परावर्तन
- सुषमा मुनीन्द्र
कहानी कुछ ऐसी थी -
जज ने चोर को सजा सुनाई। चोर ने जज से कहा -
साहब सजा मुझे नहीं मेरी माँ को दो । माँ
ने बचपन में मुझे चोरी करने से रोका होता तो मैं चोर न बनता -----
प्रेरक को यह कहानी सुजान ने सुनाई और सुमुख ने
सुनाई। प्रेरक छोटा था। नहीं जानता था कहानी से प्रेरणा लेकर चरित्र बनाना चाहिये।
सुजान और सुमुख बड़े थे। जानते थे ऐसी
कहानियाँ चरित्र बनाने के लिये सुनाई जाती हैं कि बचपन में जेहन में बैठा दी गई
बातें जीवन का निर्धारण और निष्कर्ष बनती हैं। उन्होंने कहानी सुना दी और प्रेरक
को अपने तरीके से विकसित होने और समझ बनाने के लिये अकेला छोड़ दिया।
कहानी कुछ ऐसी है -
प्रेरक उन बच्चों में एक है जो सम्पन्न घर में
पैदा होते हैं। अंग्रेजियत में पलते हैं। खुद को सम्प्रभु मानते हैं।
अच्छे इलाके के थ्री बी0एच0के0 (बेडरूम, हाल, किचन) फ्लैट में रहने वाला यह तीन सदस्यीय परिवार सरसरी तौर पर शांत, आकर्षक, सम्पन्न, समायोजित लगता है। खूफिया बात यह है इस
परिवार के केन्द्र में अपने-अपने सपने, स्वार्थ, सुविधा, स्वतंत्रता है। सुजान और
सुमुख के बैंक खातों की तरह उनके कमरे भी अलग हैं। नहीं, वैचारिक भिन्नता अथवा वैमनस्यता जैसा
मुद्दा नहीं है। कई बार दोनों को या एक को
लैप टाँप पर देर रात तक काम करना पड़ता है। प्रकाश से दूसरे की नींद बाधित न हो
जैसी सौजन्यता को लेकर कमरे अलग हैं। वैसे जरूरत मुताविक वे एक-दूसरे के कमरे में
आवा-जाही करते हैं। प्रेरक का कमरा पैक
है। उसने कमरे में बाइक के सहारे खड़े माँस पेशियाँ फुलाये जान अब्राहम का फुल साइज
पोस्टर लगा रखा है। जाँन और ए0सी0 के तापमान के अलावा दूसरा एहसास उसे पसंद
नहीं। दखल कतई बर्दाश्त नहीं। बेतहाशा धन
कमा रहे सुजान और सुमुख को दखल देने की फुर्सत नहीं और रूपा बाई (परिचारिका) की
औकात कितनी ?
उसके लिये प्रेरक ने कमरे के बंद द्वार पर डू
नाँट डिस्टर्ब की अदृश्य पट्टिका टाँग रखी है।
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शिशु प्रेरक की ऊर्जा अपार थी। जिज्ञासा अनंत। वह सुजान और सुमुख से
भावना-संवेदना के साथ जुड़ना चाहता था। बात
करना चाहता था। उनके पास उससे जुड़ने, बातें
सुनने का न समय था न धीरज। प्रेरक ने जब जाना सुजान उसे पैदा नहीं करना चाहती थी
उसने सुजान और सुमुख से दूरी बना ली। पैदा हो ही गया है तो आधिकारिक तौर पर वसूली
करने का हक भी मिले। माँग छोटी हो या बड़ी
पूरी होनी चाहिये।
सुजान और सुमुख इंजीनियरिंग के विद्यार्थी।
विदेश जाने, पैसा कमाने जैसी समान रुचि ने नजदीकियाँ
बनाई। वैवाहिक शुरुआत कम वेतन और घर से बेदखली (अन्तर्जातीय विवाह) से हुई।
सुजान ने कहा -
‘‘सुमुख, मुझे कैरियर बनाना है। पाँच साल तक नो बच्चा।’’
‘‘आफकोर्स।
अभी तो पैसे की बात करो और प्रगति की।’’
पैसा मिला। प्रगति भी।
महानगर की प्रतिष्ठित कम्पनी से दोनों को
प्रस्ताव मिला। सुमुख उत्सव मना रहा था इधर प्रेरक दखल की तरह दस्तक दे रहा था।
सुजान हताश -
‘‘अभी
नहीं चाहती थी।’’
‘‘कब
चाहती थी ? शादी को छः साल हो रहे हैं।’’
‘‘इतनी
अच्छी अपाच्र्यूनिटी छोड़ दूँ ?’’
‘‘मैं
ज्वाइन कर रहा हूँ न। आगे तुम्हे भी कई अपाच्र्यूनिटी मिलेगी।’’
‘‘इतनी
बड़ी डिग्री लेकर मैं बच्चा पालते नहीं बैठूँगी।’’
‘‘मेट्रोपोलिटन
में अपाच्र्यूनिटी की कमी नहीं रहती।’’
यहाँ सचमुच अवसर थे। सुजान को अन्य कम्पनी में
काम मिल गया। प्रेरक आया के सुपुर्द। सुजान और सुमुख एक साथ घर से निकलते। अपनी-अपनी
लोकल पकड़ दफ्तर पहुँचते। रोता हुआ साल भर का प्रेरक सुजान की समीपता चाहता था। आया
क्रूर नहीं थी लेकिन उसे चुप कराने में असमर्थ थी। उसे दूध में नींद की गोली मिला कर पिला
देती। वह लम्बी नींद सोता। तीन साल पूरे
करते हुये प्रेरक ने आया के सानिध्य में रहना और खिलौनों से दिल बहलाना सीख लिया।
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सुजान और सुमुख के वात्सल्य और कर्तव्य का
प्रदर्शन करते रोबोट, टैंकर, कारें, ही मैन, गन, वीडियो गेम जैसे मॅंहगे खिलौने। प्रेरक, आया की कनपटी पर गन लगा देता -
‘‘मल
जाओ काकू।’’
आया मरने का अभिनय न करती तो प्रेरक इसे अपनी
असफलता मान कर रोने लगता ‘‘मल जाओ काकू।’’
आया निष्प्राण सी एक ओर धसक जाती।
प्रेरक खुश ‘‘अब मत मलो काकू।’’
आया जीवित हो जाती।
भविष्य का निर्धारण हो रहा था या प्रेरक को गन
स्वाभाविक तौर पर लुभाती थी। खिलौने खरीदने जाता और हर बार गन पसंद करता।
सुजान आपत्ति करती ‘‘फिर गन। प्रेरक तुम डाकू बनोगे।’’
सुमुख दिलासा देता ‘‘आर्मी ज्वाइन करेगा।’’
प्रेरक की जिद ‘‘गन लूँगा।’’
जिद को बहलाने का वक्त नहीं।
गन दिलाओ और प्राण बचाओ।
सुजान और सुमुख जब मॅंहगे दफ्तरों में होते
प्रेरक खिलौनों का पोस्ट मार्टम कर ऊपरी सजावटी खोल, कल पुर्जे, ढाँचा, सेल अलग कर डालता।
सुजान संताप से भर जाती ‘‘सचमुच डाकू बनेगा।’’
सुमुख दिलासा देता ‘‘तकनीक समझ रहा होगा। सुजान, प्रेरक तेज दिमाक बच्चा है।’’
‘‘सुमुख, तोड़-फोड़ तेज दिमाक वाले नहीं उल्टे
दिमाक वाले बच्चे करते हैं।’’
‘‘सुजान, प्रेरक तेज दिमाक बच्चा है। इसीलिये
शांत नहीं बैठता। ऐसे बच्चे कन्सट्रक्टिव करते हैं या डिस्ट्रक्टिव। एनर्जी को तो
फ्लो होना है। सही दिशा में या गलत दिशा में लेकिन फ्लो होगी।’’
‘‘अब
प्राब्लम चाइल्ड ही पैदा होते हैं।’’
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आया दिन भर की खुराफात सुना प्रेरक के प्राब्लम
चाइल्ड होने की पुष्टि कर देती -
‘‘बाबा, बहुत पिराबलम देता है। आज बर्र बन गया
था। देखो पेट में मुझे कइसा काटा।’’
दाँत के स्पष्ट चिन्ह ने सुजान का संताप बढ़ा
दिया ‘‘डाकू बनेगा।’’
विचित्र बात थी। जिस उम्र में बच्चे बंदर या बाघ बनकर घर के
सदस्यों को डराते, तितली पकड़ते या पिता को घोड़ा बनाकर पीठ
पर सवारी करते हैं प्रेरक बर्र बन जाता या जूतों से चींटें मारता। आया के चैगिर्द घूमता और सहसा काट लेता -
‘‘काकू
तुम्हें बर्र ने काटा।’’
जूते की एड़ी की रगड़ से मरते चींटों से उत्पन्न
होती चट्ट की महीन आवाज उसे आनंद देती -
‘‘रास्कल
मर गया।’’
सुजान और सुमुख द्वारा अपने इमीजियेट बाँस को
दी जाने वाली अॅंग्रेजी की प्रचलित गालियों को प्रेरक ग्रहण कर रहा था। क्या ग्रहण कर रहा है अपने काम में दत्त सुजान
और सुमुख नहीं जानते थे। खबर न थी प्रेरक
स्वार्थी, आत्म केन्द्रित, असहिष्णु होता जा रहा है। स्कूल बस की सबसे आगे विंडो वाली सीट उसने
आरक्षित कर रखी थी। वहाँ दूसरा विद्यार्थी बैठ जाता तो यह बाँह पकड़ कर उठा देता -
‘‘कैसे
बैठा स्टुपिड ?’’
विद्यार्थी न उठता तो यह अंगुल भर स्थान में
ठॅंस कर उसे चिकोटी काटता ‘‘रोया तो विंडो के बाहर फेंक दूँगा।’’
अपमानित विद्यार्थी उठ जाता। शोर में खबर न
होती कौन किसको बुली कर रहा है। प्रेरक ने मान लिया बुली करने में आनंद है। अपनी
ताकत का पता चलता है।
ताकत आजमाने के लिये प्रेरक खिलौना ही मैन की
तरह बाँडी फुला कर पोज बनाने लगता। आया हॅंसती -
‘‘अच्छा
तो अब बर्र नहीं गुड्डा बनोगे।’’
‘‘काकू
यह गुड्डा नहीं, ही मैन है। मैं बड़ा होकर ही मैन बनूँगा।
ढिंशूग ---- ढिंशूग ----।’’
‘‘खाना
खाओ। मुक्काबाजी बाद में करना।’’
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खाना खाते हुये प्रेरक टी0वी0 चला लेता। अश्लील और हिंसात्मक सामग्री दिखाते चैनल, म्यूजिक वीडियो, विज्ञापन, विडियो गेम के लक्ष्य वेधते खेल उसे
ताकतवर और हिंसक बनने की प्रेरणा देते।
साथियों के साथ खेलते हुये प्रेरक अचानक उनसे उलझ जाता और फाइटिंग के लिये
उकसाता।
अपने दफ्तरों में दत्त सुजान और सुमुख घर, कार, भौतिक उपकरणों के मालिक बनने के लिये बेतहाशा धन जमा कर रहे थे इधर
प्रेरक की मानसिक विकृतियाँ अद्भुत रफ्तार से बढ़ रही थीं। विकृतियाँ शातिर होती हैं। एक पूरा परिणाम बन
कर दृश्य पर आती हैं। परिणाम बनने से पहले प्रमाण दिये भी हों तो देखने का अवकाश
सुजान और सुमुख को नहीं था। दो-चार जरूरी और नियमित प्रश्नों के अलावा प्रेरक और
उनका संवाद नगण्य था। वे नहीं जानना चाहते थे और प्रेरक नहीं बताता था उसकी
द्विविधा और उलझनें क्या हैं और समाधान किस तरह निकलता है।
जब थ्री बी0एच0के0 में शिफ्ट हुये प्रेरक दस
वर्ष पूरे कर रहा था।
‘‘माँम
मैं बड़ा हो गया हूँ। मुझे अलग कमरा चाहिये। किराये के घर में बैठक के दीवान पर
बहुत सो लिया।’’
-ठीक बात है।
बड़ा हो रहा है। बड़े होने में खुद
अपनी मदद करे।
‘‘मैं
बड़ा हो गया हूँ। मुझे दिनभर रहने वाली मेड नहीं चाहिये। खाना बनाने वाली रख लो।
बनाये और सटक ले। मैं खाना खा लूँगा। घर का लाँक खोल लूँगा।’’
-ठीक बात है। काकू, पचास किलोमीटर दूर आयेगी नहीं। वैसी
कर्मठ स्त्री मिलेगी भी नहीं। प्रेरक अपनी भूख और नींद का ख्याल खुद रखे।
‘‘बड़ा
हो गया हूँ। कम्प्यूटर चाहिये।’’
-ठीक बात है। कम्प्यूटर के बिना शिखर पर नहीं
पहुँचा जा सकता।
‘‘बड़ा
हो गया हूँ। सेल फोन चाहिये।’’
-ठीक बात है। सेल फोन अब विलासिता नहीं
आवश्यकता बल्कि अनिवार्यता है। प्रेरक स्कूल, ट्यूशन, भीड़, सड़क कहाँ है,
सेलफोन बतायेगा।
‘‘पाँकेट
मनी चाहिये।’’
-ठीक बात है। स्टेशनरी जैसी जरूरी सामग्री
खरीदने का वक्त नहीं है। प्रेरक खुद खरीदे।
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अपना कमरा। अपना साम्राज्य। सुविधा और सहूलियत।
कम्प्यूटर और टी0वी0 बेस्ट फ्रेण्ड। चैटिंग करो।
पोर्न साइट खोलो। सेल फोन से लम्बी बातें।
पाँकेट मनी बड़े काम की चीज। सहपाठियों को फास्ट फूड सेंटर और आइसक्रीम
पार्लर ले जाकर अपनी बादशाही मजबूत करो। जब उसने सहपाठिनी संजीवनी को दो-चार बार
आइसक्रीम खिलाकर अपनी गर्ल फ्रेण्ड घोषित किया, उम्र
कुल तेरह की थी। प्रसन्न ने कहकहा लगाया -
‘‘गर्ल
फ्रेण्ड ?
प्रेरक
क्या तुम संजीवनी को लेकर सीरियस हो ?’’
‘‘नो
मैन। साल-छः महीने में बोर हो जाऊॅंगा। फिर ब्रेकअप।’’
प्रेरक भाव पूरी तरह नहीं समझता था लेकिन बाँडी
लैंग्वेज ऐसी बनाये रखता मानो बहुत जानकार है।
प्रसन्न ने चुनौती दी ‘‘तुम्हारे पास एक्सपेन्सिव सेल फोन है।
गर्ल फ्रेण्ड का एम0एम0एस0 बनाओ तो मजा आ जाये।’’
प्रेरक भाव पूरी तरह नहीं समझा लेकिन कहा ‘‘आगे-आगे देखो होता है क्या ?’’
किसी विद्यार्थी ने प्रेरक के बयान को कक्षा
अध्यापिका तक पहुँचा दिया। कक्षा अध्यापिका ने उसे अलग बुलाया -
‘‘प्रेरक, तुम इतना अच्छा परसेन्टाइल लाते हो और
गलत बात करते हो ?’’
‘‘साँरी
मैम।’’
‘‘मैं
तुम्हारी प्रोग्रेस बुक में रिमार्क लिख रही हूँ। फादर से साइन करा लाना।’’
‘‘साँरी
मैम।’’
‘‘इस
बार साइन। फिर शिकायत आई तो एक्शन लूँगी।’’
प्रेरक
ने फेक साइन बनाने में दक्षता ले ली थी। सुमुख के हस्ताक्षर बना प्रोग्रेस बुक
कक्षा अध्यापिका के समक्ष प्रस्तुत की -
‘‘साँरी मैम।’’
‘‘अपनी एक्टीविटी ठीक रखो। प्रेरक तुम
अच्छे स्टूडेन्ट हो।’’
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‘‘थैंक्यू
मैम।’’
प्रेरक ने अपने गुट में एलान किया ‘‘किस जीनियस ने मेरी शिकायत की है ? आय विल सी हिम लेटर।’’
मॅंहगे दफ्तरों में दत्त सुजान और सुमुख ने
प्रेरक की उत्कृष्ट अंकसूचियों को उसका विकास और अपना कर्तव्य मान लिया। नहीं
जानते थे उसका व्यवहार अनैतिक बल्कि विपथगामी होता जा रहा है। दूसरों को सताने में, जोखिम उठाने में उसे एक किस्म का आनंद
मिलता है। सैडिस्टिक प्लेजर। उन्होंने बिल्कुल
नहीं सोचा था प्रेरक इतवार की फुर्सत का लाभ ले गैरिज से कार निकाल ले
जायेगा। दरअसल वह ड्राइविंग दिखा कर
कालोनी के साथियों को दंग कर देना चाहता था। अनाड़ीपन और अनियंत्रण में कार गुलमोहर
वृक्ष से टकरा गई। सुजान और सुमुख जब तक स्थल पर पहुँचते प्रेरक कार से निकल आया
था और कालोनी के कुछ लोग एकत्र थे। सुजान और सुमुख बिल्कुल भी सामाजिक नहीं थे अतः
एकत्र लोगों में दो-चार को पहचानते थे। कार खरीदने हेतु लिया गया भारी लोन। नौ लाख
की कार। कार में डेन्ट। सुजान ने बर्बर
होकर प्रेरक को कई तमाचे मार दिये। प्रेरक
ने नहीं सोचा था भौतिक समृद्धि दिखा कर जिन साथियों पर रोब गालिब करता है उनके
सामने पिट जायेगा। लज्जित बल्कि उत्तेजित होकर उसने सुजान की कलाई जकड़ ली -
‘‘माँम, स्टाप दिस नानसेन्स ----।’’
अंग्रेजियत वाले बच्चे एक झटके में चीजों को नाँनसेन्स
बना देते हैं।
घर और कार के लोन का दबाव झेलता सुमुख तारत्व
से चीखा ‘‘प्रेरक, माइण्ड योर लेंग्वेज।’’
‘‘माँम
ने मुझे पब्लिक प्लेस में मारा। नाँट
फेयर।’’
प्रेरक चीखा और घर भाग आया। कार गैरिज में खड़ी
कर सुजान और सुमुख आये।
‘‘प्रेरक
दरवाजा खोलो।’’
न डर न घबराहट। दरवाजा खोल प्रेरक हाँल में आकर
बैठ गया -
‘‘माँम, तुमने मुझे सबके सामने क्यों मारा ?’’
‘‘तुमने
किस टोन में बात की ?’’
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‘‘मेरा
एक सर्किल है। मुझे एम्बेरेसमेन्ट हुई।’’
प्रेरक के बागी तेवर देख सुमुख ने संयम दिखाया ‘‘प्रेरक तुमने ड्राइविंग कब सीखी ?’’
‘‘आपको
और माँम को चलाते देख कर।’’
‘‘तुम्हारी
उम्र कार चलाने की नहीं है।’’
‘‘थोड़ा
ट्राई कर रहा था।’’
‘‘तुम
इन्जर्ड हो सकते थे।’’
‘‘पापा, हम बाद में बात करेंगे। मुझे प्रोजेक्ट
तैयार करना है।’’
प्रेरक अपने कमरे में गुमशुदा।
सुजान और सुमुख बहस पर उतरे -
‘‘सुमुख, मैं सोचती थी हम जितना पूँछते हैं उतना
ही जबाब देत है। डिसिप्लिन्ड हो रहा है पर यह लड़का किसी दिन बड़ा घोटाला करेगा।’’
‘‘सुजान, वह जानता है उसका बोलना हमें, खास कर तुम्हें दखल की तरह लगता है, इसलिये कम बोलता है। मैं फिर कहता हूँ
उसकी उम्र बहकने की है। उसे सही गाइड लाइन मिलनी चाहिये। और यह काम माँ ही कर सकती
है।’’
हद करता है सुमुख। माँ और गृहिणी का भार सुजान
उठाये कि वह स्त्री है। और सुमुख स्वतंत्र रहे कि पुरुष है।
‘‘गाइड
लाइन। सुमुख तुमने कौन सी जिम्मेदारी समझी ? मैं
बच्चा नहीं चाहती थी। आजकल के बच्चे माँ-बाप को हाइपर टेंशन नही देते हैं।’’
‘‘हम
नहीं जानते प्रेरक अकेले कैसे दिन बिताता है। किसकी संगत करता है। मैंने तो उसे आज
दिनों बाद ध्यान से देखा है। सुजान उसे थोड़ा समय और सहयोग दो।’’
‘‘मेरे
पास समय नहीं है, यह बहाना नहीं है सुमुख।’’
‘‘हाँ, लेकिन हम उसे समय नहीं देते इसलिये
स्पष्टीकरण भी नहीं माँग पाते। हम दोनों खुल कर नहीं कह पाये कार चलाने की उसकी
हिम्मत कैसे हुई।’’
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‘‘ठीक
है। जाँब छोड़कर उसकी केयर में बैठ जाती हूँ।
इतना लोन तुम अकेले नहीं चुका पाओगे।’’
‘‘लोन
चुकाने में सचमुच एक उम्र निकल जायेगी -----।’’
तेज आवाज प्रेरक तक पहुँच रही थी।
आरोप-प्रत्यारोप उसे सैडिस्टिक प्लेजर दे रहे थे।
प्रेरक वैसा बच्चा नहीं था जो माता-पिता को
लड़ते देख भयभीत होते हैं। जिन्हें मार-पीट और खून का लाल रंग अचम्भित करता है।
उसका अपना अलग कमरा। जहाँ जान अब्राहम बता रहा था तेज रफ्तार ड्राइविंग पौरुष का
प्रदर्शन होती है। कम्प्यूटर की तमाम साइट बताती थीं गर्ल फ्रेण्ड के मायने क्या
होते हैं। टी0वी0 चैनल हिंसा, बलात्कार, रक्तपात जैसी अस्वस्थ सामग्री दिखा कर
उसकी निर्मलता खत्म कर रहे थे। शुरू में वह हैरान होता था। माता-पिता से प्रश्न पूँछना
चाहता था। उनके पास वक्त नहीं था। वह अपनी उलझनों, द्विविधा का समाधान खुद ढूँढ़ता। अब उसे हिंसा अनैतिक नहीं लगती।
सताने में आनंद मिलता है। सैडिस्टिक प्लेजर।
प्रेरक कक्षा दस का विद्यार्थी। आरम्भ सत्र में
कक्षा में आये चार नये विद्यार्थियों की पे्ररक ने अपने गुट के साथ रैगिंग ली।
विद्यार्थियों से नाम पॅंूछा गया। एक विद्यार्थी का नाम कृष्णा प्रसाद था। नाम सुनकर प्रेरक इला अरुण का गाना ‘दिल्ली शहर में मेरो घाघरो जो धूम्यो
----’ की तर्ज पर लहक कर गाने लगा ‘दिल्ली शहर में मेरो कृष्णा प्रसाद गुम
ग्यो ----।’ फिर तो प्रेरक, कृष्णा प्रसाद को परिसर में देखते ही
फिकरा देने लगता ‘दिल्ली शहर में ----।’
एक
दिन कृष्णा प्रसाद ने प्रेरक की टाई पकड़ ली -
‘‘बताता
हूँ, कौन गुम गया। ऐसा गुमाऊॅंगा कि प्रेरक
तुम स्कूल में नजर नहीं आओगे।’’
तमाम विद्यार्थी गोल घेरा बना कर दोनों का मल्ल
युद्ध देखने लगे। दो-चार सीनियर विद्यार्थियों ने दोनों को अलग किया। प्रेरक
सार्वजनिक तौर पर दूसरी बार पिटा। सुजान ने मारा था वह अलग मामला था। यहाँ सड़क छाप
लड़के की तरह इतने घटिया तरीके से लड़ा और शक्तिहीन साबित हुआ। डर लगा और शर्म आई। क्लास टीचर या प्रिंसिपल को
ज्ञात हो तो पता नहीं क्या एक्शन लेंगे।
संजीवनी ने देखा होगा तो उसे गिरा हुआ समझ रही होगी। प्रसन्न को आज ही बंक
मारना था। उपस्थित होता तो पराक्रम दिखा
कर कृष्णा प्रसाद को मसल देता। खत्म हो गई खुद्दारी और एरिस्टोक्रेसी। धूल-धब्बे
वाली यूनीफार्म में प्रेरक घर आया। सानत्वना की जरूरत थी लेकिन उसका
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दर्द और उदासी जानने के लिये घर में कोई नहीं।
घर के एकांत में प्रेरक ऊॅंची आवाज में रोया।
खुद को निरूपाय-निसहाय पाया लेकिन सुजान और सुमुख के लौटने तक सम्भल गया।
तीसरे दिन शाला गया। प्रसन्न बहुत बड़े
सहारे और सलाहकार की तरह प्रस्तुत था -
‘‘प्रेरक
मुझे पता चला। होता है। धक्के खाओगे, मजबूती
आयेगी। ऐसा कोई नहीं होता जिसने कभी न कभी मार न खाई हो। एक बार मैं अपने बड़े भाई
के साथ बुरा फॅंसा था। मेरा भाई मवाली टाइप है।
उसके साथ मैं भी पिट गया। दो लड़कों ने मेरे हाथ पीछे जकड़ लिये और दो लड़के
मारते रहे। होता है। मौका मिलते ही कृष्णा प्रसाद से हिसाब बराबर कर लेंगे। बाइ द
वे मम्मी-पापा ने तो नहीं पूँछा किला फतह करके कहाँ से आ रहे हो ?’’
सभी पिटते हैं जैसी सूचना ने प्रेरक को दिलासा
दी ‘‘उन्होंने ध्यान नही दिया। इतना बिजी रहते हैं। मुझसे मतलब नहीं रखते।’’
प्रसन्न ने करतल नाद किया ‘‘तुम्हारी उम्र माँ-बाप से मतलब रखने की नहीं, लड़कियों को एस0एम0एस0 भेजने की है। माँ-बाप
टोका-टाँकी के अलावा करते क्या हैं ? मैं तो अपनी माँ को बिल्कुल भाव नहीं
देता। सुनो प्रेरक, माँ-बाप से नहीं उनकी मनी से मतलब रखो।’’
‘‘प्रसन्न
तुम हरदम पैसे की बात करते हो।’’
‘‘तुम
नहीं करते क्योंकि तुम्हारा वाँलेट रिच रहता है। मेरे माँ-बाप हिदायत खूब देते हैं, पैसा एक नहीं देते। मैंने सोच लिया है।
खूब पैसा कमाना है। चाहे जिस तरह। पैसा कमाऊॅंगा तब जानते हो सबसे पहले क्या खरीदूँगा
?’’
‘‘क्या
?’’
‘‘बाइक।
जाँन अब्राहम स्टाइल में चलाऊॅंगा। बाइक
के कारण मैंने ‘धूम’ मूवी चार बार देखी। बाइक और बाइक की स्पीड न होती तो मूवी में कुछ
नहीं था। बाइ द वे तुम बाइक कब ले रहे हो ? इकलौते
चिराग को साइकिल शोभा नहीं देती।’’
‘‘हाँ, लॅूँगा।’’
प्रेरक
को बाइक दिलाई गई।
सुमुख ने चेतावनी दी ‘‘प्रेरक तुम जिद पकड़ लेते हो। बाइक
कालोनी में चलाओ। अभी भीड़ में न ले जाना। धीरे-धीरे अभ्यास होगा।’’
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‘‘आय
नो पापा।’’
प्रेरक ने कहा लेकिन नयी वस्तु के नयेपन का
जज्बा जबर्दस्त होता है। प्रेरक सहपाठियों को दिखाना चाहता था इतनी कीमती बाइक की
राइड करने वाला क्लास का वह पहला विद्यार्थी है। सहपाठियों ने उसे बाइक समेत घेर
लिया। संजीवनी और प्रेरक का अनुराग अब छिपी बात न थी। सहपाठियों ने शह दी ‘‘प्रेरक, संजीवनी को बैठाकर बाइक को पवित्र करो।’’
कीमती सुविधाओं के लिये तरसती संजीवनी। बाइक पर
बैठना मानो उड़न खटोले पर बैठना।
‘‘प्रेरक, अब मैं बस से नहीं तुम्हारे साथ बाइक
में स्कूल आया करूँगी।’’
‘‘जल्दबाज
लड़की। ठीक से सीख तो लूँ।’’
‘‘अच्छी
चला रहे हो।’’
‘‘पटक
दूँगा तब जानोगी अच्छी चला रहा हूँ।’’
डरती नहीं हूँ।’’
‘‘बजरंगबली
जो हो।’’
लेकिन प्रसन्न ने उपहास किया -
‘‘प्रेरक, संजीवनी को बैठा कर तुम फिसड्डी की तरह
बाइक चला रहे थे। लड़की पटाना है तो स्पीड तेज रखो। स्पीड और मैकेनिजम का पूरा इस्तेमाल
न करो तो बाइक कितनी ही कीमती हो, कीमती
नहीं लगती। छूने दो तो दिखाऊॅं कैसे चलाना चाहिये।’’
‘‘दिखाओ।’’
प्रसन्न चालक सीट पर। प्रेरक पीछे। प्रेरक ने माना प्रसन्न दक्ष बाइकर है। वाह।
तेज गति में आनंद है। भीड़ में राहगीरों को
चैंकाते हुये कट मारते हुये चलाओ। वाह।
---- लेकिन तेज गति नियंत्रण बनाने का मौका नहीं देती। तिराहे पर साइकिल
सवार लड़का अचानक सामने आ गया। प्रसन्न गति
सम्भाल न पाया। टकराते ही साइकिल सवार लड़का भुलुण्ठित हो गया। प्रसन्न बाइक से
उतरा और चोटिल लड़के को काँलर पकड़ कर उठाते हुये दो तमाचे मार दिये -
‘‘अंधा
है ? पब्लिक मुझे पकड़ेगी कि मैंने तेरा कत्ल किया।’’
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लड़का स्थिति बूझता, मजमा लगता उसके पहले प्रसन्न बाइक उड़ा
ले गया। प्रेरक को प्रसन्न की हिंसक प्रतिक्रिया समझ में नहीं आई -
‘‘लड़का
इन्जर्ड हुआ होगा। प्रसन्न तुमने उसे मार दिया।’’
‘‘मार
दिया कि मोड़ पर आगे-पीछे देख लिया करेगा। प्रेरक तुम स्पून फीडिंग वाले बच्चे हो।
नहीं जानते जहमत क्या होती है। मैं न मारता तो लोग मुझे मारते या कहते लड़के को
हर्जाना दो। क्या पता हमें थाने ले जाते।’’
‘‘मैं
दे देता हजार-पाँच सौ।’’
‘‘मुझे
दे दो। मैंने तुम्हें पुलिस से बचाया वरना तुम्हारी बाइक जब्त हो जाती।’’
‘‘बाइक
? नो।’’
‘‘बाइक
की बड़ी चिंता है। तभी कहता हूँ खुद को सेफ रखना है तो दूसरों को पनिश करो।’’
घर आकर प्रेरक ने अच्छी तरह बाइक का निरीक्षण
किया। सब ठीक है। प्रेरक को दिलासा मिली।
खाना खाते हुये उसने रोज की तरह टी0वी0 चला लिया। प्रस्तोता हाथ फटकार कर
चुनौती देते लहजे में दर्शकों को मानो ललकार रहा था - क्या आप विश्वास करेंगे
पन्द्रह साल का कक्षा नौ का छात्र स्कूल ग्राउण्ड में दिन दहाड़े पिस्टल से अपने
सहपाठी का खून कर देता है ?
---- छात्र
ने सहपाठी को पाँच सौ रुपये उधार दिये थे। सहपाठी रुपये नहीं लौटा रहा था। छात्र
ने दबाव बनाया तो सहपाठी ने धमकी दी पैसे माँगेगा तो वह छात्र को मार कर रेल्वे
ट्रैक पर फेंक देगा। छात्र भयभीत हो गया।
अपने पिता की पिस्टल लेकर स्कूल आया और बीच मैंदान में सहपाठी को
छलनी-----।
प्रेरक को अब हिंसा दिखाती खबरें नहीं चैंकाती।
बल्कि असली पिस्टल को छूकर देखने की इच्छा हुई। वह सुमुख के कमरे में कम जाता है
लेकिन जानता है स्टडी टेबुल की दराज में पिस्टल रखी रहती है। सुमुख ने पिस्टल
सुरक्षा की दृष्टि से खरीदी है।
‘‘सुजान, घर में वीपेन रखना चाहिये। मौके पर मदद
करने न पड़ोेसी आते हैं न पुलिस। देखो तो इतनी सी चीज और किसी का भेजा उड़ा दे।’’
प्रेरक पिस्टल को उलट-पुलट कर देखता रहा। फिर
दराज में रख कर अपने कमरे में आ गया। एक झपकी लेगा फिर पढ़ेगा। बारहवीं बोर्ड है।
अंक अच्छे लाने होंगे।
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विचित्र बात थी। तमाम बदमाशियों के बावजूद
प्रेरक अंक अच्छे लाता था। अंक सूचियाँ उसकी बौद्धिक क्षमता की सूचक थीं। वह
परीक्षा की तैयारी कर रहा था संजीवनी सेल फोन पर ब्लास्ट कर रही थी -
‘‘प्रेरक, आ‘यम
प्रेगनेन्ट।’’
किस सिरफिरी पर अपना वालेट लुटाया। तमाम
लड़के-लड़कियों की तरह नौरात्र में डांडिया खेलने की आड़ में होटेल में रूम बुक कर
दोनों ने एनज्वाँय किया। परिणाम यह।
‘‘ओ
नो संजीवनी।’’
‘‘ट्रस्ट
भी।’’
‘‘कुछ
कान्ट्रासेप्टिव यूज करना था न।’’
‘‘मुझ
पर आरोप मत लगाओ प्रेरक। मैं ही नहीं तुम भी जिम्मेदार हो।’’
‘‘टरमिनेट
करा लो। हमें एग्जाम देना है।’’
‘‘मैं
तुमसे बहुत प्यार करती हूँ प्रेरक। एग्जाम के बाद हम शादी कर लेंगे।’’
प्रेरक तारत्व से चीखा ‘‘नो, नेवर।’’
‘‘हम
एडल्ट हैं।’’
‘‘तुम।
मैं नहीं। कानूनी तौर पर लड़के इक्कीस के बाद शादी के लिये इलीजिबल होते हैं। अरे
यार अब लड़के तीस-पैंतीस साल से पहले शादी नहीं करते, बाप क्या बनेंगे।’’
‘‘प्रेरक
तुम मेरा मजाक उड़ा रहे हो। मैं अपने रिलेशन को लेकर सीरियस हॅंू।’’
‘‘टरमिनेट
कराओ। हास्पिटल का बिल मैं दे दूँगा।’’
‘‘प्रेरक
सुनो तो ----।’’
’’संजीवनी
तुम ‘क्या कहना’ की प्रिटी जिंटा बनने जैसा किडिश बिहैव
मत करो।’’
‘‘तुम
मजाक मत करो। कहते हो अपने फैसले खुद लेते हो।’’
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‘‘यह
सेल फोन या बाइक चूज करने जैसा फैसला नहीं है। पढ़ाई, कैरियर, फ्रीडम सबकुछ खत्म कर देने जैसी बात
है।’’
‘‘मैं
परेशान हूँ।’’
‘‘मुझे
सोचने दो संजीवनी।’’
प्रेरक इस तरह संत्रस्त अब तक न हुआ था। बचपन
अकेले जिया। किशोरावस्था अकेले बितायी।
सुजान और सुमुख ने समय और सहयोग नहीं दिया लेकिन माँग तत्काल पूरी की।
भौतिकता से संचालित होते हुये जब वह खुद को सिकंदर मानने लगा है संजीवनी ध्वंस कर
रही है। किताब खोलता है, एक शब्द समझ में नहीं आता। भृकुटि के बीच भारी बोझ महसूस होता है। सेल फोन
पर फ्लैश होता संजीवनी का नम्बर पसीना ला देता है।
‘‘प्रेरक
मैं क्या करूँ ?’’
‘‘टरमिनेट
कराओ।’’
‘‘मैं
तुमसे किस कदर जुड़ गई हूँ तुम जानते हो। अपनी माँम से बात करो न।’’
‘‘नो।
नेवर।’’
प्रेरक, सुजान
और सुमुख के प्रति निर्लिप्त हो चुका है पर इतना भी नहीं कि उनसे थोड़ा सा भयभीत न
हो।
‘‘मुझे
प्रामिस चाहिये। तुमसे और तुम्हारी माँम से कि मुझे एक्सेपटेन्स मिलेगी।’’
‘‘थोड़ा
सोचने दो यार।’’
‘‘मैं
तुम्हारी माँम से मिल सकती हूँ ?’’
‘‘नो।
नेवर।’’
‘‘फिर
तो एक ही आप्शन है। अपनी पल्स काट लूँ।’’
‘‘पागल
मत बनो संजीवनी।’’
‘‘घरवालों
को क्या बताऊॅं कि मैं प्रेरक के साथ इन्वाल्ब्ड थी ?’’
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‘‘नो।’’
‘‘नो।
फिर तो मुझे मर जाना चाहिये। सुइसाइड कमिट करने का रीजन जरूर लिख जाऊॅंगी ताकि
पुलिस मेरी फेमिली को परेशान न करे।’’
प्रेरक ने सिर थाम लिया। यह हमला है, चुनौती या भयादोहन ? तो आगे ?
एकाएक
उसे खुद पर करुण हुई। जिन गतिविधियों को अपनी दुनिया, अपना तरीका, अपनी धुन समझता रहा वस्तुतः वह असंतुलन
था। असंतुलन में न ठीक से जी सका, न
सपने देख सका, न लक्ष्य बना पाया। तय नहीं कर पाया
क्या करना है और क्या करना चाहिये। परीक्षा सिर पर लेकिन यह कितना बड़ा कहर।
आखिर उसने संजीवनी के सेल पर काँल किया -
‘‘---- मैंने माँम से बात की। सुनो, आज
शाम मैं तुम्हें लांग ड्राइव पर ले जाऊॅंगा। वापसी पर मंदिर जाकर हम शिवजी के
दर्शन करके आशिर्वाद लेंगे। फिर तुम्हें माँम से मिलवाने के लिये घर लाऊॅंगा ----
हाँ, वे तुमसे मिलना चाहती हैं ----।’’
संजीवनी ने दिनों बाद साँस ली।
प्रेरक बड़बोला है, जल्दबाज है, उग्र है। रहीस परिवार के इकलौते पूत
में ये दुर्गुण आ ही जाते हैं। अच्छी बात
यह है दिल से निर्मल है। क्राँस लेग में
बाइक पर बैठी संजीवनी नहीं जानती थी प्रेरक उग्रता से आगे क्रूर बल्कि नृशंस हो
सकता है। लांग ड्राइव। चैड़ा पथ। दूर तक
कोई नहीं। प्रेरक ने बाइक रोकी -
‘‘उतरो
संजीवनी।’’
‘‘वाट
हैपेण्ड ?’’
‘‘कुछ
ट्रबुल है।’’
‘‘नो
मैन। अभी मैं बहुत खुश हूँ।’’
प्रेरक ने जींस की जेब से पिस्टल निकाल ली। हाथ
अनाड़ी, प्रयोग पहला। जानता है पिस्टल भेजा उड़ा
देती है। जानता है खुद को सेफ रखना है तो दूसरों को पनिश करो। संजीवनी तुम मरना
चाहती हो न। पल्स काट कर मरो या पिस्टल से क्या फर्क पड़ता है ? प्रेरक को चेत नहीं कब तक ट्रिगर दबाता
रहा। नहीं जानता गोलियाँ संजीवनी को लग रही हैं या नहीं।
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सड़क पर तड़पती संजीवनी की चीख वीराने में गुम
होती रही। प्रेरक लौट चला और अपने कमरे में बंद हो गया।
एक-दूसरे पर पकड़ खो चुके इस तीन सदस्यीय समृद्ध
परिवार के खाते में यह दिन भी दर्ज होना था। पुलिस को आशा नहीं थी प्रेरक घर में बरामद
होगा।
प्रेरक ने दरवाजा खोला ‘‘क्या बात है सर ?’’
‘‘तुम
प्रेरक ?’’
‘‘यस।’’
उन्नीस साल का प्रेरक न डर रहा था, न रो रहा था। अपराधी बिल्कुल नहीं लग
रहा था। पूँछना चाहिये था कल शाम तुम कहाँ थे लेकिन इन्सपैक्टर ने सीधे कहा -
‘‘कल
जिस लड़की को बेहोशी हालत में छोड़ कर तुम भाग आये थे वह अस्पताल में है। होश में आई
तो तुम्हारा नाम ले रही थी। --- तुम झूठी कहानी मत बनाना। वह बयान दे चुकी है।’’
‘‘वह
मुझे ब्लैकमेल करना चाहती थी।’’
‘‘जो
कहना है थाने में कहना।’’
सुजान और सुमुख के लिये अप्रत्याशित सूचना।
स्कूल का यह अंतिम वर्ष। प्रेरक को परीक्षा की
तैयारी करना चाहिये। आगे इंजीनियरिंग या आई0आई0टी0 उससे और आगे यू0पी0एस0सी0 जैसा
लक्ष्य बनाना चाहिये लेकिन वह थाने में है।
बहुत भयावह है सब कुछ। अपने दफ्तरों से ये दोनों इस हड़बड़ी में पहले कभी
नहीं निकले थे। अपनी व्यस्तता और हड़बड़ी
में इस तरह कातर नहीं हुये थे।
‘‘प्रेरक
----
सुजान और सुमुख ने शायद दिनों बाद थोड़ा ठहर कर
प्रेरक को ध्यान से देखा। याद नहीं यह कब, कैसा, कितना मासूम या मेच्योर लगता था।
उन्नीस साल के रिफ्लैक्शन ने सचमुच इसे बदल दिया है। बीच में आ गई संबंधहीनता और
संवादहीनता के कारण सुजान रोकर, झिंझोड़
कर न पूँछ सकी
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प्रेरक तुमने ऐसा क्यों किया न ही सुमुख
गरज-अकड़ कर, दो तमाचे मार पूँछ सका। प्रेरक ने
दोनों को देखा फिर दूसरी ओर देखने लगा।
तीनों ने शायद पहली बार, एक साथ एक जैसा सोचा - सजा मेरी माँ को
दो।
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सुषमा मुनीन्द्र
व्दारा श्री एम. के. मिश्र
जीवन विहार अपार्टमेन्ट
फ्लैट नं0 7, व्दितीय तल
महेश्वरी स्वीट्स के पीछे
रीवा रोड, सतना (म.प्र.)-485001
प्रेरक कहानी के संग लेखक की उम्दा कहानी
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