इधर तीन-चार वर्षों से व्यंग्य की दुनिया में मेरी सक्रियता बढ़ी है। इसी बीच मेरा एक व्यंग्य-संग्रह भी प्रकाशित हुआ— हां,हम राजनीति नहीं कर रहे! कुछ अलग तरह से जुड़ाव भी हुए। संबद्धता बढ़ी तो क्रिएटिविटी भी। कुछ विशेष प्रकार से पढ़ना भी हुआ। व्यंग्य के सैनेरियों में जो घट रहा है उसने मेरी चिंताएँ बढ़ा दीं; जैसे— राजनीतिक, साहित्यिक, सांस्कृतिक, धार्मिक सिनेरियो ने मुझे भीतर तक मथ डाला। सोचता हूँ कि हम कहाँ जा रहे हैं, उसी तरह व्यंग्य कहाँ जा रहा है? उसकी असलियत और औकात क्या है? उसकी ज़मीन कहाँ है? व्यंग्यकार विवशता से नहीं लिखता। उसके भीतर कुछ टूटता है, कुछ चटकता है और उसे बेचैन करता है तो व्यंग्यकार लिखता है। यह उसका ज़मीर है और चुनाव भी। इसमें उसके गहरे कंसर्न होते हैं। कोई उसे व्यंग्य लिखने के लिए आदेशित नहीं करता कि हर हालत में तुम्हें लिखना ही है। यह उसकी अपनी वास्तविकता और दुनिया है। वह सतही चिंताओं में होकर नहीं लिख सकता। वह कोई मोहपाश वाला व्यक्ति नहीं है।
व्यंग्य भजन-पूजन-अर्चन भी नहीं है। वह लेखक की आत्मा की असली
आवाज़ है, मैं यह भी सोचता हूँ कि व्यंग्य की दुनिया में इतनी खलबली और
गहमा-गहमी क्यों है? जिसे देखो वही व्यंग्य में हाथ आजमा रहा है। व्यंग्य लिखने के लिए
भिड़ा हुआ है। व्यंग्य के लिए पसर – पसर जा रहा है।यह व्यंग्य के प्रति
प्यार है या प्रसिद्धि का मोहकमा है या कोई जबर्दस्त फ़ैशन सा शमां। जाहिर है कि
व्यंग्य एक तो वह छोटे में ही बहुत कुछ कह देने की सामर्थ्य रखता है; लेकिन इसी में
चुनौती भी है कि आप जो भी कह रहे हैं, इसे ठीक ठिकाने से कहिए। उसी छोटे में
बिना विचलित हुए ही कहिए। भाषा-शैली और शिल्प की गड़बड़ी धीरे-धीरे अभ्यास से ठीक
हो जाएगी; लेकिन ज़मीर का क्या होगा? ज़मीर का कोई इलाज नहीं हो सकता।
ज़मीर ज़िंदा है तो जान भी है और जहान भी है। जनसंबद्धता और सरोकारों का क्या होगा? कंटेंट का क्या
होगा?
व्यंग्य फुलझड़ियाँ छोड़ने के लिए नहीं लिखा जाता और न होता। इसे
मोटे तौर पर कबीर से लेकर हरिशंकर परसाई तक और उसके बाद के समय में भी देखा जाना
चाहिए। इधर तथाकथित व्यंग्य और हास्य के कई प्रकार के एपिसोड बढ़े हैं। हास्य के
नए- नए कटऑउट लगे हैं।व्यंग्य -व्यंग्य है और हास्य- हास्य है। दोनों की तासीर अलग
है और जिम्मेदारियाँ भी। व्यंग्य किसी को हल्का नहीं करता सिवाय लिखने वाले के।
व्यंग्य लिखकर। लिखने वाला भीतर की उमड़न घुमड़न से मुक्त हो जाता है।दूसरों की वह
चरसी खींच लेता है; बखिया उधेड़ देता है। कुछ व्यंग्यों को छोड़ दें तो प्रायः वैसा हो
नहीं पाता। अच्छे लोग इस बात की चिंता करते हैं; बाकी तो रामधुन गा रहे हैं।
व्यंग्य-व्यंग्य चिल्ला रहे हैं। चिंता यह भी है कि जो लोग पहुँच-मार्ग पा जाते
हैं उनके लिए क्या विधि और क्या विधान और क्या उसका निषेध। व्यंग्य में जो स्थान
किसी तरह बना लेते हैं या अपने पट्ठे पाल लेते हैं या हामी बना लेते हैं।उनकी पौ
बारह होती हैं या जय-जयकार होती रहती है। लेकिन कब तक यह होता रहेगा? खोखले बाँस को तो
तब तक ही बजना है जब तक उसमें हवा भरी है।
व्यंग्य और मोक्ष क्या जुगुल बंदी है? व्यंग्य-लेखन मोक्ष
प्राप्त करने की दुनिया किसी तरह नहीं है। वह जीवन का अभूतपूर्व बंधन है। व्यंग्य
क्रीड़ा, लफ्फाजी और कौतुक की दुनिया भी नहीं है। वह खेल तमाशा भी नहीं है।
व्यंग्य से जल्दी छुटकारा नहीं मिलता। व्यंग्य को साधना पड़ता है और वह
साधते-साधते ही आता है। यानी साधक सिद्ध सुजान।उसके लिए जीवन से भिड़ना पड़ता है; जीवन से जद्दोजहद
करना पड़ता है। धुँधले होकर व्यंग्य का रास्ता नहीं अपनाया जा सकता। व्यंग्य मुँह
ताकना नहीं है; बल्कि विसंगतियों,
अंतर्विरोधों, विकृतियों को
लगातार धुनना और अच्छी वास्तविकताओं का सतत निर्माण करना है।
व्यंग्य मंद बुद्धि का क्षेत्र नहीं है। उसके लिए तेजस्विता की
ज़रूरत होती है व्यंग्य की दुनिया में जितनी भूमिका हर प्रकार के क्षेत्रों और
जीवन मूल्यों, अनुशासनों की होगी उसकी व्याप्ति उतनी ही ज्यादा और महत्त्वपूर्ण
होगी।व्यंग्य धर्मशास्त्र की कलाबाजियों से नहीं चलता। वह ज्ञानवान और जानदार चीज़
है। व्यंग्य को अपना सक्षम मार्ग तलाशना पड़ता है। व्यंग्य राजमार्ग नहीं है और न
राजमार्ग बनाने का जरिया। व्यंग्य पगडंडियों, कंटकाकीर्ण स्थानों काँदो-कीचड़ और
अन्य स्थानों से अपनी संघर्ष-यात्रा प्रारंभ करने से नहीं कतराता है। वाह आग, पानी, हवा सब तक पहुंच
जाता है।आख़िर क्यों?
दु:खद पक्ष है कि व्यंग्य अभी भी उच्च वर्गों, मध्यवर्ग, संपन्न वर्गों के
चंगुल में फँसा हुआ है। वह अभी भी गाँव, जवार और कस्बे तक जाने में शरमा रहा
है। वहाँ की समस्याओं से बचना चाहता है। उसने अपनी दिशा नगरों, महानगरों, संस्थानों और
बड़े-बड़े इलाकों तक बनाई है;
लेकिन वहाँ तक नहीं पहुँचा जहाँ
पथरीली, जंगली और पहाड़ी जगह है; जहाँ दिन में जाने से डर लगता है। भला
वह रात के अँधेरे में क्या जाएगा और वहाँ की समस्याओं से कैसे निपटेगा? कुछ अंदरूनी
स्थितियाँ हैं। उसे तय करना है कि यहाँ जाना है। ऐसा नहीं है कि वहाँ विकृतियाँ
नहीं है, विरोधाभास नहीं हैं और अंधविश्वास नहीं हैं। भ्रष्टाचार यहाँ भी
पहुँचा है। राजनीतिक – धार्मिक – सामाजिक नीचताएँ वहाँ पर्याप्त मात्रा में पहुंची हैं। गरीबी और
अशिक्षा तो पहले से थी; अब धर्म और संप्रदाय लगातार हमारी समाज-संरचना को तोड़ रहे हैं।
अहिंसा और सौहार्द के लिए वहाँ जगह कम पड़ रही है; फिर भी कहना यह है कि व्यंग्य को डरना
नहीं आता। व्यंग्य बेचारा नहीं है और डरकर तो वह जी हो नहीं सकता। एक और सच और है
कि बिना कठोरता के, बिना निर्मम हुए सच्चा व्यंग्य संभव नहीं है; क्योंकि उसके भीतर
करुणा की अजश्र धारा है।
प्रश्न नए आने कहाँ पाते हैं? हम शाश्वतता की चपेट में तीन लोक, चौदह भुवनों में ज़्यादा
विचरण कर रहे हैं। शाश्वतता-शाश्वतता का विशाल राग संपूर्ण कैनवास में बिखर गया
है। व्यंग्य का परिक्षेत्र भी विशाल कैनवास में है; इधर साहित्य में ही नहीं, बल्कि व्यंग्य के
इलाकों में भी समय-संदर्भों,
परिवेश में बिखरी सच्चाइयों को अनदेखा
करने का रोग लग गया है। व्यंग्य को सचमुच का व्यंग्य नहीं, भयानक
रीति-रिवाज़नुमा चीज़ मान लिया गया है। स्त्री-विमर्श, दलित-विमर्श, आदिवासी-विमर्श के
स्फुल्लिंग के रूप में कुछ क्षुद्र स्वार्थप्रधान क्रूरतम लोग अपना चेहरा चमका रहे
हैं। जैसे सबके अपने-अपने दु:ख हैं वैसे ही सबके अपने-अपने व्यंग्य हैं। सबकी
अपनी अपनी वास्तविकताएं ओर धाराएं हैं।कभी-कभी व्यंग्य, व्यंग्य की ज़मीन
से उतरकर व्यंग्यनुमा जैसे हो जाते हैं; आदमी नहीं, आदमीनुमा हो जाया
करते हैं; जैसे दुष्यंत ने लिखा था— “इस तरह टूटे हुए चेहरे नहीं हैं/जिस
तरह टूटे हुए ये आइने हैं/.. जिस तरह चाहे बजाओ इस सभा में/हम नहीं हैं आदमी, हम झुनझुने हैं/”
अपनी-अपनी लाइफ है जी। अपना-अपना मुहकमा है जी। अपना-अपना गणित है
जी। सचमुच आनंद आ जाता है अपने-अपने तीर चलाने में। व्यंग्य ने वामन की तरह साढ़े
तीन पैरों के रकबे में सब कुछ नाप लिया था। व्यंग्य भी सब कुछ नापने को कायदे से
तैयार है। इस दौर में हमने ‘बाईपास’ मार्गों से गुज़रना ज्यादा उपयुक्त माना और चयन किया; क्योंकि उसमें समय
कम लगता है। बाहर-बाहर निकल जाने और चाहें तो गर्राते हुए यानी आराम से
घूमने-फिरने की सुविधा है; अब तो ‘बाईपास’ मार्गों की लीला का अचरज भरा संसार भी है। व्यंग्य-लेखन एकदम कूड़ा
तो नहीं माना जा सकता, जैसा कुछ सूरमा टाइप के महारथी हांक लगाते हैं। जैसा कुछ तिकड़मिए
अपना गघरा(गगरा) धर देते हैं और समझ नहीं आता कि इसका लॉजिक क्या है। कूड़ा-करकट
में भी हम आखिर कुछ न कुछ छाँट-छूँट लेते हैं। हाँ, एक बहुत बड़ी जाजिम बिछी है; जिसमें हम अपना सब
अगड़म-बगड़म धरते जा रहे हैं। धरना शायद हमारा शौक या फितरत है। चूँकि सभी विधाओं
में कूड़ा-करकट है; इसलिए व्यंग्य में भी ऐसा स्पेस या एजेंसी सेंटर बना दिया जाए और
क्या यहाँ भी कूड़ा-करकट निस्तारण ठीक-ठिकाने से होता रहे और उसे वाजिब मान लिया
जाए और लिखने वाले हृष्ट-पुष्ट तरीके से लिखते रहें; ताकि कोई जोख़िम न आए। लोग कह रहे हैं
कि हरिशंकर परसाई के समय में भी कुछ व्यंग्य ऐसे भी लिखे जाते थे। मात्रा कम होती
थी इसकी, अब तो ठेके-पर-ठेके और रेले-पर-रेले चल रहे हैं; बल्कि एक अजीब बयार
भी बह रही है। सुविधा के क्षेत्र बढ़ गए हैं और लोग मनमाने ढंग से सुविधा गाँज रहे
हैं और खुशी-खुशी में ये काम सम्पन्न हो रहे हैं। जो भी औना-पौना है, लिख मारो। लिखते
रहो जो जी में आए। पत्रिका में प्रकाशित हो गया तो ठीक; अन्यथा फेसबुक कहाँ
भागा जाता है? कहीं-न-कहीं महत्ता हासिल करने का जुगाड़ ख़ोज ही लिया जाएगा।
इन्फर्मेशन टेक्नोलॉजी की बड़ी जायकेदार दुनिया है। वहाँ कई तरह के स्वप्न सजे हैं।
व्यंग्य तो परसाई के पूर्व भी लिखे जा रहे थे। परसाई के समय को
मानक मानें तो अनेक लोग लिख रहे थे। किसी की चर्चा कम हुई, किसी की ज्यादा।
क्या इसे भाग्य का मामला मान लिया जाए? इतिहास का विधाता ही इसका उत्तर दे
सकता है। जैसे आज़ादी के बाद के 60-65 वर्षों के समय में किए जाने बारे कामों के बारे में धड़ल्ले से कह
दिया जाता है कि सब बेकार था;
सब परम घटिया था या यह भी कि कुच्छौ
नहीं हुआ। रागदरबारी में श्रीलाल शुक्ल ने ज़िंदगी के बहुत बड़े सर्वेक्षण और
परीक्षण के बाद लिखा है— “उन्होंने जो कुछ भी देखा, वह खराब निकला; जिस चीज़ को भी छुआ, उसी में गड़बड़ी आ
गई। इस तरह उन चार आदमियों ने चार मिनट में लगभग चालीस दोष निकाले और फिर एक पेड़
के नीचे खड़े होकर इस बात पर बहस शुरू कर दी कि दुश्मन के साथ कैसा सलूक किया
जाए।”
इस ज़माने की बात कीजिए तो आपको साठ-सत्तर के दशक में पटक दिया
जाता है। कहा जाता है कि हमारी गलतियों पर निशानदेही मत करो। पहले तो सब बेकार और
रद्दी काम हुए हैं। हमीं ने तो अच्छे काम शुरू किए हैं। वे खरीदने में लगे थे; हम सब कुछ बेच रहे
हैं। आखिर बेंचने में क्या दिक़्कत है और जो नहीं बेंच पाए, उसे बेंचने पर
उतारू हैं। आपको क्यों आपत्ति है?
हम भले हैं या बुरे हैं आपको आपत्ति
क्या है? हम आपत्ति से एकदम बाहर हैं। चरित्र, मनुष्यता, आज़ादी, जनतंत्र तो बिक गए।
अब तो रेलवे, बी.एस.एन.एल.,
बैंक और न जाने क्या-क्या बेचना बाकी
है। इसकी लंबी प्रक्रिया चल रही है। जनतंत्र में नहीं बिक सकेगा तो तानाशाही के
रूप में तो बिक ही सकता है। किसी में दम है तो रोक ले। पहले छोटी चीज़ें बेचने का
चस्का था अब बड़े-बड़े कामों में हाथ मार रहे हैं।
व्यंग्य को हम क्या बनाने पर तुले हैं। हम सामाजिक सरोकारों, राजनीतिक सरोकारों
से भाग रहे हैं। यथार्थ हमारे पीछे लट्ठ लेकर पड़ा है और हम धमा-चौकड़ी पर
हिलग-हिलग जाते हैं। मंगलेश डबराल की कविता का एक अंश पढ़ें— “कुछ शब्द चीखते
हैं/कुछ कपड़े उतारकर/घुस जाते हैं इतिहास में/कुछ हो जाते हैं खामोश।” माना कि व्यंग्य को
विधा मान लिया गया है या एक खास ‘स्पिरिट’ अथवा एक ‘जेनुइन मनोविज्ञान’। जब देश का माहौल बन रहा है कि कोई
प्रश्नांकन करे तो उसे पाकिस्तान,
खालिस्तान, आतंकवादी और
देशद्रोही के इलाकों में पटक-पटककर मारेंगे। ऊपर से देशद्रोही के संसार में ठोंक
देंगे। इसी तरह के खाते में कइयक चले गए और कइयक छले गए। छल-कपट-प्रपंच का पूरा
शास्त्र चल रहा है। व्यंग्य भी श्रेष्ठता सिद्ध करने में भिड़ा है। परसाई जी के न
रहने पर व्यंग्य का प्रमोशन हो गया है। वह शूद्र से ब्राह्मण या राजा की कोटि में
आ गया है। मुझे लगता है कि व्यंग्य में तो टूल्स या टूलों में कमी नहीं है। हाँ, हमारे विज़न और
मिशन में डाका पड़ गया है तो कोई क्या करे? इसलिए व्यंग्य चपेट में आ गया है। हम
हर बार राष्ट्रीय मुहावरों में गिर पड़ते हैं। जैसे भू-स्खलन होता है, कुछ उसी तरह
व्यंग्य का भी स्खलन होगा तो कौन-सा महाभारत अशुद्ध हो जाएगा। व्यंग्य लोगों के
मनोविज्ञान में कई तरह से जंप लगाता है। व्यंग्य के बारे में कहा-सुनी और
लिखा-पढ़ी एक लंबे अरसे से हो रही है। अब तो नागरिकता में उसे फँसा दिया गया है।
जिनका नाम व्यंग्य के गजेटियर में नहीं है; वे शायद ठीक-ठिकाने से बोलने-बताने के
यानी बतरस के अधिकारी भी नहीं है। व्यंग्य में जो अरसे से हाथ-पैर मार रहें हैं
उनका हक़ बनता है कि उन्हें महत्त्व मिले; उन्हें पुरस्कार-उरुसकार भी मिलना
चाहिए। व्यंग्य की स्वीकार्यता और नागरिकता से पहले ही वे बर्खास्त हो चुके हैं।
जो बर्दाश्त हो गया उसकी क्या बात है; उसकी औकात ही क्या? व्यंग्य के इलाके
में शायद वैदग्ध्य, विडंबना, विसंगति, कटाक्ष, अंतर्विरोध, भर्त्सना, आक्षेप और न जाने क्या-क्या आता है। हाँ, नहीं आती तो
जनपक्षधरता, जनसरोकर और न जनसंबद्धता। ये एकदम वाहियात चीज़ें हैं। कुछ कहनवीर
कहते हैं कि इन्हें व्यंग्य की दुनिया से विदा कर देना चाहिए।
व्यंग्य की पद्धति एक प्रकार की नहीं होती और न हो सकती; न होनी चाहिए। कभी
वह अकड़ता है; कभी विनम्र होता है। कभी-कभी उसकी भंगिमा में जीवन की तमाम ग़लत
सीवनों को उधेड़ने का भी माद्दा होता है; लेकिन उसकी वास्तविकता समय-समाज को
सुधारने की होती है और उसकी धारा में करुणा की महती भूमिका होती है। व्यंग्य का
बंधान लोग अपने-अपने हिसाब से करते हैं। बंधान में इसे नई तरह से तलाशना पड़ता है।
अस्सी कहानियाँ पुस्तक में इशारा है कि “दरिद्रता का नृत्य देखते-देखते, कभी मेरे नेत्रों
के सम्मुख सड़कों में पड़े अधमरे,
अंधे, लंगड़े-लूले और भूखे-भिखारियों के
चित्र फिरने लगते। मैं तड़पने लगता। मेरा दम घुटने लगता। मैंने मन में फिर कहा
दरिद्रों के लिए क़ानून क्यों नहीं बनाया जाता कि उनको फाँसी दे दी जाए, बस उनके कष्टों का
एक साथ ही अंत हो जाए।” (तीन सौ दो, पृष्ठ-145)
इन सभी बातों पर संवाद और विचार-विमर्श होना चाहिए; कोई मनमानी टिप्पणी
नहीं। किसी तरह की धक्का–मुक्की भी नहीं। कायदे से तर्क-वितर्क कीजिए। संवाद कीजिए। यहाँ
तो लोग चरित्र का चीर-हरण करने में जुट जाते हैं। द्रौपदी के चीर-हरण की तरह सब
कुछ स्वाहा करने में जंपिंग करने लगते हैं। हम सभ्यता-संस्कृति का उत्खनन कर रहे
हैं। कुछ-न-कुछ तो निकल ही आएगा। न निकलेगा तो निकाल लिया जाएगा। सब बाएँ हाथ का
खेल है। किसी की इज़्जत नीलाम नहीं की जा सकती। व्यंग्य की प्रकृति, सीमा और उसकी
कार्यवाही के संदर्भ में भी इसे जानने-पहचानने का प्रयत्न होना चाहिए। व्यंग्य
कोई लोक-लुभावन चीज़ नहीं है और न कोई पैतरेबाज़ी। वह सामाजिक सच्चाइयों का आईना
भी है और समाज को दुरूस्त करने की प्रक्रिया भी। अनुरोध किया जा सकता है कि व्यंग्य
को सही-सही नागरिकता मिलनी चाहिए और उसकी स्परिट को भी मद्देनज़र रखना चाहिए।
यहाँ मनमानी हाँक नहीं चलेगी और न किसी तरह की गाँजा-गाँजी। व्यंग्य के नाम पर कुछ
भी गाँजने को लेकर लोग चौकन्ने हैं। जनतंत्र की तरह व्यंग्य तंत्र में क्या इसी
तरह चलना चाहिए।
प्रश्न है कि क्या व्यंग्य सत्ता की मार्केटिंग का जुड़वा भाई
बनकर ही जिएगा। लोगों में कहने का साहस नहीं है कि हमारा यही सच है। व्यंग्य से
उत्तरदायित्वबोध का गायब होना,
कई तरह के प्रश्न खड़ा करता है।
रचनाओं में सब बड़े आराम से धकाया जा रहा है। क्या दोनों ने न सुधरने की प्रतिज्ञा
कर ली? सहमति के घोषणा पत्र जारी हो रहे हैं। जब सत्ता नहीं सुधर सकती तो
क्या व्यंग्य को सुधरना ही चाहिए?
अब तो लगता है कि व्यंग्य को सत्ता के
साथ रहने में मजा आता है। वहाँ संभावनाओं के बड़े-बड़े मचान हैं। कहते हैं कि भक्त
भगवान के चाहने पर बड़ा भी हो जाता है; जैसे आजकल चिरकुटिए कोई भी बड़ा पद
झटक लेते हैं। वे कुलपति हों या राज्यपाल या किसी अकादमी या संस्थानों में या
पीठों में बड़े आराम से पदायमान हो जाते हैं। इससे इन पदों को भी शर्म आने लगती है
कि आखिर हमारा निर्माण ही क्यों किया गया था? क्या इसी तरह के दिन देखने को बदे थे? क्या हमारे भाग्य
में यही गुदा था? अब हम चिरकुट-लीला के युग में हैं और खालिस मन के तंत्र में और
मज़े से मन की बातें फटकार रहे हैं और राहत का पेटेंट बनाकर टहल रहे हैं।
देश-कल्याण के खाते में कुछ भी औना-पौना हो सकता है। हम किस ढैया के चक्कर में आ
गए? किस साढ़े-साती में और न जाने किस ढाई-सवा-पाँच यानी पौने आठ की
दुनिया में हिलग गए हैं? व्यंग्य अब वो व्यंग्य नहीं है। जिसकी बहुत बड़ी प्रतिष्ठा होती
थी।
हमारा समूचा वातावरण या देशकाल गंधायमान न होकर गमकायमान हो रहा
है। हम तरह-तरह के जीवी होने की कोटि में आ गए। हम वास्तव में साँसजीवी लोग हैं।
ख़तरा यह पैदा हो गया है कि जिस तरह प्लेटफार्म टिकट दस रुपए से तीस रुपए हो गया
है; उसे इतनी क़ीमत पर भी शर्म नहीं आती। रसोई गैस ने एक हज़ार से ऊपर
का आँकड़ा पार कर लिया। पेट्रोल-डीजल न जाने कहाँ जाकर मुकाम हासिल कर पाएँगे? वैसे सौ से बाहर
चले गए; लेकिन अभी भी शर्म प्रूफ होकर कीमतें बढ़ाकर जीना चाहते हैं।
सीएनजी ने भी अच्छी-खासी छलाँग लगा रखी है। इस हालत में कहने को आख़िर बचा ही क्या
है? अपने दल से एबाउट टर्न होकर विधायक-सांसद करोड़ों रुपए के आँकड़े
पार कर चुके हैं। कहीं ठहरने का नाम नहीं ले रहे; तब क्या कहा जाए? जब सरकारी खाते में
ऐसा हो रहा है तो प्रायवेट थिंकिंग और मार्केटिंग में न जाने क्या–क्या होगा? यदि प्लेटफार्म
टिकट की यह क़ीमत रखी गई है तो तय है कि जीने के लिए साँस लेना अनिवार्य है। यदि
उसमें टैक्स लगा तब तो जिसके पास पैसा है वही जी पाएगा; क्योंकि बिना साँस
के जीना मुश्किल है।
यह जीवी होने का भी युग है। जैसे पहले स्वतंत्रता आंदोलनजीवी हुआ
करते थे; फ़िर जनतंत्रजीवी हुआ करते थे और अब स्वच्छता अभियानजीवी, सत्ताजीवी, मीडियाजीवी और
कारपोरेट घरानाजीवी के नए-नए चश्में ईजाद हो गए हैं। पहन सको तो पहनो और चाहो तो
परजीवी या परमजीवी हो जाओ बुद्धिजीवी की तरह। अब जीवी-ही-जीवी दिख रहे हैं। नज़ारा
यह है कि कुछ विद्याजीवी, कुछ नौकरीजीवी कुछ संसारजीवी और कुछ वोटजीवी; उसी तरह
व्यंग्यजीवी भी होने लगे। क्या फ़र्क पड़ता है? जीवी होने में जो मज़ा है वह और कहाँ।
शब्दों की महिमा इसी तरह बढ़ती है। शब्द फेंक दिए जाते हैं। कभी वे चलने लगते
हैं; कभी दौड़ने और कभी-कभी वे धमकाने भी लगते हैं। जब शब्द उछाले जाते
हैं तो कुछ शब्दों के मरणासन्न होने का खतरा बढ़ जाता है; जैसे आज के दौर में
नैतिकता और मूल्य मरणासन्न भी हो गए और अपना टोपा औंधाए कुमारी लड़की की नाजायज
कोख छिपाए सन्न हैं। सारा मामला झन्न-फन्न है?
पूरे देश में असमंजस है; उसी तरह व्यंग्य में भी। व्यंग्य
आसमान से तो उतरता नहीं। उसे भी इसी धरती में जीना है; इसमें आख़िर हर्ज़
क्या है? व्यंग्य के बारे में लल्लन अच्छे-खासे चिंतित हैं। उनका मानना है
कि जिनमें असमंजस का भुतहा संसार है वो व्यंग्य क्या? साहित्य संस्कृति
के इलाके में न आएँ और न वे छोटी-छोटी चिफलियाँ लगाएँ। वे पता नहीं होने देना
चाहते हैं कि वे किसके साथ हैं। वे अपने लिए कोई दूसरा क्षेत्र चुन लें। व्यंग्य
में क्यों अधमरे हो रहे हैं। व्यंग्य ठहरा जिम्मेदारी का काम। उसमें भड़ैती नहीं
चला करती। वे चाहें तो हल्के-फुल्के ढंग से हँसने-हँसाने का भी काम कर सकते हैं।
हास्य वगैरह वगैरह लिखें। सत्ता की चौपड़ बिछी है; उसी में अपना मन रमा लें। ग़लत चीज़ों
के लिए प्रतिरोध और जनता के प्रति जिनमें न तो जिम्मेदारी है और न उसके परिवर्तन
का ध्येय है वे यहाँ क्यों वाहवाही में उछल-कूद कर रहे हैं और व्यंग्य को प्रशंसा
में ढालने पर जुटे हैं। यह दौर मनुष्यता के वध करने का, मूल्यों की होली
खेलने का समय है। यह दौर तानाशाहियत का और क्रूरता का समय है। कभी हिरोशिमा
हत्याकांड एक बार हुआ था; अब लगातार है। हजारीप्रसाद द्विवेदी का एक निबन्ध है- ‘नाखून क्यों बढ़ते
हैं?’ “मुझे ऐसा लगता है कि मनुष्य अब नाखूनों को नहीं चाहता। उसके भीतर
बर्बर युग का कोई अवशेष रह जाए,
यह उसे असह्य है। लेकिन यह भी कैसे
कहूँ, नाख़ून काटने से क्या होता है? मनुष्य की बर्बरता घटी कहाँ है; वह तो बढ़ती जा रही
है। मनुष्य के इतिहास में हिरोशिमा का हत्याकांड बार-बार थोड़े ही हुआ। यह तो उसका
नवीनतम रूप है।
“समझा जाना चाहिए कि
व्यंग्य का काम करुणा भर नहीं है। विसंगतियों, विद्रूपताओं, विडंबनाओं, अंतर्विरोधों को
उजागर करना भी है। व्यंग्य पहले शूद्र हुआ करता था अब वह राजा हो गया है और
कुर्सीधारी भी। वह लपू झन्ना की तरह दौड़र हा है। इसलिए व्यंग्य हर तरह का अधिकारी
भी हो गया है। जिस दिन व्यंग्य शास्त्र बन जाता है; मुगालते में झूलने लगता है; उस दिन वह प्रतिरोध
से अलग होकर, लोक से अलग होकर,
जय-जयकार की कोटि में आ जाता है।
दरअसल व्यंग्य, विज़न एवं सच्चाई का भी मामला है। अब तो वह खद्योत सम जहँ त करहि
प्रकाश हो गया है। कभी-कभी वह झलक दिखला जा के खाते में शामिल हो जाता है।
धीरे-धीरे वह सुविधाजीवी और सत्ताभोगी और अपर श्रेणी में पदार्पण कर चुका है। अब
तो नागरिकता घायल है और उधर किसान घायल हो रहे हैं। उसके वध की तकनीकें विकसित की
जा रही है।
व्यंग्य नाउम्मीद की उम्मीद नहीं है। उसका रंग क्रमशः बदरंग हुआ
है। सचमुच व्यंग्य किस इलाके में आ गया है; जहाँ कीर्तन-भजन की लीलाएँ जारी हैं।
एक समय में व्यवस्था उससे काँपती थी या भयभीत होती थी; अब वह स्वयं
व्यवस्था हो गया है या ढल चुका है। उसके बड़े-बड़े खाते हैं। किसी ने कहा है कि
उसका काम हाथ बाँधने की मुद्रा में आ गया है। इस दौर में वह खरे सिक्के के रूप में
टनटना नहीं सकता; इसलिए उसे खोटा होने में ही आनंद है। वह पुरस्कार और पदवियाँ
पीटेगा और सत्तानसीन लोग व्यंग्य को नीचे पटककर हास्य के इलाके में ठेल देंगे। जब
से असली नकली हो गए और नकली असली बन गए तब से शत्रु-मित्र में फ़र्क नहीं बचा। डाकू
पहले बीहड़ों में रहते थे; अब शहरों में,
बड़े-बड़े इलाकों में पाए जाते हैं।
वे अब तो कहीं भी मिल सकते हैं। अपराधियों, गुंडों, तस्करों, हत्यारों का गिरोह
आश्चर्य जनक तरीके से वैधानिकता पा चुका है। वह आगे मठों में, संसद में और
सांस्कृतिक फिज़ाओं के सूरमाओं में मिलने लगा है। जब से संसद के बारे में धूमिल ने
कहा है कि— “संसद/देश की धड़कन को/प्रतिबिंबित करने वाला दर्पण है/जनता से/जनता
के विचारों का/नैतिक समर्पण है/लेकिन क्या सच है/अपने यहाँ संसद तेली की वह घानी
है/जिसमे आधा तेल और आधा पानी है।”
व्यंग्य को बेचारी मिमियाती बकरी बना दिया गया है; जिसे कारपोरेट और
अन्य आखेटक चाहे जहाँ हलाल कर सकते हैं। कुछ के लिए व्यंग्य घर की मुर्गी है; जिसकी क़ीमत दाल
बराबर बनाई जा रही है। कोई आश्चर्य नहीं करना चाहिए जब पेट्रोल डीजल के इंजेक्शन
लगेंगे और उसी से लोगों के ज्ञान चक्षु खुला करेंगे और उनकी आत्मा टकसाली हो
जाएगी। व्यंग्य का कारोबार होगा और वह नए ज़माने में वर्ग-शत्रुओं के साथ हमजोली
होकर मुक्तिबोध का डोमा जी उस्ताद हो जाएगा। हे व्यंग्य, तुम्हारी जय हो।
कुछ हस्तियाँ व्यंग्य को चाटुकार बनाये जाने का खेल खेल रही है। परसाई जी ने सच
ही कहा है कि “मेरी आत्मा तू ही बता/क्या गाली खाकर मैं ईमानदार बना रहूँ।” (पगडंडियों का
जमाना)
हे महान क्रांतिकारी व्यंग्य! तुमने अपना क्या हाल बना रखा है? तुम वास्तविकता, भंडाफोड़, विसंगति के इलाके
से बाहर निकल आए। इस समय अपनी तमाम आदतें बदल रहे हो। तुम समय के सुलगते-धुँधुआते
सवालों के बरअक्स शासकीय भूमि में प्रवेश कर रहे हो। सत्ता के गलियारों में
गलबहियाँ डाले घूमने लगे; अपना साम्राज्य जमाने लगे और अपनी छटा बिखेरने में जुट गए। अब
किसान आंदोलन में लंगोटी वाले किसान नहीं हैं और न हाथ बाँधकर गिड़गिड़ाने वाले
ही। इसलिए सत्ता उन्हें किसान क्यों माने? किसानों को मरभुक्खा होना चाहिए।
सत्ता वह जो बड़े-बड़े हवाई विमान खरीदे; दिन-रात विदेशों में उड़ती रहे और
अक्सर देश के नागरिकों की छाती पर लैंड करती रहे। इस युग में नैतिकता और मनुष्यता
के निकलते अस्थि-पिंजर से मुटमुटाकर चमकति, चमकत:, चमकन्ति हो जाए।
संवाद से व्यवस्था की सेहत और गुमान दोनों को धक्का लगता है और ठेस
भी पहुँचती है। इसलिए संवाद से हमने त्यागपत्र दे दिया। धीरे-धीरे जनतंत्र की
हत्या करना परम पुण्य का काम माना जाना लगा है। आत्मनिर्भरता का हाल यह है कि जो
आत्मनिर्भर नहीं होगा या किसी के भरोसे पर रहेगा चाहे वह व्यवस्था हो या कोई और
तो उसका जीना संभव नहीं हो पाएगा;
लेकिन बुद्धन है कि मानता ही नहीं। वह
कहता है कि अब परजीवी होने पर सुख है, ऐसा बड़े-बड़े लोग कह रहे हैं। हमारे
पास न जाने कितने सारे शब्द यात्रा कर रहे हैं। मसलन किसानजीवी, बलात्कारजीवी, असहमतिजीवी नाम के
अनेक पद निर्मित हुए हैं। वामजीवी, मध्यजीवी की तरह दक्षिणजीवी का भी
उत्तरोत्तर विकास हुआ है। अब तो दक्षिणजीवी सबकी छाती पर मूँग दल रहे हैं।
हमें मानना चाहिए कि व्यंग्य लगातर एक तलाश है; जैसे हमारे जीवन
में हर तरह की तलाश जारी रहती है। जिस तरह ज़िंदगी सहज नहीं होती उसी तरह व्यंग्य
की धार एक जैसे नहीं होती। कभी उसमें विडंबना होती है, कभी विदग्धता, कभी उपहास। इसलिए
शायद व्यंग्य को व्यंग्य की दुनिया से बाहर आकर चारण बन जाना ही ‘श्रेयस्कर’ लगा होगा। जब
नागरिकता ऑन लाइन हो, प्रेम ऑन लाइन हो तो व्यवस्था और सत्ता को ऑनलाइन होकर सबको ठोंकना
होता है। उसकी नज़रें ऐसे ही इनायत नहीं हो सकती; इसलिए व्यंग्य व्यंग्य न रहा। जनतंत्र
जनतंत्र न रहा, आज़ादी आज़ादी नहीं रही। हम व्यंग्य की असामयिक मौत पर कुढ़ सकते
हैं; अंदर से हिल सकते हैं। जिन्होंने तथाकथित ‘व्यंग्य’ का साम्राज्य खड़ा
कर लिया है उनसे कुछ कह नहीं सकते। व्यंग्य ने अपनी धार को योग में, बाबा-आश्रमों में, कारपोरेट-घरानों
तथा सत्ता-व्यवस्था के पास गिरवी रख दिया है; ताकि व्यंग्य किसी-न-किसी तरह
सुरक्षित बचा रहे जान है तो जहान है की स्टाइल में।
इस दौर में शायद हरिशंकर परसाई होते तो हींग-हल्दी बेंच रहे होते; श्रीलाल शुक्ल अंगद
का पाँव न रखकर सचमुच राग दरबारी गा रहे होते; शरद जोशी यथासंभव न होकर परासंभव हो
गए होते। नाम बहुत हैं; हम लोग उनकी तासीर जानते हैं। पुराने व्यंग्यकारों की आत्माएँ
अपने-अपने हुनर के साथ चारणजीवी हो गए होते और सत्ता की सहमति में साढ़े पाँच किलो
का मूँड़ मटका रहे होते। कभी-कभी मुझे लगता है कि क्या व्यंग्य बूढ़ा हो गया है।
बूढ़ा न भी हुआ हो तो बुढ़भस हो ही गया है। उसकी हालत भी शिक्षा जैसी हो गई है कि
जो भी आता है उसे चार लात लगाता है। प्रयोग-पर-प्रयोग ठोंके जा रहे हैं।
प्रतापनारायण मिश्र का एक अंश पढ़ें— “घर की मेहरिया कहा नहीं मानती, चले हैं दुनिया भर को
उपदेश देने, घर में एक गाय नहीं बाँधी जाती, गोरक्षा की सभा स्थापित करेंगे, तन पर एक सूत देशी
कपड़े का नहीं है, बने हैं देश हितैषी, साढ़े तीन हाथ का शरीर है, उसकी उन्नति नहीं
करते, देशोन्नति पर मरे जाते हैं।
(लेखक रीवा मध्य प्रदेश के जाने माने साहित्यकार और आलोचक हैं, निवास- रजनीगंधा-06, शिल्पी उपवन, अनंतपुर ,रीवा (म.प्र)-486002)
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