Tuesday 29 September 2020

शेष अगले अंक में (उपन्यास अंश) – अरविन्द तिवारी

(कस्बाई पत्रकारिता पर लिखा गया हिंदी का पहला व्यंग्य उपन्यास। उ.प्र. हिंदी संस्थान के प्रेमचन्द पुरस्कार से सम्मानित)

यह उपन्यास कस्बाई पत्रकारिता को केंद्र में रखकर लिखा गया है। पृष्ठभूमि राजस्थान का नागौर ज़िला मुख्यालय है जिसमें राष्ट्रीय, राज्य स्तरीय और लोकल अख़बारों के पत्रकारों के क्रियाकलापों का ताना बाना बुना गया है। उपन्यास का नायक ज़िले का जिला सूचना एवं जनसंपर्क अधिकारी प्रशांत कुमार है जो घाघ पत्रकारों के गुटों के बीच पिसता है। पत्रकारिता का शौक गैर पत्रकारों में भी व्याप्त है और वे छद्म नामों से पत्रकारिता कर रहे हैं। लोकल अख़बार कई तरह से आर्थिक धनोपार्जन में लिप्त हैं। लोकल अख़बारों की पीत पत्रकारिता का चिठ्ठा इस उपन्यास का मुख्य पहलू है। पीत पत्रकारिता के अलावा जबरन विज्ञापनों की वसूली, ज्यादा प्रतियां दिखाकर कम छापना और पेड न्यूज इन अख़बारों की आय का स्रोत है। नेताओं और बुद्धिजीवियों की अख़बार में छपने की ललक उनसे कई तरह के समझौते करवाती है। सियासत में अख़बारों की महत्वपूर्ण भूमिका को भी इस उपन्यास में उभारा गया है। पत्रकार किस तरह राजनेताओं से फ़ायदा उठाते हैं, यह उपन्यास उसका प्रमाण भी प्रस्तुत करता है। पत्रकार किस तरह युवाओं को पत्रकारिता का ग्लैमर दिखाते हैं और उनके झांसे में आकर युवा किस तरह सड़क पर आ जाते हैं, इसकी जीवंत कथा कहता हुआ यह उपन्यास कई महत्वपूर्ण प्रश्न भी उपस्थित करता है। आदि से अंत तक व्यंग्यात्मक भाषा शैली से लबरेज़ यह उपन्यास पिछली सदी के अंतिम वर्षों में लिखा गया था। इसकी भाषा की विशेषता को कई समीक्षकों ने रेखांकित किया है। दैनिक जागरण के सर्वे में यह उपन्यास चर्चित उपन्यासों में से एक माना गया था।

-    अजय अनुरागी

समीक्षक, व्यंग्यकार, कथाकार

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यहां प्रस्तुत अंश में पुष्पकुमार नाम के एक युवा शिक्षक के जीवन की विसंगतियों का चित्रण है। यह युवा शिक्षक, पत्रकारिता के ग्लेमर में फंसकर एक अख़बार अपने निवास के पते से निकालता है। इस अखबार का मालिक और संपादक जयपुर  में निवास करता है। पर स्थानीय स्तर पर पुष्पकुमार ही संपादक माना जाता है। चुनाव की पेड न्यूज के चक्कर में वह मुसीबत में फंस जाता है। इस अंश में पेड न्यूज पर ही फोकस है, जिसके बरक्स फेक पत्रकार मुसीबत में फंसता है।

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चुनावी हवा

 

अतिरिक्त गोभी आने पर जैसे सब्जी मंडी का विस्तार हो जाता है, उसी तरह चुनाव घोषित होते ही राष्ट्रीय और राज्यस्तरीय समाचार पत्रों ने अपने पेज बढ़ा दिए।

नागौर के अख़बार भी पीछे नहीं थे। ‘तलवार’ और ‘प्रदेश समाचार’ दोनों ही बड़ी सज धज के साथ निकल रहे थे। ‘तलवार’ ने वैश्याओं के इंटरव्यू वाला धारावाहिक बन्द कर दिया।

कन्हैयालाल स्नातक के अख़बार को तेजपाल देख रहे थे। नौकरी छोड़ने के बाद उन्होंने नए अख़बार के लिए कार्यवाही कर दी थी। अभी तक एन.आई.आर. से अख़बार स्वीकृत होकर नहीं आया था। कन्हैयालाल स्नातक उन्हें समझाते समझाते थक गए थे कि अख़बार चलाना उतना आसान नहीं है, जितना दिखाई देता है। तेजपाल को हठधर्मिता उनके खानदान से विरासत में मिली थी। त्यागपत्र देने की विरासत की भांति वे हठधर्मिता की विरासत को पीढ़ियों तक सहेजना चाहते थे, अविवाहित रहकर।

   "सरकारी मुलाजिम कम पत्रकार" पुष्पकुमार ने योजनाबद्ध तरीके से समाचारों का संकलन किया। सबसे पहले जनता दल के प्रत्याशी को निशाना बनाया। तीर बिलकुल सही स्थान पर लगा। जनता दल के प्रत्याशी ने जब पांडेय वाले लोकल अख़बार (जिसे पुष्पकुमार नागौर में देखते थे) में पढ़ा कि उनकी जीत तय है, तो वे सीधे अख़बार के दफ़्तर  पहुंचे जहां दफ़्तर के नाम पर एक पुरानी मेज़ और दो पुरानी कुर्सियां मय चारपाई के उनके स्वागत के लिए मौजूद थीं। प्रकाशक, संपादक, क्लर्क, संवाददाता आदि को ढूंढने में उन्हें कोई दिक्कत नहीं आई क्योंकि यह समस्त कार्य एक ही व्यक्ति करता था और संयोग से वह व्यक्ति लुंगी बनियान में अपनी चप्पल पॉलिश करता हुआ बरामद हो चुका था।

  जनता दल के प्रत्याशी को लगा कि वह गलती से किसी पढ़ने वाले छात्र के कमरे पर आ गया है,लेकिन जब पुष्प कुमार ने लुंगी के ऊपर पत्रकारिता का कुर्ता पहना,तो वास्तव में वह कमरा अख़बार के दफ़्तर जैसा लगने लगा।पुष्पकुमार ने बताया,चूंकि अख़बार नागौर से निकलता है और जयपुर में छपता है, अतः यह केंपनुमा कार्यालय समस्त आवश्यकताओं की पूर्ति उसी तरह करता है,जैसे सार्वजनिक वितरण प्रणाली से प्राप्त होने वाले प्रति यूनिट चावल और गेहूं आम आदमी की भूख को मिटा देते हैं।

 जनता दल के प्रत्याशी के मन मस्तिष्क पर चुनाव सवार था,इसलिए अख़बार को दस हज़ार की सहायता देकर आश्वस्त हो गया कि इस अख़बार के कारण उसके वोटों में कम से कम दस हज़ार  की वृद्धि अवश्य होगी।

पुष्पकुमार ने आश्वस्त किया,"आपकी हवा बनाने में हमारा अख़बार पूरा प्रयास करेगा।"पुष्पकुमार ने चुनाव आयोग को भी धन्यवाद दिया कि उसने विधान सभा का कार्यकाल पूरा होने से तीन महीने पहले ही चुनाव करवा दिए।

  धन्यवाद उन्होंने जनता दल के प्रत्याशी को भी दिया क्योंकि अब उनके अख़बार में जनता दल के प्रत्याशी की हवा बिगाड़ने का काम शुरू होने जा रहा था!

  अगले अंक में  अपनी योजना को कार्यरूप देते हुए उन्होंने भारतीय जनता पार्टी के प्रत्याशी की हवा बहने का समाचार छापा।अख़बार के अनुसार वह हवा चारों दिशाओं में बह रही थी।

जहां कहीं वह हवा नहीं बह रही थी,अख़बार के इरादे भांपकर कहा जा सकता था कि अगले अंक तक वहां अवश्य बहने लगेगी। इन छूट गए स्थलों में एक स्थल अख़बार का दफ़्तर अर्थात पुष्पकुमार का निवास भी शामिल था।

  धूप के बाद छाया और छाया के बाद धूप होती है,प्रकृति के इस नियम को समझाने के लिए कुछ लोगों ने पुष्पकुमार के यहां धावा बोला।पहला धावा भारतीय जनता पार्टी के प्रत्याशी की ओर से बोला गया।यह धावा एक तरह से सुकून देने वाला था।जिस अंदाज़ में पार्टीजन उनके यहां पहुंचे,यह कोई नहीं कह सकता था कि वे मारपीट या तोड़फोड़ नहीं करेंगे।हड़बड़ा गए थे पुष्प कुमार।

अख़बार को दिखाते हुए उनसे पूछा गया,"हमारे प्रत्याशी के पक्ष में हवा बहने का समाचार आपने दिया है?"

"जी हां..... हां जी"पुष्पकुमार की धड़कन जो लगभग बंद होने जा रही थी,चालू हो गई।

"बहुत बहुत धन्यवाद आपका।मुझे आप अपना कार्यालय दिखाएंगे।"

"जी हां,आप कार्यालय में ही खड़े हैं।"

"अच्छा मज़ाक है.....खैर आप नहीं दिखाना चाहते तो कोई बात नहीं।चुनाव के दिनों में सभी सतर्कता बरतते हैं।ये रखिए दस हज़ार रुपए हमारी ओर से अख़बार के लिए।"

"और हां,आपने जो हमारी हवा बहने का समाचार छापा था,वह चुनाव होने तक लगातार छापते रहिए।"

"आप चिंता न करें।"

पुष्पकुमार प्रसन्न थे।वह ऐसे सुखद क्षणों में जो ग़ज़ल गुनगुनाया करते थे उसे गाने लगे।

"चांदी जैसा रूप है तेरा सोने जैसे बाल

एक तू ही धनवान है गोरी बाक़ी सब कंगाल"।

इस ग़ज़ल के प्रति पुष्पकुमार का प्रेम इस कदर था कि पत्रकार जगत उनका संबंध किसी गौरवर्ण नारी से जोड़ने लगा।पत्रकार जगत में गौरवर्ण केवल मिस आरती का था।पर जिस तरह का बर्ताव वह पत्रकारों से करती थीं,उसे देखकर यह दावा नहीं किया जा सकता था कि कोई पत्रकार उनका दीवाना है।

अनहोनी को होनी में तब्दील करने वाले पत्रकार अंततः पुष्पकुमार की ग़ज़ल गायिकी का संबंध मिस आरती से जोड़कर प्रकरण समाप्त कर देते थे।इस तरह के संबंध की भनक जब पुष्पकुमार के पिता को लगी तो वह पत्रकार मिस आरती से मिलने गए।बताते हैं कि मिस आरती ने उन्हें टका सा जवाब देते हुए कहा,वे किसी पुष्पकुमार को नहीं जानती।उन्होंने उस व्यक्ति को देखा तक नहीं,जिसके बाप होने का दावा वह कर रहे हैं।

पुष्पकुमार ने ग़ज़ल गाकर खाना खाया और"बीस हज़ार रुपए का क्या किया जाय"विषय पर गहन चिंतन करने लगे।दो प्रत्याशियों से दस दस हज़ार मिल गए,शेष चुनाव में खड़े प्रत्याशियों से वसूल करने की कार्य योजना बनाने लगे।उन्होंने तय कर लिया कि इस खुशी में इस अख़बार के मालिक जयपुर निवासी पांडेय जी को शामिल नहीं करेंगे।

वह चारपाई पर थे,और जैसा रिवाज़ है चारपाई ज़मीन पर ही थी, अतः उनके सपनों को वांछित ऊंचाई नहीं मिल पाई थी।किवाड़ अधखुले थे।बनियान,अंडरवियर और उनके नयन भी अधखुले ही थे।

भड़भड़ाकर दरवाज़ा पूरा खुल गया!

बाहर खड़ी जीप पर लगे झंडे को देखकर आसानी से अनुमान लगाया जा सकता था कि आगंतुक जनता दल के थे।कुछ रोज़ पहले ही जनता दल की हवा बहाने के दस हज़ार रुपए पुष्पकुमार वसूल चुके थे।आज फिर उन्हीं की ओर से अख़बार को सहायता पहुंचाने की कार्रवाई शुरू हुई।सबसे पहले उनके चेहरे को आठ दस थप्पड़ों की निर्विघ्न सहायता प्राप्त हुई।इसके बाद पीठ,पेट और अंत में टांगों को सहायता दी गई।सहायता काफी मजबूत किस्म की थी,इसलिए खड़े नहीं रह सके पुष्पकुमार।

   "हरामजादे!हमारी हवा बहनी बन्द हो गई।भाजपा की हवा चलने लगी।निकाल दस हज़ार रुपए।हमें पता चल गया, तू मास्टर है।सरकारी नौकर होकर अख़बार चलाता है।हम तुझे जेल भिजवाएंगे।"

पुष्पकुमार बेहोश होना चाहते थे,किन्तु यह सोचकर कि बेहोश होते ही ये लोग कमरे में रखे सभी रुपए ले जाएंगे,उन्होंने बेहोश होना मुनासिब नहीं समझा।उन्होंने दस हज़ार रुपए ऐसे दिए जैसे कोई सेठ डकैतों को तिज़ोरी की चाबी सौंपता है।

सहायता पहुंचाने वाले चले गए।

पुष्पकुमार ने करहाते हुए अपने पड़ोसी को बेहोश होने की सूचना दी और बेहोश हो गए।

 

पत्रकार जगत ने इस घटना को हाथोंहाथ लिया।काफी समय से पत्रकार की पिटाई वाली घटना का इंतजार पत्रकारों को था।प्रतीक्षा की घड़ियां बीत गईं और एक अख़बार के कार्यालय पर हमला हो गया।

सभी पत्रकार उत्साहित थे,प्रफुल्लित थे,संगठित थे।सबसे पहले राष्ट्रीय स्तर के समाचार पत्रों में नागौर पत्रकार संघ के अध्यक्ष के रूप में राम अकेला का बयान आया।इसके बाद कन्हैयालाल स्नातक का बयान आया।यह बयान भी नागौर पत्रकार संघ की हैसियत से आया।तीसरा बयान जो नागौर पत्रकार संघ की हैसियत से छपा,वह"रेगिस्तानी रंग"के ज़िला संवाददाता शैलेन्द्र सुमन का था,जो किसी राष्ट्रीय दैनिक में छपा था।

 नागौर पत्रकार संघ के अध्यक्ष के रूप में तीन व्यक्तियों द्वारा घटना की निन्दा का समाचार पढ़कर पाठकों को विश्वास हो गया कि नागौर के पत्रकार संगठित हैं!उनमें एकता बनी हुई है तथा वे हिंसक कार्रवाई के विरुद्ध एक मंच पर खड़े हैं।पुष्पकुमार का हाल चाल पूछने वालों का तांता लग गया।हमला चूंकि अख़बार के दफ़्तर पर किया गया था, अतः जिला कलेक्टर को भी अस्पताल का मुआयना करना पड़ा।एस. पी.साहब भी आए।

   राम अकेला,मनीष के साथ आए।इनके जाने के बाद कन्हैयालाल स्नातक और के.के.गोस्वामी आए,जो राम अकेला के जाने की प्रतीक्षा में काफी देर से गेट पर खड़े थे।कन्हैयालाल स्नातक के प्रिय शिष्य और "प्रदेश समाचार"के कार्यकारी संपादक तेजपाल मय फोटोग्राफर के अस्पताल आए।मिस आरती भी आईं,जिन्होंने पुष्पकुमार के पिता से दो टूक शब्दों में कहा था कि वे किसी पुष्पकुमार को नहीं जानती।पी.आर. आे.प्रशांत कुमार और शैलेन्द्र सुमन साथ साथ आए और काफी देर तक बैठे रहे।"मरीज के पास पत्रकारों को देर तक नहीं बैठना चाहिए" के सिद्धांत को परे धकेलते हुए शैलेन्द्र सुमन ने पुष्पकुमार को ढांढ़स बंधाया।पुष्पकुमार उनके इस कृत्य पर आंसू छलकाए बिना नहीं रह सके।

पी.आर.ओ.प्रशांत कुमार फल लाए थे।

मो. इब्राहीम जो एक रिटायर्ड अध्यापक थे और जिनका मिशन मरीजों को फ़्री फल बांटना था, फलों के साथ उपस्थित थे।मो.इब्राहीम एक ईमानदार और नेकदिल इंसान थे।दिन दशा ख़राब होने के कारण इनका परिचय पत्रकार जगत से हो गया था।मित्र को वह पीठ पीछे भी मित्र मानते थे,इसलिए पूरी रात पुष्पकुमार के पास बैठे रहे।

कालू जी कोफ्ते वाले भी पुष्पकुमार को देख आए।उनके स्थाई ग्राहक थे पुष्पकुमार।

पुष्पकुमार की माताजी और भाई अा गए थे।पिताजी नहीं आए लेकिन,जैसा उनकी माताजी ने बताया,वे पुष्पकुमार के स्वास्थ्य को लेकर चिंतित हैं।

    इतने बड़े बड़े लोग आए,इसलिए सम्बन्धित थाने की पुलिस को भी आना पड़ा।यद्यपि वह अपनी आदत के अनुसार एफ.अाई.आर. दर्ज़ कराने के बाद पूछताछ के लिए पूरे अड़तालिस घंटे बाद अाई थी तथापि पूरी सज धज के साथ अाई थी।थाने के रोजनामचे में रवानगी दिखाकर अाई थी।पुष्पकुमार घायल थे, अतः पूछताछ के लिए अपने साथ कागज लेकर अाई थी।अस्पताल में सबके सामने काग़ज़ कैसे मांगती पुलिस?पुलिस द्वारा मांगने का कार्य भिखारियों की तरह सार्वजनिक रूप से नहीं होता,बल्कि रतिक्रिया की तरह गोपनीयता के साथ संपन्न किया जाता है।इसे पुलिस का दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि पूछताछ पूरे अड़तालिस घंटे की देरी के बावजूद मरीज़ अभी तक अस्पताल में पड़ा था।

     पुलिस ने पुष्पकुमार के बयानों से पहले उनके बैड के आस पास डंडे घुमाए।पुलिस की मंशा यह थी कि बैड के आस पास भिनभिनाती मक्खियां वहां से हट जाएं।पुष्पकुमार के परिजनों ने कदाचित इसका दूसरा अर्थ लगाया।वे डंडे के डर से वार्ड छोड़ गए!वार्ड में कुछ मरीज़ जो पिछली रात से लगातार कराह रहे थे,पुलिस की इस कार्रवाई से मौन हो गए।

    पुष्पकुमार ने अपने बयान में कहा कि वह पांडेय के साथ उनके अख़बार के दफ़्तर में निवास करते हैं, अतः उन्हें अख़बार का संपादक समझकर पीटा गया।पीटने वाले जनता दल के झंडे वाली जीप पर सवार थे और जनता दल के प्रत्याशी के पक्ष में समाचार न छापने के कारण गालियों का लयबद्ध उच्चारण कर रहे थे। गालियों का असर उनकी देह पर नहीं पड़ा,अलबत्ता पिटाई कुछ इस ढब से हुई कि उनके पोर पोर में पीड़ा भरी है।

      अख़बार के संपादक पांडेय उनके मित्र हैं, अतः निवास स्थान नहीं बदल सकते।वह अपने पिता से अलग पांडेय के कार्यालय में रहते हैं।पांडेय अख़बार के काम काज के लिए जयपुर जाते आते रहते हैं, अतः अकेले रहने पर उन्हें जान का ख़तरा है...

     बयान के बाद पुलिस ने परम्परा के निर्वाह के लिए कुछ ऐसे प्रश्न पूछे जिनका स्तर अाई. ए.एस.प्रतियोगी परीक्षा के अनुकूल था।एक दो प्रश्न ऐसे भी थे,जिनका जवाब होता ही नहीं।कठिन प्रश्नों में से एक प्रश्न किसी अज्ञात लड़की से सम्बन्धित था।पुलिस यह जानना चाहती थी कि इस मार पीट की पृष्ठभूमि में कहीं कोई लड़की तो नहीं है।पुष्पकुमार के लिए यह प्रश्न कठिन था,जबकि पुलिस के लिए ऐसा प्रश्न सामान्य था। मर्डर या तीन सौ सात की वारदातों के कारणों का जब पता नहीं चलता,तब भारतीय पुलिस घटना को किसी न किसी लड़की से जोड़ देती है।

   ज़ाहिर था कि पुष्पकुमार घटना के सम्बन्ध में किसी लड़की की भूमिका को नकार कर पुलिस से असहयोग कर रहे थे।पुलिस को ऐसे लोगों की चोटों से कोई हमदर्दी नहीं होती।पुलिस ने उनके बयान के नीचे असहयोग करने जैसा कुछ लिख दिया।

  जयपुर से अख़बार के असली संपादक पांडेय जी भी अा गए।पुष्पकुमार ने उनको दस हजार रुपयों वाली बात नहीं बताई।उन्होंने सिर्फ़ यह कहा कि अख़बार के लगातार दूसरे अंक में जनता दल के प्रत्याशी की हवा बहने का समाचार नहीं छप सका,इसलिए यह हादसा हुआ।उन्हें पांडेय समझकर पीटा गया।पांडेय जी एस. पी.और ज़िला कलेक्टर से मिले।दोनों ने उन्हें त्वरित कार्रवाई करने का आश्वासन दिया।पुष्पकुमार को हर तरह का आश्वासन देकर पांडेय जी जयपुर लौट गए।

     पिटाई वाले एपिसोड के प्रारम्भ में ही दर्शकों ने अनुमान लगा लिया था कि पीटने वालों को पकड़ा नहीं जाएगा।उनका अनुमान सही निकला।किसी की गिरफ़्तारी नहीं हो सकी। गिरफ़्तारी के सम्बन्ध में पुष्पकुमार उत्सुक भी नहीं थे।

      पुष्पकुमार के अस्पताल से छुट्टी के बाद दो सिपाहियों ने उनकी सुरक्षा का जिम्मा संभाल लिया।इस तरह का सुरक्षा कवर पुष्पकुमार के लिए नया अनुभव था।दोनों सिपाही कमरे पर ऐसे रहते जैसे उनका ही कमरा हो।पुष्पकुमार सहमे सहमे रहते।

    रात को सिपाहियों ने जब बिस्तर की मांग की तो पुष्पकुमार ने चुनाव आयोग को कोसा।समय से पहले फ़रवरी में चुनाव करवाने की क्या ज़रूरत थी।एक रजाई की व्यवस्था उन्होंने पड़ोसियों से कर ली।दूसरी रजाई मांगने के लिए वह पी.आर.ओ.प्रशांत कुमार के घर गए।उनके अलावा किसी पत्रकार से उन्हें रजाई की उम्मीद नहीं थी।उनके पिता के यहां सनिल की रजाइयों के ढेर लगे थे,लेकिन अपने मां बाप से सहायता लेना उन्हें स्वीकार्य नहीं था।

  पुष्पकुमार ने पांडेय के अख़बार में नागौर पुलिस के ख़िलाफ़ खूब छापा था। यदि ये सिपाही उन ख़बरों का बदला लेने लगे तो? पुष्पकुमार के शरीर में सिहरन दौड़ गई। जाहिर है यह ठंड वाली सिहरन नहीं थी। सिपाहियों के सो जाने से पुष्पकुमार को थोड़ी राहत मिली। पुष्पकुमार अपनी चारपाई पर थे और दोनों सिपाही ज़मीन पर सो रहे थे। अब थोड़ा बहुत जो भय था, वह कोने में टिकी हुई दो रायफलों का था। मशीन का क्या भरोसा। अपने आप चल गई तो?

   पता नहीं चूहा था या बिल्ली, एक रायफल दीवार से खिसक कर पुष्पकुमार के ब्रीफकेस पर तिरछी होकर ठहर गई।

  उसकी नली पुष्पकुमार की चारपाई के ऐन सामने थी। पत्रकारिता की सारी दिलेरी काफूर हो गई।

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उपन्यास : शेष अगले अंक में

लेखक : अरविंद तिवारी

प्रकाशक : किताबघर प्रकाशन, नई दिल्ली

प्रकाशन वर्ष: 2000

Tuesday 15 September 2020

खोए हुए रास्तों को दमकाती अंजुरी भर चाँदनी

समीक्षायन

अनगिनत समस्याओं को झेलकर भी स्त्री अपने परिवार को बचाये-बनाए रखने में ही अपने जीवन की सार्थकता समझती है। विपरीत परिस्थितियों में भी स्त्री धैर्य और विवेक न खोकर जीवन की समस्याओं का मुकाबला करती है और कठिनाइयों को पार करती है। अपने परिवेश और परिवार दोनों के बीच संतुलन साधते हुए स्त्री-जीवन अपने गौरव की रक्षा भी करता है। त्याग और समर्पण की भावना से पूर्ण होकर एक स्त्री अपने समाज को रोशनी देती है और अपने लिए रखती है बस ‘अंजुरी भर चाँदनी’। अंजुरी भर चाँदनी की अदम्य आभा से दीप्त उसका जीवन अपना मार्ग स्वयं तलाशता है। इस तलाश का आरम्भ होता है पुरुष समाज द्वारा अपनी इच्छाएँ जबरदस्ती थोपे जाने से और इसका अंत होता है उसकी छिटकी हुई ‘अंजुरी भर चाँदनी’ को अपने मन-मस्तिष्क में बसा लेने के कारण।

    उषा यादव अपने नारी-विमर्श के कारण खूब पढ़ी जाती हैं। उनके उपन्यासों की विशिष्टता रही है परिस्थितियों से जूझती नारी का विजयघोष। उषा यादव का नवीनतम प्रकाशित उपन्यास ‘अंजुरी भर चाँदनी’ ऐसी ही लड़की गीता की कहानी है। अनमेल विवाह और छोटी उम्र में परिवार बसाने के दुष्प्रभावों को यहाँ प्रमुखता से उठाया गया है। एक उज्ज्वल भविष्य के सपने की बुनावट में लगी गीता को एक ऐसी परिस्थिति में पहुँचा दिया जाता है, जहाँ उसका स्वयं का ही अस्तित्व धूमिल होता दिखाई देता है। अठारह वर्षीया गीता का विवाह अपने से लगभग दोगुनी उम्र के पैंतीस वर्षीय नीलकंठ के साथ कर दिया जाता है। इस बेमेल जोड़ी में गीता की इच्छा का कोई सम्मान नहीं रखा जाता। ग्रामीण माता-पिता नीलकंठ के अच्छे आर्थिक स्तर और रुतबे को देखकर ही गद्गद हो जाते हैं। नीलकंठ विश्वविद्यालय में प्रवक्ता है। अपने जीवन का लम्बा समय उसने एक प्रसिद्ध गुरुकुल में बिताया है। धर्माचार्य जी की नीलकंठ पर महती कृपा है। पारिवारिक परिस्थितियाँ कुछ ऐसी बनती हैं कि नीलकंठ को गुरुकुल छोड़कर गृहस्थ जीवन में प्रवेश करना पड़ता है। धर्माचार्य जी की कृपा से ही उसे विश्वविद्यालय में नौकरी भी मिल जाती है। नीलकंठ का बाहरी जीवन भले ही धार्मिक-आर्थिक रूप से पुष्ट दिखाई देता हो, परंतु उसकी मानसिक वृत्तियाँ उसे नरपिशाच की प्रतिष्ठा देती हैं। एक अधम व्यक्ति के सभी ‘गुण’ उसमें हैं, जो उसके अतीत और वर्तमान जीवन के अंतर को भयावहता के साथ दर्शाते हैं। दम्भ, छल-कपट, ईष्र्या और वासना की अंधी गलियों में भटकता नीलकंठ तीन वर्षों में तीन संतानों का पिता बन जाता है। गीता की किसी भी भावना का उसे कोई ख्याल नहीं। गृहस्थी का दमकता सूरज यहीं से काले बादलों में ढंपता शुरू होता है। मात्र इक्कीस-बाईस बरस की गीता शारीरिक-मानसिक रूप से इतनी सक्षम नहीं है कि दो पुत्रों और एक पुत्री का लालन-पालन भली-भांति कर सके। इस कारण वह अपनी बड़ी बहन सीमा को सहायता के लिए गाँव से बुलवा लेती है।

    नीलकंठ का विवाह सीमा से ही होना निश्चित हुआ था, परंतु नीलकंठ ने सांवली सीमा को दरकिनार कर गोरे रंग-रूप की गीता से विवाह करने की इच्छा प्रकट की थी। परंतु अब सीमा के आ जाने से उसे गीता एक अनपढ़-गँवार औरत लगती है। सीमा धीरे-धीरे नीलकंठ पर अपना पूरा अधिकार जमा लेती है। नीलकंठ का तन-मन- धन, सभी कुछ अब सीमा का ही तो है। दोनों पुत्र भी सीमा मौसी को ही अपनी माँ समझते हैं। बेटी सारा की देखभाल में दिनभर व्यस्त गीता इन सबसे जैसे अपना मुँह ही मोड़ लेती है। घर में नौकरानी की तरह रहकर ही उसे जैसे सुख के मोतियों की तलाश है। पति और सौतन बनी बड़ी बहन के आगे जैसे वह जीवन का समर्पण ही कर चुकी है। समय करवट लेता है। गुरुकुल के सर्वेसर्वा धर्माचार्य जी नीलकंठ को एम.पी. का चुनाव लड़ने को उकसाते हैं। मन में पद-प्रतिष्ठा-वैभव पाने की दबी हुई चाह की अग्नि में मानो घी पड़ गया है। परिस्थितियाँ अनुकूल न भी हों, तब भी पैसे की ताकत बहुत कुछ कर सकती है और फिर यहाँ तो धर्माचार्य जी का आशीर्वाद भी साथ है। नीलकंठ एम.पी. चुन लिया जाता है। सत्ता की शक्ति उसे और अधिक कठोर और दम्भी बना देती है। परिवार पर अब उसका कोई ध्यान नहीं रह पाता। पाँच वर्ष बाद फिर चुनाव आते हैं। धर्म और अर्थ पुनः अपनी सिद्धि की सूचना को सार्थक करते हुए नीलकंठ को एक बार फिर एम.पी. का पद दिलवाते हैं। इस बार भाग्य का खेल कुछ ऐसा है कि नीलकंठ को केंद्रीय मंत्री का पद प्राप्त होता है।

    नीलकंठ को जल्द से अपने गृह जनपद पहुँचना है जो उसका चुनाव-क्षेत्र भी है। हजारों की संख्या में पार्टी कार्यकर्ता और शहर की जनता अपने लोकप्रिय नेताजी की प्रतीक्षा में स्टेशन पर खड़े हैं। अचानक मोबाइल की घंटी बजती है। सीमा के फोन उठाने पर नीलकंठ गीता को फोन देने के लिए कहता है। नीलकंठ गीता को भी स्वागत हेतु स्टेशन पर आने की ताकीद करता है। गीता अनमने और अचम्भित रूप से केवल ‘हूँ ऽ’ कहकर मोबाइल आॅफ कर देती है। वास्तव में ‘अंजुरी भर चाँदनी’ उपन्यास का आरम्भ इसी घटना से लेखिका ने दर्शाया है। नीलकंठ के फोन के बाद गीता के मन में सत्रह वर्ष पुरानी सारी यादों की रील घूम जाती है। मात्र अठारह वर्ष की आयु में नीलकंठ से विवाह, बिखरता-टूटता परिवार, सीमा और नीलकंठ का मर्यादाओं का तोड़ना, गीता की माटी की मूरत जैसी बेजान जिंदगी - ये सब बातें लेखिका ने एक प्रकार से ‘फ्लैशबैक’ में दर्शाई है। गीता इसी समय अपनी पाठशाला की सर्वप्रिय अध्यापिका नीरजा दी को भी याद करती है। उनकी कर्तव्यनिष्ठा और समर्पण जैसे गुण पाठशाला के प्रत्येक बच्चे और अभिभावक के लिए पूजनीय से थे। परंतु आज जैसे सब कुछ पाकर भी गीता ने बहुत कुछ खोया है।

    गाड़ी स्टेशन पर पहुँचने वाली है, ड्राइवर सूचना लेकर आता है। गीता गुलाबी साड़ी में सजी-धजी है। स्टेशन पहुँचकर नीलकंठ के भव्य स्वागत में आज उसकी पत्नी गीता भी सम्मिलित है। नीलकंठ भी गीता को जनता के सामने उचित मान-सम्मान प्रदान करता है। गीता के लिए यह बात आठवाँ अजूबा है, परंतु अपनी शालीनता और समर्पण को उसने छोड़ा नहीं है। नीलकंठ की गँवार पत्नी आज उसके साथ जनता को सम्बोधित भी करती है। यह बात नीलकंठ के लिए आठवाँ अजूबा है कि केवल बारहवीं पास अस्तित्वविहीन सी गीता में आज इतना आत्मविश्वास और आत्मबल कहाँ से आ गया। घर पहुँचने पर नीलकंठ सीमा को फटकारता है और अपने अचानक आने का कारण बतलाता है। सीमा ने पिछले दिन एक पत्रकार को नीलकंठ के मंत्री बनने पर साक्षात्कार दिया था, जिसमें उसके बेहूदा उत्तरों ने सीमा की मानसिकता को सामने ला दिया था। वह पत्रकार नीलकंठ का पुराना मित्र है, जिसके द्वारा नीलकंठ को संपूर्ण घटनाक्रम का विस्तार से पता चलता है। इसी बात की नाराजगी में वह सीमा को अब अपना घर छोड़कर जाने के लिए कहता है। यहीं सीमा खुलासा करती है कि गीता ने नीलकंठ को बिना बताए अपनी शिक्षा पूर्ण कर ली है और शीघ्र ही अध्यापिका की नौकरी करने के लिए यह भी घर छोड़ जाएगी। नीलकंठ को अपनी गलतियों का अहसास होता है और वह बार-बार गीता से घर नहीं छोड़ने के लिए प्रार्थना करता है। गीता भी आज दोराहे पर खड़ी है। एक ओर अपना पति-परिवार है, तो दूसरी ओर कुछ कर गुजरने की चाह लिए एक मन। गीता यहाँ अपनी अंतरआत्मा की आवाज सुनती है और नीलकंठ का घर छोड़ देती है। अपनी बेटी सारा के साथ अंजुरी भर चाँदनी पाने का अदम्य विश्वास लिए गीता जीवन के कुरुक्षेत्र में निकल पड़ती है।

    उषा यादव अपने पात्रों के चरित्र गढ़ने में खूब माहिर है। प्रत्येक पात्र अपनी स्थिति को पूर्णतया सिद्ध करता दिखता है। नारी चरित्रों पर उषा यादव विशेष ध्यान देती हुईं दिखती हैं। उनके नारी पात्र भले ही पद-दलित और शोषित हों, परंतु कुछ कर गुजरने की सच्ची लगन और आत्मबल उन्हें वक्त के थपेड़े सहने की ताकत देता है। गीता की भी कमोबेश यही सच्चाई है। एक अच्छी बेटी, अच्छी पत्नी, अच्छी माँ के गुण उसमें हैं, परंतु पुरुषवादी वर्चस्व की प्रवृत्ति उसके पाँव की जंजीर है। पैंतीस वर्ष तक अनेकानेक समस्याओं से जूझते हुए उसे जीवन की अंधेरी रातों में एक चमक-सी दिखाई देती है। संघर्षो से जूझती हुई एक स्त्री कैसे अपना खोया हुआ सम्मान दुबारा प्राप्त करती है, गीता इसका ज्वलंत प्रमाण है। गीता की बड़ी बहन सीमा उससे तीन वर्ष बड़ी है। आत्मसम्मान उसमें भी है, परंतु नीलकंठ द्वारा ठुकराये जाने पर वह मर्माहत होती है और गीता से बदला लेने की भावना रखती है। इसी कारण से वह नीलकंठ को अपने प्रति आकर्षित करती है। नीलकंठ का बचपन गुरुकुल में बीता है। गुरुकुल में धर्म और धन दोनों की ही व्यापकता उसे आकर्षित करती है। परंतु लोभ और लालच उसे भला आदमी नहीं बनने देते। मानवोचित कमजोरियों का पुतला है नीलकंठ। योग्यता न होते हुए भी विश्वविद्यालय में प्रवक्ता का पद उसे धर्माचार्य की सिफारिश पर ही मिलता है। अपने पास-पड़ोस, सहकर्मियों, परिवारीजनों के प्रति उसकी कोई निष्ठा नहीं है। प्रतिष्ठा की चाह उसे अंधा बना देती है। अपने बच्चों का भी वह कभी ध्यान नहीं रखता दिखाई देता है। बड़े-बड़े धार्मिक केन्द्रों में चलने वाली आर्थिक-सामाजिक गतिविधियों को लेखिका ने बड़ी गहराई से दर्शाया है। सत्ता प्रतिष्ठान भी इन्हीं केंद्रों के अधीन कहीं न कहीं आज भी है। विश्वविद्यालयों में नौकरी के लिए कैसी-कैसी सिफारिशें और उठापटक चलती है, इसकी बानगी स्वयं नीलकंठ है। अपने साक्षात्कार के समय नाममात्र का परिचय ही उसके सामने प्रश्न के रूप में सामने आते हैं। यही सिफारिशें उसे मंत्री पद तक पहुँचाती हैं। मूल्यों का विचलन और अंध प्रयासों का प्रदर्शन, नीलकंठ का जीवन इससे अधिक नहीं है।

    सीमा के एक छोटे से साक्षात्कार के उत्तर सुनकर नीलकंठ की आंखें खुलती हैं और जीवन की वास्तविकता का भान उसे तिरेपन वर्ष की आयु में होता है। उपन्यास अपनी सामान्य गति से चलता है, परंतु अंतिम पृष्ठों में जाकर असामान्य तेजी से घटनाएँ घटती चली जाती हैं। गीता, सीमा और नीलकंठ तीनों को ही अपनी वास्तविक स्थ्ािितयों का ज्ञान अंत में होता है और संदेह व अविश्वास के बादल छँट जाते हैं। उपन्यास के नाम की सार्थकता स्वयंसिद्ध है। तीनों मुख्य चरित्रों के लिए अंजुरी भर चाँदनी का अपना-अपना महत्व है। मगर अंत में गीता का जीवन, कर्मनिष्ठा की उजियाली रात में दृढ़निश्चय और स्वाभिमान की अंजुरी भर चाँदनी से ही अपनी राह ढूँढ लेता है। ग्रामीण क्षेत्र से आई गीता धन-सम्पदा पाकर भी इसे ठुकरा देती है और बच्चों की शिक्षिका बन जाती है।

    अपने सामाजिक संदर्भ में प्रस्तुत उपन्यास पूर्णतया सफल रचना है। स्त्री सशक्तिकरण की एक बेहतरीन मिसाल बनकर ‘अंजुरी भर चाँदनी’ हमारे समक्ष आता है। एक भावुक किशोरी से गीता का मजबूत इरादों वाली सशक्त नारी बनना प्रभावित करता है।


पुस्तक: अंजुरी भर चाँदनी

लेखिका: उषा यादव

प्रकाशन: नमन प्रकाशन

मूल्य: रु. 350/- 

पृष्ठ: 144

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डाॅ. नितिन सेठी

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बरेली (243005)

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