★★आधुनिक भारतीयता के पुरोधा साहित्यकार★★
दस–बीस ग्रंथ लिख देने पर भी जहां लेखक का चर्चित लेखकों की सूची
में शामिल हो पाना अनिश्चित हो, वहां कोई व्यक्ति अपने पूरे जीवनकाल में एक भी पुस्तक न लिखे
और महान साहित्यकार का दर्ज़ा पा जाए;
विश्वास किया जाना बहुत कठिन है। ऐसे
में हिंदी साहित्य के सजग पाठकों का ध्यान विख्यात कवि मुक्तिबोध की ओर जाता है, जिनका जीते जी कोई
कविता संग्रह प्रकाशित नहीं हो पाया। यद्यपि उनकी मृत्यु के कुछ समय बाद ही उनका
संग्रह "चाँद का मुंह टेढ़ा" प्रकाशित हुआ और खूब चर्चित रहा।
किंतु हम यहां एक ऐसे कहानीकार को याद कर रहे हैं, जिसने अपने जीवन काल
में कुल सवा तीन कहानियां लिखी और उन्हीं में से एक कहानी हिंदी की श्रेष्ठतम
कहानियों में शामिल हो गई। संसार भर के साहित्य में ऐसा उदाहरण दुर्लभ होगा कि
कुलजमा तीन कहानियों के बल पर कोई कालजयी कहानीकार हो जाए।
वह अमर कहानी है "उसने कहा था" और इसके लेखक थे
पंडित चंद्रधर शर्मा गुलेरी, जिनकी तीन कहानियों,
सुखमय जीवन ( सन् 1911), बुद्धू
का कांटा ( सन् 1914) और उसने कहा था ( सन् 1915)
के अतिरिक्त चौथी कहानी "हीरे का
हीरा" अधूरी ही रही। उसका छोटा सा आरंभिक टुकड़ा ही मिलता है। बाद में डॉ.
मनोहर लाल ने परिश्रम पूर्वक इनकी दो अन्य कहानियां "घंटाघर" और
"धर्मपरायण रीछ" भी खोज निकाली थी। यद्यपि वे उनके द्वारा अनुवाद की गई
कहानियां है।
गुलेरी जी की रचनात्मक प्रतिभा का पता इस बात से चलता है कि
"उसने कहा था" आज से एक सौ पांच वर्ष पूर्व तब लिखी गई थी, जब हिंदी में कहानी
विधा का शैशव काल चल रहा था। कहानी का प्रारूप और ढब–ढांचा निर्माणाधीन
अवस्था में था। उस समय ऐसी परिपक्व और सौ टंच खरी कहानी का रचा जाना आज भी विस्मित
करता है। आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने इस कहानी के बारे में कहा है कि, "इसमें
पक्के यथार्थवाद के बीच सुरुचि की उच्च मर्यादा के भीतर भावुकता का चरम उत्कर्ष
अत्यंत निपुणता के साथ संपुटित है।"
पर ऐसा भी नहीं कि उनकी यह एक ही कहानी कुछ असाधारण बन गई, बाकियों में उन्होंने
लकीर पीटी हो। एक उदाहरण देखिए।
"............"बाबूजी, क्या बाइसिकल में पंचर भी हो गया है? एक तो चश्मा, उस पर रेत की तह जमी
हुई, उस पर ललाट से टपकते हुए पसीने की बूंदें, गर्मी कीचड़ और काली
रात की–सी लंबी सड़क –
मैंने देखा ही नहीं था कि दोनों और क्या
है। यह शब्द सुनते ही सिर उठाया तो देखा कि एक सोलह–सत्रह वर्ष की कन्या सड़क के किनारे खड़ी है।
"हां, हवा निकल गई है और
पंचर भी हो गया है। पंप मेरे पास है नहीं। कालानगर कुछ बहुत दूर तो है ही नहीं – अभी जा पहुंचता
हूं।" अंत का वाक्य मैंने सिर्फ ऐंठ दिखाने के लिए कहा था। मेरा जी जानता था
कि पाँच मील सौ मील के–से दिख रहे थे।......"
उनकी ही एक अन्य कहानी "सुखमय जीवन" का एक अंश है यह, जो कैसी चित्रात्मक
भाषा में रचे हुए एक दृश्य, एक सहज संवाद की बुनावट को दर्शा रहा है। बाह्य परिस्थिति की
विषमता और मन:स्थिति का तनाव। लंबे मार्ग पर सायकिल ढोते हुए गर्मी की चिपचिपाहट, थकान, ऊब, खीझ, कुंठा .... और एक सहज
से आकस्मिक प्रश्न पर अचानक जाग उठता अहंकार.....सायकिल की हवा निकल जाने, पंप न होने की लाचारी
और रास्ता बहुत लम्बा होने के बाबजूद "अभी जा पहुंचता हूं"– का मिथ्या दंभ।....
सब कुछ को एक साथ मूर्त कर देने वाली एक चमकदार,
भारहीन भाषा।
ऐसे अद्भुत कहानीकार पंडित चंद्रधर शर्मा गुलेरी का जन्म 7 जुलाई 1883 को
जयपुर में हुआ। इनके पिता पण्डित शिवराम शास्त्री जयपुर महाराजा रामसिंह के राज्य– पंडित थे और
धर्मशास्त्र, कर्मकांड, ज्योतिष आदि के उद्भट विद्वान् थे। मूलत: हिमाचल प्रदेश के
गुलेर गाँव के होने के कारण गुलेरी कहलाते थे। इन्होंने अपने पुत्र को दस वर्ष की
वय तक संस्कृत के अनेक ग्रंथ कंठस्थ करा दिये। मेधावी बालक चंद्रधर ने भी
विद्यार्जन में कोई कसर नहीं छोड़ी। मिडिल,
एंट्रेंस आदि के बाद कलकत्ता
विश्वविद्यालय से प्रथम श्रेणी में मैट्रिक परीक्षा उत्तीर्ण कर, वहीं से सन् 1901में अंग्रेजी, ग्रीक, संस्कृत, विज्ञान, गणित, इतिहास और
तर्कशास्त्र विषयों में एफ. ए. किया।ज्योतिष विद्या,
संस्कृत और विदेशी भाषाओं में उनकी
दक्षता को देखते हुए सन् 1902 में जयपुर वेधशाला के जीर्णोद्धार और शोधकार्य में सहयोग करने
के लिए इनको नियुक्त किया गया। सन् 1903
में इन्होंने प्रयाग विश्व विद्यालय से
बी. ए. परीक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की तथा इन्हीं दिनों, अपनी आयु के बीसवें
वर्ष में ही साहित्यिक पत्रिका "समालोचक" (1902-1907) का
संपादन कर इन्होंने अपनी विद्वत्ता का परिचय दिया। कुछ वर्ष मेयो कॉलेज, अजमेर में संस्कृत
विभागाध्यक्ष रहने के उपरांत पण्डित मदनमोहन मालवीय जी के आग्रह पर काशी चले गए और
सन् 1920 में हिंदू विश्वविद्यालय में प्राच्य विभाग के प्राचार्य बने।
बहुमुखी प्रतिभा के धनी पंडित चंद्रधर शर्मा गुलेरी कहानीकार, पुरातत्त्ववेत्ता, प्रकांड भाषाविज्ञ, ज्योतिर्विद् तथा
संपादक के रूप में देशभर में प्रसिद्ध हो गए। उन्होंने हर क्षेत्र में मौलिक तथा
अनूठा कार्य कर आगे आने वाली पीढियों का पथ प्रशस्त किया। वे सच्चे अर्थों में
"आधुनिक भारतीयता के पुरोधा साहित्यकार" थे। पंडित विष्णु दिगंबर पलुस्कर
के सन् 1905 में अजमेर पधारने पर उन्होंने पलुस्कर जी का इंटरव्यू लिया जो
"संगीत की धुन" शीर्षक से समालोचक के सितंबर, 1905 अंक
में छापा। संभवत: हिंदी का यह पहला व्यवस्थित साक्षात्कार है। और इस प्रकार हिंदी
में साक्षात्कार विधा के सूत्रपात का श्रेय गुलेरी जी को जाता है।
गुलेरी जी एक सजग और आधुनिक दृष्टि से संपन्न ऐसे मनीषी थे जो
प्राचीन भारतीय विद्याओं में पारंगत होने साथ ही आधुनिक ज्ञान–विज्ञान की शाखाओं से
भी गहरा नाता रखते थे एवम् उनके प्रकाश में अपने विचारों को नए तथ्यों एवं तर्कों
के साथ प्रतिपादित करते थे। इसका प्रमुख कारण था उनका संस्कृत, पाली, प्राकृत, अपभ्रंश, ब्रज, अवधी, मराठी, गुजराती, राजस्थानी, पंजाबी, बांग्ला आदि भारतीय
भाषाओं के साथ में अंग्रेजी, लैटिन तथा फ्रेंच भाषा पर भी अच्छी पकड़ होना। वे इन सभी
भाषाओं में उपलब्ध नवीन अध्ययन सामग्री से स्वयं को मांजते रहते थे।
शिक्षा के प्रति खुला मन रखने के कारण वे स्त्री शिक्षा के
प्रबल पक्षधर थे और छुआछूत, बाल विवाह, विदेश यात्रा निषेध जैसी कुरीतियों के विरोध में प्रखरता से
कलम चलाते थे। उन्होंने बाहरी कर्मकांड और अंधविश्वासों का प्रखरता पूर्वक विरोध
किया तथा जाति व्यवस्था को ’जन्मना‘ के स्थान पर ‘कर्मणा‘ मानने की बात दृढ़ता के साथ कही। इस प्रकार उन्होंने भारतीय
सभ्यता–संस्कृति की पुनर्स्थापना हेतु बौद्धिक पुनर्जागरण का बड़ा
कार्य किया। यहां उनके विविध विचारों की एक झलक प्रस्तुत हैं –
प्रतिभा’ पत्रिका में *धर्म और समाज* विषयक लेख में गुलेरी जी भारतीय
परम्परा में धर्म की अवधारणा का मूलगामी विचार करते हुए जीवन में धर्म के महत्त्व
की प्रतिष्ठापना करते हैं। यहां वे न तो शास्त्रों के मूल मन्तव्य की उपेक्षा करते
हैं और न सामयिक संदर्भों की अनदेखी। धर्म की व्याख्या में कहते हैं,–
......."मत
या संप्रदाय के अर्थ में धर्म शब्द का प्रयोग करना भी हमने अधिकतर विदेशियों ही से
सीखा है, जब विदेशी भाषाओं के ’मजहब’, ’रिलीजन’ शब्द यहां प्रचलित हुए,
तब भूल से या स्पर्धा से हम उनके स्थान
में ’धर्म’ शब्द का प्रयोग करने लगे। परंतु हमारे प्राचीन ग्रंथों में जो
विदेशियों के आने से पूर्व रचे गए थे,
कहीं पर भी ’धर्म’ शब्द मत, विश्वास या संप्रदाय
के अर्थ में प्रयुक्त नहीं हुआ, प्रत्युत उनमें सर्वत्र स्वभाव और कर्तव्य इन दो ही अर्थों में
उसका इसका प्रयोग पाया जाता है। प्रत्येक पदार्थ में उसकी जो सत्ता है जिसको ’स्वभाव’ भी कहते हैं, वही उसका धर्म
है।"........
धर्म की व्याख्या के साथ ही वे यह भी प्रतिपादित करते हैं की
भारतीय जनमानस में धर्म कितना दृढ़मूल होकर हमारे जीवन को संचालित करता है।
......"हमें
केवल अपने पूजा-पाठ या संस्कारों में ही धर्म की आवश्यकता नहीं किंतु हमारा हर काम
चाहे वह सामाजिक हो या व्यक्तिगत धर्म के बंधन से जकड़ा हुआ है यहां तक कि हमारा
खाना–पीना, आना-जाना, सोना–जागना और देना–लेना इत्यादि सभी बातों में धर्म की छाप लगी हुई है। हम हिंदू
होकर सब कुछ छोड़ सकते हैं पर धर्म को किसी अवस्था में भी नहीं छोड़ सकते
"........
यह तो रही धर्म के प्रति हमारी दृष्टि और मान्यता की बात।
किंतु वर्तमान में उसका व्यावहारिक स्वरूप क्या है,
यह भी गुलेरी जी की आंखों से ओझल नहीं
रहता। अत: वे यह कहने से भी नहीं चूकते कि,–
".......... जैसा
धर्म का दुरुपयोग आजकल भारतवर्ष में हो रहा है और ऐसा कहीं देखने में न आवेगा, परंतु अब प्रश्न यह
है कि धर्म का प्रयोग अन्यथा किया जा रहा है तो क्या इसलिए हम धर्म को ही छोड़ दें?.......
.......हमारे
देश के नेता राजनीतिक स्वतंत्रता के लिए तो फड़फड़ा रहे हैं पर यह धार्मिक
परतंत्रता जो हमें खुली हवा में सांस भी नहीं लेने देती उनकी दृष्टि में जरा भी
नहीं खटकती क्या इसलिए कि यह फांसी हमने अपने आप लगाई है, इसकी मौत मीठी
है।......"
यहां गुलेरी जी का अंतर्द्वंद्व देखने योग्य हैं कि एक ओर वे
भारतीय जनजीवन की पोर–पोर में धर्म की अविच्छिन्नता को स्वीकारते हैं, तो दूसरी ओर धर्म के
असाधारण दुरुपयोग से विचलित होकर साधारण बुद्धिजीवी की भांति सवाल करते हैं कि
क्या धर्म को ही छोड़ दिया जाए! और तब वे एक युगबोध संपन्न चिंतक की तरह प्रस्ताव
करते हैं कि धर्म को किसी भी दशा में नहीं छुड़ा जा सकता, किंतु जीवन में उसकी
सीमा निर्धारित कर देनी चाहिए। वे कहते हैं,–
"........जिस
प्रकार पश्चिमवासियों ने धर्म की सीमा नियत करके अपने सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक और औद्योगिक
क्षेत्रों से उसका प्रतिबंध हटा दिया है,
ऐसा ही हमको भी करना चाहिए अन्यथा यह
भ्रमात्मक विश्वास अपने साथ हमको भी ले डूबेंगे।...." (प्रतिभा, जून
1920)
कहने की आवश्यकता नहीं कि यहां उनका आशय धर्म के बाहरी स्वरूप
के उन अंधविश्वासों से है जिसके कारण वर्तमान समाज जीवन में भारी विसंगतियां पैदा
हो रही थीं।
अंग्रेजी ज्ञान विज्ञान और विद्याओं के प्रति गुलेरी जी का
प्रबल आकर्षण होते हुए भी वे अंग्रेजों के अर्थहीन आडंबरों के विरोधी थे और उन पर
व्यंग्य करने से नहीं चूकते थे। ’जमाना’ पत्र द्वारा "अप्रैल फूल विशेषांक" निकालने पर वे
उसकी अच्छी–खासी खबर लेते हैं। ‘समालोचन’ में "होली की ठिठोली वा अप्रैल फूल" नामक लेख में वे
लिखते हैं,–
..........."अनुकरणशीलता
में भारतवासी पीछे नहीं रहेंगे।.......... हम लोग एप्रिल फूल की नई प्रथा को अपना
रहे हैं और न्यू ईयर्स डे पर कार्ड या डाली भेजने का रिवाज तो इतना बढ़ गया है कि
अपना वर्ष आरंभ हम लोग पंचांगों में ही पढते हैं। हिंदी के एक सर्वज्ञ मासिक पत्र
ने तो अब के खास एप्रिल एडिशन निकाल दिया है।........ "जमाना" का अकबर
के राज्य के 300 वर्ष पीछे उसके स्मरणार्थ "अकबर नंबर" (–‘नंबर’ शब्द यहां अंक का
वाचक है) निकला था। परंतु इस पत्र की धर्म संरक्षणार्थैव प्रवृत्ति जन्माष्टमी वा
रामनवमी नंबर (–अंक) न निकाल सकी,
रामानुज नंबर की कल्पना भी न कर सकी और
अप्रैल एडिशन में परिणत हो गई। ….....
समालोचक के जनवरी-मार्च 1906
अंक के इस लेख में वे हिंदी की पत्रिका
द्वारा अप्रैल फूल मनाने की नकलची मानसिकता के साथ ही अपने नववर्ष को भूलकर
अंग्रेजी न्यू ईयर मनाने तथा रामनवमी,
जन्माष्टमी आदि पर्वों को छोड़ कर अकबर–अंक निकालने की
विडंबना पर भी प्रश्न खड़ा करते हैं।
हिंदी के अच्छे साहित्य के प्रचार–प्रसार एवं भाषा के
उन्नयन हेतु समालोचक पत्रिका में उन्होंने नई पुस्तकों की समीक्षा करने का क्रम
प्रारंभ किया। यह हिंदी के लेखकों–साहित्यकारों को दिशा देने में बहुत सहायक सिद्ध हुआ। यहां
उनकी आलोचकीय प्रखरता देखते बनाती है। हिंदी के प्रथम उपन्यासकार के नाम से
प्रसिद्ध पं. किशोरीलाल गोस्वामी उन दिनों धड़ाधड़ उपन्यास लिखे जा रहे थे और
साहित्य के विद्यार्थी जानते हैं कि उन्होंने छोटे–बड़े कोई 65 उपन्यास लिख डाले। विषयवस्तु,
चरित्र–चित्रण, कथातत्व आदि की दृष्टि से उनके कई उपन्यास निम्न कोटि के ही
थे। गुलेरी जी का आकलन था कि, "गोस्वामी जी को गंदे चित्र उघाड़ने में भी मजा आता
है"...। समालोचक का ”किशोरी लाल गोस्वामी के उपन्यास" नामक लेख उनकी आलोचकीय
दृष्टि का उज्ज्वल प्रमाण है, जिसमें वे कहते हैं,–
………."क्या
हिंदी ऐसे कायरों की भाषा हो गई है जो मरे बादशाहों की बालाओं पर सच्चे–झूठे कलंक मढ़ने और
अबलाओं के कुछ कम धर्मनाश की कहानियां ही सुना करें?
हमारा स्वर नक्कारखाने में तूती की आवाज
की तरह भले ही सुना न जाए, किंतु हम अपना कर्तव्य समझते हैं कि हिंदी पाठकों को इन
प्रपंचों के विरुद्ध अपील करें।" (समालोचक,
अगस्त 1903)
वस्तुतः गोस्वामी जी के ये उपन्यास ऐयारी ,कामुकता भरे चित्र, स्त्रियों के छल–प्रपंच आदि घटनाओं से
भरे रहते थे। गुलेरी जी एक प्रबुद्ध संस्कृतिकर्मी के रूप में उन पर टिप्पणी कर
अपनी सामाजिक सजगता और नैतिकता का परिचय देते हैं। आगे चलकर आचार्य रामचंद्र शुक्ल
ने भी "हिंदी साहित्य का इतिहास" में यही बात कही।
उल्लेखनीय है यह समय हिंदी में कथा, उपन्यास आदि की रचना
का आरम्भिक काल था जिसमें चमत्कारपूर्ण,
चटपटे और अश्लील किस्सों के भरे उपन्यास
आने लगे थे। ऐसे में गुलेरी जी जैसे सजग
साहित्यकार का पहला कर्तव्य भाषा शिल्प
का एक स्वस्थ, सुंदर और दोषरहित ढांचा खड़ा करना था।
पं. चंद्रधर शर्मा गुलेरी ने सन् 1905 में
"हिंदी भाषा के उपन्यास–लेखकों के नाम" लिखे गए एक खुले पत्र में जिन बिंदुओं को
उठाया, वे आज भी उतने ही महत्वपूर्ण हैं। नए कहानीकारों को यह लेख
अवश्य पढ़ना चाहिए। वे पूछते हैं, –
" क्या
नायक सदा ही गुलाब जल में डूबा हुआ और सोने की मूर्ति, तलवार से खेलता होना
चाहिए? जो चीज बिल्कुल सुंदर नहीं है वह भी तो प्रेम के लायक हो सकती
है? क्या यह नहीं जानते कि मनुष्य जाति के अधिक सज्जन कुरूप ही है, और सबसे सुंदर
जातियों में भी टेढ़ी नाक पर बैठे गाल बहुत कम नहीं मिलते। तो भी क्या उनमें
परस्पर प्रेम नहीं होता?"....
एक तरफ सब कुछ उजाला,
एक तरफ सब कुछ अंधेरा, जैसे बंटवारे को
कृत्रिम और काल्पनिक मानते हुए गुलेरी जी आगे कहते हैं –
" हम
पर उन कल्पित नियमों को मत चलाओ जो उपन्यास या सुकुमार शिल्प के राज्य में से अपने
काम से घसे हाथों से आलू उबालती हुई बुढ़ियाओं को उन गोल पीठों और सब ऋतुओं को
सहने वाले चेहरों को जिनने हल और कुदाली पर झुक–झुक कर काम किया है,
होली में थोड़ी सी भांग पर मस्त गंवारों
को, उन पीतल के बर्तनों वाले घरों,
मट्टी की हंडियों, लेड़ी कुत्तों और
प्याज के छिलकों को निकाल दे।..….
हमें ऐसे उपन्यास लेखक चाहिए जो प्रेममय परिश्रम से इन साधारण
वस्तुओं के सच्चे चित्रांकन करें। ऐसे मनुष्य जो इन में सुंदरता देखते हैं। संसार
में बहुत कम महापुरुष होते हैं, बहुत कम परम सुंदरी स्त्रियां होती हैं, बहुत कम वीर होते
हैं। इन विरले असंभवों को मैं अपना संपूर्ण प्रेम और संपूर्ण सहानुभूति नहीं दे
सकता। मेरे प्रेम के भाग का अधिकांश मुझे अपने प्रतिदिन के साथियों के लिए चाहिए, विशेषतया उनके लिए जो
सदा मेरे पास हैं, जिनके चेहरे में जानता हूं,
जिनके हाथ में छूता हूं और जिनके लिए
अदब के साथ मुझे मार्ग छोड़ना पड़ता है।"
( "वही
चिट्ठी वाला", समालोचक : जनवरी–अप्रैल 1905)
समालोचक पत्र के "वंशच्छेद" नामक निबंध में गुलेरी
जी बच्चों की जीवनी शक्ति और आधुनिक चिकित्सा प्रणाली को लेकर एक विचारणीय बात कह
गए। बड़े आश्चर्य का विषय है कि इस प्रसंग में कही गई उनकी एक उक्ति आज इस तरह से
सत्य सिद्ध होगी, कौन जानता था? क्या सर्जक की मनीषा सौ–
सवा सौ वर्ष बाद घटित होने वाली घटनाओं
का इस तरह पूर्वाभास कर लेती है!
......"पहले
बालक रोगों से मर जाते थे और जो बचते थे 'सत्तम' रहते थे। किंतु डॉक्टरी से बालरोगों से मौत तो घट गई, किंतु दूध के साथ औषध
का विष लेकर बालक बड़े होने पर अयोग्य और क्षीण सृष्टि को बढ़ाते
हैं।"...........
अब इसके आगे जो वे लिखते हैं,
एक–एक शब्द हमें स्तब्ध कर देता है।
…….." परिणाम
यह होगा कि हाथ गीले होते ही ज्वर आ जाया करेगा। साधारण वायु हमारे स्वास्थ्य के
लिए भद्दी होगी, इसकी छनी–छनाई ऑक्सीजन बांधते फिरना होगा और बिना उसके मछली की तरह
तड़पना होगा।"
(समालोचक, जनवरी–फरवरी-मार्च–अप्रैल 1905)
इस विकराल संक्रमण काल में ऑक्सीजन के बिना मछली की तरह तड़पते
लोगों की घटना शब्दश: घटित होती देखकर हमारी आंखें फटी रह जाती है।
यहां यह उल्लेख करना समीचीन होगा कि नागरी प्रचारिणी सभा काशी द्वारा सन् 1921 में प्रकाशित हुई स्वामी विवेकानंद संचयन ग्रंथावली गुलेरी जी के सहयोग से ही संभव हुई थी। स्वामी विवेकानंद के परम हितैषी शिष्य खेतड़ी राजा अजीतसिंह जी की बड़ी पुत्री सूरज कंवर और उनके पति शाहपुरा के राजकुमार उम्मेद सिंह, दोनों की अभिलाषा थी कि स्वामी विवेकानंद का साहित्य प्रकाशित होकर सर्वसुलभ हो। उनके द्वारा प्रदत्त एक लाख रुपए की राशि से इस ग्रंथमाला को प्रकाशित करने और पाठकों अल्पतम मूल्य में देने का निर्णय किया गया। गुलेरी जी नागरी प्रचारिणी सभा की पत्रिका एवं "सूर्य कुमारी पुस्तक माला" के संपादक थे और यह राज परिवार गुलेरी जी के प्रति गहरी श्रद्धा रखता था।
भाषा, साहित्य और संस्कृति के इस अप्रतिम साधक का देहावसान मंगलवार, 12 सितंबर
1922 को मात्र 39 वर्ष की उम्र में हो गया।
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★इंदुशेखर तत्पुरुष★
राहुल जी, अहोभाग्य!!!!
ReplyDeleteमेरे प्रिय साहित्यकार 'चंद्रधर शर्मा गुलेरी'जी के बहुआयामी व्यक्तित्व के बारे में इतना शोधपूर्ण लेख पढ़ने को मिला। गुलेरी जी के विषय में जानकारी थी पर इतनी नहीं। उनके जीवन और उपलब्धियों पर विहंगमता से दृष्टिपात करते बहुमूल्य लेख के पीछे आपका श्रम साध्य गहन शोध साफ़ नज़र आ रहा है।,'उसने कहा था' एक नाम ही काफी है गुलेरी जी के अमरत्व के लिए।। एक ऐसा कथानक जो हर पाठक को प्रेम की अनोखी परिभाषा से अवगत कराता है। जो सदियों के लिए है।" तेरी कुड़माई हों गई "लेकर बचपन के संजोए प्रेम की खातिर अपनाए बलिदान की करुण कथा साहित्याकाश में सदैव दैदीप्यमान नक्षत्र की तरह जगमगाती रहेगी । एक समीक्षक और विचारक के रूप में समय से आगे का चिन्तन उन्हे विशिष्ट बनाता है। गैर जिम्मेवार उपन्यासकार पर उनकी टिप्पणी"गोस्वामी जी को गंदे चित्र उघाड़ने में भी मजा आता है"...। " आज के चाटुकार और दिग्भ्रमित समीक्षकों के लिए एक उदाहरण है कि उन्हें कैसा होना चाहिए।। इस सराहना से परे लेख के लिए हार्दिक आभार और शुभकामनाएं 👌👌👌👌🙏
सर, धन्यवाद और बधाइयाॅं
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