कहने और सहने को इस मुकाम पर हम घरबन्दों और घेराबन्दी के पास बहुत समय है. बिताये नहीं बीतता, फिर भी इस अहसास से छुटकारा नहीं है कि यह समय अपर्याप्त है, वह भरा पूरा नहीं है, इसमें बहुत कमियां हैं, हंसी-ठठ्ठा, मेल-मुलाकात, बहरा-मुबाहिसे, बातचीत, गप-सड़ाका आदि नहीं है, जब तक वह सब और इसी तरह का बहुत कुछ न हो तब तक समय पर्याप्त महसूस नहीं होता है, खालीपन से भरे इस समय में मन हो तो किसी के पास मिलने मिलकर बैठने, गपियाने नहीं जा सकते हैं. कहीं जाने करने से पहले सोचना पड़ता है कि ऐसा करने से या ने में कोई खतरा तो नहीं है, जो बहुत सामान्य है, रोजमर्श का है उसको लेकर भी शंका रहती है. समय मानो सेनेटाइज किया जाकर कई बार, दिन में बीसियों बार सैनेटाइज किया जाकर, जैसे सा जाता है, वह खुद अपने पर शंकालु हो उठता सिकुड़ सा वह खुद अपने ही लिये खतरनाक हो सकता है, अगर उसने कोई असावधानी बरतो.
सावधान होकर भी समय अपर्याप्त लगता है तो इसलिए कि लगातार
सावधानी अपने पर ही चौकसी बन जाती है और प उससे सामान्यता अगर गायब नहीं बहुत कम
हो जाती है. रोजमर्रा की जिन्दगी कुछ अधिक हो नियमित, यांत्रिक हो गयी है, उसमें एक नया फल या
ताजो सब्जी भी एक घटना का रूप ले लेती है. दिलचस्प यह है कि इस अपर्याप्त समय में
जीवन, जैसे-तैसे, फिर भी अपनी गति से चलता जाता हैः उसमें मोह-मत्सर, दूसरों के लिए चिन्ता
और सहायता, सत्ता और बाजार को,
मीडिया की निर्ममता और नीचता, मुनाफाखोरी, चीजों को बहुतायत, बाज साथियों का चिर
जागरूक टुच्चापन आदि सब बदस्तूर चलते रहते हैं. समय न उनकी व्याप्ति कम कर पाया, न ही अभद्रता के लिए
उत्साह को स्थगित किया जा सका, कई बार यह सोचकर दहशत होती है कि इतने भयानक और आतंककारी
अनुभवों से गुजरने के बाद भी जो टुच्चे थे वे वैसे ही बने रहेंगे, जो दूसरों का शोषण कर
अपना पुरुषार्थ प्रगट करते हैं वे वैसा ही करते रहेंगे, अन्याय-हिंसा-हत्या-
बलात्कार सिर्फ कम नहीं होंगे और वह जायेंगे. लुटेरे लूटते रहेंगे और
भगेड़ी अपनी नीचता के सूअर बाड़े में अपनी मण्डली जमाते रहेगे यह विडम्बना ही है
कि प्रकोप के कारण घिर आयी कालछाया में भी मानवीयता को स्थगित करने वाले तत्वों और
शक्तियों को रोक-थाम नहीं हो पायी है.
देर-सबेर जब हम इस प्रकोप से मुक्त होकर निकलेंगे तो शायद
हमारी इसकी पहचान धुंधला चुकी होगी कि हम इस कठिन समय से गुजरकर अधिक मानवीय अधिक
संवेदनशील अधिक सहायक होकर नहीं निकल पाये हैं. किसने सोचा था या कल्पना की थी कि
आदमी को भी मयस्सर नहीं इन्सा होना की गालिब-उक्ति अब भी चरितार्थ होती रहेगी।
पिछड़ता विचार
रचना आगे चलती है और अकसर आलोचना थोड़ा पीछे चलती है. विचार और
विचारधाराएं आलोचना से भी पीछे चलती हैं. रचना जिस गति से बदलती है, आलोचना नहीं और विचार
तो बहुत धीरे बदलता है नयी तकनालजी ने और उसे पोसने वाली मानसिकता ने गति बहुत तेज
कर दी है. इस तेज गति से हमकदम हो सकता रचना के लिए भी कठिन हो रहा है. आलोचना इस
आपा-धापी में अधीर भले लगे पर पा रही है. विचार तो निश्चय ही इस भागते अधीर समय
में पञ्चात्पद है।
यह बात पहले भी कही जा चुकी है कि हमारे समय में विचार मात्र
की गति शिथिल हो गया है. अभी हाल तक विचार के क्षेत्र में फ्रेंच चिंतक अग्रणी
माने जाते थे और थे भी, पर यह चिन्तन, अब चिन्तन पर ही चिन्तन है: चिन्तन उसी के बारे में
चिन्तित और जिज्ञासु है जो चिन्तन रचता है,
उसके बारे में कम जो बाहर संसार में है
या हो रहा है, स्वयं चिन्तन की भाषा अब आत्मसंदर्भित और लगातार दुरूह हो रही
है. लगता है यह चिन्तन को आत्मरति का समय है. इस समय वह ज्यादातर उस सचाई की
चीर-फाड़ या विशेषण में लगा है जो चिन्तन द्वारा रची जाती है.
अगर, कट्टर इस्लामवाद,
कट्टर हिन्दुत्व कट्टर नस्लवाद आदि को
विचारधारा न जाना जाये, क्योंकि उनका भूगोल सीमित है और वे विश्वव्यापी वृत्तियां नहीं
है, समय विचारधाराओं के स्थगन का समय है. दशकों से चली आ रही
विचारधाराएं हैं पर उनमें न तो नयी चुनौतियों की शिनाख्त है और न ही तेजी से बदल
रहे बौद्धिक सर्जनात्मक परिदृश्य को कोई नयी समीक्षा. उनमें अवस्थित यूटोपिया अब
और धुंधले लगते हैं, उनसे कोई नया और समग्र वैकल्पिक महास्वप्न उभरता नजर नहीं आता.
शायद मनुष्य अब विचार करने से थक और ऊब रहा है. शायद अब हम
सारी मानव जाति के लिए जरूरी नहीं समझत. साद अब सोमवार करना उपभोज्य और मूल्यवान
विचारों का वह समय में जिन्हें विश्व-व्याप्ति को कोई महत्वाकांक्षा नहीं है. शायद
इस वृत्ति को विचारों को प्रादेशिकता की वृत्ति कहा जा सकता है. शायद अखिलता अब
जरूरी रह गयी है. शायद यह विडम्बना है कि जब नयी तकनालजो, विश्व का भूमण्डलीकरण, संचार संचार और
यातायात के नये साधन एक विश्वग्राम बना रहे हैं,
तब विश्व में विचारों की प्रादेशिकता
पनप रही है. कई कारण महान उत्पात, असन्तुलन, तनाव और नरसंहार आदि हुए हैं,
इसलिए,
अगर अब कोई ऐसा सर्वव्यापी विचार नहीं
है तो इन सबसे उसकी विकराल विकृतियों से बचने की सुविधा 1. मुश्किल सिर्फ यह है
कि मनुष्य रचता तो है पर नष्ट भी करता चलता है,
उसकी इस इन्द्वात्मकता से मुक्ति कहां
हो सकती है, भले विचार अब प्रादेशिकता में विकसित पोषित हों ?
हंसने की नीचता
इस यहूदी कहावत का कई बार जिक्र करता रहा हूँ ईश्वर के सामने
रोओ, आदमी के सामने हंसी उपन्यासकार मिलान कुन्देरा ने कभी कहा था
कि अपनी रचना विचित्र देखकर ईश्वर अट्टहास करता है और उपन्यास, कम से कम पश्चिम में
ईश्वर के अट्टहास से उपजा है. यह हंसना की बेचारगी मुफलिसी, निरुपायता, राजनैतिक या दूसरों
की धार्मिक या आर्थिक फंसाय-अलगाव पर हंसना नहीं होता. यह हंसना दूसरों पर फैसला
लादना नहीं, उन्हें अपनी विडम्बना में सजग होकर शामिल करना है. यह हंसना
अपने ऊपर हंसना है.
इस समय लाखों किसान भयानक सर्दी-बारिश और मुश्किलों के बीच
आन्दोलन कर रहे हैं और सत्तारूढ़ शक्तियां और गोदी मीडिया उनकी वाजिव जिद को
अड़ियलपन करार देकर उन पर हंस रही हैं. यही नहीं,
लगता है कि अदालतें भी उन पर हंस रही
हैं. यह हंसी बहुत कुछ कहती है, समस्या को उसको गहरी मानवागता में न निकालने के बजाय उन्हें
चैनलों कर हल एक ज और अखबारों में उपहास का पात्र बनाया जा रहा है. सच तो यह है कि
ऐसा हंसना नीचता को अभिव्यक्ति है. सत्ता पाते ही राजनीति से सारी मानवीयता का
क्षरण लोकतंत्र को क्षत-विक्षत करने जैसा है,
लोकतांत्रिक पद्धति से पायी गयी सत्ता
उसी लोकतंत्र को कुतर रही है, उसमें लगातार कटौती का सुनियोजित प्रयत्न कर रही
गणतंत्र दिवस पर कुछ घुसपैठिये तत्वों द्वारा जो हिंसा आदि हुई उनसे किसान आन्दोलन ने फौरन ही अपने अलग कर लिया था. इन पंक्तियों के लिखे जाने तक वातावरण बेहद अभद्र, फूहड़ और नीच बना हुआ है. इसमें हंस रहे हैं, उनका हिसाब समय और इतिहास चुकता करेंगे. यह आश्वासन पर्याप्त नहीं लगता. फिर भी, तो करोड़ों हैं जो अपने लोकतंत्र के लिए इस समय से रहे हैं. इसकी अनदेखी अनसुनी तो होगी, हो रही है. इसी से उम्मीद निकलती है. उम्मीद ऐसे आंसुओं की नदी में बहकर ही आयेगी.
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अशोक
बाजपेयी
(लेखक वरिष्ठ कवि एवं साहित्यिक, सांस्कृतिक चिंतक हैं)
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