Monday, 30 June 2014

परितोष मालवीय का व्यंग्य - "लेडीज़ फर्स्ट"

कार्यक्रम भले ही मुख्य अतिथि के आगमन के इंतजार में प्रातःकालीन सत्र से अपराह्न सत्र में तब्दील जाए पर जब तक दोपहर भोज की विधिवत रूप से घोषणा नहीं हो जाती, इसे प्रातःकालीन सत्र ही समझा जाता है। ऐसा प्रायः होता है कि मुख्य अतिथि देर से ही आते हैं अन्यथा यह समझा जाएगा कि उनके पास कोई और काम नहीं है। वर्तमान समय में हिंदी कविता पर क्या संकट हैं, संकट है या नहीं, है तो कितना है, कविता पर संकट है या कवि पर संकट है, इत्यादि विषयों पर विचार मंथन बनाम माथापच्ची के लिए हमारे नगर में साहित्यकारों और कवियों का जमावड़ा हुआ। हालाँकि मैं अपने को श्रोता मानकर इस सम्मेलन में पहुँचा था पर वहां प्रस्तुत कुछ गद्यनुमा कविताओं को सुनकर लगा कि मैं भी कवि बन सकता हूँ। आखिर जिस तरह मैं अपनी पत्नी को खाने में नमक कम या ज्यादा हो जाने पर, खाना कम या ज्यादा बन जाने पर, जल्दी या देर से बनने पर जिन शब्दों एवं वाक्यों में झिड़कता रहता हूँ, उसे भी मुक्त छंद कविता कहा जा सकता है।

काव्यपाठ सत्र की समाप्ति के बाद कविता पर चर्चा और समीक्षा का दौर शुरू हुआ ही था कि एक नीली गंदी जीन्स पर बिना प्रेस किया हुआ खादी का कुर्ता यानि वामपंथी गणवेश पहने एक कवि ने बिंदी से लेकर पैर की नेलपॉलिश तक लगभग एक ही रंग में मेकअप करके पधारीं एक उदीयमान कवयित्री की कविता पर व्यंग्य मारते हुए कहा कि यदि यही कविता है तो अखबार में छपे समाचार भी मुक्तछंद की रचना कहे जा सकते हैं और गोदान तो प्रेमचंद का सबसे महत्त्वपूर्ण महाकाव्य माना जाएगा।

तिलमिला गईं कवयित्री जी ने उपहास उड़ता देख तुरंत "स्त्री विमर्श" नामक ब्रह्मास्त्र का प्रयोग किया और कहा "छद्म प्रगतिशील ही ऐसा कह सकता है। दरअसल स्त्रियों को आगे बढ़ता हुआ देखना पुरुषों को कब भाया है? तभी तो आजतक कोई भी बढ़ा साहित्यिक सम्मान स्त्री को नहीं मिला है। और यदि मिल भी जाये तो लोग कहते हैं कि यह किसी पुरुष की विशेष कृपा या अनुराग का परिणाम है।"

कार्यक्रम आयोजक ने माहौल को गर्म होते देख बीचबचाव करते हुए कहा - "यह सत्र निजी टीका - टिप्पणी के लिए नहीं है। हम कवि को स्त्री और पुरुष में नहीं बांटते। यहाँ कवियों को आमंत्रण उनकी कविता के आधार पर दिया गया है न कि महिला - पुरुष के नाम पर। अगर हम पुरस्कार देते समय यह देखने लग गए कि अमुक स्त्री है या पुरुष, अगड़ा है या पिछड़ा, सवर्ण है या दलित, सरयूपारीन है या कान्यकुब्ज तो हो चुका साहित्य सम्मेलन।"

मामला जैसे - तैसे शांत ही हुआ था कि बगल के कमरे से भोजन के तैयार हो जाने का संकेत प्राप्त हो गया। पर मुख्य अतिथि का उबाऊ भाषण अभी शुरू ही हुआ था। सभी उपस्थित प्रतिभागी चाहकर भी वहाँ से उठ नहीं पा रहे थे। एक तो वैसे ही कार्यक्रम देर से शुरू हुआ था, ऊपर से भोजन की सुगंध से बढ़ती हुई भूख। मुख्य अतिथि बड़े साहित्यकार थे अतः उनके भाषण का लंबा होना तय था। लेकिन यह भी स्थापित तथ्य है कि पकी उम्र के होने के कारण उनकी भोजन में रुचि श्रोताओं की तुलना में कम ही थी। कुछ देर तक तो उनके पांडित्य को बर्दाश्त किया गया पर जब ऐसा लगने लगा कि भोजन ठंडा हो रहा है तो कवियों में बेचैनी फैल गई। कोई अपनी कलाई पर लगी घड़ी देख कर इशारा कर रहा था तो कोई अपना थैला बंद कर रहा था। कुछ लोग उन्हें मन ही मन बूढ़ा, खूसट इत्यादि विशेषणों से नवाजने भी लग गए थे। मुख्य अतिथि को चुप होते न देख सब ने मिलकर ताली बजा दी। आखिर मेहनत रंग लाई तथा भाषण समाप्त हुआ।


जल्दी से धन्यवाद प्रस्ताव देकर सभी कवि भोजन कक्ष में प्रवेश कर गये। उदीयमान कवयित्री भी पीछे नहीं थीं। खाने के लिए प्लेट उठाते समय आयोजक महोदय ने उनकी ओर प्लेट बढ़ाते हुये कहा - "लेडीज़ फर्स्ट" । मैडम ने खींसे निपोरते हुए प्लेट थाम ली। साहित्यिक सम्मान न सही, खाने की पहली प्लेट पर तो स्त्री का हक़ स्थापित हुआ।

3 comments:

  1. वाह ……… लाजवाब और तीखा व्यंग्य है आदरणीय परितोष जी का ।

    - पवन प्रताप सिंह 'पवन'

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  2. प्रायः सभी कार्यक्रमों में यह स्थिति कमोवेश दिखाई पड़ती है.
    स्त्रियों पर व्यंग करना शायद पुरुष के अहं को संतुस्ती देता है.
    बहुत सुन्दर प्रस्तुति. बधाई.

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  3. अच्छा व्यंग्य। सहज अभिव्यक्ति।

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