हम में से कुछ
कई बार होती है मौत
हमारी
थोड़ा-थोड़ा मर कर
ज़िंदा हो जाते हैं
जागते हुए सोना और
और सोते हुए जागना
हम हारते हुए भी बचे
रहते है
और जीत को गले नहीं लगाते
बहुत सारी चीज़ों को
दुरुस्त करना
और बहुत कुछ से
निजात पाना
पेट से बंधी रहती है
रोटी
आँसुओं से जलती
दुःखों की मशाल
गर्दन पर गिरती हुई
वक़्त की कुल्हाड़ी
अपनी अंतिम निराशा
खोजते हुए
हमारे नाम बंद
रहेंगे किताबों में
पर हर बार हमारे
ख़िलाफ़
हम में से ही करता है
कोई शुरूआत।
ख़ालीपन
आसमान कि तरह
जो गिरगिट सा रंग
बदलता है
दिन और रात में
आईने पर भाप हो तो
नहीं दिखता साफ़
चेहरा
एक बैचनी होती है
अपना चेहरा साफ़
देखने की
जब दिखाई देता है
साफ़ और ठहरा हुआ
वही पिघलने लगता है
फिर अन्दर ही अंदर
ख़ालीपन एक भरा पूरा
लफ़्ज़ है।
कमरे की अकेली
खिड़की
तुमसे मिल कर लगा
तुम तो वही हो ना
मैं अपने ख़यालों
में अक्सर
तुम से मिलती रही
हूँ
एक ख़याल की तरह तुम
हो भी
और नहीं भी
तुमसे बातें यूँ की
जैसे
सदियों से जानती हूँ
तुम्हे
बिछड़ना न हो जैसे
कभी तुमसे
शायद तुम्हें पता न
हो
इस कमरे की अकेली
खिड़की तुम हो
मेरी हर साँस लेती
है
हवाएँ तुमसे !
पिछली सर्दी में
वो दिन बहुत अच्छे
थे
जब अजनबीपन की ये
बाड़
हमारे बीच नहीं उगी
थी
इसके लोहे के दाँत
हमारी बातों को नहीं
काटते थे
उन दिनों की सर्दी
में
मेंरे गर्म कम्बल
में तुम्हारे पास
कितने क़िस्से हुआ
करते थे
हर लफ़्ज़ का मतलब
वही नहीं होता
जो क़िताबे बताती है
लफ़्ज़ तो धोखा होते
है
कभी कानों का कभी
दिल का
और ख़ामोशी की
अँधेरी सुरंग में
काँच सा वक़्त टूटने
पर
बाक़ी रह जाती हैं
आवाज़े
और उनकी गूँज !
बहुत दिन बाद
मैं मान लेती हूँ कि
मेरे पास
कहने के लिए नया कुछ
नहीं
जो भी है कहा जा
चुका है
अगर में न बोलूं तब
भी
मेंरी ख़ामोशी का
दूसरा मतलब निकाल लोगे
मेंरी सोच पर इल्ज़ाम
लगा दोगे
अगर सोचे हुए रास्ते
से चल कर
सोचे हुए मुक़ाम पर
पहुँच जाऊँ
तो हो सकता है सोचा
हुआ वो न हो मेरे सामने
मुश्किल है पहचान का
अनपहचाना होना
मगर पहचान का अर्थ
यह तो नहीं है
की उसे दृश्य मान
लूँ
जो तुम्हे दिखाई
देता है
पूरा सच बहुत सख़्त
होता है
पर सबसे बड़ा सच मौक़ा
परस्त है
वक़्त नहीं है मेंरा, मेंरे लिए देर है
फ़ीके मौसम और सख़्त
वक़्त की
चाल बहुत धीमी होती
है।
तेज़ बुख़ार में
नींद न आने का
अफ़सोस लिए जागती
आँखे
क़तरा क़तरा
उतरते तिलिस्म में
फँसती
एक डरावनी रात में
बिस्तर पर ज़ंजीरों
से बंधी मैं
आँखे आँसू बहाती
तपते जिस्म के लिए
नसों में दौड़ता है
ख़ून तेज़ी से
मगर दिमाग़ थक गया है
दर्द ने फैला ली है
हदें
काँटों वाली बाढ़
चुभ रही है उँगलियों
तक
बिना रीढ़ की हड्डी
के शरीर को
निचोड़ कर बिस्तर पर
टपकता है
पसीना टप-टप
सब कुछ फ़ीका सा
ज़बान के मज़े पर
चढ़ी हुई है एक पर्त
कहीं कोई ज़ायक़ा
नहीं।
--
शाहनाज़ इमरानी
जन्मस्थान - भोपाल (मध्य प्रदेश)
शिक्षा - पुरातत्व विज्ञानं (अर्कोलॉजी) में
स्नातकोत्तर
सृजन - कई पत्रिकाओं में कविताएँ छपी हैं।
प्रथम संग्रह "दृश्य के बाहर"
पुरस्कार - लोक चेतना की साहित्यिक पत्रिका 'कृति ओर' का प्रथम सम्मान !
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