Saturday, 21 August 2021

अशोक सिंह की कविताएँ



इस एक देश में कितने देश हैं भाई!

 

गाँव से शहर आये पिता

पाँव में टूटी चप्पल

कांधे पर गमछा

काँख तर छाता दबाये,

 

आये एक राज्य से चलकर दूसरे राज्य

चने के सत्तू के साथ बाँधकर अपना दुख

कुर्ते की जेब में डालकर कुछ सपने

 

सारा जीवन यहीं बिताया 

यहीं बहाया पसीना

बसाया यहीं अपना घर-परिवार

 

यहाँ रहते सबके साथ

हमेशा बँटाया मिलकर हाथ

 

पर्व-त्योहार हो

या शादी-ब्याह

या फिर मरनी-हरनी

यहीं मिल-बैठ सबके साथ

बाँटा अपना सुख-दुख

 

जो लिया यहीं से लिया

और यहीं दे दिया अपना सबकुछ जाते-जाते

 

अपने कांधे के गमछे

और काँख तर दबाये छाता पर

बार-बार उठे सवालों से आहत

मन की पीड़ा को लेकर

नहीं की कभी किसी से कोई शिकायत

 

अब मैं भी किस-किस को बताता फिरूँ यहाँ

कि मैं भी जन्मा यहीं, इसी मिट्टी में

यहीं की आबोहवा में खेला-कूदा, पला-बढ़ा

 

बोला यहीं की बोली-वाणी

यहीं की भाषा में गाया

प्रेम और विद्रोह के गीत

 

यहीं के जंगल-पहाड़ों से रहा लगाव

यहीं की नदियों में धोया कई बार

अपना दुखी और उदास चेहरा

 

यहीं की कंटीली झाड़ियों में उगे

जंगली-फूलों से किया प्रेम जीवन भर

दिल पर लगी खरोंच

बिना किसी को दिखाये

 

यहीं के मुद्दे पर

यहीं के लोगों के साथ मिलकर

 

लड़ा-भिड़ा अक्सर

सत्ता और व्यवस्था से

 

बावजूद हर जगह

दुत्कारा गया, फटकारा गया

धकियाया गया बार-बार

बाहरी-भीतरी के नाम पर

 

कभी नाम तो कभी सरनेम को लेकर

उठाया गया सवाल मुझपर

टेड़ी नजरों से देखा गया मुझे हिकारत से

 

अपने ही घर में रहने के लिए

माँगा गया बार-बार पहचान-पत्र

 

इस एक देश में कितने देश हैं भाई!

 

कौन सा देश है मेरा अपना

जहाँ चला जाऊँ अपना चेहरा उठाये ?

 

कहाँ भाग जाऊँ यहाँ से

गमछा में अपना सबकुछ समेटकर ?

 

कहाँ किस जेब में छुपा लूँ!

अपना असली चेहरा!

बदल लूँ कौन सा भेष

किधर जाऊँ, किधर है मेरा देश

 

ऐसे देश

ऐसे लोक में रहने से तो अच्छा है

परलोक चला जाऊँ!!

 

 

सब कुछ देख सुनकर

 

चुप रहा

   तो बेवकूफ समझा गया

 

झूठ बोलता रहा

   तो सच समझकर सुनते रहे लोग

 

हिम्मत से सच कहा

    तो विद्रोहियों की लिस्ट में दर्ज हो गया नाम

 

सुबह-सुबह अखबार में पढ़ा

      अब मेरे ऊपर देशद्रोह का मुकदमा चलेगा।

 

 

यह जो मेरे तुम्हारे बीच फासला है

 

मैं अक्सर दौड़ा-दौड़ा जाता हूँ

तुम्हारे पास

तुम भी दौड़े-दौड़े आती हो पास मेरे

 

हम दोनों होते हैं बहुत करीब

एक दूसरे के 

पर मिल नहीं पाते कभी

 

सिर्फ हमारे दुख मिलते हैं आपस में गले लिपटकर

 

एक फासला रह ही जाता है

हर बार मेरे तुम्हारे बीच

 

आ ही जाते हैं

लेकिन किन्तु-परन्तु जैसे शब्द बीच में

और फिर उसके बाद एक गहरी चुप्पी......!

 

हम लौट आते हैं वापस

थके कदमों से भारी मन लिये

अपनी-अपनी दुनिया में

 

तुम्हारे भीतर की एक स्त्री

अक्सर तुमसे निकलकर

सबसे नजरें बचा

रात के अंधेरे में भटकती गाती है

विरह का कोई आदिम राग....

 

मेरे भीतर बैठा एक पुरूष भी

मुझसे निकलकर भटकता है अक्सर

शहर की सुनसान सड़कों गलियों में

ढूंढ़ता है कई-कई चेहरों के बीच तुम्हारा चेहरा

 

सबसे छुप-छुपाकर

रात-रात भर करवट बदलती तुम

बिस्तर की सिलवटों में ढू़ंढ़ती हो मुझे

और मैं तुमको

 

इतनी बड़ी दुनिया में

भला कौन समझेगा मेरा तुम्हारा यह दुख!

 

यह जो लेकिन किन्तु परन्तु जैसे शब्द हैं

और उन शब्दों के बीच की छुटी जगहों में

जो फैली पसरी गहरी चुप्पियाँ हैं मेरे तुम्हारे बीच

उसी में कहीं गिरकर

कुछ खो-सा गया है मेरा तुम्हारा

जिसे ढूंढने बार-बार जाता है मन

और लौट आता है हर बार खाली हाथ !

 

 

इस मोड़ पर तुम्हारा मिलना

 

कितना अजीब है

कि जीवन के एक ऐसे मोड़ पर मिली तुम

जब रंगों और फूलों में दिलचस्पी खत्म हो चुकी है

जीवन से जा चुका है वसंत 

 

बहुत दूर निकल आया हूँ सफर में...

 

वह भी बिल्कुल खाली हाथ

जहाँ जेब में सिक्के नहीं, सिर्फ शब्द हैं

 

बंदिशें इतनी

कि तुम्हारा हाथ पकड़कर चलना भी चाहूँ

तो चल नहीं सकता मैं दो कदम भी साथ तुम्हारे

 

कितना अजीब है

जबकि परम्पराएँ पड़ चुकी हैं पीली कब की

और नैतिकता भी खो चुकी है अपनी नैतिकता

नैतिकता की बातें करने वाले लोग

दे रहे हैं सलाहें

मोह माया से दूर रहने की

 

और मोह इतना है जीवन से

कि अभी-अभी तुम्हें पास खड़ा देख

एक पेड़ की घनी छाँव में बैठा

महसूस कर रहा हूँ मैं खुद को

जहाँ बहुत पास से एक नदी

बह रही है कल-कल करती

कुछ कहती हुई.....

 

अफसोस!

कुछ और पहले मिली होती तुम

तो शायद कुछ और जी लेता मैं

गा लेता जिन्दगी का कुछ अगाया गीत

 

कितना अजीब है

कि मुट्ठी भर एकांत

और बित्ता भर भी खाली नहीं कहीं

पास बैठकर इत्मीनान से बोलने बतियाने को

जबकि बहुत सी खाली जगहें पड़ी हैं

इस पृथ्वी पर हत्यारों के लिए!

 

 

दुख में तुम्हारी हँसी

 

जब-जब मेरी फटेहाली

फटे जूते में ढुकी कील-सी

पाँव में चुभती है

 

तब-तब

मोतियों से चमकते

तुम्हारे दाँतों की दुधिया-हँसी

मुझे अंधेरे में

आगे का रास्ता दिखाती है।

 

 

पिता

 

गाँव की उन पगडंडियों की तरह होते हैं

जो हमें

शहर की ओर जाने वाली

मुख्य सड़क तक पहुँचाकर

गुम हो जाते हैं वापस खेत-पथार में

 

सड़क किनारे

खेतों की मेढ़ पर खड़े

हाथ हिलाते

उस पेड़ की तरह होते हैं पिता

जो शहर की ओर जाने वाली हर गाड़ी में

देखते हैं मेरा जाना

और आने वाली हरेक गाड़ी से

करते हैं प्रतीक्षा

मेरे लौटने की !

 

 

भारत बनाम इडिया

 

एक ऐसे समय में

जब देश की आबादी के

लगभग एक चौथाई लोग

विकास के नाम पर देश को

भारत को इंडिया बनाने पर तुले हैं

 

कैसे बताऊँ 

मैं रात-रात भर करवट बदलता

बिस्तर की सिलवटों से बने

इंडिया के मानचित्र में

भारत को ढूँढता हूँ

 

भारत और इंडिया के बीच

चल रही बहस में शामिल

इंडिया की वकालत करते लोगों

 

मै इक्कीसवीं सदी के इस दौर में भी

इंडिया नहीं

भारत का नागरिक बना रहना चाहता हूँ

 

तुम्हें तुम्हारा इंडिया मुबारक हो

मुझे अपने भारत में बने रहने दो !

 

 

बाज़ार से बचकर कहाँ भागूँगा !

 

बाज़ार कितना बड़ा है

पर कितना कम है मेरे लिए

 

कितनी कम हैं मेरी हैसियत की चीजें वहाँ

जबकि बाज़ार के विज्ञापनों से पटी हैं

मेरे घर की बाहरी-भीतरी दीवारें।

 

कितनी कम हैं....

जबकि टीवी पर समाचार सुनने के ठीक पहले

एक साबुन और टुथपेस्ट ख़रीदने का अनुरोध किया जाता है

 

भीतर से कितना डरा होता हूँ

जब धरता हूँ पैर किसी चकमक दुकान पर

 

षायद प्रतिष्ठा बचाने की मजबूरी में ही

यात्राओं में बोतल बंद पानी खरीद कर पीता हूँ

और दोस्तों के आग्रह पर भारी मन से

रेस्टोरेंट में बैठ गपियाते हुए

पाँच रूपये की चाय पचीस रूपये में पीता हूँ

 

और तो और

गहरी अनिच्छा के बावजूद

दोस्तों के सामने बैरे की तश्तरी में रख देता हूँ

दस बीस रूपए का टिप

 

अपने संस्कार के विरूद्ध जाकर

करना ही पड़ता है यह सब

मजबूरी में बँधे बाज़ार के नियम से बचकर

कहाँ भागूँगा।

 

 

आओ, हाथ में हाथ लें !

 

हम एक ऐसे समय में जी रहे हैं मेरे दोस्त !

जहाँ जीने की विवशता के अलावा

कोई चारा नहीं हैं हमारे पास

 

इन्हीं व्यवस्थाओं के बीच रहकर

हमें सुलझानी है अपनी तमाम उलझनें

 

हम लगातार छलते रहे हैं

पेट और दिल की अनसुलझी

गुत्थी सुलझाने में

 

हम जानते हैं कि कुछ भी बदल पाना तुरन्त

हमारे बूते का नहीं

फिर भी हम सक्रीय रहेंगे

लडेंगे अपने हिस्से की लड़ाई

और तमाम व्यर्थताओं के बीच

सिद्ध करेंगे अपने होने का अर्थ

 

हमारे भीतर लड़ने की जितनी ऊर्जा है

उससे कम, बहुत कम हैं हमारी समस्याएँ

 

आओ, हाथ में हाथ लें !

मिलकर लें संकल्प

कि आने वाली सदी

न झेले किसी महायुद्ध पीड़ा

 

सड़कों पर चलें हम बेखौफ

बाजार की भाषा में न बोलें

बचायें अपनी दिनचर्या में जीवन की गर्माहट

 

खुद को लायें माटी के थोड़ा और करीब

हम आयें आपके थोड़ा और पास

 

लड़ें अपने आपसे कम से कम इतना जरूर

कि लगे, कि हाँ हमने लड़ा है

 

हार न मानें कभी

कि उम्मीद हमारा आखिरी हथियार है !

 

  

मुझे ईश्वर नहीं, तुम्हारा कंधा चाहिए

 

पता नहीं ऐसा क्यों होता है अक्सर

जब-जब मैं दुखी और उदास होता हूँ

ईश्वर से ज्यादा तुम याद आती हो

 

मैं ईश्वर को मानता तो हूँ

पर उसे जानता नहीं

और न ही चाहता हूँ जानना भी

 

मुझे सिर झुकाने के लिए

ईश्वर नहीं

सिर टिकाने के लिए

कंधा चाहिए

और वो ईश्वर नहीं

तुम दे सकती हो !

 

 

मैं तुमसे इसलिए प्रेम नहीं करता

 

मैं तुमसे इसलिए

प्रेम नहीं करता कि

मैं तुम्हारे प्रेम में पड़कर

अंधा हो जाऊँगा

बल्कि इसलिए करता हूँ प्रेम

कि मैं तुम्हारी आँखों से

दुनिया देख सकूं !

 

मैं तुमसे इसलिए

प्रेम नहीं करता कि

तुम्हारे पीछे दौड़ते-भागते

बेकार निकम्मा अपाहिज हो जाऊँ

बल्कि इसलिए करता हूँ प्रेम

कि तुम्हारे कदमों से चलकर

अपनी मंजिल तक पहुँच सकूं

 

मैं तुमसे इसलिए

नहीं करता प्रेम

कि अपना सब कुछ लुटाकर

तुम्हारा सब कुछ हासिल कर सकूं

बल्कि इसलिए करता हूँ प्रेम

कि तुमने ही यह कहकर

पढ़ाया प्रेम का सच्चा पाठ

कि ‘‘प्राप्ति प्रेम की समाप्ति है‘‘

और सच कहूँ तो

मैं तुम्हें पाकर

तुम्हें खोना नहीं चाहता !

 


प्रेम

 

थककर चूर

शिथिल पड़ी काया के सिरहाने

तकिया बढ़ाते हाथ हैं प्रेम           

 

एक कंधा है

दुख के क्षणों में

लरजते हुए सिर टिकाने को

 

मेहनत और थकान से

माथे पर उभरी

पसीने की स्वेत बूंदों पर

शीतल अंगुलियों की छुअन है

 

स्याही-सोखता की तरह

पीड़ा और थकान सोखती

आँखें हैं प्रेम

 

प्रेम

रात के अंधेरे में

सूनसान सड़क पर खड़ा लेम्पपोस्ट है

 

एक छायादार पेड़ है प्रेम

दोपहर की चिलचिलाती धूप में

 

जाड़े की सर्द रातों की गर्म लिहाफ

सुबह की गुनगुनी धूप है प्रेम

 

और तो और

जिन्दगी की रूखी सुखी रोटी पर

चुटकी भर नमक है प्रेम।

 ________________

 

अशोक सिंह

जन्मतिथि: 8 फरवरी 1971 (दुमका, झारखण्ड)

शिक्षा: स्नातक (हिन्दी)

अभिरूचि: साहित्य, रंगमंच, शोध-अध्ययन, पत्रकारिता और सामाजिक कार्य।

प्रकाशन: देश के विभिन्न प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में प्रमुखता से रचनाएँ प्रकाषित एवं आकाशवाणी व दूरदर्षन से प्रसारित। साथ ही दैनिक, साप्ताहिक, मासिक समाचार पत्र-पत्रिकाओं में नियमित रिपोर्ट, फीचर एवं शोध आलेख प्रकाषित। विषेषकर आदिवासी मुद्दों और उसके जीवन एवं संस्कृति पर शोध कार्य। कविता संग्रह- कई-कई बार होता है प्रेमऔर असहमति में उठे हाथदो कविता संग्रह। साथ ही संताली कविताओं के अनुवाद की दो अनुदित पुस्तकें भारतीय ज्ञानपीठ दिल्ली से प्रकाषित ‘नगाड़े की तरह बजते हैं शब्दʼ एवं रमणिका फाउण्डेशन दिल्ली से प्रकाशित ‘अपने घर की तलाश मेंʼ   

  आदिवासी साहित्य एवं कला संस्कृति पर शोध कार्य - संताल आदिवासी जीवन एव संस्कृतिं से जुड़े विभिन्न क्रिया कलापों पर शोध कार्य इसके अलावे संताली एवं पहाड़िया लोक कथाओं का संकलन। आदिवासी लोक नृत्य, संताल परगना में लगने वाले मेले का सामाजिक सांस्कृतिक स्वरूप तथा विलुप्त आदिवासी कठपुतली लोक कला पर शोध कार्य। आदिवासी लोक नृत्य पर झारखण्ड सरकार के कला संस्कृति विभाग से ‘जंगल गाँव, थिरकते पाँवʼ नामक पुस्तिका का प्रकाषन।

पुरस्कार एवं सम्मान : साहित्यिक, सांस्कृतिक गतिविधियों एवं सामाजिक कार्यों में उत्कृष्ट योगदान के लिए कई संस्थानों द्वारा पुरस्कृत एवं सम्मानित। 

सम्प्रति: स्कूली शिक्षा एवं साक्षरता विभाग के तहत जिला साक्षरता समिति दुमका (झारखण्ड) में जिला कार्यक्रम प्रबंधक के पद पर कार्यरत एवं एक स्वयंसेवी संस्था का संचालन। साथ-साथ स्वतंत्र पत्रकारिता।

सम्पर्क: जनमत शोध संस्थान पुराना दुमका, केवटपाड़ा दुमका-814101 (झारखण्ड)

ईमेल: ashok.dumka@gmail.com

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