एक
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साहित्य का क्षेत्र बहुत जटिलताएं लिए हुए है। इसमें तरह तरह के लोग हैं । उनकी पृष्ठभूमि, उनका वैचारिक स्तर, उनकी ग्राह्यता- सब भिन्न है। ऐसे में सत्य कभी कभी शत्रु अधिक तैयार करता है। बहुत दिन पहले मैंने एक गीत लिखा था-
झूठ फरेब और मक्कारी पर
जब जब वार किए मैंने।
एक एक सच के पीछे
सौ दुश्मन तैयार किए मैंने।
यह गीत वर्षों बाद भी उतना ही सत्य है।
तो यह साहित्यिक पंडानामा आरंभ करने से पूर्व थोड़ा सा पृष्ठभूमि में चलूं। साहित्य की भूमि जितनी विविध और उर्वरा है, इसमें खरपतवार भी उतने ही अधिक हैं। गुटबाजी और प्रतिद्वन्दिता के खर दूषण छाए हुए हैं। आप कितना अच्छा काम क्यों न करें, उनके मुँह में दही जमा रहता है। जब आप उन्हें साष्टांग दंडवत करें, तो उनका अहं संतुष्ट होता है। उनकी अश्लील और भद्दी कृतियों पर वाह वाह के कूडे के गंधाते ढेर उनकी पंडागिरी को मजबूत करते हैं। उस चक्रव्यूह में अगर कोई राजा को नंगा कहने वाला फंस गया, तो अभिमन्यु की तरह ये साहित्यिक पंडे उसकी साहित्यिक हत्या का षडयन्त्र आरंभ कर देते हैं।
दो
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सीतापुर अवध की शोभा है। अवधी यहाँ का मान है। अवधी कवि होने और अवध की माटी और सीतापुर की साहित्यिक विरासत का गौरवशाली इतिहास होने से आरंभ करता हूँ साहित्यिक पंडानामा को अवधी के मठाधीशों से।
जौन रहै तुलसी अस कवि की ,एक दिन लाड लडैती।
वहि भाषा की हंसी उडाइन, लिखि लिखि लोग भडैती।
इतनी समृद्ध, इतनी समर्थ और इतनी लोकप्रिय भाषा को चुटकुलेबाजी में बदल कर मंचों पर उपहास का पात्र बना देने वाले कवियों और उनको सराहना देकर आकाश पर चढ़ा देने वाले अवधी के तथाकथित समीक्षकों और मठाधीशों ने अवधी का जितना नुकसान किया है ,उसकी भरपाई करने में वर्षों लगेंगे। जैसे विदेश में भारत को भूखा नंगा, संपेरों और भिखारियों का देश बता कर लोगों ने पुरस्कार लूटे, ऐसे ही अवधी के समर्थ और यशस्वी रचनाकारों को दरकिनार कर भाषाई दिवालिए और छप्पर ,घूरा ,चिरई ,चुनगुन,कदुवा ,लौकी आदि पर लिखने वाले रचनाकारों को बढ़ावा देकर एक समर्थ भाषा को अवनति की ओर धकेलने की साजिश हुई। पुरस्कार पाने को रचनाएँ लिखी जाने लगीं। जिन पुस्तकों का कहीं अस्तित्व नहीं था, पांच सात प्रतियाँ निकलवा कर लोग पुरस्कृत होने लगे। चाटुकारिता, चरणवंदना का ऐसा दौर चला कि साहित्य कलंकित होकर रह गया।
तीन
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बहुत समय पूर्व दैनिक जागरण में
मेरी एक कविता छपी थी-
जन कवि पडे
सिसकते
फुटपाथों पर
जन भाषा के
व्यवसायी
हैं मंचों पर
अभिनंदन का
स्वांग रचाते
प्रतिबद्ध लेखनी का
उपहास उड़ाते
दुर्गन्धों की महफ़िल
रोज सजाते
देख दशा इन
साहित्यिक चिलुओं की
मन में तो बस यह आता है
आग लगा दूं
चिलुओं से भरी हुई
इस पूरी की पूरी
कथरी को।
तब से एक दशक बीत गया। गंगा में बहुत पानी बह गया। हालात जस के तस। वही घाट। वही पंडे। अवधी की वही दुर्दशा। अवधी का इस्तेमाल होता रहा। लोगों ने अपने अपने ब्रांड बना लिए। अवधी को सीढ़ी बना कर पैसा और साहित्यिक रुतबा कायम किया जाने लगा। जिनका अवधी से कोई सरोकार न था, वे अवधी के मठाधीश हो गये। प्रतिबद्ध लेखक हाशिए पर धकेल दिए गये। रीढविहीन लेखक उनकी गणेश परिक्रमा कर सम्मानित होने लगे। सरस्वती लज्जित हो इस कौरव सभा से बाहर जाने को विवश हो गयी।
जन कवि पडे
सिसकते
फुटपाथों पर
जन भाषा के
व्यवसायी
हैं मंचों पर
अभिनंदन का
स्वांग रचाते
प्रतिबद्ध लेखनी का
उपहास उड़ाते
दुर्गन्धों की महफ़िल
रोज सजाते
देख दशा इन
साहित्यिक चिलुओं की
मन में तो बस यह आता है
आग लगा दूं
चिलुओं से भरी हुई
इस पूरी की पूरी
कथरी को।
तब से एक दशक बीत गया। गंगा में बहुत पानी बह गया। हालात जस के तस। वही घाट। वही पंडे। अवधी की वही दुर्दशा। अवधी का इस्तेमाल होता रहा। लोगों ने अपने अपने ब्रांड बना लिए। अवधी को सीढ़ी बना कर पैसा और साहित्यिक रुतबा कायम किया जाने लगा। जिनका अवधी से कोई सरोकार न था, वे अवधी के मठाधीश हो गये। प्रतिबद्ध लेखक हाशिए पर धकेल दिए गये। रीढविहीन लेखक उनकी गणेश परिक्रमा कर सम्मानित होने लगे। सरस्वती लज्जित हो इस कौरव सभा से बाहर जाने को विवश हो गयी।
चार
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अवधी का क्षेत्र बहुत विस्तृत
रहा है। तुलसी और जायसी से लेकर अद्यतन इसमें साहित्य
रचा जाता रहा है। इसमें वैविध्य स्वाभाविक है। इसके विकास में उन अल्पख्यात लोगों का बडा योगदान है,
जो प्रचार और आत्म रति से दूर रह कर
इसमें साहित्य रचना करते रहे और अवधी का भंडार भरते रहे। वहीं कुछ लोग ऐसे भी थे, जिनकी वंश परंपरा में कोई रचनाकार प्रसिद्ध हो गया था और उनकी आगे की पीढियां
वकील का बेटा वकील, डाक्टर का बेटा डाक्टर, लोहार का बेटा लोहार की तर्ज पर उनकी
पत्नी, बेटा, पोती, पोता-सब साहित्यकार हो गये। हालाँकि कुछ प्रतिभाएं अपवाद भी रही हैं, परंतु अधिकांश का
लक्ष्य विरासत से कमाना खाना ही रहा। कुछ ऐसी नालायक औलादें भी हैं, जिन्होंने बाप की रचनाएँ अपने नाम से
छपवा लीं और बाप लालटेन रह गया और बेटा पावरहाउस हो गया। यद्यपि कुछ संतानें ऐसी हैं, जिन्होंने अपनी विरासत को सहेजा और उस
साहित्य को प्रकाशित किया। मित्र जी की बेटी इसका उदाहरण हैं । परंतु अधिकांशतः अपनी दुकान चलाने में ही लगे रहे। साहित्य का जितना नुकसान इन पीढ़ियों के साहित्यकारों ने किया, उतना किसी ने नहीं। जब अयोग्यता को प्रश्रय मिलने लगता है तो प्रतिभाएं नेपथ्य में धकेल
दी जाती हैं और सत्साहित्य का बेडा गर्क हो जाता है। अवधी के प्रचुर और
उत्कृष्ट साहित्य पर कुछ उच्चपदस्थ लोगों की गिद्धदृष्टि थी। बड़े बड़े विश्वविद्यालयों में बैठकर
उन्होंने सर्वाधिक मलाई खाई। उन्होंने कुछ ऐसे प्रतिभावान शिष्य खोजे जो उनके लिए लेखनकार्य करने लगे।
पांच
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बात चल रही थी विश्वविद्यालयों के कुछ
मूर्धन्य विद्वानों की, जिनकी दृष्टि अवधी की विशाल साहित्य संपदा पर थी। ऊंचे पदों पर बैठे इन तीर्थध्वांक्षों ने कुछ प्रतिभावान शिष्य छांटे, जो इनके लिए शोध और
लेखन करने लगे। धीरे धीरे एक रैकेट तैयार हुआ, जिसने अवधी की
मार्केटिंग आरंभ की और नकारे लोगों को स्थापित करने का कार्य आरंभ किया। जिनका अवधी में कोई अवदान नहीं था वे द्रोणाचार्यों की
परंपरा बढ़ाकर एकलव्यों का अंगूठा काटने में जुट गये। बदले में उन्हें पद और पुरस्कार का लालच दिया
गया। कुछ ने तो अपना जीवन ही इन द्रोणाचार्यों
के चक्कर में तबाह कर लिया । इनके इतर एक इलीट वर्ग था, जिसकी नजर इस अवधी
संपदा पर थी। उसने धन देकर अपनी प्रशस्ति लिखवाई। कुछ उधार के लेखक सतुवा पिसान लेकर इनकी विरुदावली लिखने में जुट
गये। रेवडियों की तरह पुरस्कार बंटने लगे।
इन लोगों की राह के सबसे बड़े कंटक थे श्यामसुंदर मिश्र मधुप। वे न सिर्फ अवधी पर शोध करा रहे थे, बल्कि नवीन रचनाकारों को प्रोत्साहन देकर अवधी की नई पौध तैयार कर रहे थे। उनके साहित्यिक अवदान की कोई बराबरी नहीं थी। स्वभाव से अत्यंत विनम्र मधुप जी ने अवधी का इतिहास लिखकर इसकी बहुत बड़ी कमी पूरी की। उनकी मजबूत शिष्य परंपरा में डा.ज्ञानवती ने उनके बाद अवधी का ध्वज थाम कर उसे झुकने नहीं दिया है। भले ही आज अवधी के धंधेबाज मधुप जी के अवदान को सायास भूलने का नाटक कर रहे हों, भले ही अवधी के नाम पर पत्र पत्रिकाएँ निकाल कर अपनी रोटियां सेंकने में व्यस्त होकर उन पर एक अंक भी न निकाल सके हों, जब भी आधुनिक अवधी साहित्य के नींव के पत्थरों की बात आएगी मधुप जी याद किए जाएंगे ।
इन लोगों की राह के सबसे बड़े कंटक थे श्यामसुंदर मिश्र मधुप। वे न सिर्फ अवधी पर शोध करा रहे थे, बल्कि नवीन रचनाकारों को प्रोत्साहन देकर अवधी की नई पौध तैयार कर रहे थे। उनके साहित्यिक अवदान की कोई बराबरी नहीं थी। स्वभाव से अत्यंत विनम्र मधुप जी ने अवधी का इतिहास लिखकर इसकी बहुत बड़ी कमी पूरी की। उनकी मजबूत शिष्य परंपरा में डा.ज्ञानवती ने उनके बाद अवधी का ध्वज थाम कर उसे झुकने नहीं दिया है। भले ही आज अवधी के धंधेबाज मधुप जी के अवदान को सायास भूलने का नाटक कर रहे हों, भले ही अवधी के नाम पर पत्र पत्रिकाएँ निकाल कर अपनी रोटियां सेंकने में व्यस्त होकर उन पर एक अंक भी न निकाल सके हों, जब भी आधुनिक अवधी साहित्य के नींव के पत्थरों की बात आएगी मधुप जी याद किए जाएंगे ।
छः
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साहित्य क्षेत्र में जब कोई नया
लेखक आता है, तो स्थापित लेखकों में खलबली मच जाती है। कुछ उसे चेला बनाने की जुगाड में लग जाते हैं तो कुछ उसकी आलोचना प्रारंभ
कर देते हैं और कुछ उसके बारे में अफवाहें
फैला कर उसकी छवि बिगाड़ने का प्रयास करने लगते हैं। अगर उसकी कोई किताब छप गयी तो कहीं कोई अच्छी समीक्षा न
आ जाये ,इसकी जुगत भिडाने लगते हैं। साहित्यिक समीक्षा के क्षेत्र में भी जोड़-तोड़
और जुगाड का बोलबाला है। जिसकी समीक्षा छप जाए माने यह नहीं कि पुस्तक
बहुत अच्छी है। माने यह हैं कि आपके संपादक से ताल्लुकात अच्छे हैं । कई बार लेखक की बहुत अच्छी पुस्तक पर पत्रिकाओं
में कोई चर्चा ही नहीं होती और दोयम दर्जे की
पुस्तकों की फन्ने खां समीक्षा छप जाती है।एक बार एक अखबार में
सीतापुर के साहित्यकारों का साक्षात्कार छापना प्रारंभ हुआ।कुछ
लोगों के खानदान भर के साक्षात्कार छप गये।कुछ बेचारे
जीवनभर साहित्य में ही रमे रहे,परंतु संपादक जी को वे
दिखाई ही नहीं पडे।यही हाल अवधी समीक्षा का रहा।दोयम दर्जे की
कृतियां प्रशंसा पाती रहीं और अच्छी रचनाएँ कोने में
धूल फांकती रहीं ।अब कौन पढकर आंखें फोडने की कुचेष्टा करे,जब बिन पढे लिखे
नाम और नामा दोनों बन रहा हो।अगर आप किसी ऐसी संस्था में
हैं कि कुछ लाभ पहुँचा सकते हैं , तो आपकी चरणवंदना करने के साथ साथ जो
आपको भी न पता हों, उन विशिष्टताओं पर पुरस्कारों की झडी लग जाएगी।ऐसे में
बेचारा सच्चा साहित्यकार-उसके लिए तो कही स्पेस ही नहीं
। यह ऐसी अंधेरी सुरंग है जिसमें अवधी समीक्षा फंसी हुई
है ।
सात
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साहित्यकार यश की कामना से लिखता है, यह सत्य है। हर
लेखक की कामना होती है कि उसकी प्रशंसा हो, उसके सृजन को सराहा जाए। परन्तु कुछ ऐसे
धंधेबाजों से साहित्य वर्तमान में घिरा हुआ है कि उनके कारनामो से घृणा उत्पन्न
होती है। भाई लोग खुद ही अभिनंदन ग्रंथ लिखते हैं या पैसा देकर कोई किराए का टटटू
हायर करते हैं जो हाथ-पैर जोडकर लेखकों से उनकी तारीफ लिखवाता है और खुद के पैसे
से खरीदी माला धारण कर वे नारद मुनि की तरह स्वयं के सौंदर्य पर मुग्ध हो उठते
हैं। कुछ संस्थाएं तो बाकायदा रेट फिक्स किए हैं, लोकार्पण इतने हजार, सम्मान इतने हजार, शाल वाला सम्मान,
मोमेंटो वाला सम्मान, फूलमाला वाला
सम्मान-सबकी दर फिक्स है। कुछ आदान-प्रदान वाला सम्मान करते हैं। तू मेरा कर मैं
तेरा। कुछ अपनी ही संस्था में अपना ही सम्मान कर लेते हैं। कुछ जिनसे रेडियो टीवी
प्रसारण मिल जाता है , उनके महान क्रांतिकारी योगदान पर सम्मानों की झडी लगा देते हैं। माने
हरि अनंत हरि कथा अनंता।
आठ
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ज्यों -ज्यों यह श्रृंखला बढ़ती जा
रही है, पाठकों की अत्यंत सकारात्मक प्रतिक्रियाएं आ रही
हैं और विदेश से भी लोग अपने अनुभव बता रहे हैं । मेरी श्रृंखला आरंभ हुई थी
तो मुझे भी यह उम्मीद नहीं थी कि यह जाल विदेश तक फैला होगा।हम तो
छोटी जगह के रहने वाले हमारा सीतापुर साहित्य और प्राकृतिक वैभव
से समृद्ध है। यहाँ अधिक महत्वाकांक्षा नहीं दिखाई देती। किसी में कुछ दिखा
भी तो सब बैठकर हंस लेते हैं ।मंच की संस्कृति और साहित्य की
गुरुता और गंभीरता दशकों बीत गये अलग हो गयी थी।जो गंभीर
साहित्यकार है,वह मंच से उदासीन है और मंच का अपना नशा है।सस्ती
लोकप्रियता और धनार्जन -इनके आगे मंच को साहित्य नहीं चाहिए
।इसीलिए अब परिष्कृत रुचि के लोगों ने कवि सम्मेलनों
में जाना बंद कर दिया और भद्दी चुटकुलेबाजी ,अभद्र परिहास
और अमर्यादित आचरण के कारण प्रबुद्ध श्रोता कवि सम्मेलनों
से छिटक गया।अब कवि सम्मेलन कम जवाबी कव्वाली अधिक हो गये।मंच
पर सजी संवरी बालाएं कवयित्रियां कम और हीरोइन अधिक लगती हैं ।पूरा
माहौल मदिरा से रंगीन हो तो सरस्वती का वास वहाँ
कहाँ? तो एक साहित्यिक संस्कार जो हमारे मंच देते थे,वह तो रहा नहीं
।दोष हम नयी पीढ़ी को देते हैं ।बेहूदी और अश्लील कविताओं पर
वाह वाह की झडी लगाने वाले साहित्य की पंडागिरी को ही
बढ़ावा दे रहे हैं ।भोजपुरी साहित्य की पंगत में अवधी को भी लाकर बैठा
दिया गया है।अवधी जैसे समृद्ध और सुसंस्कृत
साहित्य से चुनचुन कर अश्लीलता परोसी जा रही है।
नौ
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साहित्य के विविध पहलुओं से गुजरते हुए मुक्तिबोध की कविता याद आ गयी-
मुझे कदम कदम पर चौराहे
मिलते हैं बांहे फैलाए
एक कदम रखता हूँ
कि सौ राहें फूटतीं
और मैं सब पर से
गुजरना चाहता हूँ ।
मुक्तिबोध हों या अन्य कोई सत्य मार्ग का अन्वेषी-यह स्थिति सभी के साथ होती है।मैंने यह श्रृंखला आरंभ की थी, तो सोचता था क्या लिखूं? आज पाठक ही मुझे दिशा निर्देश कर रहे हैं और उन सबकी व्यथा लिखनेका गुरुतर भार मेरे कंधों पर है।मुझे नहीं पता मैं कहां तक उनकी अपेक्षा पूरी कर सकूंगा,पर यह सच है कि कोई अदृश्य शक्ति मुझे गंतव्य की ओर लिए जा रही है।
आज मैं उन नारियों का दर्द लिखूंगा,जो साहित्यिक अभिरुचि रखती हैं ।ये साहित्य के धंधेबाज उनको आकाश पर पहुंचा देने का दिवा स्वप्न दिखा कर उनका तरह तरह से लाभ उठाते हैं ।खासकर जेबी संस्थाओं के संचालक ऐसी महत्वाकांक्षी महिलाओं से लंबी धनराशि वसूल कर अपना खर्च चलाते हैं ।कुछ तो ऐसी महिलाओं को अपनी पहचान बना लेते हैं ।एक नामचीन गीतकार तो महिलाओं के साथ ही चला करते थे।यह अलग बात है कि अपने घरों में यह चप्पलों और बेलनों से नवाजे जाते हैं, परंतु नवोदित कवयित्रियों का गुरु बनने की इनकी चाहत नहीं जाती।समय समय पर फोन करके ये उनको गुरुमंत्र दिया करते हैं ।मान न मान मैं तेरा मेहमान की तर्ज पर ये साहित्य के ब्लडप्रेशर और डायबिटीज हैं ।इनसे तंग आकर कुछ घरों पर लिख दिया गया है-*********से सावधान ।
दस
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सम्मेलन है सम्मेलन
गधे पंजीरी बांट रहे हैं
गदहों का सम्मेलन करते
किसी को अध्यक्ष
किसी को मुख्य अतिथि बनाते
शाल को ओढने वाले से
शाल का पैसा वसूल लाते
सम्मेलन है सम्मेलन ।
आज हम साहित्यिक सम्मेलनों पर चर्चा करेंगे ।ऐसे ऐसे महान आयोजक पड़े हैं ,जो अनपढों को भी पी-एच डी और डी लिट् की उपाधियां वर्ष भर में रेवडियों की तरह बांट देते हैं ।शर्त यह है कि गांठ में पैसा हो।एक विदुषी मुंह बिगाड़ कर बोलीं-बताइये ।मुझे इत्ती बड़ी उपाधि मिली और नगर में किसी ने चर्चा भी न की।मैं सोच में पड गया जिसे दो पंक्तियाँ शुद्ध लिखना नहीं आता उसको यह भारी भरकम उपाधि देने वाले कितने भारी विद्वान होंगे ।कई शहरों में ऐसी साहित्यिक संस्थाओं का जाल फैला है जो पैसा लेकर उपाधियां बांटती हैं ।कल्पना करें जिसने अपने श्रम से ये डिग्रियां हासिल की ,उन पर ऐसे लोग क्या प्रभाव डालते होंगे? पैसा लेकर थीसिस तक लिखने वाले मौजूद हैं ।हिन्दी का सबसे ज्यादा बेडा गर्क इन संस्थाओं के संचालकों ने किया है ।अयोग्य ही अयोग्यता को प्रश्रय देता है।साहित्य के मंदिर के इन तीर्थध्वांक्षों ने इतनी गंदगी फैलाई है कि हजारों झाडुएं उसे साफ नहीं कर सकतीं ।
ग्यारह
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अखबारों में हम पढ़ा करते थे-आज फलाँ जगह सेमिनार है।आज वहाँ हिन्दी सम्मेलन हो रहा है।फलाने को फलाना पुरस्कार मिला है।मन गदगद हो उठता ।देखो कितनी हिन्दी सेवा हो रही है और एक हम हैं कुछ कर ही नहीं पाते।हम लोग साहित्य के क्षेत्र में विकसित होने लगे तो हमारे पास भी दूर दूर से निमंत्रण आना शुरु हुए।पर एक तो छोटा बच्चा और हमारा एकल परिवार ।हम बहुत कम बाहर जा पाते।इस दौरान हमने देखा कि अलग अलग प्रान्तों में लोग हिन्दी सम्मेलन कर रहे थे और साहित्यकारों से अच्छी खासी रकम वसूल कर उन्हें एक सर्टिफिकेट पकड़ा देते -जैसे हिन्दी गौरव,हिन्दी भूषण।कुछ तो अपने अम्मा अब्बा के नाम से पुरस्कार चला रहे थे।नकद धनराशि (जो पाने वाले से पहले ही रखा ली गयी होती)भी देने का नाटक होता।एक विश्व हिन्दी सम्मेलन वाले पीछे पडे थे।हमारी व्यस्त जिन्दगी सीतापुर के हर कोने से परिचित नहीं होने दे रही थी विदेश कहां जाते।पता लगा यह भी भाई लोगों का धंधा था।धनी आसामी खोजकर वहाँ भी यही खेल था।फेसबुक पर भी ऐसे दलाल सक्रिय हैं ,जो खासकर पैसेवाली महिलाओं को टारगेट बनाते हैं ।कई देशी विदेशी महिलाओं का दर्द सुना तो यह जरुरी लगा कि इस साहित्यिक पंडागिरी से सीधे सादे साहित्यकार को सावधान किया जाए।बडे धोखे हैं इस राह में ।
बारह
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अखबारों में हम पढ़ा करते थे-आज फलाँ जगह सेमिनार है। आज वहाँ हिन्दी सम्मेलन हो रहा है। फलाने को फलाना पुरस्कार मिला है। मन गदगद हो उठता ।देखो कितनी हिन्दी सेवा हो रही है और एक हम हैं कुछ कर ही नहीं पाते।हम लोग साहित्य के क्षेत्र में विकसित होने लगे तो हमारे पास भी दूर दूर से निमंत्रण आना शुरु हुए।पर एक तो छोटा बच्चा और हमारा एकल परिवार ।हम बहुत कम बाहर जा पाते।इस दौरान हमने देखा कि अलग अलग प्रान्तों में लोग हिन्दी सम्मेलन कर रहे थे और साहित्यकारों से अच्छी खासी रकम वसूल कर उन्हें एक सर्टिफिकेट पकड़ा देते -जैसे हिन्दी गौरव,हिन्दी भूषण।कुछ तो अपने अम्मा अब्बा के नाम से पुरस्कार चला रहे थे।नकद धनराशि (जो पाने वाले से पहले ही रखा ली गयी होती) भी देने का नाटक होता। एक विश्व हिन्दी सम्मेलन वाले पीछे पडे थे। हमारी व्यस्त जिन्दगी सीतापुर के हर कोने से परिचित नहीं होने दे रही थी विदेश कहां जाते।पता लगा यह भी भाई लोगों का धंधा था।धनी आसामी खोजकर वहाँ भी यही खेल था।फेसबुक पर भी ऐसे दलाल सक्रिय हैं ,जो खासकर पैसेवाली महिलाओं को टारगेट बनाते हैं ।कई देशी विदेशी महिलाओं का दर्द सुना तो यह जरुरी लगा कि इस साहित्यिक पंडागिरी से सीधे सादे साहित्यकार को सावधान किया जाए।बडे धोखे हैं इस राह में ।
तेरह
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साहित्य के लिए सरकारी सहायता का प्रावधान है।अत्यंत सही उद्देश्य से यह पालिसी बनाई गयी थी कि जो साहित्यकार आर्थिक दृष्टि से दुर्बल हैं, वे सहायता पाकर अपनी कृतियों का प्रकाशन करवा सकें ।अत्यंत दुर्भाग्य है कि किसी जरुरतमंद को सहायता आकाश कुसुम है।खाए अघाए लोगों को यह सहायता मिलती है।इनमें डिग्री कालेज और प्राइमरी के मास्टर सर्वाधिक लाभ उठाने में दोनों हाथों जुटे हैं ।पहले तो पुरस्कार भी घूम घूम कर कुछ ही लोगों में बंटते रहते थे।मैंने सूचनाधिकार के माध्यम से आवाज उठाई।तो पता चला एक एक व्यक्ति कई कई बार पुरस्कार हडपने में जुटे थे।इस काकस को तोडना आसान नहीं था।प्रतिभाओं के हत्यारों की पहुँच दिल्ली तक थी।हमें तोडने का बहुत प्रयास हुआ।पर हम टूटे नहीं ।डाक्टर मधुप अवधी के इतिहास की पांडुलिपि लिए घूमते रहे,परंतु उस सेवा निवृत्त अवधी के साधक को कोई शासकीय सहायता नहीं मिलने दी गयी।प्रतिभाओं के हत्यारे यह नहीं चाहते थे कि यह इतिहास प्रकाश में आए।वे जब हमारे घर आते यही कहते मेरे बाद यह इतिहास लुप्त हो जाएगा ।प्रभूत श्रम से वह पुस्तक छपी और आज मैं गर्व से शीश उठा कर कह सकता हूँ कि अवधी साहित्य में वह मील का पत्थर है।
ऊंचे पदों पर बैठे गैरजिम्मेदार लोग अपना अभिनंदन कराने और पुरस्कार बटोरने में लगे रहते हैं ।सच्चे साहित्य साधकों का सम्मान तक करने में इन्हें तकलीफ होती है।अरे थू है तुम पर।साहित्य की कालिख हो तुम सब।
चौदह
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सबसे पहले तो आप
सबको बहुत बहुत धन्यवाद,जिनकी सराहना और प्रोत्साहन से यह श्रृंखला इतनी लोकप्रिय हुई कि
देश विदेश से लोगों ने अपने अनुभव बताए और उनकी पीड़ा लिखने का आग्रह किया। मैं
अपने को सौभाग्यशाली समझता हूं कि आप सबका स्नेह मुझे मिला।
आज पंडानामा की इस कड़ी में मैं उन यश के लोभी पैसे वाले दो कौड़ी के लेखकों का पर्दा फाश करुंगा ,जो आर्थिक दृष्टि से कमजोर प्रतिभा शाली लेखक की मजबूरी का फायदा उठा कर ,उससे अपने लिए लेखन करवाते हैं और अपने नाम से छपा कर नाम और नामा दोनों कमाते हैं। सीतापुर की कई प्रतिभाएं दिल्ली तक पहुंचीं, पर यह काकस उन्हें खा गया।आप सबको जानकर आश्चर्य होगा कि बहुत से कालम जो आप चाव से पढते रहे ,उनके लेखक सिर्फ नाम के थे।यह गोरखधंधा साहित्यिक गलियारों में अब भी जारी है। कलम के धंधेबाजों में बड़े बड़े नाम शामिल हैं।कुछ संपादक तो अपनी सखियों को ही प्रमोट करते रहे और प्रतिभाएं सिर धुनती रहीं।कीन्हे प्राकृत जन गुन गाना।सिरधुनि लागि गिरा पछिताना।
आज पंडानामा की इस कड़ी में मैं उन यश के लोभी पैसे वाले दो कौड़ी के लेखकों का पर्दा फाश करुंगा ,जो आर्थिक दृष्टि से कमजोर प्रतिभा शाली लेखक की मजबूरी का फायदा उठा कर ,उससे अपने लिए लेखन करवाते हैं और अपने नाम से छपा कर नाम और नामा दोनों कमाते हैं। सीतापुर की कई प्रतिभाएं दिल्ली तक पहुंचीं, पर यह काकस उन्हें खा गया।आप सबको जानकर आश्चर्य होगा कि बहुत से कालम जो आप चाव से पढते रहे ,उनके लेखक सिर्फ नाम के थे।यह गोरखधंधा साहित्यिक गलियारों में अब भी जारी है। कलम के धंधेबाजों में बड़े बड़े नाम शामिल हैं।कुछ संपादक तो अपनी सखियों को ही प्रमोट करते रहे और प्रतिभाएं सिर धुनती रहीं।कीन्हे प्राकृत जन गुन गाना।सिरधुनि लागि गिरा पछिताना।
पन्द्रह
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कुकुरमुत्ते की तरह साहित्यिक संस्थाओं का जाल बिछा है।जो साहित्य की किसी विधा में सफल नहीं होते,वे इनके स्वयं भू अध्यक्ष बन जाते हैं।दस पृष्ठ की पत्रिका या दो पृष्ठ का अखबार छाप कर ये महान संपादक बन जाते हैं। धीरे धीरे ये सुरसा की तरह निगलने के लिए नये साहित्यकारो को दाना डालने लगते हैं। दाना चुग कर वह इन पर विश्वास करने लगता है। उसकी एकाध कविता छप जाती है।फिर उससे धन की उगाही शुरू होती है। संपादक जी संकलन छपाने लगते है। दूसरों के पैसे से फ्री में हजारों प्रतियां बेचकर दो-दो प्रति टिका कर साहित्यिक डकैती जारी रहती है। इनके आगे तो चंबल के डाकू फेल हैं।
सोलह
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हिन्दी के लेखकों में एक अहम्मन्यता या कहूँ आत्मरति है। उन्हें अपने से आगे कोई दिखता नहीं ।किसी को वे आगे बढ़ते देखना नहीं चाहते। किसी की कोई कृति सामने आए तो उनका मुंह सूख जाता है।प्रशंसा के दो बोल तो दूर हैं, वे ऐसे बन जाते हैं कि कुछ जानते ही नहीं ।अपने समवयस्कों में बैठकर वे नये रचनाकार की हंसी उडाते हैं ।कृति को पढ़कर उस पर दो वाक्य लिखकर प्रोत्साहन देना तो दूर वे उसे पलटकर देखना गवारा नहीं करते।अब नयी पीढ़ी सीखेगी तो इन्हीं मूर्खों से।तो उसे तो अपने से बड़े को आदर मान देना मूर्खता प्रतीत होती है।ऐसे में जिन्हें दो वाक्य साबुत लिखने नहीं आते वे महाकवि कालिदास होना चाहते हैं ।पहले के कवि, लेखक,समीक्षक नवयुवकों को परिमार्जित करते थे,उनकी रचनाओं पर अभिमत देते थे।इस तरह नयी पौध तैयार होती थी।अब नये समीक्षक पुरानों पर अभिमत देते हैं और अपने को खुदाई फौजदार समझते हैं ।संपादक जी को समीक्षा क्या है इसकी तमीज नहीं है।जैसे अखबार में सब्जियों के भाव छपे रहते हैं, ऐसे वे समीक्षा करते हैं ।यह हालत इसलिए हुई कि जो योग्य थे,वे अहंकार में डूबे थे।उन्होंने जो स्थान छोड़ दिया उसमें मूर्खों का कब्जा हो ही जाना था।कुछ पत्रिकाओं के कवर बदल जाते हैं ।मैटर पुराना बारबार छपता रहता है।
सत्रह
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साहित्यिक पंडानामा श्रृंखला की इस कड़ी में आप सबका स्वागत है मित्रों! अभी तक सकारात्मक टिप्पणियाँ आती रहीं ।आज एक बंधु ने दूसरे पक्ष का भी प्रतिनिधित्व किया।विचारों के इस महाकुंभ में विरोधी विचारों का भी स्वागत है।सिर्फ पढ़कर आगे न बढें।अपना मनोगत रखें ।मैंने कल जहाँ पर खत्म किया था,वहीं से आरंभ करता हूँ -
मर्यादा यह नहीं कि प्रतिभा पर पहरे बिठलाओ।
जो आगे बढ़ता हो निर्दयता से उसे दबाओ।
वह दबकर रह जाए,और तुम पसरो फैलो भू पर।
ये रश्मि रथी की पंक्तियाँ मैं उन सब अनाम साहित्यकारों को समर्पित करता हूँ, जिनकी प्रतिभा को साहित्यिक राजनीति और विपरीत परिस्थितियाँ निगल गयीं ।कोई दिल्ली जाकर खो गया ,कोई लखनऊ के साहित्यिक गलियारों और बूढ़ी औरतों की चरणवंदना के मायाजाल की छिपकली बन कर रह गया।साहित्य का इतिहास इतनी गिरावट का इतिहास बनकर रह गया कि विदूषक अध्यक्षता करने लगे और गिरगिट मुख्य वक्ता हो गये।इस सभा में हंस कहां? कौए संचालक हुए और लोमडियां पुरस्कृत होने लगीं ।सरस्वती का गुजर बसर यहाँ कहाँ था बन्धु? वह पिछले द्वार से हताश निराश हमारी आराध्या ही तो जा रही है।अखबारों में फोटो छपे ।प्रायोजित अभिनंदन हुए।चाय पार्टी हुई।जैसे राजनीतिक इफ्तार पार्टियाँ होती हैं ।सब कुछ था बस साहित्य नहीं था।वह किसी छप्पर के नीचे ,कहीं टूटी दीवार के सहारे, दाल रोटी की जद्दोजहद में रचा जा रहा था,कहीं बस की लाइन में लगी बच्चों का पेट भरने की कवायद मे लगी कार्यशील नारी साहित्य रच रही थी और कहीं हल की मूंठ थामे किसान के होंठों पर सृष्टि का सबसे सुंदर गीत मचल रहा था।जब कभी सही मूल्यांकन होगा तो ये सब सामने आएंगे।
साहित्यिक पंडानामा श्रृंखला की इस कड़ी में आप सबका स्वागत है मित्रों! अभी तक सकारात्मक टिप्पणियाँ आती रहीं ।आज एक बंधु ने दूसरे पक्ष का भी प्रतिनिधित्व किया।विचारों के इस महाकुंभ में विरोधी विचारों का भी स्वागत है।सिर्फ पढ़कर आगे न बढें।अपना मनोगत रखें ।मैंने कल जहाँ पर खत्म किया था,वहीं से आरंभ करता हूँ -
मर्यादा यह नहीं कि प्रतिभा पर पहरे बिठलाओ।
जो आगे बढ़ता हो निर्दयता से उसे दबाओ।
वह दबकर रह जाए,और तुम पसरो फैलो भू पर।
ये रश्मि रथी की पंक्तियाँ मैं उन सब अनाम साहित्यकारों को समर्पित करता हूँ, जिनकी प्रतिभा को साहित्यिक राजनीति और विपरीत परिस्थितियाँ निगल गयीं ।कोई दिल्ली जाकर खो गया ,कोई लखनऊ के साहित्यिक गलियारों और बूढ़ी औरतों की चरणवंदना के मायाजाल की छिपकली बन कर रह गया।साहित्य का इतिहास इतनी गिरावट का इतिहास बनकर रह गया कि विदूषक अध्यक्षता करने लगे और गिरगिट मुख्य वक्ता हो गये।इस सभा में हंस कहां? कौए संचालक हुए और लोमडियां पुरस्कृत होने लगीं ।सरस्वती का गुजर बसर यहाँ कहाँ था बन्धु? वह पिछले द्वार से हताश निराश हमारी आराध्या ही तो जा रही है।अखबारों में फोटो छपे ।प्रायोजित अभिनंदन हुए।चाय पार्टी हुई।जैसे राजनीतिक इफ्तार पार्टियाँ होती हैं ।सब कुछ था बस साहित्य नहीं था।वह किसी छप्पर के नीचे ,कहीं टूटी दीवार के सहारे, दाल रोटी की जद्दोजहद में रचा जा रहा था,कहीं बस की लाइन में लगी बच्चों का पेट भरने की कवायद मे लगी कार्यशील नारी साहित्य रच रही थी और कहीं हल की मूंठ थामे किसान के होंठों पर सृष्टि का सबसे सुंदर गीत मचल रहा था।जब कभी सही मूल्यांकन होगा तो ये सब सामने आएंगे।
अठारह
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आजकल अभिनंदन समारोहों की बाढ आई हुई है। समाचार पत्रों के लोकल पेज भरे रहते है।आज जूता विक्रेता संघ ने कवि जी को जूता शिरोमणि की उपाधि दी है। शिष्यों में हाहाकार मच गया।अप्रतिम उपलब्धि।वाह गुरूजी वाह।अब चेले अभिनंदन कर रहे हैं।स्थान गुरु जी का घर। गुरु पत्नी मरी जा रही हैं।मरे नासपीटे मुफत का चाय नाश्ता तोडने आ गये।
यह स्थिति कमोबेश रोज ही देखने को मिलती है।आज कवि होना सबसे सरल है।लंबी जुल्फें रखा लो।एक स्मार्ट फोन हो।डायरी तो पढे लिखों की शोभा थी।अब उसकी आवश्यकता नहीं।गूगल पर सर्च किया।चार छः कवियों की एक एक लाइन जोड ली। कविता तैयार।अब बाप दादों में कोई कवि शायर हो मरा ,तो इतनी मशक्कत की भी जरूरत नहीं।पान खाकर बेशर्मी से टूट पड़ो।दो कुरते पजामे हों ,एक अदद सदरी हो, किसके बाप की मजाल आपको कवि, महाकवि ,आशुकवि, दिलजला कवि,हास्य व्यंग्य कवि, फटीचर कवि(कुछ कवि भेस बना कर जाते हैं कि जनता देख कर ही हंसने लगे), पीढ़ियों का कवि,चारण कवि,भाट कवि,देवर कवि, मास्टर कवि,डाक्टर कवि, फाइनेंसर कवि, आशिक कवि,लुच्चा कवि,टुच्चा कवि,बच्चा कवि,चच्चा कवि,काग भुशुन्डी कवि आदि में से कोई न कोई न मान ले।
कवयित्री बनना और भी सरल है।बस शक्ल सूरत अच्छी हो।ब्यूटी पार्लर वाले बाकी काम संभाल लेंगे। थोड़ा गला अच्छा हो तो सोने में सुहागा। हमारे मोहल्ले के भाजी वाले कटहल महामंडलेश्वर की उपाधि देना चाहते हैं। मैंने उन्हें कहा कोई साहित्यिक नाम रख लो।बोले-गुरू जी धंधा न खोटी करो।कटहल का सीजन है।परचार जरुरी है।अब उन महानुभाव की तलाश है ,जिसे कटहलों की माला पहनाई जा सके।वैसे तो एक ढूढो हजार मिलते हैं ,पर कुछ तो क्वालीफिकेशन देखनी पड़ेगी।भाजी वाले कहते हैं कोई डिग्री वाला न बुला देना। पिछली बार उसका दीर्घ कालीन भाषण सुन कर कलुआ की अम्मा को मिर्गी का दौरा पड गया था।बडा धर्म संकट है भाइयों। मैं बेचारा समीक्षक क्या करूं?
उन्नीस
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कहते हैं असफल कवि संपादक हो जाता है और बहुत सारे कवि लेखकों का भाग्य विधाता बनने का गौरव प्राप्त करता है।कुछ संपादक तो इतने महान हैं कि दो अक्षर एक भाषा में साबुत नहीं लिख पाते।वे न हिन्दी, न अंग्रेजी,न अवधी और न भोजपुरी-किसी में चार पंक्तियाँ शुद्ध नहीं लिख पाते।मुगालता उन्हें देवगुरु वृहस्पति होने का है।उन्होंने जो लिखा उसकी रेड पीट दी।लेकिन चेले तो बिचारे मासूम हैं ।वाह गुरु जी वाह का दुंदुभी नाद करते हुए वे आकाश गुंजा देते हैं ।अब जैसे गुरु जी तैसे चेला।जस पसु तस बंधना।गुरु जी फ्री में मिली किताबों से चुनचुन कर अश्लील और कामोत्तेजक प्रसंग सुनाते हैं ।चेले अलौकिक सुख की प्राप्ति करते हुए इसे लोक भाषा की सेवा घोषित करते हैं ।किसी ने गलती से कह दिया कि भइया यू का अंडबंड लिखत हौ? बस सिगरी बर्रै टूट पडीं।अब क्या कहने।संपादक जी ने भांग का गोला चढ़ाया और नयन मूंद कर साहित्य की रंभा,मेनका और उर्वशी को क्रांतिकारी साहित्य का प्रणेता घोषित कर दिया ।जो उनका झोला टांग कर चलते थे,वे युगांतरकारी कवि हुए,जो जूता पालिश करते थे वे समीक्षक हुए।जो पान पुडिया की व्यवस्था करते थे,वे अंतर्राष्ट्रीय साहित्य कार।अब साहित्य का तो होना ही था बंटाधार।
बीस
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साहित्य की दुनिया जितनी सरल दिखाई देती है,उतनी है नहीं ।ठीक है कि इसमें निराला जैसे लोग हुए,पर अधिकांश व्यावसायिक साहित्यकार निराला और कबीर का फक्कडपन तो दूर रहा ,उनकी सोच को छू भी नहीं नहीं पाते।अधिकांशतः धन और महत्व की लालसा में राजनीतिक गलियारों के चक्कर काटते रहते हैं । काश पद्मश्री मिल जाए।साहित्य अकादमी की धूल जीभ से चाट डाली।कोई टुटहा ही एवार्ड मिल जाए।साहित्य संस्थानों के बाबुओं चपरासियों की चप्पलें तक उठा डालीं।महत्वपूर्ण महिलाओं के चक्कर काटे।जिन्हें देखकर उबकाई आ जाए ,उन्हें साहित्य की मेनका,रंभा और उर्वशी करार दिया ।
कुछ साहित्यिक धंधेबाज तो पिछली सरकारों में उनका झंडा, बैनर और पोस्टर लिख लिख कर इतने ताकतवर हो गये थे कि संस्थानों के कार्यक्रम तय करने लगे थे।चमडे का सिक्का खूब चला मित्रों ।हमने एक बार एक कार्यक्रम किया ।हमने उनको आमंत्रित किया ।उनका कहना था -हम फाइव स्टार होटल में ही रुकते हैं ।हमारे स्टैंडर्ड के हिसाब से व्यवस्था करो।अब सीतापुर में कोई फाइव स्टार होटल तो है नहीं ।तो उनकी साहित्यिक सेवा फाइव स्टार होटल की मुखापेक्षी थी।
मुझे स्मरण हुआ वर्षों पहले एक साहित्यिक रंभा लेकर वे हमारे गुरु जी के यहाँ पधारे थे।गुरु जी ने महिला समझ कर उन्हें हमारे यहां टिका दिया ।साहित्यकार महोदय ने रात भर गुरु जी का आतिथ्य ग्रहण किया और इतने नाराज हुए कि गुरु जी का साहित्यिक बायकाट शुरु करा दिया ।हमारे सीधे सादे गुरु जी हमसे यही पूछते रहे कि भइया हमारा अपराध क्या है?हम क्या कहते कि साहित्यिक विषकन्या आपको डस गयी।
इक्कीस
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आज हम उन महाकवियों पर अपना ध्यान
केंद्रित करेंगे,जिन्होंने मात्र दो चार कविताएँ लिखकर गुटबाजी
की सहायता से स्वयं अपना महाभिषेक करा लिया है।कवि सम्मेलनों
में इनके दो चार चेले चपाटे पहले से उपस्थित रहते हैं और
वाह वाह के नारों से पांडाल गुंजा देते हैं ।इनकी सभी कविताएँ
जनता को कंठस्थ हो जाती हैं और तीसरी कविता सुनाने की फरमाइश
सुन कर ये कोई अश्लील चुटकुला सुना कर ध्यान दूसरी ओर मोड़ देते
हैं ।कुछ शायर नुमा कवि जनता के अल्प ज्ञान का फायदा उठा कर पुराने
शायरों का कलाम सुनाया करते हैं ।अगर इनके बीच बदकिस्मती से कोई
सच्चा कवि पहुँच जाए तो ये कांव कांव करके पहले तो उसे भगाने का
प्रयास करते हैं।अगर वह न भागा और जम गया,तो इनके गैंग के मुख्य व्यवस्थापक
उसको अपने चंगुल में लेने का प्रयास करते हैं।इसमें भी असफल रहने पर अपनी मंडली के
लडकों से (हर ऐसी मंडली कुछ ऐसे मूर्ख लडके पाले रहती है ,जिनका काव्य ज्ञान
तो शून्य होता है पर शरीर और गले से मजबूत होते हैं, ताकि यदि
अश्लील चुटकुले सुन कर कहीं मार पीट की नौबत आ जाए तो ये
मुकाबला कर सकें और विरोधी अच्छे कवियों की हूटिंग कर
उन्हें बदनाम कर सकें)उन पर हूटिंग करा देते हैं ।सुरा और
सुंदरियों के आभा मंडल से ये लोकप्रिय होने का भ्रम जाल रचते
हैं ।आम आदमी इसमें छला जाता है।
बाईस
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बहुत दुख होता है जब मैं देखता हूँ कि जो अच्छे कवि हैं, लेखक हैं, उनकी भरपूर उपेक्षा होती है और धंधे बाज हर जगह काबिज नजर आते हैं ।वीरेन्द्र तिवारी जैसा समर्थ गीतकार पूछा भी नहीं जाता और बीड़ी पीकर तुकबंदी करने वाले साहित्य के मसीहा बना दिए जाते हैं ।मस्जिद के नाम पर चंदा मांगने वाले गीतकार कहे जाएँ और समर्थ रचनाकार उपेक्षा के अवसाद में मदिरा में डूबकर खत्म हो जाए।क्या साहित्य में भी जातिवाद है?क्या ब्राह्मण साहित्यकार जानबूझकर कर हाशिए पर कर दिए जाते हैं? क्या साहित्यिक गलियारों में भी एक कश्मीर है?
क्या कारण है कि रमाकान्त पान्डे अकेले जीवन भर उपेक्षित रहे?क्या कारण है दिनेश दादा का नाम तक लोग नहीं लेते?जिन्होंने अवधी के लिए जीवन खपा दिया डा•मधुप,उन्हीं के नक्शे कदम पर उनकी शिष्या डा•ज्ञानवती अवधी के धंधेबाजों की आंख का कांटा हैं?
सीतापुर की उर्वर साहित्यिक भूमि इन साहित्यिक नक्षत्रों से सुशोभित है,पर साहित्यिक गलियारों में इनकी चर्चा सिर्फ हसद से होती है।अन्यथा क्या कारण है कि मधुप जी की तुलसी पीठ में गोमातीरे पर एक कार्यक्रम तक न हो सका,वह गोमातीरे जो डा•मधुप का सपना था,जिसके प्रकाशन में ,जिसके लेखन में उनकी महती प्रेरणा थी।उसके महामंडलेश्वर गोमातीरे को जायसी पुरस्कार की सार्वजनिक बधाई भी न दे सके?ऐसे संजोएगे आप अवधी की विरासत?
माया प्रकाश अवस्थी और वीरेन्द्र तिवारी को श्रद्धांजलि देते हुए मैं देश की मुर्दा संस्थाओं से कहना चाहता हूँ कि अपनी धरोहरों की इज्जत करो।कब तक नकली लोगों से घिरे रहोगे?
तेईस
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साहित्यिक दुनिया एक अलग तरह की
दुनिया है, मित्रों! कुछ कुछ ‘मुझे चांद चाहिए’ जैसी। यह चांद की चाहत हमें एक
अलग दुनिया में ले जाती है- सपनों की दुनिया में । पर हकीकत तो मखमली नहीं होती। पथरीली
दुनिया के कंकड इस चाहत के रेशमी तलवों को घायल कर देते हैं।
सपने और सत्य -दोनों में बहुत सूक्ष्म सी डोर है, जो इनको विभाजित करती है। कवि जब कविता की सुनहरी दुनिया से बाहर आता है, तो वह देखता है यह साहित्यिक दुनिया जलन और स्पर्धा के शिकारियों से भरी है। कोई उसे सहारा नहीं देता। वरिष्ठ उसे हिकारत से देखते हैं, समानधर्मा उसे जलन से देखते हैं -आ गया एक और जगह का दावेदार ।अब यहाँ आरंभ होता है धंधे बाजों का खेल।वे कमतर प्रतिभा वालों का गैंग तैयार करते हैं ।उनसे पैसा वसूलते हैं ।उन्हें कार्यक्रम दिलाते हैं ।आपको आश्चर्य होता है कि रेडियो और दूरदर्शन पर वही आवाजें और चेहरे रिपीट होते हैं ।बुरी मुद्रा अच्छी मुद्रा को चलन से बाहर कर देती है।साहित्यिक संस्थाएँ इसी मकडजाल में फंसी हैं ।यही चांद के चेहरे के बदनुमा दाग हैं, मित्रों! पर हमें तो चांद चाहिए ।
सपने और सत्य -दोनों में बहुत सूक्ष्म सी डोर है, जो इनको विभाजित करती है। कवि जब कविता की सुनहरी दुनिया से बाहर आता है, तो वह देखता है यह साहित्यिक दुनिया जलन और स्पर्धा के शिकारियों से भरी है। कोई उसे सहारा नहीं देता। वरिष्ठ उसे हिकारत से देखते हैं, समानधर्मा उसे जलन से देखते हैं -आ गया एक और जगह का दावेदार ।अब यहाँ आरंभ होता है धंधे बाजों का खेल।वे कमतर प्रतिभा वालों का गैंग तैयार करते हैं ।उनसे पैसा वसूलते हैं ।उन्हें कार्यक्रम दिलाते हैं ।आपको आश्चर्य होता है कि रेडियो और दूरदर्शन पर वही आवाजें और चेहरे रिपीट होते हैं ।बुरी मुद्रा अच्छी मुद्रा को चलन से बाहर कर देती है।साहित्यिक संस्थाएँ इसी मकडजाल में फंसी हैं ।यही चांद के चेहरे के बदनुमा दाग हैं, मित्रों! पर हमें तो चांद चाहिए ।
चौबीस
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साहित्यिक पंडानामा से कुछ लोग बेतरह तिलमिला रहे हैं और उनकी तिलमिलाहट कई तरह से सामने आ रही है।मित्रों! न मेरा किसी से राग है और न द्वेष ।मैं तो साहित्य की बेहतरी के लिए और साहित्यिक प्रतिभाओं के समुचित विकास और प्रोत्साहन के लिए लिखता हूँ ।कहते हैं जब व्यवस्था बिगड़ जाती है तो प्रकृति स्वयं उसकी व्यवस्था करती है।यही हाल साहित्य का है।अनादिकाल से प्रवृतियां बदलती रहीं ।वीरगाथा काल से नई कविता तक परिवर्तन होते रहे हैं ।साहित्य तो समाज का दर्पण है,दर्शन है।जब समाज बेपटरी है ,तो साहित्य कहां बच सकता है।धंधे नये,कंधे नये,बंदे नये।कुछ संस्थाध्यक्ष प्रकाशक बने बैठे हैं ।मूर्ख लोगों को फंसा कर मोटी रकम लेकर किताबें छापने का धंधा करते हैं ।नये साहित्यकारों के सबसे बडे शोषक यही हैं ।कुछ तो लोकार्पण से लेकर सम्मान और पुरस्कार तक का ठेका लेते रहे हैं ,पर योगी सरकार में हर ठेकेदारी फेल है।
पचीस
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मित्रों, साहित्यिक पंडानामा बहुत ध्यान से पढा जा रहा है,हृदय से आभारी हूँ ।जो टिप्पणी कर रहे हैं, उनका धन्यवाद ।जो लाइक कर रहे हैं, उनका भी आभार ।जो कुछ असहमत से नजर आते हैं, उनका भी आभार ।कुछ दोनों नावों की सवारी कर रहे हैं, उनका भी आभार ।कुछ सहमत हैं पर इस डर से वाल पर नहीं आते कि साहित्यिक डान उनका हुक्कापानी न बंद कर दें,उनका भी आभार ।कुछ सामने नहीं आते ,फोन पर सहमत हैं ,उनका भी आभार ।कुछ सीना ठोंक कर सामने आते हैं और समर्थन करते हैं, उनका तो प्रशंसक हूँ ।यही तो कबीर के असली वंशज हैं ।आप पूछते हैं कुछ समाधान भी बताओ।तो यही है समाधान ।जिसदिन साहित्यकार परमुखापेक्षी न रह कर सत्य का सम्मान करेगा,सत्य का संधान करेगा,सिर्फ अपने बापदादाओं का उत्तराधिकारी न रह कर देश की साहित्यिक विरासत का उत्तराधिकारी स्वयं को समझेगा,स्व से पर की ओर बढ़ेगा,उसदिन बहुत सी समस्याओं का स्वतः निराकरण हो जाएगा ।साहित्यिक धंधेबाज स्वतः कीचड़ की तरह छंट जाएंगे और साहित्य का सहस्र पंखुडी वाला कमल खिल उठेगा ।
छब्बीस
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बन जाता सिद्धांत प्रथम -फिर पुष्टि
हुआ करती है,
बुद्धि उसी ऋण को सबसे ले सदा भरा करती है।
मन जब निश्चित सा कर लेता कोई मत है अपना,
बुद्धि दैव बल से प्रमाण का सतत निरखता सपना।
××××××××××××××××××××××××××××××××××
सदा समर्थन करती उसकी तर्कशास्त्र की पीढी,
ठीक यही है सत्य यही है उन्नति सुख की सीढ़ी ।
और सत्य! वह एक शब्द तू कितना गहन हुआ है?
मेधा के क्रीड़ा -पंजर का पाला हुआ सुआ है।
कामायनी की ये पंक्तियाँ पढ़कर मैं चिंतन
करने लगा कि नई पीढ़ी और पुरानी पीढ़ी के साहित्यकारों में इतना द्वन्द्व क्यों है? अगले ने कुछ कहा और पिछला आस्तीन समेटने लगा। यह कल का छोकरा मेरी सत्ता पर उंगली उठा रहा है।जितनी इसकी उम्र है,उतने मंगलवार और एकादशी मैं उपवास रख चुका हूँ । युद्ध की ये मुद्राएं साहित्य से दूर अखाड़े का हाहाकारी दंगल हो जाती हैं । आज अधिकतर पत्रिकाएँ पारिवारिक महोत्सव हैं। मुंह देख देखकर रचनाएँ छपती हैं । आज वे संपादक रहे नहीं जो रागद्वेष से परे हों। वे तो विरोध का स्वर भी सुनना नहीं चाहते । संवाद तो दूर की बात है। बिना वैचारिक आदान प्रदान के साहित्यिक विकास की कल्पना भी नहीं की जा सकती । यानी साहित्य की बेहतरी के लिए सहिष्णुता अनिवार्य है।
बुद्धि उसी ऋण को सबसे ले सदा भरा करती है।
मन जब निश्चित सा कर लेता कोई मत है अपना,
बुद्धि दैव बल से प्रमाण का सतत निरखता सपना।
××××××××××××××××××××××××××××××××××
सदा समर्थन करती उसकी तर्कशास्त्र की पीढी,
ठीक यही है सत्य यही है उन्नति सुख की सीढ़ी ।
और सत्य! वह एक शब्द तू कितना गहन हुआ है?
मेधा के क्रीड़ा -पंजर का पाला हुआ सुआ है।
कामायनी की ये पंक्तियाँ पढ़कर मैं चिंतन
करने लगा कि नई पीढ़ी और पुरानी पीढ़ी के साहित्यकारों में इतना द्वन्द्व क्यों है? अगले ने कुछ कहा और पिछला आस्तीन समेटने लगा। यह कल का छोकरा मेरी सत्ता पर उंगली उठा रहा है।जितनी इसकी उम्र है,उतने मंगलवार और एकादशी मैं उपवास रख चुका हूँ । युद्ध की ये मुद्राएं साहित्य से दूर अखाड़े का हाहाकारी दंगल हो जाती हैं । आज अधिकतर पत्रिकाएँ पारिवारिक महोत्सव हैं। मुंह देख देखकर रचनाएँ छपती हैं । आज वे संपादक रहे नहीं जो रागद्वेष से परे हों। वे तो विरोध का स्वर भी सुनना नहीं चाहते । संवाद तो दूर की बात है। बिना वैचारिक आदान प्रदान के साहित्यिक विकास की कल्पना भी नहीं की जा सकती । यानी साहित्य की बेहतरी के लिए सहिष्णुता अनिवार्य है।
सत्ताईस
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इस श्रृंखला की सफलता इसी से जाहिर होती है कि फेसबुक पर इस नाम से लोगों ने लिखना शुरु कर दिया है।स्वागत है मित्रों! मैं यही तो चाहता हूँ कि लोग स्वस्थ चिन्तन करें, मनन करें और अनुकरण करें ।हमारे देश में एक स्वस्थ वातावरण बने और साहित्य के क्षेत्र में राग -द्वेष के परे सकारात्मक माहौल में साहित्यकार कालजयी साहित्य का सृजन करे।
आज समीक्षा का क्षेत्र लेते हैं मित्रों! आप सब बहुज्ञ हैं ।बताने की आवश्यकता नहीं कि समीक्षा का तात्पर्य है सम्यक निरीक्षण कर गुणदोष के आधार पर किसी कृति का यथार्थ मूल्यांकन ।परंतु ये जो धंधेबाज बैठे हैं, वे मिलने वाले लाभ के आधार पर उसका मूल्यांकन करते हैं ।फलतः दोयम दर्जे की रचनाएँ बहु प्रशंसित होती हैं और श्रेष्ठ कृतियां हाशिए पर चली जाती हैं ।एक महान संपादक जले भुने बैठे थे ।एक रचना की अच्छी समीक्षा एक अखबार में छपी थी।किटकिटा कर बोले-हमसे कह रहा था दो कौडी की पुस्तक है।खुद इतनी तारीफ कर रहा है।मैंने हंसकर कहा -आपके जैसे सब कहां?फिर उसी कृति पर पुरस्कार मिल गया।अब जो उसे ऐसी वैसी कृति समझ रहे थे,उसे खोजने लगे।
कुछ समीक्षकों का तो आलम यह है कि वे पन्ने गिन कर वजन कर समीक्षा करते हैं ।अगर 250ग्राम की पुस्तक है तो उत्तम है, आधा किलो है तो श्रेष्ठ है और अगर एक किलो का साहित्य लिख मारा,तो महाकवि कालिदास से छटांक भर कम नहीं ।अब आप चिल्लाते रहिए किन्तु ये वाणभट्ट की कलयुगी संतानें कुछ सुनने वाली नहीं। अगर समीक्षा किसी महिला की पुस्तक की हो रही हो तो ये कीड़े ढूँढने मे छिपकिली को मात कर देते हैं ।सिर्फ हिन्दी लिखी तो कुछ और आता जाता नहीं। अगर अंग्रेजी उर्दू और संस्कृत भी है ,तो ज्ञान का प्रदर्शन है।अगर बोल्ड लिखे तो भारतीय संस्कृति रसातल की ओर चल पडी और यदि साधारण लिखे तो बहन जी छाप है।अगर किसी लाभप्रद पोस्ट पर हो तो साहित्य की लक्ष्मी,दुर्गाऔर सरस सरस्वती वही है। कुछ तो इतने भीषण विद्वान हैं कि एको$हं द्वितीयोनास्ति। वे तो जीवनकाल में किसी पर कुछ लिखने का अवकाश ही नहीं पाते।कोई इस लायक ही नहीं। साहित्य के बंटाधारकों में इनका सराहनीय योगदान है।
इस श्रृंखला की सफलता इसी से जाहिर होती है कि फेसबुक पर इस नाम से लोगों ने लिखना शुरु कर दिया है।स्वागत है मित्रों! मैं यही तो चाहता हूँ कि लोग स्वस्थ चिन्तन करें, मनन करें और अनुकरण करें ।हमारे देश में एक स्वस्थ वातावरण बने और साहित्य के क्षेत्र में राग -द्वेष के परे सकारात्मक माहौल में साहित्यकार कालजयी साहित्य का सृजन करे।
आज समीक्षा का क्षेत्र लेते हैं मित्रों! आप सब बहुज्ञ हैं ।बताने की आवश्यकता नहीं कि समीक्षा का तात्पर्य है सम्यक निरीक्षण कर गुणदोष के आधार पर किसी कृति का यथार्थ मूल्यांकन ।परंतु ये जो धंधेबाज बैठे हैं, वे मिलने वाले लाभ के आधार पर उसका मूल्यांकन करते हैं ।फलतः दोयम दर्जे की रचनाएँ बहु प्रशंसित होती हैं और श्रेष्ठ कृतियां हाशिए पर चली जाती हैं ।एक महान संपादक जले भुने बैठे थे ।एक रचना की अच्छी समीक्षा एक अखबार में छपी थी।किटकिटा कर बोले-हमसे कह रहा था दो कौडी की पुस्तक है।खुद इतनी तारीफ कर रहा है।मैंने हंसकर कहा -आपके जैसे सब कहां?फिर उसी कृति पर पुरस्कार मिल गया।अब जो उसे ऐसी वैसी कृति समझ रहे थे,उसे खोजने लगे।
कुछ समीक्षकों का तो आलम यह है कि वे पन्ने गिन कर वजन कर समीक्षा करते हैं ।अगर 250ग्राम की पुस्तक है तो उत्तम है, आधा किलो है तो श्रेष्ठ है और अगर एक किलो का साहित्य लिख मारा,तो महाकवि कालिदास से छटांक भर कम नहीं ।अब आप चिल्लाते रहिए किन्तु ये वाणभट्ट की कलयुगी संतानें कुछ सुनने वाली नहीं। अगर समीक्षा किसी महिला की पुस्तक की हो रही हो तो ये कीड़े ढूँढने मे छिपकिली को मात कर देते हैं ।सिर्फ हिन्दी लिखी तो कुछ और आता जाता नहीं। अगर अंग्रेजी उर्दू और संस्कृत भी है ,तो ज्ञान का प्रदर्शन है।अगर बोल्ड लिखे तो भारतीय संस्कृति रसातल की ओर चल पडी और यदि साधारण लिखे तो बहन जी छाप है।अगर किसी लाभप्रद पोस्ट पर हो तो साहित्य की लक्ष्मी,दुर्गाऔर सरस सरस्वती वही है। कुछ तो इतने भीषण विद्वान हैं कि एको$हं द्वितीयोनास्ति। वे तो जीवनकाल में किसी पर कुछ लिखने का अवकाश ही नहीं पाते।कोई इस लायक ही नहीं। साहित्य के बंटाधारकों में इनका सराहनीय योगदान है।
169, प्रतिभा निवास, रोटी गोदाम, सीतापुर (उ.प्र.) 261001
मो. 9450379238
हार्दिक बधाई। एक साथ पढ़ने का सौभाग्य प्राप्त हुआ।
ReplyDeleteआपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन आपातकाल की याद में ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है.... आपके सादर संज्ञान की प्रतीक्षा रहेगी..... आभार...
ReplyDeleteसाहित्य की दुनिया बहुत विशाल है, यहाँ साहित्यकार भी हैं तो समीक्षक भी हैं और आज साहित्यकार को धकेलकर समीक्षक साहित्यकार बन बैठे हैं। लेकिन बस लिखते रहो, शब्द कभी बेकार नहीं जाते। रचना लम्बी हो गयी है, इसलिये पूरी नहीं पढ़ी गयी।
ReplyDelete