोशिश की पर नाकामयाब रहे | अंततः मन मारकर नाजिम हिकमत के उतने ही अंशों से संतोष करना पड़ा पर पांडुलिपियों में से नाजिम हिकमत की ग्यारह छोटी-छोटी कविताओं के कहीं खो जाने का खालीपन मन में लम्बे समय तक बना रहा |

संकलन के कवियों की अगर हम बात करें तो उनमे लेबनानी-अमरीकी कवि खलील जिब्रान, रूसी क्रांतिकारी कवि मायकोवस्की, जर्मन कवि बर्तोल्त ब्रेख्त, तुर्की कवि नाजिम हिकमत, चिली के कवि पाब्लो नेरुदा, फिलिस्तीनी कवि महमूद दरवीश और दक्षिण अफ़्रीकी कवि ए.एन.सी. कुमाली को शामिल किया गया है | यह सभी विद्रोही कवि विश्वकाव्य में अपना प्रमुख स्थान रखते हैं | इन्हें विद्रोही या परिवर्तनकामी कवि इसलिए भी कहा जाता है क्योंकि इनकी अधिकांश कविताएँ वर्ग भेद और आर्थिक-सामाजिक असमानता के विरुद्ध आवाज़ और अकाल, युद्ध, निर्वासन-शरणार्थी आदि की विभीषिकाओं के बीच क्रान्तिकारी विचारों का भी वाहक बनीं | ऐसे कवियों को इसकी कीमत भी चुकानी पड़ी | संकलन की ‘हम और तुम’ शीर्षक कविता में खलील जिब्रान कहते हैं, “...हम दुःख के बेटे हैं और तुम प्रसन्नता के/ और हमारे दुःख और तुम्हारी प्रसन्नता के बीच/ एक संकरी पगडण्डी है/ जिस पर तुम्हारे शाही रथ नही चल सकते |” या फिर ‘अपने देशवासियों से’ व ‘कब्र खोदने वाला’ शीर्षक कविता में व्यक्त हुई उसकी वेदनामय आक्रोश | ‘मृत हैं मेरे लोग’ शीर्षक कविता की निम्नांकित पंक्तियाँ दृष्टव्य हैं, “...एक मात्र भला काम/ जो तुम्हे दिन के उजाले और रात की शांति के योग्य बनाता है/ वह करुणा है/ जो तुम्हे अपने जीवन का एक अंश/ किसी दूसरे इन्सान को देने के लिए प्रेरित करती है |” संकलन के दूसरे कवि मायकोवस्की की ‘टैक्स इंस्पेक्टर से कविता के बारे में बातचीत’ का नैरेटर कविता की शक्ति बयां करते हुए कहता है, “...अपनी शब्दावली में कहूँ/ तो एक तुक एक कनस्तर है-/ डायनामाइट से भरा हुआ/ और एक पंक्ति एक पलीता/ जब वह सुलगती हुई पंक्ति अंत तक पहुंचती है-/ विस्फोट होता है !/ और सिर्फ एक छन्द/ एक पूरे शहर को उड़ा सकता है !” मायकोवस्की की ‘रुचियों की भिन्नता’ शीर्षक और और छोटी कविता के अनुवाद की सहज प्रतीकात्मकता देखें, “घोड़े ने देखा ऊंट को/ और हिनहिनाया/ कैसा दैत्याकार दोगला घोड़ा है/ ऊंट बिलबिलाया/ तुम ? घोड़े?- बिल्कुल नही/ तुम महज एक अविकसित ऊंट हो/ सिर्फ सफ़ेद दाढ़ी वाला ईश्वर ही जानता था/ कि वे दोनों अलग-अलग नस्लों के जानवर हैं |” यह कवि अपनी कविताओं में पाठक से लगातार सवाल उठाते हुए एक ऐसी बहस आमंत्रित करते हैं जिनके जवाब देना सत्तापक्ष के लिए हमेशा से असुविधाजनक रहा है | आने वाली पीढ़ियों को सचेत करते हुए ब्रेख्त अपनी ‘आने वाली पीढ़ियों के नाम’ शीर्षक कविता में कहता है, “सचमुच मैं अँधेरे युग में रहता हूँ/ निष्कपटता जहाँ मूर्खता है/ शांत मस्तिष्क उसी का हो सकता है/ जिसका दिल पत्थर का हो/ जिसके चेहरे पर हँसी है/ वह अभी खौफनाक ख़बरों से अनजान है |”



डॉ रणजीत के तीसरे संपादित कविता संकलन का नाम है ‘आधी दुनिया का उद्वेग’ जिसका केंद्रबिंदु वर्तमान में नारी स्थिति, संघर्ष और संचेतना की कविताएँ प्रस्तुत करना रहा है | इस संकलन की योजना भी पर्यावरण वाले पहले संकलन के साथ ही बन गयी थी लेकिन इसे पुस्तक का रूप लेते-लेते दो वर्ष लग गये | शीर्षक भी पहले ‘आधी दुनिया का दर्द’ सोचा गया जिसे विचारोपरांत ‘आधी दुनिया का उद्वेग’ कर दिया गया | तब तुरत-फुरत वाला ईमेल का जमाना तो था नही इसलिए काव्यरचना में संलग्न मित्र कवियों से पत्र लिखकर प्रासंगिक रचनाएँ मंगवाई गयीं और प्रतिष्ठित कवियों की कविताएँ उनके संकलनों में से चुनी गईं | सम्पादक को चयन की प्रक्रिया में यह देखकर आश्चर्य हुआ कि दिनकर, बच्चन, अज्ञेय, केदार आदि प्रतिष्ठित कवियों के विस्तृत काव्य सृजन में नारी स्थिति, संघर्ष और संचेतना की कविताएँ ढूंढने पर भी मुश्किल से ही मिलती हैं | हाँ प्रगतिशील कवियों में नागार्जुन इस दृष्टि से संपन्न हैं, उनके बाद नारी संचेतना की मर्मस्पर्शी कविताएँ समकालीन कवियों ने ही लिखी हैं | इस संकलन में कुल 32 कवियों की 35 कविताएँ संकलित हैं | उल्लेखनीय कवि और कविताओं की अगर बात करें तो उनमें गोपाल शरण सिंह की ‘बालिका’, सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’ की ‘विधवा’ व ‘तोड़ती पत्थर’, सुभद्रा कुमारी चौहान की चर्चित कविता ‘झाँसी की रानी’, महादेवी वर्मा की ‘दुःख की बदली’, नागार्जुन की ‘जया’ व ‘तालाब की मछलियाँ’, रामइकबाल सिंह ‘राकेश’ की ‘युगारंभ की वे सुंदरियाँ’, नीलकंठ तिवारी की ‘कवि और वेश्या’, सर्वेश्वरदयाल सक्सेना की ‘ह्न्जूरी’, केदारनाथ सिंह की ‘सुई और तागे के बीच में’, धूमिल की ‘आतिश के अनार सी वह लड़की’, चंद्रकांत देवताले की ‘औरत’ जैसी सशक्त कविताएँ इसमें शामिल हुई हैं | हालांकि कुछेक बड़े नाम वाले कवियों की बेहद सामान्य सी कविताएँ भी इसमें जगह बना पाने में कामयाब हो गयी हैं जिनसे बचने पर यह संग्रह और अधिक मूल्यवान बन सकता था |

अंत में साहिर लुधियानवी के ‘मर्दों ने उसे बाज़ार दिया’ शीर्षक इस गीत की पंक्तियाँ वर्तमान सन्दर्भों में सर्वथा प्रासंगिक हो जाती हैं, “औरत ने जनम दिया मर्दों को/ मर्दों ने उसे बाज़ार दिया/ जब भी चाहा कुचला मसला/ जब भी चाहा दुत्कार दिया |” यह संकलन वर्तमान स्त्रीविमर्श के तमाम मुद्दों को कविता के जरिये उठाने की हिमायत करता है | प्रस्तुत संकलन पाठक के मनःस्थल पर, उसकी एकांगी मानवीय संवेदनाओं पर प्रश्न खड़े करते हुए विचार करने पर विवश करता है इसमें संशय नही है |

उपरोक्त तीनों संकलनों की कविताओं से गुज़रते हुए हिंदी कविता के विकासक्रम को सहज ही लक्षित किया जा सकता है | जनमानस में पर्यावरण चेतना की आज महती आवश्यकता है | जहाँ आज स्त्री विमर्श कविता से निकलकर गद्यसाहित्य की केन्द्रीयता ग्रहण कर चुका है वहीँ उसके समक्ष कुछ और नए विमर्शों का सूत्रपात हुआ है | विश्व के विद्रोही कवि और उनकी कविताओं के ताप का प्रभाव अपने यहाँ भी स्पष्ट दिखता है | मुक्तिबोध, धूमिल, कुमार विकल, गोरख पाण्डेय, पाश, रघुवीर सहाय जैसे तमाम कवियों की एक समृद्ध परम्परा ही चल पड़ी जिनकी कविता विश्व कविता के इन स्वरों से टक्कर लेने का पूरा माद्दा रखती है | इक्कीसवी सदी में कविता की धार तमाम कारणों की वजह से कुछ कमज़ोर जरुर पड़ी है लेकिन पाठकों के ज़ेहन में लम्बे समय तक हिंदी कविता की पैठ जरुर बनी रहेगी यह विश्वास है क्योंकि हमारे ऐसे कवि और उनकी कविता की अक्षय परम्परा की ताकत उसका आधार जो है |



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