भारत में धर्म का वह अर्थ कभी नही रहा जो पश्चिम में ‘रिलिजन’ या सामी संस्कृतियों में ‘मजहब’ के रूप में देखा और लिखा गया | हाँ, प्रचारित भी किया ही गया | वेदों की मानें तो मनुष्य होना से धर्म है। मनुस्मृति में धर्म के जो लक्षण गिनाये गये है, उनमें भी सदाचरण की मांग है। बुद्ध भी अपने उपदेशों में आर्य शीलों की बात करते हैं। वैशेषिक दर्शन के अनुसार धर्म वह है, जिससे मानव जीवन का अभ्युदय होता है। तुलसी ने मानस में इसे एक सूत्र में ऐसे सारे कर्म, जिनसे मानव समूहों के हितों की रक्षा होती है धर्म है। उनकी तोही है परहित सरिस धरम नाह भाई दूसरी अली में उन्होंने यह भी सुस्पष्ट कर दिया कि वे कर्म जिनसे मानव समूह उत्पीड़न का अनुभव करे, अधर्म ही कहे जायेंगें |
ईसाई और इस्लामी चिंतन में 'गॉड' या 'खुदा' के प्रति पूजा-पाठ अथवा नमाज अदा करना जरूरी माना गया है। पर
भारत में, खासतौर से जैन धर्म और बौद्ध धर्म चिंतन में ईश्वर नाम की कोई सत्ता
नहीं है। फिर चार्वाक (या चारवाक) वादी तो वैसे भी ईश्वर जैसी किसी अदृश्य सत्ता
या सर्वशक्तिमान को मानने को राजी नहीं है। ईसाइयत और इस्लाम में यह किसी अपराध से
कहाँ कम है- दण्डनीय भी है। इन प्रसंगों से विचारकों की धर्म-दृष्टि का पता लग जाता है। उदात्त मनुष्यता
को ही अगर ईश्वरत्व मान लें तो कोई झगड़ा ही कहाँ?
पर पूजा-पाठ और कर्मकाण्ड को यहाँ शायद
ही कभी धर्म की परिभाषा में माना गया।
उदाहरण के लिए रावण तो खूब पूजा-पाठी था, पर अत्याचारी भी खूब था।
मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश के लिए चुनौती बनकर खड़ा डाकू मानसिंह भी खूब
पूजा-पाठी था। पर इन दोनों पूजा-पाठियों का वध करके मानव समूहों की रक्षा को ही
धर्म माना गया।
'महाभारत' में खासतौर से 'गीता' में धर्म को जो
व्याख्या की गयी है, वह तो लगभग वही है, तुलसी जिसे परहित या लोकहित कह रहे है।
गीता में इसे सदाचारी मानव समूहों को प्राण देने और दुष्टों पर अत्याचार करने वालों
को दमनकर्ता या धर्म पुरुष कहा गया | कृष्ण इसीलिए भारतीय समाज में पूज्य और आराध्य
बने हुए है।
याद करें तो कर्ण तो खुद सूर्यपुत्र था और सूर्य की पूजा भी
किया करता था। पर कृष्ण ने उसे जिन नीतियों और तर्कों के आधार पर मरवाया, वो भला
किसे याद न होंगे? उन सारे तर्कों के मूल में उसका अन्यायी दुर्योधन के साथ खड़ा
होना ही था। अन्याय चाहे जो करे, भारतीय चेतना और धर्म दृष्टि उसके येनकेन वध को धर्म ही मानती
आई है। अन्यथा कृष्ण धर्मपुरुष क्योंकर कहे जा सकते हैं? पर समूचा महाभारत और गीता
इससे भिन्न और कुछ कहने या मानने को प्रस्तुत नहीं।
इन सन्दर्भों से यह साफ़ हो जाता है कि धर्म हमेशा से मानवीय सदाचरण
है, न कि और पाखण्ड पूर्ण कर्मकाण्ड आदि। पाखंड इसीलिए कह रहा हूँ
कि यह सब दिखाया मात्र है। जैसे किसी पूजा में किसी मंदिर के गर्भगृह में बैठकर तस्वीरें
खिंचवाना और पूरे देश व दुनिया को यह बताना कि मैं तो बहुत बड़ा धर्मपुरुष हूँ |
लोक इन खोचलों में कहा फसता है?
वह तो तुरत फुरत फैसले दे देता और कई
बार पूछ भी लेता है कि तुम्हारी यह पूजा पाखंड के अलावा और क्या है | तब यह तो कहा
ही जा सकता है कि यह धर्म तो नही, धर्म को राजनीति जरूर है |
इतिहास में जायें तो इस राजनीति को वैदिकोत्तर यज्ञवादी
पुरोहितों ने भी अपने स्वार्थों के लिए अपनाया और इनके विरुद्ध उठ खड़े हुए बौद्धों
ने भी | गौतम बुद्ध ने धर्म का जो सपना देखा था
और जिन धर्माचरणों का विधान किया था,
बाद के बौद्धों ने उसका
इस्तेमाल ब्राह्मण धर्मानुयायियों को पराजित और अपमानित करने के लिए किया | अंततः
ब्राह्मणों ने भी अपनी चालें चली, उनका सर्वनाश ही कर डाला | विचारणीय है कि ये
दोनों अपने अपने धर्मों के अभ्युदय और दूसरे की पराजय के लिए धर्म की राजनीति करते
रहे | खुद इस्लाम में उत्तराधिकार के खूनी संघर्षों का अपना इतिहास है। सुन्नियों
और शियाओं के अपने झगड़े हैं।
धर्मों को इस अन्दरूनी राजनीति के अलावा एक और विडम्बना यह कि
सत्ता-राजनीति से इनका गठजोड़ भी खतरनाक रूप लेता गया, जिससे सामान्य जनजीवन पस्त
और निरुपाय होता चला गया | गांधी ने जरूर हमारे अपने समय में यह समझाने की भरसक कोशिश की
कि सभी धर्म अपने बुनियादी स्वरूप में मानव हितकारी है |
किन्तु यह भी हम जानते हैं कि
धर्म की इस राजनीति ने देश के बंटवारे में अहम् भूमिका अदा की | सत्ता पिपासुओं को
इसीलिए धर्म की आड़ किसी टॉनिक से कम नही लगती | पर यह हमेशा टॉनिक का ही काम करे
कोई जरूरी नही | बंगाल के चुनाव में सिर्फ भाजपा ही नही हारी, उसके श्रीराम भी
मुँहकी खा गये | तो क्या यह समझा जाय कि बंगाल के लोग धर्म को नहीं समझ पा फिर वे
समझ रहे थे कि धर्म और धर्म की राजनीति में जमीन-आसमान का फर्क है और इसीलिए
उन्होंने उस धर्म की रक्षा की, जिसे नागरिक धर्म कहते है।
ऐसे में सवाल है कि अयोध्या और श्रीराम सत्ता-खोजियों के अस्त्र-शस्त्र
हैं | या फिर सम्पूर्ण सनातन हिन्दू मानस के वे धार्मिक विश्वास, जहाँ वह शरण लेता
है ? इसे अपना अखाड़ा बनाकर और पताका की तरह फहराकर राजनीतिक सत्ता हथियाने का छल क्या
भारतीय मानस के साथ किया जाता रहा छल नहीं है?
क्या इन हथकंडों को अपनाकर, इससे भी
पहले इन्हें इनकी पवित्रता से दूर कर, राजनीतिक नारा मात्र बनाकर, इनके साथ दुराचार
नही किया जा रहा ?
यह भी मान भी लिया जाये कि ऐसा करने वाले माना कि धर्म और
राजनीति करने वाले अपनी सत्ता में कभी वैसा शासन अपने नागरिकों (मतदाताओं) को
देंगें जैसा लंका विजय कर लौटे राम ने दिया था,
तब भी उनके इन आचरणों को बर्दाश्त किया
जा सकता है, इसका तो दूर दूर तक एक भी कारण या लक्षण दिखाई नहीं देता | अभी तो वे
उन गाँवो को ढेर-ढेर पानी की मांग रखने वाले शौचालय देना चाहते हैं, जहाँ पीने के पानी तक की किल्लत है | वे गरीब ग्रामीणो को गैस के
चूल्हा दे रहे हैं और दिन-ब-दिन गैस की टंकी की कीमत बढ़ती जा रही हैं | जिन होनहार
छात्र-छात्राओं को अब तक स्कूलों तक पहुंचने के लिए ठीक-ठाक सड़कें तक मुहैया नही
हो सकी, जरूरी अध्यापक तक नसीब नही हो पाए | बरसात में भीगने से बचने के लिए तक छतें
तक नही मिल पायीं, वे उन्हें रोटी के बदले केक वाले मुहावरे के मुताबिक बुलेट
ट्रेन की सौगात देने को लालायित हैं ? यानि मर्ज़ कुछ और इलाज कुछ और |
"क्या
राम की राजनीति का चरित्र यही था? वह कैसा था, इसे रामचरितमानस और दोहावली के
तुलसीदास से क्यों नही पूछते, जिन्होंने अयोध्या में बैठकर राम के चरित्र का
गुणगान किया था - अवधपुरी यह चरित प्रकासा | यह चरित्र कैसा था इसे आप तुलसी के
अलावा प्रसिद्ध शायर अल्लामा इक़बाल के इन दो शेरों से भी जान सकते हैं इस देश में
हुए है मलकसरिश्त/ मशहूर जिनके दम से है दुनिया में नामे हिन्द/ है राम के वजूद से
हिन्दोस्तां को नाज़/ अहले नज़र समझते हैं उसको इमामे हिन्द |
राम का स्वभाव देवता जैसा था और सही मायनों में वे ही भारत के
चित्त के जनक थे |
वे सचमुच प्रकाशमान सूर्य थे | हिन्दू तो हिन्दू मुसलमान आबादी
तक जिन राम के प्रति आस्थावान रही, उन्हें अपने संकीर्ण सत्ता-स्वार्थों के लिए एक
नारे में सिकोड़ देने वालों ने उसका गौरव बढ़ाया है या घटाया, इसे उनके साथ आप भी सोचिये
| वे सारे लोग सोचें जो लोकमानस की पवित्र आस्थाओं के साथ ऐसे खिलवाड़ करते हैं।
माना कि धर्म और राजनीति एक ही सिक्के के दो पहलू है, किन्तु चिन्तक राजनेता डॉ. राममनोहर लोहिया की मानें तो राजनीति एक अल्पकालीन धर्म और धर्म एक दीर्घकालीन राजनीति है | किन्तु जो लोग भी इस अल्पकालीन धर्म को ही अपनी पहचान बनाकर आत्मुग्ध है, उन्हें आज नही तो कल जरूर इस हकीकत को समझना होगा कि सत्ताओं की राजनीति का घटाटोप तो बस चन्द दिनों का हुआ करता है, शेष तो अंततः वे गहरे मानव-आदर्श ही बचते हैं, दुनिया और भारत के लोग आज तक अपने चतुर्दिक के अंधेरों के बावजूद जिनके बल पर अपना रौशनी का सफ़र पूरा करते आए हैं | कवि जयशंकर प्रसाद के बेहद मौजूं ये शब्द प्रसंगतः याद हो उठते हैं- ‘यह सुख कैसा शासन का/ शासन रे मानव मन का/ गिरि भार बना सा तिनका/ यह घटाटोप दो दिन का/ फिर रवि शशि किरणों का प्रसंग |’
अत्यंत सारगर्भित आलेख।
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