Thursday 17 May 2012

विडम्बना


आज के समाज मेँ-
लोग बेटी पैदा करना बेकार समझते हैँ
बेटी का होना अपने पूर्वजन्मोँ का पाप समझते हैँ
बचपन की अठखेलियोँ के बाद जब यौवन सबल हो
दिला जाता है पिता को तीव्र ज्वर जो
तपन मेँ आठोँ पहर वह यही सोचे
कैसे भी होँ पुत्रियोँ के हाथ पीले
दिन ब दिन स्थिति अनवरत बिगड़ जाती है
जब तलक कोई योग्य वर मिल न जाता है
यहाँ तक तो ठीक था
मन पर न कोई बोझ था
पर खुला है द्वार वह
जिसका मुख कभी न बन्द हो
दहेज रूपी राक्षसी का क्रोध कितना रौद्र है
अजीब विडम्बना है
वास्तविक सपना है!
मैने देखा है-
बाप को बेटी का सिर कुचलते
या फिर शादी के समय
उसके श्वसुर के आगे नाक रगड़ते
आखिर बेटियोँ के साथ ही ऐसा क्यूँ होता है?
क्योँकि हम स्वयं ऐसा चाहते हैँ
बेटी मेँ देने के बाद
बेटे मेँ वसूलना चाहते हैँ
लेकिन हम हैँ कि बस
कोरा आदर्शवाद दिखाते हैँ
बेटे मेँ पाने के लिए बेटी को मोहरा बनाते हैँ
बनिस्बत दोष सारा भाग्य पर मढ़ बच 
निकलते हैँ
चोर उल्टा बन स्वयं ही कोतवाली जा धमकते हैँ
ऐसा ही रहा तो चक्र यह चलता रहेगा
है जरूरत नीँद से अब जागने की
बेटियोँ के अस्तित्व,सम्मान को बचाने की
हर पिता यह जान ले
स्वयं को पहचान ले
देने पर समान साधन बेटियाँ कमतर नहीँ हैँ
देन हैँ वे ईश्वरीय
कोरी नियति नहीँ हैँ
ठान यदि लेँ हम सभी अब
स्वयं को सुधारने मेँ
है क्या बिसात जो चल आएं
चिन्ता और कलह
विश्व को बिगाड़ने मेँ
प्रकृति को उजाड़ने मेँ।

-राहुल देव


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