1.
खून का रंग-
कैसे तय होता है?
विज्ञान की मानें तो
आर बी सी से
परिवार की माने तो
माँ-बाप से
समाज की माने तो
जाति, धर्म,वर्ण से
राजनीति की माने तो
वोट और नोट से।
इतने मानक है
फिर भी
लहू लाल ही है
फिर
इतने मानक क्यों है
और सब भ्रामक क्यों हैं।
क्या
इतना मानना काफी नहीं
खून किसी भी मानक का हो
धमनियों में जब तक दौड़ता है
ज़िंदा रहता है
और जब सड़क के बीच आता है
तो मर जाता है।
क्या हमें अब
मानक बदलने नहीं चाहिए
और खून का रंग
केवल जीवन और मृत्यु से तय करने चाहिए।
2.
तब मेरा गाँव मुझे याद आता है।
मैं जब शाम को दफ्तर से घर जाता हूँ,
कार की कतारों में प्लास्टिक से
चेहरों को निहारता हूँ,
तो मुझे पगडंडियों पर गजगामिनी सी
चलती बैलगाड़ी नज़र आती है,
उसकी घंटियों में भरतमुनि के
नाट्यशास्त्र का संगीत उभर आता है,
नई नवेली आती हुई किसी दुल्हन की
हिलती नथुनी सज जाती है,
पहियों की मद्धम गति में जीवन का ठहरा
कुछ पल मिल जाता है।
तब मेरा गाँव मुझे याद आता है।
जब मैं मेरी बेटी को स्विमिंग पूल में
खेलता देखता हूँ,
तो मेरे सामने से गाँव की नदी गुज़र
जाती है,
सद्यास्नाता के अनछुए बदन को देखकर वो
खिल जाती है,
नंग-धरंग बच्चों को देखकर छुईमुई सी शरमा
जाती है,
पूरे गाँव की जीवनदायिनी बता कर खुद
पर अकड़ जाती है,
छठ जैसे त्योहारों में किसी बच्ची सी
सज जाती है।
जब मैं दोस्तों को धूप में तरबतर
हाँफता देखता हूँ,
तो कुआँ के किनारे हरा भरा बूढ़ा बरगद
जवानी पे उतर आता है,
पक्षियों के शोर और कोलाहल से वो तर
जाता है,
गिलहरी की शरारतों और कोयलों की कूँक
से भर जाता है,
उसकी भींगी छाँव में प्रेयसी के छुअन
का असर आता है,
लंबी-चौड़ी विशाल भुजाओं में लाल हुए सूरज
को कस जाता है।
तब मेरा गाँव मुझे याद आता है।
जब मैं रेस्तराँ का महँगाई से कुप्पा
हुआ मुँह देखता हूँ,
तो मुझे कंसार में रेत पर नाचता याद
चना का हश्र आता हूँ,
मक्के की भुनी सौंधी बालियाँ क्या गज़ब
ढाती हैं,
सोती हुई खेतों में मिट्टी की दरी पर
छिमरियाँ बिछ जाती हैं,
मंदिर की घंटियों और प्रसादों में
सुधापान की जाती है,
मिट्टी के चूल्हे पे माँ के हाथ की
बनी रोटी से भूख और सुलग जाती है।
तब मेरा गाँव मुझे याद आता है।
जब मैं बैग,थरमस,टिफ़िन,रैकेट और किताबों में दबता बचपन देखता हूँ,
तो मुझे माँ की तरह पुचकारता ,मेरा पाठशाला सँवर जाता है,
उसके आदर्श और नैतिकता के पाठ से मेरे
अंदर का शैतान डर जाता है,
होमवर्क का जोर नहीं, फीस भरने की होड़ नहीं,
उसके प्रांगण में दौड़ता मेरा वर्तमान
थम जाता है।
तब मेरा गाँव मुझे याद आता है।
*नथुनी-नाक का आभूषण
*छठ-बिहार का सबसे बड़ा पर्व।
*कुप्पा- गुस्से से फुला हुआ चेहरा।
*कंसार-जहाँ विभिन्न अन्नों को भुना जाता है।
*छिमरियाँ-मटर के नए फल।
3.
क्या चाक पे
औरतें गढ़ी जा सकती हैं?
हास्यास्पद लगता है
असंभव भी
और
थोड़ा बेतुका भी
पर
ऐसा हो सकता है
क्योंकि
ऐसा ही होता आया है
थोड़ा मिट्टी
थोड़ा पानी
चाक का जोरदार घुमाव
और
हाथों की कारीगरी
बस
औरतें तैयार हो जाएँगी
बचपन से
कोमल मिट्टी को
सौ घड़े पानी में
पैरों तले कुचल कर
मनचाहे आकार में
मोड़ते जाओ
तो कभी
चाक की गति
और
उँगलियों की हरकतों से
पिटने से पीट-पीट कर
बेटी,बहन,बीवी,माँ
सब तैयार मिलती हैं
फिर
धूप में सुखाकार
आग में जलाकर
बाज़ार में
बेचने लायक भी
बनाई जाती हैं
और
बिक भी जाती है
जो शादी और उत्सवों में
रौनक बढ़ाती है
मान-सम्मान दिलाती है
और
सब खत्म होने के बाद
कूड़े में फेंक दी जाती है
ये चाक
हर घर में चलता है
रोज़ चलता है
सदियों से चलता है
सबके हाथों से चलता है
लेकिन
गढ़ने के क्रम में
हमारी
अमर्यादित लोलुपता
दंभी पौरुष
और
शाश्वत अहंकार
मुँह बाए खड़ा हो जाता है
और
कल्पनातीत
औरतें गढ़
दी जाती हैं।
4.
क़त्ल हुआ और यह शहर सोता रहा
अपनी बेबसी पर दिन-रात रोता रहा ।।1।।
भाईचारे की मिठास इसे रास नहीं आई
गलियों और मोहल्लों में दुश्मनी बोता
रहा ।।2।।
बेटियों की आबरू बाज़ार के हिस्से आ गई
शहर अपना चेहरा खून से धोता रहा ।।3।।
दूसरों की चाह में अपनों को भुला दिया
इसी इज्तिराब में अपना वजूद खोता रहा
।।4।।
जवानी हर कदम बेरोज़गारी पे बिलखती रही
सदनों में कभी हंगामा,कभी जलसा होता रहा ।।5।।
बारिश भी अपनी बूँदों को तरस गई यहाँ
और किसान पथरीली ज़मीन को जोता रहा ।।6।।
महल बने तो सब गरीबों के घर ढ़ह गए
और गरीब उन्हीं महलों के ईंट ढ़ोता रहा
।।7।।
5.
चलो आज तुम्हारे मतलब की बात करते हैं
बेवजह चौक-चौराहे पर जात-पात करते हैं
दिन की शक़्ल पर एसिड डाल दिया है
अब थोड़ा खून सा लथपथ ये रात करते हैं
किसी को हिन्दू तो किसी को मुस्लिम बनाकर
सरेआम क़त्ल इंसानों के जज़्बात करते है
मज़लूम अपने हक़ की रशीद न माँग बैठे
तंत्र में पैदा ऐसे ही कुछ हालात करते
हैं
किसान धूप में झुलस कर मरता है तो
मेरे
हम बारिश की बिसात पर शह और मात करते
है
वो बच्ची है,कब तलक बोल पाएगी
भेड़िया बनकर एक और आघात करते हैं
रुसवाई,कोफ़्त,घिन्न ने घेर रखा है हर तरफ
अगली नस्ल को हम अब यही सौगात करते
हैं
6.
वायदे बेचने का ये बाज़ार नया नया है
कहते हैं साहेब का रोज़गार नया नया है
दिल जीत लेते थे अपनी जुबानी कसरतों
से
उनको अपनी शोहरत का खुमार नया नया है
कब तक बचे रह सकेंगे नफासत में वो भी
आखिर सत्ता का उनको भी शुमार नया नया
है
एक चोट पर इतनी घबराहट क्यों छा गई है
मालूम होता है ये जम्हूरियत बीमार नया
नया है
देख भाल के चलना सरकारी महकमों में
यहाँ
सभी विपक्षी गुटों में हुआ ये करार
नया नया है
7.
जो देखूँ दूर तलक तो कहीं बियाबाँ , कहीं तूफाँ नज़र आता है
इस फ़िज़ा की मुस्कराहट के पीछे कोई
श्मशान नज़र आता है
इंसानों ने अपनी हैवानियत में आके
किसी को भी नहीं बख्शा है
कभी ये ज़मीं लहू-लुहान तो कभी घायल आसमाँ नज़र आता है
मशीनी सहूलियतों ने ज़िन्दगी की
पेचीदगियाँ यूँ बढ़ा दी हैं कि
जिस इंसान से मिलो,वही इंसान थका व परेशान नज़र आता है
क़ानून की सारी ही तारीखें बदल गई हैं
पैसों की झनझनाहट में
मुजरिमों के आगे सारा तंत्र ही न जाने
क्यों हैरान नज़र आता है
किताबें,आयतें,धर्म,संस्कृति,संस्कार,रिवाज़ सब के सब बेकार
शराफत की आड़ में छिपा सारा महकमा
शैतान नज़र आता है
बच्चों की मिल्कियत छीनके अपने
उम्मीदों का बोझ डाल दिया
मेरी निगाहों में अब तो हर माँ-बाप ही बेईमान नज़र आता है
8.
जब दीप जलाई है तो रोशनी बिखरेगी कहीं
न कहीं
ये फ़िज़ा दुल्हन सी जरूर निखरेगी कहीं
न कहीं
बेटियाँ नेमतें है जो सबको खुदा अता
नहीं करता
बेटियों की हँसी से खुशियाँ दिखेंगी
कहीं न कहीं
बस एक मौके की दरकिनार है इनके जज़्बों
को
ये आज की नारी हैं,ये इतिहास लिखेंगी कहीं न कहीं
इस बेजान जम्हूरियत में बदलाव बहुत
जरूरी है
आवाम की ज़बानें हैं ये ,सच कहेंगी कहीं न कहीं
कब तक ज़ुल्म दबा सकता है शराफत की
तदबीरें
आग की जद में बेजान लाशें भी चींखेंगी
कहीं न कहीं
सलिल सरोज
पता: बी 302, तीसरी मंजिल, सिग्नेचर व्यू अपार्टमेंट्स, मुखर्जी नगर, नई दिल्ली-110009
मो. 9968638267
वाह लाजवाब कविताएं।
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