Friday, 28 August 2020

बचपननामा - 1

 

मन बच्चा तो कठौती में गंगा

-    इन्द्रजीत कौर

मेरा बचपन। समझ में नहीं आता कि उम्र के हिसाब से लिखूं या प्रवृति के हिसाब से। बचपना तो अभी तक अठखेलियाँ मेरे में कर रहा है। बच्चे चाकलेट खातें हैं तो बहला-फुसला कर उनसे एक पीस लेकर ही मानती हूँ। मोबाइल में गेम खेलतें हैं तो मैं भी जबरदस्ती उनके साथ हो लेतीं हूँ भले ही उनका गेम बिगड़ जाय। हमेशा कुछ नया सीखने और जिद्द करने की आदत तो अभी तक नहीं गयी। बहुत कुछ और भी...खैर, चलिए आपको ले चलतें हैं उम्र के आधार वाले बचपन में आज से ठीक तैतालीस साल पहले...

मैंने अगस्त  माह १९७४ को गाजीपुर जिले के ‘युसुफपुर’ कस्बें में धरती का भार बढ़ाया था। अपनी मम्मी-पापा की नौंवी संतान व आठवीं लड़की थी मैं। ‘इसकूल’ के रजिस्टर के लिए मेरा नाम ‘इन्द्रजीत’ था पर घर के सभी बड़े–बुजुर्ग हमें ‘इंदरजीत’ कहते और भाई-बहन ‘इंदो’। इतना ही नहीं, गुस्से में बोलने वाला एक अलग नाम भी था- ‘इन्दरो’। जब भी किसी से लड़ाई-बहस होती या एक-दो बार बुलाने पर भी मैं नहीं सुनती तो उनके मुँह से मेरा नाम ‘इन्दरो’ ही निकलता। अपना ख़राब नाम किसे अच्छा लगता है; मैं दौड़कर उसकी बात सुन लेती कि वह बंदा चुप हो जाय। क्या करूँ? ज्यादातर हमें ‘इन्दरो’ ही सुनना पड़ा।

तो इस इन्दरो के परिवार में दादी जी, दो चाचा-चाची जी, भाभी-भैया जी थे और सभी के बच्चे भी। हमारा मकान एक बरामदा, खुला आँगन और बड़ी सी छत से युक्त था। खेल का मैदान और टीम दोनों इन्दरो के घर के। पूरी तरह मौज-मस्ती।

  इन्दरो ‘इसकूल’ से आने के बाद खाना खाती। इसके बाद मम्मी से पूछ कर रोज़ के जरूरी सामानों की लिस्ट बनाती जिसे ‘परचा’ या ‘पुर्जा’ कहा जाता। वह  पापा के पास जाती। वहाँ ‘पुर्जा’ सम्पादित होता। सामान के हिसाब से पैसे मिलते। इसके बाद वह एक हाथ में पुरानी पैंट के बने ‘झोले’ (थैले) को लटकाकर और दूसरे में पुर्जा पकड़े फुदकते हुए निकल पड़ती।सामान लाकर पापा को पूरा हिसाब देती।

  छुट्टी वाले दिनों में वह अपने कपड़े की दुकान पर बैठती थी। थोक और फुटकर ग्राहकों को कपड़ों का चुनाव कराने, कीमत बताने, बिल बनाने और पुनः मिलान करने में अपनी उम्र के हिसाब से उसे महारत हासिल थी। अपनी ‘इंदरजीत’ पर पापा को बहुत गर्व था। संयुक्त परिवार होने के नाते यह नही कह सकती कि वह पापा की बांयी हाथ थी पर एक तर्जनी बन जाने की ख़ुशी उसके चेहरे से साफ़ झलकती थी।

 इन्दरो का ‘इसकूल’ घर से लगभग 1:5-2:0किलोमीटर दूर था- ‘आदर्श शिशु मंदिर’। अपने आप में अनोखा ‘इसकूल’ था और वास्तव में ‘आदर्श’। खेत खलिहान में एक पक्का भवन। मुख्य कस्बे के मकानों की पिछली लम्बी दीवारों के ठीक पीछे शांत सा।

 अपने भाई-बहनों के साथ खेत से होते हुए बीचों-बीच में इन्दरो खूब जोरों से अपना नाम लेती। दीवारों से टकराकर वही आवाज़ वापस आती तो उसे बड़ा मज़ा आता। इस मजे के पीछे विज्ञान का कौन सा नियम काम करता है, उसे दूर- दूर तक कोई लेना-देना नहीं था। खेत से न होकर कभी मुख्य मार्ग से जाना पड़ता तो इस मजे की खानापूर्ति वह ‘इसकूल’ से कुछ ही दूरी पर खड़े एक ट्रैक्टर के पहिये की थोड़ी सी हवा निकालकर करती। उसे आत्मिक सुख देने वाली यह लत तब छूटी जब एक दिन ट्रैक्टर मालिक ने उसे पकड़कर कड़ी फटकार लगाई और मम्मी –पापा तक ‘सिकायत कर देबे’ की धमकी भी दी।

हाँ, ‘इसकूल’ में पहुंचकर वह शरीफ बन जाती। आज्ञाकारी छात्रा। खूब मन लगाकर पढ़ती  थी। सुबह की ‘परार्थना’ करवाने के लिए जब कभी उसे बुलाया जाता तो फूले नहीं समाती। चार बच्चों में खूब जोर से ‘दईया करुदान भकती का, हमें परुमातिमां देना’ शुरू कर देती। उसकी आवाज अलग से सबको सुनाई देती। इस चक्कर में वह भूल जाती कि शुद्ध और सही प्रार्थना करना भी जरूरी है। उत्साह में कई बार तीसरा या चौथा अन्तरा भूल जाती। ‘परार्थना’ के बाद ‘दफ्तर में मिलने’ की ‘प्रधानाचार जी’ की धमकी से वह सहम जाती। दोनों हाथों पर एक-एक डंडा पड़ने पर कुछ समय तक सही रहती। अगली बार धीरे से ‘परार्थना’ करवाती। यहाँ तक कि ‘बिसराम’ और ‘सावधान’ भी बगल वाला ही बोलता। थोड़े दिनों के बाद फिर पुराने ढर्रे पर चली जाती और ‘प्रधानाचार जी’ की धमकी भी। ‘इसकूली’ किताब के ये पन्ने गतांक के आगे चलते रहते।   

  समूह को लीड करने की इच्छा उसकी शुरू से ही थी अतः मन में ‘मानीटर’ बनाने की लालसा बलवती रहती। इन्दरो की ‘किलास’ में बच्चे इसका चुनाव करते। लड़कों की संख्या ज्यादा होने पर कोई लड़का ही ‘मानीटर’ चुना जाता पर कक्षा चार में अचम्भा हो गया। हुआ यूँ कि एक नए कक्षाध्यापक आये। इन्हें ‘किलास’ में गणित पढ़ने की भी जिम्मेदारी मिली हुई थी। पहले ही दिन उन्होंने पाँच गणित के सवाल श्यामपट्ट पर लिखे और सबसे कहा कि कापी का एक पन्ना फाड़कर उस पर हल करो। सभी जुट गए। प्रिय विषय होने के कारण इन्दरो ने पाँचों सवाल सबसे पहले हल कर के ‘आचारजी’ को दे दिये।

‘सब सही, शाबाश’। इतना कहकर उसके नए ‘अचार जी‘ कुर्सी छोड़ खड़े हो गए और घोषणा कर दी कि अब इस क्लास की ‘मानीटर’ इन्द्रजीत कौर होंगी। कुछ सेकण्ड अवाक् रहने के बाद लड़कियों के साथ लड़कों ने भी तालियाँ बजायीं। अब तो इन्दरो की ख़ुशी का ठिकाना न रहा। वो अपनी खूब चलाती। ‘किलास‘ में जरा भी शोर होने पर एक पर्चे में नाम नोट करके ‘आचार जी’ को दे देती। लड़कों की तो जरा सी भुनभुनाहट को भी वह नहीं छोड़ती थी। शायद वह पिछले भेदभावों की भड़ास निकालती रही होगी ।

खैर, जब तक वो ‘आचार जी’ रहे, वह मानीटर रही। इतना ही नहीं, ‘इसकूल’ के वार्षिकोत्सव में भी बढ़-चढ़कर भाग लेती थी। सरस्वती वंदना और समूह गान में तो  रहती ही थी, एक व्यंग नाटक ‘राजा की नाक’ में भी उसने भाग लिया था। नटी का रोल उसे मिला था जिसमें अपने नट के साथ घूम-घूमकर हर तरह की नाक बेचती थी। इस नाटक में राजा की नाक कट जाने पर नट-नटी को दरबार में बुलाया गया था इस दृश्य में हास्य-व्यंग्य से युक्त संवादों ने लोगों को काफी हंसाया और सोचवाया था। आज भी इन्दरो अपने पुराने एलबम में वह फोटो देखती है तो भावुक हो जाती है। इस फोटो में एक डंडे पर अनेक प्रकार की लम्बाई-चौडाई वाली कागज़ की बनी नाकें लेकर वह नट के साथ एक पुरानी साड़ी पहने खड़ी है।

 कक्षा आठ में उसके मम्मी-पापा को लगा कि ‘इंदरजीत’ बड़ी हो गयी है। उन्होंने  सुरक्षा, परंपरा और लोगों की दृष्टि को ध्यान में रखते हुए ‘बालिका इंटर कालेज में दाखिला करवा दिया।  

 घर का माहौल – संयुक्त परिवार होने के नाते उसे बड़ों का संरक्षण, भाई-बहनों का प्यार और छोटों से काफी अपनत्व मिलता रहा। सभी भाई-बहनों में इन्दरो के भाई दूसरे नंबर पर थे। अभिभावक की तरह। गाइड जैसे भी। हर क्षेत्र में उचित राय देने वाले और डांटने वाले। हरेक से यही कहते कि मेरी नौ बहने नहीं नौ देविंयाँ हैं, मेरे नौ हाथ हैं। रक्षाबंधन वाले दिन तो इन्दरो के सभी वीरों की पूरी बांह राखियों से भर जाती।

  बड़े चाचाजी का क्या कहना? घर के सभी बच्चों के शैक्षिक अभिभावक की तरह थे। बच्चों का स्कूल में एडमिशन करवाने, रजिस्टर में उनके नाम, जन्मतिथि आदि क्या होगी वो ही देखते थे। उन दिनों ‘कक्षा-आचार्य जी’ हिंदी और सरल शब्दों में कहें तो ‘कलास-टीचर जी’ बच्चों की डायरी लेकर घर पर आते थे। घर में कैसा व्यवहार बच्चा करता है और कितना पढ़ता है, इसके बारे में वे अभिभावक से टिप्पणी लेते थे। नकारात्मक होने पर अगले दिन ‘इसकूल’ में दोनों हाथों पर डंडे पड़ने निश्चित होते थे। ‘कलास टीचर जी’ जब भी दुकान पर आते इन्दरो व बाकी भाई-बहन छिप के कभी ‘आचार जी’ को देखते तो कभी चाचाजी के चहरे को। बाद में चाचाजी कहते कि तुमलोग स्कूल जाओ तो पता चलेगा’। सहमे हुए अगले दिन जब वह स्कूल जाती तो उस समय सुकून मिलता जब डायरी में ‘पहले से सुधार है’ लिखा रहता। थोड़ी सी डांट के बाद हमलोग बरी हो जाते। फिर से बचपनीय हुडदंगियाँ और शैतानियाँ शुरू होने में देर नहीं लगती।

 युसुफपुर में एक बालापुर गाँव था जहाँ हर साल मेला लगता था। चाचाजी सारे बच्चों को ठेले या बैलगाड़ी में बिठाकर ले जाते। सड़कों ने सरकारी ध्यान कुछ ज्यादा ही खींचा हुआ था अतः सभी ऊँट की सवारी सा आनंद लेते। कभी-कभी सभी बच्चे गौसपुर में गंगा नदी के दर्शन और स्नान के लिए भी जाते। वहां एक-दूसरे पर पानी फेंकते और बालू डालना तो बिल्कुल नही भूलते। वापसी में सभी उस समय के प्रसिद्ध दूधनाथ हलवाई के यहाँ से विभिन्न तरह की मिठाईयां जरूर खाते। इसके लिए पूरी बच्चा पार्टी दुकान से थोड़ी दूर पहले से ही तेज गति से चलकर पहुँच जाती। पहले तो चाचाजी दोनों खाली हाथ दिखाते कि उनके पास पैसे नहीं हैं फिर लुंगी में से मोड़ कर रखे पैसे निकालते। हमलोग ख़ुशी से चिल्लाते और खूब मिठाई खाते।    

तरह-तरह के खेल – घर की ही पूरी टीम थी इसलिए इन्दरो ने सामुहिक खेल खूब खेले। बड़ा आँगन और खुली छत बड़े काम आयी। यदा-कदा अपने भाई-बहनों के साथ बाहर भी निकल पड़ती थी; कभी अभिभावकों को दिखाकर तो कभी छुपकर। लंगड़ी का खेल छत पर दुधिया (चाक) से खाने बनाकर खेला जाता। इस दौरान जो नीचे कमरे में आराम फरमा रहा होता उसकी तो आफत आ जाती। नीचे वेड़े से न जाने कितनी आवाज़े आतीं कि ‘इन्दरो बस कर, हुन सोन दे। धड़-धड़ दी आवाज़ आ रई है।’ इन्दरो को सब सुनायी देता पर उसके तो दो कान इसीलिए बने थे कि एक से सुनी हुई आवाज़ दिमाग के रास्ते जाने की बजाय दूसरे कान से फुर्र से बाहर निकल जाय। यह तब तक चलता जब तक कि आंठवे (अन्तिम) खाने को लंगडाकर पार नहीं कर लेती।

  जब ‘किरकेट’ खेलना हो तो छत की बजाय घर के आँगन में ही खेला जाता। वेड़े के चारों तरफ के कमरों के दरवाजे बंद करके खेलने में गेंद सुरक्षित रहती। ‘इसकूल’ वाली मित्र मंडली घर आ जाती तो सबलोग बाहर खेलने चले जाते। नाली में गेंद जाती तो उसे निकलवा कर धोने में फिर जोरों से छप्प करके गेंदबाजी करने में इन्दरो को बड़ा मजा आता। इसके अलावा घर में लुकन-छिपाई, कबड्डी, गुड्डे-गुड़ियों का खेल, कपड़ों की छोटी कतरनों से दुकान-दुकान का खेल आदि में भी वह रमी रहती। इन खेलों के चक्कर में उसने अपनी पढ़ाई को कभी पीछे नहीं छोड़ा। प्रथम श्रेणी से वह पास भी होती रही।

 

 लिखने–पढने का शौक-  इस इन्दरो को शुरू से ही लिखने–पढ़ने का शौक रहा। वह अपने राजू भैया और सत्ती दी से प्रतियोगी परीक्षाओं के बारे में जानने की कोशिश करती। दिलजीत दी ने अंग्रेजी पढ़ने की जिम्मेदारी ली हुयी थी। अपनी हल्की-फुल्की समझ के साथ वह पूरे समाचार-पत्र को भी खंगाल डालती। सम्पादकीय को तो बिना पढ़े रहती ही नहीं थी। किसी कारणवश नहीं पढ़ पाती तो कमरे की दीवार में ही बनी अपनी आलमारी में संभाल कर रख देती। मौका मिलने पर बाद में उस पर एक नज़र जरूर दौड़ाती। नादान उम्र में समसामयिक विषयों पर उसकी पकड़ नादान नहीं थी। घर में ‘इंडिया टुडे’, ‘माया’, ‘आजकल’ जैसी पत्रिकाएं आतीं थीं। इसे पूरा चट करके ही वह मानती। उसने तो समाचार पत्रों के ‘पाठक के पत्र’ में ख़त भी भेजना शुरू कर दिया था। पहली बार उसकी चिट्ठी छपी थी तो हाथ में लहराकर पूरे परिवार में दौड़ते हुए दिखाया था। सभी को इस बच्ची में लेखकीय ऐब दिखने लगे थे। बहने तो यहाँ तक कहतीं कि ऐ बुड्डेयां हार गल करदी है (ये बड़ों जैसी बातें करती है) ।

कुछ आध्यत्मिक भी थी वह - इन्दरो ने जब से होश संभाला घर में गुरुसिक्खी माहौल को ही पाया। किसी भी सदस्य को मांस, अंडा, शराब, तम्बाकू और पान-मसाले से दूर-दूर तक कोई मतलब नहीं था। यहाँ तक कि दुकान में भी किसी ग्राहक को सिगरेट या बीड़ी पीने की इज़ाज़त नहीं थी। उसने पूरे परिवार को पाठ-कीर्तन करने व सुनने, गुरूद्वारे जाने और वहां के कार्यक्रमों में बढ़-चढ़कर हिस्सा लेते हुए देखा था। ये सब उसे भी अच्छा लगता। घर के लगभग सभी बड़े सदस्य अमृत वेले (ब्रह्म मुहूर्त) उठ जाते थे। बच्चों को भी उठाया जाता। अगर थोड़ा भी आलस्य किसी में दिखता तो पानी की छींटें मारी जातीं। इंदरो इस नौबत से बचने की कोशिश करती। आँख मलते ही उसके कान में पापा की आवाज ‘इंदरजीत बेटा जी सत्श्रीआकाल’ सुनायी पड़ जाती। अंत का ‘ल’ खाते हुए वह भी ‘सतश्रीआका’ बोलती और उठ पड़ती। सुबह चार बजे रेडियो से श्री अमृतसर  के हरिमंदिर साहिब गुरूद्वारे (स्वर्ण मंदिर) से गुरबाणी कीर्तन का सीधा प्रसारण आता था। शास्त्रीय रागों से युक्त मधुर, रूहानी व अध्यात्मिक धुन रोज उसके कानों में पड़ती। घर के बगल में मस्जिद होने के कारण सुबह की अजान भी अपने पूरे आवाज़ में सुनायी देती। इन्दरो ने कभी अलार्म नहीं सुना। सुबह नहा-धो कर वह पाठ करती और पढ़ने बैठ जाती। घर में सख्त नियम था कि बिना जपुजी साहिब का पाठ (श्री गुरुनानक देव जी की रचना) पढ़े कुछ खाना नहीं है। पहले आत्मा की भूख, बाद में पेट की भूख। इन्दरो के भापा जी (पापाजी) कहा करते थे कि इंदरजीत पुत्तर, नींव सही हो तो पूरा दिन सही बीतता है। इन्दरो अमृत वेले उठकर जर्रे-जर्रे में ईश्वरीय शक्ति के अस्तित्व को महसूस करती। जब वह छत पर टहलती तो थोड़ी दूर पर बने मंदिर से मधुर धुन वाली हनुमान चालीसा की पंक्तियाँ भी हवा में घुल कर उसके कानों में पड़ती। वह बचपनीय बुद्धि से गुरबाणी और अन्य अध्यात्मिक प्रवचनों के माध्यम से अनगिनत रहस्यों को जानने का बुजुर्गियत प्रयास करती। उसकी मम्मी तो गुरुओं के जीवन से सम्बंधित साखियाँ भी सुनाती। सच्चा सौदा, गुरुओं की शहादतें, ऊँच-नीच का भेदभाव न मानते हुये गुरुओं द्वारा सबके भले हेतु किये कार्य आदि उसके दिमाग में अच्छी तरह से बैठ गए थे। उसे भी लगा कि समाज में कमजोरों की मदद और हर गलत कार्य का विरोध होना चाहिए। वह आस-पास के षड्यंत्रों को पहचानने की कोशिश करती रही। यह लत तो उसे आज भी है पर व्यक्त करने का तरीका उसे व्यंग्य लेखन ही भा रहा है ।

बिन माँ की माँ - इन्दरो की माँ का दिल भी बाकी माओं की तरह स्नेह से भरा हुआ था। विनम्रता की मूर्ति। कुछ ज्यादा ही, शायद उनकी माता जी का देहांत बचपन में  हो गया था इसलिए। वो इस कमी को बच्चों पर अथाह स्नेह लुटाकर पूरा करना चाहतीं थीं। वो कहा करतीं थीं ‘मेरी माँ ते बचपने विच ही मर गयी, मैनू ते पता नही कि माँ दा प्यार की हौंदा है।’ इतना बोलते ही उनका गला भर आता। अपने आंसू छिपाने के लिए वो दूसरे काम में लग जातीं। किसी भी बच्चे को उन्होंने महसूस नहीं होने दिया कि वह दस में से एक है। हर एक को यह सुखद और ठंडा एहसास होता कि वह इकलौते बच्चे सा प्यार पा रहा है। इन्दरो को भी लगता कि मम्मी अपनी ‘इंदरजीत’ से ज्यादा प्यार करतीं हैं। अगर वह पढ़ाई कर रही होती तो मजाल नहीं कि उसे कोई काम के लिए उठा दे। कोई कुछ कह भी देता तो वह स्पष्ट कह देतीं कि पढ़ते समय मैं अपने बच्चे को नहीं उठाऊंगी भले ही मुझे कितना काम क्यूँ न करना पड़े। इन्दरो जब पढ़ती तो गरमा-गरम दूध मेज पर रख जातीं। थोड़ी देर बाद नाश्ते वाली प्लेट भी दे देंती और उसके सिर पर हाथ फेर चलीं जातीं। इन्दरो को ‘इसकूल’ से आने में पांच मिनट भी देर होती तो वो सीढ़ी से उतरकर सबसे नीचे वाले पायदान पर बैठ जातीं। अपने माथे पर न जाने कितनी चिंता की रेखाओं के साथ राह देखतीं। थोड़ी देर बाद बच्चों के चेहरे देखते ही उनकी सांस में सांस आतीं। अगर उनकी ‘इंदरजीत’ कभी बोल देतीं कि इतना क्यों चिंता करती हो, हमलोगों को कुछ नहीं होगा तो वह अपने चिर-परिचित अंदाज में डांट देतीं, ‘बेटा, कुडियां दी चिंता लग ही जांदी है जमाना नहीं देखदी किदे जा रैया है। इतना कहते ही वह उसे गले लगा लेतीं। आज इन्दरो को लगता है कि माँ शब्द पर न जाने कितनी कवितायें, कहानियाँ, लेख आदि लिखे गये हैं पर सब अधूरा ही है।  सच में ‘माँवां ठंडिया छांवां’ होतीं हैं।      

 विभाजन का दुःख-  इन्दरो पर भारत-पकिस्तान के विभाजन का बहुत गहरा असर पड़ा। वह इसका हिस्सा भले न रही हो पर भापा जी (पापा जी) के साथ उठते-बैठते हुए वहां के दर्दनाक और भयावह घटनाओं से पूरी तरह वाकिफ थी। इस दर्द को बताते हुए उसके भापाजी के आँखों में आंसू आ जाते। अचानक चुप होकर वो कहीं शुन्य में खो जाते। पकिस्तान की बातें याद करते हुए इन्दरो के पापा कहते कि ‘बेटा ओत्थे साड्डा वेड़ा बोहत वड्डा सी’( हमारा आँगन बहुत बड़ा था)। उनके अनुसार ‘वी मंजिया’ (बीस चारपाईयां) रखी जा सकती थीं। पापा के दादा अपनी पिंड(गाँव) के जमींदार थे। धन-संपत्ति की कमी नहीं थी। इन्दरो की बेबे (दादी जी) को तो अपना सब कुछ वहां गँवाना पड़ा था। गाज़ीपुर आकर वहां की यादों को भुला नहीं पायी थी। उठते-बैठते खुद से ही  बातें करने की उनकी आदत पड़ गयी थी। अचानक हँसना व अनायास बोल पड़ना फिर आंसू निकल आना, यह रोज़ की बात थी। उन्हें लगता कि अभी भी वो पकिस्तान में अपने सगे-सम्बन्धियों से बातें कर रहीं हैं। थोड़ी देर बाद वास्तविकता का एहसास होने पर वो चुपचाप सो जातीं। तत्कालीन साहित्य भी विभाजन की त्रासदी से भरा रहता।   इन्दरो को अमृता प्रीतम की रचनाएँ पसंद थीं। भीष्म साहनी द्वारा लिखी पुस्तक पर आधारित टी.वी. सीरियल ‘तमस’ को घर के सभी लोंगों के साथ वह देखती। पापा बताते कि दिखाई जा रहीं सारी घटनाओं को उन्होंने आँखों से देखा है। कहते ही वे आँखें मलने लगते।      

 लड़की होने का दर्द – कस्बाई माहौल में इन्दरो जैसे ही कक्षा सात-आठ तक पहुंची, दुकान में थोड़ा कम बैठने लगी। बाज़ार से घर का सामान लेने दुकान से कोई ’स्टाफ’ जाने लगा। घर के अन्दर खेलने और ज्यादा कूद-फांद न करने की सलाहों से इन्दरो को लग गया कि वह एक चंचल, खिलंदड़ा और मौजमस्ती वाला बच्चा न होकर एक लड़की भी है पर उसके मन नें हार नहीं मानी और न आज मानी है। अपने बचपन को संजोये रखा है किसी कोने में आज भी उसने। घर की जिम्मेदारी निभाते हुए यदा-कदा बच्चों के साथ खेलती है। इतना ही नहीं टी.वी. में ‘सिंचैन’ और ‘डोरेमान’ भी देख लेती है। आज वह मानती है कि ‘मन बच्चा तो कठौती में गंगा।

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इन्द्रजीत कौर

-।।।/915, सेक्टर-आई, अलीगंज, लखनऊ-226024

3 comments:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल रविवार (30-08-2020) को    "समय व्यतीत करने के लिए"  (चर्चा अंक-3808)    पर भी होगी। 
    --
    श्री गणेश चतुर्थी की
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।  
    सादर...! 
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'  
    --

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  2. हमारे यहाँ कहा जाता है "मन सच्चा तो कठौती में गंगा"।

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