Saturday, 24 July 2021

"नहीं होती कविता कभी हाशिए पर''- नंदल हितैषी


                        नंदल हितैषी एक समर्थ एवं समृद्ध कवि हैं, किन्तु अब तक उनकी ओर लोगों का ध्यान कम गया है। उनके ऊपर जानबूझकर चुप्पी ओढ़ी गयी है, अब चुप्पी तोड़ने की जरूरत है। अब समय आ गया है जब उनपर ठहरकर बात होनी चाहिए, 'सब्जेक्टिव' होकर नहीं बल्कि 'ऑब्जेक्टिव' होकर। ''वचने किम दरिद्रता'' का भाव लेकर उनपर विस्तार से बात होनी चाहिए। 

          नंदल हितैषी की कविताओं को मैं भी लम्बे समय से पढ़ता और सुनता रहा हूँ और उनकी रचनाधर्मिता का मूक साक्षी रहा हूँ। लगभग पचास वर्षों की अपनी रचना-यात्रा में नंदल रचनात्मक रूप से लगातार समृद्ध होते रहे हैं। उनकी कविता प्रतिपक्ष की कविता है, जो हमेशा शोषण के विरोध में खड़ी रहती है। वे किसी सत्ता या ताक़त के साथ नहीं बल्कि हमेशा किसी गरीब और मज़लूम के साथ खड़े होते हैं। उनकी कविता जहाँ कहीं भी शोषण देखती है, तिलमिला जाती है। उनकी कविताओं में जो आक्रोश है वह स्वतःस्फूर्त और स्वाभाविक है। इसीलिए उनका तेवर कबीर और धूमिल का तेवर हो जाता है, वही दोनों उनके प्रिय कवि भी हैं।  वे कबीर की तरह सीधा प्रहार करते हैं और धूमिल की तरह बिना मुलम्मा लगाए अपनी बात कहते हैं। अपने इसी तेवर के कारण उनकी कविताएँ पाठक को ठहरकर सोचने के लिए बाध्य करती हैं। उनकी कविताएँ जहाँ खत्म होती हैं, वहीं से उनकी अनुगूँज आरम्भ होती है। उनकी कविताएँ पाठक के अंदर की सोई हुई संवेदना को झकझोरकर जगा देती हैं। मेरे लिए उनकी कविताओं से गुजरना हमेशा एक उत्तेजक अनुभव रहा है।

                 नंदल हितैषी की काव्य चेतना लोक जीवन की ज़मीन पर खड़ी है। वे रहते तो थे शहर में, लेकिन उनकी आत्मा गाँव की गलियों, खेत-खलिहानों एवं सीवानों में ही घूमती रहती थी। उन्होंने जो जिया, जो भोगा, जो अनुभूत किया, उसमें एक ठसक देशी सहजता थी। उनका अनुभूत सत्य अत्यंत मौलिकता लिए हुए है। उनका 'स्व' लोक संवेदना से संपृक्त है अतः लोक वेदना की अभिव्यक्ति ही उनकी कविता का उत्स है। उनकी कविताओं के बारे में प्रसिद्ध आलोचक भवदेव पांडेय कहते हैं कि "एक कवि के रूप में नंदल हितैषी आज की सामाजिकता और उत्तरआधुनिक परिस्थिति में बेहतर आदमी की तस्वीरों को कविता के दरवाजे पर चिपका देते हैं। कविताओं की ये तहरीरें हर पाठक के लिए तस्वीर रचतीं हैं। यह परिदृश्य हिन्दी के बिरले कवि का है जो एक साथ गाँव और शहर के बिम्बों को अत्यंत सहजता से अपनी रचनाओं में साधता है।"

नंदन हितैषी की काव्य भूमि विपुल है और विषम भी। विद्रोहधर्मिता एवं आक्रोश का स्वर लिए हुए उनकी रचनाओं का बेलौसपन उन्हें एक विशिष्ट जमात में खड़ा करता हैं। यह विशिष्टता उनके पाठक को नया आस्वाद और नई ताजगी से भर देती है। उनकी कविता शास्त्रीयता की कसौटी पर नहीं वरन मनुष्य के जीवन की कसौटी पर रखकर समझी जा सकती है। उनकी कविता क्रूर से क्रूरतम होते समय एवं समाज के सामने अनेक सवाल खड़ा करती है। रूप और कथ्य का कसाव कविताओं में अपना अलग सौंदर्यशास्त्र गढ़ता है। उनके संवेदन का कठोर एवं खुरदुरापन शब्दों एवं शब्द चित्रों का अनूठा कैनवास बनाता है, जिसमें मनुष्य की अनेक छवियां अंकित हैं|

                आज कविता अपने बनाए स्थूल तार्किकता के साँचे में कैद हो गयी है। समकालीन कविताएं इस स्थूल बुद्धिवाद का लंबा आख्यान प्रतीत होती हैं। सभ्यता के विकास के साथ यह स्थूलता क्रमशः बढ़ती ही जा रही है। नंदल हितैषी इस मैनरिज्म को तोड़ते हैं। उनकी कविताएं स्थूल आख्यान की नहीं बल्कि तत्व की कविताएं हैं। वे मानवीय संवेदना के हिमवत स्वरूप को पिघला देने वाले रचनाकार हैं। उनकी कविताओं में मानवीय मूल्यों के ध्वंस की चीख यत्र-तत्र सुनी जा सकती है। जहाँ संवेदनाएं कुचली जाती हैं, वहाँ मानव बौना होता दिखाई देता है। नंदल हितैषी वहाँ सजग प्रहरी की तरह इंसान को बेहतर बनाने के प्रयत्न करते दिखाई देते हैं। मानवता के प्रति सजग आदिम रागात्मकता उनकी कविताओं को बासी होने से बचा लेती है। यही मूल्य कविता को सघन और प्रासंगिक बनाता है। नंदल अपनी कविताओं में इसी मानव मूल्य की साधना करते हैं।

            नंदल हितैषी की वामपंथी प्रतिबद्धता और उनका सामाजिक सरोकार स्वयं सिद्ध है। यह प्रतिबद्धता उन्हें समय से जोड़ती है। उनकी कविताएं समय से वाद-विवाद-संवाद करती हैं। यथार्थ की खुरदरी ज़मीन पर वे सामाजिक सरोकारों का बीज वपन करते हैं, जिससे अनेक सामयिक सवाल अंकुरित होते हैं। उनकी बुनियादी चिंता पत्थर के नीचे दबी दूब की तरह पीले होते इंसानों की है। सामाजिक विद्रूपता पर नंदल कबीर की तरह बेरहम प्रहार करते हैं, मूर्ति भंजक बन जाते हैं। वे कहते हैं---

                     ऐसे ही 

                     लगते रहेंगे

                     पूरी पीढ़ी के सामने 

                     प्रश्नचिन्ह?

                     जब तक इस भीड़ से

                     नहीं उभरेगा 

                     कोई और 

                     'कबिरा' सा मूर्तिभंजक

             यद्यपि नंदल हितैषी ने जनपक्षधरता और जनसरोकारों से स्वयं को हमेशा जोड़कर रखा किंतु कविता को महज नारेबाजी से बचाने की पुरजोर वकालत की। उनकी कविता छद्म कविताओं के रेगिस्तान में 'ओएसिस' की तरह है। उन्होंने विचार की कविता तो की, किंतु कविता को विचारधारा के आतंक से सदैव दूर रखा। शोषित पीड़ित मनुष्यता के प्रति उनकी संवेदनाएं एक 'जेनुइन' कवि की संवेदना है, न कि खाए अघाए कवि का बुद्धि विलास। जीवन संघर्षों की उबड़ खाबड़ जमीन पर लड़खड़ाते हुए नंदल ने चतुर्दिक दर्द की व्याप्ति को आत्मसात किया है और उसे अपनी कविता में पिरोया है। अतः कविता नंदल के लिए महज कलाबाजी नहीं है, बल्कि एक गंभीर रचना कर्म है। वे श्रम, शोषण एवं पसीने की चिंता से ओतप्रोत निराला, नागार्जुन और धूमिल की परंपरा में आते हैं। वे इस बात का एहसास रखते हैं कि रिक्शा पेट से चलता है पाँव से नहीं। वह हथेली के गड्ढों का मर्म समझते हैं, किसी बच्चे के सिर पर रखे ईंट के बोझ का दर्द समझते हैं और इसके पीछे छिपी साजिशों का पर्दाफाश करते हैं। वे कहते हैं---

                    इन महाशय का वजन 

                    कोई मशीन क्या बताएगी?

                    वह रिक्शे वाला ही काफी है 

                    जो रिक्शा पाँव से नहीं 

                     पेट से चलाता है।

          मेरी समझ है कि बड़ी कविता वही होती है जो वस्तु के बाहरी आवरण को चीरकर अंदर का सूक्ष्म दृश्य चित्रित कर दे। जो कविता बाहरी चकाचौंध और नुमाइश के अंदर के स्याह को रेखांकित कर दे और बाहरी विरूपता के भीतर छिपे सौंदर्य को व्यंजित कर दे, वही बड़ी कविता होती है। नंदल हितैषी में यह काव्य क्षमता है और बखूबी है। एक कविता 'शुभ संदेश' में वे लड़कियों के ससुराल में होने का चित्र खींचते हैं। उस शब्दचित्र में 'चूल्हे की तरह धुआँती', 'अदहन की तरह उबलती', 'रोज-रोज खियाती', 'अइया होती जाती' लड़कियों की व्यंजना बहुत बेधक है। एक कविता में नंदल हितैषी मृगछाल पर बैठे शंकराचार्य के अहिंसा पर दिए गए उपदेश की साजिश का पर्दाफाश करते हैं। इसी तरह एक लंबी कविता 'आईना' में वे आईने के झूठ को पकड़ते हैं। जब वह आदमी के आंतरिक विद्रोह को न दिखा कर सिर्फ उसके चिकने चुपड़ेपन को प्रतिबिंबित करता है। इस तरह उनकी कविताओं में अनेक शब्द चित्र हैं जो वस्तु के अंतस में प्रवेश करके उनका मर्म सामने रख देते हैं। जहां रोशनी नहीं पहुँचती वहाँ शब्द पहुँच जाते हैं। 'मतलब/ अंधेरों और रोशनी से/ कहीं ज्यादा ताकतवर है शब्द।' नंदल हितैषी के लिए शब्द अंधेरों के खिलाफ एक मजबूत दस्तावेज है। वे कहते हैं---

                    शब्द जो 

                    मुखर होते हैं 

                    किसी भी रचना 

                    संरचना के लिए 

                    शब्द! जो 

                    अंधेरों के खिलाफ 

                    एक मजबूत 

                    दस्तावेज है।

           इसी तरह नंदन हितेषी की 'बाढ़' शीर्षक कविता अपनी व्यंजना मार्मिकता में बड़ी कविता है। गंगा के कछार में बने मकान, जिसमें कवि का मकान भी शामिल है, जब बाढ़ में डूब जाते हैं तब वे मनोरंजन का भी केंद्र बन जाते हैं। जहाँ एक तरफ बाढ़ में लोगों की त्रासद जिंदगी अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष करती है, वहीं दूसरी और बाँध पर मेला लग जाता है, जहाँ हँसते मुस्कुराते खिलखिलाते लोग चूरमुरा, भुट्टा, लाई, चना खाते हुए पूरे परिवार के साथ आनंद लेते हैं। मानवीय संवेदना की इस विसंगति और विडंबना पर नंदल ने यह 'बाढ़' शीर्षक से मार्मिक कविता लिखी है। वे कहते हैं--- 

                       दम तोड़ते इनारे 

                       मोहकड़ी तक भरे थे 

                       पसीज रही थी 

                       उनकी चौहद्दी 

                       फटी बिवाई 

                       फिर भी 

                       शहर के बीचोबीच 

                       सुरक्षित थे बंगले 

                       तू क्या जाने पीर पराई

                       उनके हाथ आया था 

                       एक हसीन पिकनिक का मौका 

                       इसी बहाने खुरीहार रहे थे 

                       हनीमून की बोरसी।

जब हफ्ते भर के आतंक के बाद पानी खिसक जाता है और जब कछार के तलवे में दरार पड़ जाती है, फिर बंधने लगते हैं खेतों में मचान, तब शुरू हो जाता है एक नया अभियान। यह व्यंजना नागार्जुन की कविता 'अकाल और अकाल के बाद' कविता की याद दिलाती है। 'बाढ़' कविता की अंतिम पंक्तियां अत्यंत मार्मिक हैं----

                    फिर बंधने लगे 

                    खेतों में मचान 

                    फिर शुरू हुआ 

                    घरौंदे बनाने में 

                    दो पीढ़ियों का अभियान 

                    फिर ओगारने की हालत में 

                    आ गए कुएं 

                    और आज कछार से लौटी 

                    एक नन्ही चिड़िया 

                    नल की टोटी पर 

                    चोंच मार रही है।

           नंदन हितेषी 80 और 90 के दशक के महत्वपूर्ण हस्ताक्षरों में शामिल कवि हैं। उनकी रचनाएं देश के प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में छपती रही हैं। वे आलोचना की साजिशों का शिकार भी हुए, किंतु इससे न उनका नुकसान हुआ और न उनकी कविता की चमक फीकी पड़ी। 

             प्रायः हर बड़ा रचनाकार अपने वर्तमान की उपेक्षा का शिकार रहा है। कबीर तुलसी से निराला शमशेर तक सभी अपनी समकालीनता में उपेक्षित हुए, किंतु समय ने उनकी कविताओं का मूल्य समझा। सच तो यह है कि वास्तविकता और मौलिकता काल के आवरण को तोड़कर बाहर आ ही जाती है। वक्त सबसे बड़ा आलोचक होता है नंदल हितैषी की रचनाधर्मिता उन्हें विशिष्ट पहचान देती है। वे बड़ी व्यंजना के कवि हैं, उनकी अनेक कविताएं इस बात का पता देती हैं।

नंदल भूमंडलीकरण और उदारीकरण के समस्त प्रपंचों और छद्मों को अपनी कविता में उजागर करते हैं। उनकी अनेक कविताओं में बाजारवाद और नवसाम्राज्यवाद के कुचक्रों पर प्रहार मिलता है। वे एक जाग्रत प्रहरी की तरह सर्वहारा को सजग करते हैं और पूरी ठसक के साथ उसके पक्ष में खड़े होते हैं। वे मध्यम वर्ग की द्वंदात्मक छटपटाहट का रहस्य खोलते हैं। वे समझते हैं कि अन्याय जिधर है, शक्ति भी उधर है। पूँजी की गोद में बैठे नवधनिकों के चरित्र को अपनी अनेक कविताओं में बेनकाब करते हैं। वे कविता के माध्यम से राष्ट्र के निरर्थक मौन को तोड़ने के लिए नए मुहावरों की तलाश करते हैं। वे कहते हैं----

                      एक था राजा 

                      एक थी रानी 

                      दोनों तो कब के 

                      मर चुके भाई 

                      अब खत्म भी करो 

                      यह कहानी 

                      तलाशने होंगे नए मुहावरे 

                      तोड़ने हैं मिथक 

                      बांट लेने दो मुसहरों को वन 

                      राजा को खबर की 

                      कोई जरूरत नहीं।

         नंदल हितैषी अपने परिवेश से जुड़े कवि हैं। उनके लिए ''कहीं से भी शुरू हो सकती है कविता/ आदमी की बेहतरी के लिए/ कहीं से भी शुरू हो सकता है/ कोई आख्यान/ भ्रम की स्थापना के लिए/" उसके लिए कहीं दूर जाने की, खयाली जुमले जुटाने की जरूरत नहीं है। वे अपने वर्तमान परिवेश से लगातार संवाद करते हैं। उनकी सबसे बड़ी ताकत है उनकी अंतर्दृष्टि। वह दृष्टि जो समाज के झिलमिल पर्दे को चीरकर परिवेश के अतियथार्थ को सामने रख देती है। उनकी भरसक यही कोशिश रहती है कि मनुष्य की बेहतरी के लिए आवाज़ उठाएं। वे उस मनुष्य के साथ खड़े होते हैं जो तमाम दुष्चक्रों को सहकर भी चुप नहीं बैठता, जो जीवन में हारकर भी अपराजेय रहता है, जो जीवन भर घोड़े की तरह दौड़ता है, हाँफता है, तिनका तिनका जोड़ता है, हवाओं के खिलाफ आगे बढ़ता है और अंत में पाता है कि वह जिंदा ही कब था। ऐसे मनुष्य की संवेदना को नंदल अपनी आवाज देते हैं। वे कहते हैं------

                      फिर मरने लगा 

                      बच्चों की रोजी रोटी के लिए 

                      कुछ सफेद और कुछ स्याह के लिए 

                      यानी शादी और ब्याह के लिए 

                      और फिर मरने लगा 

                      सकुशल पेंशन के लिए 

                      जाहिर है नो टेंशन के लिए 

                      और अब 

                      कमरे में उपेक्षित पड़ा 

                      सोचता हूँ 

                       आखिर मैं जिंदा ही कब था?

          नंदल हितैषी की 'पेड़ बनाम आदमी' कविता मेरी सबसे प्रिय कविता है। पेड़ की संवेदना को व्यंजित करने वाली इससे अच्छी कविता अभी तक मैंने नहीं पढ़ी। "पेड़ जितना झेलता है सूरज को/ सूरज कभी नहीं झेलता/ पेड़ जितना झेलता है आदमी को/ आदमी कभी नहीं झेलता।" पेड़ के इस मर्म को वही समझ सकता है, जिसे परकाया प्रवेश की कला आती है। पेड़ यहाँ शिव की तरह विषपान करता दिखाई देता है। "आदमी उजाले में जो उगलता है विष/ महज पेड़ ही/ उसे पचाते हैं।" इस कविता में बगुलों के लिए तालाब बन जाते वृक्ष और "जब ठूँठ होते हैं तब फलते हैं गिद्ध" जैसे बिंब हिंदी कविता में अत्यंत अछूते और टटके हैं। नंदल हितैषी की यह कविता, हिंदी कविता के इतिहास की कालजयी कविताओं में अपना स्थान बनाती है। हिंदी आलोचना का ध्यान इस कविता की ओर अवश्य जाना चाहिए। कुछ पंक्तियाँ इस कविता को महाकाव्य की ऊँचाई पर ले जाती हैं।उदाहरण के लिए--------

                    पेड़ 

                    कभी धरती पर 

                    भारी नहीं होते 

                    आदमी की तरह 

                    आरी नहीं होते 

                    क्योंकि पेड़ 

                    अपने जमीन पर खड़े हैं 

                    इसलिए 

                    आदमी से बड़े हैं।

            जहाँ तक नंदल की भाषा की बात है, वे तत्सम तद्भव के साथ-साथ देशज शब्दों का धड़ल्ले से प्रयोग करते हैं। यह उनकी लोक संपृक्ति का परिचायक है। हिंदी, अंग्रेज़ी, उर्दू, फारसी के शब्द उनकी कविता में ऐसे आते हैं जैसे शब्दों की पच्चीकारी की गई हो। इस दृष्टि से वे निराला और शमशेर की याद दिलाते हैं। भाषा के प्रति नंदल हितैषी अत्यंत सजग रचनाकार हैं। उनकी भाषा अर्थ संप्रेषण में पूरी तरह सफल होती है। उन्हें अपनी हिंदी भाषा पर गर्व है। वे चिंतित हैं हुक्मरानों की भाषाई नीति पर जो राष्ट्रीय फूल का निर्धारण तो कर लेते हैं, किंतु एक राष्ट्रभाषा को मान्यता नहीं दे पाते। वे कहते हैं------

                     ढेरों राष्ट्रीय प्रतीक हैं 

                     कुछ इतिहास के पन्नों में 

                     कुछ राष्ट्रीय संग्रहालयों में 

                     अगर नहीं है तो 

                     एक राष्ट्रीय भाषा 

                     हुक्मरानों! अपने देश की

                     यह कैसी परिभाषा?

               वस्तुतः कविता का मध्यम मार्ग नहीं होता। या तो कविता होती है या नहीं होती है। कविता है की कोटि में नंदल हितैषी की कविताएं पुरजोरी से अपना स्थान बनाती हैं। बिना किसी आत्मश्लाघा के नंदल हितैषी मनुष्य की बेहतरी के लिए कविता को साधते रहे हैं। एक न एक दिन उनकी काव्य साधना को अवश्य रेखांकित किया जाएगा, इसी आशा एवं विश्वास के साथ उनकी पंक्तियों से ही मैं विराम लेता हूँ कि-----

                       नहीं होती कविता 

                       कभी हाशिए पर 

                       कुम्हार के आवों में 

                       खर होती 

                       जब संगीत रचती है 

                       पंक्तियों की चमराहट 

                       और भी मजबूत होती 

                       लोहार की निहाई पर 

                       पैनी होती 

                       हथौड़े की 'रिद्म' पर थिरकती 

                       हवा के मानिंद बहती है कविता।

                             


 

-          रविनन्दन सिंह

1 comment:

  1. लाजवाब रचनाएं। सुन्दर परिचय़।

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