आत्मकथ्य / प्रमोद बेड़िया
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हर किसी के अनुभव अलग- अलग होते हैं- दो कवियों, दो चोरों के, दो दलालों के, दो नेताओं के, क्योंकि यह दुनिया
विविधताओं से भरी पड़ी है ! यहाँ मैं कवियों के अनुभव पर ही बात करना चाहता हूँ !
आप विनोद कुमार शुक्ल को, राजेश जोशी को, मंगलेश डबराल को,किसी भी समकालीन कवि की पुस्तकें अग़ल-बग़ल रख लें और बारी- बारी
से पढ़ें तो शायद भ्रमित हो जाएँ, हो सकता है कोई भी अच्छा न लगे- क्योंकि दोनों के पास अपने- अपने
अनुभव हैं, भाषा है, तराशने के औज़ार हैं और कला है !
किसी भी कवि को उसके गुज़रे जीवन और जीवनानुभव से बनी विरासत के
आधार पर तौलना ही ज़रूरी होता है, अभी जो कवियों को लेकर घमासान मचा हुआ है, उसके पीछे यही कारण
है! निराला साधक थे, पहलवान थे, निडर थे, फिर भी निराले कवि हुए ! केदार तो अलग ही मिट्टी से आए थे, त्रिलोचन कई
प्रतिभाओं को साथ रखतें हैं - जब भी आप इनका मूल्याँकन करेगें, इनका जीवन, समाज और परिवार, उससे जोड़ना ज़रूरी
है, क्योंकि कवि मनुष्य ही है, फ़र्क़ इतना ही है कि वह अपने अनुभवो को मनुष्य के लिए,उसकी बेहतरी के लिए ढालता है, किसी लोहे की तरह !
मुक्तिबोध के भयंकर और आत्मघाती अनुभवों ने ऐसे प्रतीक और विंब चुने जो कठिन है, नारे- से समझ में
आनेवाले नहीं हैं !
मैं यह कहना चाहता हूँ कि अनुभव सबके अलग- अलग होते हैं और है !
मुझे विविध और मारक अनुभव मिलें हैं,जो मेरी कविता और कहानी तथा दूसरी रचनाओं के लिए सामग्री हैं, जिसे पाठकों से
जोड़ने में भाषा, विंब, प्रतीक और कौशल काम आते हैं !
मैं एक, तत्कालीन गिने-चुने परिवारों में से एक, मेरे शहर के, में पैदा हुआ ! बचपन
से लेकर ग्यारह साल तक शय्याशायी रहा, बहुत कमज़ोर और डरपोक रहा ! इस बीच मेरे पिताजी जो निहायत ही भले
और सीधे सरल आदमी थे, के व्यापार में ऐसी उथल-पुथल हुई के मकान के अलावा कुछ नहीं बचा ! वे
गुरुकुल के छात्र थे और मैट्रिक में उन्हें अंग्रेज़ी ९३% नंबर आए थे तथा अंग्रेज़
सरकार उन्हें आगे पढ़ाई के लिए लंदन भेजना चाहती थी, लेकिन मेरे कांग्रेसी दादा का कहना था कि मेरा बेटा अंग्रेज़ों के
पैसे से नहीं पढ़ेगा और दुकान पर बैठा दिए ! यहाँ यह अनुभव की शुरुआत होने लगी थी, मेरी माँ भी ग़ज़ब
की सहनशील और कर्मठ, खुद्दार औरत थी- इसका प्रसार आप मेरी कविताओं में देख सकते है, ख़ास कर- माँ को
चिट्ठी तथा पिता कविताओं में !
मैंने सत्रह साल की उम्र में पहली कविता लिखी थी, जिसमें धार्मिक
पाखंड का विरोध था, जो यहाँ भी कई बार आ चुकी है ! इसके बाद से मेरा जीवन काफ़ी संघर्षमय रहा, मैंने पढ़ना चाहा, लेकिन परिस्थियाँ
मुझे रोक रही थी ! नाटक और कविता से जुड़ कर मैं अपने परिवार की इज़्ज़त बनाने में
रहा !
छोटी- सी पूँजी लेकर दुकान शुरु की मेरी अदाओं और आदतों में लोगों
को कुछ भिन्न लगा, सो दुकान तो चलने लगी, लेकिन समवेत निकालने का कीड़ा कुलबुलाया, जो बेहतरीन पत्रिका
के रूप में निकली, लेकिन प्रूफ़ देखने के चक्कर में स्टाफ़ को ख़ूब मौक़ा मिला, सो जम कर चोरी करते
रहे और मैं पत्रिका में मगन रहा, चुनांचे दुकान उठ गई, और सड़क पर आ गया, किसी तरह गली में (इस गली के आख़िरी में मेरा घर टुटा हुआ) जो पहले
गाय रखने की जगह हुआ करती थी- ६'बाइ७' में दुकान की ! लेकिन साल भर में दुकान चल पड़ी ! इस बीच माकपा घात
लगाए बैठी थी, क्योंकि मैं वामपंथी और पढ़ा- लिखा कहलाता था, तो जैसी उनकी मृदु
प्रक्रिया होती है, मुझे खींच लिया और सदस्य भी बना लिया ! मैं जी-जान से जुट गया
सर्वहारा की बेहतरी में, दुकान में अपने किशोर लड़कों को बैठा कर मैं पार्टी के कार्यक्रम, मीटिंग, जुलूस और नारे
लगाता रहा !
इस बीच भीतर पड़ी पुरानी चिड़िया ने पुकारा - अरे तूं मुझे भूल गया, याने संगीत। तो लग
गया और क़रीब दस सालों तक बुरी तरह लगा रहा, अभी भी मैं भतखंडे जी या कोई भी स्वरलिपि सामने रख उसे सही- सही गा
लेता हूँ, यह छुटा, इसलिए कि जो मेरा गुरु था, एक कमउम्र लड़का, वह मुझे दगा दे गया, मैंने उसे कोलकाता से एक बेहतर हारमोनियम और तानपुरा लाने का
अनुरोध किया, क्योंकि वह जाते रहता था ! वह ले तो आया, लेकिन मेरे बेटे जो माल और दाम के
पारखी हैं, ने कहा, पापा ,इसने आपको ठगा है,दुकानें तो हमारे मार्केट के सामने ही है, मैं पता लगाऊँगा, और साहब उसने लगा लिया, मेरा दिल टूट गया, मैं उसे इतना चाहता था कि अगर वो
मुझसे ज़रूरत बता कर माँगता तो मैं ना करता ही नहीं, क्योंकि वह तसल्ली से सिखाता था, दो घंटे, ढाई घंटे ! लेकिन कहा न कि दिल टूट गया, संगीत तो आदमी के सर्वोच्च संवेगो में
है !
इसी तरह पार्टी से मैं दूर हटते गया,मैंने देखा,जो लोगमेरा सम्मान करते थे और विश्वास करते थे,कुछ छुटभैय्ये नेताओं के बारे में ऐसी
बातें बताई ,जिन्हें मैंने ख़ुफ़िया तरीक़ों से खोजा और सही पाया,तो दिल टूटने लगा ! बड़े नेताओं से
मेरी मित्रता थी ही तो लगा कि यह श्रोत यहाँ तक आता है !मुझे तो नौकरी भी नहीं
चाहिए थी,क़र्ज़ भी नहीं ,मेरी दुकान में,तबतक मेरे बेटे भी हाथ बटाने लगे थे ,मैं तो तहेदिल से मनुष्य का भला करने
आया था,मैंने देखा यहाँ योग्यता का सम्मान उपयोग से जुड़ा है,और अयोग्य लोग आगे आ रहने लगें ,बहुत सारी शिकायतें आने लगी,मारवाड़ी की एक कहावत है- ........धोण
का शूर कोणी ओर बात कर ह - ऐसे लोगों को नगर निगम में जिताने के फ़रमान आने लगे,क्योंकि वे ' मेनैज' कर लेतें हैं,दो बार जिताया भी,जो उनके लिए अप्रत्याशित विजय थी और मेरा सम्मान बढ़ते गया,लेकिन दिल में कचोट उठती रही ! अंतत:
मैंने शायद १९९३ में सदस्यता का पुर्ननवीकरण नहीं कराया ,कोई कहने आया तो उसे साफ़ कह दिया !
किशोर जब था तो मेरे पिता और बड़े भाई कहते थे- यह तो कम्युनिस्ट
की तरह बात करता है,शायद उन्होंने सही पकड़ा था,मैंने पार्टी छोड़ दी है,लेकिन मार्क्स के बताए रास्ते पर टिका हूँ ,जैसा कि मार्क्स ने कहा है देश,काल और समय के अनुकूल संशोधन,परिवर्तन के साथ !
यहाँ तक आते- आते साहित्य को वाहित्य तो कहने ही लगा था, नशे की पुरानी लत
भी पकड़ ली, इस बीच कोई सज्जन ज्ञानरंजन से मिल कर आए और कहा आपके बारे में भी
बातें हुई ! मैंने सोचा हो सकता है ये ख़ूब नमक- मिर्च लगा कर मेरे बारे में बता
आए होंगे! तो - ख़ुद किस्साए ग़म अपना कोताह किया मैंने - की तरह सोलह साल बाद
ज्ञान जी को पत्र लिखा। यह सोच कर ,मेरी याद थोड़ेई होगी,अपने तो इजलास में रख दो; मेरा अनुमान ग़लत निकला,उन्होंने मुझे सांत्वना देते हुए लंब- सा पत्र लिखा और मैं बंगला
से अनुवाद के काम में जुट गया ,जिन्हें उन्होंने बहुत लगाव से छापा और चर्चित भी हुए !फिर उनका
फ़ोन आया अनुवाद बहुत हुए ,कुछ मौलिक भेजें ! तब मैंने 'अंधेरा' कहानी भेजी और छापी भी ,उन्होंने !
इस बीच मैं नशे से मुक्त हो गया,कुछ सालों तक जगराता रहा,फिर कुछ कोशिशों से कुछ हौम्योपेथी से सोने लगा,हौम्योपेथी भी मेरी पहली प्रेमिकाओं
में है ,यह एक ऐसी विद्या है,जिसमें मनुष्य के पोत चोड़े हो जातें हैं ,जो कविता में भी काम आते हैं !
दीर्घ होते जा रहा है- बहरहाल २०१४ में मुझे व्यापार में लगने लगा
कि यह जगह मेरी नहीं है,तब तक बेटों ने शहर से दूर एक मकान बनवाया था,तो वहाँ हम पति- पत्नी आ गए और एक दिन
हठात् लगा कि कोई बोलरहा है- तब - दो बज कर चौंतीस- बनी जो पहल में छपी !
२०१५ से घुटनों की पीड़ा बढ़ती गई और कविता नहीं सूझ रही थी, सायास मैं लिखता नहीं, सो ग़ज़ल और शायरी चलने लगी : इस बीच
घुटनों का ऑपरेशन हो गया, अब कुछ
कविताएँ बन रही है !
अंत में,एक घटना याद आई ;माँ से बाबूजी की शिकायत (भलमानसत की) कर रहा था,और आश्चर्यजनक रूप से माँ चुपचाप सुन
रही थी ,मैं था कि बोलता जा रहा था जब मैं चुप हो गया तो माँ बोली- हो गया,बोलना !
मैं बोला- हाँ !
माँ बोली- देखो बेटा,मनुष्य को होना होता है न,वह चालीस- पचास की उम्र तक हो जाता है,उसके बाद वह बदलता नहीं है,तुम्हारे बाबूजी को जो होना था वे हो
गए,अब बदलना है तो तुमलोग बदलो !
तो जनाब लंबी कविताओं के संदर्भ में किसी मित्र ने कहा है लंबी
मशक़्क़त के बाद आप साध लेगें,तो अब ७३ साल की उम्र में क्या साधेगें। जो साधना है,वो साध लिया-अब क्या ख़ाक मुसलमां
होगें !
- प्रमोद बेड़िया
सदरपाड़ा, पुरुलिया - 723101
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