Saturday 31 July 2021

नामवर सिंह की लोकप्रियता


हिन्दी आलोचना के मंच पर नामी-गिरामी और कद्दावर आलोचकों की कतार में सबसे परवर्ती होते हुए भी डा. नामवर सिंह ने अपने युग को आचार्य रामचंद्र शुक्ल के बाद सर्वाधिक प्रभावित किया। उन्होंने हिन्दी आलोचना-परम्परा के विष्णु-वक्ष पर अपने प्रतिभा के पद-निक्षेप से अमिट छाप छोड़ी। इस पद-निक्षेप को उद्धत भाव का द्योतक न मानकर उस भाव का व्यंजक मानना चाहिए जिसके अन्तर्गत माना जाता है कि सुन्दरी युवती के पद-प्रहार से अशोक वृक्ष खिल उठता है। 

 

अपने समय में उनके होने की वर्चस्वशाली भूमिका को इस तरह भी समझा जा सकता है कि आचार्य शुक्ल को छोड़कर उनके समकालीन बाकी सभी बड़े आलोचक मौजूद थे जिनके अपने-अपने प्रभामंडल थे। जिनके अपने-अपने वैदुष्य के विशाल आडम्बर थे। जिनकी कीर्ति की फहराती अपनी-अपनी पताकाएं थीं। काव्य या साहित्य-सिद्धांत के अपने-अपने वाद और सम्प्रदाय थे। वे एक से बढ़कर एक धुरन्धर थे। इसके बावजूद आलोचना के क्षेत्र में नामवर सिंह के नाम का डंका उनके युवाकाल में ही बजना शुरू हो गया था। 

 

कवि बनने का स्वप्नभंग होने पर उन्होने आलोचक बनने की जब ठानी, उसकी तैयारी आरम्भ की, साधना में जब उतरे तो वह उपक्रम-आयोजन इतना घना और पसीनेतर था, मेहनतकश की रोजाना की हाड़तोड़ मेहनत से भी आगे था कि पुराणों में वर्णित तपस्वियों का कृच्छ्र तप भी उसकी तुलना में फीका था। उनकी आलोचना की कुण्डलिनी बैठे-बिठाए, गुरुचरण-वन्दनामात्र से या बक की तरह ध्यान का ढकोसला करते मछली पर टिकी निगाह के बाने में नहीं जगी थी। न वह ऊंघते या जँभाई लेते या बहुत-सी पुस्तकें घोंटकर लम्बी डकार लेते जगी थी। वह पात्रता की अग्निपरीक्षा से गुजरकर जगी थी। बार-बार सिर देकर सिद्ध हुई थी। उनके आलोचक व्यक्तित्व में जो ताप है, दर्प है और वंकिम-सी प्रतीत होती ऋजुता है वह उसी सिद्धि का परिणाम है। उनके वक्तृत्व में जो सम्मोहन है, विषय पर छा जाने का जो माद्दा है, लक्ष्यबद्ध जो एकाग्र निगाह है, जो धार है और सर्वोपरि जो वाग्वैदग्ध्य है वह पहले किसी दूसरे आलोचक में इस पैमाने पर नहीं दिखाई पड़ा। बाद में उभरने वालों की तो बात ही क्या ! वे तो नामवर सिंह के नाम की बड़ी छाया के नीचे पड़कर हतप्रभ रह गए।

 

विद्वत्ता, शास्त्रीयता, मौलिकता और ऐतिहासिक योगदान की मूल्यवत्ता और लेखन की व्यापकता  की दृष्टि से देखा जाए तो हिन्दी आलोचना के आदि पुरुष आचार्य शुक्ल के अलावा आचार्य हजारीप्रसाद, डा. नगेन्द्र, आचार्य नन्ददुलारे वाजपेयी, डा. रामविलास शर्मा, शिवदान सिंह चौहान, मुक्तिबोध, आदि कितने ही स्वनामधन्य आलोचक नामवर सिंह के पहले स्थापित हो चुके थे। इनमें सबसे कनिष्ठ होकर भी नामवर सिंह ने अपने जीवनकाल में जो शोहरत और लोकप्रियता हासिल की उसकी मिसाल नहीं मिलती। जहां तक आचार्य शुक्ल की बात है तो उनकी बात न उठाना ही उचित है क्योंकि वह अपराजेय और अतुलनीय हैं। नामवर सिंह के मामले में यह सब ठीक वैसे ही घटित हुआ जैसे भारत में कितने ही ऋषि मुनि सिद्ध संत भक्त हुए और होते ही गए किन्तु जो धार्मिक लोकप्रियता गौतम बुद्ध को प्राप्त हुई वह किसी और को नहीं। पुरानी राजनीति में जो लोकप्रियता राम को प्राप्त हुई, दूसरे को नहीं, आधुनिक राजनीति में गांधी जी की अभूतपूर्व और अश्रुतपूर्व ख्याति के बावजूद जो लोकप्रियता जवाहरलाल नेहरू के कदमों में बिछी वह किसी और के नहीं। 

 

इस विवरण से भी हिन्दी आलोचना के शिखर पुरुष नामवर सिंह के महत्त्व के वैशिष्ट्य को समझा जा सकता है। उनकी जगमगाती आलोचना के वैभव-छटा को सभा मे, भीड़ में या एकान्त में भी हृदय में उतारा जा सकता है। उनके श्रम, तप, साधना से प्रेरणा लेकर आगे हिन्दी आलोचना को और विकसित किया जा सकता है। समय के भाल पर अपना भी निशान छोड़ा जा सकता है। दूसरा नामवर सिंह तो नहीं बना जा सकता किन्तु उनसे आगे निकला जा सकता है, सम्भावना का प्रकाश धुंधला होने के बावजूद। आलोचना की वर्तमान टिमटिमाहट के बीच काम लायक रोशनी से भरा कोई सूरज तो उग ही सकता है। यह समझना चाहिए कि किसी आलोचक या रचनाकार के काम से रोशनी यों ही नहीं फूटती, उसके लिए उसे अपने भीतर आग जलानी पड़ती है, लकड़ी का इन्तजाम करना पड़ता है। लकड़ी वह स्वयं होता है। अपने को फूंकना पड़ता है। साधक के रूप में आलोचक का व्यक्तित्व ही उसका घर है, कबीर के अनुसार उसे फूंकना चाहिए। अहं को गलाकर ही आत्मतेज की उपलब्धि होती है।

 

करीब 70 वर्षों तक हिन्दी आलोचना में नामवर सिंह की तूती बोलती रही। और लोग उस बोल पर विमुग्ध होते रहे। यह सब क्या मात्र संयोगवश हुआ? आकस्मिक रूप से हुआ ? कहने की जरूरत नहीं कि इस दुनिया में बेबुनियाद कुछ नहीं होता। नामवर सिंह पर मार्क्सवाद का गहरा प्रभाव था एक दर्शन के रूप में किन्तु उनपर भारतीय दर्शनों एवं अन्य प्रगतिशील दृष्टिकोणों की भी सांस्कारिक छाप थी, जिसका जिक्र वह कम करते थे। किन्तु वह उनकी चेतना में घुला हुआ था। इसलिए वह वास्तव मे किसी मत या विचारधारा के दुराग्रही कट्ठरवादी नहीं थे। उनकी मेधा के मधु और रूप-रागकोष में उन सारे फूलों का मधु और सौन्दर्य संगृहीत था जो जीवनयात्रा के दौरान उनकी सचेत आंखों से टकराए, आंखों में उतरे या आंखों में चुभे। विरोधों में सामंजस्य बैठाने की कला में उन्हें महारत हासिल थी। वह उस विद्या में निष्णात थे। उनका व्यक्तित्व सामंजस्यपूर्ण था। उन्हें विशुद्ध रूप से मार्क्सवादी आलोचक नहीं कहा जा सकता न ही रूपवादी और कलावादी। सामंजस्य बैठाने की यह प्रतिभा यदि नामवर सिंह में न होती तो आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी उनके गुरु न होते। 

 

उनकी काव्य-आलोचना के सिद्धांत पक्ष में भारतीय संस्कृत काव्यशास्त्रों से लेकर आधुनिक पाश्चात्य काव्यशास्त्रों के सभी ग्रहणीय सारगर्भित स्थापनाओं के निचोड़ों का पाच्यकारी मात्रा में समावेश रहता है। और आगे चलकर हिन्दी कविता में जो नयी और विकट प्रवृत्तियां उभरीं उन्हें भी आत्मसात करने का हौसला पूरे उभार के साथ उनमें दिखाई पड़ता है। सबकुछ पचाकर उनकी अपनी मौलिक काव्यदृष्टि का निर्माण हुआ था। इसलिए उनके कथनों में एकांगी विद्वानों को जब-तब विरोधाभास लक्षित होता है। जैसे गोस्वामी तुलसीदास में भी अनेक विद्वानों को गुणों के साथ बहुत से ऐब भी दिखाई पड़ते हैं। अस्ल में, किसी बड़े आकार के गुणवान व्यक्ति में ऐब और पै ढूढ़ना क्षुद्र मिजाज के बहुत सारे लोगों का शगल होता है। उनकी चेतना में पड़ी लत होती है। यह जरूर है कि इससे सहृदय लोगों को दिक्कत होती है। किन्तु सुलझे हुए लोग इसप्रकार के बनावटी व्यवधानों को आलोचना-रचना जगत का आवश्यक अंग और शोभा मानकर सहर्ष ग्रहण करते हैं। कुटिल मानसिकता के सानिध्य को आत्मसुधार के लिए मुफीद समझते हैं।

 

नामवर सिंह के अनेक आलोचना-ग्रंथ हैं किन्तु उन्हें अमर करने के लिए, कालजयी बनाने के लिए उनके दो ग्रंथ ही पर्याप्त हैं।

वे हैं - कविता के नये प्रतिमान और कहानी : नयी कहानी। ये हिन्दी आलोचना में मील के पत्थर ही नहीं, उसके विशेष सुशोभित शिखर भी हैं। आज उनके जन्मदिन के अवसर पर जब हिन्दी संसार उन्हें सहस्र कंठों से श्रद्धा-सुमन अर्पित कर रहा है, मेरे छोटे-से हृदय-सरोवर में भी जो तरंगमाला उठी उसे उस महान आलोचक के प्रति कुसुमांजलि स्वरूप मैनें बयान कर दी।

 

. रमाकांत नीलकंठ

 

 

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