अभी कुछ ही दिन पहले ही आये एक वरिष्ठ लेखक के इस कथन को पढ़कर
या सुनकर कि "हिन्दी में नब्बे प्रतिशत कवि वास्तव में कवि हैं ही
नहीं।" लोगों ने अपने आस पास जरूर एक नजर दौड़ाई होगी। और साहित्य के जानकारों
ने कविता के इतर भी उंगली काटकर घायलों शामिल हुये योद्धाओं की निशानदेही भी कर ली
होगी। परंतु कविता के फार्मूले में देखे सुने पढ़े आंकड़ों को फिट कर कगज रंगने
वालों को सच का दर्पण दिखाने की हिम्मत कम ही जुटा पाते हैं। परिणाम स्वरूप बहुत
से व्यवसायिक समीकरण बिगड़ सकते है। फिर भी ऐसे बयान यदाकदा सुनने को मिल ही जाते हैं।
ये एक धमाके की तरह होते हैं जो सोतों को जगा देते हैं,भले ही वे फिर सो
जायें।
कहने को साहित्य समाज का दर्पण होता है। हम यही पढ़ते और सुनते
आये हैं। दर्पण होता भी है मगर उस समय का जिसमें वह रचा जाता है । दर्पण में बदलते
चेहरे की तरह ही व्यक्ति के साथ लेखन भी बदल जाता है । इस अस्थाई बिम्ब में भविष्य
के लिए कुछ संजोना तभी संभव है जब उसमें समाये गहरे व चटक वैचारिक रंग वर्तमान के
कागज पर, समय की गर्मी से सूखकर तश्वीर का रूप न ले लें। और ये तभी संभब
है जब लिखने वाला समय के लिए लिखे... बाजार के लिए नहीं, क्योंकि बाजार में
खरीदने और बेचने की सोच दर्पण में उभरे बिम्ब की तरह ही अस्थाई होती है। और यदि
बिकना ही सफलता का मानक है तो साहित्य में समाज की तश्वीर बिकनी चाहिए जिसमें
भविष्य अपने अतीत को समझ सके । कुछ सीख सके।
जिंदगी उन अनुभवों पर खड़ी होती है जो समय कराता है। हम लोगों
की समझ पर प्रश्नचिन्ह तो नहीं लगा सकते मगर अपना पक्ष तो रख ही सकते है और इसी से
दुनिया का कारोबार चलता है। सभी के अपने अपने दृष्टिकोण है और जरूरतें भी , फिर भी हम मजबूरियों
का बास्ता देकर वास्तविकता और अपनी जिम्मेदारियों से नहीं भाग सकते।
लेखन साहस और बेबाकी से लिखे गये उन विचिरों और आधारों का
समावेश है जहां उद्देश्य समाज में सड़ती मानसिकताओं की बदबू को उजागर करना है और
उसमें संस्कारों की महक भी है और वो रोशनी भी जिसमें सब स्पष्ट नजर आता है।
आज की अधिकांश कृतियां और रचनाएं ये साफ दर्शातीं हैं कि आज
लेखन महज बेचने की वस्तु रह गई है या फिर भ्रामक शोहरतों को प्राप्त
करने का साधन। वहीं बाजार में जमे,
नये और बेहतर लेखन को उपेक्षित कर वही
पुरानी लकीर पीटने वाले और यूज एंड थ्रो वाले लेखन की पैरवी करने वाले प्रकाशक हों
या फिर बाजार की चकचोंध से खिंचे नये या पुराने लेखक, जो उसी चकचौंध से भरी
रोशनी में अर्थहीन दिये से जलकर एकदिनी बनकर रह जाते है। जबकि वो ये भूल
जाते हैं कि साहित्य तो वो जगह है जहां उम्र की कमी संख्या से पूरी नहीं की जा
सकती है। कलम खोखले आदर्शो और झूठे संस्कारों का लबादा ओढ़े और कर ही क्या सकती है ?
...अब वो दिन दूर नहीं जब हिन्दी लेखन और साहित्यिक बाजार में
केवल और केवल पैसे वालों का मानसिक उत्सर्जन देखने को मिले तो ताज्जुब नहीं होगा
क्योंकि वास्तविक लेखन दोनों ही स्थितियों में खत्म ही हो जायेगा, यदि बाजार के
समानांतर खड़ा होकर लेखक स्वयं के लिखे को प्रकाशित कर बेचता है तब भी और उसका
शिकार होता है तब भी।
कुछ दिन पहले किसी एक पत्रिका में पढ़ा था कि अब भारतीय हिन्दी
लेखन विश्व स्तरीय नहीं रहा, शायद उसने ये राय तथाकथित बड़े प्रकाशनों की पुस्तकें पढ़कर बनाई
हो । वह, यदि जगह जगह उगे प्रकाशनों की पुस्तकें पढ़कर बनाता तो क्या
कहता ? कारण जो भी हो परंतु स्थिति चिंता जनक जरूर है। सामने जटिल
प्रश्न है ? और उत्तर उससे भी कहीं अधिक निराश करने वाले ।
अगर हम आशा भरी नजरों से आलोचकों को देखते हैं तो वो जगह जगह विज्ञापन
करते और संभावनाएं तलाशते नजर आते हैं या फिर पुराने को टटोलकर एक नई किताब लिखते।
ये आलोचक इतनी ऊंचाई पर बैठे होते हैं कि आम लेखक के बेहतरीन लेखन इनकी पहुंच से
हमेशा दूर ही रह जाते हैं और जो इन तक पहुंचते हैं वो स्थापित होते हैं या समर्थ।
लेखकों कवियों की भीड़ जिस गति से बढ़ रही है प्रकाशन भी उतनी ही
संख्या में परंतु सिवाय संख्या बढ़ाने के कहीं कुछ नहीं दिखता। कलमकार बनना अब
लोगों का शौक हो गया है जो सेवानिवृत्ति के बाद अचानक से उभर आता है। पद, संपर्क और पैसा
उन्हें मौकों के साथ साथ कुछ सम्मान और पुरस्कार भी जुटा देता है । इसी तरह उनकी
साहित्यकारी चल पड़ती है। उन पर शोध ग्रंथ भी बिखरे पड़े हैं । वास्तविक लेखन हर जगह
उपेक्षित है । भीड़ भी उन्हीं के यहाँ जुटती है जो तमाशा करते हैं।
"हिन्दी वाले तो मरों को पूजना जानते हैं जब
मैं मर जाऊंगा तब मेरे ठाट देखना। " रांगेय राघव के ये शब्द अब भी उतने ही
प्रसांगिक है जितने की उस वक्त थे जब उनहोंने कहे थे।
ऐसे बहुत से उदाहरण हैं जो बड़े बड़े वट वृक्षों के तनों को
चीरकर बढ़े । छाया में नीचे कोई पनपने ही नहीं देता।
जब नई पीढ़ी पुरानी के खत्म होने का इंतजार करने लगे तो सभी को
समझ लेना चाहिए कि कहीं कुछ बहुत गलत हो रहा है ।
साहित्य
की दुकानों में अब पैसा बोलता है । लिखा हुआ,
यूं ही बिना पढ़े छपता है। कमीशन पर खपता
है मगर पढ़ता कोई नहीं क्योंकि जो पढ़ने वाला वर्ग है उनमें उनके लिए कुछ है ही नहीं
। वह अब भी सूर ,तुलसी ,कबीर को तलाशता है और प्रेमचन्द,
रेणु को पढ़ता है या फिर विदेशी अनुदित
पुस्तकें। समय और बाजार के मुताबिक लेखन क्या दे रहा है ? सभी जानते हैं। या
यूं कहें कि मुरे मुराये को तरह तरह मसालों के साथ इतना चबाया गया कि उसने अपना
अस्तित्व ही खो दिया और स्वाद हीन हो गया।
बढ़ते हुये बाजारवाद ने साहित्य में अपरिचय और उपेक्षा का एक
ऐसा माहौल को पैदा कर दिया है जहाँ निजी हित सर्वोपरि और अवसरवाद हाबी है। लेखक
खांचों मे फिट होकर .....प्रकाशक और संपादकों के लाभदायी समीकरणों से संचालित होने
लगे हैं। चिंतन और जनकल्यांण जैसे शब्द अर्थहीन से लगने लगे। सोच ही बदल गई तो
साहित्य शब्द के मायने भी बदलने लगे।
वहीं आज लेखन जस को तस लिखने की प्रवृत्ति और लोकरुचि के नाम
पर उथले से उथला होता रहा, न लेखक ने लिखने में चिंतन की जरूरत समझी न पढ़कर पाठक को सोचने
के लिए कुछ मिला। फिर भी लेखक रचना से गुम होकर बजार में बिकने को जगह तलाशता रहा
। बाजार ने लेखन के मानदंड तै कर दिये। परिणाम सामने है।
बाज़ार ने कहीं न कहीं एक ऐसी नकारात्मक प्रतियोगिता को जन्म दे
दिया जहाँ बड़े को छांटते छांटते खुद ही विश्व पटल पर बौने होकर रह गए। इधर लेखन
में उम्र की कमी को संख्या से पूरी करते करते हिन्दी साहित्य में किताबों की एक
बाढ़ सी आ गई जहाँ बेहतर को तलाशना भी एक समस्या प्रतीत होने लगी है।
भारत में ऐसे लेखकों कवियों की भरमार है जिन्होंने किताबें
छपवाकर अपने घर भर लिए। उन्हें अब यही चिन्ता रहती है कि उनके बाद इन किताबों का
क्या होगा ? और मुफ्त में बांटी किताबों को कौन पढ़ता है ? वो भी ये भली भांति
जानते हैं।
मंचों, कविसम्मेलनों का तो और भी बुरा हाल है। यहां सारी व्यवस्था
ठेकेदारों और जगह जगह उगी संस्थाओं की गिरफ्त में हैं और सब काम जुगाड़ों और तुम
मुझे बुलाओगे तो हम तुम्हें वाली संस्कृति प्रचलित है। यहाँ श्रोता अधपचे और जल्दी
में उलट दिये गये मानसिक उत्सर्जन पर मख्खियों की तरह भिनभिनाते हैं और बुद्धिजीवी
वर्ग बदबू से परेशान हो किनारा कर गया। निराला,
बच्चन वाली परंपरा गई और कविता बाजार की
वस्तु बन गई । एक दुकान चली तो उसे बेचने के लिए सैकड़ों और खुल गईं।
इस बाज़ारू सोच से साहित्य का कोई भी क्षेत्र अछूता नहीं रहा कई
पत्रिकाओं ने अपने मूल साहित्यिक रूप को छोड़ कर व्यवसायिक जामा पहन लिया तो कुछ
महज वहाँ व्यवसाय तलाशने लगी जहाँ औरत की जांघों से ऊपर कुछ सोचा ही नहीं जाता या
यूं कहें कि ये दौर साहित्य का व्यवसायिक काल होकर रह गया, जहाँ हर कोई थोड़ा
बहुत बौद्धिक और आर्थिक निवेश कर नाम,
शोहरत और पैसा चाहता है। साहित्यिक
सामाजिक सरोकारों की परवाह अपवाद स्वरूप ही नजर आती है ।
समाधान के अभाव में अधिकतर कथन एक नये विवाद और समस्याओं के
जनक बन जाते हैं। जब वैचारिक सम्पन्नता के लिए बहुत पीछे लौटकर पन्ने पलटने पड़ें
तो वर्तमान गरीब दिखने लगता और हमारे वैचारिक विकास पर प्रश्न चिन्ह अपने आप ही लग
जाता है या कोई भी लगा जाता है।
किताबों के ढ़ेर से बेहतर चुनना एक दुश्कर कार्य प्रतीत होता जा
रहा है। पाठक के पास विकल्प है परंतु अधिकांशतः वह भी बड़े नामों
और बाजारू प्रलोभनों में उलझा दिखाई पड़ता है परंतु समय हमेशा ही वर्तमान और भविष्य
के लिए बेहतर और उपयोगी साहित्य चाहता रहा है क्योंकि यही वो राह है जो मशीन बनते
आदमी को संवेनाओं से जोड़े रख सकता है।
कारण कुछ भी हो या दोशी कोई भी हो परिणाम भविष्य और भावी पीढ़ी
ही भुगतती है। हम सोचते हैं या सोचने के लिए कुछ छोड़ जाते है या कभी कह भी जाते
हैं-
चिंतन पर भारी हुये रिस्ते पद औ नाम ।
सब स्वारथ के खेल हैं परिपाटी बदनाम।।
-भुवनेश्वर उपाध्याय
डबल गंज सेवढ़ा
जिला दतिया (म. प्र.) – 475682
मो. 7509621374
बिल्कुल सटीक विश्लेषण। इन दिनों न केवल हिंदी में बल्कि समूचे साहित्य में वही लोग पनप रहे हैं,जिनके पास पैसा है। जिस प्रकार से अपने फिल्म का कारोबार बढ़ाने के लिए नायक तथा प्रोड्यूसर किसी प्रसिद्ध कार्यक्रम में अपना ऑडिशन देते हैं ठीक उसी प्रकार से आधुनिक साहित्यकार भी अपने साहित्य को मीडिया के माध्यम से प्रचारित करते हैं। साहित्य आज तक में कुछ ऐसे ही साहित्यकार देखने को मिलेंगे। यह और बात है इसमें कुछ अच्छे लेखक भी थे। किंतु इस जमाने की सच्चाई है, पैसा बोलता है....
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