1957 का प्रसंग है। पुराने सिक्के जा रहे थे। नया पैसा जगह बना रहा था। चुनाव का माहौल था। यह बात लखनऊ की है। मैं लखनऊ के हैदराबाद मुहल्ले में रहता था। हैदराबाद दो थे— नया हैदराबाद और पुराना हैदराबाद। मेरा घर नया हैदराबाद के जिस मकान में था उसका नाम है खन्ना विला। यह कोठीनुमा मकान अपने उसी पुराने ढांचे में आज भी मौजूद है। जुलूस का शोर-शराबा सारे दिन सुनाई पड़ता था। गली-मुहल्लों और सड़कों पर एक के बाद एक राजनीतिक पार्टियों के कार्यकर्ता और समर्थक नारे लगाते हुए परेड करते थे। एक नारा अभी तक याद आता है— ‘गली गली में शोर है, सी बी गुप्ता चोर है’। सी बी गुप्ता यानी चन्द्रभानु गुप्त। वह भारत की आजादी की जंग के अभिन्न अंग थे। काकोरी रेल डकैती कांड को अंजाम देने वाले क्रांतिकारियों के वह एक नामी और कुशल वकील के रूप में अनन्य सहयोगी थे। उनकी विचारधारा या पार्टी जो भी रही हो, इससे क्या लेना-देना। महान लेखक यशपाल ने अपनी पुस्तकों में सी बी गुप्त का कई जगह जिक्र किया है। क्रांतिकारियों का पूरी निडरता से साथ देने वाले शख्स थे सी बी गुप्त। मशहूर स्वतंत्रता सेेनानी और शहीदे आजम भगत सिंह के अनन्य सहयोगी रहे शिव वर्मा ने अपने संस्मरण में लिखा है-- सी बी गुप्ता न केवल क्रांतिकारियों के मुफ्त में मुकदमे लड़ते थे, अपितु फरारी के दौरान अपने घर पर उन्हें ठहराते भी थे। कहा यह भी जाता है कि उस समय का शायद ही कोई क्रांतिकारी हो, जो गुप्त जी कभी न मिला हो या उनके ठिकाने पर कभी ठहरा न हो। कहना न होगा कि वह क्रांतिकारियों की भरसक आर्थिक मदद भी करते रहते थे। स्वतंत्रता संग्राम के दिनों में गुप्त जी अमीनाबाद पार्क के पास शायद किराये के मकान में रहते थे। बाद में उन्होंने वकालत की कमाई से चारबाग के पास अपनी पसन्द की एक कोठी बनवायी। तब के चोर कहलाने वाले इन महान नेताओं के पासंग भी तो नहीं हैं आज के तथाकथित स्वच्छ छवि वाले नेता ! सारा मामला मानवीय मूल्य के क्षरण का है। सी बी गुप्त कांग्रेस के कोषाध्यक्ष हुआ करते थे। वह तीन बार उत्तर प्रदेश के मुख्य मंत्री भी रहे।
कांग्रेस के अलावा उस समय की कुछ पार्टियों के नाम याद आते
हैं। भारतीय जनसंघ, संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी,
प्रजा सोशलिस्ट पार्टी, भारतीय कम्युनिस्ट
पार्टी, रिपब्लिकन पार्टी आदि आदि। जब भी किसी पार्टी का मजमा लगता था
या गली-सड़क से जुलूस गुजरता था, हम बच्चे घरों से निकल आते थे। तब हमें दल या पार्टी से मतलब न
था। सभी पार्टी वाले बिल्ले और झंडी बॉंटा करते थे। हमारा मतलब उससे था। हम बच्चों
में अधिक से अधिक बिल्ले और झंडियॉं जुटाने की होड़ रहती थी। इन बिल्लों और झंडियों
पर उन पार्टियों के चुनाव चिह्न अंकित रहते थे,
जैसे दो बैलों की जोड़ी, दीपक, बरगद, झोपड़ी, हँसिया बाली आदि आदि।
पार्टियों के कार्यकर्ता वोट की मांग करने वाले अथवा अपने दल की अच्छाइयां बताने
वाले पर्चे और कार्ड भी गलियों में हवा में फेंकते जाते थे, जिन्हें हम बच्चे
धक्कामुक्की करते हुए लूटते थे। उस समय राजनीतिक दलों के झंडे और बैनर भी बांटे
जाते थे। इन्हें लाकर हम अपने घरों पर जहां-तहां सजा देते थे। यह सब हम एक
अजीबोगरीब उमंग और उत्साह में करते थे। मुझे याद आता है कि चुनावों के दौरान मेरे
घर पर और घर के भीतर लगभग सभी दलों के झंडे-बैनर लहराते थे। हमारे घरों के
बड़े-बुजुर्ग इसमें कोई दखल नहीं देते थे। 1957
के आम चुनाव में ही मैंने नुक्कड़ सभाओं
में भाषण करते सी बी गुप्ता को कई बार देखा-सुना है। याद आता है कि उनका कद साढे़
पॉंच फुट से कुछ कम ही था यानी वह मुझे नाटे कद के लगते थे। धोती-कुर्ता और सदरी
पहनते थे। सर पर गांधी टोपी रहती थी। वह रुक-रुक कर मुँह से एक-एक वाक्य निकालते
थे। भाषण देने का उनका यह ढंग सबसे निराला होता था।
बहरहाल, जिक्र चल रहा था-- गली-गली में शोर है, सी बी गुप्ता चोर है।
कांग्रेस-विरोधी दल उनके खिलाफ यह नारा क्यों लगवाते थे, इसके पीछे रूढ़ हो
चुकी एक धारणा थी। धारणा यह थी कि सी बी गुप्त प्रदेश की उद्योग नगरी कानपुर के
पूँजीपतियों से पैसा वसूल करते हैं। बात सही भी थी। कानपुर के पूंजीपतियों को
उन्होंने जमकर दुहा, लेकिन किस लिए जरा इस पर भी ध्यान दीजिए। अपने और अपने परिवार
के स्वार्थ-साधन के लिए नहीं अपितु अपनी पार्टी एवं समाजसेवा के अपने महान
उद्देश्य की पूर्ति के लिए। गुप्त जी अविवाहित थे और अपने घर पर किसी सगे-सम्बन्धी
को नहीं रखते थे। कई नौकर-चाकर थे जो उनकी और उनकी कोठी की देखभाल करते थे। उनकी
यह कोठी लखनऊ के चारबाग रेलवे स्टेशन के पास स्थित पानदरीबां मुहल्ले में थी।
कानपुर के सिंघानिया और जयपुरिया जैसे बड़े उद्योग घरानों से उनका अच्छा रब्त-जब्त
था। अन्य बड़े उद्योग घराने भी उनकी मुट्ठी में थे। चुनावों के समय या कहें
समय-समय पर वह बहैसियत कांग्रेसकोषाध्यक्ष इन घरानों से अपनी पार्टी के लिए
मोटी-मोटी रकम की उगाही करते थे। बताते हैं कि मुंबई और कोलकाता के उद्योग घराने
भी उनके इशारे भर से कांग्रेस का खजाना भर देते थे। गुप्त जी पर कभी पैसों की
हेराफेरी का आरोप लगा हो, ऐसा मेरे सुनने में नहीं आया। वह समाजसेवा को पूरी तरह समर्पित
थे। ऐसे नेताओं की वह पीढ़ी ही और थी।
1980 में
मरने से पहले उन्होंने एक वसीयत लिखी थी। जरा उस पर गौर करें-- "मेरा सफर जो
कभी रुका नहीं, झुका नहीं, न जाने कब मंजिल प्राप्त कर ले और जीवन की संध्या छा जाये।
मेरा जीवन एक भिखारी का जीवन रहा है। मेरे देश के विशेष रूप से इस प्रदेश के लोगों
ने मुझे अपार स्नेह और सम्मान दिया है। उन सभी देशवासियों के प्रति अपनी कृतज्ञता
व्यक्त करने के लिए मैंने दो संस्थाओं 'भारत सेवा संस्थान'
एवं 'मोतीलाल मेमोरियल सोसायटी'
को जन्म दिया। जो कुछ मेरा अपना कहने
योग्य था, वह सब 'भारत सेवा संस्थान'
और 'मोतीलाल मेमोरियल सोसायटी'
का हो चुका है। अब पानदरीबां स्थित केवल
एक मकान 'सेवा कुटीर' मेरी निजी अचल सम्पत्ति के रूप में रह गया है, जिसका एकमात्र स्वामी
मैं हूँ। यह भी देश की गरीब जनता को अर्पित है। मेरे नाम जो धन बैंकों के खातों
में मेरे अंतिम क्षणों में होगा, वह मेरी अंत्येष्टि में सादगी के साथ व्यय करने बाद बाकी
समाजसेवा में व्यय होगा।" गुप्त जी ने इन दोनों समाजसेवी संस्थाओं के माध्यम
से लखनऊ के चारबाग क्षेत्र में मोतीलाल मेमोरियल अस्पताल, बाल संग्रहालय, उच्च कोटि की शिक्षा
मुहैया करने वाले संस्थान बाल विद्या मन्दिर और सांस्कृतिक गतिविधियों के लिए
रवीन्द्रालय की स्थापना करवायी। उनके साथ काम कर चुके लखनऊ के बुजुर्ग बताते हैं
कि गुप्त जी को किताबें पढ़ने का नशा था। जब भी उन्हें राजनीतिक झंझटों से फुर्सत
मिलती थी, किसी किताब के पन्ने पलटना शुरू कर देते थे। अपने पढ़ने के शौक
के चलते ही उन्होंने गोमती नदी किनारे एक भव्य भवन में लायब्रेरी की स्थापना की, जिसका नाम है— आचार्य नरेन्द्र देव
पुस्तकालय। पुस्तकों की संख्या और विविधता के लिहाज से यह शहर की सबसे समृद्ध
लायब्रेरी मानी जाती है।
सी बी गुप्त सादगी की मूर्ति थे। यह मैं दोवे से इस कारण कह सकता हूँ क्योंकि मैंने बचपन में उन्हें कई-कई बार नजदीक से देखा है और उनकी बातें सुनी हैं। पान दरीबां स्थित उनके निवास-स्थल 'सेवा कुटीर' में जाकर कोई साधारण व्यक्ति भी मुलाकात कर सकता था। मेरे पिता जी नेहरू के अखबार नेशनल हेरल्ड के कई दशक तक कर्मचारी रहे। उनका गुप्त जी से अच्छा परिचय था। गुप्त जी उनका नाम लेकर बुलाते थे। मैं भी कई मर्तबा गुप्त जी की कोठी पर पिता जी के साथ गया हूँ। जब मैं चौथी-पॉंचवीं का छात्र था, तभी मेरा परिवार हैदराबाद से ऐसबाग न्यू लेबर कालोनी में शिफ्ट हो गया। उस दौर में मेरी कालोनी में अक्सर सांस्कृतिक कार्यक्रम होते रहते थे। कभी-कभी मुख्य अतिथि के रूप में सी बी गुप्ता को भी बुला लिया जाता था। गुप्त जी जिन दिनों मुख्य मंत्री की कुर्सी पर नहीं थे तब दो-चार बार वह 15 अगस्त या 26 जनवरी को तिरंगा फहराने भी हमारी कालोनी में आये थे। यह सब हमारी कालोनी में ही रहने वाले महान पत्रकार अखिलेश मिश्र के प्रयास और रसूख से सम्भव होता था। वह हमारे कार्यक्रमों में अपनी निजी कार से आते थे, जिसमें उनके अलावा केवल दो अन्य लोग होते थे। उनका चालक और एक कोई सहायक टाइप का व्यक्ति। आगे-पीछे अन्य कोई वाहन नहीं होता था। गुप्त जी की एक खासियत थी। वह हमेशा अपने हाथ में एक रूल लिये रहते थे। जब कोई उनसे उस रूल के बारे में पूछता था तो कहते थे-- यह राजदण्ड है।
बहुत कुछ बदल चुका है चोर चोर खेल जारी है। सुन्दर।
ReplyDeleteसी बी गुप्ता जी जैसे कर्मयोगी के बारे में विस्तृत लेख अच्छा लगा राहुल जी। वो लोग और थे और समय और था।आज राजनीति में ऐसे वैरागी और जनसेवा को सर्वस्व समर्पित करने वालेलोगों का अकाल पड़ा है। बहुत रोचक संस्मरण। लिखा आपने। हार्दिक शुभकामनाएं आपको।
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