श्री Kailash Mandlekar समकालीन हिंदी व्यंग्य का जाना-पहचाना नाम है। शिवना प्रकाशन सीहोर से उनका सातवाँ व्यंग्य संग्रह 'धापू पनाला' शीर्षक से प्रकाशित हुआ है। व्यंग्य लेखन में कैलाश जी अपनी तरह के अलहदा व्यंग्यकार हैं। विगत 30 वर्षों से सृजनरत उन्होंने अपने व्यंग्य लेखन का एक अलग मौलिक मुहावरा अर्जित किया है। मण्डलेकर जी पठनीय और सरल-सहज भाषा शैली में व्यक्त होने वाले मध्यमवर्गीय ग्रामीण और कस्बाई जीवन के प्रवक्ता हैं। कैलाश मण्डलेकर अपने लेखन के जरिये मानो व्यंग्य विधा को प्यार करते हैं, उसे दुलारते हैं, सहलाते हैं और पूरी सामर्थ्य के साथ अभिव्यक्ति का सशक्त माध्यम बनाकर पाठक के सम्मुख पेश होते हैं। वे परिदृश्य की चांव-चांव से इतर साहित्य को जीने वाले लोगों में से हैं। एकसाथ बेख़बर और बाख़बर। उनके व्यक्तित्व और कृतित्व से गुजरकर आप पाएंगे कि सच्चे अर्थों में वह व्यंग्य की 'अजातशत्रु परंपरा' के अनुयायी हैं।
'धन्य है आम आदमी' वरिष्ठ व्यंग्यकार Farooq Afridy Jaipur का दूसरा व्यंग्य संग्रह है जिसमें आपके 41 व्यंग्य शामिल किए गए हैं। इसे कलमकार मंच जयपुर द्वारा प्रकाशित किया गया है। पत्रकारिता के क्षेत्र से जुड़े होने के कारण फारुख जी समसामयिक विषयों पर अपनी कलम चलाते रहे हैं। यह कलम व्यंग्य का आश्रय पाकर और पैनी हो उठती है। परिवेशगत विसंगतियों की पहचान करना आपको बखूबी आता है। कई बार वह बहुत छोटे से विषय को उठाकर उसके इतने सृजनात्मक कोण दिखाते हैं कि पाठक वाह किए बगैर नहीं रह पाता।
कुछ लेखक
लंबे समय से रच रहे हैं परंतु वह अपने किताब प्रकाशन के प्रति उदासीन रहे हैं। Ram Swaroop Dixit ऐसे ही व्यंग्यकारों में से एक हैं। उनका
पहला व्यंग्य संग्रह 'कढ़ाही में जाने को आतुर
जलेबियाँ' India
Netbooks नोएडा ने
प्रकाशित किया है। इससे पहले दीक्षित जी लगभग सभी प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में
प्रकाशित होते रहे हैं। कई साझा संकलनों में वे नज़र आये हैं परंतु स्वतंत्र रूप
में यह उनका पहला व्यंग्य संग्रह है। व्यंग्यधरा मध्यप्रदेश से ताल्लुक रखने वाले
रामस्वरूप दीक्षित व्यंग्य की गहरी समझ रखने वाले रचनाकारों में से हैं। व्यंग्य
किन उद्देश्यों को लेकर संचालित होता है, उसके
सरोकार, उसकी भाषा, उसके तेवर इन्हें लेकर वे हमेशा सजग दिखते हैं। इस संग्रह के
ज्यादातर व्यंग्य सामाजिक और साहित्यिक विसंगतियों को लेकर लिखे गए हैं। व्यक्ति, साहित्य और समाज उनके व्यंग्य चिंतन के केंद्र में हैं।
अविलोम प्रकाशन मेरठ से व्यंग्यकार Nirmal Gupta का व्यंग्य संग्रह ‘बतकही का लोकतंत्र’ इस साल के एकदम आखिर में छपकर आया | साहित्य जगत में निर्मल गुप्त की पहचान एक कवि के रूप में अधिक है। यह कवि जब व्यंग्य की दुनिया में प्रवेश करता है तो उसका अलग ही रूप सामने आता है। दोनों ही विधाओं में उनकी समान गति है। भाव-भाषा-शिल्प हर दृष्टि से वे एक सक्षम रचनाकार सिद्ध होते हैं। आपके इस नए व्यंग्य संग्रह 'बतकही का लोकतंत्र' में पाठक को बतकही संग एक अलग व्यंग्य रस का आस्वाद मिलता है। इन व्यंग्य रचनाओं की प्रस्तुति केवल विसंगतियों को सामने लाने का कोई इरादा भर नहीं है, बल्कि सभ्यता के प्रश्नों के आलोक में समाज, राजनीति, व्यक्ति और आधुनिकता के प्रति एक मोह रहित सतर्क आलोचनात्मक दृष्टि है। निर्मल गुप्त की व्यंग्यात्मक रचनाशीलता की कई ऐसी खूबियां हैं जो उन्हें उनके समकालीनों के बरक्स अलग खड़ा करती है। वे कई बार भाषिक सौंदर्य से विकृति की बहुरंगी आकृति बनाते मिलते हैं तो कहीं विषय से खेलते हुए अचानक आईना दिखा जाते हैं। उनके पास साहित्यिक अभिव्यक्ति को बरतने का वह सलीका है जो दिनोंदिन दुर्लभ होता जा रहा है। यह तमीज़ उन्हें बैठे-बिठाए नही मिल गयी बल्कि इसे उन्होंने लम्बे समय के अपने अध्ययन और अनुभवों से अर्जित किया है। इनकी रचनाधर्मिता से गुजरते हुए आप पाएंगे कि वे परंपरा और आधुनिकता का सुंदर समन्वय प्रस्तुत करते हैं। जितनी चिंता उन्हें रचने की सार्थकता की है उतनी ही चिंता उनमे वैचारिक अनुशासन की भी है। वे जितने कोमल अपनी कविताओं में हैं उतने ही निर्मम अपने व्यंग्यों में। सिक्के के यह दो पहलू निर्मल जी के कृतित्व को समग्रता प्रदान करते हैं। इस संग्रह की रचनाओं में लेखक बतकही की व्यंग्य मुद्रा में पाठक को कठोर यथार्थ के उस सत्य के दर्शन कराता मिलता है जिन प्रवृत्तियों से वह दिन-प्रतिदिन बावस्ता होता है लेकिन फिर भी न जाने क्यों चेतना के स्तर पर उसके स्याह पक्ष से अनभिज्ञ सा रह जाता है। इन्हें पढ़ते हुए उसका दिलोदिमाग गुंजायमान हो उठता है। दर्द की ऐसी मीठी दवा व्यंग्य के अलावा कौन सी विधा हो सकती थी भला। इस प्रकार निर्मल गुप्त समकालीन हिंदी व्यंग्य के वृत्त का अनिवार्य हिस्सा बन जाते हैं जिनके जिक्र के बगैर कोई भी व्यंग्य चर्चा अधूरी कही जाएगी।
भारतीय ज्ञानपीठ से सद्यः प्रकाशित व्यंग्य संग्रह 'भीड़ और भेड़िये’ हिंदी के प्रवासी व्यंग्यकार Dharm Jain का चौथा संग्रह है। एक सौ छत्तीस पृष्ठोंवाले चौथे संग्रह की पहली विशेषता तो यही है कि यहां व्यंग्य की विविध छटाएं हैं। इस संग्रह में वे विषयगत विविधता के साथ नई सामाजिक राजनीतिक चेतना तथा नया सौंदर्यबोध लेकर सामने आए हैं। जो सामने हैं, जो आसपास का जीवन है है, उनका विषय है। आस-पास घटित होती बातों को लेकर उनकी व्यंगात्मक प्रतिक्रिया कई बार बहसतलब हो उठती है। अमूमन प्रवासी लेखक भाषायी तौर पर उतने सशक्त नही दिखते। सुविधासम्पन्न जीवनशैली अक्सर उनकी भाषा को कृत्रिम बना देती है। धर्मपाल जैन की रचनाशीलता मेरी इस धारणा को खंडित करती है। उनकी भाषा मे वैसा बनावटीपन नज़र नही आता। वे अत्यंत सहजता और आत्मीयता से पाठक के निकट जाते हैं। परसाई के प्रति उनका प्रेम हद दर्जे तक है। जिसका प्रभाव उनके व्यंग्य लेखन पर स्पष्ट देखा जा सकता है। उनका लेखक जब देखता है कि आज समूची की समूची हिंदी पट्टी जातियों में बंट गई है और देश के कई हिस्सों में धर्म और सांप्रदायिकता के आधार पर समाज को बांटने की कोशिश हो रही। वह व्यंग्य के माध्यम से व्यवस्थागत खामियों में सुधार की अपेक्षा करता है। धर्मपाल के व्यंग्यकार की नजर उन कोनों अंतरों में भी जाती है जिसकी प्रायः अनदेखी कर दी जाती है। हाशिए के समाज के उत्थान की भावना उनके व्यंग्य को उद्देश्यपूर्ण बनाती है। आज के व्यंग्यकार के जीवन मूल्य कबीर जैसे नही हैं। अपने हित साधन में वह कदम कदम पर अपनी कलम से समझौता करता है। आज का लेखक सत्ता की शोषक प्रवृत्तियों के विरुद्ध मौन अपना लेता है। इसलिए व्यंग्य की मारक क्षमता प्रभावित हुई है। आजकल वैसे भी सुरक्षित व्यंग्य लिखने का प्रचलन बढ़ गया है। धर्मपाल जैन इस खतरे को साहस के साथ उठाते हैं। वे बेफिक्र होकर लगभग सारे परिदृश्य की व्यंग्य परिक्रमा कर डालते हैं। कोई भी गोरखधंधा उनकी तीसरी आंख की जद में आने से से बच नही पाया है।
Kamlesh Pandey कम लेकिन गुणवत्तापूर्ण लेखन का उदाहरण प्रस्तुत करते हैं। Shivna Prakashan सीहोर से प्रकाशित 'डीजे पे मोर नाचा' कमलेश पांडेय का पाँचवां व्यंग्य संग्रह है। यह संग्रह इक्यावन व्यंग्य रचनाओं से सजा हुआ है। इन व्यंग्यों में आज के जीवन की मार्मिक स्थितियों की चित्रोपम उपस्थिति है। जीवन के व्यापक संदर्भ तथा समकालीन घटनाओं से यह व्यंग्य सीधा सामना करती दिखते हैं। अनेक जगह वैश्विक घटनाक्रम पर भी व्यंग्यकार की सहज दृष्टि है। पूरे संकलन की रचनाओं में उनकी अपनी यह पहचान लक्ष्य की जा सकती है। कहीं कहीं वे एक नया सौंदर्यशास्त्र रचती लगती है। उनकी भाषा प्रचलित और चलताऊ भाषा से बिल्कुल भिन्न है। बहुधा वह हिंग्लिश की छाती पर वह जिस तरह से व्यंग्य का अंगद पाँव रखते हैं, उसकी छटा देखते ही बनती है। कमलेश पच्चीकारी के नहीं रवानगी के लेखक हैं। वह संश्लिष्ट यथार्थ और गहन विचारबोध के अनूठे व्यंग्यशिल्पी हैं। प्याज की फांकों की तरह इनके व्यंग्य परत दर परत खुलते चलते हैं। वे पाठक को अचानक हंसाते हुए रुला जाते हैं। कमलेश विसंगतियों के पोस्टमार्टम करते वक्त परिवेशगत खूबियों को बड़ी कुशलता से व्यक्त करते है। देश की आर्थिक नीतियों के वे रचनात्मक आलोचक हैं। ऐसी गतिविधियों में समाए लूपहोल्स के चित्र यहाँ अति सामान्य हैं। वह बाज़ार और विज्ञापनी दुनिया के अतिवाद की चुनौतियों से निपटने की तैयारी में ग्राहक को लगातार जगाने की कोशिश करते दिखाई देते हैं | आर्थिक मामलों जैसे बेहद महत्वपूर्ण लेकिन व्यंग्य की नज़र से नीरस संभावनाओं वाले विषयों पर पूरे अधिकार के साथ लिखने वाले लेखकों में आलोक पुराणिक के बाद उनका नाम ही जेहन में आता है। वे एक कुशल गोताखोर की तरह विषय की तह तक जाते हैं, केवल ऊपर ऊपर तैरते नही रह जाते। एक संवेदनशील मानवीय समाज की सतत तलाश उनके व्यंग्य लेखन की मूल भावना है।
अपने समकालीनों में पहली पंक्ति के व्यंग्यकार Arvind Tiwari व्यंग्य के छोटे-बड़े दोनों प्रारूपों में कलमप्रवीण हैं। आधुनिक जीवन की विसंगतियों और परिवेशगत यथार्थ का जितना सजीव चित्रण उनके व्यंग्य संसार में है वह अन्यत्र दुर्लभ है। लगभग तीन दशकों की अपनी व्यंग्य यात्रा में उन्होंने व्यंग्य का निजी मुहावरा रचा है, अपनी कृतियों के जरिये व्यंग्य का नया सौन्दर्यशास्त्र विकसित किया है और वस्तु के अनुरूप व्यंग्य भाषा को ढाला है। गहरे अर्थों में वे हमारे समय के एक समर्थ और सभ्यतालोचना के व्यंग्यशिल्पी हैं। इंक पब्लिकेशन प्रयागराज से प्रकाशित 'एक दिन का थानेदार' आपका नया और दसवां व्यंग्य संग्रह है। आपके इस संग्रह में राजनीतिक, सामाजिक विडंबनाओं पर धारदार व्यंग्य तो हैं ही लेकिन साहित्यिक विसंगतियों की छानबीन अधिक है। अरविंद तिवारी अपनी लम्बी और छोटी सभी व्यंग्य रचनाओं में इस नयी दुनिया का भूगोल पूरी तैयारी और बौद्धिक प्रखरता से रचते हैं। साहित्य के माध्यम से व्यंग्यकार पाठकों को शायद जगाकर कहना चाह रहा है कि कितना गलत हो रहा है तुम्हारे आसपास और तुम लम्बी तानकर सोये पड़े हो। इससे पहले कि देर हो जाय, जग जाओ। अरविंद तिवारी के व्यंग्यों में आपको लाउडनेस नहीं मिलती। इनमें आक्रोश की कठोर अन्वितियाँ नहीं हैं। एक सफल उपन्यासकार होने के चलते वे अक्सर व्यंग्य के कथाशिल्प में अनायास प्रवेश कर जाते हैं। जिसकी सरल-सहज व्यंग्यधारा मैं आप बहते चले जाते हैं। अरविंद बार-बार अपनी मौलिक व्यंग्य प्रतिभा से साहित्य जगत का ध्यान खींचते हैं। यह संग्रह भी कुछ ऐसा ही है। इस किताब को पढ़ना अपने विसंगतिपूर्ण समकाल से सीधे साक्षात होना है।
Kitabganj Prakashan से प्रकाशित 'ऐसा भी क्या सेल्फियाना' व्यंग्यकार प्रभात गोस्वामी का तीसरा व्यंग्य संग्रह है। Prabhat Goswami एक बहुमुखी प्रतिभासंपन्न व्यक्तित्व हैं। व्यंग्य में उनकी आमद थोड़ी देर से जरूर हुई पर अब वे निरंतर इस क्षेत्र में सक्रिय हैं। प्रभात गोस्वामी की व्यंग्य रचनाओं को पढ़ते हुए साफ पता चलता है कि बदलते हुए समय पर उनकी नजर हर वक्त बनी रही है। अपने समय से नजर फेरकर लिखना उन्हें बिल्कुल भी पसंद नहीं। उनके लेखन में नए विषय नए कोण से व्यंग्य क्षेत्र में दाखिल हो रहे हैं। व्यंग्य के पक्ष में आपमें मुहावरों और लोकोक्तियों का भी बड़ा बेहतरीन प्रयोग देखने को मिलता है। इनमें क्रिकेटीय अनुभवों के रंग तो है ही साथ ही कहीं-कहीं सरोकारी छींटे भी आप पर पड़ते चलते हैं। अपनी सरल-सहज भाषा-शैली और कथ्यात्मक स्पष्टता से लेखक प्रभावित करता है। वे अपनी तरह से उम्मीद की रोशनी में दुश्वारियों के अंधेरे टटोलने का उपक्रम करते दिखते हैं। आपको क्रिकेट कमेंट्री का एक लंबा अनुभव रहा है जिसका प्रभाव आपके लेखन पर भी देखने को मिलता है। व्यंग्य की कमेंट्री शैली के प्रयोग में आप सिद्धहस्त हैं। प्रभात गोस्वामी विसंगतियों पर हथौड़े की तरह आघात नहीं करते बल्कि प्यार से पुचकारते हुए चांटा मारते हैं।
हिंदी व्यंग्य साहित्य के पाठक व्यंग्य कथा, व्यंग्य उपन्यास और व्यंग्य निबंध परंपरागत रूप में पढ़ते रहे हैं लेकिन व्यंग्य के साथ रिपोर्ताज का दुर्लभ संयोग कभी कभार ही पढ़त में आता है। व्यंग्य रिपोर्टिंग की पहली किताब होने का दावा करती 'पाँचवां स्तम्भ' Jayjeet Jyoti Aklecha का पहला व्यंग्य संग्रह है। जयजीत प्रोफेशन से पत्रकार हैं और पैशन से व्यंग्यकार। पत्रकार और व्यंग्यकार का डेडली कॉन्बिनेशन वैसे भी बड़ा खतरनाक माना जाता है, ऐसे में किसी भी खबर के यथार्थ को कोई रिपोर्टर रचनात्मक रूप से कैसे ट्रीट करता है यह देखना पाठक के लिए एक दिलचस्प अनुभव बन जाता है। उनकी इस पुस्तक के व्यंग्य-रिपोर्ताज मिलकर एक अलग व विश्वसनीय आस्वाद की सृष्टि करते हैं। मैनड्रैक पब्लिकेशन भोपाल से युवा पत्रकार-व्यंग्यकार जयजीत ज्योति अकलेचा का पहला व्यंग्य संग्रह ‘पाँचवा स्तम्भ’ अपने अनूठे कहन के कारण याद किया जायेगा |
कहा जाता है कि विज्ञान की पृष्ठभूमि वाले लेखक कला वर्ग के साहित्यिकों के बनिस्पत अच्छे साहित्यकार होते हैं | व्यंग्यभूमि मध्य प्रदेश की उभरती हुई व्यंग्य लेखिका Anita Shrivastva का अनामिका प्रकाशन से प्रकाशित हुआ पहला व्यंग्य संग्रह ‘बचते बचते प्रेमालाप’ पढ़ते हुए यह बात पूरी तरह से सच होती दिखाई देती है | वैसे तो परिमाणात्मक रूप से व्यंग्य साहित्य में स्त्री लेखिकाओं की आमद बढ़ी है लेकिन आमतौर पर कई सीमाओं में बंद होने के कारण उनका लेखन गुणात्मक रूप में उस तरह से विकसित नहीं हो पाता जैसा कि साहित्यगत कसौटियों की अपेक्षा होती हैं | आमतौर पर वह विचार के तौर पर कमजोर होते हैं या उनमें विषयगत विविधताएँ नहीं होती हैं | उनमें रचनात्मक इकहरापन पाया जाता है या उनमे सामाजिक सन्दर्भों की बहुआयामिकता नही दिखती | वह राजनीति से बचती हैं और हल्के-फुल्के व्यंग्य लिखकर ही संतुष्ट हो जाया करती हैं | लेकिन अनीता अपनी व्यंग्य प्रतिभा से इस क्लीशे को तोड़ती दिखाई देती है वह स्त्री सुलभ सीमाओं को तोड़कर मानो नदी की तरह उमड़ती हुई आगे बढ़ती जाती है | अगर संग्रह से लेखिका का नाम हटा दिया जाए तो आप बता नहीं पाएंगे कि यह किसी महिला व्यंग्यकार का संग्रह होगा | उनके इस संग्रह की अधिकांश रचनाएं गजब की समझ, साहस और आत्मविश्वास के साथ लिखी गई मालूम पड़ती हैं | अनीता सीधी-सरल भाषा शैली से पाठक के मर्मस्थल पर प्रहार करती है | जहाँ अधिकांश व्यंग्य रचनाओं में रम्यता और पठनीयता है वहीं कुछ रचनाओं में एक किस्म का कच्चापन भी है | स्वाभाविकता व निजता का गुण इनकी रचनाओं की अपनी खासियत है | अनीता श्री अपने इस व्यंग्य संग्रह के जरिए समकालीन व्यंग्य पटल पर संभावनाशील व्यंग्य लेखिका के रूप में सशक्त उपस्थिति दर्ज करती हैं | अन्य महिला व्यंग्यकारों में जहाँ एक ओर वरिष्ठ व्यंग्यकार Suryabala Lal का अमन प्रकाशन कानपुर से प्रकाशित व्यंग्य संग्रह ‘पति-पत्नी और हिंदी साहित्य’, वरिष्ठ व्यंग्यकार Snehlata Pathak का इंडिया नेटबुक्स से प्रकाशित व्यंग्य संग्रह ‘लोकतंत्र का स्वाद’ आए तो वहीँ युवा व्यंग्य लेखिका Samiksha Telang का भावना प्रकाशन से व्यंग्य संग्रह ‘व्यंग्य का एपिसेंटर’, प्रीति अज्ञात जैन का प्रखर गूँज पब्लिकेशन से प्रकाशित व्यंग्य संग्रह ‘देश मेरा रंगरेज’ उल्लेखनीय रहा |
सदाबहार
व्यंग्यकार लालित्य ललित के दो व्यंग्य संग्रह इस साल शाया हुए पहला अद्विक
पब्लिकेशन से ‘पाण्डेय जी के किस्से और उनकी
दुनिया’ दूसरा ज्ञानमुद्रा पब्लिकेशन से
‘पाण्डेय जी टनाटन’, अद्विक प्रकाशन से वरिष्ठ व्यंग्यकार Jawahar Choudhary का व्यंग्य संग्रह ‘गाँधी जी की लाठी में कोंपलें’ भी इसी
वर्ष आया | Bodhi
Prakashan जयपुर से युवा
व्यंग्यकार Mohan Lal
Mourya का पहला
व्यंग्य संग्रह ‘चार लोग क्या कहेंगें’, भारतीय ज्ञानपीठ से सक्रिय व्यंग्यकार रामस्वरूप दीक्षित का
व्यंग्य संग्रह ‘टांग खींचने की कला’, Bhavna Prakashan नयी दिल्ली से सुभाष चंदर का व्यंग्य संग्रह
‘माफ़ कीजिये श्रीमान’, ज्ञानगीता प्रकाशन से वरिष्ठ व्यंग्यकार गिरीश पंकज का व्यंग्य
संग्रह ‘मिस्टर पल्टूराम’, किताबगंज प्रकाशन सवाई माधोपुर से रामकिशोर उपाध्याय का व्यंग्य
संग्रह मूर्खता के महर्षि’, नोशन प्रेस से व्यंग्यकार Kundan Singh Parihar का पांचवां व्यंग्य संग्रह ‘महाकवि उन्मत्त की शिष्या’ भी
प्रकाशित हुआ | Sanjeev
Jaiswal Sanjay बाल
साहित्य और व्यंग्य साहित्य दोनों में समान अधिकार रखते हैं | इस विधा में उनकी दो पुस्तकें इस साल प्रकाशित हुईं पहला इंडिया
नेटबुक्स से प्रकाशित व्यंग्य संग्रह ‘लंका
का लोकतंत्र’ दूसरा ज्ञान विज्ञान एडुकेयर से
प्रकाशित व्यंग्य कहानियों का संग्रह ‘यत्र
तत्र सर्वत्र’ अपने मौलिक-यथार्थमूलक कथ्य और
बेबाकबयानी के चलते साहित्य जगत में चर्चित रहा | व्यंग्य
उपन्यास की बात करें तो उनमे गंगा राम राजी का नमन प्रकाशन नई दिल्ली से प्रकाशित
उपन्यास ‘गुरु घंटाल’ का नाम लिया जा सकता है | बाकी
कोई बड़ी कृति मेरी नज़र में नही आयी |
इस
वर्ष प्रकाशित हुए कुछ और उल्लेखनीय संग्रहों की बात करें तो उनमे RV Jangid का इंडिया नेटबुक्स से प्रकाशित व्यंग्य
संग्रह ‘हिटोपदेश’, अपेक्षाकृत कम व्यंग्य लिखने वाले ख्यात कथाकार Pankaj Subeer ने शिवना प्रकाशन से प्रकाशित अपने व्यंग्य
संग्रह ‘बुद्धिजीवी सम्मलेन’ के जरिये इस विधा में अपनी धमकदार उपस्थिति दर्ज की है | वरिष्ठ लेखक बीएल आच्छा का व्यंग्य संग्रह ‘मेघदूत का टीए बिल’, बिम्ब-प्रतिबिम्ब
प्रकाशन से डॉ ब्रह्मजीत गौतम का व्यंग्य संग्रह ‘एक और
विक्रमादित्य’, शब्दशिल्पी प्रकाशन सतना से
युवा लेखक अनिल श्रीवास्तव अयान का पहला व्यंग्य संग्रह ‘लम्पटों के शहर में’, बिहार
से ताल्लुक रखने वाले Birendra
Narayan Jha के तीन
व्यंग्य संग्रह ‘निंदक दूरे राखिये’, ‘दे दे राम दिला दे राम’, ‘आये
दिन ‘फूल’ के’, इंक पब्लिकेशन से टीकाराम साहू आज़ाद का व्यंग्य संग्रह ‘परिपक्व लोकतंत्र है जी’, भावना
प्रकाशन से प्रकाशित युवा लेखक ऋषभ जैन का व्यंग्य संग्रह ‘व्यंग्य के वायरस’, उत्कर्ष प्रकाशन मेरठ से Sanjay Joshi का व्यंग्य संग्रह 'सजग का माइक्रोस्कोप' तथा
आपस प्रकाशन द्वारा ‘संतोष दीक्षित के चयनित व्यंग्य’ शीर्षक से प्रकाशित हुईं |
ऑनलाइन ई-बुक फॉर्म में भी अब किताबें और पत्र-पत्रिकायें आ रही हैं | हिंदी साहित्य के पाठकों के लिए नाट्नल डॉट कॉम ऐसा ही एक लोकप्रिय प्लेटफ़ॉर्म है | चर्चित व्यंग्यकार Anoop Mani Tripathi का तीसरा व्यंग्य संग्रह ‘सोचना मना है’ शीर्षक से इसी फॉर्म में प्रकाशित होकर आया | राजनीतिक-सामयिक विषयों पर अनूप सतर्क दृष्टि रखते हैं | ऐसे विषयों पर लिखने में उनकी कोई सानी नही है | अपनी ज़बरदस्त रचनात्मक प्रतिभा और वैचारिक समझ के कारण वह अलग से पहचाने जाने वाले एक अत्यंत सक्षम व्यंग्यकार दीखते हैं | व्यंग्य संकलन की बात करें तो उनमे प्रो. Rajesh Kumar और डॉ लालित्य ललित द्वारा सम्पादित व्यंग्य संकलन ‘आंकड़ा 63 का’ नाम लिया जा सकता है जिसे निखिल पब्लिकेशन ने प्रकाशित किया |
व्यंग्य
केन्द्रित आलोचनात्मक किताबों की बात करें तो उनमे इंडिया नेटबुक्स नॉएडा द्वारा
प्रकाशित एवं राहुल देव द्वारा संयोजित व सम्पादित ‘आधुनिक
व्यंग्य का यथार्थ’ को साक्षात्कार सह व्यंग्य
विमर्श की पुस्तक कहा जा सकता है | इस
पुस्तक में चुनिन्दा समकालीन व्यंग्यकारों के विचारों के जरिये व्यंग्य आलोचना के
कई जाले साफ होते हैं | विष्णु नागर के व्यंग्य का राजनीतिक
आयाम पर केन्द्रित युवा शोधार्थी Mayank Manni Saroj की किताब बिम्ब-प्रतिबिम्ब प्रकाशन फगवाड़ा पंजाब से प्रकाशित हुई |
व्यंग्य
कविताओं के नाम पर अलग से पहचाने जाने वाली किताबों में अशोक प्रियदर्शी की नोशन
प्रेस से आई किताब ‘हाशिये पर’ तथा संगिनी प्रकाशन कानपुर से प्रकाशित अरुणेश मिश्र की किताब ‘चूँकि आप गिद्ध हैं’ प्रमुख
रहीं | पत्र-पत्रिकाओं में प्रेम जी की 'व्यंग्ययात्रा' के अलावा बात करें तो गुजरात से
निकलने वाली त्रैमासिक पत्रिका ‘विश्वगाथा’ का व्यंग्य विशेषांक धर्मपाल महेंद्र जैन के अतिथि संपादन में
निकला | बिहार से प्रकाशित ‘सत्य की मशाल’ मासिकी का हास्य-व्यंग्य
विशेषांक युवा व्यंग्यकार विनोद विक्की के अतिथि संपादन में आया | भोपाल से प्रकाशित मासिक पत्रिका ‘अक्षरा’ का ज्ञान चतुर्वेदी के अवदान पर केन्द्रित अंक आया | दैनिक समाचारपत्रों में छपने वाले व्यंग्य के कॉलमों की गुणवत्ता
में इस साल थोड़ा सुधार दिखा। व्यंग्य विवेक, साहित्यिक
समझ, साहस और भाषायी धार के स्तर पर उसे अभी और
काम करना होगा। बावजूद इसके लोग व्यंग्य की तरफ आ रहे हैं। व्यंग्य विधा ने नए
पाठक अर्जित किये हैं | व्यंग्यदृष्टि से कुल मिलाकर यह
वर्ष काफी भरापूरा रहा |
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