Saturday 5 September 2020

अभी न होगा मेरा अंत...

समीक्षा

 

सुशील से सिद्धार्थ तक

- विनोद कुमार

सुशील से सिद्धार्थ तक एक संस्मरणों का संकलन है जिसे युवा किन्तु प्रौढ़ मेधा के आलेखक राहुल देव ने संकलित किया है | सुशील सिद्धार्थ मेरे समकालीन-समवयस्क ऊर्जावान संघर्षरत लेखक, कवि, समीक्षक, आलोचक, सम्पादक, बिंदासवक्ता और इन सब पर भारी पड़ते हुए व्यंग्यकार थे | चूँकि वह हमारे जनपद सीतापुर की मिट्टी के लाल थे जो लखनऊ, दिल्ली और मुंबई रहकर भी इस माटी की प्रखरता को दिखाकर गये हैं और इसी माटी के लाल राहुल देव ने उनपर सम्पादकीय सहित बीस संस्मरणों की मार्मिक, बौद्धिक स्पर्शों वाली निरंतर चल रही कलमकारों की स्मृतियों में सुशील सिद्धार्थ को जीवंत किया है | अतः इस संस्मरणात्मक पुस्तक पर कलम चलाना मेरा लेखकीय दायित्व है क्योंकि सीतापुर जनपद की माटी का एक कण मैं भी हूँ |

वर्ड्सवर्थ का स्काईलार्क आकाश में उड़ जाता है और वहाँ से अपने घोंसले को देखता है | सुशील सिद्धार्थ उड़े तो घोंसला छोड़कर लेकिन वह घोंसला उनके अन्दर जिंदा रहा | नगरों और महानगरों की मायानगरी में वह अपना घोंसला नही बना पाए और जब लौटकर आए तो केवल उनकी मिट्टी आई | यह पुस्तक बताती है कि राजकमल, ज्ञानपीठ जैसे संस्थानों में भी वह टिक न सके कारण .......?

इस सन्दर्भ में मुझे पाण्डेय बेचन शर्मा ‘उग्र’ याद आ गये | अंग्रेजों की गुलामी का पीरियड था और ‘उग्र’ जी जिसे पत्र का सम्पादन ठूर देते थे उस प्रेस पर अंग्रेजों का रोलर चल जाया करता था | उनकी दो किताबों के शीर्षक लिखता हूँ और आप ‘उग्र’ जी को समझ जायेंगें 1- दिल्ली के दलाल, 2- सरकार तुम्हारी आँखों में | लेकिन सुशील सिद्धार्थ ‘उग्र’ नही थे | वह तो व्यंग्यकार थे और व्यंग्यकार लक्षणा और व्यंजना से आक्रमण करता है लेकिन उनके अन्दर कोई छोटा सा उग्र जरुर बैठा था जिसके कारण वह ज्ञानपीठ और राजकमल में भी टिक न सके |

अब चूँकि पुस्तक संस्मरणों पर आधारित है अतः मुझे रामविलास शर्मा और जानकीबल्लभ शास्त्री की याद आई | इन दोनों महान लेखकों ने निराला की साहित्य साधना और हंस बलाका में ‘निराला’ जी की स्मृतियों को अपने ग्रंथों में जीवंत किया है | मैं यह भी जानता हूँ कि सुशील सिद्धार्थ निराला नही थे और राहुल देव प्रो. रामविलास शर्मा और जानकीबल्लभ शास्त्री नही हैं क्योंकि जब तक हम तुलनाओं और और उपमाओं में उलझते हैं तब तक प्रायः हम ज्ञान की पहली सीढ़ी चढ़ रहे होते हैं | हमें देश कालानुसार कलम चलानी चाहिए मूल्यांकन करने के लिए | निराला का युग वह था जब साहित्य मुख्यधारा में था और सुशील सिद्धार्थ का युग वह है जब साहित्य हाशिये पर डाल दिया गया है | निराला जुगाड़ की ऐसी-तैसी करने वाले थे और सुशील सिद्धार्थ जुगाड़ी होकर भी अनाड़ी सिद्ध होते रहे |

प्रो. रामविलास शर्मा और जानकीबल्लभ शास्त्री ने कृतित्व की मीमांसा की है निराला जी के व्यक्तित्व के साथ और सुशील से सिद्धार्थ तक एक विंडो व्यू है बीस रचनाकारों का जो सुशील सिद्धार्थ से जुड़े थे और इस युग में इतना कम तो नही कि एक कलमकार के जाने के बाद बीस कलमकारों ने लगभग सकारात्मक प्रतिक्रिया दी है जो झलकियाँ प्रस्तुत करती हैं सुशील से सिद्धार्थ बनने तक की यात्रा की |

निराला जी जलोदर से पीड़ित थे अंतिम दिनों में और तत्कालीन मुख्यमंत्री चंद्रभानु गुप्ता और दाऊजी गुप्त ने सरकारी सहायता देने का प्रस्ताव रखा था जिसे निराला जी ने अस्वीकार कर दिया था | सुशील सिद्धार्थ भी प्राइवेट लिमिटेड आदमी थे किसी विश्वविद्यालय के सेवानिवृत विभागाध्यक्ष तो क्या प्रवक्ता तक नही बन पाए थे अतः उनकी कलम की धार को आसानी से कौन मानता लेकिन बन्दा तो जिद्दी था, धुनी था अतः जी भर जला तो, लड़ा तो और यह ऊँचाई ही है सुशील सिद्धार्थ की कि वह डॉ ज्ञान चतुर्वेदी के स्नेहभाजन हो गये थे | ज्ञान चतुर्वेदी समकालीन व्यंग्य साहित्य में एक मजबूत हस्ताक्षर हैं | पेशे से वे एक चिकित्सक थे, अब रिटायर्ड हो गये हैं | लेकिन जब उन्होंने सुशील सिद्धार्थ के हृदय को चिकित्सकीय दृष्टि से देखा तो सिद्धार्थ का दिल कमज़ोर था क्योंकि जांच में हार्ट का पंप 42-44 प्रतिशत ही आया था | लेकिन सिद्धार्थ ने सुना कहाँ उनकी सलाहों को, बस केवल जूझता रहा | और इस तरह व्यंग्य का, समीक्षा का एक योद्धा अंततः रणक्षेत्र में शहीद हो गया | आर्थिक, मानसिक और शारीरिक विकलताओं को सुशील झेल रहे थे लगातार जबसे उन्होंने अपना घोंसला छोड़ा था | यह बात अलग है कि बड़ी लकीरें खींचने में लगे थे | यह सिद्ध यूँ होता है कि सुशील पत्र लेखन के ज़माने से जिंदगी शुरू करते हैं और मोबाइल पर वलेस जिंदा करके प्रमाण रख जाते हैं |

सुशील सिद्धार्थ की कुछ युवा काल की बातें इंगित करता हूँ तो मुझे याद आता है लगभग 32-33 साल पहले वह महमूदाबाद आए थे निराला साहित्य परिषद् के कार्यक्रम में | उन्हें लाये थे गंगा प्रसाद शर्मा जो आजकल गुणशेखर बन चुके हैं | उस दिन हाल में 25 रचनाकार रहे होंगें और 75 श्रोता | सुरेश उजाला आए थे आवारा नवीन के माध्यम से | सुरेश उजाला और सुशील सिद्धार्थ किसी बात पर आपस में मज़ा ले रहे थे और मैं कविता पढ़ने के लिए खड़ा था माइक के सामने | मैंने कहा था आप लोग तो समकालीन हैं................फिर मैंने एक लम्बी कविता पढ़ी थी....समकालीन घास कूड़ा है/ अथवा राहों का रोड़ा है........फिर दोनों लोग ही क्या हाल शांत हो गया था | बाद में सुशील जी का समर्पण ‘बिरवा’ को सींचने में लगा और स्वर्गीय रामकृष्ण संतोष जी प्रायः उनके समर्पण की तारीफ किया करते थे | सुरेश उजाला समयांतराल के साथ सरकारी सेवा में आ गये और उत्तर प्रदेश पत्रिका के संपादक हो गये और सुशील खानाबदोशी पर निकल पड़े थे |

सुशील सिद्धार्थ के एक क्लासफेलो डॉ भारतेंदु मिश्र जो दिल्ली में स्थापित से हैं सरकारी नौकरी और लेखन दोनों से | मुझे सुशील की मुफलिसी की बातें ज्ञात हुई थी | खाना, रहना कुछ भी व्यवस्थित नही था | आर्थिक दबाव तो रहते ही थे लेकिन फिर भी सुशील जिंदगी से भिड़कर काम कर रहे थे साहित्य के विभिन्न क्षेत्रों में | जब हार्ट की यह हालत थी तो ब्लडप्रेशर क्या क्या करता होगा उनके साथ लेकिन फिर भी अड़ियल, भिडू सुशील मुस्कुराते रहे तो बड़ी बात है | अनुराग आग्नेय मेरे अच्छे मित्र हैं उनके संस्मरण की एक घटना लेता हूँ कि सुशील इतने जुझारू और जुगाडू तथा प्रभावी थे कि गाँव के कुट्टी पासी को जेल में बंद होने पर भी, जेल में होते हुए भी प्रधानी का चुनाव जितवा दिया था | अनुराग ‘आग्नेय’ की इस गवाही को जो सुशील के बारे में है और इसे पढ़कर मुझे ‘निराला’ जी का एक प्रयास याद आया कि देश के बड़े-बड़े नेता जब अंग्रेजों के ख़िलाफ़ आन्दोलन चला रहे थे उन दिनों ‘निराला’ गाँव के किसानों को संगठित कर रहे थे |

जब मैंने राहुल देव की पुस्तक ‘सुशील से सिद्धार्थ तक’ पर कलम चलाना शुरू किया तो क्रमशः आज मुझे एक पुस्तक याद आई ‘शांतिनिकेतन’ जिसे गौरापंत शिवानी जी ने लिखा था और शिवानी जी की जादुई कलम से शांतिनिकेतन के अपने विद्यार्थी जीवन और विश्वकवि रवींद्रनाथ टैगोर, स्वनामधन्य हजारी प्रसाद द्विवेदी, शांतिनिकेतन के गुरुजनों और उस काल के खट्टे-मीठे, रसीले संस्मरण लिखे गये थे | आज के लेखक प्रायः विश्व साहित्य की धरोहर से कुछ कम सरोकार रखने लगे हैं और यह मेरी चिंता का विषय भी है अस्तु मैं सोच रहा हूँ राहुल देव, सुशील सिद्धार्थ, विनोद और इस पुस्तक के अन्य उन्नीस लेखक क्या हैं तो मुझे लगता है कि यह दीपक हैं छोटे हों या बड़े | इस सन्दर्भ में ‘प्रणाम’ नामक एक संस्मरण याद आया जिसे महीयसी महादेवी वर्मा ने लिखा था रवीन्द्रनाथ टैगोर की स्मृति में | इस संस्मरण के अंत में उन्होंने लिखा था “सूर्य जब सांयकाल पश्चिम दिशा में अस्ताचल की ओर जाने लगता है तब वह दीपकों से कह जाता है कि जलो तब तक जब तक मैं पुनः लौटकर न आ जाऊ और तब दीपकों का जल उठना ही उनकी नियति होती है |”

मैत्रेयी पुष्पा एक बड़ा नाम है औपन्यासिक समकालीन धरातल पर | कथाक्रम मैंने वर्षों तक पढ़ा | सुशील सिद्धार्थ तो कथाक्रम संस्था के सदस्य थे | मैत्रेयी पुष्पा के उपन्यास ‘चाक’ और ‘अल्मा कबूतरी’ पढ़ने का सुयोग मुझे भी मिला था लेकिन इन उपन्यासों पर मैत्रेयी पुष्पा का इंटरव्यू लेना तो सुशील सिद्धार्थ का हक़ था | मैत्रेयी पुष्पा का संस्मरण सुशील सिद्धार्थ के बारे में बहुत कुछ कह जाता है | ज्ञानपीठ से सुशील से छुट्टी और राजकमल में पहुँचने का जिक्र और सुशील का मैत्रेयी पुष्पा से कहना कि दीदी एक दिन मैं आपका समग्र तैयार करूँगा जैसे मैंने श्रीलाल शुक्ल का किया है | और सुशील सिद्धार्थ ‘मैत्रेयी पुष्पा समग्र’ सम्पादित करके गये और ‘मैत्रेयी उवाच’ के रूप में निशानी छोड़कर गये | व्यंग्य तो युग युगान्तरों से मौजूद रहा है विश्व साहित्य में लेकिन आधुनिक काल के दो पुरोधा हरिशंकर परसाई और श्रीलाल शुक्ल को तो हर छोटा बड़ा वर्तमान तक का कलमकार एक पुरोधा के रूप में स्वीकार ही करता है |

डॉ रामबहादुर मिश्र और सुशील सिद्धार्थ के पत्राचार को पढ़ते-पढ़ते याद आया ‘पन्त के 200 पत्र बच्चन के नाम’ तथा ‘बच्चन के 200 पत्र पन्त के नाम’ प्रयागराज में पन्त वीथिका में कुछ पत्र देखे भी थे जब विद्यार्थी जीवन में अवधेश गुप्त के साथ प्रयाग घूमने गया था तब उनका उपनाम ‘नमन’ नही था | लगभग एक दर्जन पत्र हैं सुशील सिद्धार्थ के डॉ रामबहादुर मिश्र के नाम | मैं सुविधा के अनुसार इसे अवधी लेखनकाल भी कह सकता हूँ | यह 1988 से लेकर 1997 तक को कवर करता दिखाई पड़ रहा है जिसका प्रारंभिक अंश ‘अवधी भाषा’ के अधिक करीब है |

यह लखनऊ के पुरनिया से शुरू और मुंबई तक की यात्रा का विवरण है | ‘बिरवा’, ‘अवधी अध्ययन केंद्र’, ‘जोंधइया’, ‘अवध ज्योति’ और सिद्धार्थ प्रिंटिंग प्रेस का कालखंड इन पत्रों में रूपायित हुआ है | बेरोजगारी सिद्धार्थ की प्रतिभा पर भारी पड़ रही थी फिर भी सुशील सिद्धार्थ की कुछ लाइनें प्रस्तुत कर रहा हूँ जो इन पत्रों में समाहित हैं- “मैं तो बहुत डरते-डरते लिखता हूँ मगर लोग इतने जर्जर हो गये हैं कि ऊँगली छुआते ही ढह जाते हैं, क्या किया जाये? यह तो धर्मयुद्ध है | ‘सबको प्रणाम फिर भीषण संग्राम’ यही मेरा सूत्र है |”

पत्र यह भी सिद्ध करते हैं कि सुशील घोर आर्थिक संकट झेल रहे थे फिर भी बंदा लिखता है, “मगर जब लोग बिना मतलब भाव खाते हैं तो मेरा ब्रम्ह उग्र हो जाता है | और किसी का दिया तो खाता नही | अपने घर में जैसा भी है, मगर दुनिया ठेंगें पर रखने का सपना भी है और हौंसला भी |” लेकिन मुंबई का अकेलापन डस रहा था सुशील सिद्धार्थ को |

अशोक मिश्र भी उनके समकालीन हैं वे सुशील अग्निहोत्री से परिचित कराते हैं जिसने जातिबोधक अग्निहोत्री को हटाकर अपना नाम सुशील सिद्धार्थ रख लिया | उनका फ्रीलांसर होना, उनका लखनऊ विश्वविद्यालय से पी-एच.डी. होना लेकिन नौकरी न पाना वह इसे यक्ष प्रश्न कहते हैं जो ठीक ही है | सुशील ने हस्तलिपि में पत्रिका शुरू की थी | मुझे याद आया युवाकाल में लगभग 35 साल पहले मुझे एक और किसी संपादक की हस्तलिखित 8 या 10 पेज की अच्छी पत्रिका मिली थी | सुशील कथाक्रम और तद्भव के सहयोगी सम्पादक भी रहे थे | ‘लमही’ पत्रिका का सहयोग करते | अशोक मिश्र जी तो ‘बहुवचन’ के संपादक होकर व्यवस्थित जीवन का अभ्यास डाल ले गये लेकिन सुशील ने महात्मा गाँधी अंतर्राष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय में अतिथि शिक्षक के रूप में अध्यापन किया |

रवीन्द्र कालिया और राजेन्द्र यादव के साथ सम्बन्ध अच्छे बने लेकिन फक्कड़ सुशील की किसी के साथ लम्बी निभ न सकी | नया ज्ञानोदय में सुशील जी ने कॉलम लिखा | समकालीन साहित्य समाचार के संपादक बने लेकिन सोचता हूँ कि अवधी की कहावत के बारे में तो लगता है सुशील के पैरों में बिल्लियाँ बंधी थी अतः कहीं टिक न सके और आर्थिक व्यवस्था कभी न आ पाई सुशील के जीवन में | मृत्यु के लगभग तीन साल पहले सुशील की एंजियोप्लास्टी हो चुकी थी लेकिन जिद्दी और जुझारू साहित्यिक रुझान फिर भी बढ़ता ही गया | जीवन व्यवस्थित न हो पाया सुशील का और सुशील को हृदय का दौरा साहित्यिक दौरे से अनंत के दौरे पर ले गया |

अब मैं लेता हूँ संस्मरणकार ओम निश्चल को जो सूचना विभाग में नियुक्त रहे | उनका संस्मरण बताता है कि भारतीय ज्ञानपीठ में जिन दिनों छिनाल प्रकरण उबाल पर था उन दिनों सुशील सिद्धार्थ ज्ञानपीठ से बाहर आए थे | प्रीत न करियो कोय, मो सम कौन, नारद की चिंता और मालिश महापुराण जैसे व्यंग्य लेखों की सीरीज की उत्पत्ति इन्ही दिनों की है जो सुशील के व्यंग्यकार की पुष्टता और निर्भीकता को दिखाता है | सुशील व्यंग्य और अवधी कविता के लिए दो-दो बार उ.प्र. हिंदी संस्थान से सम्मानित हुए | अवधी शिखर सम्मान और स्पंदन आलोचना सम्मान से भी उन्हें नवाजा गया | सुशील की किताब ‘हाशिये का राग’ पढ़कर ओम जी कहते हैं कि श्रीलाल शुक्ल की पुस्तक ‘जहालत के पचास वर्ष’ की याद आ जाती है |

विजय पंडित उन्नाव के रंगकर्मी हैं मूलतः | वे अपनी स्मृति के झरोखे से लिखते हैं कि सुशील उन दिनों राष्ट्रीय सहारा में साहित्य की डेस्क पर कार्यरत थे | रंगकर्म के सम्बन्ध में लखनऊ चक्कर लगाया करते थे | उनकी किताब ‘रंगमंच और स्वाधीनता आन्दोलन’ की समीक्षा सुशील सिद्धार्थ ने विधिवत की | पुस्तक की फोटो सहित राष्ट्रीय सहारा में यह समीक्षा प्रकाशित हुई और इस तरह विजय पंडित सुशील सिद्धार्थ से जुड़ गये |

2006 में उन्नाव में पुस्तक मेला आयोजित हुआ अतः स्वाभाविक था कि साहित्यकारों का जमावड़ा हुआ लेकिन विजय पंडित सुशील सिद्धार्थ को सूचित करना भूल गये | सुशील को हल्की सी कसक हुई लेकिन विजय पंडित पर उनका स्नेह लगातार बना रहा | सुशील जी मसिजीवी थे यह तो स्पष्ट है विजय पंडित के संस्मरण से |

विवेक मिश्र के संस्मरण का शीर्षक ‘उस आदमी में रहते थे दस-बीस आदमी’ पहले पैराग्राफ में ही छू जाता है दिल को क्योंकि विवेक मिश्र और सुशील सिद्धार्थ की मुलाकात तक सुशील सिद्धार्थ के आने वाले व्यंग्य-संग्रह ‘आखेट’ की चर्चा | सुशील के अधूरे व्यंग्य-उपन्यास पर चर्चा हुई और अगले दिन सुशील सिद्धार्थ को विवेक मृत पाते हैं हॉस्पिटल में | संस्मरण मार्मिक और कारुणिक है |

इस संस्मरण से एक और जानकारी मिली कि सुशील जी किताबघर से भी सम्बद्ध थे | चारों तरफ किताबें थीं उस रूम में जिसमे सुशील रहते थे बल्कि विवेक तो कहते हैं कि इस आदमी का घर ही किताबों में था | उनका शीर्षक भी सटीक है क्योंकि क्योंकि जब यह आलोच्य पुस्तक पढ़ता हूँ तो पाता हूँ कि राहुल देव के संस्मरणात्मक सम्पादकीय के साथ उन्नीस संस्मरण और है अतः बीस आदमी तो जरूर रहते थे सुशील सिद्धार्थ के अन्दर लेकिन मुझे लगता है कि केवल विवेक मिश्र के शीर्षक से बांधना गलत हो जायेगा क्योंकि राहुल देव के आमंत्रण पर बीस से ज्यादा लेख आये होंगें | कुछ चयन में छोड़े होंगे संपादक ने लेकिन फिर भी सच है कि 20 आदमी कलम उठाने को मजबूर हो गये सुशील सिद्धार्थ पर संस्मरण लिखने के लिए क्योंकि सुशील उनके दिलों में गहरे से बैठे थे |

मुझे तो ऐसा लगता है जैसे मृत्यु के कुछ दिनों पहले से विवेक मिश्र और सुशील की मुलाकातें ज्यादा करीबी थीं और सुशील के पार्थिव शरीर को देखने वाले शायद प्रथम लेखक हैं क्योंकि अन्य किसी का जिक्र नही आता बेदिल वाली दिल्ली में | सुशील के आलोचक और संपादक को भी विवेक मिश्र की कलम ने उचित सत्कार और सम्मान दिया है जिसके योग्य भी थे सुशील सिद्धार्थ |

रमेश सैनी ने सुशील सिद्धार्थ का एक व्यंग्य लेख पढ़ा जनसत्ता में और वह उनके मुरीद हो गये | वह जबलपुर यानि के व्यंग्य के पुरोधा हरिशंकर परसाई जी के जनपद के व्यंग्यकार हैं | बाद में सैनी जी वलेस से भी जुड़ गये | सुशील ने अपना व्यंग्य संग्रह ‘हाशिये का राग’ सैनी जी को भेंट किया था | रमेश सैनी के संस्मरण से पता चला कि सुशील सिद्धार्थ ज्ञान चतुर्वेदी को व्यंग्य का भगवान मानते थे | इस बात पर थोड़ी बहस की गुंजाईश थी क्योंकि दुनिया सचिन तेंदुलकर को क्रिकेट का भगवान मानती है लेकिन मैं व्यक्तिगत रूप से ऐसी उपाधियों से असहमति रखता हूँ | हाँ ईश्वर सबके अन्दर है ऐसा सहज स्वीकार्य है यद्यपि ज्ञान जी को श्रेष्ठतम समकालीन रचनाकारों में से एक स्वीकार करने में मुझे ख़ुशी होती है |

निर्मल गुप्त अपने संस्मरण में कहते हैं कि सुशील को जितने चाहने वाले थे उतने ही उन्हें गरियाने वाले थे | उनका यह कथन मुझे ठीक लगता है और सुशील सिद्धार्थ के व्यक्तित्व के अनुरूप लगता है | सुशील पहले किसी पर हमला नही करते थे पर अपने बचाव में वह पूरी निर्ममता से भिड़ जाते थे | वह छोटे कद के कद्दावर लेखक थे |

सुशील सिद्धार्थ होने के मायने कमलेश पाण्डेय का संस्मरणात्मक आलेख स्वाभाविक है | सुशील के बारे में कुछ सकारात्मक मिला जो शक्तिशाली है | कमलेश पाण्डेय लिखते हैं “आवाज़ में थोड़ी उत्तेजना पर एक सुनिश्चित ठहराव, अपने तर्क को बल देते हुए साफ़ शफ्फाक लफ्ज़, नैसर्गिक विट से उपजी चुटकियाँ और जुमले श्रोताओं का ध्यान हटने नही देते थे | अपने वक्तव्य के प्रति इस वक्ता का पूरा कमिटमेंट दिखता था | इस आलेख को पढ़ते हुए यह अच्छा लगा | कमलेश पाण्डेय सुशील की संगति को याद करते हुए कहते हैं- ‘व्यंग्य की एक प्रयोगशाला सी चलती जहाँ हम मिलजुलकर प्रैक्टिकल करते और अपने अंदाज़-ए-तंज़ को तराशते |’ कमलेश कहते हैं कि उन्हें व्यंग्य का सुपरमैन कहने को जी चाहता था |

हरीशकुमार सिंह अपने लेख में कहते हैं कि सुशील कहा करते थे, ‘व्यंग्य मेरे स्वभाव में है |’ ‘सोशल मीडिया का प्रिय दोस्त जो मेरी माँ से मिलने चला गया’ यह आलेख है ब्रजेश कानूनगो का | वलेस ग्रुप से जुड़े हुए ब्रजेश जी की मुलाकात ‘ज्ञान चतुर्वेदी सम्मान’ समारोह में सुशील सिद्धार्थ से प्रत्यक्ष रूप से हुई | ब्रजेश और सुशील की यह मुलाकात ब्रजेश जी के मन में सुशील की वैचारिक क्षमता और प्रतिबद्ध जुझारूपन पर प्रकाश डालती है | नवम्बर 2017 में ब्रजेश जी की माँ का स्वर्गवास हुआ और थोड़े से अन्तराल के बाद सुशील जी का निधन हो गया अतः ब्रजेश जी का शीर्षक मर्मस्पर्शी तो है ही |

डॉ अतुल चतुर्वेदी का आलेख स्पष्ट करता है कि सुशील में जोड़ने और जुड़ने की अद्भुत क्षमता थी | सुशील और अतुल के बीच लम्बे फोनात्मक वार्तालाप महत्वपूर्ण थे | कैसे लेखकों से काम करवाना है और उनके बेस्ट को निकालकर लाना है, सम्पादक के रूप में सुशील सिद्धार्थ पर्याप्त दक्ष थे और सुशील इस विधा के मास्टरपीस थे | अनुराग आग्नेय ने सुशील सिद्धार्थ को पास से देखा है | आग्नेय और मेरे बीच वार्तालाप में कई बार सुशील सिद्धार्थ के बारे में भी बातें हुईं | आग्नेय का संस्मरण उतना ही विचारोत्तेजक है जितने सुशील सिद्धार्थ थे | अनुराग अग्निहोत्री को अनुराग आग्नेय बनाने का पूरा श्रेय स्वयं आग्नेय सुशील सिद्धार्थ को देते हैं | आग्नेय लिखते हैं ‘कि असल में सुशील जी जिस मिट्टी के बने थे उसकी काया तुलसी की और आत्मा कबीर की थी |’

उनकी स्मृति में मुकुल महान कहते हैं कि मैं कवि सम्मेलन के मंचों वाला ग्लैमर गद्य व्यंग्य में लाना चाहता था और सुशील जी गुणवत्ता | धीरे-धीरे दोनों ही लक्ष्य सध रहे थे | सुशील जी व्यंग्य साहित्य को एक बड़ा आकाश देना चाहते थे लेकिन सुशील जी खुद ही उस आकाश में किसी अनंत यथार्थ की खोज में चले गये लेकिन बना गये हैं व्यंग्य के राजपथ पर अपने पदचिन्ह जिन पर चलते हुए मुझे आज भी एक मीठी सी आवाज़ सुनाई पड़ती है ‘और क्या जलवे हैं मुकुल भाई’

पंकज प्रसून और सुशील सिद्धार्थ की व्यंग्यात्मक टेलीफोनिक वार्ता पठनीय है | प्रसून जी सुशील जी को कोट करते हुए कहते हैं कि, “मैं किसी भी स्थापना को जड़ से उखाड़ सकता हूँ फिर अगर चाहूँ तो उखड़ी हुई स्थापना को पुनः स्थापित कर सकता हूँ नए आधार के साथ |” इसे हम सुशील की बहुपठनीयता और लॉजिकल विट का प्रमाण मान सकते हैं | सुशील व्यंग्यात्मक टोन में कहते थे कि कुछ साहित्यकार नामवर का लंगोट सिर पर बांधकर घूमते हैं | ‘यश-भारती’ सम्मान पर उन्होंने लिख दिया कि यह सम्मान नही है- पट्टा है जिसे कुत्ते के गले में बाँधकर उसे पालतू बनाया जाता है | महेंद्र भीष्म के उपन्यास ‘किन्नर कथा’ सुशील जी के प्रभाव से छपी और महेंद्र भीष्म मानते थे कि उन्हें इस पुस्तक के कारण हिंदी साहित्य में पहचान मिली | अर्चना चतुर्वेदी सुशील सिद्धार्थ को न भूलने वाला व्यक्तित्व मानती हैं अपने आलेख में | ओम वर्मा भी वलेस से जुड़े समर्थ व्यंग्यकार हैं | वह लिखते हैं, “सुशील जी के मन में शायद यह विचार रहा होगा कि रचनाकारों के ग्रुप में राहुल देव जैसे समालोचक व ईश्वर शर्मा जैसे सम्पादक की भी बड़ी सार्थक उपयोगिता है | समिति में निर्णायक के रूप में दोनों ने सुशील जी के इस विश्वास को पुख्ता ही किया है |” ओम वर्मा के लेख में सुशील जी की पुस्तकों के काफी उद्दरण हैं जिनमे से मैं दो कोट कर देता हूँ ताकि जो सुशील के साहित्य को पढ़ने की इच्छा रखने वाले लोग उनके व्यंग्य की धार देख सकें-

1-      निराला जैसे आदमी की याद का दिमाग में रहना, कविता का पुस्तकों में रहना और मूर्ति का शहर में रहना बेहद खतरनाक है |

2-      भगवान विष्णु नारद से कहते हैं- “नारद ! हज़ार फन वाले शेषनाग पर बैठना सरल है किन्तु भारत में रहना कठिन है |”

सुशील के पिता ने तुलसीदास पर पी-एच.डी. की थी जाहिर है कि तुलसी साहित्य की समझ उन्हें विरासत में मिली थी | वीना सिंह के आलेख से एक महत्वपूर्ण टुकड़ा प्रस्तुत है- “सुशील सिद्धार्थ जी की दिलचस्प शख्सियत थी | उनका बाहर दिखने वाला चेहरा हमेशा मुस्कुराता रहता था और अन्दर मुखौटों का खेल चलता रहता था | उनका कौन सा मुखौटा कौन सा खेल शुरू कर देगा, पकड़ना आसान नही था | इसकी वजह से उनका खिलंदड़ा स्वभाव था |

डॉ अनीता यादव सुशील सिद्धार्थ से 2011 में आभासी दुनिया के माध्यम से जुड़ीं जब सुशील का पहला व्यंग्य संकलन ‘नारद की चिंता’ प्रकाशित हुआ था | डॉ अनीता अपने लेख में सुशील जी को कोट करते हुए लिखती हैं- ‘व्यंग्य में आलोचकों की कमी है यदि इस विधा का भला करना है तो हमें नई पीढ़ी के नए आलोचक खड़े करने होंगें |’

इन्द्रजीत कौर के लेख से एक नयी बात लेता हूँ वह है ‘व्यंग्यकारों का बचपन’ फेसबुक पर 500 शब्दों में अर्थात सुशील व्यंग्यकारों का बचपन खंगालना चाहते थे और वे सफल हुए थे | मीना अरोरा जी को व्यंग्य साहित्य जगत से जोड़ने में सुशील जी के द्वारा दिया गया प्रोत्साहन मीना अरोरा जी के आलेख में कृतज्ञता ज्ञापन के रूप में है |

डॉ नीरज सुधांशु के अनुसार सुशील जी कहा करते थे जो काम करेगा उसकी आलोचना होगी | यह बात शतप्रतिशत सुशील जी पर लागू होती है |

डॉ पिलकेंद्र अरोरा मजबूत समकालीन लेखक रहे हैं सुशील के अतः कुछ खट्टी मीठी स्मृतियों के दर्शन मिलते हैं उनके लेख में |

अंजू शर्मा कवि के रूप में जुड़ीं और सुशील जी ने उन्हें कहानीकार और समीक्षक के रूप में उन्हें आगे बढ़ने और बढ़ाने में काफी सहयोग किया अतः वे उन्हें कृतज्ञतापूर्वक स्मरण करती हैं |

विजी श्रीवास्तव ‘तुम जैसे गए ऐसे भी तो जाता कोई नही’ में लिखते हैं- ‘सुशील सिद्धार्थ इसलिए विलक्षण थे कि वे सतत रूप से प्रस्फुटित रहने वाले बुद्धिजीवी थे | उनके सीने पर अब वरिष्ठ रचनाकार, आदर्श लेखक, आइकॉन, लीजेंड, मार्गदर्शक, प्रकाश स्तम्भ जैसे तमगे लगने लगे थे | साहित्यिक कार्यक्रमों में उन्हें अध्यक्ष, मुख्य अतिथि, विशेष उद्बोधक के तौर पर स्थापित किया जाने लगा | सम्मान और पुरस्कारों के लिए वे एक निर्विरोध चयन करने की स्थिति में पहुँच गये थे |’

अब विजी श्रीवास्तव के अंतिम दो वाक्यों के अर्धांश लेता हूँ ‘स्थापित किया जाने लगा था अर्थात उनके द्वारा तैयार की गयी रचनाकारों की सेना उनको स्थापित करने लगी थी | आखिर उन्होंने तमाम लेखकों को स्थापित होने और करने में मदद की थी | मैं इसे यूँ भी कहने की स्थिति में आ जाता हूँ कि लॉबिंग में सुशील सक्षम में थे | वे बुद्धिमान थे, जुझारू थे, तर्कशील वक्ता थे लेकिन एक व्यक्ति में यदि लॉबिंग की क्षमता न हो तो यह उपलब्धियां केवल बहुपठित होने पर भी साहित्यिक समाज भी आसानी से नही देता | दूसरा अर्धांश और लेता हूँ ‘सम्मान और पुरस्कारों को देने के लिए निर्विरोध चयन की स्थिति प्राप्त करना’ इस स्थिति से फायदे और नुकसान दोनों हो सकते हैं जैसे मुझे याद आता है कथाक्रम पत्रिका की मंडली में सुशील को सम्पूर्ण शक्तियां प्राप्त रही होंगीं | उनके साथ परमानन्द श्रीवास्तव का भी महत्त्व था | सुशील की मृत्यु से 10 या 15 वर्ष पहले कथाक्रम में तीन पुरस्कार घोषित किये थे | प्रथम पुरस्कार प्राप्त कहानीकार को 5000/- द्वितीय पुरस्कार प्राप्त कहानी को 3000/- और तृतीय पुरस्कार प्राप्त कहानीकार को 1000/- तमाम कहानीकारों ने कहानियां भेजीं लेकिन पुरस्कार दिया गया प्रथम कहानीकार के रूप में रवीन्द्र कात्यायन को क्योंकि सुशील ऐसा चाहते होंगें क्योंकि डॉ भारतेंदु मिश्र से उनके निजी सम्बन्ध उन दिनों बहुत प्रगाढ़ थे और रवीन्द्र कात्यायन डॉ भारतेंदु मिश्र के छोटे भाई थे और पुरस्कृत करने वाले अंक में घोषित किया गया कि कहानी का मानक विडंबना थी जबकि ऐसा पहले से घोषित नही था कि कहानीकारों को विडंबना को केंद्र में रखकर कहानियां लिखनी थीं | बाद के वर्षों में न डॉ भारतेंदु सुशील के करीब रह गये और न रवीन्द्र कात्यायन | जिस कहानी को प्रथम पुरस्कार दिया गया था उसमे केजीएमसी में भर्ती एक मानसिक रोगी था और उसकी देखरेख करने वाला एक व्यक्ति, डॉक्टर्स, नर्स इत्यादि | हाँ कई खण्डों में विभाजित इस कहानी के हर खंड के प्रारंभ में एक संस्कृत भाषा का एक श्लोक अवश्य था | मेरी समझ में कोई कथा के तत्व ज्यादा अच्छे थे ऐसा तो नही लेकिन पारस्परिक कृतज्ञता या रचनाकार का यूनिवेर्सिली विट होना इसका आधार बन गया होगा परमानन्द श्रीवास्तव और सुशील सिद्धार्थ की नज़रों में | जिस कहानी को द्वितीय पुरस्कार दिया गया था कथातत्व उसमे अपेक्षाकृत अच्छे थे | कुल मिलाकर मैं सुशील जी को एक श्रेष्ठ व्यंग्यकार, सम्पादक, जुझारू साहित्यकार मानता हूँ फिर भी वह एक मानव ही तो थे | ऐसे में यह सबकुछ हो जाना स्वाभाविक लगने लगता है जब पुरस्कृत होने वाले निर्विरोध होने की स्थिति तक पहुँच जाते हैं | या यह भी संभव है कि लोग ऐसे जुझारू लोगों को कभी-कभी सीढ़ी का डंडा बना ले जाते हों | कारण कुछ भी हो सकता है |

अंतिम संस्मरण शांतिलाल जैन ने लिखा जो पर्याप्त परिपक्व है क्योंकि उसमे पुनरावृत्ति से बचने की पूरी कोशिश की है उन्होंने | शांतिलाल जैन ने उन्हें मलय जैन जी के उपन्यास पर मुख्य अतिथि के रूप में बोलते सुना और सुशील जी के बहुपठित वक्ता से प्रभावित हुए और ‘ज्ञान चतुर्वेदी सम्मान’ के पहले कार्यक्रम के दौरान दोनों के मध्य समीपता उत्पन्न हुई | पहली बार जब शांतिलाल जैन ने मुख्य अतिथि के रूप में सुना था तो उनकी अन्तःप्रतिक्रिया काफी सार्थक और परिपक्व है | वे लिखते हैं- ‘वे जितनी देर मिले उतनी देर में ही मैं ताड़ गया कि इस आदमी ने बहुत झेला है जिंदगी में | लावा सा भरा है इसके मन के एक कमरे में जिसे इसी के संस्कारों की लौह दीवारों ने दबा रखा है | घर आकर बहुत देर तक सोचता रहा कि वे सारे लोग जो उन दीवारों की बाहरी तपिश भर से झुलस गये हैं उनका इस लावे के बाहर आने पर क्या होगा ? उनका भाग्य अच्छा कि लावा सुशील जी की रूह के साथ ही चला गया और वे लोग स्वाहा होने से बच गए |’

लेकिन मैं सोचता हूँ स्वाहा तो न होते लेकिन प्रतिवाद, घात, संघात, विवाद पैदा हो सकते थे | क्योंकि ‘कोई न कोई कमी तो सभी में है’ या इस अपूर्ण संसार में ‘कोई पूर्ण नही होता है’ आगे पुनः शांतिलाल जैन लिखते हैं, ‘बाद में हमने देखा कि झुलसे लोग अपने जले जख्मो के साथ उनके स्मृतिशेषों में हाज़िर होते रहे |’ मैं जानता हूँ कि यह संभव है | फिर आगे बढ़कर शांति जैन लिखते हैं, ‘कि वे घर में पेरेंट्स से टूटे, विश्वविद्यालय से टूटे, नौकरियों से टूटे, सहकर्मियों से टूटे, साहित्य के पथ-बंधुओं से टूटे मगर रीढ़ की हड्डी को कभी टूटने नही दिया | उन्होंने अपने मन और मिशन दोनों को कभी टूटने नही दिया | वे शायद जूझने के लिए ही बने थे |

शांतिलाल जैन का लेख जो संस्मरणात्मक है यद्यपि दोनों की व्यक्तिगत मुलाकात कम है आमने सामने या साथ बैठने वाली वह टेलीफोनिक और वलेस ग्रुप पर अधिक है | यद्यपि ज्ञान चतुर्वेदी प्रथम सम्मान समारोह में जो पहली बार हुआ था उसमे दोनों ने अच्छी सहभागिता की थी जो तमाम कुछ टेलीफोनिक भी थी फिर भी शांतिलाल जैन का छोटा सा निष्कर्षणात्मक रूप में अंतिम लेख है और वह वास्तव में उपसंहार जैसा लगता है और मैं इसे सम्पादक राहुल देव की सफलता मानता हूँ | शांति जैन ने लिखा वह इतने लोगों से टूटे मैं थोड़ा और एक पक्ष देखता हूँ मुझे सम्पादक द्वारा ज्ञात हुआ कि सुशील जी ने प्रेमविवाह किया था | उनकी पत्नी उनकी मृत्यु से पहले तक एक प्राइवेट कॉलेज में अध्यापिका थीं | निश्चित तौर पर बच्चों की जिम्मेदारियां भी होंगीं और सुशील जी लखनऊ रहे तब तक शायद साथ रहे होंगें लेकिन दिल्ली और मुंबई का पीरियड अकेले सुशील सिद्धार्थ का है वलेस का है, लेखन, पाठन, आलोचना, सम्पादन, टेलीफोनिक वार्ताएं, डेढ़ कमरे में किताबों के बीच सुशील सिद्धार्थ की जिंदगी | किसे गलत कहूँ किसे सही कहूँ |

डॉ ज्ञान चतुर्वेदी ने सुशील सिद्धार्थ का हृदय चेक किया था और उनका हार्ट पंप 42-44 प्रतिशत ही आया था | इसका मतलब दिल कई बार धक्के खाया था कारण कुछ भी थे मन पर असर तो पड़ा ही था | यह जानकर भी यदि सुशील सिद्धार्थ ज्यादा जूझ रहे थे तो इसे जिद कह दूँ, सनक कह दूँ, अपने प्रति लापरवाही कह दूँ | ज्ञान जी ने अपने संस्मरण में लिखा है कि सुशील उस 42-44 प्रतिशत को भी निचोड़ रहे थे | सब कुछ कह दूँ लेकिन सुशील सिद्धार्थ पढ़ाकू, लड़ाकू योद्धा तो थे ही | उनके अग्रज रामकृष्ण संतोष जी कहा करते थे कबीर ने एक खूंटा गाड़ा है | व्यंग्य का खूंटा तो गड़ा था युगान्तरों से हाँ मोबाइल, कलम, प्रेस सबके साथ काम करके विभिन्न प्रान्त के रचनाकारों को, व्यंग्यकारों को जोड़ने का जबरदस्त ढंग से प्रयास किया इतना तो सुशील के कटु आलोचकों को भी स्वीकार करना चाहिए | शरीर के दीपक में जब तक जीवन का तेल रहा सुशील सिद्धार्थ का दिया पूरा उजाला देकर जलता रहा |


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उपाध्यक्ष- निराला साहित्य परिषद्, कटरा बाज़ार, महमूदाबाद (अवध) सीतापुर 261203 (उ.प्र.)

 

3 comments:

  1. बहुत बढ़िया संस्मरणात्मक लेख सर;बहुत ही बढ़िया🙏🙏🙏

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  2. विस्तार से की गयी सुन्दर समीक्षा।

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