भावनाओं का प्रतिबिंब : कई-कई बार होता है प्रेम
- डॉ.
भावना
“कई-कई बार होता है प्रेम“ प्रगतिशील, प्रतिबद्ध
एवं प्रयोगधर्मी यवा कवि अशोक सिंह का सद्य प्रकाशित काव्य-संग्रह है, जो
बोधि प्रकाशन से छप कर आया है। अशोक सिंह का यह संग्रह कई मायनों में खास है।
परिवार व समाज की घटनाएँ संवेदना के केंद्र में हैं।. कवि ने परिवार में रोज घटित
होने वाली घटनाओं व प्रसंगों को कविता का विषय बनाया है, चाहे
मध्यमवर्गीय परिवार की कमर-तोड़ महंगाई का एहसास हो, या
मां का स्नेहिल स्पर्श। दादी का जाना हो या अपने गांव की पुश्तैनी जमीन के बिकने
की ख़बर। संवेदनाओं की बुनियाद पर टिके हर रिश्ते पर कवि की पैनी नजर है। कविता को
रचते हुए कवि स्वयं को रचता प्रतीत होता है। संग्रह की पहली कविता ’मां
का ताबीज’ कई अर्थों में एक अद्भुत कविता है। कवि
यूँ तो ताबीज़ पर विश्वास नहीं करता। फिर भी वह माँ का दिया ताबीज धारण करता है। यह
कहते हुए कि ‘‘मैं ताबीज नहीं तुम्हारा विष्वास पहन
रहा हूँ माँ’’ यह माँ प्रति अद्भुत सम्मान एवं स्नेह
का ही प्रतिफल है। मां के प्रति यही अगाध प्रेम आज के जीवन से गायब हो गया है।
तथाकथित बुद्धिजीवी वर्ग प्रगतिशीलता की आड़ में अपने सिद्धांतों के लिए
बड़े-बुजुर्गों की अवहेलना करने से भी नहीं चूकता। मुझे नहीं पता कि बुजुर्गों की
इच्छाओं का सम्मान न कर हम कौन-सी प्रगतिशीलता का परिचय देते हैं। मुझे यकीन है कि
अशोक सिंह की यह कविता नई पीढ़ी को अपने पूर्वजों के प्रति सम्मान रखने को अवश्य
प्रेरित करेगी। संग्रह में कुल 68 कविताएँ हैं, जो
शुरू से अंत तक पाठकों को खुद से जोड़ने में पूर्ण रूप से सक्षम है। संग्रह की तमाम
कविताएँ कवि के भोगे हुए क्षण की सहज-सरल अभिव्यक्ति है, कहीं
से भी काल्पनिक होने का भ्रम पैदा नहीं करती। संग्रह की तमाम कविताएँ न केवल भाषा, शिल्प
और संप्रेषण के स्तर पर नवीनता लिए हुए हैं, अपितु
कविता की अंतर्वस्तु को युगानुकूल सामाजिक चेतना देकर प्रासंगिक बनाने का हुनर भी
अशोक सिंह रखते हैं। यही तेवर उन्हें अपने समकालीनों से अलग करता है। एक सभागार
में बुद्धिजीवी, यह चुप रहने का वक्त नहीं है, हमें
कुछ करना चाहिए, कितना मुष्किल है, कोई
तो है सुनील भाई जैसी कविताओं से गुजरते हुए आज के बदलते परिवेश और उसकी धड़कनों को
सहज ही महसूस किया जा सकता है तथा एक सहज ,सहृदय
कवि की बौद्धिकता की चमक को भी देखा -समझा जा सकता है।
संग्रह में समाज की विसंगतियों एवं
विकृतियों को ध्यान में रखकर भी कई कविताएँ कही गई हैं। ’जवान
होती लड़कियाँ’ में जब कवि कहता है कि “जवान
होती लड़कियां जानती हैं/उसके समय का सबसे खराब समय चल रहा है यह/वे ये भी जानती
हैं/कि एक ऐसे समय में जी रही हैं वे/जहां खतरनाक होता है मुस्कुराना“ तो
बरबस ही समाज का असली चेहरा हमारे सामने आ जाता है। आज लड़कियां कहीं भी सुरक्षित
नहीं हैं। न घर में, न ही विद्यालय में, न
ही ऑफिस और न ही राह चलते हुए ही। अखबार की कतरनें गवाह हैं कि किस कदर आज लड़कियाँ
बलात्कार और यौन शोषण का शिकार हो रही हैं। ऐसे बर्बर और अराजक समय में स्वाभाविक
है कि लड़कियाँ अपनी हँसी भूल गई हैं।
अशोक सिंह एक ऐसे कवि हैं जो न तो खुद को
नारीवादी कवि होने का मुगालता पालते हैं और न ही स्त्रीवादी सोच का प्रदर्शन ही
करते हैं। अशोक सिंह बिना लाउड हुए बड़ी शिद्दत से स्त्री के तमाम रूपों को अपनी
कविता का विषय बनाते हैं। जैसे “बहनें और घर“ कविता
में लिखते हुए वेकहते हैं कि “वे जानती हैं/पिता को चाहिए कब कौन-सी
दवा/और माँ के मंदिर जाने के पहले/रख आती हैं उसकी साजी में फूल/वे होती हैं/माँ
का हाथ/पिता की आँखें/घर की ताज़ा हवा । उनकी दूसरी कविता “बेटियाँ“ भी
कुछ इसी तरह के भाव लिए हुए है। कवि कहता है कि“ घर
का बोझ नहीं होती हैं बेटियाँ/बल्कि ढोती हैं घर का सारा बोझ। “औरतें
“शीर्षक कविता में कवि औरत के जीवन को व्यक्त
करते हुए कहता है कि “वे सोती हैं/सोता है घर/करवट लेती
हैं/बदलता है युग/बावजूद इसके पूरे घर में बिछी/वह नहीं जानतीं/उन्हीं से बाकी
है/धरती की सिहरन।
अशोक सिंह ने अपने व्यवहारिक जीवन में
प्रेम को बड़ी संजीदगी से जिया है। कहीं उनका प्रेम आठवीं कक्षा के छात्र का किशोर
व अबोध प्रेम है, जिसे प्रेम आकर्षित करता है। पर वह
उसकी गहराई को नहीं जानता। उनका प्रेम ईश्वरीय नहीं मानवीय प्रेम है। निरपेक्ष
नहीं, सापेक्ष
है। “मुझे ईश्वर नहीं तुम्हारा कन्धा चाहिए “कविता
में वे कहते हैं कि “मुझे सिर झुकाने के लिए/ईश्वर नहीं
/सिर टिकाने के लिए/एक कंधा चाहिए /और वह ईश्वर नहीं/तुम दे सकती हो।’ तो, स्पष्ट
हो जाता है कि उन्हें प्रेम की दिलासा नहीं बल्कि प्रेम का स्पर्श चाहिए। प्रेम की
कल्पना में जीने वाला कभी यथार्थ की इतनी सच्ची तस्वीर पेश कर भी नहीं सकता। कवि
की नजर में प्रेम किसी प्रेमी की ताकत होना चाहिए, कमजोरी
नहीं। “मैं तुमसे इसलिए प्रेम नहीं करता“ शीर्षक
कविता में कवि कहता है कि “मैं तुमसे इसलिए/प्रेम नहीं करता
कि/तुम्हारे पीछे दौड़ते-भागते/बेकार, निकम्मा
,अपाहिज हो जाऊं/बल्कि इसलिए करता हूं प्रेम/कि
तुम्हारे कदमों से चलकर/अपनी मंजिल को पा सकूं।’’ यानी
कि कवि प्रेम के सहारे दुनिया जीतने का ख्वाब लिए उस रास्ते चल पड़ा है। पर जब उसे
पता चलता है कि वह उसके पीछे दौड़ते-भागते दुनिया की नजर में बेकार और निकम्मा
साबित हो गया है। तो वह सचेत हो जाता है। अपनी टूटन बिखरन को शब्दों में पिरोते
संभलने की कोशिश में कई बार टूटता-बिखरता है। पर, उसे
भुला नहीं पाता। “काश एक बार फिर तुम जीवन में आती “कविता
में कवि कहता है कि “काश एक बार फिर/तुम जीवन में आती/और
मैं हर रोज तुमसे/किसी दार्शनिक की तरह/जीवन और मृत्यु
के
बीच/प्रेम के महत्व पर चर्चा करता। कविता संग्रह के शीर्षक वाली कविता “कई-कई
बार होता है प्रेम“ जीवन मे एक बार होता है प्रेम की धारणा
से अलग प्रेम को अलग तरह से परिभाषित करता नजर आता है। प्रेम मनुष्य का मूल स्वभाव
है। वह उसे जिस रूप में भी मिले स्वीकार करने से पीछे नहीं हटता। दुख के क्षणों
में अकेला खड़े हर व्यक्ति को प्रेम की आवश्यकता होती है ,जिससे
कोई इनकार नहीं कर सकता। प्रेम एक अविरल धारा है जो जीवन में आता है तो आदमी के
भीतर का‘स्व’ स्वतः
मिट चुका होता है। कवि कहता है कि “वैसे
भी इस दौर में जब/प्रेम में धोखा खाने/और दुबारा फिर कभी किसी से/प्रेम न करने की
घोषणाओं के बावजूद/हम तलाशते हैं दुख के क्षणों में किसी का कंधा/तब क्या सचमुच हम
कह सकते हैं पूरे विश्वास से/इस अविश्वास भरे दौर में/पूरी ईमानदारी से/कि प्रेम
जीवन में सिर्फ और सिर्फ/एक बार होता है/कह सकते हैं दिल पर हाथ रखकर पूरी
ईमानदारी से ? ...तो वाकई पाठक कुछ सोचने पर मजबूर हो
जाता है।
कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि युवा कवि अशोक सिंह का यह संग्रह कविता का नायाब गुलदस्ता है। जो पाठक को आज की गद्यात्मक कविताओं से इतर पूर्ण रूप से बाँधे रखने में सक्षम है। कवि ने संग्रह की कविताओं में परिवार, समाज व आपसी रिश्तों को केंद्र में रखा है। काव्य-भाषा में नयापन है। कई कविताओं के बिंब मन मोह लेते हैं। कवि ने प्रेम को विविधता के साथ विस्तृत आयाम दिया है।. हालांकि कई कविताओं में दुहराव भी दिखता है, जो कविता की धार को कुंद करता है, बावजूद इसके यह काव्य-संग्रह पठनीय और संग्रहणीय है ।
कविता संग्रह: कई-कई बार होता है प्रेम। कवि- अशोक सिंह, प्रकाशक: बोधि प्रकाशन, जयपुर, पृष्ठ संख्या: 152 प्रकाशन वर्ष: 2018, मूल्य: 150 रुपये
सम्पर्क: बलुआ निवास, आवास
नगर, रोड नं.-2, नियर
न्यू पुलिस लाइन, बैरिया, मुजफ्फरपुर-842003
(बिहार)
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